सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ इकतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन के द्वारा कर्ण की पराजय”
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ महाराज! इस प्रकार रोमांचकारी संग्राम छिड़ जाने पर जब सारी सेनाएँ सब ओर से पीड़ित और व्याकुल हो गयीं, तब राधानन्दन कर्ण युद्ध के लिये पुनः भीमसेन के सामने आया। ठीक उसी तरह, जैसे वन में एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथी पर आक्रमण करता है।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! महाबली कर्ण और भीमसेन ने अर्जुन के रथ के निकट जाकर जो बड़े वेग से युद्ध किया, उनका वह संग्राम कैसा हुआ? भीमसेन ने युद्ध में जब राधानन्दन महारथी कर्ण को पहले ही जीत लिया था, तब वह पुनः उनका सामना करने के लिये कैसे आया? अथवा भीमसेन भूमण्डल के श्रेष्ठ एवं विख्यात महारथी सूतपुत्र कर्ण से समरांगण में युद्ध करने के लिये कैसे आगे बढ़े?
भीष्म और द्रोण से पार पाकर धर्मराज युधिष्ठिर को अब महारथी कर्ण के सिवा दूसरे किसी से भय नहीं रह गया है। पहले जिस महाबाहु राधा नन्दन कर्ण के बल पराक्रम का नित्य चिन्तन करते हुए राजा युधिष्ठिर भय के मारे बहुत वर्षों तक नींद नहीं लेते थे, उसी सूतपुत्र कर्ण के साथ भीमसेन ने सूरभूमि में किस तरह युद्ध किया? जो ब्राह्मण भक्त, पराक्रम सम्पन्न और समर भूमि में कभी पीछे न हटने वाला है, योद्धाओं में श्रेष्ठ उस कर्ण के साथ भीमसेन ने किस प्रकार युद्ध किया ? जो वीर पहले आपस मे भिड़ चुके थे, वे ही महान बल और पराक्रम से सम्पन्न कर्ण और भीमसेन यहाँ पुनः कैसे युद्ध में प्रवृत्त हुए? पहले तो सूत पुत्र कर्ण ने अर्जुन के सिवा अन्य पाण्डवों के प्रति बन्धुत्व दिखाया था और वह दयालु भी है ही, तथापि कुन्ती के वचनों को बारंबार स्मरण करते हुए भी उसने भीमसेन के साथ कैसे युद्ध किया? अथवा शूरवीर भीमसेन ने पहले के किये हुए वैर का स्मरण करके सूत पुत्र कर्ण के साथ उस रण क्षेत्र में किस प्रकार युद्ध किया ?
संजय! मेरा बेटा दुर्योधन सदा यही आशा करता है कि कर्ण संग्राम में समसत पाण्डवों को जीत लेगा। युद्ध स्थल में जिसके ऊपर मेरे मूर्ख पुत्र की विजय की आशा लगी हुई है, उस कर्ण ने भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया? तात! जिसका आश्रय लेकर मेरे पुत्रों ने महारथी पाण्डवों के साथ वैर ठाना है, उस सूत पुत्र कर्ण के साथ भीमसेन ने किस प्रकार युद्ध किया? सूत पुत्र के द्वारा किये गये अनेक अपकारों को स्मरण करके भीमसेन ने उसके साथ किस तरह युद्ध किया? जिस पराक्रमी वीर ने एक मात्र रथ की सहायता से सारी पृथ्वी को जीत लिया, उस सूत पुत्र के साथ रणभूमि में भीमसेन ने किस तरह युद्ध किया ? जो जन्म से ही कवच और कुण्डलों के साथ उत्पन्न हुआ था, उस सूत पुत्र के साथ समरांगण में भीमसेन ने किस प्रकार युद्ध किया ? संजय! उन दोनों वीरों में जिस प्रकार युद्ध हुआ और उनमें से जिस एक को विजय प्राप्त हुई, उसका वह सब समाचार मुझे ठीक-ठीक बताओ; क्योंकि तुम इस कार्य में कुशल हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
संजय ने कहा ;- राजन! भीमसेन ने रथियों मे श्रेष्ठ राधा पुत्र कर्ण को छोड़कर वहाँ जाने की इच्छा की, जहाँ वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान थे। महाराज! वहाँ से जाते हुए भीमसेन पर आक्रमण करके राधा पुत्र कर्ण ने उनके ऊपर कंकपत्र युक्त बाणों की उसी प्रकार वर्षा आरम्भ कर दी, जैसे बादल पर्वत पर जल की वर्षा करता है। बलवान अधिरथ पुत्र ने खिलते हुए कमल के समान मुख से हँसकर जाते हुए भीमसेन को युद्ध के लिये ललकारा।
कर्ण ने कहा ;- भीमसेन! तुम्हारे शत्रुओं ने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था कि तुम युद्ध में पीठ दिखाआगे; परंतु इस समय अर्जुन से मिलने के लिये तुम मुझे पीठ क्यों दिखा रहे हो? पाण्डव नन्दन! तुम्हारा यह कार्य कुन्ती के पुत्र के योग्य नहीं है। अतः मेरे सम्मुख रहकर मुझ पर बाणों की वर्षा करो। कर्ण की ओर से रण क्षेत्र में वह युद्ध की ललकार भीमसेन न सह सके। उन्होंने अर्धमण्डल गति से घूमकर सूत पुत्र के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया।
महायशस्वी भीमसेन सम्पूर्ण शस्त्रों के चलाने में निपुण, कवचधारी तथा द्वैरथ युद्ध के लिये तैयार कर्ण के ऊपर सीधे जाने वाले बाणों की वर्षा करने लगे। कलह का अन्त करने की इच्छा से महाबली भीमसेन कर्ण को मार डालना चाहते थे और इसीलिये उसे बाणों द्वारा क्षत विक्षत कर रहे थे। वे कर्ण को मारकर उसके अनुगामी सेवकों का भी वध करने की इच्छा रखते थे। माननीय नरेश! शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्डु नन्दन भीमसेन कुपित हो अमर्षवश कर्ण पर नाना प्रकार के भयंकर बाणों की वर्षा करने लगे। उत्तम अस्त्रों का ज्ञान रखने वाले सूत पुत्र कर्ण ने अपने अस्त्रों की माया से मतवाले हाथी के समान मस्ती से चलने वाले भीमसेन की उस बाण वर्षा को ग्रस लिया। महाबाहु महाधनुर्धर कर्ण अपनी विद्या द्वारा आचार्य द्रोण के समान यथावत पूजित हो रणक्षेत्र में विचरने लगा।
