सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ छत्तीसवें अध्याय से एक सौ चालीसवें अध्याय तक (From the 136 chapter to the 140 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और कर्ण का युद्ध, कर्ण का पलायन, धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध तथा भीम का पराक्रम”

    संजय कहते हैं ;- राजन! भीम द्वारा मारे गये आपके पुत्रों को रणभूमि में गिरा हुआ देख प्रतापी कर्ण अत्यन्त कुपित हो अपने जीवन से विरक्त हो उठा। उस समय अधिरथ पुत्र कर्ण अपने आपको अपराधी सा मानने लगा; क्योंकि भीमसेन ने उसकी आँखों के सामने रणभूमि में आपके पुत्रों को मार डाला था। तदनन्तर पहले के वैर का बारंबार स्मरण करके कुपित हुए भीमसेन ने कर्ण के शरीर में बड़े वेग से अपने पैने बाण धँसा दिये। तब राधा नन्दन कर्ण ने हँसते हुए से पाँच बाण मारकर भीमसेन को घायल कर दिया। फिर शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले सत्तर बाणों द्वारा उन्हें गहरी चोट पहुँचायी। कर्ण के चलाये हुए उन बाणों की कुछ भी परवा न करके भीमसेन ने रणभूमि में झुकी हुई गाँठ वाले सौ बाणों द्वारा राधा पुत्र को घायल कर दिया। माननीय नरेश! फिर पाँच तीखे बाणों द्वारा सूतपुत्र के मर्मस्थानों में चोट पहुँचाकर भीमसेन ने एक भल्ल द्वारा उसका धनुष काट दिया।

     भारत! तब शत्रुओं कां संताप देने वाले कर्ण ने खिन्न होकर दूसरा धनुष हाथ में ले भीमसेन को अपने बाणों द्वारा आच्छादित कर दिया। भीमसेन ने उसके घोड़ों और सारथि को मारकर उसके प्रहार का बदला चुका लेने के पश्चात पुनः बड़े वेग से अट्टहास किया। महाराज! पुरुष शिरोमणि भीम ने अपने बाणों द्वारा कर्ण का धनुष भी फिर भी काट दिया। स्वर्णमय पृष्ठ भाग से युक्त और गम्भीर टंकार करने वाला उसका वह धनुष पृथ्वी पर गिर पड़ा। महारथी कर्ण उस रथ से उतर गया और गदा लेकर उसने समर भूमि में भीमसेन पर रोष पूर्वक चला दी। राजन! उस विशाल गदा को अपने ऊपर आती देख भीमसेन ने सब सेनाओं के देखते देखते बाणों द्वारा उसका निवारण कर दिया। तब सूत पुत्र के वध की इच्छा वाले पराक्रमी पाण्डु पुत्र भीमसेन ने बड़ी उतावली के साथ एक हजार बाण चलाये। परंतु कर्ण ने उस महासमर में अपने बाणों द्वारा उन सभी बाणों का निवारण करके भीमसेन के कवच को बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिय।

      तदनन्तर उसने सब सेनाओं के देखते देखते भीमसेन पर पच्चीस नाराचों का प्रहार किया। वह अद्भुत सा बात हुई। माननीय नरेश! तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महाबाहु भीमसेन ने सूतपुत्र को झुकी हुई गाँठ वाले नौ बाण मारे। वे तीखे बाण कर्ण के कवच तथा दाहिनी भुजा को विदीर्ण करके बाँबी में घुसने वाले सर्पों के समान धरती में समा गये। भीमसेन के धनुष से छूटे हुए बाणों से आच्छादित होकर कर्ण पुनः भीमसेन से विमुख हो गया और उन्हें पीठ दिखा कर भाग चला। सूत पुत्र कर्ण को युद्ध से विमुख, पैदल तथा भीेमसेन के बाणों से आच्छादित देखकर राजा दुर्योधन अपने सैनिकों से बोला,

   दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीरों! सब ओर से राधा नन्दन कर्ण के रथ की ओर शीघ्र जाओ और उनकी रक्षा का प्रबन्ध करो।’ राजन! तब भाई की यह बात सुनकर आपके पुत्र शीघ्रता पूर्वक युद्ध में पाण्डु पुत्र भीम पर बाणों की वर्षा करते हुए आ पहुँचे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

   उनके नाम इस प्रकार हैं- चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, चित्रायुध और चित्रवर्मा। ये सब के सब समर भूमि में विचित्र रीति से युद्ध करने वाले थे। महारथी भीमसेन ने उनके आते ही शीघ्रता पूर्वक एक एक बाण मारकर आपके सभी पुत्रों को युद्ध में धराशायी कर दिया। वे मारे जाकर आँधी में उखाड़े हुए वृक्षों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े। राजन! आपके महारथी पुत्रों को इस प्रकार मारा गया देख कर्ण के मुख पर आँसुओं की धारा बह चली। उस समय उसे विदुर की कही हुई बात याद आयी। फिर उस पराक्रमी वीर ने विधि पूर्वक सजाये हुए दूसरे रथ पर बैठकर युद्ध में शीघ्रता पूर्वक पाण्डु पुत्र भीमसेन पर धावा किया। वे देनों एक दूसरे को शिला पर तेज किये हुए सुवर्ण पंख युक्त बाणों द्वारा क्षत-विक्षत करके सूर्य की किरणों में पिरोये हुए बादलों के समान सुशोभित होने लगे। तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने प्रचण्ड तेज वाले छत्तीस तीखे भल्लों का प्रहार करके सूत पुत्र के कवच की धज्जियाँ उड़ा दी। भरत श्रेष्ठ! फिर महाबाहु सूत पुत्र ने भी कुन्ती कुमार भीमसेन को झुकी हुई गाँठ वाले पचास बाणों से बींध डाला। उन दोनों ने अपने शरीर में लाल चन्दन लगा रखे थे। इसके सिवा उनके शरीर में बाणों के आघात से बड़े-बड़े घाव हो गये थे इस प्रकार खून से लथपथ हुए वे दोनों योद्धा उदय कालीन सूर्य और चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।

     बाणों द्वारा उन दोनों के कवच कट गये थे और सारे अंग रक्त से भीग गये थे। उस दशा में वे कर्ण और भीमसेन केंचुल छोड़कर निकले हुए दो सर्पों के समान शोभा पाने लगे। जैसे दो व्याघ्र अपनी दाढ़ों से एक दूसरे पर चोट करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों पुरुष व्याघ्र योद्धा परस्पर प्रहार कर रहे थे। वे दोनों वीर दो मेघों के समान बाण धारा की वर्षा कर रहे थे। जैसे दो हाथी अपने दाँतों से एक दूसरे पर आघात करते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुदमन वीर अपने बाणों द्वारा एक-दूसरे के शरीरों को विदीर्ण करते हुए सुशोभित हो रहे थे। रथियों में श्रेष्ठ भीम और कर्ण सिंहनाद करते, अत्यन्त हर्ष से उत्फुल्ल हो उठते और आपस में खेल-सा करते हुए रथों द्वारा मण्डल गति से विचरते थे। जैसे गाय के लिये दो बलवान साँड़ गरजते हुए लड़ जाते हैं, उसी प्रकार वे सिंह के समान पराक्रमी महान बलशाली पुरुषसिंह कण और भीम क्रोध से लाल आँखें करके एक दूसरे को देखते हुए महापराक्रमी इन्द्र और बलि के समान युद्ध कर रहे थे।

