सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु के द्वारा कर्ण के भाई का वध तथा कौरव सेना का संहार और पलायन”
संजय कहते हैं ;– राजन! कर्ण का वह भाई हाथ में धनुष ले अत्यन्त गरजता और प्रत्यंचाओं को बार-बार खींचता हुआ तुरंत ही उन दोनों महामनस्वी वीरों के रथों के बीच में आ पहुँचा। उसने मुस्कराते हुए-से दस बाण मारकर दुर्जय वीर अभिमन्यु को छत्र, ध्वजा, सारथि और घोड़ों सहित शीघ्र ही घायल कर दिया। अपने पिता-पितामहों के अनुसार मानवीय शक्ति से बढ़कर पराक्रम प्रकट करने वाले अर्जुनकुमार अभिमन्यु को उस समय बाणों से पीड़ित देखकर आपके सैनिक हर्ष से खिल उठे। तब अभिमन्यु ने मुस्कराते हुए-से अपने धनुष को खींचकर एक ही बाण से कर्ण के भाई का मस्तक धड़ से अलग कर दिया। उसका वह सिर रथ से नीचे पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो वायु के वेग से हिलकर उखड़ा हुआ कनेर का वृक्ष पर्वतशिखर से नीचे गिर गया हो। राजन! अपने भाई को मारा गया देख कर्ण को बड़ी व्यथा हुई। इधर सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने गीध की पाँख वाले बाणों द्वारा कर्ण को युद्ध से भगाकर दूसरे-दूसरे महाधनुर्धर वीरों पर तुरंत ही धावा किया। उस समय क्रोध में भरे हुए प्रचण्ड तेजस्वी महारथी अभिमन्यु ने हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त उस विशाल चतुरंगिणी सेना को विदीर्ण कर डाला।
अभिमन्यु के चलाये हुए बहुसंख्यक बाणों से पीड़ित हुआ कर्ण अपने वेगशाली घोड़ों की सहायता से शीघ्र ही रणभूमि से भाग गया। इससे सारी सेना में भगदड़ मच गयी। राजन! उस दिन अभिमन्यु के बाणों से सारा आकाशमण्डल इस प्रकार आच्छादित हो गया था, मानो टिड्डीदलों से अथवा वर्षा की धाराओं से व्याप्त हो गया हो। उस आकाश में कुछ भी सूझता नहीं था। महाराज! पैने बाणों द्वारा मारे जाते हुए आपके योद्धाओं में से सिंधुराज जयद्रथ को छोड़कर दूसरा कोई वहाँ ठहर न सका। भरतश्रेष्ठ! तब पुरुषप्रवर सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने शंख बजाकर पुन: शीघ्र ही भारतीय सेना पर धावा किया। सूखे जंगल में छोड़ी हुई आग के समान वेग से शत्रुओं को दग्ध करता हुआ अभिमन्यु कौरव सेना के बीच में विचरने लगा।
उस सेना में प्रवेश करके उसने अपने तीखे बाणों द्वारा रथों, हाथियों, घोड़ों और पैदल मनुष्यों को पीड़ित करते हुए सारी रणभूमि को बिना मस्तक के शरीरों से पाट दिया। सुभद्राकुमार के धनुष से छुटे हुए उत्तम बाणों से क्षत-विक्षत हो आपके सैनिक अपने जीवन की रक्षा के लिये सामने आये हुए अपने ही पक्ष के योद्धाओं को मारते हुए भाग चले। अभिमन्यु के वे भयंकर कर्म करने वाले, घोर, तीक्ष्ण और बहुसंख्यक विपाठ नामक बाण आपके रथों, हाथियों और घोड़ों को नष्ट करते हुए शीघ्र ही धरती में समा जाते थे।
