सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the 46 chapter to the 50 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्चत्‍वारिश अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्‍यु के द्वारा लक्ष्मण तथा क्राथपुत्र का वध और सेनासहित छ: महारथियों का पलायन”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;– सूत! जैसा कि तुम बता रहे हो, अकेले महामना अभिमन्‍यु का बहुत से योद्धाओं के साथ अत्‍यन्‍त भयंकर संग्राम हुआ और उसमें विजय भी उसी की हुई– सुभद्राकुमार का यह पराक्रम आश्‍चर्यजनक है। उस पर सहसा विश्‍वास नही होता परंतु जिन लोगों का धर्म ही आश्रय है, उनके लिये यह कोई अत्‍यन्‍त अद्‌भुत बात नहीं है। संजय! जब दुर्योधन भाग गया और सैकड़ों राजकुमार मारे गये, उस समय मेरे पुत्रों ने सुभद्राकुमार का सामना करने के लिये क्‍या उपाय किया ? संजय ने कहा–महाराज! आपके सभी सैनिकों के मुंह सूख गये थे, ऑखे भय से चंचल हो रही थी, सारे अंग पसीने-पसीने हो रहे थे और रोंगटे खड़े हो गये थे। वे भागने में ही उत्‍साह दिखा रहे थे। शत्रुओं को जीतने का उत्‍साह उनके मन में तनिक भी नहीं था। वे युद्ध में मारे गये भाइयों, पितरों, पुत्रों, सुहृदों, सम्‍बन्धियों तथा बन्‍धु-बान्‍धवों को छोड़-छोड़कर अपने घोड़े और हाथियों को उतावली के साथ हांकते हुए भाग रहे थे। राजन्! उन सबको भागते देख द्रोणाचार्य, अश्‍वत्‍थामा, बृहदल, कृपाचार्य, दुर्योधन, कर्ण, कृतवर्मा और शकुनि ये सब अत्‍यन्‍त क्रोध में भरकर अपराजित वीर अभिमन्‍यु पर टूट पडे; परंतु आपके उस पौत्र अभिमन्‍यु ने उन सबको प्राय: युद्ध से भगा दिया।

    उस समय सुख में पला हुआ, धनुर्वेद का ज्ञाता, एकमात्र महातेजस्‍वी लक्ष्‍मण अपने बालस्‍वभाव तथा अभिमान के कारण निर्भय हो अभिमन्‍यु के सामने आ गया। पुत्र की रक्षा चाहने वाला पिता दुर्योधन भी उसी के साथ-साथ लौट पड़ा। फिर दुर्योधन के पीछे दूसरे महारथी लौट आये। जैसे बादल किसी पर्वत को अपने जल की धाराओं से सींचते हैं, उसी प्रकार वे महारथी अभिमन्‍यु पर बाणों की वर्षा करने लगे। जैसे चारों ओर से बहने वाली हवा (चौवाई) बादलों को उड़ा देती है, उसी प्रकार अकेले अभिमन्‍यु ने उन सबको मथ डाला। राजन्! आपका प्रियदर्शन पौत्र लक्ष्‍मण बड़ा दुर्धर्ष वीर था। वह धनुष उठाये अपने पिता के ही पास खड़ा था। अत्‍यन्‍त सुख में पला हुआ वह वीर कुबेर के पुत्र के समान जान पड़ता था। जैसे मतवाला हाथी किसी मदोन्‍मक्‍त गजराज से भिड़ जाय, उसी प्रकार अर्जुनकुमार ने लक्ष्‍मण पर आक्रमण किया। लक्ष्‍मण से भिड़ने पर उसके द्वारा शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार की भुजाओं और छाती में अत्‍यन्‍त तीखे बाणों द्वारा प्रहार किया। महाराज! उस प्रहार से लाठी की चोट खाये हुए सर्प के समान अत्‍यन्‍त क्रोध में भरे हुए आपके पौत्र अभिमन्‍यु ने आपके दूसरे पौत्र लक्ष्‍मण से कहा। लक्ष्‍मण! इस संसार को अच्‍छी तरह देख लो। अब शीघ्र ही परलोक की यात्रा करोगे। इन बान्‍धव-जनों के देखते-देखते मैं तुम्‍हें यमलोक पहॅुचाये देता हूँ। ऐसा कहकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबाहु सुभद्राकुमार केचुल से निकले हुए सर्प के समान एक भल्‍ल को तरकस से निकाला। अभिमन्‍यु के हाथों से छूटे हुए उस भल्‍ल ने लक्ष्‍मण के देखने में सुन्‍दर, सुघड़ नासिका, मनोहर भौंह, सुन्‍दर के शान्‍तभाग और रुचिर कुण्‍डलों से युक्‍त मस्‍तक को धड़ से अलग कर दिया। संजय कहते हैं- राजन! अभिमन्यु द्वारा लक्ष्‍मण को मारा गया देख सब लोग जोर-जोर से हाहाकार करने लगे। अपने प्‍यारे पुत्र के मारे जाने पर क्षत्रिय शिरोमणि दुर्योधन कुपित हो उठा और समस्‍त क्षत्रियों से बोला – अहो! इस अभिमन्‍यु को मार डालो। तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण,अश्‍वत्‍थामा, बृहदल और ह्रदिकपुत्र कृतवर्मा – इन छ: महारथियों ने अभिमन्‍यु को घेर लिया। यह देख अर्जुनकुमार ने अपने पैने बाणों द्वारा उन सबको घायल करके भगा दिया और क्रोध में भरकर बड़े वेग से जयद्रथ की विशाल सेना पर धावा किया।