     राजन! उस रणक्षेत्र में महाबाहु भीमसेन अपनी भुजाओं से धनुष की टंकार करते हुए बिजली सहित मेघ के समान शोभा पा रहे थे। रथ के पहियों की घरघराहट जिसकी गम्भीर गर्जना थी और धनुष ही विद्युत के समान प्रकाशित होता था, भीमसेन रूपी उस महामेघ ने बाण रूपी जल की वर्षा से कर्ण रूपी पर्वत को ढक दिया। भरत नन्दन! तदनन्तर अच्छी तरह चलाये हुए सहस्रों बाणों से भयंकर पराक्रमी पाण्डु पुत्र भीम ने कर्ण को आच्छादित कर दिया। संजय कहते है- राजन! आपके पुत्रों ने वहाँ भीमसेन का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि उन्होंने कंक पत्र युक्त सुन्दर पंख वाले बाणों से कर्ण को आच्छादित कर दिया। भीमसेन रणक्षेत्र मेें कुन्ती कुमार अर्जुन, यशस्वी श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा दोनों चक्र रक्षक युधामन्यु एवं उत्तमौजा को आनन्दित करते हुए कर्ण के साथ युद्ध कर रहे थे। महाराज! सुविख्यात भीमसेन के पराक्रम, बाहुबल और धैर्य को देखकर आपके सभी पुत्र उदास हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का युद्ध विषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध”

   संजय कहते हैं ;- राजन! भीमसेन के धनुष की टंकार सुनकर राधा नन्दन कर्ण उसे सहन न कर सका। जैसे मतवाला हाथी अपने प्रतिपक्षी गजराज की गर्जना को नहीं सहन कर पाता। उसने थोड़ी देर के लिये भीमसेन की दृष्टि से दूर हटने पर देखा कि भीमसेन ने आपके पुत्रों को मार गिराया है। नरश्रेष्ठ! उनकी वह अवस्था देखकर उस समय कर्ण को बहुत दुःख हुआ। उसका मन उदास हो गया। वह गरम-गरम लंबी साँस खींचता हुआ पुनः पाण्डु नन्दन भीमसेन के सामने आया। उसकी आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं और वह फुफकारते हुए महान सर्प के समान उच्छ्वास खींच रहा था। उस समय बाणों की वर्षा करता हुआ कर्ण अपनी किरणों का प्रसार करते हुए सूर्य देव के समान शोभा पा रहा था। भरतश्रेष्ठ! जैसे सूर्य की किरणों से पर्वत ढक जाता है, उसी प्रकार कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा भीमसेन आच्छादित हो गये। कर्ण के धनुष से छूटे हुए वे मयूर पंखधारी बाण सब ओर से आकर भीमसेन के शरीर में उसी प्रकार घुसने लगे, जैसे पक्षी बसेरा लेने के लिये वृक्षों पर आ जाते हैं। कर्ण के धनुष से छूटकर इधर-उधर पड़ने वाले सुवर्ण पंख युक्त बाण श्रेणी बद्ध हंसों के समान शोभा पा रहे थे।

      राजन! उस समय अधिरथ के पुत्र कर्ण के बाण केवल धनुष से ही नहीं, ध्वज आदि अन्य समानों से, छत्र से, ईषादण आदि से तथा रथ के जूए से भी प्रकट होते दिखायी देते थे। अधिरथ पुत्र कर्ण ने अन्तरिक्ष को व्याप्त करते हुए महान वेगशाली, आकाश में विचरने वाले गृध्र के पंखों से युक्त और सुवर्ण के बने हुए विचित्र बाण चलाये। कर्ण को यमराज के समान आयास युक्त हो आते देख भीमसेन प्राणों का मोह छोड़कर पराक्रम पूर्वक उसे पैने बाणों द्वारा बींधने लगे। पराक्रमी पाण्डु पुत्र भीम ने कर्ण के वेग को असह्य देखकर उसके महान बाण समूहों का निवारण किया। पाण्डु कुमार भीम ने अधिरथ पुत्र के शर समूहों का निवारण करके शिला पर चढ़ाकर तेज किये हुए बीस अन्य बाणों द्वारा कर्ण को घायल कर दिया। जैसे कर्ण ने अपने बाणों द्वारा भीमसेन को आच्छादित किया था, उसी प्रकार पाण्डु पुत्र भीम ने भी कर्ण को ढक दिया। भरतनन्दन! युद्ध में भीमसेन का वह पराक्रम देखकर आपके योद्धाओं तथा चारणों ने भी प्रसन्न होकर उनका अभिनन्दन किया।

     राजन! भूरिश्रवा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, मद्रराज शल्य, जयद्रथ, उत्तमौजा, युधामन्यु, सात्यकि, श्रीकृष्ण ‘साधु-साधु’ कहकर वेग पूर्वक सिंहनाद करने लगे। महाराज! उस रोमांचकारी भयंकर शब्द के प्रकट होने पर आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने बड़ी उतावली के साथ राजाओं, राजकुमारों और विशेषतः अपने भाइयों से कहा- ‘तुम्हारा कल्याण हो, तुम सब लोग भीमसेन से कर्ण की रक्षा करने के लिये जाओ। ‘कहीं ऐसा न हो कि भीमसेन के धनुष से छूटे हुए बाण राधा नन्दन कर्ण को पहले ही मार डालें। अतः महाधनुर्धर वीरो! तुम सब लोग सूत पुत्र की रक्षा का प्रयत्न करो’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

     भारत! दुर्योधन की आज्ञा पाकर उसके सात भाईयों ने कुपित होकर भीमसेन पर आक्रमण करके उन्हें चारों ओर से घेर लिया। जैसे वर्षा ऋतु में मेघ पर्वत पर जल की धाराएँ बरसाते हैं, उसी प्रकार उन कौरवों ने कुन्ती कुमार के समीप जाकर उन्हें अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित कर दिया। राजन! उन सात महारथियों ने कुपित हो भीमसेन को उसी प्रकार पीड़ा दी, जैसे सात ग्रह प्रजाओं के संहारकाल में सोम को पीड़ा देते हैं। महाराज! तब कुन्ती कुमार पाण्डु पुत्र भीम ने अत्यन्त स्वच्छ धनुष को सुदृढ़ मुट्ठी से वेग पूर्वक दबाकर उन सातों भाइयों को साधारण मनुष्य जानकर उनके लिये धनुष पर सात बाणों का संधान किया। सूर्य किरणों के समान उन चमकीले बाणों को शक्तिशाली भीम ने परिश्रम पूर्वक आपके उन पुत्रों पर छोड़ दिया। नरेश्वर! पहले के वैर का बारंबार स्मरण करके भीमसेन ने आपके पुत्रों के प्राणों को उनके शरीरों से निकालते हुए से उन बाणों का प्रहार किया था। भारत! भीमसेन के चलाये हुए वे बाण सुवर्णमय पंखों से सुशोभित तथा शिला पर तेज किये गये थे। वे आपके पुत्रों को विदीर्ण करके आकाश में उड़ चले।

