सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु का उत्साह तथा उसके द्वारा कौरवों की चतुरगिणी सेना का संहार”
संजय कहते हैं ;– भारत! बुद्धिमान युधिष्ठिर का पूर्वोक्त वचन सुनकर सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने अपने सारथि को द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलने का आदेश दिया। राजन! 'चलो, चलो' ऐसा कहकर अभिमन्यु के बारंबार प्रेरित करने पर सारथि ने उससे इस प्रकार कहा। 'आयुष्मान! पाण्डवों ने आपके ऊपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है। पहले आप क्षण भर रुक कर बुद्धिपूर्वक अपने कर्तव्य का निश्चय कर लीजिये। उसके बाद युद्ध कीजिये।'
'द्रोणाचार्य अस्त्रविद्या के विद्वान हैं और उत्तम अस्त्रों के अभ्यास के लिये उन्होंने विशेष परिश्रम किया है। इधर आप अत्यन्त सुख एवं लाड़-प्यार में पले हैं। युद्ध की कला में आप उनके जैसे विज्ञ नहीं हैं।' तब अभिमन्यु ने हँसते-हँसते सारथि से इस प्रकार कहा,
अभिमन्यु ने कहा ;- 'सारथे! इन द्रोणाचार्य अथवा सम्पूर्ण क्षत्रियमण्डल की तो बात ही क्या, मैं तो ऐरावत पर चढ़े हुए सम्पूर्ण देवगणों सहित इन्द्र के अथवा समस्त प्राणियों द्वारा पूजित एवं सबके ईश्वर रुद्रदेव के साथ भी सामने खड़ा होकर युद्ध कर सकता हूँ। अत: इस समय इस क्षत्रियसमूह के साथ युद्ध करने में मुझे आज कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है।' 'शत्रुओं की यह सारी सेना मेरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। सूतनन्दन! विश्वविजयी विष्णुस्वरूप मामा श्रीकृष्ण को तथा पिता अर्जुन को भी युद्ध में विपक्षी के रूप में सामने पाकर मुझे भय नहीं होगा।'
अभिमन्यु ने सारथि के पूर्वोक्त कथन की अवहेलना करके उससे यही कहा,
अभिमन्यु ने कहा ;- 'तुम शीघ्र द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलो।'
तब सारथि ने सुवर्णमय आभूषणों से भूषित तथा तीन वर्ष की अवस्था वाले घोड़ों को शीघ्र आगे बढ़ाया। उस समय उसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था। राजन! सारथि सुमित्र द्वारा द्रोणाचार्य की सेना की ओर हाँके हुए वे घोड़े महान वेगशाली और पराक्रमी द्रोण की और दौड़े। अभिमन्यु को इस प्रकार आते देख द्रोणाचार्य आदि कौरव-वीर उनके सामने आकर खड़े हो गये और पांडव-योद्धा उनका अनुसरण करने लगे। अभिमन्यु के ऊँचे एवं श्रेष्ठ ध्वज पर कर्णिकार का चिह्न बना हुआ था। उसने सुवर्ण का कवच धारण कर रखा था। वह अर्जुनकुमार अपने पिता अर्जुन से भी श्रेष्ठ वीर था। जैसे सिंह का बच्चा हाथियों पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अभिमन्यु ने युद्ध की इच्छा से द्रोण आदि महारथियों पर धावा किया। अभिमन्यु बीस पग ही आगे बढ़े थे कि सामना करने के लिये उद्यत हुए द्रोणाचार्य आदि योद्धा उन पर प्रहार करने लगे। उस समय उस सैन्यसागर में अभिमन्यु के प्रवेश करने से दो घड़ी तक सेना की वही दशा रही, जैसी कि समुद्र में गंगा की भँवरों से युक्त जलराशि के मिलने से होती है। राजन! युद्ध में तत्पर हो एक-दूसरे पर घातक प्रहार करते हुए उन शूरवीरों में अत्यन्त दारुण एवं भयंकर संघर्ष होने लगा।