     उस समय कलिग देशीय सैनिक, निषादगण तथा पराक्रमी क्राथपुत्र – इन सबने कवच धारण करके गजसेना के द्वारा अभिमन्‍यु का रास्‍ता रोक दिया। प्रजानाथ! तब वहाँ अत्‍यन्‍त निकट से घोर युद्ध आरम्‍भ हो गया। अर्जुनकुमार ने पैने बाणों द्वारा उस धृष्‍ट गजसेना को उसी प्रकार नष्‍ट कर दिया, जैसे सदागति वायु आकाश में सैकड़ों मेघखण्‍डों को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है। तदनन्‍तर क्राथ ने अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु पर बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी। इतने ही में द्रोण आदि दूसरे महारथी भी पुन: लौट आये। उन सबने अपने उत्‍तम अस्त्रों का प्रयोग करते हुए सुभद्राकुमार पर आक्रमण किया। अभिमन्‍यु न अपने बाणों द्वारा उन सबका निवारण करके क्राथपुत्र को अधिक पीड़ा दी। फिर उसने असंख्‍य बाण समूहों द्वारा क्राथपुत्र को मार डालने की इच्‍छा से जल्‍दी करते हुए उसकी धनुष बाणों और केयूरसहित दोनों भुजाओं, मुकुट मण्डित मस्‍तक, छत्र, ध्‍वज और सारथि सहित रथ तथा घोड़ों को भी मार गिराया। कुल, शील, शास्‍त्रज्ञान, बल, कीर्ति, तथा अस्‍त्र-बल से सम्‍पन्‍न उस वीर क्राथपुत्र के मारे जाने पर आपकी सेनाके प्राय: सभी शूरवीर सैनिक युद्ध छोड़कर भाग गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में लक्ष्‍मण वध विषयक छियालीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ)

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द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

सैतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्‍यु का पराक्रम छ: महारथियों के साथ घोर युद्ध और उसके द्वारा वृन्‍दारक तथा दश हजार अन्‍य राजाओं के सहित कोसल नरेश बृहद्बल का वध”

  धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! कभी पराजित न होने वाला तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाला तरुण, सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु जब इस प्रकार जयद्रथ की सेना में प्रवेश करके अपने कुल के अनुरूप पराक्रम प्रकट कर रहा था और तीन वर्ष की अवस्‍था वाले अच्‍छी जाति के बलवान घोड़ों द्वारा मानों आकाश में तैरता हुआ आक्रमण करता था, उस समय किन शूरवीरों ने उसे रोका था? 

   संजय ने कहा ;– राजन! पाण्‍डुकुलनन्‍दन अभिमन्‍यु ने उस सेना में प्रविष्‍ट होकर आपके सभी राजाओं को अपने तीखे बाणों द्वारा युद्ध से विमुख कर दिया। तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्‍थामा, बृहद्बल और हृदिकपुत्र कृतवर्मा इन छ: महारथियों ने उसे चारों ओर-से घेर लिया। महाराज! सिंधुराज जयद्रथ पर बहुत बड़ा भार आया देख आपकी सेना ने राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। 

तथा कुछ अन्‍य महाबली योद्धाओं ने अपने चार हाथ के धनुष खींचते हुए वहाँ सुभद्राकुमार वीर अभिमन्‍यु पर बाणरूपी जल की वर्षा प्रारम्‍भ कर दी। परंतु शत्रुवीरों का संहार करने वाले अभिमन्‍यु ने सम्‍पूर्ण विद्याओं में प्रवीण उन समस्‍त महाधनुर्धरों को रणक्षेत्र में अपने बाणों द्वारा स्‍तब्‍ध कर दिया। अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने द्रोण को पचास, बृहद्बल को बीस, कृतवर्मा को अस्‍सी, कृपाचार्य को साठ और अश्वत्‍थामा को कान तक खींचकर छोड़े हुए स्‍वर्णमय पंखयुक्‍त, महावेगशाली दस बाणों द्वारा घायल कर दिया। अर्जुनकुमार ने शत्रुओं के मध्‍य में खड़े हुए कर्ण के कान में पानीदार पैने और उत्‍तम बाण द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। 

    कृपाचार्य के चारों घोड़ों तथा उनके दो पार्श्‍वरक्षकों को धराशायी करके उनकी छाती में दस बाणों द्वारा प्रहार किया। तदनन्‍तर बलवान अभिमन्‍यु ने कुरुकुल के कीर्ति बढ़ाने वाले वीर वृन्दारक को आपके वीर पुत्रों के देखते–देखते मार डाला। तब शत्रुदल के प्रधान-प्रधान वीरों का बेखटके वध करते हुए अभिमन्‍यु को अश्वत्‍थामा ने पच्चीस बाण मारे। आर्य! अर्जुनकुमार भी आपके पुत्रों के देखते–देखते तुरंत ही अश्वत्‍थामा को पैने बाणों द्वारा बींध डाला। तब द्रोणपुत्र ने तीखी धार वाले तेज और भयंकर साठ बाणों द्वारा अभिमन्‍यु को बींध डाला; परंतु बींधकर भी वह मैनाक पर्वत के समान स्‍थित अभिमन्‍यु को क‍म्पित न कर सका। 