राजन! क्रोध पूर्वक युद्ध करने वाले कुन्ती पुत्र भीमसेन की हँसी उड़ाता हुआ सा कर्ण उनके सामने जा पहुँचा। कुन्ती कुमार भीम युद्ध स्थल में कर्ण की उस हँसी को न सह सके। सब ओर युद्ध करते हुए समसत वीरों को देखते देखते बलवान भीमसेन ने कुपित हो सामने आये हुए कर्ण की छाती में वत्सदन्त नामक बाणों द्वारा उसी प्रकार चोट पहुँचायी, जैसे महावत महान गजराज को अंकुशों द्वारा पीड़ित करता है। तत्पश्चात विचित्र कवच धारण करने वाले सूत पुत्र को सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले तथा अच्छी तरह छोड़े हुए इक्कीस बाणों द्वारा पुनः क्षत विक्षत कर दिया। उधर कर्ण के भीमसेन के सोने की जालियों से आच्छादित हुए वायु के समान वेगशाली घोड़ों को पाँच-पाँच बाणों से बेध दिया। राजन! तदनन्तर आधे निमेष में ही भीमसेन के रथ पर कर्ण द्वारा बाणों को जाल-सा बिछाया जाता दिखायी दिया। महाराज! वहाँ कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उस समय रथ, ध्वज और सारथि सहित पाण्डु नन्दन भीमसेन आच्छादित हो गये। कर्ण ने चौंसठ बाण मारकर भीमसेन के सुदृढ़ कवच की धज्जियाँ उड़ा दीं। फिर कुपित होकर उसने मर्मभेदी नाराचों से कुन्ती कुमार को अच्छी तरह घायल किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद)
महाबाहु भीमसेन कर्ण के धनुष से छूटे हुए उन बाणों की कोई परवा न करके बिना किसी घबराहट के सूत पुत्र के इतने समीप पहुँच गये, मानो उससे सटे जा रहे हों। महाराज! कर्ण ने धनुष से छूटे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों को अपने शरीर पर धारण करते हुए भीमसेन रणक्षेत्र में व्यथित नहीं हुए। तत्पश्चात अच्छी तरह तेज किये हुए बत्तीस तीखे भल्लों से प्रतापी भीमसेन ने समरांगण में कर्ण को भारी चोट पहुँचायी। उधर कर्ण जयद्रथ के वध की इच्छा वाले महाबाहु भीमसेन पर अनायास ही बाणों की बड़ी भारी वर्षा करने लगा। राधा नन्दन कर्ण तो भीमसेन पर कोमल प्रहार करता हुआ रणभूमि में उनके साथ युद्ध करता था; परंतु भीमसेन पहले के वैर को बारंबार स्मरण करते हुए क्रोध पूर्वक उसके साथ जूझ रहे थे। शत्रुओं का नाश करने वाले अमर्षशील भीमसेन कर्ण द्वारा दिखायी जाने वाली कोमलता या ढिलाई को अपने लिये अपमान समझकर उसे सह न सके। अतः उन्होंने भी तुरंत ही उस पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। युद्ध स्थल में भीमसेन के द्वारा चलाये हुए वे बाण कूजते हुए पक्षियों के समान वीर कर्ण पर सब ओर से पड़ने लगे।
भीमसेन के धनुष से छूटे हुए चमचमाती हुई धर वाले सुवर्णमय पंखों से सुशोभित उन बाणों ने राधा नन्दन कर्ण को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे पतिंगे आग को आच्छादित कर लेते हैं। भरतवंशी नरेश! इस प्रकार सब ओर से बाणों द्वारा आच्छादित होते हुए रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने भी भीम पर भयंकर बाण वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु समर भूमि में शोभा पाने वाले कर्ण के उन वज्रोपम बाणों को भीमसेन ने अपने पास आने से पहले ही बहुत से भल्लों द्वारा काट गिराया। भरत नन्दन! शत्रुओं का दमन करने वाले सूर्य पुत्र कर्ण ने युद्ध में पुनः बाण वर्षा करके भीमसेन को ढक दिया। भारत! उस समय युद्ध स्थल में बाणों से चिने हुए शरीर वाले भीमसेन को सब लोगों ने कंटकों से युक्त साही के समान देखा। वीर भीमसेन ने कर्ण के धनुष से छूटे और शिला पर तेज किये हुए सुवर्ण पंख युक्त बाणों को समरांगण में अपने शरीर पर उसी प्रकार धारा किया था, जैसे अंशुमाली सूर्य अपनी किरणों को धारण करते हैं। भीमसेन का सारा शरीर खून से लथपथ हो रहा था। वे वसन्त ऋतु में खिले हुए अधिकाधिक पुष्पों से सम्पन्न अशोक वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे।
महाबाहु भीमसेन रणभूमि में विशाल बाहु कर्ण के उस चरित्र को न सह सके। उस समय क्रोध से उनके नेत्र घूमने लगे। उन्होंने कर्ण पर पचीस नाराच चलाये; उनके लगने से कर्ण छिपे हुए पैरों वाले विषैले सर्पों से युक्त श्वेत पर्वत के समान जान पड़ता था। फिर देवोपम पराक्रमी भीम ने अपने शरीर की परवा न करने वाले सूत पुत्र को उसके मर्म स्थल में छः और आठ बाण मारकर तुरंत ही कर्ण के धनुष को काट दिया। फिर शीघ्रता पूर्वक बाणों का प्रहार करके उसके चारों घोड़ों और सारथि को भी मार डाला। साथ ही सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी नाराचों से कर्ण की छाती में भारी आघात किया। जैसे सूर्य की किरणें बादलों को भेदकर सब ओर फैल जाती हैं, उसी प्रकार भीमसेन के बाण कर्ण के शरीर को छेदकर शीघ्र ही धरती में समा गये। यद्यपि कर्ण को अपने पुरुषत्व का बड़ा अभिमान था, तो भी भीमसेन के बाणों से घायल हो धनुष कट जाने पर रथहीन होने के कारण वह बड़ी भारी घबराहट में पड़ गया और दूसरे रथ पर बैठने के लिये वहाँ से भाग निकला।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में कर्ण की पराजय विषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! भृगुवंश शिरोमणि धनुर्धर परशुरामजी साक्षात भगवान शंकर के शिष्य हैं तथा कर्ण उन्हीं का शिष्यत्व ग्रहण करके अस्त्र विद्या में उनके समान ही सुयोग्य हो गया था। अथवा शिष्योचित सद्गुणों से सम्पन्न परशुरामजी का वह शिष्य उनसे बढ़-चढ़कर है, तो भी उसे कुन्ती कुमार भीमसेन ने खेल-खेल में ही पराजित कर दिया। संजय! जिस पर मेरे पुत्रों को विजय की बड़ी आशा लगी हुई है, उसे भीमसेन से पराजित होकर युद्ध से विमुख हुआ देख दुर्योधन ने क्या कहा? तात! अपने पराक्रम से सुशोभित होने वाले महाबली भीमसेन ने किस प्रकार युद्ध किया? अथवा कर्ण ने रणक्षेत्र में भीमसेन को अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित होते देख उसके बाद क्या किया ?
