सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का चिन्तित होकर भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता लगाने के लिये भेजना”
संजय कहते हैं ;- राजन! जब द्रोणाचार्य पाण्डवों के व्यूहों को इस प्रकार जहाँ-तहाँ रौंदने लगे, तब पार्थ, पाञ्चाल तथा सोमक योद्धा उनसे बहुत दूर हट गये। भरतनन्दन! वह रोमान्चकारी भयंकर संग्राम प्रलय काल मे होने वाले जगत के भीषण संहार सा उपस्थित हुआ था। जब द्रोणाचार्य युद्ध में पराक्रम प्रकट करके बारंबार गर्जना कर रहे थे, पाञ्चाल वीरों का विनाश हो रहा था और पाण्डव सैनिक मारे जा रहे थे, उस समय धर्मराज युधिष्ठिर को कोई भी अपना आश्रय या रक्षक नहीं दिखायी दिया। राजेन्द्र! वे सोचने लगे कि यह कैसे होगा ? तदनन्तर युधिष्ठिर ने सव्यसाची अर्जुन को देखने की इच्छा से सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टि दौड़ायी; परन्तु उन्हें कहीं भी अर्जुन और सात्यकि नहीं दिखायी दिये।
वानर श्रेष्ठ हनुमान के चिह्न से युक्त ध्वज वाले पुरुषसिंह अर्जुन को न देखकर और उनके गाण्डीव का गम्भीर घोष न सुनकर उनकी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं। वृष्णि वंश के प्रमुख महारथी सात्यकि को भी न देखने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर का एक-एक अंग चिन्ता की आग से संतप्त हो उठा। महामनस्वी युधिष्ठिर लोक निन्दा के डर से बहुत डरते थे। अतः नरश्रेष्ठ अर्जुन और सात्यकि को न देखने से उस समय उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। महाबाहु युधिष्ठिर सात्यकि के रथ के विषय में मन ही मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे -‘अहो! मैंने ही रणक्षेत्र में मित्रों को अभय देने वाले सत्यवादी शिनि पौत्र सात्यकि को अर्जुन के मार्ग पर जाने के लिये भेजा था। इसलिये यह मेरा हृदय जो पहले एक ही की चिन्ता में निमग्न था, अब दो व्यक्तियों के लिये चिन्तित होकर दो भागों में बँट गया है। ‘इस समय सात्यकि का भी पता लगाना चाहिये और पाण्डुपुत्र अर्जुन का भी। मैंने पाण्डुपुत्र अर्जुन के पीछे तो सात्यकि को भेज दिया। अब सात्यकि के पीछे किसको युद्धभूमि में भेजूँगा? ‘यदि मैं युयुधान की खोज न कराकर प्रयत्न पूर्वक केवल अपने भाई अर्जुन का ही अन्वेषण करूँगा तो संसार मेरी निन्दा करेगा।
सब लोग यही कहेंगे कि धर्म पुत्र युधिष्ठिर अपने भाई की खोज करके वृष्णि वंशी और सत्यपराक्रमी सात्यकि की उपेक्षा कर रहे हैं। मुझे लोक निन्दा से बड़ा भय मालूम होता है। अतः कुन्तीनन्दन भीमसेन को मैं महामनस्वी सात्यकि का पता लगाने के लिये भेजूँगा। ‘शत्रुसूदन अर्जुन पर जैसा मेरा प्रेम है, वैसा ही रणदुर्मद वृष्णि वंशी वीर सात्यकि पर भी है। मैंने शिनि वंश का आनन्द बढ़ाने वाले सात्यकि को महान कार्यभार सौंप रखा था। ‘उन महाबली सात्यकि ने मित्र के अनुरोध से और अपने लिये गौरव की बात समझकर समुद्र में मगर की भाँति कौरवी सेना में प्रवेश किया था। ‘बुद्धिमान वृष्णिवंशी वीर सात्यकि के साथ परस्पर युद्ध करने वाले उन शूरवीरों का वह महान कोलाहल सुनायी पड़ता है, जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं। ‘इस समय जो कर्त्तव्य प्राप्त है, उस पर मैंने अनेक प्रकार से प्रबल विचार कर लिया है। जहाँ महारथी अर्जुन और सात्यकि गये हैं, वहीं धनुर्धर वीर पाण्डुपुत्र भीमसेन को भी जाना चाहिये- यही मुझे ठीक जँचता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
