सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि का अद्भुत पराक्रम, श्रीकृष्ण का अर्जुन का सात्यकि के आगमन की सूचना देना और अर्जुन की चिन्ता”
संजय कहते हैं ;- राजन! महाबाहु सात्यकि जल्दी करने योग्य कार्यों में बड़ी फुर्ती दिखाते थे। वे अर्जुन की विजय चाहते थे। उन्हें अनन्त सैन्य- सागर में प्रविष्ट होकर दुःशासन के रथ पर आक्रमण करने के लिये उद्यत देख सोने की ध्वजा धारण करने वाले त्रिगर्त देशीय महाधनुर्धर योद्धाओं ने सब ओर से घेर लिया। रथ समूह द्वारा सब ओर से सात्यकि को अवरुद्ध करके उन परम धनुर्धर योद्धाओं ने उन पर क्रोध पूर्वक बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु उस महासमर में शोभा पाने वाले अपने शत्रु रूप उन पचास राजकुमारों को सत्य पराक्रमी सात्यकि ने अकेले ही परास्त कर दिया। कौरव सेना का वह मध्य भाग हथेलियों के चट-चट शब्द से गूँज उठा। खड्ग, शक्ति तथा गदा आदि अस्त्र शस्त्रों से व्याप्त था और नौका रहित अगाध जल के समान दुस्तर प्रतीत होता था। वहाँ पहुँचकर हम लोगों ने रभूमि में सात्यकि का अद्भुत चरित्र देखा। वे इतनी फुर्ती से इधर-उधर जाते थे कि मैं उन्हें पश्चिम दिशा में देखकर तुरंत ही पूर्व दिशा में भी उपस्थित देखता था, सैंकड़ों रथियों के समान वे शूरवीर सात्यकि उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तथा कोणवर्ती दिशाओं में भी नाचते हुए से विचर रहे थे।
सिंह के समान पराक्रम सूचक गति से चलने वाले सात्यकि के उस चरित्र को देखकर त्रिगर्त देशीय योद्धा अपने स्वजनों के लिये शोक संताप करते हुए पीछे लौट गये। तदनन्तर युद्ध स्थल में दूसरे शूरसेन देशीय शूरवीर सैनिकों ने अपने शर समूहों द्वारा उन पर नियन्त्रण करते हुए उन्हें उसी प्रकार रोका, जैसे महावत मतवाले हाथी को अंकुशों द्वारा रोकते हैं। तब अचिन्त्य बल और पराक्रम से सम्पन्न महामना सात्यकि ने उनके साथ युद्ध करके दो ही घड़ी में उन्हें हरा दिया और फिर वे कलिंग देशीय सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। कलिंगों की उस दुर्जय सेना को लाँघकर महाबाहु सात्यकि कुन्ती कुमार अर्जुन के निकट जा पहुँचे। जैसे जल में तैरते-तैरते थका हुआ मनुष्य स्थल मेें पहुँच जाय, उसी प्रकार पुरुषसिंह अर्जुन को देखकर युयुधान को बड़ा आश्वासन मिला।
सात्यकि को आते देख भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पार्थ! देखो, वह तुम्हारे चरणों का अनुगामी शिनि पौत्र सात्यकि आ रहा है। ‘यह सत्यपराक्रमी वीर तुम्हारा शिष्य और सखा भी है। इस पुरुषसिंह ने समस्त योद्धाओं को तिनकों के समान समझकर परास्त कर दिया है। ‘किरीटधारी अर्जुन! जो तुम्हें प्राणों के समान अत्यन्त प्रिय है, वही यह सात्यकि कौरव योद्धाओं में घोर उपद्रव मचाकर आ रहा है। ‘फाल्गुन! यह सात्यकि अपने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य तथा भोजवंशी कृतवर्मा का भी तिरस्कार करके तुम्हारे पास आ रहा है। ‘फाल्गुन! यह शूरवीर एवं उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता सात्यकि धर्मराज के प्रिय तुम्हारे समाचार लेने के लिये बड़े-बड़े योद्धाओं को मारकर यहाँ आ रहा है। ‘पाण्डु नन्दन! महाबली सात्यकि कौरव सेना के भीतर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके तुम्हें देखने की इच्छा से यहाँ आ रहा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
‘पार्थ! युद्ध सथल में द्रोणाचार्य आदि बहुत से महारथियों के साथ एक मात्र रथ की सहायता से युद्ध करके यह सात्यकि इधर आ रहा है। ‘कुन्ती कुमार! अपने बाहुबल का आश्रय ले कौरव सेना को विदीर्ण करके धर्मराज का भेजा हुआ यह सात्यकि यहाँ आ रहा है। ‘कुन्ती नन्दन! कौरव सेना में किसी प्रकार भी जिसकी समता करने वाला एक भी योद्धा नहीं है, वही यह रण दुर्मद सात्यकि यहाँ आ रहा है। ‘पार्थ! जैसे सिंह गायों के बीच से अनायास ही निकल जाता है, उसी प्रकार कौरव सेना के घेरे से छूटकर निकला हुआ यह सात्यकि बहुत सी शत्रु सेना का संहार करके इधर आ रहा है। ‘कुन्ती नन्दन! यह सात्यकि सहस्रों राजाओं के कमल सदृश मस्तकों द्वारा इस रण भूमि को पाटकर शीघ्रता पूर्वक इधर आ रहा है। ‘यह सात्यकि रणभूमि में भाइयों सहीत दुर्योधन को जीतकर और जरासंध का वध करके शीघ्र यहाँ आ रहा है। ‘शोणित! और मांस रूपी कीचड़ से युक्त खून की नदी बहाकर और कौरव सैनिकों को तिनकों के समान उड़ाकर यह सात्यकि इधर आ रहा है’।
तब हर्ष में भरे हुए कुन्ती कुमार अर्जुन ने केशव से कहा
अर्जुन ने कहा ;- ‘महाबाहो! सात्यकि जो मेरे पास आ रहा है, यह मुझे प्रिय नहीं है। ‘केशव! पता नहीं, धर्मराज का क्या हाल है? सात्यकि से रहित होकर वे जीवित हैं या नहीं ? ‘महाबाहो! सात्यकि को तो उन्हीं की रक्षा करनी चाहिये थी। श्रीकृष्ण! उन्हें छोड़कर ये मेरे पीछे कैसे चले ओय? ‘इन्होंने राजा युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य के लिये छोड़ दिया और सिंधुराज जयद्रथ भी अभी मारा नहीं गया। इसके सिवा ये भूरिश्रवा रण में शिनि पौत्र सात्यकि की ओर अग्रसर हो रहा है। ‘इस समय सिंधुराज जयद्रथ के कारण यह मुझ पर बहुत बड़ा भार आ गया। एक तो मुझे राजा का कुशल समाचार जानना है, दूसरे सात्यकि की भी रक्षा करनी है। ‘इसके सिवा जयद्रथ का भी वध करना है।
इधर सूर्य देव अस्ताचल पर जा रहे हैं। माधव! ये महाबाहु सात्यकि इस समय थक कर अल्पप्राण हो रहे हैं। इनके घोड़े और सारथि भी थक गये हैं। किंतु केशव! भूरिश्रवा और उनके सहायक थके नहीं हैं। ‘क्या इन दोनों के इस संघर्ष में इस समय सात्यकि के सकुशल विजयी हो सकेगे ? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि सत्य पराक्रमी शिनि प्रवर महाबली सात्यकि समुद्र को पार करके गाय की खुरी के बराबर जल में डूबने लगे। ‘कौरव कुल के मुख्य वीर अस्त्रवेत्ता महामना भूरिश्रवा से भिड़कर क्या सात्यकि सकुशल रह सकेंगे। ‘केशव! मैं तो धर्मराज के इस कार्य को विपरीत समझता हूँ, जिन्होंने द्रोणाचार्य का भय छोड़कर सात्यकि को इधर भेज दिया। ‘जैसे बाज पक्षी मांस पर झपट्टा मारता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य प्रतिदिन धर्मराज को बेदी बनाना चाहते हैं। क्या राजा युधिष्ठिर सकुशल होंगे?’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि और अर्जुन का परस्पर साक्षात्कार विषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्वक सम्भाषण और युद्ध तथा सात्यकि का सिर काटने के लिये उद्यत हुए भूरिश्रवा की भुजा का अर्जुन द्वारा उच्छेद”
संजय कहते हैं ;- राजन! रणदुर्मद सात्यकि को आते देख भूरिश्रवा ने क्रोधपूर्वक सहसा उन पर आक्रमण किया। महाराज! कुरुनन्दन भूरिश्रवा ने उस समय शिनिप्रवर सात्यकि से इस प्रकार कहा,
भूरिश्रवा ने कहा ;- ‘युयुधान! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज तुम मेरी आंखो के सामने आ गये। आज युद्ध में मैं अपनी बहुत दिनों की इच्छा पूर्ण करूंगा। यदि तुम मैदान छोड़कर भाग नहीं गये तो आज मेरे हाथ से जीवित नहीं बचोगे। दाशार्ह! तुम सदा अपने को बड़ा शूरवीर मानते हो। आज मैं समरभूमि में तुम्हारा वध करके कुरुराज दुर्योधन को आनन्दित करूंगा। आज युद्ध में वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों एक साथ तुम्हें मेरे बाणों से दग्ध होकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ देखेंगे। आज जिन्होंने इस सेना के भीतर तुम्हारा प्रवेश कराया है, वे धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरे द्वारा तुम्हारे मारे जाने का समाचार सुनकर तत्काल लज्जित हो जायंगे।