     महाराज! वे स्वर्ण भूषित बाण उन सातों भाइयों के वक्षःस्थल को विदीर्ण करके आकाश में विचरने वाले गरुड़ पक्षियों के समान शोभा पाने लगे। राजेन्द्र! वे सुवर्ण भूषित सातों बाण आपके पुत्रों का रक्त पीकर लाल हो ऊपर को उछले थे। उनके पंख और अग्र भागों पर अधिक रक्त जम गया था। उन बाणों से मर्मस्थल विदीर्ण हो जाने के कारण वे सातों वीर रथों से पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो किसी हाथी ने पर्वत के शिखर पर खड़े हुए विशाल वृक्षों को तोड़ गिराया हो। शत्रुंजय[1], शत्रुसह, चित्र (चित्रवाण), चित्रायुध (अग्रायुध ), दृढ़ (दृढ़वर्मा), चित्रसेन (उग्रसेन) और विकर्ण- इन सातों भाइयों को भीमसेन ने मार गिराया।

     राजन! वहाँ मारे गये आपके सभी पुत्रों में से विकर्ण पाण्डवों को अधिक प्रिय था। पाण्डु नन्दन भीमसेन उसके लिये अत्यन्त दुखी होकर शोक करने लगे। वे बोले,

    भीमसेन बोले ;- ‘विकर्ण! मैंने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि युद्ध स्थल में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मार डालूँगा! इसीलिये तुम मेरे हाथ से मारे गये हो। ऐसा करके मैंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया है। ‘वीर! तुम क्षत्रिय धर्म का विचार करके समर भूमि में आ गये। इसीलिये इस युद्ध में मारे गये; क्योंकि युद्ध धर्म कठोर होता है। ‘जो विशेषतः राजा युधिष्ठिर के और हमारे हित में तत्पर रहते थे, वे बृहस्पति के समान अगाध बुद्धि वाले महा तेजस्वी गंगा नन्दन भीष्म भी न्याय अथवा अन्याय से मारे जाकर समर भूमि में सो रहे हैं और प्राण त्याग की परिस्थिति में डाल दिये गये हैं। इसी से कहना पड़ता है कि युद्ध अत्यन्त निष्ठुर कर्म है’।

     संजय कहते हैं ;- राजन! राधा नन्दन कर्ण के देखते देखते उन सातों भाइयों को मारकर पाण्डु नन्दन महाबाहु भीम ने भयंकर सिंहनाद किया। भारत! उस सिंहनाद ने धर्मराज युधिष्ठिर को शूरवीर भीम के युद्ध की तथा अपनी महान विजय की मानो सूचना दे दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)

      धनुर्धर भीमसेन के उस महानाद को सुनकर बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन! तब प्रसन्न चित्त होकर युधिष्ठिर ने वाद्यों की गम्भीर ध्वनि के द्वारा भाई के उस सिंहनाद को स्वागत पूर्वक ग्रहण किया। इस प्रकार भीमसेन को अपनी प्रसन्नता का संकेत करके सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने बड़े हर्ष के साथ रणभूमि में द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। महाराज! आपके इक्तीस (दु:शल को लेकर बत्तीस) पुत्रों को मारा गया देखकर दुर्योधन को विदुर जी की कही हुई बात याद आ गयी। विदुर जी ने जो कल्याणकारी वचन कहा था, उसके अनुसार ही यह संकट प्राप्त हुआ है। ऐसा सोचकर आपके पुत्र से कोई उत्तर देते न बना।

      द्यूत के समय कर्ण के साथ आपके मन्दमति पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधन ने पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को सभा में बुलाकर उसके प्रति जो दुर्वचन कहा था तथा प्रजानाथ! महाराज! पाण्डवों और आपके सामने समस्त कौरवों के सुनते हुए कर्ण ने सभा में द्रौपदी के प्रति जो यह कठोर वचन कहा था कि ‘कृष्णे! पाण्डव नष्ट हो गये। सदा के लिये नरक में पड़ गये। तू दूसरा पति कर ले’, उसी अन्याय का आज यह फल प्राप्त हुआ है। आपके पुत्रों ने जो पाण्डवों को कुपित करने के लिये षण्ढतिल ( सारहीन तिल या नपुंसक ) आदि कठोर बातें उन महामनस्वी पाण्डवों को सुनायी थी, उसके कारण पाण्डु पुत्र भीमसेन के हृदय में तेरह वर्षों तक जो क्रोधाग्नि धधकती रही है, उसी को निकालते हुए भीमसेन आपके पुत्रों का अन्त कर रहे हैं। भरत श्रेष्ठ! विदुर जी ने आपके समीप बहुत विलाप किया, परंतु उन्हें शान्ति की भिक्षा नहीं प्राप्त हुई। आपके उसी अन्याय का फल प्रकट हुआ है। अब आप पुत्रों सहित इसे भोगिये। आप वृद्ध हैं, वीर हैं, कार्य के तत्त्व और प्रयोजन को देखते और समझते हैं, तो भी आपने हितैषी सुहृदों की बातें नहीं मानी। इसमें दैव ही प्रधान कारण है। अतः नरश्रेष्ठ! आप शोक न कीजिये। इसमें आपका ही महान अन्याय कारण है। मैं तो आपको ही आपके पुत्रों के विनाश का मुख्य हेतु मानता हूँ। राजेन्द्र! विकर्ण मारा गया। पराक्रमी चित्रसेन को भी प्राणों का त्याग करना पड़ा। आपके पुत्रों में जो प्रमुख थे, वे तथा अन्य महारथी भी काल के गाल में चले गये। महाराज! भीमसेन ने अपने नेत्रों के सामने आये हुए जिन-जिन पुत्रों को देखा, उन सबको तुरंत ही मार डाला। आपके ही कारण मैंने भीमसेन और कर्ण के छोड़े हुए हजारों बाणों से राजाओं की विशाल सेना दग्ध होती देखी है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का युद्ध विषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध”

    धृतराष्ट्र बोले ;- सूत संजय! इसमें विशेषतः मेरा ही अन्याय है- यह मैं स्वीकार करता हूँ। इस समय शोक में डूबे हुए मुझको मेरे उसी अन्याय का फल प्राप्त हुआ है। संजय! अब तक मेरे मन में यह बात थी कि जो बीत गया, सो बीत गया। उसके लिये चिन्ता करना व्यर्थ है। परंतु अब यहाँ इस समय मेरा क्या कर्त्तव्य है, उसे बताओ। मैं उसका पालन अवश्य करूँगा। सूत! मेरे अन्याय से वीरों का जो यह विनाश हुआ है, वह सब कह सुनाओ। मैं धैर्य धारण करके बैठा हूँ। संजय ने कहा- महाराज! जल की वर्षा करने वाले दो बादलों के समान महाबली, महापराक्रमी कर्ण और भीमसेन परस्पर बाणों की वर्षा करने लगे। जिन पर भीमसेन के नाम खुदे हुए थे, वे शिला पर तेज किये हुए स्वर्णमय पंख युक्त बाण कर्ण के पास पहुँचकर उसके जीवन का उच्छेद करते हुए से उसके शरीर में घुस गये। इसी प्रकार कर्ण के छोड़े हुए मयूर पंख वाले सैंकड़ों और हजारों बाणों ने वीर भीमसेन को आच्छादित कर दिया। महाराज! चारों ओर गिरते हुए उन दोनों के बाणों से वहाँ की सेनाओं में समुद्र से भी बढ़कर महान क्षोभ होने लगा।