‘इस भूतल पर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो भीमसेन के लिये असह्य हो। ये अपने बाहुबल का आश्रय ले रणक्षेत्र में प्रयत्नशील होकर भूमण्डल के समस्त धनुर्धरों का अनायास ही सामना करने में समर्थ हैं। ‘इस महामनस्वी वीर के बाहुबल का आश्रय लेकर हम सब भाई वनवास से सकुशल लौटे हैं और युद्ध में कभी पराजित नहीं हुए हैं। ‘यहाँ से सात्यकि के पथ पर पाण्डुपुत्र भीमसेन के जाने पर युद्ध स्थल में डटे हुए सात्यकि और अर्जुन सनाथ हो जायँगे। ‘निश्चय ही सात्यकि और अर्जुन रणक्षेत्र में शोक के योग्य नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों स्वयं तो शस्त्रविद्या में कुशल हैं ही, भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा भी पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं। ‘तथापि मुझे अपने मानसिक दुःख को निवारण करने के लिसे ऐसी व्यवस्था अवश्य करवी चाहिये। इसलिये मैं भीमसेन को सात्यकि के मार्ग का अनुगामी बनाऊँगा। ‘ऐसा करके ही मैं समझूँगा कि मैंने सात्यकि के प्रति समुचित कर्तव्य का पालन किया है।’ मन ही मन ऐसा निश्चय करके धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपने सारथि से कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘मुझे भीम के पास ले चलो’।
धर्मराज की बात सुनकर अश्व संचालन में कुशल सारथि ने उनके सुवर्णभूषित रथ को भीमसेन के निकट पहुँचा दिया। भीमसेन के पास पहुँचकर राजा युधिष्ठिर समयोचित कर्त्तव्य का चिन्तन करने लगे और वहाँ बहुत कुछ कहते हुए वे मूर्च्छित से हो गये। राजन! इस प्रकार मोहाविष्ट हुए कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा ,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भीेमसेन! जिन्होंने एकमात्र रथ की सहायता से देवताओं सहित गन्धर्वों और दैत्यों पर भी विजय पायी थी, उन्हीं तुम्हारे छोटे भाई अर्जुन का आज मुझे कोई चिह्न नहीं दिखायी देता है’। तब वैसी अवस्था में पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिर से भीमसेन ने कहा,
भीमसेन ने कहा ;- राजन! आपकी ऐसी घबराहट तो पहले मैंने न कभी देखी और न सुनी थी। ‘पहले जब कभी हम लोग अत्यन्त दुःख से अधीर हो उठते थे, तब आप ही हमें सहारा दिया करते थे। राजेन्द्र! उठिये, उठिये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ‘मानद! इस संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो मेरे लिये असाध्य हो अथवा जिसे मैं आपकी आज्ञा मिलने पर न करूँ। कुरुश्रेष्ठ! आज्ञा दीजिये। अपने मन को शोक में न डालिये’।
तब राजा युधिष्ठिर म्लान मुख हो काले सर्प के समान लंबी साँसे खींचते हुए नेत्रों में आँसू भरकर भीेमसेन से इस प्रकार बोले,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘भैया! इस समय पान्चजन्य शंख की जैसी ध्वनि सुनायी देती है और यशस्वी वासुदेव ने क्रोध में भरकर उस शंख को जिस तरह बजाया है, उससे जान पड़ता है, आज तुम्हारा भाई अर्जुन निश्चय ही मारा जाकर रणभूमि में सो रहा है। ‘उसके मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ही युद्ध कर रहे हैं। जिस शक्तिशाली वीर के पराक्रम का भरोसा करके हम समस्त पाण्डव जी रहे हैं, भय के अवसरों पर हम उसी प्रकार जिसका आश्रय लेते हैं, जैसे देवता देवराज इन्द्र का, वही शूरवीर अर्जुन सिंधुराज जयद्रथ अपने वश में करने के लिये कौरव सेना में घुसा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद)