आज जब तुम मारे जाकर खून से लथपथ हो धरती पर सो जाओगे, उस समय कुन्तीपुत्र अर्जुन मेरे पराक्रम को अच्छी तरह जान लेंगे। जैसे पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम में इन्द्र का राजा बलि के साथ युद्ध हुआ था, उसी प्रकार तुम्हारे साथ मेरा युद्ध हो, यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा थी। सात्वत! आज मैं तुम्हें अत्यन्त घोर संग्राम का अवसर दूंगा, इससे तुम मेरे बल, वीर्य और पुरुषार्थ का यथार्थ परिचय प्राप्त करोगे। जैसे पूर्वकाल में श्रीरामचन्द्र जी के भाई लक्ष्मण के द्वारा युद्ध में रावण कुमार इन्द्रजित मारा गया था, उसी प्रकार इस रणभूमि में मेरे द्वारा मारे जाकर तुम आज ही यमराज की संयमनी पुरी की ओर प्रस्थान करोगे। माधव! आज तुम्हारे मारे जाने पर श्रीकृष्ण, अर्जुन और धर्मराज युधिष्ठिर उत्साहशून्य हो युद्ध बंद कर देंगे, इसमें संशय नहीं है। ‘मधुकुलनन्दन! आज तीखे बाणों से तुम्हारी पूजा करके मैं उन वीरों की स्त्रियों को आनन्दित करूंगा, जिन्हें रणभूमि में तुमने मार डाला है। माधव! जैसे कोई क्षुद्र मृगसिंह की दृष्टि में पड़कर जीवित नही रह सकता, उसी प्रकार मेरी आंखों के सामने आकर अब तुम जीवित नही छूट सकोगे।
राजन! युयुधान ने भूरिश्रवा की यह बात सुनकर हंसते हुए-से यह उत्तर दिया,
युयुधान ने कहा ;- कुरुनन्दन! युद्ध में मुझे कभी किसी से भय नहीं होता है। मुझे केवल बातें बनाकर नहीं डराया जा सकता। संग्राम में जो मुझे शस्त्रहीन कर दे, वही मेरा वध कर सकता है। जो युद्ध में मुझे मार सकता है, वह सदा सर्वत्र अपने शत्रुओं का वध कर सकता है। अस्तु, व्यर्थ ही बहुत सी बातें बनाने से क्या लाभ? तुमने जो कुछ कहा है, उसे करके दिखाओ। शरत्काल के मेघों के समान तुम्हारे इस गर्जन-तर्जन का कुछ फल नहीं है। वीर! तुम्हारी यह गर्जना सुनकर मुझे हंसी आती है। कौरव! इस लोक में मेरी भी तुम्हारे साथ युद्ध करने की बहुत दिनों से अभिलाषा थी। वह आज पूरी हो जाय। तात! तुमसे युद्ध की अभिलाषा रखने वाली मेरी बुद्धि मुझे जल्दी करने के लिये प्रेरणा दे रही है। पुरुषाधम! आज तुम्हारा वध किये बिना मैं पीछे नहीं हटूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार एक दूसरे को मार डालने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर परस्पर बाणों का प्रहार करते हुए उस युद्धस्थल में अत्यन्त कुपित हो बाणों द्वारा आघात करने लगे। वे दोनों महाधनुर्धर और पराक्रमी वीर उस रणक्षेत्र में एक दूसरे से स्पर्धा रखते हुए हथिनी के लिये अत्यन्त कुपित होकर परस्पर युद्ध करने वाले दो मदोन्मत्त हाथियों की तरह एक दूसरे से भिड़ गये। भूरिश्रवा और सात्यकि दोनों शत्रुदमन वीरों ने मेघों की भाँति परस्पर भयंकर बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ! सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा ने शिनिप्रवर सात्यकि को मार डालने की इच्छा से शीघ्रगामी बाणों द्वारा आच्छादित करके तीखे बाणों से घायल कर दिया। शिनिवंश के प्रधान वीर सात्यकि के वध की इच्छा से भूरिश्रवा ने उन्हें दस बाणों से घायल करके उन पर और भी बहुत से पैने बाण छोड़े।
प्रजानाथ! प्रभो! सात्यकि ने भूरिश्रवा के उन तीखे बाणों को अपने पास आने के पूर्व ही अपने अस्त्र बल से आकाश में ही नष्ट कर दिये। वे दोनों वीर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए थे। एक कुरुकुल की कीर्ति का विस्तार कर रहा था तो दूसरा वृष्णिवंश का यश बढ़ा रहा था। उन दानों ने एक दूसरे पर पृथक-पृथक अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा की। जैसे दो सिंह नखों से और दो बड़े-बड़े गजराज दांतों से परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर रथ-शक्तियों तथा बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। प्राणों की बाजी लगाकर युद्ध का जूआ खेलने वाले वे दोनों वीर एक दूसरे के अंगों को विदीर्ण करते और खून बहाते हुए एक दूसरे को रोकने लगे। कुरुकुल तथा वृष्णिवंश के यश का विस्तार करने वाले उत्तमकर्मा भूरिश्रवा और सात्यकि इस प्रकार दो यूथपति गजराजों के समान परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्मलोक को सामने रखकर परम पद प्राप्त करने की इच्छा वाले वे दानों वीर कुछ काल तक एक दूसरे की ओर देखकर गर्जन-तर्जन करते रहे।
सात्यकि और भूरिश्रवा दोनों परस्पर बाणों की बौछार कर रहे थे और धृतराष्ट्र के सभी पुत्र हर्ष में भर कर उनके युद्ध का दृश्य देख रहे थे। जैसे हथिनी के लिये दो यूथपति गजराज परस्पर घोर युद्ध करते हैं, उसी प्रकार आपस में लड़ने वाले उन योद्धाओं के अधिपतियों को सब लोग दर्शक बनकर देखने लगे। दोनों ने दोनों के घोड़े मारकर धनुष काट दिये तथा उस महासमर में दोनों ही रथहीन होकर खड्ग-युद्ध के लिये एक दूसरे के सामने आ गये। बैल के चमड़े से बनी हुई दो विचित्र, सुन्दर एवं विशाल ढालें लेकर और तलवारों को म्यान से बाहर निकाल कर वे दानों समरांगण में विचरने लगे। क्रोध में भरे हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर पृथक-पृथक नाना प्रकार के मार्ग और मण्डल (पैंतरे और दांव-पेंच) दिखाते हुए एक दूसरे पर बारंबार चोट करने लगे। उनके हाथों में तलवारें चमक रही थीं। उन दानों के ही कवच विचित्र थे तथा वे निष्क और अगद आदि आभूषणों से विभूषित थे। शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों यशस्वी वीर भ्रान्त, उदान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गति और पैंतरे दिखाते हुए परस्पर तलवारों का वार करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय के श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद)
दोनों ही वीर एक दूसरे के छिद्र (प्रहार करने के अवसर) पाने की इच्छा रखते हुए विचित्र रीति से उछलते-कूदते थे। दोनों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती तथा युद्ध-कौशल दिखाते हुए रणभूमि में एक दूसरे को खींच रहे थे। वे दोनों ही योद्धाओं में श्रेष्ठ थे। राजेन्द्र! उस समय विश्राम करती हुई सम्पूर्ण सेनाओं के देखते-देखते लगभग दो घड़ी तक एक दूसरे पर तलवारों से चोट करके दोनों ने दोनों की सौ चन्द्राकार चिह्नों से सुशोभित विचित्र ढालें काट डालीं।
नरेश्वर! फिर वे दोनों पुरुषसिंह भुजाओं द्वारा मल्ल-युद्ध करने लगे।। दानों के वक्षःस्थल चौड़े और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्ल-युद्ध में कुशल थे और लोहे के परिधों के समान सुदृढ़ भुजाओं द्वारा एक दूसरे से गुथ गये थे। राजन! उन दोनों के भुजाओं द्वारा आघात, निग्रह (हाथ पकड़ना) और प्रग्रह (गले में हाथ लगाना) आदि दांव उनकी शिक्षा और बल के अनुरूप प्रकट होकर समस्त योद्धाओं का हर्ष बढ़ा रहे थे। राजन! समरभूमि में जूझते हुए उन दोनों नरश्रेष्ठों के पारस्परिक आघात से प्रकट होने वाला महान शब्द वज्र और पर्वत के टकराने के समान भयंकर जान पड़ता था। जैसे दो हाथी दांतों के अग्रभाग से तथा दो सांड़ सींगों से लड़ते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर कभी भुजपाशों से बांध कर, कभी सिरों की टक्कर लगाकर, कभी पैरों से खींच कर, कभी पैर में पैर लपेट कर, कभी तोमर प्रहार के समान ताल ठोंक कर, कभी अंकुश गड़ाने के समान एक दूसरे को नोच कर, कभी पादबन्ध, उदरबन्ध, उद्भ्रमण, गत, प्रत्यागत, आक्षेप, पातन, उत्थान और संप्लुत आदि दावों का प्रदर्शन करते हुए वे दोनों महामनस्वी कुरु और सात्वतवंश के प्रमुख वीर परस्पर युद्ध कर रहे थे।