    महातेजस्‍वी बलवान अभिमन्‍यु ने सुवर्णमय पंख से युक्‍त तिहत्‍तर बाणों द्वारा अपने अपकारी अश्वत्‍थामा को पुन: घायल कर दिया। तब अपने पुत्र के प्रति स्‍नेह रखने वाले द्रोणाचार्य ने अभिमन्‍यु को सौ बाण मारे। साथ ही अश्वत्‍थामा ने भी पिता की रक्षा करते हुए रणक्षेत्र में उस पर आठ बाण चलाये। तत्‍पश्चात कर्ण ने बाईस, कृतवर्मा ने बीस, बृहद्बल ने पचास तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने अभिमन्‍यु को दस भल्ल मारे। उन सबके चलाये हुए तीखे बाणों द्वारा सब ओर-से पीड़ित हुए सुभद्राकुमार ने उन सभी को दस-दस बाणों से घायल कर दिया। तत्‍पश्चात कोसलनरेश बृहद्बल ने एक बाण द्वारा अभिमन्‍यु की छाती में चोट पहुँचायी। यह देख अभिमन्‍यु ने उनके चारों घोड़ों तथा ध्वज, धनुष एवं सारथि को भी पृथ्‍वी पर मार गिराया। रथहीन होने पर कोसलनरेश ने हाथ में ढाल और तलवार ले ली तथा अभिमन्‍यु के शरीर से उसके कुण्‍डलयुक्‍त मस्‍तक को काट लेने का विचार किया।

    इतने ही में अभिमन्‍यु ने एक बाण द्वारा कोसलनरेश राजपुत्र बृद्बदल के हृदय में गहरी चोट पहुँचायी। इससे उनका वक्ष:स्‍थल विदीर्ण हो गया और वे गिर पड़े। इसके बाद अशुभ वचन बोलने वाले तथा खड्ग एवं धनुष धारण करने वाले दस हजार महामनस्‍वी राजाओं का भी उसने संहार कर डाला। इस प्रकार महाधनुर्धर अभिमन्‍यु बृहद्बल का वध करके आपके योद्धाओं को अपने बाणरूपी जल की वर्षा से स्‍तब्‍ध करता हुआ रणक्षेत्र में विचरने लगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में बृहद्बलवधविषयक सैतालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्‍यु द्वारा अश्‍वकेतु, भोज और कर्ण के मन्‍त्री आदि का वध एवं छ: महारथियों के साथ घोर युद्ध और उन महारथियों द्वारा अभिमन्‍यु के धनुष, रथ, ढाल और तलवार का नाश”

  संजय कहते हैं ;– राजन! तदनन्‍तर अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने एक बाण द्वारा कर्ण के कान में पुन: चोट पहुँचायी और उसे क्रोध दिलाते हुए उसने पचास बाण मारकर अत्‍यन्‍त घायल कर दिया। भरतनन्‍दन! तब राधापुत्र कर्ण ने भी अभिमन्‍यु को उतने ही बाणों से बींध डाला। उसका सारा अंग बाणों से व्‍याप्‍त होने के कारण वह बड़ी शोभा पा रहा था। फिर क्रोध में भरे हुए अभिमन्‍यु ने कर्ण को भी बाणों से क्षत-विक्षत करके उसे रक्त की धारा बहाने वाला बना दिया। उस समय शूरवीर कर्ण भी बाणों से छिन्‍न-भिन्‍न और खून से लथपथ हो बड़ी शोभा पाने लगा, मानो शरत्काल का सूर्य संध्‍या के समय सम्‍पूर्ण रूप से लाल दिखायी दे रहा हो। उन दोनों के शरीर बाणों से व्‍याप्‍त होने के कारण विचित्र दिखायी देते थे। दोनों ही रक्‍त से भीग गये तथा वे दोनों महामनस्‍वी वीर फूलों से भरे हुए पलाश वृक्ष के समान प्रतीत होते थे।

    तदनन्‍तर, सुभद्राकुमार ने कर्ण के विचित्र युद्ध करने वाले छ: शूरवीर मन्त्रियों को उनके घोड़े, सारथि, रथ तथा ध्वज सहित मार डाला। इतना ही नहीं, उसने बिना किसी घबराहट के दस-दस बाणों द्वारा अन्‍य महाधनुर्धरों को भी आहट कर दिया। वह अद्भुत-सी बात थी। इसी प्रकार उसने मगधराज के तरुण पुत्र अश्‍वकेतु को छ: बाणों द्वारा मारकर उसे घोड़ों और सारथि सहित रथ से नीचे गिरा दिया।