उस युद्ध में आयुध, दस्ताने, गदा और बाजूबंद सहित वीरों की सुवर्णभूषण-भूषित भुजाएँ कटकर गिरी दिखायी देती थीं। उस युद्धभूमि में धनुष, बाण, खड्ग, शरीर तथा हार और कुण्डलों से विभूषित मस्तक सहस्त्रों की संख्या में छिन्न-भिन्न होकर पड़े थे। आवश्यक सामग्री, बैठक, ईषादण्ड, बन्धुर, अक्ष, पहिए और जूए चूर-चूर और टुकड़े-टुकड़े होकर गिरे थे। शक्ति, धनुष, खड्ग, गिरे हुए विशाल ध्वज, ढाल और बाण भी छिन्न-भिन्न होकर सब ओर बिखरे पड़े थे। प्रजानाथ! बहुत-से क्षत्रिय, घोड़े और हाथी भी मारे गये थे। इन सबके कारण वहाँ की भूमि क्षणभर में अत्यन्त भयंकर और अगम्य हो गयी थी। बाणों की चोट खाकर परस्पर क्रन्दन करते हुए राजकुमारों का महान शब्द सुनायी पड़ता था, जो कायरों का भय बढ़ाने वाला था।
भरतश्रेष्ठ! वह शब्द सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित कर रहा था। सुभद्राकुमार श्रेष्ठ घोड़ों, रथों और हाथियों का संहार करता हुआ कौरव सेना पर टूट पड़ा था। सूखे जंगलो में छोड़ी हुई आग की भाँति अर्जुनकुमार अभिमन्यु वेग से शत्रुओं को दग्ध करता हुआ कौरव सेना के बीच में दृष्टिगोचर हो रहा था। भारत! धूल से आच्छादित हुई सेना के भीतर सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं में विचरते हुए अभिमन्यु को उस समय हम लोग देख नहीं पाते थे। भरतनन्दन! हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकों की आयु को छीनते हुए अभिमन्यु को हमने क्षणभर में दोपहर के सूर्य की भाँति शत्रुसेना को पुन: तपाते देखा था। महाराज! इन्द्रकुमार अर्जुन का वह पुत्र युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी जान पड़ता था। जैसे पूर्वकाल में पराक्रमी कुमार कार्तिकेय असुरों की सेना में उसका संहार करते हुए सुशोभित होते थे, उसी प्रकार अभिमन्यु कौरव सेना में विचरता हुआ शोभा पा रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में अभिमन्यु का पराक्रमविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु के पीछे जाने वाले पाण्डवों को जयद्रथ का वर के प्रभाव से रोक देना”
धृतराष्ट्र बोले ;– संजय! अत्यन्त सुख में पला हुआ वीर बालक अभिमन्यु युद्ध में कुशल था। उसे अपने बाहुबल पर गर्व था। वह उत्तम कुल में उत्पन्न होने के कारण अपने शरीर को निछावर करके युद्ध कर रहा था। जिस समय वह तीन साल की अवस्था वाले उत्तम घोड़ों के द्वारा मेरी सेनाओं में प्रवेश कर रहा था, उस समय युधिष्ठिर की सेना से क्या कोई बलवान वीर उसके पीछे-पीछे व्यूह के भीतर आ सका था?