भारत! इस प्रकार वे दोनों महाबली वीर परस्पर जूझते हुए मल्ल-युद्ध की जो बत्तीस कलाएं हैं, उनका प्रदर्शन करने लगे। तदन्तर जब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो जाने पर सात्यकि युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- पार्थ! रण में समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ इस सात्यकि की ओर देखो। यह रथहीन होकर युद्ध कर रहा है। कुन्तीनन्दन! देखो, सात्यकि शिथिल हो गया है। इसकी रक्षा करो। भारत! पाण्डुनन्दन! तुम्हारे पीछे-पीछे यह कौरव-सेना का व्यूह भेद कर भीतर घुस आया है और भरतवंश के प्रायः सभी महापराक्रमी योद्धाओं के साथ युद्ध कर चुका है। दुर्योधन की सेना में जो मुख्य योद्धा और प्रधान महारथी थे, वे सैकड़ों और हजारों की संख्या में इस वृष्णिवंशी के वीर के हाथ से मारे गये हैं। अर्जुन! यहाँ आता हुआ योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यकि बहुत थक गया है, तो भी उसके साथ युद्ध करने की इच्छा से यज्ञों में पर्याप्त दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा आये हैं। यह युद्ध समान योग्यता का नहीं है। राजन! इसी समय क्रोध में भरे हुए रणदुर्मद भूरिश्रवा ने उद्योग करके सात्यकि पर उसी प्रकार आघात किया, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथी पर चोट करता है। नरेश्वर! समरांगण में रथ पर बैठे हुए क्रोध भरे योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन वह युद्ध देख रहे थे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-पार्थ! देखो, वृष्णि और अंधकवंश का वह श्रेष्ठ वीर भूरिश्रवा के वश में हो गया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय के श्लोक 54-72 का हिन्दी अनुवाद)
‘वह अत्यन्त दुष्कर कर्म करके परिश्रम से चूर-चूर हो पृथ्वी पर गिर गया है। अर्जुन! वीर सात्यकि तुम्हारा ही शिष्य है। उसकी रक्षा करो। पुरुषसिंह अर्जुन! प्रभो! यह श्रेष्ठ वीर तुम्हारे लिये यज्ञशील भूरिश्रवा के अधीन न हो जाय, ऐसा शीघ्र प्रयत्न करो। तब अर्जुन ने प्रसन्नचित्त होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- भगवन! देखिये, जैसे कोई सिंहों का यूथपति वन में मतवाले महान गज के साथ क्रीड़ा कर, उसी प्रकार कुरुकुल शिरोमणि भूरिश्रवा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि के साथ रणक्रीड़ा कर रहे हैं।
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन इस प्रकार कह ही रहे थे कि सैनिकों में महान हाहाकार मच गया। महाबाहु भूरिश्रवा ने सात्यकि को उठाकर धरती पर पटक दिया। जैसे सिंह किसी मतवाले हाथी को खींचता है, उसी प्रकार प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा युद्ध स्थल में सात्वत वंश के प्रमुख वीर सात्यकि को घसीटते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। तदनन्तर भूरिश्रवा ने रणभूमि में तलवार को म्यान से बाहर निकाल कर सात्यकि की चुटिया पकड़ ली और उनकी छाती में लात मारी। फिर उसने उनके कुण्डलमण्डित मस्तक को धड़ से अलग कर देने का उद्योग आरम्भ किया। उस समय सात्यकि भी बड़ी शीघ्रता के साथ अपने मस्तक को घुमाने लगे। भारत! जैसे कुम्हार छेद में डंडा डालकर अपनी चाक को घुमाता है, उसी प्रकार केश पकड़े हुए भूरिश्रवा के बांह के साथ ही सात्यकि अपने सिर को घुमाने लगे।
राजन! इस प्रकार युद्धभूमि में केश खींचे जाने के कारण सात्यकि को कष्ट पाते देख भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से पुनः इस प्रकार बोले- महाबाहो! देखो, वृष्णि और अन्धकवंश का वह सिंह भूरिश्रवा के वश में पड़ गया है। यह तुम्हारा शिष्य है और धनुर्विद्या में तुमसे कम नहीं है। पार्थ! पराक्रम मिथ्या है, जिसका आश्रय लेने पर भी वृष्णि वंशी सत्यपराक्रमी सात्यकि से रणभूमि में भूरिश्रवा बढ़ गये है। भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर पाण्डुपुत्र महाबाहु अर्जुन ने मन ही मन युद्धस्थल में भूरिश्रवा की प्रशंसा की। कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले भूरिश्रवा इस युद्धस्थल में सात्वत कुल के श्रेष्ठ वीर सात्यकि को घसीटते हुए खेल सा कर रहे हैं और बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहे हैं। जैसे सिंहवन में किसी महान गजराज को खींचता है, उसी प्रकार ये भूरिश्रवा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि को खींच रहे हैं, उसे मार नहीं रहे हैं। राजन! इस प्रकार मन ही मन उस कुरुवंशी वीर की प्रशंसा करके महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- प्रभो! मेरी दृष्टि सिन्धुराज जयद्रथ पर लगी हुई थी। इसलिये मैं सात्यकि को नहीं देख रहा था; परंतु अब मैं इस यदुवंशी वीर की रक्षा के लिये यह दुष्कर कर्म करता हूं’।
ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन ने गाण्डीव धनुष पर एक तीखा क्षुरप्र रखा। अर्जुन की भुजाओं से छोड़े गये उस क्षुरप्र ने आकाश से गिरी हुई बहुत बड़ी उल्का के समान उन यज्ञशील भूरिश्रवा के बाजूबंद विभूषित (दाहिनी) भुजा को खग सहित काट गिराया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में भूरिश्रवा की भुजाका उच्छेद विषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ तैतालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना, अर्जुन का उत्तर और आमरण अनशन के लिये बैठे हुए भूरिश्रवा का सात्यकि के द्वारा वध”
संजय कहते हैं ;- राजन! भूरिश्रवा की सुन्दर बाजूबंद से विभूषित वह उत्तम बांह समस्त प्राणियों के मन में अद्भुत दुःख का संचार करती हुई खड्ग सहित कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रहार करने के लिये उद्यत हुई वह भुजा लक्ष्य अर्जुन के बाण से कटकर पांचमुख वाले सर्प की भाँति बड़े वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा अपने को असफल किया हुआ देख कुरुवंशी भूरिश्रवा ने कुपित हो सात्यकि को छोड़कर पाण्डुनन्दन अर्जुन की निन्दा करते हुए कहा, महाराज! वे राजा भूरिश्रवा एक बांह से रहित हो एक पांख के पक्षी और एक पहिये के रथ की भाँति पृथ्वी पर खड़े हो सम्पूर्ण क्षत्रियों के सुनते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन से बोले।
भूरिश्रवा बोले ;- कुन्तीकुमार! तुमने यह बड़ा कठोर कर्म किया है; क्योंकि मैं तुम्हें देख नहीं रहा था और दूसरे से युद्ध करने में लगा हुआ था, उस दशा में तुमने मेरी बांह काट दी है। तुम धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर से क्या कहोगे? यही न कि ‘भूरिश्रवा किसी और कार्य में लगे थे और मैंने उसी दशा में उन्हें युद्ध में मार डाला है। पार्थ! इस अस्त्र विद्या का उपदेश तुम्हें साक्षात महात्मा इन्द्र ने दिया है या रुद्र, द्रोण अथवा कृपाचार्य ने? तुम तो इस लोक में दूसरों से अधिक अस्त्र-धर्म के ज्ञाता हो, फिर जो तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर रहा था, उस पर संग्राम में तुमने कैसे प्रहार किया? मनस्वी पुरुष असावधान, डरे हुए , रथहीन, प्राणों की भिक्षा मांगने वाले तथा संकट में पड़े हुए मनुष्य पर प्रहार नहीं करते हैं। पार्थ! यह नीच पुरुषों द्वारा आचरित और दुष्ट पुरुषों द्वारा सेवित अत्यन्त दुष्कर पाप कर्म तुमने कैसे किया?