‘भीमसेन! हमें उसके जाने का ही पता है, पुनः लौटने का नहीं। अर्जुन की अंग कान्ति श्याम है। वह नवयुवक, निद्रा पर विजय पाने वाला, देखने में सुन्दर और महारथी है। ‘उसकी छाती चौड़ी और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। उसका पराक्रम मतवाले हाथी के समान है, आँखें चकोर के नेत्रों के समान विशाल हैं और उसके मुख एवं ओष्ठ लाल-लाल हैं। वह शत्रुओं का भय बढ़ाता है। ‘अर्जुन मेंरे प्रिय और हित के लिए इन्द्र लोक से यहाँ आया है। वह वृद्धजनों का सेवक, धैर्यवान, कृतज्ञ तथा सत्यप्रतिज्ञ है। वह धनंजय शत्रुओं की विशाल एवं अपार सेना में घुसा है। शत्रुनाशन अर्जुन के उस भयंकर सेना में प्रवेश करने पर मैंने सात्वत वीर सात्यकि को उसके चरणों का अनुगामी बनाकर भेजा है। भीमसेन! सात्यकि के भी मुझे जाने का ही पता है, लौटने का नहीं। ‘शत्रुदमन महाबाहु भीम! तुम्हारा कल्याण हो। यही मेरे शोक का कारण है। अर्जुन और सात्यकि के लिये ही मैं दुखी हो रहा हूँ। जैसे बारंबार घी डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार मेरी शोकाग्नि बढ़ती जाती है। मैं अर्जुन का कोई चिह्न नहीं देखता, इसी से मुझ पर मोह छा रहा है। ‘उन सात्वतवंशी पुरुषसिंह महारथी सात्यकि का भी पता लगाओ। वे तुम्हारे छोटे भाई महारथी अर्जुन के पीछे गये हैं।
‘उन महाबाहु सात्यकि को न देखने के कारण भी मैं भारी घबराहट में पड़ गया हूँ। पार्थ के मारे जाने पर अवश्य ही सात्यकि भी आगे होकर युद्ध कर रहे हैं। ‘उनका कोई दूसरा सहायक नहीं है। इससे मुझे बड़ी घबराहट हो रही है। निश्चय ही उनके मारे जाने पर युद्ध कला कोविद भगवान श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं। ‘परंतप! अर्जुन और सात्यकि के जीवन के विषय में जो मेरे मन में संताप उत्पन्न हो गया है, वह दूर नहीं हो रहा है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम वहीं जाओ, जहाँ अर्जुन और महापराक्रमी सात्यकि गये हैं। धर्मज्ञ! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। यदि तुम मेरी आज्ञा का पालन करना उचित मानते हो तो ऐसा ही करो। तुम्हें अर्जुन की उतनी खोज नहीं करनी है, जितनी सात्यकि की। पार्थ! सात्यकि ने मेरा प्रिय करने की इच्छा से सव्यसाची अर्जुन के उस दुर्गम एवं भयंकर पथ का अनुसरण किया है, जो अजितात्मा पुरुषों के लिये अगम्य है। ‘पाण्डु नन्दन! जब तुम भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा सात्वत वंशी वीर सात्यकि को सकुशल देखना, तब उच्च स्वर से सिंहनाद करके मुझे इसकी सूचना दे देना’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में युधिष्ठिर की चिन्ता विषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश, द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ का चूर्ण कर देना तथा उनके द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध, अवशिष्ट पुत्रों सहित सेना का पलायन”