    तत्‍पश्चात हाथी के चिह्न से युक्‍त ध्‍वजा वाले मार्तिकावतकनरेश एक क्षुरप्र द्वारा नष्‍ट करके अभिमन्‍यु ने बाणों की वर्षा करते हुए सिंहनाद किया। तब दु:शासनकुमार ने चार बाणों द्वारा अभिमन्‍यु के चारों घोड़ों को घायल करके एक-से सा‍रथि को और दस बाणों द्वारा स्‍वयं अभिमन्‍यु को बींध डाला। 

   यह देख अर्जुनकुमार ने क्रोध से लाल आँखें करके सात बाणों द्वारा दु:शासनपुत्र को बींध डाला और उच्‍च स्‍वर से यह बात कही। 'अरे! तेरा पिता कायर की भाँति युद्ध छोड़कर भाग गया है। सौभाग्‍य की बात है कि तू भी युद्ध करना जानता है; किन्‍तु आज तू जीवित नहीं छूट सकेगा।' यह वचन कहकर अभिमन्‍यु ने कारीगर के माँजे हुए एक नाराच को दु:शासनपुत्र पर चलाया; परंतु अश्वत्‍थामा ने तीन बाण मारकर उसे बीच में ही काट दिया। 

    तब अर्जुनकुमार ने अश्वत्‍थामा का ध्वज काटकर शल्‍य को तीन बाण मारे। राजन! शल्‍य ने भी मन में तनिक भी सम्‍भ्रम या घबराहट का अनुभव न करते हुए-से गीध के पंख से युक्‍त नौ बाणों द्वारा अभिमन्‍यु को आहत कर दिया। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। उस समय अभिमन्‍यु ने शल्‍य के ध्वज को काटकर उनके दोनों पार्श्‍वरक्षकों को भी मार डाला और उनको भी लोहे के बने हुए छ: बाणों से बींध दिया; फिर तो शल्‍य भागकर दूसरे रथ पर चले गये। तत्‍पश्चात शत्रुंजय, चन्द्रकेतु, मेघवेग, सुवर्चा और सूर्यभास इन पाँच वीरों को मारकर अभिमन्‍यु ने सुबलपुत्र शकुनि कों भी घायल कर दिया। तब शकुनि ने भी तीन बाणों से अभिमन्‍यु को घायल करके दुर्योधन से इस प्रकार कहा। 'राजन! यह एक-एक के साथ युद्ध करके हमें मारे, इसके पहले ही हम सब लोग मिलकर इस अभिमन्‍यु को मथ डालें।' तदनन्‍तर विकर्तनपुत्र कर्ण ने रणक्षेत्र में पुन: द्रोणाचार्य से पूछा। 

    'आचार्य! अभिमन्‍यु हम लोगों को मार डाले इसके पहले ही हमें शीघ्र यह बताइये कि इसका वध किसा प्रकार होगा?' तब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने उन सबसे कहा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 19-41 का हिन्दी अनुवाद)

   'देखो, क्‍या इस कुमार अभिमन्‍यु में कहीं कोई दुर्बलता या छिद्र है? सम्‍पूर्ण दिशाओं में विचरते हुए अभिमन्‍यु में आज कोई छोटा-सा भी छिद्र हो तो देखों।' 'इस पुरुषसिंह पाण्‍डवपुत्र की शीघ्रता तो देखो। शीघ्रतापूर्वक बाणों का संधान करते और छोड़ते समय रथ के भागों में इसके धनुष का मण्‍डलमात्र दिखायी देता है।' 

    'शत्रुवीरों का संहार करने वाला सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु यद्यपि अपने बाणों द्वारा मेरे प्राणों को अत्‍यन्‍त कष्‍ट दे रहा है, मुझे मूर्च्छित किये देता है, तथापि बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहा है। रणक्षेत्र में विचरता हुआ सुभद्रा का यह पुत्र मुझे अत्‍यन्‍त आनन्दित कर रहा है।' 'क्रोध में भरे हुए महारथी इसके छिद्र को नहीं देख पाते हैं। यह शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाता हुआ अपने महान बाणों से सम्‍पूर्ण दिशाओं को व्‍याप्‍त कर रहा है। मैं युद्धस्‍थल में गाण्‍डीवधारी अर्जुन और इस अभिमन्‍यु में कोई अन्‍तर नहीं देख पाता हूँ।' 

  तदनन्‍तर कर्ण ने अभिमन्‍यु के बाणों से आहत होकर पुन: द्रोणाचार्य से कहा,

कर्ण ने कहा ;– 'आचार्य! मैं अभिमन्‍यु के बाणों से पीड़ित होता हुआ भी केवल इसलिये यहाँ खड़ा हूँ कि युद्ध के मैदान में डटे रहना ही क्षत्रिय का धर्म है।' 'तेजस्‍वी कुमार अभिमन्‍यु के ये अत्‍यन्‍त दारुण और अग्नि के समान तेजस्‍वी घोर बाण आज मेरे वक्ष:स्‍थल को विदीर्ण किये देते हैं।' यह सुनकर द्रोणाचार्य ठहाका मारकर हँसते हुए-से धीरे-धीरे कर्ण से इस प्रकार बोले। 