धनंजय! श्रेष्ठ पुरुष के लिये श्रेष्ठ कर्म ही सुकर बताया गया है। नीच कर्म का आचरण तो इस पृथ्वी पर उसके लिये अत्यन्त दुष्कर माना गया है। नरव्याघ्र! मनुष्य जहां-जहाँ जिन-जिन लोगों के समीप रहता है, उसमें शीघ्र ही उन लोगों का शील-स्वभाव आ जाता है; यही बात तुममें भी देखी जाती है। अन्यथा राजा के वंशज और विशेषतः कुरुकुल में उत्पन्न होकर भी तुम क्षत्रिय-धर्म से कैसे गिर जाते? तुम्हारा शील-स्वभाव तो बहुत उत्तम था और तुमने श्रेष्ठ व्रतों का पालन भी किया था। तुमने सात्यकि को बचाने के लिये जो यह अत्यन्त नीच कर्म किया है, यह निश्चय ही वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का मत है, तुममें यह नीच विचार सम्भव नहीं है। कौन ऐसा मनुष्य है, जो दूसरे के साथ युद्ध करने वाले असावधान योद्धा को ऐसा संकट प्रदान कर सकता है। जो श्रीकृष्ण का मित्र न हो, उससे ऐसा कर्म नहीं बन सकता। कुन्तीनन्दन! वृष्णि और अन्धकवंश के लोग तो संस्कार भ्रष्ट हिंसा-प्रधान कर्म करने वाले और स्वभाव से ही निन्दित हैं। फिर उनको तुमने प्रमाण कैसे मान लिया? रणभूमि में भूरिश्रवा के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उससे कहा।
अर्जुन बोले ;- प्रभो! यह स्पष्ट है कि मनुष्य के बूढ़े होने के साथ-साथ उसकी बुद्धि भी बूढ़ी हो जाती है। तुमने इस समय जो कुछ कहा है, वह सब व्यर्थ है। तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों के नियन्ता भगवान श्रीकृष्ण को और मुझ पाण्डुपुत्र अर्जुन को भी जानते हो, तो भी हमारी निन्दा करते हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
मैं संग्राम के धर्मों को जानता हूँ और सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत हूँ। मैं किसी प्रकार अधर्म नहीं कर सकता; यह जानते हुए भी तुम मेरे विषय में मोहित हो रहे हो। क्षत्रिय लोग अपने-अपने भाई, पिता, पुत्र, सम्बन्धी, बन्धु बान्धवों, समान अवस्था वाले साथी और मित्रों से घिरकर शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं। वे सब लोग उस प्रधान योद्धा के बाहुबल के आश्रित होते हैं। सात्यकि मेरा शिष्य और सुखप्रद सम्बन्धी है। वह मेरे ही लिये अपने दुस्त्यज प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध कर रहा है। राजन! रणदुर्मद सात्यकि युद्धस्थल में मेरी दाहिनी भुजा के समान है। उसे तुम्हारे द्वारा कष्ट पाते देख मैं कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता था। मैंने देखा है तुम उसे घसीट रहे थे और वह शत्रु के अधीन होकर निश्चेष्ट हो गया था। राजन! रणभूमि में गये हुए वीर के लिये केवल अपनी ही रक्षा करना उचित नहीं है। नरेश्वर! जो जिसके कार्यों में संलग्न होता है, वह अवश्य ही उसके द्वारा रक्षणीय हुआ करता है। इसी प्रकार उन सुरक्षित होने वाले सुहृदों का भी कर्त्तव्य है कि वे महासमर में अपने राजा की रक्षा करें। यदि मैं इस महायुद्ध में सात्यकि को अपने सामने मरते देखता तो उसके वियोग से मुझे अनर्थकारी पाप लगता। इसीलिये मैंने उसकी रक्षा की है। अतः तुम मुझ पर क्यों क्रोध करते हो?
राजन! आप जो यह कहकर मेरी निन्दा कर रहे हैं कि ‘अर्जुन! मैं दूसरे के साथ युद्ध में लगा हुआ था, उस दशा में तुमने मेरे साथ छल किया’ आपकी इस बात से मेरी बुद्धि में भ्रम पैदा हो गया है। तुम स्वयं कवच हिलाते हुए रथ पर चढ़े थे, धनुष की प्रत्यञ्चा खींचते थे और अपने बहुसंख्यक शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदलों से भरे हुए सिंहनाद की भैरव गर्जना से व्याप्त गम्भीर सैन्य समुद्र में जहाँ अपने और शत्रु पक्ष के एकत्र हुए लोगों का परस्पर युद्ध चल रहा था, तुम्हारी सात्यकि के साथ मुठभेड़ हुई थी। ऐसे तुमुल युद्ध में किसी भी एक योद्धा का एक ही योद्धा के साथ संग्राम कैसे माना जा सकता है? सात्यकि बहुत से योद्धाओं के साथ युद्ध करके कितने ही महारथियों को पराजित करने के बाद थक गया था। उसके घोड़े भी परिश्रम से चूर-चूर हो रहे थे और वह अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित हो खिन्नचित्त हो गया था। ऐसी अवस्था में महारथी सात्यकि को युद्ध में जीतकर तुम यह समझने लगे कि मैं सात्यकि से बड़ा वीर हूँ और वह मेरे पराक्रम से वश में आ गया है। इसीलिये तुम युद्धस्थल में तलवार से उसका सिर काट लेना चाहते थे। सात्यकि को वैसे संकट में देखकर मेरे पक्ष का कौन वीर सहन करेगा? तुम अपनी ही निन्दा करो, जो कि अपनी भी रक्षा तक नहीं कर सकते। वीरवर! फिर जो तुम्हारे आश्रय में होगा, उसकी रक्षा कैसे कर सकोगे?'
संजय कहते हैं ;- राजन! अर्जुन के ऐसा कहने पर यूप के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले महायशस्वी महाबाहु भूरिश्रवा सात्यकि को छोड़कर रणभूमि में आमरण अनशन का नियम लेकर बैठ गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 34-46 का हिन्दी अनुवाद)
पवित्र लक्षणों वाले भूरिश्रवा ने बायें हाथ से बाण बिछाकर ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा से प्राणायाम के द्वारा प्राणों को प्राणों में ही होम दिया। वे नेत्रों को सूर्य में और प्रसन्न मन को जल में समाहित करके महोपनिषत्प्रतिपादित परब्रह्म का चिन्तन करते हुए योगयुक्त मुनि हो गये। तदनन्तर सारी कौरव सेना के लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की निन्दा तथा नरश्रेष्ठ भूरिश्रवा की प्रशंसा करने लगे। उनके द्वारा निन्दित होने पर भी श्रीकृष्ण और अर्जुन ने कोई अप्रिय बात नहीं कही तथा प्रशंसित होने पर भी यूपकेतु भूरिश्रवा ने हर्ष नहीं प्रकट किया। राजन! आपके पुत्र जब भूरिश्रवा की ही भाँति निन्दा की बातें कहने लगे, तब अर्जुन उनके तथा भूरिश्रवा के उस कथन को मन ही मन सहन न कर सके।
भरतनन्दन! पाण्डुपुत्र अर्जुन के मन में तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। उन्होंने मानो पुरानी बातें याद दिलाते हुए, कौरवों पर आक्षेप करते हुए से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- सब राजा मेरे इस महान व्रत को जानते ही हैं कि जो कोई मेरा आत्मीयजन मेरे बाणों की पहुँच के भीतर होगा, वह किसी शत्रु के द्वारा मारा नहीं जा सकता। यूपध्वज भूरिश्रवा जी! इस बात पर ध्यान देकर आपको मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये। धर्म के स्वरूप को जाने बिना दूसरे किसी की निन्दा करनी उचित नहीं है। आप तलवार हाथ में लेकर रणभूमि में वृष्णिवीर सात्यकि का वध करना चाहते थे। उस दशा में मैंने जो आपकी बांह काट डाली है, वह आश्रित रक्षारूप धर्म निन्दित नहीं है। तात! बालक अभिमन्यु शस्त्र, कवच और रथ से हीन हो चुका था, उस दशा में जो उसका वध किया गया, उसकी कौन धार्मिक पुरुष प्रशंसा कर सकता है। जो शास्त्रीय मर्यादा में स्थित नहीं रहता, उस नीच दुर्योधन की सहायता करने वाले सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा का जो इस प्रकार वध हुआ है, वह ठीक ही है। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि मुझे प्राण संकट उपस्थित होने पर आत्मीयजनों की रक्षा करनी चाहिये; विशेषतः उन वीरों की जो मेरी आंखों के सामने मारे जा रहे हों। कुरुवंशी महामना भूरिश्रवा ने सात्यकि को अपने वश में कर लिया था। इसी से अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये मैंने यह कार्य किया है’।
संजय कहते हैं ;- राजन! फिर बहुत सी भिन्न-भिन्न बातें सोचकर अर्जुन दया से द्रवित और शोक से पीड़ित हो उठे तथा कुरुवंशी भूरिश्रवा से इस प्रकार बोले।