      शत्रुदमन! भीमसेन के धनुष से छूटे हुए विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा सेना के मध्य भाग में आपके सैनिकों का वध हो रहा था। राजन! वहाँ गिरे हुए हाथियों, घोड़ों और पैदल मनुष्यों द्वारा ढकी हुई वह रणभूमि आँधी के उखाड़े हुए वृक्षों से आच्छादित सी दिखायी देती थी। भीमसेन के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा समरांगण में मारे जाते हुए आपके सैनिक भाग चले और आपस में कहने लगे, अरे! यह क्या हुआ। इस प्रकार कर्ण और भीमसेन के महान तेजस्वी बाणों द्वारा सिन्धु, सौवीर और कौरव दल की वह सेना उखड़ गयी और वहाँ से भाग खड़ी हुई। वे शूरवीर सैनिक जिनमें बहुत से लोग मारे गये थे तथा जिनके हाथी, घोड़े और रथ नष्ट हो चुके थे, भीमसेन और कर्ण को छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। ‘अवश्य ही कुन्ती कुमारों के हित के लिये ही देवता हमें मोह में डाल रहे हैं; क्योंकि कर्ण और भीमसेन के बाणों से वे हमारी सेना का वध कर रहे हैं’। ऐसा कहते हुए आपके योद्धा भय से पीड़ित हो बाण मारने का कार्य छोड़कर युद्ध के दर्शक बनकर खड़े हो गये।

      तदनन्तर रणभूमि में रक्त की भयंकर नदी बह चली, जो शूरवीरों को हर्ष देने वाली और भीरु पुरुषों का भय बढ़ाने वाली थी। हाथी, घोड़े और मनुष्यों के रुधिर समूह से उस नदी का प्राकट्य हुआ था। वह प्राण शून्य मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों से घिरी हुई थी। भारत! उस समय अनुकर्ण, पताका, हाथी, घोड़े, रथ, आभूषण, टूटकर बिखरे हुए रथ, टूक-टूक हुए पहिये, धुरी और कूबर, सुवर्ण भूषित एवं महान टंकार शब्द करने वाले धनुष, सोने के पंख वाले बाण, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान कर्ण और भीमसेन के छोड़े हुए नाराच, प्रास, तोमर, खड्ग, फरसे, सोने की गदा, मूसल, पट्टिश, भाँति-भाँति के ध्वज, शक्ति, परिघ और विचित्र शतघ्नी आदि से उस रणभूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)

     माननीय भरत नन्दन! इधर-उधर पड़े हुए सोने के अंगद, हार, कुण्डल, मुकुट, वलय, अंगूठी, चूड़ामणि, उष्णीष, सुवर्णमय सूत्र, कवच, दस्ताने, हार, निष्क, वस्त्र, छत्र, टूटे हुए चँवर, व्यजन, विदीर्ण हुए हाथी, घोड़े, मनुष्य, खून से लथपथ हुए पंख युक्त बाण आदि नाना प्रकार की छिन्न-भिन्न, पतित और फेंकी हुई वस्तुओं से वहाँ की भूमि ग्रहों से आकाश की भाँति सुशोभित हो रही थी। उन दोनों के उस अचिन्त्य, अलौकिक और अद्भुत कर्म को देखकर चारणों और सिद्धों के मन में महान विस्मय हो गया।

      जैसे वायु की सहायता पाकर सूखे वन में तथा घास फूस में अग्नि की गति बढ़ जाती है, उसी प्रकार उस महायुद्ध में भीमसेन के साथ सूत पुत्र कर्ण की भयंकर गति बढ़ गयी थी। नरेश्वर! जैसे दो हाथी किसी से प्रेरित होकर नरकुल के वन को रौंद डालते हैं, उसी प्रकार मेघों की घटा के समान आपकी सेना बड़ी दुरवस्था में पड़ गयी थी। उसके रथ और ध्वज गिराये जा चुके थे। हाथी, घोड़े और मनुष्य मारे गये थे। कर्ण और भीमसेन ने उस युद्ध स्थल में महान संहार मचा रखा था

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीम और कर्ण का युद्ध विषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ उन्नतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध, पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय, उसके बाद अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर कर्ण ने तीन बाणों से भीमसेन को घायल करके उन पर बहुत से विचित्र बाण बरसाये। सूत पुत्र द्वारा बेंधे जाने पर भी महाबाहु पाण्डु पुत्र भीमसेन को विद्ध होने वाले पर्वत के समान तनिक भी व्यथा नहीं हुई। माननीय नरेश! फिर उन्होंने भी युद्धस्थल में तेल के धोये हुए पानीदार एवं तीखे ‘कणी’ नामक बाण से कर्ण के कान में गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! भीम ने कर्ण के सोने के बने हुए विशाल एवं सुन्दर कुण्डल को आकाश से चमकते हुए तारे के समान पृथ्वी पर काट गिराया। तदनन्तर भीमसेन ने अत्यन्त कुपित हो हँसते हुए-से दूसरे भल्ल से सूत पुत्र की छाती में बड़े जोर से आघात किया। भरत नन्दन! फिर महाबाहु भीम ने बड़ी उतावली के साथ केंचुल से छूटे हुए विषधर सर्पों के समान दस नाराच उस रणक्षेत्र में कर्ण पर चलाये। भारत! उनके चलाये हुए वे नाराच सूतपुत्र का ललाट छेद करके बाँबी में सर्पों के समान उके भीतर घुस गये। ललाट में स्थित हुए उन बाणों से सूत पुत्र की उसी प्रकार शोभा हुई, जैसे वह पहले मस्तक पर नीलकमल की माला धारण करके सुशोभित होता था। वेगवान पाण्डु पुत्र भीम के द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जाने पर कर्ण ने रथ के कुबर का सहारा लेकर आँखें बंद कर लीं।

     शत्रुओं का संताप देने वाले कर्ण को पुनः दो ही घड़ी के बाद चेत हो गया। उस समय उसका सारा शरीर रक्त से भीग गया था। उस दशा में उसे बड़ा क्रोध हुआ। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले भीमसेन से पीड़ित हुए महान् वेगशाली कर्ण ने रणभूमि में कुपित हो भीमसेन के रथ की ओर बड़े वेग से आक्रमण किया। राजन! भरत नन्दन! अमर्षशील एवं क्रोध में भरे हुए बलवान कर्ण ने भीमसेन पर गीध के पंख वाले सौ बाण चलाये। तब समर भूमि में कर्ण के पराक्रम को कुछ न समझते हुए उसकी अवहेलना करके पाण्डु नन्दन भीमसेन ने उसके ऊपर भयंकर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! तब कर्ण ने कुपित हो क्रोध में भरे हुए पाण्डु पुत्र भीमसेन की छाती में नौ बाण मारे। वे दोनों पुरुषसिंह दाढ़ों वाले दो सिंहों के समान परस्पर जूझ रहे थे और आकाश में दो मेघों के समान युद्ध स्थल में वे दोनों एक दूसरे पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। वे अपनी हथेलियों के शब्द से एक दूसरे को डराते हुए युद्ध स्थल में विविध बाण समूहों द्वारा परस्पर त्रास पहुँचा रहे थे। वे दोनों वीर समर में कुपित हो एक दूसरे के किये हुए प्रहार का प्रतीकार करने की अभिलाषा रखते थे।

     भरत नन्दन! तब शत्रुओं का संहार करने वाले महाबाहु भीमसेन ने क्षुरप्र के द्वारा सूत पुत्र के धनुष को काटकर बड़े जोर से गर्जना की। तब महारथी सूतपुत्र कर्ण ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर भार निवारण करने में समर्थ और अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-41 का हिन्दी अनुवाद)