     'कर्ण! अभिमन्‍यु का कवच अभेद्य है। यह तरुण वीर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाला है। मैंने इसके पिता को कवच धारण करने की विधि बतायी है। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाला यह वीर कुमार निश्चय ही वह सारी विधि जानता है; परंतु मनोयोगपूर्वक चलाये हुए बाणों से इसके धनुष और प्रत्‍यंचा को काटा जा सकता है।' 

    'साथ ही इसके घोड़ों की वागडोरों को, घोड़ों को तथा दोनों पार्श्‍वरक्षकों को भी नष्‍ट किया जा सकता है। महाधनुर्धर राधापुत्र! यदि कर सको तो यही करो।' 'अभिमन्‍यु को युद्ध से विमुख करके पीछे इसके ऊपर प्रहार करो, धनुष लिये रहने पर तो इसे सम्‍पूर्ण देवता और असुर भी जीत नहीं सकते।' 'यदि तुम इसे परास्‍त करना चाहते हो तो इसके रथ और धनुष को नष्‍ट कर दो।' आचार्य की यह बात सुनकर विकर्तनपुत्र कर्ण ने बड़ी उतावली के साथ अपने बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए अस्त्रों का प्रयोग करने वाले अभिमन्‍यु के धनुष को काट दिया। भोजवंशी कृतवर्मा ने उसके घोड़े मार डाले और कृपाचार्य ने दोनों पार्श्‍वरक्षकों का काम तमाम कर दिया। 

     शेष महारथी धनुष कट जाने पर अभिमन्‍यु के ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार शीघ्रता करने के अवसर पर शीघ्रता करने वाले छ: निर्दय महारथी एक रथहीन बालक पर बाणों की बौछार करने लगे। धनुष कट जाने और रथ नष्‍ट हो जाने पर तेजस्‍वी वीर अभिमन्‍यु अपने धर्म का पालन करते हुए ढाल और तलवार हाथ में लेकर आकाश में उछल पड़ा। 

    अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु कौशिक आदि मार्गों (पैतरों) द्वारा तथा शीघ्रकारिता और बल-पराक्रम से पक्षिराज गरुड़ की भाँति भूतल की अपेक्षा आकाश में ही अधिक विचरण करने लगा। समरांगण में छिद्र देखने वाले योद्धा 'जान पड़ता है यह मेरे ही ऊपर तलवार लिये टूटा पड़ता है' इस आशंका से ऊपर की ओर दृष्टि करके महाधनुर्धर अभिमन्‍यु को बींधने लगे। उस समय शत्रुओं पर विजय पाने वाले महातेजस्‍वी द्रोणाचार्य ने शीघ्रता करते हुए क्षुरप्र के द्वारा अभिमन्‍यु की मुट्ठी में स्थित हुए मणिमय मूठ से युक्‍त खड्ग को काट डाला।

    राधानन्‍दन कर्ण ने अपने पैने बाणों द्वारा उसके उत्‍तम ढाल के टुकड़े–टुकड़े कर डाले। ढाल और तलवार से वंचित हो जाने पर बाणों से भरे हुए शरीर वाला अभिमन्‍यु पुन: आकाश से पृथ्‍वी पर उतर आया और चक्र हाथ में ले कुपित हो द्रोणाचार्य की ओर दौड़ा।अभिमन्‍यु का शरीर चक्र की प्रभा से उज्‍जवल तथा धूलराशि से सुशोभित था। उसके हाथ में तेजोमय उज्‍जवल चक्र प्रकाशित हो रहा था। इससे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस रणक्षेत्र में चक्रधारण द्वारा भगवान श्रीकृष्‍ण का अनुकरण करता हुआ अभिमन्‍यु क्षणभर के लिये बड़ा भयंकर प्रतीत होने लगा। अभिमन्‍यु के वस्‍त्र उसके शरीर से बहने वाले एकमात्र रुधिर के रंग में रँग गये थे। भौंहे टेढ़ी होने से उसका मुखमण्‍डल सब ओर से कुटिल प्रतीत होता था और वह बड़े जोर-जोर से सिंहनाद कर रहा था। ऐसी अवस्‍था में प्रभावशाली अनन्‍त बलवान अभिमन्‍यु उस रणक्षेत्र में पूवोक्‍त नरेशों के बीच में खड़ा होकर अत्‍यन्‍त प्रकाशित हो रहा था। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में अभिमन्‍यु को रथहीन करने से संबंध रखने वाला अड़तालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

उनचासवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्‍यु का कालिकेय, वसाति और कैकय रथियों को मार डालना एवं छ: महारथियों के सहयोग से अभिमन्‍यु का वध और भागती हुई अपनी सेना को युधिष्ठिर का आश्वासन देना”