अर्जुन ने कहा ;- 'उस क्षत्रिय-धर्म को धिक्कार है, जहाँ दूसरों को शरण देने वाले आप-जैसे शरणागतवत्सल नरेश ऐसी अवस्था को जा पहुँचे हैं। यदि पहले से प्रतिज्ञा न की गयी होती तो संसार में मेरे-जैसा कौन श्रेष्ठ पुरुष आप-जैसे गुरुजन पर आज ऐसा प्रहार कर सकता था?' कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर भूरिश्रवा ने अपने मस्तक से भूमि का स्पर्श किया। बायें हाथ से अपना दाहिना हाथ उठा कर अर्जुन के पास फेंक दिया। महाराज! पार्थ की उपर्युक्त बात सुनकर यूप चिह्नित ध्वजा वाले महातेजस्वी भूरिश्रवा नीचे मुंह किये मौन रह गये। उस समय अर्जुन ने कहा,
अर्जुन ने फिर कहा ;- 'शल के बड़े भाई भूरिश्रवा जी! मेरा जो प्रेम धर्मराज युधिष्ठिर, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन, नकुल और सहदेव में है, वही आपमें भी है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 47-62 का हिन्दी अनुवाद)
मैं और महात्मा भगवान श्रीकृष्ण आपको यह आज्ञा देते हैं कि आप उशीनर-पुत्र शिबि के समान पुण्यात्मा पुरुषों के लोकों में जायं।
भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- निरन्तर अग्निहोत्र द्वारा यजन करने वाले भूरिश्रवा जी! मेरे जो निरन्तर प्रकाशित होने वाले निर्मल लोक हैं और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी जहाँ जाने की सदैव अभिलाषा रखते हैं, उन्हीं लोकों में आप शीघ्र पधारिये और मेरे ही समान गरुड़ की पीठ पर बैठकर विचरने वाले होइये।
संजय कहते हैं ;- राजन! सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा के छोड़ देने पर शिनि-पौत्र सात्यकि उठकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने तलवार लेकर महामना भूरिश्रवा का सिर काट लेने का निश्चय किया। शल के बड़े भाई प्रचुर दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा सर्वथा निष्पाप थे। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उनकी बांह काटकर उनका वध-सा ही कर दिया था और इसीलिये वे आमरण अनशन का निश्चय लेकर ध्यान आदि अन्य कार्यों में आसक्त हो गये थे। उस अवस्था में सात्यकि ने बांह कट जाने से सूंड़ कटे हाथी के समान बैठे हुए भूरिश्रवा को मार डालने की इच्छा की। उस समय समस्त सेना के लोग चिल्ला चिल्लाकर सात्यकि की निन्दा कर रहे थे। परंतु सात्यकि की मनोदशा बहुत बुरी थी। भगवान श्रीकृष्ण तथा महात्मा अर्जुन भी उन्हें रोक रहे थे। भीमसेन, चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन तथा सिंधुराज जयद्रथ भी उन्हें मना करते रहे, किंतु समस्त सैनिकों के चीखने-चिल्लाने पर भी सात्यकि ने उस व्रतधारी भूरिश्रवा का वध कर ही डाला। रणभूमि में अर्जुन ने जिनकी भुजा काट डाली थी तथा जो आमरण उपवास का व्रत लेकर बैठे थे, उन भूरिश्रवा पर सात्यकि ने खड्ग का प्रहार किया और उनका सिर काट लिया।
अर्जुन ने पहले जिन्हें मार डाला था, उन कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा का सात्यकि ने जो वध किया, उनके उस कर्म से सैनिकों ने उनका अभिनन्दन नहीं किया। युद्ध में प्रायोपवेशन करने वाले, इन्द्र के समान पराक्रमी भूरिश्रवा को मारा गया देख सिद्ध, चारण, मनुष्य और देवताओं ने उनका गुणगान किया; क्योंकि वे भूरिश्रवा के कर्मों से आश्चर्यचकित हो रहे थे। आपके सैनिकों ने सात्यकि के पक्ष और विपक्ष में बहुत-सी बातें कही। अन्त में वे इस प्रकार बोले- इसमें सात्यकि का कोई अपराध नहीं है। होनहार ही ऐसी थी। इसलिये आप लोगों को अपने मन में क्रोध नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्रोध ही मनुष्यों के लिये अधिक दुःखदायी होता है। वीर सात्यकि के द्वारा ही भूरिश्रवा मारे जाने वाले थे। विधाता ने युद्धस्थल में ही सात्यकि को उनकी मृत्यु निश्चित कर दिया था; इसलिये इसमें विचार नहीं करना चाहिये।
सात्यकि बोले ;- धर्म का चोला पहनकर खड़े हुए अधर्मपरायण पापात्माओं! इस समय धर्म की बातें बनाते हुए तुम लोग जो मुझसे बारंबार कह रहे हो कि ‘न मारो, न मारो’ उसका उत्तर मुझसे सुन लो। जब तुम लोगों ने सुभद्रा के बालक पुत्र अभिमन्यु को युद्ध में शस्त्रहीन करके मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? मैंने तो पहले से ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिसके द्वारा कभी भी मेरा तिरस्कार हो जायगा अथवा जो संग्रामभूमि में मुझे पटक कर जीते जी रोषपूर्वक मुझे लात मारेगा, वह शत्रु मुनियों के समान मौनव्रत लेकर ही क्यों न बैठा हो, अवश्य मेरा वध होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 63-72 का हिन्दी अनुवाद)
मेरी बांहें मौजूद हैं और मैं अपने ऊपर किये गये आघात का बदला लेने की निरन्तर चेष्टा करता आया हूँ तो भी तुम लोग आंख रहते हुए भी यदि मुझे मरा हुआ मान लेते हो, तो यह तुम्हारी बुद्धि की मन्दता का परिचायक है। कुरुश्रेष्ठ वीरो! मैंने तो भूरिश्रवा का वध करके बदला चुकाया है, जो सर्वथा उचित है। कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए जो मुझे संकट में देखकर भूरिश्रवा की तलवार सहित बांह काट डाली, इसी से मैं भूरिश्रवा को मारने के यश से वन्चित रह गया। जो होनहार होती है, उसके अनुकूल ही दैव चेष्टा कराता है। इसी के अनुसार इस संग्राम में भूरिश्रवा मारे गये हैं। इसमें अधर्मपूर्ण चेष्टा क्या है? महर्षि वाल्मीकि ने पूर्वकाल में ही इस भूतल पर एक श्लोक का गान किया है। जिसका भावार्थ इस प्रकार है- वानर! तुम जो यह कहते हो कि स्त्रियों का वध नहीं करना चाहिये, उसके उत्तर में मेरा यह कहना है कि उद्योगी मनुष्य के लिये सदा सब समय वह कार्य करने ही योग्य माना गया है, जो शत्रुओं को पीड़ा देने वाला हो।
संजय कहते हैं ;- महाराज! सात्यकि के ऐसा कहने पर समस्त श्रेष्ठ कौरवों ने उसके उत्तर में कुछ नहीं कहा। वे मन ही मन उनकी प्रंशसा करने लगे। बड़े-बड़े यज्ञों में मन्त्रयुक्त अभिषेक से जो पवित्र हो चुके थे, यज्ञों में कई हजार स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा देते थे, जिनका यश सर्वत्र फैला हुआ था और जो वनवासी मुनि के समान वहाँ बैठे हुए थे, उन भूरिश्रवा के वध का किसी ने भी अभिनन्दन नहीं किया। वर देने वाले भूरिश्रवा का नीले केशों से अलंकृत तथा कबूतर के समान लाल नेत्रों वाला वह कटा हुआ सिर ऐसा जान पड़ता था, मानो अश्वमेध के मध्य अश्व का कटा हुआ मस्तक अग्निकुण्ड के भीतर रखा गया हो। वरदायक तथा वर पाने के योग्य भूरिश्रवा ने उस महायुद्ध में शस्त्र के तेज से पवित्र हो अपने उत्तम शरीर का परित्याग करके उत्कृष्ट धर्म के द्वारा पृथ्वी और आकाश को लांघकर ऊर्ध्वलोक में गमन किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व केअन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में भूरिश्रवा का वध विषयक एक सौ तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि के भूरिश्रवा द्वारा अपमानित होने का कारण तथा वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जो वीर सात्यकि द्रोण, कर्ण, विकर्ण और कृतवर्मा से भी परास्त न हुए और युधिष्ठिर से की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार कौरवसेनारूपी समुद्र से पार हो गये, जिन्हें समरांगण में कोई भी रोक न सका, उन्हीं को कुरुवंशी भूरिश्रवा ने बलपूर्वक पकड़ कर कैसे पृथ्वी पर गिरा दिया ?