संजय कहते हैं ;- राजन! वायु के वेग से ऊपर उठते हुए समुद्र के समान कर्ण ने विधि पूर्वक सजाये हुए दूसरे रथ पर आरूढ़ होकर पुनः पाण्डु नन्दन भीम पर आक्रमण किया। प्रजानाथ! उस समय अधिरथ पुत्र कर्ण कोे क्रोध में भरा हुआ देखकर आपके पुत्रों ने यही मान लिया कि भीमसेन अब अग्नि के मुख में दी हुई आहुति के समान नष्ट हो जायँगे। तदनन्तर धनुष की टंकार और हथेली का भयानक शब्द करते हुए राधा नन्दन कर्ण ने भीमसेन के रथ पर धावा बोल दिया। राजन! शूरवीर कर्ण और महामनस्वी भीमसेन- इन दोनों वीरों में पुनः घोर संग्राम छिड़ गया। एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वे दोनों महाबाहु योद्धा अत्यन्त कुपित हो एक दूसरे को नेत्रों द्वारा दग्ध करते हुए परस्पर दृष्टिपात करने लगे। उन दोनों की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं थीं। दोनों ही फुफकारते हुए सर्पों के समान लंबी साँस खाींच रहे थे। दोनों ही शत्रुदमन वीर उग्र हो परस्पर भिड़कर एक दूसरे को बाणों द्वारा क्षत-विक्षत करने लगे। वे दो व्याघ्रों के समान रोषावेश में भरकर दो बाघों के समान परस्पर शीघ्रता पूर्वक झपटते थे तथा अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दो शरभों के समान परस्पर युद्ध करते थे।
जूआ के समय; वनवास काल में तथा विराट नगर में जो दुःख प्राप्त हुआ था, उनका स्मरण करके, आपके पुत्रों ने जो पाण्डवों के राज्यों तथा समुज्जवल रत्नों का अपहरण किया था, उसे याद करके, पुत्रों सहित आपने पाण्डवों को जो निरन्तर क्लेश प्रदान किये हैं, उन्हें ध्यान में लाकर, निरपराध कुन्ती देवी तथा उनके पुत्रों को जो आपने जला डालने की इच्छा की थी, सभी के भीतर आपके दुरात्मा पुत्रों ने जो द्रौपदी को महान कष्ट पहुँचाया था, दुःशासन ने जो उसके केश पकड़े थे, भारत! कर्ण ने जो उसके प्रति कठोर वचन सुनाये थे तथा कुरुनन्दन! आपकी आँखों के सामने ही कौरवों ने जो द्रौपदी से यह कहा कि ‘कृष्णे! तू दूसरा पति कर ले, तेरे ये पति अब नहीं रहे, कुन्ती के सभी पुत्र थोथे तिलों के समान निवीर्य होकर नरक ( दुःख ) में पड़ गये हैं।’ महाराज! आपके पुत्र जो द्रौपदी को दासी बनाकर उसका उपभोग करना चाहते थे तथा काले मृगचर्म धारण करके वन की ओर प्रस्थान करते समय पाण्डवों के प्रति सभा में ही आपके समीप ही कर्ण ने जो कटु वचन सुनाये थे और पाण्डवों को तिनकों के समान समझ कर जो आपका पुत्र दुर्योधन उछलता-कूदता था, स्वयं सुखमयी परिस्थितियों में रहते हुए भी जो उस अचेत मूर्ख ने संकट में पड़े हुए पाण्डवों के प्रति क्रोध का भाव दिखाया था, इन सब बातों को तथा बचपन से लेकर अब तक आपकी ओर से प्राप्त हुए अपने दुःखों को याद करके शत्रुओं का दमन करने वाले शत्रुनाशक धर्मात्मा भीमसेन अपने जीवन से विरक्त हो उठे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय भरतवंश के उस सिंह ने अपने जीवन का मोह छोड़कर सुवर्णमय पृष्ठ भाग से सुशोभित दुर्धर्ष एवं विशाल धनुष की टंकार करते हुए यहाँ पर धावा किया। कर्ण के रथ पर भीमसेन ने सान पर चढ़ा कर स्वच्छ किये हुए तेजस्वी बाणों का जाल सा बिछाकर सूर्य की प्रभा को आच्छादित कर दिया। तब अधिरथ पुत्र कर्ण ने हँसकर शिला पर तेज किये हुए पंख युक्त बाणों द्वारा भीमसेन के उन बाण समूहों को तुरंत ही छिन्न-भिन्न कर दिया। महारथी महाबाहु महाबली अधिरथ पुत्र कर्ण ने उस समय नौ तीखे महाबाणों से भीमसेन को घायल कर दिया। जैसे मतवाला हाथी अंकुश से रोका जाय, उसी प्रकार पंख युक्त बाणों द्वारा भीमसेन सूत पुत्र कर्ण पर चढ़ आये। जैसे मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथी पर धावा करता है, उसी प्रकार पाण्डव शिरोमणि वेगशाली भीम को वेग पूर्वक आक्रमण करते देख कर्ण भी युद्ध सथल में उनका सामना करने के लिए आगे बढ़ा।
तदनन्तर कर्ण ने हर्ष पूर्वक सैंकड़ों भेरियों के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले शंख को बजाकर सब ओर गुँजा दिया। इसने पाण्डवों की सेना में विक्षुब्ध समुद्र के समान हलचल पैदा हो गयी। हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त उस सेना को विक्षुब्ध हुई देख भीमसेन ने कर्ण के पास आकर उसे बाणों द्वारा आच्छादित कर दिया। उस रण क्षेत्र में पाण्डु नन्दन भीम को अपने बाणों से आच्छादित करते हुए कर्ण ने रीछ के समान रंग वाले अपने काले घोड़ों को भीमसेन के हंस- सदृश श्वेत वर्ण वाले उत्तम घोड़ों के साथ मिला दिया। रीछ के समान रंग वाले और वायु के समान वेगशाली घोड़ों को श्वेत अश्वों के साथ मिला हुआ देख आपके पुत्रों की सेना में हाहाकार मच गया। महाराज! वायु के समान वेग वाले वे सफेद और काले घोड़े परस्पर मिलकर आकाश में उठे हुए सफेद और काले बादलों के समान अधिक शोभा पा रहे थे।