   संजय कहते हैं ;– राजन! भगवान श्रीकृष्‍ण की बहिन सुभद्रा को आनन्दित करने वाला तथा श्रीकृष्‍ण के ही समान चक्ररूपी आयुध से सुशोभित होने वाला अतिरथी वीर अभिमन्‍यु उस युद्धस्‍थल में दूसरे श्रीकृष्‍ण के समान प्रकाशित हो रहा था। 
   हवा उसके केशान्‍तभाग को हिला रही थी। उसने अपने हाथ में चक्र नामक उत्‍तम आयुध उठा रखा था। उस समय उसके शरीर और उस चक्र को– जिसकी ओर दृष्टिपात करना देवताओं के लिये भी अत्‍यन्‍त क‍ठिन था देखकर समस्‍त भूपालगण अत्‍यन्‍त उद्विग्‍न हो उठे और उन सब ने मिलकर उस चक्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब महार‍थी अभिमन्‍यु ने एक विशाल गदा हाथ में ले ली। शत्रुओं ने उसे धनुष,रथ, खड्ग और चक्र से भी वंचित कर दिया था। इसलिये गदा हाथ में लिये हुए अभिमन्‍यु ने अश्वत्‍थामा पर धावा किया। प्रज्‍वलित वज्र के समान उस गदा को ऊपर उठी हुई देख नरश्रेष्‍ठ अश्वत्‍थामा अपने रथ की बैठक से तीन पग पीछे हट गया। 
    उस गदा से अश्वत्‍थामा के चारों घोड़ों तथा दोनों पार्श्‍वरक्षकों को मारकर बाणों से भरे हुए शरीर वाला सुभद्राकुमार साही के समान दिखायी देने लगा। तदनन्‍तर उसने सुबलपुत्र कालिकेय को मार गिराया और उसके पीछे चलने वाले सतहत्‍तर गान्‍धारों का भी संहार कर डाला। इसके बाद दस वसातीय रथियों को मार डाला। केकयों के साथ रथों और दस हाथियों को मारकर दु:शासनकुमार के घोड़ों सहित रथ को भी गदा के आघात से चूर-चूर कर डाला। आर्य! इससे दु:शासनपुत्र कुपित हो गदा हाथ में लेकर अभिमन्‍यु की ओर दौड़ा और इस प्रकार बोल– 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह।'
   वे दोनों वीर एक-दूसरे के शत्रु थे। अत: गदा हाथ में लेकर एक दूसरे का वध करने की इच्‍छा से परस्‍पर प्रहार करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में भगवान शंकर और अन्धकासुर परस्‍पर गदा आघात करते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों वीर रणक्षेत्र में गदा के अग्रभाग से एक दूसरे को चोट पहुँचाकर नीचे गिराये हुए दो इन्‍द्रध्‍वजों के समान पृथ्‍वी पर गिर पड़े। तत्‍पश्‍चात कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले दु:शासनपुत्र ने पहले उठकर उठते हुए सुभद्राकुमार के मस्‍तक पर गदा का प्रहार किया। 
    गदा के उस महान वेग ओर परिश्रम से मोहित होकर शत्रुवीरों का नाश करने वाला अभिमन्‍यु अचेत हो पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। राजन! इस प्रकार उसे युद्धस्‍थल में बहुत-से योद्धाओं ने मिलकर एकांकी अभिमन्‍यु को मार डाला। जैसे हाथी कभी सरोवर को मथ डालता है, उसी प्रकार सारी सेना क्षुब्‍ध करके व्‍याघों के द्वारा जंगली हाथी की भाँति मारा गया वीर अभिमन्‍यु वहाँ अद्भुत शोभा पा रहा था। इस प्रकार रणभूमि में गिरे हुए शूरवीर अभिमन्‍यु को आपके सैनिकों ने चारों ओर-से घेर लिया। जैसे ग्रीष्म ऋतु में जंगल को जलाकर आग बुझ गयी हो, जिस प्रकार वायु वृक्षों की शाखाओं को तोड़-फोड़कर शान्‍त हो रही हो, जैसे संसार को संतप्त करके सूर्य अस्‍ताचल को चले गये हों, जैसे चन्द्रमा पर ग्रहण लग गया हो तथा जैसे [समुद्र]] सूख गया हो, उसी प्रकार समस्‍त कौरव सेना को संतप्‍त करके पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मुख वाला अभिमन्‍यु पृथ्‍वी पर पड़ा था; उसके सिर के बड़े-बड़े बालों (काकपक्ष) से उसकी आँखे ढक गयी थीं। उस दशा में उसे देखकर आपके महारथी बड़ी प्रसन्‍नता के साथ बारंबार सिंहनाद करने लगे। 
    प्रजानाथ! आपके पुत्रों को तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु पाण्‍डव वीरों के नेत्रों से आँसू बहने लगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