संजय ने कहा ;– राजन! युधिष्ठिर, भीमसेन, शिखण्डी, सात्यकि, नकुल-सहदेव, धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद, केकयराजकुमार, रोष में भरा हुआ धृष्टकेतु तथा मत्स्यदेशीय योद्धा–ये सब-के-सब युद्धस्थल में आगे बढ़े। अभिमन्यु के ताऊ, चाचा तथा मामागण अपनी सेना को व्यूह द्वारा संगठित करके प्रहार करने के लिये उद्यत हो अभिमन्यु की रक्षा के लिये उसी के बनाये हुए मार्ग से व्यूह में जाने के उद्देश्य से एक साथ दौड़ पड़े। उन शूरवीरों को आक्रमण करते देख आपके सैनिक भाग खड़े हुए। आपके पुत्र की विशाल सेना को रण से विमुख हुई देख उसे स्थिरतापूर्वक स्थापित करने की इच्छा से आपका तेजस्वी जामाता जयद्रथ वहाँ दौड़ा हुआ आया। महाराज! सिंधुनरेश के पुत्र राजा जयद्रथ ने अपने पुत्र को बचाने की इच्छा रखने वाले कुन्तीकुमारों को सेना सहित आगे बढ़ने से रोक दिया।
जैसे हाथी नीची भूमि में आकर वहीं से शत्रु का निवारण करता है, उसी प्रकार भयंकर एवं महान धनुष धारण करने वाले वृद्धक्षत्रकुमार जयद्रथ ने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके शत्रुओं की प्रगति रोक दी।
धृतराष्ट्र ने कहा ;– संजय! मैं तो समझता हूँ, सिंधुराज जयद्रथ पर यह बहुत बड़ा भार आ पड़ा था, जो अकेले होने पर भी उसने पुत्र की रक्षा के लिये उत्सुक एवं क्रोध में भरे हुए पाण्डवों को रोका।सिंधुराज में ऐसे बल और शौर्य का होना मैं अत्यन्त आश्चर्य की बात मानता हूँ। महामना जयद्रथ के बल और श्रेष्ठ पराक्रम का मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन करो। सिंधुराज ने कौन-सा ऐसा दान, होम, यज्ञ अथवा उत्तम तप किया था, जिससे वह अकेला ही समस्त पाण्डवों को रोकने में समर्थ हो सका।
(साधु शिरोमणे सूत! जयद्रथ में जो इन्द्रियसंयम अथवा ब्रह्मचर्य हो, वह बताओ। विष्णु, शिव अथवा ब्रह्मा किस देवता की आराधना करके सिन्धुराज ने अपने पुत्र की रक्षा में तत्पर हुए पाण्डवों को क्रोधपूर्वक रोक दिया? भीष्म ने भी ऐसा महान पराक्रम किया हो, उसका पता मुझे नहीं है।)
संजय ने कहा ;– महाराज! द्रौपदीहरण के प्रसंग में जो जयद्रथ को भीमसेन से पराजित होना पड़ा था, उसी से अभिमानवश अपमान का अनुभव करके राजा ने वर प्राप्त करने की इच्छा रखकर बड़ी भारी तपस्या की। प्रिय लगने वाले विषयों की ओर से सम्पूर्ण इन्द्रियों को हटाकर भूख-प्यास और धूप का कष्ट सहन करता हुआ जयद्रथ अत्यन्त दुर्बल हो गया। उसके शरीक की नस-नाड़ियाँ दिखायी देने लगीं। वह सनातन ब्रह्मास्वरूप भगवान शंकर की स्तुति करता हुआ उनकी आराधना करने लगा। तब भक्तों पर दया करने वाले भगवान ने उस पर कृपा की और स्वप्न में जयद्रथ को दर्शन देकर उससे कहा,
भगवान शंकर ने कहा ;– 'जयद्रथ! तुम क्या चाहते हो? वर माँगों। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।' भगवान शंकर के ऐसा कहने पर सिंधुराज जयद्रथ ने अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर उन रुद्रदेव को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा।
जयद्रथ ने कहा ;- 'प्रभो! मैं युद्ध में भयंकर बल पराक्रम से सम्पन्न समस्त पाण्डवों को अकेला ही रथ के द्वारा परास्त करके आगे बढ़ने से रोक दूँ।' भारत! उसके ऐसा कहने पर देवेश्वर भगवान शिव ने जयद्रथ से कहा,