रोषावेश में भरकर क्रोध से लाल आँखें किये कर्ण और भीमसेन को देखकर आपके महारथी भयभीत हो काँपने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन दोनों का संग्राम यमराज के राज्य के समान अत्यन्त भयंकर था। प्रेतराज की पुरी के समान उसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था। उस विचित्र से समाज को देखते हुए महारथियों ने उस महासमर में निश्चय ही उन दोनों में से किसी एक ही व्यक्ति की विजय होती नहीं देखी। राजन! प्रजानाथ! पुत्रों सहित आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप महान अस्त्रधारी भीमसेन और कर्ण का अत्यन्त निकट से होने वाला संघर्ष सब लोग देख रहे थे। उन दोनों अद्भुत पराक्रमी शत्रुहन्ता वीरों ने एक दूसरे को तीखे बाणों से आच्छादित करते हुए आकाश को बाण समूहों से व्याप्त कर दिया। पैने बाणों द्वारा एक दूसरे को मार डालने की इच्छा वाले दोनों महारथी वीर वर्षा करने वाले बादलों के समान अत्यन्त दर्शनीय हो रहे थे। प्रभो! उन दोनों शत्रुहन्ता वीरों ने सुवर्ण निर्मित बाणों की वर्षा करके आकाश को उसी प्रकार प्रकाशमान कर दिया, जैसे बड़ी-बड़ी उल्काओं के गिरने से वह प्रकाशित होने लगता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 39-43 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उन दोनों के छोड़े हुए गीध की पाँख वाले बाण शरद ऋतु के आकाश में मतवाले सारसों की श्रेणियों के समान सुशोभित होते थे। शत्रुदमन भीमसेन को सूत पुत्र के साथ उलझा हुआ देख श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भीम पर यह बहुत बड़ा भार समझा। उस युद्ध स्थल में कर्ण और भीेमसेन के छोड़े हुए बाणों से अत्यन्त घायल हुए घोड़े, मनुष्य और हाथी बाणों के गिरने के स्थान को लाँघकर उससे दूर जा गिरते थे।
राजन! महाराज! कुछ सैनिक गिर रहे थे, कुछ गिर चुके थे और दूसरे बहुत से योद्धा प्राणशून्य हो गये थे; उन सबके कारण आपके पुत्रों की सेना में बड़ा भारी नरसंहार हुआ। भरत श्रेष्ठ! मनुष्य, घोड़े और हाथियों के निष्प्राण शरीरों से वहाँ की भूमि क्षणभर में ढक गयी और दक्ष यज्ञ के संहार काल में रुद्र की क्रीड़ा भूमि के समान प्रतीत होने लगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन और कर्ण का युद्ध विषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ तैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन और कर्ण का युद्ध, कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश तथा धृतराष्ट्र पुत्र दुर्जय का वध”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मैं भीमसेन के पराक्रम को अत्यन्त अद्भुत मानता हूँ कि उन्होंने समरांगण में शीघ्रता पूर्वक पराक्रम दिखाने वाले कर्ण के साथ भी युद्ध किया। संजय! जो कर्ण रणक्षेत्र में युद्ध के लिये सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को धारण करके सुसज्जित हुए देवताओं तथा यक्षों, असुरों और मनुष्यों का भी निवारण कर सकता है, वह युद्ध में विजय-लक्ष्मी से सुशोभित होते हुए से पाण्डु नन्दन कुन्ती कुमार भीमसेन को कैसे नहीं लाँघ सका? इसका कारण मुझे बताओ। उन दोनों में प्राणों की बाजी लगाकर किस प्रकार युद्ध हुआ? मैं समझता हूँ कि यहीं उभय पक्ष की जय अथवा विजय निर्भर है। सूत! रणक्षेत्र में कर्ण को पाकर मेरा पुत्र दुर्योधन श्रीकृष्ण तथा सात्यकि आदि यादवों सहित समस्त कुन्ती कुमारों को जीतने का उत्साह रखता है। समरांगण में भयंकर कर्म करने वाले भीेमसेन के द्वारा कर्ण के बारंबार पराजित होने की बात सुनकर मेरे मन पर मोह सा छा जाता है। मेरे पुत्र की दुर्नीतियों के कारण मैं समस्त कौरवों को नष्ट हुआ ही मानता हूँ।