   महाराज! उस समय अ‍न्तरिक्ष में खड़े हुए प्राणी आकाश से गिरे हुए चन्द्रमा के समान वीर अभिमन्‍यु को रणभूमि में पड़ा देख उच्‍च स्‍वर से आपके महारथियों की निन्‍दा करने लगे। द्रोण और कर्ण आदि छ: कौरव महारथियों के द्वारा असहाय अवस्‍था में मारा गया यह एक बालक यहाँ सो रहा है। हमारे मत में यह धर्म नहीं है। वीर अभिमन्‍यु के मारे जाने पर रणभूमि पूर्ण चन्द्रमा से युक्‍त तथा नक्षत्र मालाओं से अलंकृत आकाश की भाँति बड़ी शोभा पा रही थी। 
     सुवर्णमय पंख वाले बाणों से वहाँ की भूमि भरी हुई थी। रक्‍त की धाराओं में डूबी हुई थी। शूत्रवीरों के कुण्‍डलमण्डित तेजस्‍वी मस्‍तकों, हाथियों के विचित्र झूलों, पताकाओं, चामरों, हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले कम्‍बलों, इधर-उधर पड़े हुए उत्‍तम वस्‍त्रों, हाथी, घोड़े और मनुष्‍यों के चमकीले आभूषणों, केंचुल से निकले हुए सर्पों के समान पैने और पानीदार खड्गों, भाँति-भाँति के कटे हुए धनुषों, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, कम्पन तथा अन्‍य नाना प्रकार के आयुधों से आच्‍छादित हुई रणभूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी। सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु के द्वारा मार गिराये हुए रक्‍त स्‍नात निर्जीव और सजीव घोड़ों और घुड़सवारों के कारण वह भूमि विषम एवं दुर्गम हो गयी थी। अंकुश, महावत, कवच, आयुध और ध्‍वजाओं सहित बड़े-बड़े गजराज बाणों द्वारा मथित होकर भहराये हुए पर्वतों के समान जान पड़ते थे। जिन्‍होंने बड़े-बड़े गजराजों को मार डाला था, वे श्रेष्‍ठ रथ घोड़े, और योद्धाओं से रहित हो मथे गये सरोवरों के समान चूर-चूर होकर पृथ्‍वी पर बिखरे पड़े थे। नाना प्रकार के आयुधों और आभूषणों से युक्‍त पैदल सैनिकों के समूह भी उस युद्ध में मारे गये थे। इन सब के कारण वहाँ की भूमि अत्‍यन्‍त भयानक तथा भीरू पुरुषों के मन में भय उत्‍पन्‍न करने वाली हो गयी थी। 
      चन्‍द्रमा और सूर्य के समान कान्तिमान अभिमन्‍यु को पृथ्‍वी पर पड़ा देख आपके पुत्रों को बड़ी प्रसन्‍नता हुई और पाण्‍डवों की अन्‍तरात्‍मा व्‍यथित हो उठी। राजन! जो अभी युवावस्‍था को प्राप्‍त नहीं हुआ था, उस बालक अभिमन्‍यु के मारे जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते उनकी सारी सेना भागने लगी। सुभद्राकुमार के धराशायी हाने पर अपनी सेना में भगदड़ पड़ी देख अजातशत्रु युधिष्ठिर ने अपने पक्ष के उन वीरों से यह वचन कहा। 'यह शूरवीर अभिमन्‍यु जो प्राणों पर खेल गया, परंतु युद्ध में पीठ न दिखा सका, निश्चय ही स्वर्गलोक में गया है। तुम सब लोग धैर्य धारण करो। भयभीत न होओ। हम लोग रणक्षेत्र में शत्रुओं को अवश्‍य जीतेंगे।' महातेजस्‍वी और परम कान्तिमान योद्धाओं में श्रेष्‍ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने दुखी सैनिकों से ऐसा कहकर उनके दु:ख का निवारण किया। 
    युद्ध में विषधर सर्प के समान भयंकर शत्रुरूप राजकुमारों को पहले मारकर पीछे-से अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु स्‍वर्गलोक में गया था। दस हजार रथियों और महारथी कोसलनरेश बृहद्बल को मारकर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के समान पराक्रमी अभिमन्‍यु निश्चय ही इन्‍द्रलोक में गया है। रथ, घोड़े, पैदल और हाथियों का सहस्‍त्रों की संख्‍या में संहार करके भी वह युद्ध से तृप्‍त नहीं हुआ था। पुण्‍यकर्म करने के कारण अभिमन्‍यु शोक के योग्‍य नहीं है। वह पुण्‍यात्‍माओं के पुण्‍योपार्जित सनातन लोकों में जा पहुँचा है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में अभिमन्‍यु वध विषयक उनचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

पचासवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)

“तीसरे (तेहरवें) दिन के युद्ध की समाप्ति पर सेना का शिविर को प्रस्‍थान एवं रणभूमि का वर्णन”