संजय ने कहा ;- राजन! जिस विषय में आपको संशय है, उसे स्पष्ट समझने के लिये यहाँ पूर्वकाल में सात्यकि और भूरिश्रवा की उत्पत्ति जिस प्रकार हुई थी, वह प्रसंग सुनिये। महषि अत्रि के पुत्र सोम हुए। सोम के पुत्र बुध माने गये हैं। बुध के एक ही पुत्र हुआ पुरूरवा, जो देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी था। पुरूरवा के पुत्र आयु और आयु के पुत्र नहुष हुए। नहुष के राजा ययाति हुए, जिनका देवताओं तथा ऋषियों में भी बड़ा आदर था। ययाति से देवयानी के गर्भ से जो ज्येष्ठ पुत्र हुआ, उसका नाम यदु था। इन्हीं यदु के वंश में देवमीढ़ नाम से विख्यात एक यादव हो गये हैं। उनके पुत्र का नाम था शूर, जो तीनों लोकों में सम्मानित थे। शूर के पुत्र नरश्रेष्ठ शौरि हुए, जो महायशस्वी वसुदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। शूर धनुर्विद्या में सबसे श्रेष्ठ थे। वे युद्ध में कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी थे।
नरेश्वर! जिस कुल में शूर का जन्म हुआ था, उसी में उन्हीं के समान बलशाली शिनि हुए। राजन! इसी समय महात्मा देवक की पुत्री देवकी के स्वयंवर में सम्पूर्ण क्षत्रिय एकत्र हुए थे। उस स्वयंवर में शिनि ने शीघ्र ही समस्त राजाओं को जीतकर वसुदेव के लिये देवकी देवी को रथ पर बैठा लिया। नरश्रेष्ठ! नरेश्वर! उस समय महातेजस्वी शूरवीर सोमदत्त ने देवकी देवी को रथ पर बैठे हुए देख शिनि के पराक्रम को सहन नहीं किया। पुरुषप्रवर महाराज! उन दोनों महाबली शिनि और सोमदत्त में आधे दिन तक विचित्र एवं अद्भूतबाहु युद्ध हुआ। उसमें शिनि ने सोमदत्त को बलपूर्वक पृथ्वी वर पटक दिया और तलवार उठाकर उनकी चुटिया पकड़ ली एवं उन्हें लात मारी। चारों ओर से सहस्रों नरेश दर्शक बनकर यह युद्ध देख रहे थे। उनके बीच में पुनः कृपा करके ‘जाओ, जीवित रहो’ ऐसा कहकर शिनि ने सोमदत्त को छोड़ दिया।
माननीय नरेश! जब शिनि ने सोमदत्त की ऐसी दुरवस्था कर दी, तब उन्होंने अमर्ष के वशीभूत हो आराधना द्वारा महादेव जी को प्रसन्न किया। श्रेष्ठ देवताओं में भी सर्वश्रेष्ठ वरदायक तथा सामर्थ्यशाली महादेव जी ने संतुष्ट होकर उन्हें इच्छानुसार वर मांगने के लिये कहा। तब राजा सोमदत्त ने इस प्रकार वर मांगा- भगवान! मैं ऐसा पुत्र पाना चाहता हूं, जो शिनि के पुत्र को सहस्रों राजाओं के बीच युद्ध में पृथ्वी पर गिराकर उसे पैर से मारे। राजन! सोमदत्त का यह कथन सुनकर महादेव जी ने सिर हिलाकर कहा,
महादेव ने कहा ;- नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। नरेश्वर! शिनि के पुत्र ने तो पहले ही तपस्या द्वारा मेरी आराधना करके तीनों लोकों में किसी से भी न मारे जाने का उत्तम वर मुझसे प्राप्त कर लिया है; परंतु तुम्हारा भी यह प्रयास निष्फल नहीं होगा। तुम्हारा पुत्र समरभूमि में शिनि के पौत्र को तुम्हारी इच्छा के अनुसार मूर्च्छित कर देगा, परंतु उसके हाथ से वह मारा नहीं जा सकेगा; क्योंकि श्रीकृष्ण से वह सुरक्षित होगा। मैं ही श्रीकृष्ण हूँ। हम दोनों में कहीं कोई अन्तर नहीं है। जाओ, ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)
उसी वरदान के प्रभाव से सोमदत्त ने प्रचुर दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा को पुत्र रूप में प्राप्त किया और उसने समरांगण में शिनिवंशज सात्यकि को गिरा दिया। इतना ही नहीं, उसने सारी सेनाओं के देखते-देखते सात्यकि को लात भी मारी। राजन! आप मुझसे जो पूछ रहे थे, उसके उत्तर में यह प्रसंग सुनाया है। सात्यकि को रणभूमि में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मनुष्य भी नहीं जीत सकते। वृष्णिवंशी योद्धा अपने निशाने को सफलतापूर्वक वेध लेते हैं। वे संग्रामभूमि में अनेक प्रकार से विचित्र युद्ध करने वाले होते हैं। देवताओं, दानवों तथा गन्धर्वों पर भी वे विजयी होते हैं। फिर भी इसके लिये उनके मन में गर्व या विस्मय नहीं होता। वे अपने ही बल से विजय पाने का उद्योग करते हैं। ये वृष्णिवंशी कभी पराधीन नहीं होते हैं। शक्तिशाली भरतश्रेष्ठ! भूत, वर्तमान और भविष्य कोई भी जगत बल में वृष्णिवंशीयों के समान नहीं दिखायी देता।
ये अपने कुटुम्बीजनों की अवहेलना नहीं करते हैं। सदा बड़े-बूढ़ों की आज्ञा में तत्पर रहते हैं। देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग और राक्षस भी युद्ध में वृष्णिवीरों पर विजय नहीं पा सकते; फिर मनुष्य किस गिनती में हैं? ये ब्राह्मण, गुरु तथा कुटुम्बीजनों के धन लेने के लिये कभी हिंसा नहीं करते हैं। इन ब्राह्मण गुरु आदि में जो कोई भी किसी आपत्ति में पड़े हों, उनकी ये वृष्णिवंशी रक्षा करते हैं। ये सब-के-सब धनवान, अभिमानशून्य, ब्राह्मण भक्त और सत्यवादी होते हैं। ये सामर्थ्यशाली पुरुषों की अवहेलना नहीं करते और दीन-दुखियों का उद्धार करते हैं। सदा देवभक्त, जितेन्द्रिय, दूसरों के संरक्षक तथा आत्मप्रशंसा से दूर रहने वाले हैं। इसी से वृष्णिवीरों का यह समूह किसी के द्वारा प्रतिहत नहीं होता है। नरेश्वर! कोई मेरु पर्वत को सिर पर उठा ले अथवा समुद्र को हाथों से तैर जाये; परंतु वृष्णिवीरों के समूह का अन्त नहीं पा सकता। प्रभो! जहाँ आपको संदेह था, वह सब मैंने अच्छी तरह बता दिया है। कुरुराज नरश्रेष्ठ! इस युद्ध को चालू करने में आपका महान अन्याय ही कारण है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में सात्यकि की प्रशंसा विषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण, कर्ण और दुर्योधन की बातचीत, कर्ण के साथ अर्जुन का युद्ध और कर्ण की पराजय तथा सब योद्धाओं के साथ अर्जुन का घोर युद्ध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! उस अवस्था में कुरुवंशी भूरिश्रवा के मारे जाने पर पुनः जिस प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- भारत! भूरिश्रवा के परलोकगामी हो जाने पर महाबाहु अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को प्रेरित करते हुए कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘श्रीकृष्ण! जिस ओर राजा जयद्रथ खड़ा है, उसी ओर अब इन घोड़ों को शीघ्रतापूर्वक हांकिये। कमलनयन! सुना जाता है कि वह इस समय तीन धर्मो में विद्यमान है। निष्पाप केशव! मेरी प्रतिज्ञा आप सफल करें। महाबाहो! सूर्यदेव तीव्रगति से अस्तांचल की ओर जा रहे हैं। पुरुषसिंह! मैंने यह बहुत बड़े कार्य के लिये उद्योग आरम्भ किया है। कौरव सेना के महारथी इस जयद्रथ की रक्षा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण! जब तक सूर्य अस्ताचल को न चले जायँ, तभी तक जैसे भी मेरी प्रतिज्ञा सच्ची हो जाय और जैसे भी मैं जयद्रथ को मार सकूं, उसी प्रकार शीघ्रतापूर्वक इन घोड़ों को हांकिये। तब अश्वविद्या के ज्ञाता महाबाहु श्रीकृष्ण ने जयद्रथ को मारने के उद्देश्य से उसकी ओर चांदी के समान श्वेत घोड़ों का हांका। महाराज! जिनके बाण कभी व्यर्थ नहीं जाते, उन अर्जुन को धनुष से छूटे हुए बाणों के समान उड़ते हुए से अश्वों द्वारा जयद्रथ की ओर जाते देख कौरव सेना के प्रधान-प्रधान वीर बड़े वेग से दौड़े। दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और स्वयं सिंधुराज जयद्रथ- ये सभी युद्ध के लिये डट गये। वहाँ उपस्थित हुए सिंधुराज को सामने पाकर अर्जुन ने क्रोध से उद्दीप्त नेत्रों द्वारा उसे इस प्रकार देखा, मानो जला कर भस्म कर देंगे। तब राजा दुर्योधन ने अर्जुन को जयद्रथ को मारने के लिये।