संजय! कर्ण कभी महाधनुर्धर कुन्ती कुमारों को नहीं जीत सकेगा। कर्ण ने पाण्डु पुत्रों के साथ जो जो युद्ध किये हैं, उन सब में पाण्डवों ने ही रणक्षेत्र में कर्ण को जीता है। तात! इन्द्र आदि देवताओं के लिये भी पाण्डवों पर विजय पाना असम्भव है; परंतु मेरा मूर्ख पुत्र दुर्योधन इस बात को नहीं समझता है। मेरा पुत्र कुबेर के समान कुन्ती कुमार युधिष्ठिर के धन का अपहरण करके ऊँचे स्थान से मधु लेने की इच्छा वाले मूर्ख मनुष्य के समान पतन के भय को नहीं समझ रहा है। वह छल-कपट की विद्या को जानता है। अतः छल से ही उन महामनस्वी पाण्डवों के राज्य का अपहरण करके उसे जीता हुआ मानकर पाण्डवों का अपमान करता है। मुझ अकृतात्मा ने भी पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर सदा धर्म पर स्थित रहने वाले पाण्डवों को ठगा है। दूरदर्शी युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित संधि की अभिलाषा रखते थे; परंतु उन्हें असमर्थ मानकर मेरे पंत्रों ने उनकी बात ठुकरा दी। अतः संजय! एक दूसरे के वध की इच्छा वाले युद्ध स्थल के श्रेष्ठवीर कर्ण और भीमसेन ने समरांगण में जिस प्रकार युद्ध किया, वह सब मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! कर्ण और भीमसेन के युद्ध का यथावत वृत्तान्त सुनिये। वे दोनों जंगली हाथियों के समान एक दूसरे के वध के लिये उत्सुक थे। राजन! क्रोध में भरे हुए सूर्य पुत्र कर्ण ने कुपित हुए शत्रुदमन पराक्रमी भीमसेन को अपने बल पराक्रम का परिचय देते हुए तीस बाणों से बींध डाला। भरतश्रेष्ठ! कर्ण ने चमकते हुए अग्रभाग वाले सुवर्ण जटित महान वेगशाली बाणों द्वारा भीमसेन को घायल कर दिया। इस प्रकार बाण चलाते हुए कर्ण के धनुष को भीमसेन ने तीन तीखे बाणों द्वारा काट डाला और एक भल्ल मारकर सारथि को रथ की बैठक से नीचे पृथ्वी पर गिरा दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
तब भीमसेन के वध की अभिलाषा रखकर कर्ण ने वेग पूर्वक एक शक्ति हाथ में ली, जिसका डंडा सुवर्ण और वैदूर्यमणि से जड़ित होने के कारण विचित्र दिखायी देता था। वह महाशक्ति दूसरी काल शक्ति के समान प्रतीत होती थी। महाबली राधा पुत्र कर्ण ने जीवन का अन्त कर देने वाली उस शक्ति को लेकर ऊपर उठाया और उसे धनुष पर रख कर भीमसेन पर चला दिया। इन्द्र के वज्र की भाँति उस शक्ति को छोड़कर बलवान सूत नन्दन कर्ण ने बड़े जोर से गर्जना की। उस समय उस सिंहनाद को सुनकर आपके पुत्र बड़े प्रसन्न हुए। कर्ण के हाथ से छूटकर आकाश में सूर्य और अग्नि के समान प्रकाशित होने वाली उस शक्ति को भीमसेन ने सात बाणों से आकाश में ही काट डाला।
माननीय नरेश! केचुल से छूटी हुई सर्पिणी के समान उस शक्ति के टुकड़े-टुकड़े करके फिर भीमसेन ने कुपित हो युद्ध स्थल में सूतपुत्र कर्ण के प्राणों की खोज करते हुए से सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए, यमदण्ड के समान भयंकर, मयूर पंख एवं स्वर्ण पंख से विभूषित बाणों को उसके ऊपर चलाना आरम्भ किया। तब कर्ण ने भी सुवर्णमय पीठ वाले दूसरे दुर्धर्ष एवं विशाल धनुष को हाथ में लेकर खींचा और बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। राजन! वसुषेण (कर्ण) के छोड़े हुए नौ विशाल बाणों को पाण्डु पुत्र भीमसेन ने झुकी हुई गाँठ वाले नौ बाणों द्वारा काट गिराया। महाराज! भीमसेन ने कर्ण के बाणों को काटकर सिंह के समान गर्जना की। वे दोनों बलवान वीर कभी गाय के लिये लड़ने वाले दो साँड़ों के समान हँकड़ते और कभी मांस के लिये परस्पर जूझने वाले दो सिंहों के समान दहाड़ते थे। वे गोशाला में लड़ने वाले दो बड़े-बड़े साँड़ों के समान एक दूसरे पर चोट करने की इच्छा रखते हुए अवसर ढूंढ़ते और परस्पर आँखें तरेर कर देखते थे। जैसे दो विशाल गजराज अपने दाँतों के अग्र भागों द्वारा एक दूसरे से भिड़ गये हों, उसी प्रकार कर्ण और भीमसेन धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाते थे।
महाराज! वे परस्पर शस्त्रों की वर्षा करके एक दूसरे को दग्ध करते, क्रोध से आँखें फाड-फाड़कर देखते, कभी हँसते और कभी बारंबार एक दूसरे को डाँटते एवं शंखनाद करते हुए परस्पर जूझ रहे थे। आर्य! भीमसेन ने पुनः कर्ण के धनुष को मुट्ठी में पकड़ने की जगह से काट डाला, शंख के समान श्वेत रंग वाले उसके घोड़ों को भी बाणों द्वारा यमलोक पहुँचा दिया और उसके सारथि को भी मारकर रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। घोड़े और सारथि के मारे जाने पर समरांगण में बाणों द्वारा आच्छादित हुआ सूर्य पुत्र कर्ण दुस्तर चिन्ता में निमग्न हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा आदेश मिलने पर आपके पुत्र दुर्योधन से ‘बहुत अच्छा’ कहकर आपके दूसरे पुत्र दुर्जय ने युद्ध में आसक्त हुए भीमसेन पर बाणों की वर्षा करते हुए आक्रमण किया। उसने नौ बाणों से भीमसेन को, आठ बाणों से उनके घोड़ों को और छः बाणों से सारथि को घायल कर दिया। फिर तीन बाणों द्वारा उनकी ध्वजा पर आघात करके उन्हें भी पुनः सात बाणों से बींध डाला।