   संजय कहते हैं ;– राजन! हम लोग शत्रुओं के उस प्रमुख वीर का वध करके उन बाणों से पीड़ित हो संध्‍या के समय शिविर में विश्राम के लिये चले आये। उस समय हम लोगों के शरीर रक्‍त से भीग गये थे। महाराज! हम और शत्रुपक्ष के लोग युद्धस्‍थल को देखते हुए धीरे-धीरे वहाँ से हट गये। पाण्‍डव दल के लोग अत्‍यन्‍त शोकग्रस्‍त हो अचेत हो रहे थे। 
     उस समय जब सूर्य अस्‍ताचल पर पहुँचकर ढल रहे थे, कमल निर्मित मुकुट के समान जान पड़ते थे। दिन और रात्रि की संधिरूप वह अद्भुत संध्‍या सियारिनों के भयंकर शब्‍दों से अमंगलमयी प्रतीत हो रही थी। सूर्यदेव श्रेष्ठ तलवार, शक्ति, ऋष्टि, वरूथ, ढाल और आभूषणों की प्रभा को छीनते तथा आकाश और पृथ्‍वी को समान अवस्‍था में लाते हुए-से अपने प्रिय शरीर– अग्नि में प्रवेश कर रहे थे। महान मेघों के समुदाय तथा पर्वतशिखरों के समान विशाल‍काय बहुसंख्‍यक हाथी इस प्रकार पड़ थे, मानो वज्र से मार गिराये गये हों। वैजयन्‍ती पताका, अंकुश, कवच और महावतों सहित धराशायी किये गये उन गजराजों की लाशों से सारी धरती पट गयी थी, जिसके कारण वहाँ चलने-फिरने का मार्ग बंद हो गया था। 
     नरेश्वर! शत्रुओं के द्वारा तहस-नहस किये गये विशाल नगरों के समान बड़े-बड़े रथ चूर-चूर होकर गिर थे। उनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे। इसी प्रकार उनके सवार मरे पड़े थे, पैदल सैनिक तथा युद्ध सम्‍बन्‍धी अन्‍य उपकरण चूर-चूर हो गये थे। इन सबके द्वारा उस रणभूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी।
     रथों और अश्वों के समूह सवारों के साथ नष्‍ट हो गये थे। भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के भाण्‍ड और आभूषण छिन्‍न-भिन्‍न होकर पड़े थे। मनुष्‍यों और पशुओं की जिह्वा, दाँत, आँत और आँखें बाहर निकल आयी थीं। इन सबसे वहाँ की भूमि अत्‍यन्‍त घोर और विकराल दिखायी देती थी। योद्धाओं के कवच, आभूषण, वस्‍त्र और आयुध छिन्‍न-भिन्‍न हो गये। हाथी, घोड़े तथा रथों का अनुसरण करने वाले पैदल मनुष्‍य अपने प्राण खोकर पड़े थे। जो राजा और राजकुमार बहुमूल्‍य शय्याओं तथा बिछौनों पर शयन करने के योग्‍य थे, वे ही उस समय मारे जाकर अनाथ की भाँति पृथ्‍वी पर पड़े थे। कुत्‍ते, सियार, कौए, बगले, गरुड़, भेड़िये, तेंदुए, रक्‍त पीने वाले पक्षी, राक्षसों के समुदाय तथा अत्‍यन्‍त भयंकर पिशाचगण उस रणभूमि में बहुत प्रसन्‍न हो रहे थे। 
     वे मृतकों की त्‍वचा विदीर्ण करके उनके वसा तथा रक्‍त को पी रहे थे, मज्‍जा और मांस खा रहे थे, चर्बियों को काटकर चबा लेते थे तथा बहुत-से मृतकों को इधर-उधर खींचते हुए वे हँसते और गीत गाते थे। उस समय श्रेष्‍ठ योद्धाओं ने रणभूमि में रक्‍त की नदी बहा दी, जो वैतरणी के समान दुष्‍कर एवं भयंकर प्रतीत होती थी। उसमें जल की जगह रक्‍त की ही धारा बहती थी। ढेर-के-ढेर शरीर उसमें बह रहे थे। उसमें तैरते हुए रथ नाव के समान जान पड़ते थे। हाथियों के शरीर वहाँ पर्वत की चट्टानों के समान व्‍याप्‍त हो रहे थे। मनुष्‍यों की खोपडियाँ प्रस्‍तरखण्‍डों के समान और मांस कीचड़ के समान जान पड़ते थे। वहाँ टूटे-फूटे पड़े हुए नाना प्रकार के शस्‍त्रसमूह मालाओं के समान प्रतीत होते थे। वह अत्‍यन्‍त भयंकर नदी रणक्षेत्र के मध्‍यमभाग में बहती और मृतकों तथा जीवितों को भी बहा ले जाती थी। 
     जिनकी ओर देखना भी कठिन था, ऐसे भंयकर पिशाचसमूह वहाँ खाते-पीते और गर्जना करते थे। समस्‍त प्राणियों का विनाश करने वाले वे पिशाच को भी समानरूप से भोजन सामग्री प्राप्‍त हुई थी। 
प्रदोषकाल में यमराज के राज्‍य की वृद्धि करने वाली यह युद्धभूमि बड़ी भयंकर दिखायी देती थी। वहाँ सब ओर नाचते हुए कबन्‍ध (धड़) व्‍याप्‍त हो रहे थे। यह सब देखते हुए उभय पक्ष के योद्धाओं ने वहाँ से धीरे-धीरे चलकर उस युद्धस्‍थल को त्‍याग दिया। 
     उस समय लोगों ने देखा, इन्‍द्र के समान महाबली अभिमन्‍यु रणक्षेत्र में गिरा दिया गया है। उसके बहुमूल्‍य आभूषण छिन्‍न-भिन्‍न होकर शरीर से दूर जा पड़े हैं और वह यज्ञवेदी पर हविष्‍यरहित अग्नि के समान निस्‍तेज हो गया है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में अभिमन्‍यु वध में तीसरे दिन के युद्ध में सेना के शिविर में प्रस्‍थान करते समय समरभूमि का वर्णनविषयक पचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)



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