      परंतु भीमसेन ने आधे निमेष में ही उसे काट दिया। इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें धनुष को भी भीमसेन ने काट डाला। इतना ही नहीं, भीम ने सत्रहवें, अट्ठारहवें तथा और भी बहुत से कर्ण के धनुषों को वेग पूर्वक काट दिया। इतने पर भी कर्ण आधे ही निमेष में दूसरा धनुष हाथ में लेकर खड़ा हो गया। कुरु, सौवीर तथा सिंधु देश के वीरों की सेना का विनाश, सब ओर गिरे हुए कवच, ध्वज तथा अस्त्र शस्त्रों से आच्छादित हुई भूमि और प्राण शून्य हाथी, घोड़े एवं रथियों से आच्छादित हुई भूमि और प्राण शून्य हाथी, घोड़े एवं रथियों के शरीरों को सब ओर देखकर सूतपुत्र कर्ण का शरीर क्रोध से उद्दीप्त हो उठा। उस समय राधा नन्दन कर्ण ने कुपित हो अपने सुवर्ण भूषित विशाल धनुष की टंकार करते हुए भयानक भीमसेन को घोर दृष्टि से देखा। तत्पश्चात सूत पुत्र कुपित हो बाणों की वर्षा करता हुआ शरत्काल के दोपहर के तजस्वी सूर्य की भाँति शोभा पाने लगा।

       राजन! अधिरथ पुत्र कर्ण का भयंकर शरीर सैकड़ों बाणों से व्याप्त था। वह किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान जान पड़ता था। उस रणभूमि में दोनों हाथों से बाणों को लेते, धनुष पर रखते, खींचते और छोड़ते हुए कर्ण के इन कार्यों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था। भूपाल! दायें-बायें बाण चलाते हुए कर्ण का मण्डलाकार धनुष अग्नि चक्र के समान भयंकर प्रतीत होता था। महाराज! कर्ण के धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले अत्यन्त तीखे बाणों ने सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्य की प्रभा को भी ढक दिया। तदनन्तर धनुष से छूटे हुए झुकी हुई गाँठ तथा सुवर्णमय पंख वाले बहुत से बाणों के समूह आकाश में दृष्टिगोचर होने लगे। राजन! अधिरथ पुत्र के धनुष से जो बाण छूटते थे, वे श्रेणबद्ध होकर आकाश में क्रौंच पक्षियों के समान सुशोभित होते थे। धनुष के बल से उठे हुए वे सुवर्ण भूषित बाण भीेमसेन के रथ पर लगातार गिर रहे थे। कर्ण के चलाये हुए सहस्रों सुवर्णमय बाण आकाश में टिट्डी दलों के समान प्रकाशित हो रहे थे। सूत पुत्र के धनुष से गिरते हुए बाण ऐसी शोभा पा रहे थे मानो एक ही अत्यन्त विशाल सा बाण आकाश में खड़ा हो। क्रोध में भरे हुए कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा से भीमसेन को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल जल की धाराओं से पर्वत को ढक देता है। भारत! वहाँ सैनिकों सहित आपके पुत्रों ने भीमसेन के बल, वीर्य, पराक्रम और उद्योग को देखा।

    क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने समुद्र की भाँति उठी हुई उस बाण वर्षा की तनिक भी परवा न करके कर्ण पर धावा बोल दिया। प्रजानाथ! सुवर्णमय पृष्ठ वाला भीमसेन का विशाल धनुष प्रत्यंचा खींचने से मण्डलाकार हो दूसरे इन्द्र धनुष के समान प्रतीत हो रहा था। उससे जो प्रकट होते थे, वे मानो आकाश को भर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)

     भीमसेन ने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंख वाले बाणों से आकाश में सोने की माला सी रच डाली थी, जो बड़ी शोभा पा रही थी। उस समय भीमसेन के बाणों से आहत होकर आकाश में फैले हुए बाणों के जाल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गये। कर्ण और भीमसेन दोनों के बाण समूह स्पर्श करने पर आग की चिंगारियों के समान प्रतीत होते थे। अनायास ही उनकी युद्ध में सर्वत्र गति थी। सुवर्णमय पंख वाले उन बाण के समूह से सारा आकाश छा गया था। उस समय न तो सूर्य का पता चलता था और न वायु ही चल पाती थी। बाणों के समूह से आच्छादित हुए आकाश में कुछ भी जान नहीं पड़ता था। सूत पुत्र कर्ण नाना प्रकार के बाणों द्वारा भीमसेन को आच्छादित करता हुआ उन महामनस्वी वीर के पराक्रम का तिरस्कार करके उन पर चढ़ आया। माननीय नरेश! उन दोनों के छोड़े हुए बाण समूह वहाँ परस्पर सटकर अत्यन्त वेग के कारण वायु स्वरूप दिखायी देते थे। भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुषसिंहों के बाणों के परस्पर टकराने से आकाश में आग प्रकट हों जाती थी।

      कर्ण ने कुपित होकर भीमसेन के वध की इच्छा से सुनार के माँजे हुए सुवर्ण भूषित तीखे बाणों का प्रहार किया। परंतु भीमसेन ने अपने को सूत पुत्र से विशिष्ट सिद्ध करते हुए बाणों द्वारा आकाश में उन बाणों में से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े कर डाले और कर्ण से कहा- ‘अरे! खड़ा रह’। फिर क्रोध एवं अमर्ष में भरे हुए बलवान भीमसेन ने जलाने की इच्छा वाले अग्नि देव के समान भयंकर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। उस समय उन दोनों के गोह चर्म के बने हुए दस्तानों के आघात से चटाचट की आवाज होने लगी। साथ ही हथेली का शब्द और महाभयंकर सिंहनाद भी होने लगा। रथ के पहियों की घरघराहट और प्रत्यन्चा की भयंकर टंकार भी कानों में पड़ने लगी। राजन! परस्पर वध की इच्छा रखने वाले कर्ण और भीमसेन के पराक्रम को देखने की अभिलाषा से समस्त योद्धा युद्ध से उपरत हो गये। देवता, ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व और विद्याधर गण ‘साधु साधु’ कहकर उन दोनों की प्रशंसा और फूलों की वर्षा करने लगे।

      तदनन्तर क्रोध में भरे हुए सुदृढ़ पराक्रमी महाबाहु भीमसेन ने अपने अस्त्रों द्वारा कर्ण के अस्त्रों का निवारण करके उसे बाणों से बींध डाला। महाबली कर्ण ने भी रणक्षेत्र में भीमसेन के बाणों का निवारण करके उनके ऊपर विषैले सर्पों के समान नौ नाराच चलाये। भीमसेन ने उतने ही बाणों से आकाश में सूत पुत्र के सारे नाराच काट डाले और उससे कहा ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। तत्पश्चात महाबाहु वीर भीमसेन ने कर्ण के ऊपर ऐसा बाण चलाया, जो क्रुद्ध यमराज के समान तथा दूसरे यमदण्ड के सदृश भयंकर था। राजन! अपने ऊपर आते हुए भीमसेन के उस बाण को प्रतापी राधा नन्दन कण ने तीन बाणों द्वारा हँसते हुए से काट डाला। तब पाण्डु नन्दन भीमसेन ने पुनः भयानक बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी; परंतु कर्ण ने उन सब अस्त्रों को निर्भयता पूर्वक आत्मसात कर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 62-78 का हिन्दी अनुवाद)