वह अति भयंकर संग्राम चल ही रहा था कि द्रोणाचार्य के देखते-देखते अर्जुनकुमार अभिमन्यु व्यूह तोड़कर भीतर घुस गया।
(अभिमन्यु का पराक्रम अचिन्त्य था। उसने बिना किसी घबराहट के द्रोणाचार्य के अत्यन्त दुर्जय एवं दुर्धर्ष सैन्य-व्यूह को भंग करके उसके भीतर प्रवेश किया।)
व्यूह के भीतर घुसकर शत्रुसमूहों का विनाश करते हुए महाबली अभिमन्यु को हाथों में अस्त्र–शस्त्र लिये गजारोही, अश्वारोही, रथी और पैदल योद्धाओं के भिन्न-भिन्न दलों ने चारों ओर से घेर लिया। नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि, कोलाहल, ललकार, गर्जना, हुंकार, सिंहनाद, 'ठहरो, ठहरो' की आवाज और घोर हलहला शब्द के साथ 'न जाओ, खड़े रहो, मेरे पास आओ, तुम्हारा शत्रु मैं तो यहाँ हूँ' इत्यादि बातें बारंबार कहते हुए वीर सैनिक हाथियों के चिग्घाड़, घुँघुरुओं की झुनझुन, अट्टहास, हाथों की ताली के शब्द तथा पहियों की घर्घराहट से सारी वसुधा को गुँजाते हुए अर्जुनकुमार पर टूट पड़े। राजन! महाबली वीर अभिमन्यु शीघ्रतापूर्वक युद्ध करने में कुशल, जल्दी-जल्दी अस्त्र चलाने वाला और शत्रुओं के मर्मस्थानों को जानने वाला था। वह अपनी ओर आते हुए शत्रु-सैनिकों का मर्मभेदी बाणों द्वारा वध करने लगा। नाना प्रकार के चिह्नों से सुशोभित पैने बाणों की मार खाकर वे बहुसंख्यक कौरव-वीर विवश हो धरती पर गिर पड़े, मानो ढेर-के-ढेर फतिंगे जलती आम में पड़ गये हों। जैसे यज्ञ में वेदी के ऊपर कुश बिछाये जाते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु ने तुंरत ही शत्रुओं के शरीरों तथा विभिन्न अवयवों के द्वारा सारी रणभूमि को पाट दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 23-46का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने आपके सहस्त्रों सैनिकों की उन भुजाओं को तुरंत काट डाला, जिनमें मनोहर सुगन्धयुक्त चन्दन का लेप लगा हुआ था। वीरों की उन भुजाओं में गोह के चमड़े से बने हुए दस्ताने बँधे हुए थे। धनुष और बाण शोभा पाते थे। किन्हीं भुजाओं में ढाल, तलवार, अंकुश और बागडोर दिखायी देती थीं। किन्हीं में तोमर और फरसे शोभा पाते थे। किन्हीं में गदा, लोहे की गोलियाँ, प्रास, ऋष्टि, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, परिघ, श्रेष्ठ शक्ति, कम्पन, प्रतोद, महाशंख और कुन्त दृष्टिगोचर हो रहे थे। किन्हीं-किन्हीं भुजाओं ने शत्रुओं की चोटियाँ पकड़ रखी थीं। किन्हीं में मुद्गर फेंकने योग्य अन्यान्य अस्त्र, पाश, परिघ तथा प्रस्तरखण्ड दिखायी देते थे। वीरों की वे सभी भुजाएँ केयूर और अंगद आदि आभूषणों से विभूषित थीं। आदरणीय महाराज! खून से लथपथ होकर तड़पती हुई उन भुजाओं से इस पृथ्वी की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे गरुड़ के द्वारा छिन्न-भिन्न किये हुए पाँच मुख वाले सर्पों के शरीरों से आच्छादित हुई वसुधा सुशोभित होती है। जिनमें सुन्दर नासिका, सुन्दर मुख और सुन्दर केशान्त भाग की अद्भुत शोभा हो रही थी, जिनमें फोड़े-फुंसी या घाव के चिह्न नहीं थे, जो मनोहर कुण्डलों से प्रकाशित हो रहे थे, जिनके ओष्ठपुट क्रोध के कारण दाँतों तले दबे हुए थे, जो अधिकाधिक