भगवान शंकर ने कहा ;- 'सौम्य! मैं तुम्हें वर देता हूँ। तुम कुन्तीपुत्र अर्जुन को छोड़कर शेष चार पाण्डवों को (एक दिन) युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दोगे।' तब देवेश्वर महादेव से 'एवमस्तु' कहकर राजा जयद्रथ जाग उठा। उसी वरदान से अपने दिव्य अस्त्र-बल के द्वारा जयद्रथ ने अकेले ही पाण्डवों की सेना को रोक दिया। उसके धनुष की टंकार सुनकर शत्रुपक्ष के क्षत्रियों के मन में भय समा गया; परंतु आपके सैनिकों को बड़ा हर्ष हुआ।
राजन! उस समय सारा भार जयद्रथ के ही ऊपर पड़ा देख आपके क्षत्रियवीर कोलाहल करते हुए जिस ओर युधिष्ठिर की सेना थी, उसी ओर टूट पड़े।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में जयद्रथ युद्धविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
तैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डवों के साथ जयद्रथ का युद्ध और व्यूहद्वार को रोक रखना”
संजय कहते हैं ;– राजेन्द्र! आप मुझसे जो सिंधुराज जयद्रथ के पराक्रम का समाचार पूछ रहें हैं, वह सब सुनिये। उसने जिस प्रकार पाण्डवों के साथ युद्ध किया था, वह सारा वृतान्त बताऊँगा। सारथि के वश में रहकर अच्छी तरह सवारी का काम देने वाले, वायु के समान वेगशाली तथा नाना प्रकार की चाल दिखाते हुए चलने वाले सिंधुदेशीय विशाल अश्व जयद्रथ को वहन करते थे। विधिपूर्वक सजाया हुआ उसका रथ गन्धर्वनगर के समान जान पड़ता था। उसका रजतनिर्मित एवं वाराहचिह्न से युक्त महान ध्वज उसके रथ की शोभा बढ़ा रहा था। श्वेत छत्र, पताका, चँवर और व्यजन–इन राजचिह्नों से वह आकाश में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हो रहा था। उसके रथ का मुक्ता, मणि, सुवर्ण तथा हीरों से विभूषित लोहमय आवरण नक्षत्रों से व्याप्त हुए आकाश के समान सुशोभित होता था।
उसने अपना विशाल धनुष फैलाकर बहुत से बाणसमूहों की वर्षा करते हुए व्यूह के उस भाग को योद्धाओं द्वारा भर दिया, जिसे अभिमन्यु ने तोड़ डाला था। उसने सात्यकि को तीन, भीमसेन को आठ, धृष्टद्युम्न को साठ, विराट को दस, द्रुपद को पाँच, शिखण्डी को सात, केकयराजकुमार को पच्चीस, द्रौपदीपुत्रों को तीन-तीन तथा युधिष्ठिर को सत्तर तीखे बाणों द्वारा घायल कर दिया। तत्पश्चात बाणों का बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर उसने शेष सैनिकों को भी पीछे हटा दिया। यह एक अद्भुत-सी बात थी। तब प्रतापी राजा धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने एक तीखे और पानीदार भल्ल के द्वारा उसके धनुष को काटने की घोषणा करके हँसते-हँसते काट डाला।
उस समय जयद्रथ ने पलक मारते–मारते दूसरा धनुष हाथ में लेकर युधिष्ठिर को दस तथा अन्य वीरों को तीन-तीन बाणों से बींध डाला।उसकी इस फुर्ती को देख और समझकर भीमसेन ने तीन-तीन भल्लों द्वारा उसके धनुष, ध्वज और छत्र को शीघ्र ही पृथ्वी पर काट गिराया। आर्य! तब उस बलवान वीर ने दूसरा धनुष ले उस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर भीम के धनुष, ध्वज और घोड़ों को धराशायी कर दिया। धनुष कट जाने पर अपने अश्वहीन उत्तम रथ से कूदकर भीमसेन सात्यकि के रथ पर जा बैठे, मानो कोई सिंह पर्वत के शिखर पर जा चढ़ा हो।