भीम ने कहा ;- महाराज! जो रथ पहले ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र अैर वरुण की सवारी में आ चुका है, उसी पर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध के लिये गये हैं। अतः उनके लिये तनिक भी भय नहीं है। तथापि आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके मैं जा रहा हूँ। आप शोक या चिन्ता न करें। मैं उन पुरुषसिंहों से मिलकर आपको सूचना दूँगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसा कहकर बलवान भीमसेन राजा युधिष्ठिर को धृष्टद्युम्न तथा अन्य सुहृदों की देख रेख में सौंपकर वहाँ से चल दिये। जाते समय महाबली भीमसेन ने धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! तुम्हें तो यह मालूम ही है कि महारथी द्रोण सारे उपाय करके किस प्रकार धर्मराज को पकड़ने पर तुले हुए हैं। ‘अतः द्रुपदनन्दन! मेरे लिये वहाँ जाने की वैसी आवश्यकता नहीं है? जैसी यहाँ रहकर राजा की रक्षा करने की है। यही हम लोगों के लिये सबसे महान कार्य है। ‘परंतु जब कुन्तीनन्दन महाराज ने इस प्रकार मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दी है, तब मैं उन्हें कोरा जवाब नहीं दे सकता-उनकी आज्ञा टाल नहीं सकता। अतः जहाँ मरणासन्न जयद्रथ खड़ा है, वहीं मैं जाऊँगा। मुझे बिना किसी संशय के धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन रहना चाहिये। ‘अतः अब मैं भाई अर्जुन तथा बुद्धिमान सात्यकि के पथ का अनुसरण करूँगा। अब तुम सावधान हो प्रयत्न पूर्वक रणभूमि में कुन्ती कुमार राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। इस युद्ध स्थल में यही हमारे लिये सब कार्यों से बढ़कर महान कार्य है’। महाराज! यह सुनकर धृष्टद्युम्न ने भीमसेन से कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘कुन्तीनन्दन! तुम कुछ भी सोच-विचार न करके जाओ। मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार सब कार्य करूँगा। ‘द्रोणाचार्य संग्राम में धृष्टद्युम्न का वध किये बिना किसी प्रकार धर्मराज को कैद नहीं कर सकेंगे’।
तब भीमसेन ने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर को धृष्टद्युम्न के हाथों में सौंपकर अपने बड़े भाई को प्रणाम करके जिस मार्ग से अर्जुन गये थे, उसी पर चल दिये। भारत! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने कुन्ती कंमार भीमसेन को गले लगाया, उनका सिर सूँघा और उन्हें शुभ आशीर्वाद सुनाये। तदनन्तर पूजित एवं संतुष्टचित्त हुए ब्राह्मणों की परिक्रमा करके आठ प्रकार की मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करने के पश्चात भीमसेन ने केरातक मधु का पान किया। फिर तो वीर भीमसेन का बल और उत्साह दुगुना हो गया, उनके नेत्र मद से लाल हो गये थे। उस समय ब्राह्मणों ने स्वस्तिवचन किया, जिससे विजय लाभ सूचित होता था। उन्हें अपनी बुद्धि विजयानन्द का अनुभव करती सी दिखायी दी। अनुकूल हवा चलकर उन्हें शीघ्र ही अवश्यम्भावी विजय की सूचना देने लगी। रथियों में श्रेष्ठ महाबाहु भीमसेन कवच, सुन्दर कुण्डल, बाजूबन्द और जलत्राण ( दस्ताने ) धारण करके रथ पर आरूढ़ हो गये। उनका काले लोहे का बना हुआ सुवर्णजटित बहुमूल्य कवच उनके सारे अंगों में सटकर बिजली सहित मेघ के समान सुशोभित हो रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)
लाल, पीले, काले और सफेद वस्त्रों से अपने शरीर को सुसज्जित करके कण्ठत्राण पहनकर वे इन्द्रधनुष युक्त मेघ के समान शोभा पा रहे थे। प्रजानाथ! जब भीमसेन युद्ध की इच्छा से आपकी सेना की ओर प्रस्थित हुए, उस समय पुनः पान्चजन्य शंख की भयंकर ध्वनि प्रकट हुई। त्रिलोकी को डरा देने वाले उस घोर एवं महान सिंहनाद को सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने जाते हुए महाबाहु भीमसेन से पुनः इस प्रकार कहा -‘भीम! देखो, यह वृष्णि वंश के प्रमुख वीर भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े