रक्त की धारा बहा रहे थे, जिनके ऊपर मनोहर मुकुट और पगड़ी की शोभा होती थी जो मणिरत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, जिनकी प्रभा सूर्य और चन्द्रमा के समान जान पड़ती थी, जो बिना नाल के प्रफुल्ल कमल के समान प्रतीत होते थे, जो समय-समय पर हित एवं प्रिय की बातें बताते थे, जिनकी संख्या बहुत अधिक थी तथा जो पवित्र सुगन्ध से सुवासित थे, शत्रुओं के उन मस्तकों द्वारा अभिमन्यु ने वहाँ की सारी पृथ्वी को पाट दिया।
इसी प्रकार अभिमन्यु अपने बाणों से शत्रुओं के गन्धर्वनगर के समान विशाल तथा विधिपूर्वक सुसज्जित बहुसंख्यक रथों के टुकड़े-टुकड़े करता हुआ सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिगोचर हो रहा था। उन रथों के प्रधान ईषादण्ड नष्ट हो गये थे। त्रिवेणु चूर-चूर हो गये थे। स्तम्भदण्ड उखड़ गये थे। उनके बन्धन टूट गये थे। जंघा और कूबर टूट-फूट गये थे। पहियों के ऊपरी भाग और अरे चौपट कर दिये गये थे। पहिये, रथ की सजावट के समान और बैठकें नष्ट-भ्रष्ट हो गयी थीं। सारी सामग्री तथा रथ के अवयव चूर-चूर हो गये थे। रथ की छतरी और आवरण को गिरा दिया गया था तथा उन रथों के समस्त योद्धा मार डाले गये थे। इस तरह सहस्त्रों रथों की धज्जियाँ उड़ गयी थीं। रथों का संहार करके अभिमन्यु ने पुन: तीखी धार वाले बाणों द्वारा शत्रुओं के हाथियों, गजारोहियों, उनके झंडों, अंकुशों, ध्वजाओं, तूणीरों, कवचों, रस्सों, कण्ठाभूषणों, झूलों, घंटों, सूँड़ों, दाँतों, छत्रों, मालाओं और पादरक्षकों को भी काट डाला।
राजन! आपके वनायुज, पर्वतीय, काम्बोज तथा बाह्लिक देशीय श्रेष्ठ घोड़ों को, जो पूँछ, कान और नेत्रों को निश्चल करे दौड़ने वाले, वेगवान और अच्छी तरह सवारी का काम देने वाले थे तथा जिनके ऊपर शक्ति, ऋष्टि एवं प्रास द्वारा युद्ध करने वाले सुशिक्षित योद्धा सवार थे, धराशायी करता हुआ अकेला वीर अभिमन्यु एकमात्र भगवान विष्णु की भाँति अचिन्त्य एवं दुष्कर कर्म करके बड़ी शोभा पा रहा था। उन घोड़ों के मस्तक और गर्दन के चँवर के समान बड़े-बड़े बाल और मुख बाणों के आघात से नष्ट हो गये थे। वे सब-के-सब घायल हो गये थे। कितने ही अश्वों के सिर छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये थे। कितनों की जिह्वा और नेत्र बाहर निकल आये थे। आँत और जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। उन सबके सवार मार डाले गये थे। उनके गले के घुँघुरू कटकर गिर गये थे। वे घोड़ें मृत्यु के अधीन होकर मांसभक्षी प्राणियों का हर्ष बढ़ा रहे थे। उनके चमड़े और कवच टूक-टूक हो गये थे और वे मल-मूत्र तथा रक्त में डूबे हुए थे।
जैसे महान तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान रुद्र ने असुरों की सेना को मथ डाला था, उसी प्रकार अभिमन्यु ने रथ, हाथी और घोड़े–इन तीन अंगों से युक्त आपकी विशाल सेना को रौंद डाला। इस प्रकार अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये असह्य पराक्रम करके आपके पैदल योद्धाओं के समूहों का सभी प्रकार से विनाश करना आरम्भ किया।