तब भीमसेन ने भी अत्यन्त कुपित होकर अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा दुर्जय (दुष्पराजय) के मर्म स्थल को विदीर्ण करके उसे सारथि और घोड़ों सहित यमलोक भेज दिया। आभूषण भूषित दुर्जय अपने क्षत विक्षत अंगों से पृथ्वी पर गिरकर चोट खाये हुए सर्प के समान छटपटाने लगा। उस समय कर्ण ने शोकार्त होकर रोते-रोते आपके पुत्र की परिक्रमा की। इस प्रकार अपने अत्यनत वैरी कर्ण को रथहीन करके मुसकराते हुए भीमसेन ने उसे बाण समूहों, शतघ्नियों और शंकाओं से आच्छादित कर दिया। भीमसेन के बाणों से क्षत विक्षत होने पर भी शत्रुओं को संताप देने वाला अतिरथी कर्ण समरभूमि में कुपित भीमसेन को छोड़कर भागा नहीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन और कर्ण का युद्ध विषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन और कर्ण का युद्ध, धृतराष्ट्र पुत्र दुर्मुख का वध तथा कर्ण का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन! सब प्रकार से रथहीन एवं भीमसेन के द्वारा पुनः पराजित हुए कर्ण ने दूसरे रथ पर बैठकर पाण्डु कुमार भीमसेन को पुनः बींध डाला। जैसे दो विशाल गजराज अपने दाँतों के अग्रभागों द्वारा एक दूसरे से भिड़ गये हों, उसी प्रकार कर्ण और भीमसेन धनुष को पूर्णतः खीचकर छोड़े गये बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। तदनन्तर कर्ण ने अपने बाण समूहों द्वारा भीमसेन को घायल कर दिया। उसने बड़े जोर से गर्जना की और पुनः भीमसेन की छाती में चोट पहुँचायी। तब भीम ने सीधे जाने वाले दस बाणों से कर्ण को मारकर बदला चुकाया। तत्पश्चात झुकी हुई गाँठ वाले सत्तर बाणों द्वारा पुनः कर्ण को बींध डाला। राजन! भीमसेन ने कण की छाती में नौ बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचाकर एक तीखे बाण से उसकी ध्वजा को भी छेद दिया। तदनन्तर जैसे विशाल गजराजों को अंकुशों से और घोड़े को कोड़ों से पीटा जाय, उसी प्रकार कुन्ती कुमार भीम ने तिरेसठ बाणों द्वारा कर्ण को घायल कर दिया। महाराज! यशस्वी पाण्डु पुत्र के द्वारा अत्यन्त घायल होकर वीर कर्ण क्रोध से लाल आँखें करके अपने दोनों जबड़ों को चाटने लगा। राजन! तदनन्तर जैसे इन्द्र ने बलासुर पर वज्र चलाया था, उसी प्रकार उसने भीमसेन पर समस्त शरीर को विदीर्ण कर देने वाले बाण का प्रहार किया। रणक्षेत्र में सूत पुत्र के धनुष से छूटा हुआ वह विचित्र पंखों वाला बाण भीमसेन को विदीर्ण करके पृथ्वी को चीरता हुआ उसके भीतर समा गया।
तब क्रोध से लाल नेत्रों वाले महाबाहु भीमसेन ने चार वित्ते की बनी हुई वज्र के समान भयंकर तथा सुवर्णमय भुजबंद से विभूषित छः कोणों वाली भारी गदा उठाकर उसे बिना विचारे सूत पुत्र कर्ण पर चला दिया। जैसे कुपित हुए इन्द्र ने वज्र से असुरों का वध किया था, उसी प्रकार क्रोध में भरे भरतवंशी भीम ने अपनी उस गदा से अधिरथ पुत्र कर्ण के उन उत्तम घोड़ों को मार डाला, जो अच्छी तरह सवारी का काम देते थे। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात महाबाहु भीमसेन ने दो छुरों से कर्ण की ध्वजा काट कर अपने बाणों द्वारा उसके सारथि को भी मार डाला।
भारत! घोड़े और सारथि के मारे जाने तथा ध्वजा के गिर जाने पर कर्ण उस रथ को छोड़कर धनुष की टंकार करता हुआ दु:खी मन से वहाँ खड़ा हो गया। वहाँ हम लोगों ने राधा नन्दन कर्ण का अद्भुत पराक्रम देखा। रथियों में श्रेष्ठ उस वीर ने रथहीन होने पर भी अपने शत्रु को आगे नहीं बढ़ने दिया। राजन! नरश्रेष्ठ कर्ण को युद्ध स्थल में रथहीन खड़ा देख दुर्योधन ने अपने भाई दुर्मुख से कहा- ‘दुर्मुख! यह राधा नन्दन कर्ण भीमसेन के द्वारा रथ से वंचित कर दिया गया है। इस महारथी नरश्रेष्ठ वीर को रथ से सम्पन्न करो’। भरतनन्दन! दुर्योधन की यह बात सुनकर दुर्मुख बड़ी उतावली के साथ कर्ण के समीप पहुँचा और भीमसेन को अपने बाणों द्वारा रोका। संग्राम में सूत पुत्र के चरणों का अनुसरण करने वाले दुर्मुख को देखकर वायु पुत्र भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए। वे अपने दोनों गलफर चाटने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तदनन्तर कर्ण को अपने बाणों द्वारा रोककर पाण्डु कुमार भीम तुरंत ही अपने रथ को दुर्मुख के पास ले गये। राजन! फिर झुकी हुई गाँठ वाले नौ सुमुख बाणों द्वारा भीमसेन ने दुर्मुख को उसी क्षण यमलोक पहुँचा दिया। नरेश्वर! दुर्मुख के मारे जाने पर कर्ण उसी रथ पर बैठ कर देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। दुर्मुख का मर्मस्थान विदीर्ण हो गया था। वह खून से लथपथ हो पृथ्वी पर पड़ा था। उसे उस दशा में देखकर कर्ण के नेत्रों में आँसू भर आया। वह दो घड़ी तक विपक्षी का सामना न कर सका। जब उसके प्राण पखेरू उड़ गये, तब कर्ण उस शव की परिक्रमा करके आगे बढ़ा। वह वीर गरम गरम लंबी साँस खींचता हुआ किसी कर्त्तव्य का निश्चय न कर सका। राजन! इसी अवसर में भीमसेन ने सूतपुत्र पर गीध की पाँख वाले चौदह नाराच चलाये। महाराज! वे महातेजस्वी सुनहरी पाँख वाले बाण उसके सुवर्ण जटित कवच को छिन्न-भिन्न करके दसों दिशाओं को सुशोभित करने लगे। नरेन्द्र! वे रक्त का आहार करने वाले बाण क्रोध भरे काल प्रेरित भुजंगों के समान सूत पुत्र कर्ण का खून पीने लगे। जैसे क्रोध में भरे हुए महान सर्प बिलों में प्रवेश करते समय आधे ही घुस पाये हों, उसी प्रकार वे बाण पृथ्वी में घुसते हुए शोभा पा रहे थे।