सिंधुराज के उस अद्भुत पराक्रम को, जो सुनने पर विश्वास करने योग्य नहीं था, प्रत्यक्ष देख आपके सभी सैनिक अत्यन्त हर्ष में भरकर उसे साधुवाद देने लगे। जयद्रथ ने अकेले ही अपने अस्त्रों के तेज से क्रोध में भरे हुए पाण्डवों को रोक लिया, उसके उस पराक्रम की सभी प्राणी प्रंशसा करने लगे। सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने पहले गजारोहियों सहित बहुत-से गजराजों को मारकर व्यूह में प्रवेश करने के लिये जो पाण्डवों को मार्ग दिखा दिया था, उसे जयद्रथ ने बंद कर दिया। वे वीर मत्स्य, पांचाल, केकय तथा पाण्डव बारंबार प्रयत्न करके व्यूह पर आक्रमण करते थे; परंतु सिंधुराज के सामने टिक नहीं पाते थे। आपका जो-जो शत्रु द्रोणाचार्य के व्यूह को तोड़ने का प्रयत्न करता, उसी श्रेष्ठ वीर के पास पहुँचकर जयद्रथ उसे रोक देता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में जयद्रथ युद्धविषयक तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुश्रत्वारिश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु का पराक्रम और उसके द्वारा वसातीय आदि अनेक योद्धाओं का वध”
संजय कहते हैं ;– राजन! विजय की अभिलाषा रखने वाले पाण्डवों को जब सिंधुराज जयद्रथ ने रोक दिया, उस समय आपके सैनिकों का शत्रुओं के साथ बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ दुर्घर्ष और तेजस्वी वीर अभिमन्यु ने आपकी सेना के भीतर घुसकर इस प्रकार तहलका मचा दिया, जैसे बड़ा भारी मगर समुद्र में हलचल पैदा कर देता है। इस प्रकार बाणों की वर्षा से कौरव सेना में हलचल मचाते हुए शत्रुदमन सुभद्राकुमार पर आपकी सेना के प्रधान-प्रधान महारथियों ने एक-साथ आक्रमण किया। उस समय अति तेजस्वी कौरव योद्धा परस्पर सटे हुए बाणों की वर्षा कर रहे थे। उनके साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध होने लगा।
यद्यपि शत्रुओं ने अपने रथसमूह के द्वारा अर्जुनकुमार अभिमन्यु को सब ओर से घेर लिया था, तो भी उसने वृषसेन के सारथि को घायल करके उसके धनुष को भी काट डाला। तब बलवान वृषसेन अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा अभिमन्यु के घोड़ों को बींधने लगा। इससे उसके घोड़े हवा के समान वेग से भाग चले। इस प्रकार उन अश्वों द्वारा यह रणभूमि में दूर पहुँचा दिया गया। अभिमन्यु के कार्य में इस प्रकार विध्न आ जाने से वृषसेन का सारथि अपने रथ को वहाँ से दूर हटा ले गया। इससे वहाँ जुटे हुए रथियों के समुदाय हर्ष में भरकर 'बहुत अच्छा बहुत अच्छा' कहते हुए कोलाहल करने लगे। तदनन्तर सिंह के समान अत्यन्त क्रोध में भरकर अपने बाणों द्वारा शत्रुओं को मथते हुए अभिमन्यु को समीप आते देख वसातीय तुरंत वहाँ उपस्थित हो उसका सामना करने के लिये गया।
उसने अभिमन्यु पर सुवर्णमय पंख वाले साठ बाण बरसाये और कहा,
वसतीय ने कहा ;– 'अब तू मेरे जीते-जी इस युद्ध में जीवित नहीं छूट सकेगा,।' तब अभिमन्यु ने लोहमय कवच धारण करने वाले वसातीय को दूर तक के लक्ष्य को मार गिराने वाले बाण द्वारा उसकी छाती में चोट पहुँचायी, जिससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। राजन! वसातीय को मारा गया देख क्रोध में भरे हुए क्षत्रिय शिरोमणि वीरों ने आपके पौत्र अभिमन्यु को मार डालने की इच्छा से उस समय चारों ओर-से घेर लिया। वे अपने नाना प्रकार के धनुषों की बारंबार टंकार करने लगे। सुभद्राकुमार का शत्रुओं के साथ वह बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उस समय अर्जुनकुमार ने कुपित होकर उनके धनुष, बाण, शरीर तथा हार और कुण्डलों से युक्त मस्तकों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। सोने के आभूषणों से विभूषित उनकी