      क्रोध में भरे हुए सूतपुत्र कर्ण ने अपने अस्त्रों की माया से तथा झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा युद्ध परायण भीमसेन के दो तरकसों, धनुष की प्रत्यंचा, बागडोर तथा घोड़े जोतने की रस्स्यिों को भी युद्ध स्थल में काट डाला। फिर घोड़ों को भी मारकर सारथि को पाँच बाणों से घायल कर दिया। सारथि वहाँ से भागकर तुरंत ही युधामन्यु के रथ पर चढ़ गया। इधर क्रोध में भरे हुए काष्ठााग्नि के समान तेजस्वी राधा पुत्र कर्ण ने भीमसेन का उपहास-सा करते हुए उनकी ध्वजा और पताका को भी काट गिराया। धनुष कट जाने पर कुपित हुए महाबाहु भीमसेन ने शक्ति हाथ में ली और उसे घुमाकर कर्ण के रथ पर दे मारा। कर्ण कुछ थक सा गया था, तो भी उसने बहुत बड़ी उल्का के समान अपनी ओर आती हुई उस सुवर्ण भूषित शक्ति को दस बाणों से काट दिया। मित्र के हित के लिये विचित्र युद्ध करने वाले तथा बाण प्रहार में तत्पर सूत पुत्र कर्ण के तीखे बाणों से दश टुकड़ों में कटकर वह शक्ति धरती पर गिर पड़ी। तब कुन्ती कुमार भीमसेन ने युद्ध में सम्मुख मृत्यु अथवा विजय इन दो में से एक का निश्चित रूप से वरण करने की इच्छा रखकर ढाल और सुवर्ण भूषित तलवार हाथ में ले ली।

        भारत! उस समय क्रोध में भरे हुए कर्ण ने हँसते हुए से वेग पूर्वक बहुत से अत्यंत भयंकर बाण मारकर भीमसेन की चमकीली ढाल नष्ट कर दी। महाराज! ढाल और रथ से रहित हुए भीमसेन ने क्रोध से आतुर हो बड़ी उतावली के साथ कर्ण के रथ पर तलवार घुमा कर चला दी। राजेन्द्र! वह बड़ी तलवार आकाश से कुपित सर्प की भाँति आकर सूत पुत्र कर्ण के प्रत्यन्चा सहित धनुष को काटती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देख अधिरथ पुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा और समरांगण में कुपित हो उसने शत्रु विनाशकारी सुदृढ़ प्रत्यन्चा वाला अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लेकर उस पर कुन्ती पुत्र के वध की इच्छा से सुवर्णमय पंख वाले सहस्रों अत्यन्त तीखे बाणों का संधान किया। कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा घायल किये जाते हुए बलवान भीमसेन कर्ण के मन में व्यथा उत्पन्न करते हुए उसे पकड़ने के लिये आकाश में उछले।

      संग्राम में विजय चाहने वाले भीमसेन का वह चरित्र देख राधा पुत्र कर्ण ने अपना अंग सिकोड़कर भीमसेन के आक्रमण को विफल कर दिया। कर्ण की सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो गयीं थीं। वह रथ के पिछले भाग में दुबक गया था। उसे उस अवस्था में देखकर भीमसेन उसके ध्वज का सहारा लेकर पृथ्वी पर खड़े हो गये। जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेते हैं, उसी प्रकार भीमसेन ने कर्ण को उसके रथ से पकड़ ले जाने की जो इच्छा की थी, उनके इस कर्म की समसत कौरवों तथा चारणों ने भी प्रशंसा की। धनुष कट जाने तथा रथहीन होने पर स्वधर्म का पालन करते हुए भीमसेन अपने रथ को पीछे करके युद्ध के लिये ही खड़े रहे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 79-95 का हिन्दी अनुवाद)

     उनके रथ आदि साधनों को नष्ट करके राधा नन्दन कर्ण ने फिर क्रोध पूर्वक रणक्षेत्र में युद्ध के लिये उपस्थित हुए इन पाण्डु पुत्र भीमसेन पर आक्रमण किया। महाराज! एक दूसरे से स्पर्धा रखने वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ महाबली वीर परस्पर भिड़कर वर्षा ऋतु में गर्जना करने वाले दो मेघों के समान गरज रहे थे। युद्ध स्थल में अमर्ष और क्रोध से भरे हुए उन दोनों पुरुषसिंहों का संग्राम देव-दानव युद्ध के समान भयंकर हो रहा था। जब कुन्ती कुमार भीमसेन के सारे अस्त्र शस्त्र नष्ट हो गये, उनके पास एक भी आयुध शेष नहीं रह गया और कर्ण के द्वारा उन पर पूर्ववत आक्रमण होता रहा, तब वे रथ के मार्ग को बंद कर देने के लिये अर्जुन के मारे हुए पर्वताकार हाथियों को वहाँ गिरा देख उनके भीतर प्रवेश कर गये। हाथियों के समूह में पहुँचकर मानो वे रथ के आक्रमण से बचने के लिये दुर्ग के भीतर प्रविष्ट हो गये हों, ऐसा अनुभव करते हुए पाण्डु पुत्र भीम केवल अपने प्राण बचाने की इच्छा करने लगे, उन्होंने राधा पुत्र कर्ण पर प्रहार नहीं किया।

       शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले कुन्ती कुमार भीमसेन यह चाहते थे कि कर्ण के बाणों से बचने के लिये कोई व्यवघान (आड़) निकल जाय; इसीलिये वे अर्जुन के बाणों से मारे गये एक हाथी की लाश को उठाकर चुपचाप खड़े हो गये। उस समय वे संजीवन नामक महान औषधि युक्त पर्वत को उठाये हुए हनुमान जी के समान जान पड़ते थे। कर्ण ने बाणों द्वारा उस हाथी के भी टुकड़े टुकड़े कर दिये। तब पाण्डु नन्दन भीम ने हाथी के कटे हुए अंगोें को ही कर्ण पर फेंकना शुरु किया। रथों के पहिये, घोड़ों की लाशे तथा और भी जो जो वस्तुएँ वे धरती पर पड़ी देखते, उन्हें उठाकर क्रोध पूर्वक कर्ण पर फेंकते थे; परंतु वे जो जो वस्तु फेंकते, उन सबको कर्ण अपने तीखे बाणों से काट डालता था। अब भीमसेन ने अपने अंगूूठे को मुट्ठी के भीतर करके वज्र तुल्य अत्यन्त भयंकर घूँसा तानकर सूत पुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा की। तब तक क्षण भर में उन्हें अर्जुन की याद आ गयी। अतः सव्यसाची अर्जुन ने पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी रक्षा करते हुए पाण्डु नन्दन भीम ने समर्थ एवं शक्तिशाली होने पर भी उस समय कर्ण का वध नहीं किया। इस प्रकार वहाँ बाणों के आघात से व्याकुल हुए भीमसेन को सूत पुत्र कर्ण ने बारंबार अपने पैने बाणों की मार से मूर्च्छित सा कर दिया।