जैसे कार्तिकेय ने असुरों की सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था, उसी प्रकार एकमात्र सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने अपने तीखे बाणों द्वारा समस्त कौरव सेना को अत्यन्त छिन्न-भिन्न कर डाला है; यह देखकर आपके पुत्र और सैनिक भयभीत हो दसों दिशाओं की ओर देखने लगे। उनके मुख सूख गये थे, नेत्र चंचल हो उठे थे, सारे अंगों में पसीना हो आया था और उनके रोंगटे खड़े हो गये थे। अब वे भागने में उत्साह दिखाने लगे। शत्रुओं को जीतने के लिये उनके मन में तनिक भी उत्साह नहीं रह गया था। वे जीवन की इच्छा रखकर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के गोत्र और नाम का उच्चारण करके एक-दूसरे के लिये क्रन्दन कर रहे थे। उस समय आपके सैनिक इतने डर गये थे कि वहाँ मारे गये अपने पुत्रों, पितृ-तुल्य सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं तथा नातेदारों को भी छोड़कर अपने घोड़ों और हाथियों की उतावली के साथ हाँकते हुए रणभूमि से पलायन कर गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में पराक्रम विषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु का पराक्रम, उसके द्वारा अश्मकपुत्र का वध, शल्य का मूर्च्छित होना और कौरव सेना का पलायन”
संजय कहते हैं ;– राजन! अमित तेजस्वी सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने कौरव सेना को मार भगाया है, यह देखकर अत्यन्त क्रोध में भरा हुआ दुर्योधन स्वयं सुभद्राकुमार का सामना करने के लिये आया। उस युद्धस्थल में राजा दुर्योधन को अभिमन्यु की ओर लौटते देख द्रोणाचार्य ने समस्त योद्धाओं से कहा,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- 'वीरों! कौरव-नरेश की सब ओर से रक्षा करो।' बलवान अभिमन्यु हमारे देखते-देखते अपने लक्ष्यभूत राजा दुर्योधन को पहले ही मार डालेगा; अत: तुम सब लोग दौड़ों, भय न करो, शीघ्र ही कुरुवंशी दुर्योधन की रक्षा करो।' महाराज! तदनन्तर अस्त्र-शिक्षा में निपुण, बलवान, हितैषी और विजयशाली योद्धाओं ने आपके वीर पुत्र को चारों ओर से घेर लिया; यद्यपि वे अभिमन्यु के भय से बहुत डरते थे। द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, कृतवर्मा, सुबलपुत्र शकुनि, बृहद्बल, मद्रराज शल्य, भूरि, भूरिश्रवा, शल, पौरव तथा वृषसेन-ये अभिमन्यु पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। इन्होंने महान बाण-वर्षा द्वारा अभिमन्यु को आच्छादित कर दिया।
इस प्रकार उसे मोहित करके इन वीरों ने दुर्योधन को छुड़ा लिया। तब मानो मुंह से ग्रास छिन गया हो, यह मानकर अर्जुनकुमार अभिमन्यु इसे सहन न कर सका। अत: अपनी भारी बाण-वर्षा से उन महारथियों को उनके सारथि और घोड़ों सहित युद्ध से विमुख करके सुभद्राकुमार ने सिंह के समान गर्जना की। मांस चाहने वाले सिंह के समान अभिमन्यु की वह गर्जना सुनकर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोण आदि महारथी न सह सके। आर्य! तब उन महारथियों ने रथसेना द्वारा उसे कोष्ठ में आबद्ध-सा करके उसके ऊपर नाना प्रकार के चिह्न वाले समूह-के-समूह बाण बरसाने आरम्भ किये। परंतु आपके उस वीर पौत्र ने अपने पैने बाणों द्वारा शत्रुओं के उन सायक-समूहों को आकाश में ही काट दिया और उन सभी महारथियों को घायल भी कर डाला- यह एक अद्भूत-सी बात हुई। तब अभिमन्यु से चिढ़े हुए उन योद्धाओं ने विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा किसी से परास्त न होने वाले सुभद्राकुमार को मार डालने की इच्छा रखकर उसे घेर लिया।