जोर से शंख बजाया है। यह शंखराज इस समय पृथ्वी और आकाश दोनों को अपनी ध्वनि से परिपूर्ण किये देता है। निश्चय ही सव्यसाची अर्जुन के भारी संकट में पड़ जाने पर चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण समस्त कौरवों के साथ युद्ध कर रहे हैं। ‘आज अवश्य ही माता कुन्ती किसी दुःखद अपशकुन की चर्चा करती होंगी। बन्धुओं सहित द्रौपदी और सुभद्रा भी कोई असगुन देख रही होंगी। ‘अतः भीम! तुत तुरंत ही जहाँ अर्जुन हैं, वहाँ जाओ। आज अर्जुन को देखने के लिये मेरी सारी दिशाएँ मोहाच्छन्न सी हो रही हैं। सात्यकि को न देख पाने के कारण भी मेरे लिये सारी दिशाओं में अँधेरा छा गया है’।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार ‘जाओ, जाओ’ कहकर बड़े भाई के आज्ञा देने पर उदर में वृक समान अग्नि को धारण करने वाले प्रतापी पाण्डुपुत्र भीमसेन गोह के चमड़े से बने हुए दस्ताने पहनकर हाथ में धनुष ले वहाँ से जाने के लिये तैयार हुए। वे भाई का प्रिय करने वाले भाई थे और बड़े भाई के भेजने से ही वहाँ से जाने को उद्यत हुए थे। भीमसेन ने बारंबार डंका पीटा और अनेक बार शंख बजाकर बारंबार धनुष की प्रत्यन्ची खींचते हुए सिंह के समान दहाड़ने के समान भयंकर गर्जना की। उस तुमुल शब्द के द्वारा बड़े - बड़े वीरों के दिल दहलाकर अपना भयंकर रूप दिखाते हुए उन्होंने सहसा शत्रुओं पर धावा बोल दिया। उस समय विशोक नामक सारथि के द्वारा संचालित होने वाले, मन और वायु के समान वेगशाली तीव्रगामी और सुशिक्षित सुन्दर घोड़े हर्ष सूचक शब्द करते हुए उनका भार वहन करते थे। कुन्तीकुमार भीम अपने हाथ से धनुष की डोरी खींचकर चढ़ाते, उसे भलीभाँति कान तक खींचते, बाणों की वर्षा करते तथा शत्रुओं को घायल करके उनके अंग भंग करते हुए सेना के अग्र भाग को मथ डालते थे। इस प्रकार यात्रा करते हुए महाबाहु भीमसेन के पीछे पाञ्चाल और सोमक वीर भी चले, मानो देवगण देवराज इन्द्र का अनुसरण कर रहे हों।
महाराज! उस समय आप के पुत्रों ने भीमसेन का सामना करके उन्हें रोका! दुःशल, चित्रसेन, कुण्डभेदी, विविंशति, दुर्मुख, दुःसह, विकर्ण, शल, विन्द, अनुविन्द, सुमुख, दीर्घबाहु, सुदर्शन, वृन्दारक, सुहस्त, सुषेण, दीर्घलोचन, अभय, रौद्रकर्मा, सुवर्मा और दुर्विमोचन - इन शोभाशाली रथिश्रेष्ठ वीरों ने अपने सैनिकों और सेवकों के साथ सावधान एवं प्रयत्नशील होकर समरांगण में भीमसेन पर धावा किया। उन शूरवीरों के द्वारा समर भूमि में महारथी भीम सब ओर से घिर गये थे। उन सबको सामने देखकर महापराक्रम शाली कुन्ती कुमार भीमसेन उसी प्रकार वेग से आगे बढ़े, जैसे सिंह क्षुद्र मृगों की ओर बढ़ता है। परंतु जैसे बादल उगे हुए सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार वे वीरगण अपने बाणों द्वारा भीमसेन को आच्छादित करते हुए वहाँ बड़े बड़े दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद)
किंतु भीमसेन अपने वेग से उन सबको लाँघकर बाणों की वर्षा करके उनके द्वारा थोड़े ही समय में उस गजसेना को मार भगाया। जैसे शरभ की गर्जना से भयभीत हो वन के सारे मृग भाग जाते हैं, उसी प्रकार भीमसेन से डरे हुए समस्त गजराज भैरव स्वर से आर्तनाद करते हुए भाग निकले। फिर उन्होंने बड़े वेग से द्रोणाचार्य की सेना पर चढ़ाई की। उस समय उत्ताल तरंगों के साथ उठे हुए महासागर को जैसे तट की भूमि रोक देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने भीमसेन को रोका। द्रोण ने मुसकराते हुए-से नाराच चलाकर भीमसेन के ललाट में चोट पहुँचायी। उस नाराच से पाण्डुपुत्र भीमसेन ऊपर उठी किरणों वाले सूर्य के समान सुशोभित होने लगे।