तब कर्ण ने कुछ विचार न करके अत्यन्त भयंकर एवं सुवर्ण भूषित चौदह नाराचों से भीमसेन को भी घायल कर दिया। वे पंखधारी भयानक बाण भीेमसेन की बायीं भुजा छेदकर पृथ्वी में समा गये, मानो पक्षी क्रौन्च पर्वत को जा रहे हों। वे नाराच इस पृथ्वी में प्रवेश करते समय वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे सूर्य के डूबते समय उनकी चमकीली किरणें प्रकाशित होती हैं। मर्मभेदी नाराचों से रणक्षेत्र में विदीर्ण हुए भीमसेन उसी प्रकार भूरि-भूरि रक्त बहाने लगे जैसे पर्वत झरने का जल गिराता है। तब भीमसेन ने भी प्रयत्न पूर्वक गरुड़ के समान वेगशाली तीन बाणों द्वारा सूत पुत्र कर्ण को तथा सात बाणों से उसके सारथि को भी घायल कर दिया। महाराज! भीम के बाणों से आहत होकर कर्ण विह्नल हो उठा और महान भय के कारण युद्ध छोड़कर शीघ्रगामी घोड़ों की सहायता से भाग निकला। परंतु अतिरथी भीमसेन अपने सुवर्ण भूषित धनुष को ताने हुए प्रज्वलित अग्नि के समान युद्ध स्थल में ही खड़े रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में कर्ण का पलायन विषयक एक सौ चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ पैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का खेद पूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा करना तथा भीम के द्वारा दुर्मर्षण आदि धुतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध”
जब युद्ध में कर्ण ने भीम के भय से पलायन कर लिया, तब धृतराष्ट्र ने कहा,,
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! मैं तो दैव को ही बड़ा मानता हूँ। पुरुषार्थ तो व्यर्थ है। उसे धिक्कार है; क्योंकि उसमें स्थित हुआ अधिरिथ पुत्र कर्ण सब प्रकार से प्रयत्न करके भी रणक्षेत्र में पाण्डु नन्दन भीम से पार न पा सका। ‘कर्ण युद्धस्थल में कृष्ण सहित समस्त कुन्ती कुमारों को जीतने का उत्साह रखता है। मैं संसार में कर्ण के समान दूसरे किसी योद्धा को नहीं देख रहा हूँ’। इस प्रकार दुर्योधन के मुँह से मैंने बारंबार सुना है। सूत! मूर्ख दुर्योधन ने पहले मुझसे यह भी कहा था कि ‘कर्ण बलवान, शूरवीर, सुदृढ़ धनुर्धर और युद्ध में श्रम तथा थकावट पर विजय पाने वाला है। राजन! कर्ण के साथ रहने पर समर भूमि में मुझे देवता भी परास्त नहीं कर सकते; फिर शक्तिहीन और विवेकशून्य पाण्डव मेरा क्या कर सकते हैं ?’ परंतु रणक्षेत्र में विषहीन सर्प के समान कर्ण को पराजित और युद्ध मे भागा हुआ देखकर दुर्योधन ने क्या कहा था। अहो! दुर्योधन ने मोहित होकर युद्ध की कला से अनभिज्ञ दुर्मुख को अकेले ही पतंग की भाँति आग में झोंक दिया।
संजय! अश्वत्थामा, मद्रराज शल्य, कृपाचार्य और कर्ण- ये सब मिलकर भी निश्चय ही भीम के सामने नहीं ठहर सकते। वे भी वायु के तुल्य तेजस्वी भीमसेन के दस हजार हाथियों के समान अत्यन्त घोर बल को तथा उनके क्रूरतापूर्ण निश्चय को जानते हैं; उनके बल, पराक्रम और क्रोध से परिचित हैं। ऐसी दशा में वे यम, काल और अन्तक के समान क्रूर कर्म करने वाले भीमसेन को युद्ध में अपने ऊपर कैसे कुपित करेंगे? अकेला सूत पुत्र महाबाहु कर्ण ही अपने बाहुबल के घमंड में भरकर भीमसेन का तिरस्कार करके रणभूमि में उनके साथ जूझता रहा। जिन्होंने समरांगण में असुरों पर विजय पाने वाले देवराज इन्द्र के समान कर्ण को पराजित कर दिया, उन पाण्डु पुत्र भीमसेन को कोई भी युद्ध में जीत नहीं सकता।