भरतश्रेष्ठ! उस समय जैसे सब ओर से उछलते हुए समुद्र को तटभूमि रोक लेती है, उसी प्रकार आपके सैन्य-सागर को एकमात्र अर्जुनकुमार ने आगे बढ़ने से रोक दिया। उस समय एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए युद्धपरायण विपक्षी वीरों तथा अभिमन्यु में कोई भी युद्ध से विमुख नहीं हुआ। इस प्रकार वह भयंकर एवं घोर संग्राम चल रहा था। उसमें आपके पुत्र दु:सह ने नौ, दु:शासन ने बारह, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने तीन और द्रोणाचार्य ने विषधर सर्प के समान भयंकर सत्रह बाणों से अभिमन्यु को बींध डाला।
इसी प्रकार विविंशति ने सत्तर, कृतवर्मा ने सात, बृहद्बल ने आठ, शकुनि ने दो और राजा दुयोर्धन ने तीन बाणों से अभिमन्यु को घायल कर दिया। महाराज! उस समय धनुष हाथ में लिये प्रतापी अभिमन्यु ने जैसे नाच रहा हो, इस प्रकार सब ओर घुम-घुमकर उन सब महारथियों को तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)
तब आपके सभी पुत्रों ने मिलकर अभिमन्यु को त्रास देना आरम्भ किया, फिर तो वह क्रोध से जल उठा और अपनी अस्त्र-शिक्षा तथा हृदय का महान बल दिखाने लगा। इतने में ही अश्मक के पुत्र ने सारथि के आदेश का पालन करने वाले, गरुड़ और वायु के समान वेगशाली सुशिक्षित घोड़ों द्वारा बड़ी तेजी से वहाँ आकर अभिमन्यु को रोका और दस बाण मारकर उसे घायल कर दिया, साथ ही इस प्रकार कहा,
अश्मकपुत्र ने कहा ;- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह।'
तब अभिमन्यु ने मुसकराकर अश्मकपुत्र के घोडों, सारथि, ध्वज, भुजाओं, धनुष तथा मस्तक को भी दस बाणों से पृथ्वी पर काट गिराया। सुभद्राकुमार अभिमन्यु के द्वारा वीर अश्मक राजकुमार के मारे जाने पर सारी सेना विचलित हो भागने लगी। तदनन्तर कर्ण, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, गान्धारराज शकुनि, शल, शल्य, भूरिश्रवा, क्राथ, सोमदत्त, विविंशति, वृषसेन, सुषेण, कुण्डभेदी , प्रतर्दन, वृन्दारक, ललित्थ, प्रबाहु , दीर्घलोचन तथा अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने अभिमन्यु पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
इन महाधनुर्धर वीरों के चलाये हुए बाणों से अत्यन्त घायल होकर अभिमन्यु ने कर्ण को लक्ष्य करके एक ऐसा बाण हाथ में लिया, जो उसके कवच और काया को विदीर्ण कर डालने वाला था। जैसे सर्प बाँबी में घुस जाता है, उसी प्रकार अभिमन्यु का छोड़ा हुआ वह बाण कर्ण के शरीर और कवच को विदीर्ण करके बड़े वेग से धरती में समा गया।
जैसे भूकम्प होने पर पर्वत भी हिलने लगता है, उसी प्रकार उस अत्यन्त गहरे आघात से व्यथित एवं विह्बल-सा होकर कर्ण उस रणभूमि में विचलित हो उठा। फिर बलवान अभिमन्यु ने अत्यन्त कुपित होकर दूसरे तीन पैने बाणों द्वारा सुषेण, दीर्घलोचन तथा कुण्डभेदी इन तीन वीरों को घायल कर दिया। तब कर्ण ने पच्चीस, अश्वत्थामा ने बीस तथा कृतवर्मा ने सात नाराचों द्वारा अभिमन्यु को गहरी चोट पहुँचायी।