उसकी ओर जाते देख तुरंत ही राधापुत्र कर्ण से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- सूर्यपुत्र! यही वह युद्ध का समय आया है। महात्मन! तुम इस समय अपना बल दिखाओ। कर्ण! रणभूमि में अर्जुन के द्वारा जैसे भी जयद्रथ का वध न होने पावे, वैसा प्रयत्न करो। नरवीर! अब दिन का थोड़ा सा ही भाग शेष है। तुम अपने बाण समूहों द्वारा इस समय शत्रु को घायल करके उसके कार्य में बाधा डालो। मनुष्य लोक के प्रमुख वीर कर्ण! दिन समाप्त होने पर तो निश्चय ही हमारी विजय हो जायगी। सूर्यास्त होने तक यदि सिंधुराज सुरक्षित रहे तो प्रतिज्ञा झूठी होने के कारण अर्जुन अग्नि में प्रवेश कर जायेंगे। मानद! फिर अर्जुनरहित भूतल पर उनके भाई और अनुगामी सेवक दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। कर्ण! पाण्डवों के नष्ट हो जाने पर हम लोग पर्वत, वन और काननों सहित इस निष्कण्टक वसुधा का राज्य भोगेंगे। मानद! दैव के मारे हुए अर्जुन की बुद्धि विपरीत हो गयी थी। इसीलिये कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार न करके उन्होंने रणभूमि में जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा कर ली। कर्ण! निश्चय ही किरीटधारी पाण्डव अर्जुन ने अपने ही विनाश के लिये जयद्रथ वध की यह प्रतिज्ञा कर डाली है। राधानन्दन! तुम जैसे दुर्धर्ष वीर के जीते-जी अर्जुन सिंधुराज को सूर्यास्त होने से पहले ही कैसे मार सकेंगे? मद्रराज शल्य और महामना कृपाचार्य से सुरक्षित हुए जयद्रथ को अर्जुन युद्ध के मुहाने पर कैसे मार सकेंगे? मैं, दुःशासन तथा अश्वत्थामा जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन सिंधुराज जयद्रथ को अर्जुन कैसे प्राप्त कर सकेंगे? जान पड़ता है कि वे काल से प्रेरित हो रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
मानद! बहुत से शूरवीर युद्ध कर रहे हैं, उधर सूर्य भी अस्ताचल पर जा रहे हैं। अतः मुझे संदेह यह होता है कि अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुँच पायेंगे। कर्ण! तुम मेरे, अश्वत्थामा के, मद्रराज शल्य के, कृपाचार्य के तथा अन्य शूरवीर महारथियों के साथ पूरा प्रयत्न करके रणक्षेत्र में अर्जुन के साथ युद्ध करो। आर्य! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर राधानन्दन कर्ण ने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- मानद! सुदृढ़ लक्ष्य वाले वीर धनुर्धर भीमसेन ने संग्राम में अपने बाण समूहों द्वारा अनेक बार मेरे शरीर को अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। मुझे खड़ा रहना चाहिये (भागना नहीं चाहिये), यह सोचकर ही इस समय मैं रणभूमि में ठहरा हुआ हूँ। इस समय मेरा कोई भी अंग किसी प्रकार की चेष्टा नहीं कर रहा है। मैं बड़े-बड़े बाणों की आग से संतप्त हूं, तथापि यथाशक्ति युद्ध करूंगा; क्योंकि यह मेरा जीवन तुम्हारे लिये ही है।
पाण्डवों के प्रधान वीर अर्जुन जैसे भी किसी तरह सिंधुराज को नहीं मार सकेंगे, वैसा प्रयत्न करूंगा। जब तक मैं युद्ध में तत्पर होकर पैने बाण छोड़ता रहूंगा, तब तक सव्यसाची वीर धनंजय सिंधुराज को नहीं पा सकेंगे। कुरुनन्दन! सदा मित्र का हित चाहने वाले भक्तिमान पुरुष को जो कार्य करना चाहिये, वह मैं करूंगा। विजय की प्राप्ति तो दैव के अधीन है। महाराज! आज युद्धस्थल में आपका प्रिय करने के लिये मैं सिंधुराज की रक्षा के निमित्त पूरा प्रयत्न करूंगा। विजय तो दैव के अधीन है। पुरुषसिंह! आज मैं अपने पुरुषार्थ का भरोसा करके तुम्हारे हित के लिये अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। विजय की प्राप्ति तो दैव के अधीन है। कुरुश्रेष्ठ! आज सारी सेनाएं मेरे और अर्जुन दोनों के भयंकर एवं रोमान्चकारी युद्ध को देखें।
जब रणक्षेत्र में कर्ण और दुर्योधन इस तरह वार्तालाप कर रहे थे, उस समय अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा आपकी सेना का संहार आरम्भ किया। उन्होंने तीखे बाणों से रणभूमि में कभी पीठ न दिखाने वाले शूरवीरों की परिध के समान सुदृढ़ तथा हाथी की सूंड़ के समान मोटी भुजाओं को काट डाला। महाबाहु अर्जुन ने सब ओर अपने तीखे बाणों से शत्रुओं के मस्तक, हाथियों के शुण्डदण्डों, घोड़ों की गर्दनों तथा रथ के धुरों को भी खण्डित कर दिया। अर्जुन ने हाथों में प्रास और तोमर लिये खून से रंगे हुए घुड़सवारों में से प्रत्येक के अपने छुरों द्वारा दो-दो और तीन-तीन टुकड़े कर डाले। बड़े-बड़े हाथी और घोड़े सब ओर धराशायी होने लगे। ध्वज, छत्र, धनुष, चंवर तथा योद्धाओं के मस्तक कट-कट कर गिरने लगे। जैसे प्रचण्ड अग्नि घास-फूस के जंगल को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन ने आपकी सेना को दग्ध करते हुए थोड़ी ही देर में वहाँ की भूमि को रक्त से आप्लावित कर दिया। सत्यपराक्रमी, बलवान एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुन ने आपकी सेना के अधिकांश योद्धाओं को मारकर सिंधुराज पर आक्रमण किया। भरतश्रेष्ठ! भीमसेन और सात्यकि से सुरक्षित अर्जुन उस समय प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। अर्जुन को इस प्रकार बल पराक्रम की सम्पत्ति से युक्त होकर युद्ध के लिये डटा हुआ देख आपकी सेना के श्रेष्ठ पुरुष एवं महाधनुर्धर वीर सहन न कर सके।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-62 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा स्वयं सिंधुराज जयद्रथ इन सबने जयद्रथ की रक्षा के लिये संनद्ध होकर किरीटधारी अर्जुन को सब ओर से घेर लिया। उस समय युद्धकुशल कुन्तीकुमार धनुष की टन्कार करते हुए रथ के मार्गों पर नाच रहे थे और मुंह बाये हुए यमराज के समान भयंकर जान पड़ते थे। उन्हें युद्धविशारद समस्त कौरव महारथियों ने निर्भय हो चारों ओर से घेर लिया। वे श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालने की इच्छा से सिंधुराज जयद्रथ को पीछे करके सूर्यास्त होने की इच्छा और प्रतीक्षा करने लगे। उस समय सूर्य लाल-से हो चले थे। उन कौरव सैनिकों ने सर्प के शरीर के समान प्रतीत होने वाली अपनी भुजाओं द्वारा धनुषों को नवाकर अर्जुन पर सूर्य की किरणों के समान चमकीले सैकड़ों बाण छोड़े। तदनन्तर रणदुर्मद किरीटधारी अर्जुन ने उन छोड़े गये बाणों में से प्रत्येक के दो-दो, तीन-तीन और आठ-आठ टुकड़े करके उन रथियों को भी घायल कर दिया।
राजन! जिनकी ध्वजा में सिंह की पूंछ का चिह्न था, उन शारद्वती पुत्र कृपाचार्य ने अपना बल पराक्रम दिखाते हुए अर्जुन को रोका। वे दस बाणों से अर्जुन को और सात से श्रीकृष्ण को घायल करके रथ के मार्गों पर जयद्रथ की रक्षा करते हुए खड़े थे। तत्पश्चात कौरव सेना के सभी श्रेष्ठ महारथियों ने विशाल रथ समूह के द्वारा कृपाचार्य को सब ओर से घेर लिया। वे आपके पुत्र की आज्ञा से धनुष खींचते और बाण छोड़ते हुए वहाँ जयद्रथ की सब ओर से रक्षा करने लगे। तत्पश्चात वहाँ शूरवीर कुन्तीकुमार की भुजाओं का बल देखा गया। उनके गाण्डीव धनुष तथा बाणों की अक्षयता का परिचय मिला। उन्होंने अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का अपने अस्त्रों द्वारा निवारण करके बारी-बारी से उन सबको दस-दस बाण मारे। अश्वत्थामा ने पच्चीस, वृषसेन ने सात, दुर्योधन ने बीस तथा कर्ण और शल्य ने तीन-तीन बाणों से अर्जुन को घायल कर दिया।