द्रोणाचार्य यह समझकर कि यह भीम भी अर्जुन के समान मेरी पूजा करेगा, उनसे इस प्रकार बोले,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘महाबली भीमसेन! तुम समरभूमि में आज मुझ शत्रु को पराजित किये बिना इस शत्रुसेना में प्रवेश नहीं कर सकोगे। ‘तुम्हारे छोटे भाई अर्जुन मेरी अनुमति से इस सेना के भीतर घुस गये हैं। यदि इच्छा हो तो उसी तरह तुम भी जा सकते हो; अन्यथा मेरे इस सैन्यव्यूह में प्रवेश नहीं करने पाओगे’। गुरु का यह वचन सुनकर भीमसेन के नेत्र क्रोध से लाल हो गये, वे बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य से निर्भय होकर बोले।,
भीमसेन बोले ;- ‘ब्रह्मबन्धो! अर्जुन तुम्हारी अनुमति से इस समरांगण में नहीं प्रविष्ट हुए हैं। वे तो दुर्जय हैं। देवराज इन्द्र की सेना में भी घुस सकते हैं। ‘उन्होंने तुम्हारी बड़ी पूजा करके निश्चय ही तुम्हें सम्मान दिया है, परन्तु द्रोण! मैं दयालु अर्जुन नहीं हूँ। मैं तो तुम्हारा शत्रु भीमसेन हूँ। ‘तुम हमारे पिता, गुरु और बन्धु हो और हम तुम्हारे पुत्र के तुल्य हैं। हम सब लोग यही मानते हैं और सदा तुम्हारे सामने प्रणतभाव से खड़े होते हैं। ‘परंतु आज तुम्हारे मुँह से जो बात निकल रही है, उससे हम लोगों पर तुम्हारा विपरीत भाव लक्षित होता है। यदि तुम अपने आपको शत्रु मानते हो तो ऐसा ही सही। यह मैं भीमसेन तुम्हारे शत्रु के अनुरूप कर्म कर रहा हूँ।
राजन! ऐसा कहकर भीमसेन ने गदा उठा ली, मानो यमराज ने कालदण्ड हाथ में लिया हो। उन्होंने उस गदा को घुमाकर द्रोणाचार्य पर दे मारा, किंतु द्रोणाचार्य शीघ्र ही रथ से कूद पड़े। जैसे हवा अपने वेग से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है, उसी प्रकार उस गदा ने उस समय घोड़े, सारथि और ध्वज सहित द्रोणाचार्य के रथ को चूर-चूर कर दिया और बहुत से योद्धाओं को भी धूल में मिला दिया।
उसी समय उस श्रेष्ठ महारथी वीर को आपके पुत्रों ने पुनः आकर चारों ओर से घेर लिया। योद्धाओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य दूसरे रथ पर बैठकर व्यूह के द्वार पर पहुँचे और युद्ध के लिये उद्यत हो गये। महाराज! तब क्रोध में भरे हुए पराक्रमी भीमसेन ने सामने खड़ी हुई रथ सेना पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। युद्ध स्थल में भयंकर बलशाली विजयाभिलाषी आपके महारथी पुत्र बाणों की मार खाकर भी समरांगण में भीमसेन के साथ युद्ध करते रहे। उस समय कुपित हुए दुःशासन ने पाण्डु नन्दन भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनके ऊपर एक तीखी रथ शक्ति चलायी, जो सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 59-74 का हिन्दी अनुवाद)
आपके पुत्र की चलायी हुई उस महाशक्ति को अपने ऊपर आती देख भीमसेन ने उसके दो टुकड़े कर दिये। वह एक अद्भुत सी बात हुई। फिर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए बलवान भीम ने दूसरे तीन तीखे बाणों द्वारा कुण्डभेदी, सुषेण तथा दीर्घलोचन (दीर्घलोमा) - इन तीनों को मार डाला (जो आपके पुत्र थे )। तत्पश्चात आपके अन्य वीर पुत्रों के युद्ध करते रहने पर भी उन्होंने पुनः कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले वीर वृन्दारक का वध कर दिया। इसके बाद भीमसेन ने पुनः तीन बाण मारकर अभय, रौद्रकर्मा तथा दुर्विमोचन (दुर्विरोचन) - आपके इन तीन पुत्रों को भी मार गिराया।