     परंतु कुन्ती के वचन का स्मरण करके उसने शस्त्रहीन भीमसेन का वध नहीं किया। कर्ण ने उनके पास जाकर अपने धनुष की नोक से उनका स्पर्श किया। धनुष का स्पर्श होते ही वे क्रोध मे भरे हुए सर्प के समान फुफकार उठे और उन्होंने कर्ण के हाथ से वह धनुष छीनकर उसे उसी के मस्तक पर दे मारा। भीमसेन की मार खाकर राधा पुत्र कर्ण की आँखें लाल हो गयीं। उसने हँसते हुए से यह बात कही- ‘ओ बिना दाढ़ी मूंछ के नपुंसक! ओ मूर्ख! अरे पेटू! तू तो अस्त्र शस्त्र के ज्ञान से सर्वथा शून्य है। युद्ध भीरु कायर! छोकरे! अब फिर कभी युद्ध न करना।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 96-113 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘दुर्बुद्धि पाण्डव! जहाँ अनेक प्रकार की खाने पीने की वस्तुएँ रखी हों, तू वहीं रहने के योग्य है। युद्धों में तुझे कभी नहीं आना चाहिये। ‘भीम! वन में रहकर तू फल मूल और फूल खाकर व्रत एवं नियम आदि पालन करने के योग्य है। युद्ध कौशल तुझ में नाम मात्र को भी नहीं है। ‘वृकोदर! कहाँ युद्ध और कहाँ मुनिवृत्ति। जा, जा, वन में चला जा। तात! तुझमें युद्ध की योग्यता नहीं है। तू तो वनवास का ही प्रेमी है। ‘मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू मत्स्यराज विराट का नौकर एक रसोईया रहा है। वृकोदर! तू तो घर में रसोईये, भृत्यजनों तथा दासों को बहुत जल्दी भोजन तैयार करने के लिये प्रेरणा देते हुए क्रोध से उन्हें डाँटने और मारने पीटने की योग्यता रखता है। ‘दुर्मति कुन्ती कुमार भीम! अथवा तू मुनि होकर वन में चला जा। वहाँ इधर उधर से फल ले आ और खा। तू युद्ध में निपुण नहीं है। ‘वृकोदर! तू फल मूल खाने और अतिथि सत्कार करने में समर्थ है। मैं तुझे हथियार उठाने के योग्य ही नहीं मानता’। प्रजा पालक नरेश! कर्ण ने बाल्यावस्था में जो अप्रिय वृत्तान्त घटित हुए थे, उन सबका उल्लेख करते हुए बहुत सी रूखी बातें सुनायीं। तत्पश्चात वहाँ छिपे हुए भीमसेन का कर्ण ने पुनः धनुष से स्पर्श किया और उस समय उनका उपहास करते हुए फिर कहा- ‘आर्य! तुझे और लोगों के साथ युद्ध करना चाहिये। मेरे जैसे वीरों के साथ नहीं। मेरे जैसे योद्धाऔ से जूझने वालों की ऐसी ही अथवा इससे भी बुरी दशा होती है। ‘अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं चला जा। वे रणभूमि में तेरी रक्षा करेंगे। अथवा कुन्ती कुमार! तू घर जा। बच्चे! तुझे युद्ध से क्या लाभ है?’

     कर्ण के ये अत्यन्त कठोर वचन सुनकर भीमसेन ठठाकर हँस पड़े और सबके सुनते हुए उससे इस प्रकार बोले,

    भीमसेन बोले ;- ‘अरे, दुष्ट! मैंने तुझे एक बार नहीं बारंबार हराया है; फिर क्यों व्यर्थ अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई कर रहा है। संसार में पूर्व पुरुषों ने देवराज इन्द्र की भी कभी जय और कभी पराजय होती देखी है। ‘नीच कुल में पैदा हुए कर्ण! आ, मेरे साथ मल्ल युद्ध कर ले। जैसे मैंने महान बलशाली महाभोगी कीचक को पीस डाला था, उसी प्रकार इन समसत राजाओं के देखते-देखते मैं तुझे अभी मौत के हवाले कर दूँगा’। भीमसेन का यह अभिप्राय जानकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कर्ण समस्त धनुर्धरों के सामने ही उस युद्ध से हट गया।

     राजन! इस प्रकार कर्ण ने भीमसेन को रथहीन करके जब वृष्णिवंश के सिंह भगवान श्रीकृष्ण और महामना अर्जुन के सामने ही अपनी इतनी प्रशंसा की, तब श्रीकृष्ण की प्रेरणा से कपिध्वज अर्जुन ने शिला पर स्वच्छ किये हुए बहुत से बाणों को सूत पुत्र कर्ण पर चलाया। तत्पश्चात अर्जुन की भुजाओं से छोड़े गये तथा गाण्डीव धनुष से छूटे हुए वे सुवर्ण भूषित बाण कर्ण के शरीर में उसी प्रकार घुस गये, जैसे हंस क्रौन्च पर्वत की गुफाओं में समा जाते हैं। इस प्रकार धनंजय ने गाण्डीव धनुष से छोड़े गये रोष भरे सर्पों के समान बाणों द्वारा सूत पुत्र कर्ण को भीमसेन से दूर हटा दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 114-125 का हिन्दी अनुवाद)

     भीमसेन ने कर्ण के धनुष को तो पहले से ही तोड़ दिया था। इसलिये वह धनंजय के बाणों से घायल हो भीमसेन को छोड़कर अपने विशाल रथ द्वारा तुरंत ही वहाँ से दूर हट गया। इधर नरश्रेष्ठ भीमसेन भी सात्यकि के रथ पर आरूढ़ हो युद्ध स्थल में सव्यसाची पाडु पुत्र भाई अर्जुन के पास जा पहुँचे। तत्पश्चात क्रोध से लाल आँखें किये अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ कर्ण को लक्ष्य करके एक नाराच चलाया, मानो यमराज ने किसी के लिये मौत भेज दी हो। गाण्डीव धनुष से छूटा हुआ यह नाराच आकाश मार्ग से तुरंत ही कर्ण की ओर चला, मानो गरुड़ किसी उत्तम सर्प को पकड़ने के लिये जा रहे हों। उस समय अर्जुन के भय से कर्ण का उद्धार करने की इच्छा रखकर महारथी अश्वत्थामा ने अपने बाण से उस नाराच को आकाश में ही नष्ट कर दिया। महाराज! तब क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने अश्वत्थामा को चौसठ बाण मारे और कहा,,

   अर्जुन ने कहा ;- ‘खड़े रहो, भागना मत’। परंतु अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो अश्वत्थामा तुरंत ही रथ से व्याप्त एवं मतवाले हाथियों से भरे हुए व्यूह के भीतर घुस गया।

   तब बलवान कुन्ती कुमार अर्जुन ने रणक्षेत्र में टंकार करते हुए सुवर्णमय पृष्ठ वाले समस्त धनुषों के सम्मिलित शब्दों को अपने गाण्डीव धनुष के गम्भीर घोष से दबा दिया। अर्जुन भागते हुए अश्वत्थामा के पीछे पीछे अपने बाणों द्वारा कौरव सेना को संत्रस्त करते हुए कुछ दूर तक गये। उस समय उन्होंने कंक और मोर की पाँखें से युक्त नाराचों द्वारा घोड़ों, हाथियों और मनुष्यों के शरीरों को विदीर्ण करके सारी सेना को तहस नहस कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उस समय सावधान हुए इन्द्र कुमार, कुन्ती पुत्र अर्जुन ने हाथी, घोड़ों और मनुष्यों से भरी हुई उस सेना का संहार कर डाला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन और कर्ण का युद्ध विषयक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ चालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि द्वारा राजा अलम्बुष का और दुःशासन के घोड़ों का वध”

   धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! प्रतिदिन मेरा उज्ज्वल यश घटता या मन्द पड़ता जा रहा है, मेरे बहुत से योद्धा मारे गये, इसे मैं समय का ही फेर समझता हूँ। अश्वत्थामा और कर्ण के द्वारा सुरक्षित मेरी सेना में, जहाँ देवताओं का भी प्रवेश असम्भव था, क्रोध में भरे हुए अर्जुन प्रविष्ट हो गये। महान पराक्रमी श्रीकृष्ण और भीमसेन तथा शिनि प्रवर सात्यकि का साथ होने से अर्जुन का बल तथा पराक्रम और भी बढ़ गया है। जब से यह बात मुझे मालूम हुई है, तब से शोक मुझे उसी प्रकार दग्ध कर रहा है, जैसे काष्ठ से पैदा होने वाली आग अपने आधारभूत काष्ठ को ही जला देती है। मैं सिंधुराज जयद्रथ सहित समस्त राजाओं को काल के गाल में गया हुआ ही समझता हूँ। सिंधुराज जयद्रथ किरीटधारी अर्जुन का महान अप्रिय करके जब उनकी आँखें के सामने आ गया है, तब कैसे जीवित रह सकता है? संजय! मैं अनुमान से यह देख रहा हूँ कि सिंधुराज जयद्रथ अब जीवित नहीं है। अब वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, वह सब यथार्थ रूप से बताओ। संजय! जैसे हाथी किसी पोखर मे प्रवेश करता है, उसी प्रकार जिन्होंने अकेले ही कुपित होकर मेरी विशाल सेना को क्षुब्ध करके बारंबार उसे मथकर उसके भीतर प्रवेश किया था, उन वृष्णिवंशी वीर सात्यकि ने अर्जुन के लिये प्रयत्न पूर्वक जैसा युद्ध किया था, उसका वर्णन करो; क्योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो।

    संजय ने कहा ;- राजन! पुरुषों में प्रमुख वीर भीमसेन अर्जुन के पास जाते समय जब पूवोक्त प्रकार से कर्ण द्वारा पीड़ित होने लगे, तब उन्हें उस अवस्था में देखकर शिनि वंश के प्रधान वीर सात्यकि ने उन नरवीरों के समूह में रथ के द्वारा भीमसेन की सहायता के लिये उनका अनुसरण किया। जैसे वज्रधारी इन्द्र वर्षाकाल में मेघ रूप से गर्जना करते हैं और जैसे सूर्य शरत्काल में प्रज्वलित होते हैं, उसी प्रकार गरजते और तेज से प्रज्वलित होते हुए सात्यकि अपने सुदृढ़ धनुष द्वारा आपके पुत्र की सेना को कँपाते हुए शत्रुओं का संहार करने लगे।

     भारत! उस युद्ध स्थल में रजत वर्ण के अश्वों द्वारा आगे बढ़ते और गरजना करते हुए मधुवंश शिरोमणि वीरवर सात्यकि को आपके सारे रथी मिलकर भी रोक न सके। उस समय सोने के कवच और धनुष धारण किये, युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले, राजाओं में श्रेष्ठ अलम्बुष ने अमर्ष में भरकर मधुकुल के महान वीर सात्यकि को सहसा सामने आकर रोका। भरतनन्दन! उन दोनों का जैसा संग्राम हुआ, वैसा दूसरा कोई युद्ध नहीं हुआ था। आपके और शत्रु पक्ष के समस्त योद्धा संग्राम में शोभा पाने वाले उन दोनों वीरों को देखते ही रह गये थे। राजाओं में श्रेष्ठ अलम्बुष ने सात्यकि को बलपूर्वक दस बाण मारे। शिनि प्रवर सात्यकि ने भी बाणों द्वारा अपने पास आने से पहले ही उन समसत बाणों को काट गिराया। तब अलम्बुष ने धनुष को कान तक खींचकर अग्नि के समान प्रज्वलित, सुन्दर पंख वाले तीन तीखे बाणों द्वारा पुनः सात्यकि पर प्रहार किया। वे बाण सात्यकि के कवच को विदीर्ण करके उनके शरीर में घुस गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय के  श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

     अग्नि और वायु के समान प्रभावशाली उन प्रज्वलित तीखे बाणों द्वारा सात्यकि का शरीर विदीर्ण करके अलम्बुष ने चाँदी के समान चमकने वाले उनके उन चारों घोड़ों को भी चार बाणों से हठात घायल कर दिया। इस प्रकार अलम्बुष के द्वारा घायल होकर चक्रधारी विष्णु के समान प्रभावशाली और वेगवान वीर शिनि पौत्र सात्यकि ने अपने उत्तम वेग वाले चार बाणों द्वारा राजा अलम्बुष के चारों घोड़ों को मार डाला। तत्पश्चात उनके सारथि का भी मस्तक काटकर कालाग्नि के समान तेजस्वी भल्ल द्वारा पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्ति से प्रकाशित होने वाले उनके कुण्डलमण्डित मुख मण्डल को भी धड़ से काट गिराया। राजन! शत्रुओं को मथ डालने वाले यदुकुल तिलक वीर सात्यकि के इस प्रकार युद्ध स्थल में राजा के पुत्र और पौत्र अलम्बुष को मारकर आपकी सेना को स्तब्ध करके फिर अर्जुन का ही अनुसरण किया।

      उस समय गोदुग्ध, कुन्दकुसुम, चन्द्रमा तथा हिम के समान कान्ति वाले सिंधु देशीय संशिक्षित सुन्दर घोड़े, जो सोने की जाली से आवृत्त थे, पुरुषसिंह सात्यकि जहाँ-जहाँ जाना चाहते, वहीं वहाँ- वहाँ उन्हें ले जाते थे। अजमीढ़ वंशी भारतवंशी भरत नन्दन! इस प्रकार जैसे वायु मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न करती रहती है, वैसे ही बारंबार बाणों द्वारा कौरव सेनाओं का संहार करते और शत्रुओं के बीच में विचरते हुए वृष्णि वीर सात्यकि को वहाँ आया हुआ देख योद्धाओं में प्रधान आपके पुत्र दुःशासन को अगुआ बनाकर आपके बहुत से पुत्र तथा आपके पक्ष के अन्य योद्धा भी शीघ्रता पूर्वक एक साथ ही उन पर टूट पड़े। वे सभी बड़ी-बड़ी सेनाओं का आक्रमण सहने में समर्थ थे। उन सबने युद्ध स्थल में सात्यकि को चारों ओर से घेरकर उन पर प्रहार आरम्भ कर दिया। सात्वत शिरोमणि वीर सात्यकि भी अपने बाणों के समूह से उन सबको आगे बढ़ने से रोक दिया। अजमीढ़ नन्दन! उन सबको रोककर शत्रुघाती शिनि पौत्र सात्यकि ने तुरंत ही धनुष उठाकर अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा दुःशासन के घोड़ों को मार डाला। उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरुषों में प्रधान वीर सात्यकि को उस युद्ध भूमि में उपस्थित देख बड़े प्रसन्न हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में अलम्बुष वध विषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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