वे अर्जुन को लक्ष्य करके बार-बार गरजते, उन्हें बारंबार बाणों से बींधते और धनुष को हिलाते हुए सब ओर से उन्हें आगे बढ़ने से रोकने लगे। उन महारथियों ने सूर्यास्त की इच्छा रखते हुए बड़ी उतावली के साथ अपने रथ समूह को परस्पर सटाकर सब ओर से खड़ा कर दिया। जैसे बादल पर्वतशिखर पर अपने जल की बूंदों से आघात करते हैं, उसी प्रकार वे कौरव महारथी धनुष हिलाते तथा अर्जुन के सामने गर्जना करते हुए उन पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! परिध के समान सुदृढ़ भुजाओं वाले उन शूरवीरों ने अर्जुन के शरीर पर वहाँ बड़े-बड़े दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन किया। तथापि सत्यपराक्रमी बलवान एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुन ने आपकी सेना के अधिकांश योद्धाओं का संहार करके सिन्धुराज पर आक्रमण किया। राजन! भरतनन्दन! उस युद्धस्थल में कर्ण ने भीमसेन और सात्यकि के देखते-देखते अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा अर्जुन को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब महाबाहु अर्जुन ने समरांगण में सारी सेना के देखते-देखते सूतपुत्र कर्ण को दस बाणों से घायल कर दिया। माननीय नरेश! तदनन्तर सात्यकि ने तीन बाणों से कर्ण को वेध दिया, फिर भीमसेन ने भी उसे तीन बाण मारे और अर्जुन ने पुनः सात बाणों से कर्ण को घायल कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 63-83 का हिन्दी अनुवाद)
तब महारथी कर्ण ने उन तीनों को साठ-साठ बाण मार कर बदला चुकाया। राजन! कर्ण का वह युद्ध अनेक वीरों के साथ हो रहा था। आर्य! वहाँ हमने सूतपुत्र का अद्भुत पराक्रम देखा कि समरभूमि में कुपित होकर उसने अकेले ही तीन-तीन महारथियों को रोक दिया था। उस समय महाबाहु अर्जुन ने रणभूमि में सौ बाणों द्वारा, सूर्यपुत्र कर्ण को उसके सम्पूर्ण मर्मस्थानों में चोट पहुँचायी। प्रतापी सूतपुत्र कर्ण के सारे अंग खून से लथपथ हो गये, तथापि उस वीर ने पचास बाणों से अर्जुन को भी घायल कर दिया। रणक्षेत्र में उसकी यह फुर्ती देखकर अर्जुन सहन न कर सके। तदनन्तर कुन्तीकुमार वीर धनंजय ने कर्ण का धनुष काटकर बड़ी उतावली के साथ उसकी छाती में नौ। बाणों का प्रहार किया। तब प्रतापी सूतपुत्र ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर आठ हजार बाणों से पाण्डुपुत्र अर्जुन को ढक दिया।
कर्ण के धनुष से प्रकट हुई उस अनुपम बाण वर्षा को अर्जुन ने बाणों द्वारा उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे वायु टिड्डियों के दल को उड़ा देती है। तत्पश्चात अर्जुन ने रणभूमि में दर्शक बने हुए समस्त योद्धाओं को अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए उस समय कर्ण को भी आच्छादित कर दिया। साथ ही शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करने वाले अर्जुन ने समरभूमि में सूतपुत्र का वध करने के लिये उसके ऊपर सूर्य के समान तेजस्वी बाण चलाया। उस बाण को वेगपूर्वक आते देख अश्वत्थामा ने तीखे अर्धचन्द्र से बीच में ही काट दिया। कट कर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब शत्रुहन्ता कर्ण ने भी उनके किये हुए प्रहार का बदला चुकाने की इच्छा से अनेक सहस्र बाणों द्वारा पुनः अर्जुन को आच्छादित कर दिया। वे दोनों पुरुषसिंह महारथी दो सांड़ों के समान हंकड़ते हुए अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा आकाश को आच्छादित करने लगे। वे दोनों एक दूसरे पर चोट करते हुए स्वयं बाण समूहों से ढक कर अदृश्य हो गये थे और एक दूसरे को पुकार कर इस प्रकार कहते थे- ‘कर्ण! तू खड़ा रह, मैं अर्जुन हूँ। ‘अर्जुन! खड़ा रह, मै कर्ण हूं’।
इस प्रकार एक दूसरे को ललकारते और डांटते हुए वे दोनों वीर वाक्यरूपी बाणों द्वारा परस्पर चोट करते हुए समरांगण में शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंग से विचित्र युद्ध कर रहे थे। सम्पूर्ण योद्धाओं के उस सम्मेलन में वे दोनों दर्शनीय हो रहे थे। महाराज! समरभूमि में सिद्ध, चारण और नागों द्वारा प्रशंसित होते हुए कर्ण और अर्जुन एक दूसरे के वध की इच्छा से युद्ध कर रहे थे।
राजन! तदनन्तर दुर्योधन ने आपके सैनिकों से कहा ‘वीरों! तुम यत्नपूर्वक राधापुत्र कर्ण की रक्षा करो। वह युद्धस्थल में अर्जुन का वध किये बिना नहीं लौटेगा; क्योंकि उसने मुझसे यही बात कही है’। राजन! इसी समय कर्ण का वह पराक्रम देखकर श्वेत वाहन अर्जुन ने कान तक खींचकर छोड़े हुए चार बाणों द्वारा कर्ण के चारों घोड़ों को प्रेतलोक पहुँचा दिया और एक भल्ल मारकर उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं, आपके पुत्र के देखते-देखते उन्होंने कर्ण को बाणों से ढक दिया। घोड़े और सारथी के मारे जाने पर समरांगण में बाणों से ढका हुआ कर्ण बाण-जाल से मोहित हो यह भी नहीं सोच सका कि अब क्या करना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 84-98 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! कर्ण को इस प्रकार रथहीन हुआ देख अश्वत्थामा ने उस समय उसे रथ पर बैठा लिया और वह पुनः अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। महाराज शल्य ने कुन्तीकुमार अर्जुन को तीस बाणों से घायल कर दिया। कृपाचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण को बीस बाण मारे और अर्जुन पर बारह बाणों का प्रहार किया। महाराज! फिर सिन्धुराज ने चार और वृषसेन ने सात बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन को पृथक-पृथक घायल कर दिया। इसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुन ने भी उन्हें बाणों से बींधकर बदला चुकाया। अर्जुन ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को चौसठ, मद्रराज शल्य को सौ, सिन्धुराज जयद्रथ को दस, वृषसेन को तीन और कृपाचार्य को बीस बाणों से घायल करके सिंहनाद किया। यह देख सव्यसाची अर्जुन की प्रतिज्ञा को भंग करने की अभिालाषा से आपके वे सभी सैनिक एक साथ संगठित हो तुरंत उन पर टूट पड़े। तदनन्तर अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को भयभीत करते हुए सब ओर वारुणास्त्र प्रकट किया। कौरव सैनिक अपने बहुमूल्य रथों द्वारा पाण्डुपुत्र अर्जुन की ओर बढ़े और उन पर बाणों की वर्षा करने लगे।
भारत! सबको मोह में डालने वाले उस अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध के उपस्थित होने पर भी किरीटधारी राजकुमार अर्जुन तनिक भी मोहित नहीं हुए। वे बाण समूहों की वर्षा करते ही रहे। अप्रमेय शक्तिशाली महामनस्वी सव्यसाची अर्जुन अपना राज्य प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने कौरवों के दिये हुए क्लेशों और बारह वर्षों तक भोगे हुए वनवास के कष्टों को स्मरण करते हुए गाण्डीव धनुष से छूटने वाले बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। आकाश में कितनी ही उल्काएं प्रज्वलित हो उठी और योद्धाओं के मृत शरीरों पर मांस भक्षी पक्षी गिरने लगे; क्योंकि उस समय क्रोध में भरे हुए किरीटधारी अर्जुन पीली प्रत्यञ्चा वाले गाण्डीव धनुष के द्वारा शत्रुओं का संहार कर रहे थे।
तत्पश्चात शत्रुसेना को जीतने वाले महायशस्वी किरीटधारी अर्जुन ने विशाल धनुष के द्वारा बाणों का प्रहार करके उत्तम घोड़ों और श्रेष्ठ हाथियों की पीठ पर बैठे हुए प्रमुख कौरव वीरों को मार गिराया। उस रणक्षेत्र में भयंकर दिखायी देने वाले कितने ही नरेश भारी गदाओं, लोहे के परिघों, तलवारों, शक्तियों और बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्रों को हाथ में लेकर कुन्तीनन्दन अर्जुन पर सहसा टूट पड़े। तब यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाले अर्जुन ने प्रलयकाल के मेघों के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले तथा इन्द्रधनुष के समान प्रतीत होने वाले विशाल गाण्डीव धनुष को हंसते हुए दोनों हाथों से खींचा और आपके सैनिकों को दग्ध करते हुए वे बड़े वेग से आगे बढ़े। महाधनुर्धर वीर अर्जुन ने रथ, हाथी और पैदल समूहों सहित उन कौरव सैनिकों को प्रचण्ड गति से आगे बढ़ते देख उनके सम्पूर्ण आयुधों और जीवन को भी नष्ट करके उन्हें यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला बना दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में संकुल युद्धविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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