महाराज! अत्यन्त बलवान भीमसेन के बाणों से घायल होते हुए आपके पुत्रों ने योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन को फिर चारों ओर से घेर लिया। जैसे वर्षा ऋतु में मेघ पर्वत पर जलधाराओं की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार वे आपके पुत्र युद्धस्थल में भयंकर कर्म करने वाले पाण्डुपुत्र भीमसेन पर बाणों की वर्षा करने लगे। जैसे पत्थरों की वर्षा ग्रहण करते हुए पर्वत को कोई पीड़ा नहीं होती, उसी प्रकार शत्रुसूदन पाण्डुपुत्र भीमसेन उस बाण वर्षा को सहन करते हुए भी व्यथित नहीं हुए। कुन्तीनन्दन भीम ने हँसते हुए ही अपने बाणों द्वारा एक साथ आये हुए दोनों भाई विन्द और अनुविन्द को तथा आपके पुत्र सुवर्मा को भी यमलोक पहुँचा दिया। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उन्होंने समरभूमि में आपके वीर पुत्र सुदर्शन (उर्णनाभ) को घायल कर दिया। इससे वह तुरंत ही गिरा और मर गया।
इस प्रकार पाण्डु नन्दन भीमसेन ने सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिपात करके अपने बाणों द्वारा थोड़े ही समय में उस रथ सेना को नष्ट कर दिया। प्रजानाथ! तदनन्तर भीमसेन के रथ की घरघराहट और गर्जना से समरांगण में मृगों के समान भयभीत हुए आपके पुत्रों का उत्साह भंग हो गया। वे सब के सब भीमसेन के भय से पीड़ित हो सहसा भाग खड़े हुए। कुन्ती कुमार भीमसेन ने आपके पुत्रों की विशाल सेना का दूर तक पीछा किया। राजन्! उन्होंने रणक्षेत्र में सब ओर कौरवों को घायल किया। महाराज! भीमसेन के द्वारा मारे जाते हुए आपके सभी पुत्र उन्हें छोड़कर अपने उत्तम घोड़ों को हाँकते हुए रणभूमि से दूर चले गये। उन सबको संग्राम में पराजित करके महाबली पाण्डुपुत्र भीमसेन ने अपनी भुजाओं पर ताल ठोकी और सिंह के समान गर्जना की। बड़े जोर से ताली बजाकर महाबली भीम ने रथ सेना को डरा दिया और श्रेष्ठ योद्धाओं को चुन चुन कर मारा। फिर समस्त रथियों को लाँघकर द्रोणाचार्य की सेना पर धावा बोल दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का प्रवेश और भयंकर पराक्रम विषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का द्रोणाचार्य और अन्य कौरव योद्धाओं को पराजित करते हुए द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंक देना तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के समीप पहुँचकर गर्जना करना तथा युधिष्ठिर का प्रसन्न होकर अनेक प्रकार की बातें सोचना”
संजय कहते हैं ;- महाराज! रथ सेना को पार करके आये हुए पाण्डुनन्दन भीमसेन को युद्ध में रोकने की इच्छा से आचार्य द्रोण ने हँसते हँसते उन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए उन बाणों को पीते हुए से भीमसेन अपने बल की माया से समस्त कौरव बन्धुओं को मोहित करते हुए उन पर टूट पड़े। उस समय आपके पुत्रों द्वारा प्रेरित हुए बहुत से महाधनुर्धर नरेशों ने महान वेग का आश्रय ले युद्ध स्थल में भीमसेन को सब ओर से घेर लिया। भरतनन्दन! उनसे घिरे हुए भीम ने हँसते हुए से अपनी अत्यन्त भयंकर गदा ऊपर उठायी और सिंहनाद करते हुए उन्होंने शत्रुपक्ष का विनाश करने वाली उस गदा को बड़े वेग से उन राजाओं पर दे मारा। महाराज! सुस्थिर चित्त वाले इन्द्र जिस प्रकार अपने वज्र का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन द्वारा चलायी हुई उस गदा ने युद्ध स्थल में आपके सैनिकों का कचूमर निकाल दिया। राजन! तेज से प्रज्वलित होने वाली उस भयंकर गदा ने अपने महान घोष से इस पृथ्वी को परिपूर्ण करके आपके पुत्रों को भयभीत कर दिया।