उस समय इन्द्रकुमार अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के सम्पूर्ण अंगों में बाण-ही-बाण व्याप्त हो रहे थे, वह क्रोध में भरे हुए पाशधारी यमराज के समान शत्रुसेना में विचरता दिखायी देता था। राजा शल्य अभिमन्यु के पास ही खड़े थे, अत: वह महाबाहु वीर उन पर बाणों की वर्षा करने लगा। उसने आपकी सेना को भयभीत करते हुए बड़े जोर-से गर्जना की। राजन! अस्त्रवेत्ता अभिमन्यु के चलाये हुए मर्मभेदी बाणों द्वारा घायल होकर राजा शल्य रथ की बैठक में धम्म से बैठ गये और मूर्च्छित हो गये।
यशस्वी सुभद्राकुमार के द्वारा घायल किये हुए शल्य को इस प्रकार भय हुआ देख द्रोणाचार्य के देखते-देखते उनकी सारी सेना रणभूमि से भाग चली। महाबाहु शल्य के अभिमन्यु के सुवर्णमय पंख वाले बाणों से व्याप्त हुआ देख आपके सभी सैनिक सिंह के सताये हुए मृगों की भाँति जोर-जोर से भागने लगे। देवताओं, पितरों, चारणों, सिद्धों तथा यक्षसमूहों एवं भूतलवर्ती भूतसमदायों से प्रशंसित होकर युद्धविषयक सुयश से प्रकाशित होने वाला अभिमन्यु घृत की धारा से अभिषिक्त हुए अग्निदेव के समान अत्यन्त शोभा पाने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में पराक्रम विषयक सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु के द्वारा शल्य के भाई का वध तथा द्रोणाचार्य की रथ सेना का पलायन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! अर्जुनकुमार अभिमन्यु जब इस प्रकार अपने बाणों द्वारा बड़े-बड़े धनुर्धरों को मथ रहा था, उस समय मेरे पक्ष के किन योद्धाओं में रोका था?
संजय ने कहा ;– राजन! रणक्षेत्र में कुमार अभिमन्यु की विशाल रणक्रीड़ा का वर्णन सुनिये। वह द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित रथियों की सेना को विदीर्ण करना चाहता था। सुभद्राकुमार ने रणभूमि में अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा घायल करके मद्रराज शल्य को धराशायी कर दिया, यह देखकर उनका छोटा भाई कुपित हो बाणों की वर्षा करता हुआ अभिमन्यु पर चढ़ आया। उसने दस बाणों द्वारा घोड़े और सारथि सहित अभिमन्यु को क्षत-विक्षत करके बड़े जोर से गर्जना की और कहा-'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह।' तब शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले अर्जुनकुमार ने अपने सायकों द्वारा शल्य के भाई के मस्तक, ग्रीवा, हाथ, पैर, धनुष, अश्व, छत्र, ध्वज, सारथि, त्रिवेणु, तल्प, पहिये, जूआ, तरकस, अनुकर्ष, पताका, चक्ररक्षक तथा अन्य समस्त उपकरणों को काट डाला। उस समय कोई भी उसे देख न सका। जैसे वायु के वेग से कोई महान पर्वत टूटकर गिर पड़े, उसी प्रकार अमिततेजस्वी अभिमन्यु का मारा हुआ वह शल्यराज का भाई छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके वस्त्र और आभूषणों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे।