भुजाएँ खड्ग, दस्ताने, पट्टिश और फरसों सहित कटी दिखायी देने लगीं। काटकर गिराये हुए हार, आभूषण, वस्त्र, विशाल भुजा, कवच, ढाल, मनोहर मुकुट, छत्र, चँवर, आवश्यक सामग्री, रथ की बैठक, ईषादण्ड, बन्धुर, चूर-चूर हुई धुरी, टूटे हुए पहिये, टूक-टूक हुए जूए, अनुकर्ष, पताका, सारथि, अश्व, टूटे हुए रथ और मरे हुए हाथियों से वहाँ की सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी। विजय की अभिलाषा रखने वाले विभिन्न जनपदों के स्वामी क्षत्रिय वीर उस युद्ध में मारे गये। उनकी लाशों से पटी हुई पृथ्वी बड़ी भयानक जान पड़ती थी। उस रणक्षेत्र में कुपित होकर सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओं में विचरते हुए अभिमन्यु का रूप अदृश्य हो गया था। उसके कवच, आभूषण, धनुष और बाण के जो-जो अवयव सुवर्णमय थे, केवल उन्हीं को हम दूर से देख पाते थे। अभिमन्यु जिस समय बाणों द्वारा योद्धाओं के प्राण ले रहा था और व्यूह के मध्यभाग में सूर्य के समान खड़ा था, उस समय कोई वीर उसकी ओर आँख उठाकर देखने का साहस नहीं कर पाता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में अभिमन्यु का पराक्रम विषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु के द्वारा सत्यश्रवा, क्षत्रियसमूह, रुक्मरथ तथा उसके मित्रगणों और सैकड़ों राजकुमारों का वध और दुर्योधन की पराजय”
संजय कहते हैं ;– राजन! मृत्युकाल उपस्थित होने पर जैसे यमराज समस्त प्राणियों के प्राण हर लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुनकुमार अभिमन्यु भी वीरों की आयु का अपहरण करते हुए उनके लिये यमराज ही हो गये थे। इन्द्रकुमार अर्जुन का बलवान पुत्र अभिमन्यु इन्द्र के समान पराक्रमी था। वह उस समय सारे व्यूह का मन्थन करता दिखायी देता था। राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणियों के लिये यमराज के समान अभिमन्यु ने उस सेना में प्रवेश करते ही जैसे उनमत्त वयाघ्र हरिण को दबोच लेता है, उसी प्रकार सत्यश्रवा को ले बैठा।
सत्यश्रवा के मारे जाने पर उन सभी महारथियों ने प्रचुर अस्त्र–शस्त्र लेकर बड़ी उतावली के साथ अभिमन्यु पर आक्रमण किया। वे सभी क्षत्रियशिरोमणि 'पहले मैं, पहले मैं' इस प्रकार परस्पर होड़ लगाते हुए अर्जुनकुमार को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़े। उस समय धावा करने वाले क्षत्रियों की उन आगे बढ़ती हुई सेनाओं को अभिमन्यु ने उसी प्रकार काल का ग्रास बना लिया, जैसे महासागर में तिमि नामक महामत्स्य छोटे-छोटे मत्स्यों को निगल जाता है।
युद्ध से भागने वाले जो कोई शूरवीर अभिमन्यु के पास गये, वे फिर नहीं लौटे। जैसे समुद्र में मिली हुई नदियाँ फिर वहाँ से लौट नहीं पाती हैं। जिसका समुद्र मार्ग भूल गया हो, जो वायु के वेग से भयाक्रान्त हो रही हो तथा जिसे किसी बहुत बड़े ग्राह ने पकड़ लिया हो- ऐसी नौका जैसे डगमगाने लगती है, उसी प्रकार वह सेना अभिमन्यु के भय स काँप रही थी। इसी समय मद्रराज का बलवान पुत्र रुक्मरथ आकर अपनी डरी हुई सेना को आश्वासन देता हुआ निर्भय होकर बोला।