जो भीमसेन अकेले ही द्रोणाचार्य को मथकर धनंजय का पता लगाने के लिये मेरी सेना में घुस आये, उनका सामना करने के लिये जीवित रहने की इच्छा वाला कौन पुरुष जा सकता है? संजय! जैसे हाथ में वज्र लिये हुए देवराज इन्द्र के सामने कोई दानव खड़ा नहीं हो सकता, उसी प्रकार भीमसेन के सम्मुख भला कौन ठहर सकता है? मनुष्य यमलोक में भी जाकर लौट सकता है; परंतु युद्ध में भीमसेन के सामने जाकर कदापि जीवित नहीं लौट सकता। मेरे जो मन्द बुद्धि पुत्र मोहित होकर क्रोध में भरे हुए भीमसेन की ओर दौड़े थे, वे पतंगों के समान मानो आग में ही कूद पड़े थे। क्रोध में भरे हुए भयंकर भीमसेन ने सभा भवन में उस दिन समस्त कौरवों के सुनते हुए मेरे पुत्रों के वध के सम्बन्ध में जो प्रतिज्ञा की थी, उसका विचार करके और कर्ण को पराजित देखकर अपने भाई दुर्योधन सहित दुःशासन निश्चय ही भय के मारे भीमसेन से दूर हट गया होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
संजय! खोटी बुद्धि वाले दुर्योधन ने सभा में बारंबार कहा था ‘कर्ण, दुःशासन तथा मैं- तीनों मिलकर युद्ध में अवश्य पाण्डवों को जीत लेंगे’। परंतु अब कर्ण को भीमसेन के द्वारा पराजित और रथहीन हुआ देख श्रीकृष्ण की बात न मानने के कारण मेरा वह पुत्र निश्चय ही बड़ा भारी पश्चात्ताप कर रहा होगा। अपने कवचधारी भ्राताओं को युद्ध में भीेमसेन के द्वारा मारा गया देख मेरे पुत्र को अपने अपराध के लिये अवश्य ही महान अनुताप हो रहा होगा। अपने जीवन की इच्छा रखने वाला कौन पुरुष क्रोध में भरकर साक्षात काल के सामने खड़े हुए भयानक अस्त्र शस्त्रधारी पाण्डु पुत्र भीमसेन के विरुद्ध युद्ध में जा सकता है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि बड़वानल केे मुख में पड़ा हुआ मनुष्य शायद जीवित बच जाय; परंतु भीमसेन के सम्मुख युद्ध के लिये आया हुआ कोई भी शूरमा जीवित नहीं छूट सकता। सूत! युद्ध में क्रुद्ध होने पर पाण्डव, पाञ्चाल, श्रीकृष्ण तथा सात्यकि- ये कोई भी शत्रु के जीवन की रक्षा करना नहीं जानते हैं। अहो! मेरे पुत्रों का जीवन भारी विपत्ति में पड़ गया है।
संजय ने कहा ;- कुरु नन्दन! यह महान भय जब सिर पर आ गया है, तब आप शोक करने बैठे हैं, यह ठीक नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस जगत के विनाश का मूल कारण आप ही हैं। पुत्रों की हाँ में हाँ मिलाकर आपने स्वयं ही इस महान वैर की नींव डाली है और जब इसे मिटाने के लिये आपसे किसी ने कोई बात कही, तब आपने उसे नहीं माना, ठीक उसी तरह, जैसे मरणासन्न मनुष्य हितकारक औषध नहीं ग्रहण करता है। नरश्रेष्ठ! महाराज! जिसको पचाना अत्यन्त कठिन है, उस कालकूट विष को स्वयं पीकर अब उसके सारे परिणामों को आप ही भोगिये। युद्ध में लगे हुए महाबली योद्धाओं को जो आप कोस रहे हैं, वह व्यर्थ है। अब किस प्रकार वहाँ युद्ध हुआ था, वह सब आपको बता रहा हूँ, सुनिये।
भरत नन्दन! कर्ण को भीमसेन से पराजित हुआ देख आपके पाँच महाधनुर्धर पुत्र जो परस्पर सगे भाई थे, सह न सके। उन पाँचों के नाम ये हैं - दुर्मर्षण, दुःसह, दुर्मद, दुर्धर (दुराधर) और जय। इन सबने विचित्र कवच धारण करके अपने विरोधी पाण्डु पुत्र भीमसेन पर आक्रमण किया। उन्होंने महाबाहु भीमसेन को चारों ओर से घेरकर टिड्डी दलों के समान अपने बाण समूहों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। उन देवतुल्य राजकुमारों को सहसा देख समर भूमि में भीमसेन ने हँसते हुए से उनका आघात सहन किया। आपके पुत्रों को भीमसेन के सामने गया हुआ देख राधा नन्दन कर्ण पुनः महाबली भीमसेन का सामना करने आ पहुँचा। वह शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखों से युक्त पैने बाणों की वर्षा कर रहा था। उस समय आपके पुत्रों द्वारा रोके जाने पर भी भीमसेन तुरंत ही कर्ण के साथ युद्ध करने के लिये आगे बढ़ गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 35-40 का हिन्दी अनुवाद)
तब उन कौरवों ने कर्ण को चारों ओर से घेरकर भीमसेन पर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। राजन! यह देखकर भीमसेन ने पच्चीस बाणों का प्रहार करके सारथि और घोड़ों सहित भयंकर धनुष धारण करने वाले उन नरश्रेष्ठ राजकुमारों को यमलोक पहुँचा दिया।
वे प्राण शून्य होकर सारथि के साथ रथों से नीचे गिर पड़े, मानो प्रचण्ड आँधी ने विचित्र पुष्प धारण करने वाले विशाल वृक्षों को उखाड़ कर धराशायी कर दिया हो। वहाँ हमने भीमसेन का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि उन्होंने सूत पुत्र कर्ण को अपने बाणों द्वारा रोककर आपके पुत्रों को मार डाला। महाराज! भीमसेन के पैने बाणों द्वारा चारों ओर से रोके जाने पर भी सूत पुत्र कर्ण ने भीमसेन की ओर क्रोध पूर्वक देखा। इधर क्रोध से लाल आँखें किये भीमसेन भी अपने विशाल धनुष को फैलाकर कर्ण की ओर रोष पूर्वक बारंबार देखने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का पराक्रम विषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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