उसके सेवक भयभीत होकर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। भारत! अर्जुनकुमार के उस अद्भुत पराक्रम को देखकर समस्त प्राणी साधुवाद देते हुए सब ओर हर्ष ध्वनि करने लगे। शल्य के भाई के मारे जाने पर उसके बहुत-से सैनिक अपने कुल और निवास स्थान के नाम सुनाते हुए कुपित हो हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये अर्जुनकुमार अभिमन्यु की ओर दौड़े। कितने ही वीर रथ, घोड़े और हाथी पर सवार होकर आये। दूसरे बहुत-से प्रचण्ड बलशाली योद्धा पैदल ही दौड़ पड़े। बाणों की सनसनाहट, रथ के पहियों की जोर-जोर से होने वाली घर्घराहट, हुँकार, कोलाहल, ललकार, सिंहनाद, गर्जना, धनुष की टंकार तथा हस्तत्राण के चट-चट शब्द के साथ गर्जन-तर्जन करते हुए अन्यान्य बहुत-से योद्धा अर्जुनकुमार अभिमन्यु पर यह कहते हुए टूट पड़े, 'अब तू हमारे हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। तुझे जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा।'
उनको ऐसा कहते देख सुभद्राकुमार अभिमन्यु मानो जोर-जोर से हंसने लगा और जिस-जिस योद्धा ने उस पर पहले प्रहार किया, उस-उसको उसने भी अपने पंखयुक्त बाणों द्वारा घायल कर दिया। शूरवीर अर्जुनकुमार ने समरांगण में अपने विचित्र एवं शीघ्रगामी अस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए पहले मृदुभाव से ही युद्ध किया। भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से अभिमन्यु ने जो-जो अस्त्र प्राप्त किये थे, उनका उन्हीं दोनों की भाँति वह युद्धस्थल में प्रदर्शन करने लगा।
भारी भार और भय उससे दूर हो गया था। वह बारंबार बाणों का संधान करता और छोड़ता हुआ एक-सा दिखायी देता था। जैसे शरद ऋतु में अत्यन्त प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव का मण्डल दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार अभिमन्यु का मण्डलाकार धनुष ही सम्पूर्ण दिशाओं में उद्भासित होता दिखायी देता था। उसके धनुष की प्रत्यंचा और हथेली का शब्द वर्षाकाल में महान वज्र गिराने वाले मेघ की गर्जना के समान भयंकर सुनायी पड़ता था। लज्जाशील, अमर्षी, दूसरों को मान देने वाला और देखने में प्रिय लगने वाला सुभद्राकुमार अभिमन्यु विपक्षी वीरों का सम्मान करने की इच्छा से धनुष-बाणों द्वारा युद्ध करता रहा।
महाराज जैसे वर्षाकाल बीतने पर शरत्काल में भगवान सूर्य प्रचण्ड हो उठते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु पहले मृदु होकर अन्त में शत्रुओं के लिये अति उग्र हो उठा। जैसे सूर्य अपनी सहस्त्रों किरणों को सब ओर बिखेर देते हैं, उसी प्रकार क्रोध में भरा हुआ अभिमन्यु सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख से युक्त सैकड़ों विचित्र एवं बहु-संख्यक बाणों की वर्षा करने लगा। उस महायशस्वी वीर ने द्रोणाचार्य के देखते-देखते उनकी रथ सेना पर क्षुरप्र, वत्सदन्त, विपाठ, नाराच, अर्धचन्द्राकार बाण, भल्ल एवं अंजलिक आदि की वर्षा आरम्भ कर दी। इससे उन बाणों द्वारा पीड़ित हुई वह सेना युद्ध से विमुख होकर भाग चली।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में अभिमन्यु पराक्रम विषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
उन्तालीसवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
चालीसवाँ अध्याय
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