'शूरवीरो! तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं। यह अभिमन्यु मेरे रहते कुछ भी नहीं है। मैं अभी इसे जीते-जी पकड लूँगा। इसमें संशय नहीं है।' ऐसा कहकर पराक्रमी रुक्मरथ सुन्दर सजे-सजाये तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हो सुभद्राकुमार अभिमन्यु की ओर दौड़ा। उसने अभिमन्यु की छाती में तीन बाण मारकर सिंहनाद किया। फिर तीन बाण दाहिनी और तीन तीखे बाण बायीं भुजा में मारे। तब अर्जुनकुमार ने रुक्मरथ का धनुष काटकर उसकी बायीं-दायीं भुजाओं को तथा सुन्दर नेत्र एवं भौंहों से सुशोभित मस्तक को भी तुरंत ही पृथ्वी पर काट गिराया।
राजन! राजा शल्य के अभिमानी पुत्र रुक्मरथ को जो, अभिमन्यु को जीते-जी पकड़ना चाहता था, यशस्वी सुभद्राकुमार के द्वारा मारा गया देख शल्यपुत्र के बहुत-से मित्र राजकुमार, जो प्रहार करने में कुशल और युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले थे, अर्जुनकुमार को चारों ओर-से घेरकर बाणों की वर्षा करने लगे। उनके ध्वज सुवर्ण के बने हुए थे, वे महाबली वीर चार हाथ के धनुष खींच रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)
शिक्षा और बल से सम्पन्न, तरुण अवस्था वाले, अत्यन्त अमर्षशील और शूरवीर राजकुमारों द्वारा, किसी-से परास्त न होने वाले शौर्य सम्पन्न सुभद्राकुमार को अकेले ही समरांगण में बाणसमूहों से आच्छादित होते देख राजा दुर्योधन को बड़ा हर्ष हुआ। उसने यह मान लिया कि अब अभिमन्यु यमराज के लोक में पहुँच गया। उन राजकुमारों ने सोने के पंख वाले नाना प्रकार के चिह्नों से सुशोभित और पैने बाणों द्वारा अर्जुनकुमार अभिमन्यु को पलक मारते-मारते अदृश्य कर दिया। आर्य! सारथि, घोड़े और ध्वज सहित अभिमन्यु के उस रथ को मैंने उसी प्रकार बाणों से व्याप्त देखा, जैसे साही (सेह) का शरीर कांटों से भरा रहता है। भारत! बाणों से गहरी चोट खाकर अभिमन्यु अंकुश से पीड़ित हुए गजराज की भाँति कुपित हो उठा। उसने गान्धर्वास्त्र का प्रयोग किया और रथमाया प्रकट की। अर्जुन ने तपस्या करके तुम्बुरू आदि गन्धर्वों से जो अस्त्र प्राप्त किया था, उसी से अभिमन्यु ने अपने शत्रुओं को मोहित कर दिया।
राजन! वह शीघ्रतापूर्वक अस्त्र संचालन का कौशल दिखाता हुआ युद्ध में अलातचक्र की भाँति एक, शत तथा सहस्त्रों रूपों में दृष्टिगोचर होता था। महाराज! शत्रुओं को संताप देने वाले अभिमन्यु ने रथचर्या तथा अस्त्रों की माया से मोहित करके राजाओं के शरीरों के सौ-सौ टुकड़े कर दिये। राजन! उस युद्धस्थल में उसके पैने बाणों से प्रेरित हुए प्राणधारियों के शरीर तो पृथ्वी पर गिर पड़े, परंतु प्राण परलोक में जा पहुँँचे।
अर्जुनकुमार ने अपने तीखे बाणों द्वारा उनके धनुष, घोड़े, सारथि, ध्वज, अंगदयुक्त बाहु तथा मस्तक भी काट डाले। जैसे पाँच वर्षों का लगाया हुआ आम का बाग, जो फल देने योग्य हो गया हो, काट दिया जाय, उसी प्रकार सैकड़ों राजकुमारों को सुभद्राकुमार ने वहाँ मार गिराया। क्रोध में भरे हुए विषधर सर्पों के समान भयंकर तथा सुख भोगने के योग्य उन सुकुमार राजकुमारों को एकमात्र अभिमन्यु द्वारा मारा गया देख दुर्योधन भयभीत हो गया। रथियों, हाथियों, घोड़ों और पैदलों को भी अभिमन्युरूपी समुद्र में डूबते देख अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन ने शीघ्र ही उस पर धावा किया। उन दोनों में एक क्षण तक अधूरा-सा युद्ध हुआ। इतने ही में आपका पुत्र दुर्योधन सैकड़ों बाणों से आहत होकर वहाँ से भाग गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में दुर्योधन की पराजय विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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