उस महावेगशालिनी तेजस्विनी गदा को गिरती देख आपके समस्त सैनिक घोर स्वर में आर्तनाद करते हुए वहाँ से भाग गये। माननीय नरेश! उस गदा के असह्य शब्द को सुनकर उस समय कितने ही रथी मानव अपने रथों से नीचे गिर पड़े। रणभूमि में गदाधारी भीम के द्वारा मारे जाने वाले आपके सैनिक व्याघ्रों के सूँघे हुए मृगों के समान भयभीत होकर भाग निकले। कुन्ती कुमार भीमसेन युद्ध स्थल में उन दुर्जय शत्रुओं को भगाकर पक्षिराज गरुड़ के समान वेग से उस सेना को लाँघ गये। महाराज! रथ यूथपतियों के भी यूथपति भीमसेन को इस प्रकार सेना का संहार करते देख द्रोणाचार्य उनका सामना करने के लिये आगे बढ़े। उस समरांगण में अपने बाणरूपी तरंगों से भीमसेन को रोककर आचार्य द्रोण ने पाण्डवों के मन में भय उत्पन्न करते हुए सहसा सिंहनाद किया।
महाराज! द्रोणाचार्य तथा महामनस्वी भीमसेन का वह महान युद्ध देवासुर संग्राम के समान भयंकर था। राजन्! जब इस प्रकार द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए पैने बाणों द्वारा समरांगण में सैंकड़ों और हजारों वीर मारे जाने लगे, तब बलवान पाण्डु नन्दन भीम वेगपूर्वक रथ से कूद पड़े तथा दोनों नेत्र मूँदकर सिर को कधे पर सिकोड़कर दोनों हाथों को छाती पर सुस्थिर करके मन, वायु तथा गरुड़ के समान वेग का आश्रय ले पैदल ही द्रोणाचार्य की ओर दौड़े। जैसे साँड़ लीलापूर्वक वर्षा का वेग अपने शरीर पर ग्रहण करता है, उसी प्रकार पुरुषसिंह भीमसेन ने आचार्य की उस बाण वर्षा को अपने शरीर पर ग्रहण किया। आर्य! समरांगण में बाणों से आहत होते हुए महाबली भीम ने द्रोणाचार्य के रथ के ईषादण्ड को हाथ से पकड़कर समूचे रथ को दूर फेंक दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उस युद्ध स्थल में भीमसेन द्वारा फेंके गये आचार्य द्रोण तुरंत ही दूसरे रथ पर आरूढ़ हो पुनः व्यूह के द्वार पर जा पहुँचे। उस समय गुरु द्रोण का उत्साह भंग हो गया था। उन्हें उस अवस्था में आते देख भीम ने पुनः वेग पूर्वक आगे बढ़कर उनके रथ की धुरी पकड़ ली और अत्यन्त रोष में भरकर उस अतिरथी वीर द्रोण को भी पुनः रथ के साथ ही फेंक दिया। इस प्रकार भीमसेन ने खेल सा करते हुए आठ रथ फेंके। परंतु द्रोणाचार्य पुनः पलक मारते-मारते अपने रथ पर बैठे दिखायी देते थे। उस समय आपके योद्धा विस्मय से आँखें फाड़ -फाड़कर यह दृश्य देख रहे थे। कुरुनन्दन! इसी समय भीमसेन का सारथि तुरंत ही घोड़ों को हाँककर वहाँ ले आया। वह एक अद्भुत सी बात थी। तत्पश्चात महाबली भीमसेन पुनः अपने रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्र की सेना पर वेग पूर्वक टूट पड़े। जैसे उठी हुई आँधी वृक्षों को उखाड़ फेंकती है और सिंधु का वेग पर्वतों को विदीर्ण कर देता है, उसी प्रकार युद्ध स्थल में क्षत्रियों को रौंदते और कौरव सेना को विदीर्ण करते हुए भीमसेन आगे बढ़ गये।
फिर अत्यन्त बलशाली वीर भीमसेन कृतवर्मा द्वारा सुरक्षित भोजवंशियों की सेना के पास जा पहुँचे और उसे वेग पूर्वक मथकर आगे चले गये। जैसे सिंह गाय बैलों को जीत लेता है, उसी प्रकार पाण्डु नन्दन भीम ने ताली बजाकर शत्रु सेनाओं को संत्रस्त करते हुए समस्त सैनिकों पर विजय पा ली। उस समय कुन्ती कुमार भीमसेन भोजवंशियों की सेना को लाँघकर दरदों की विशाल वाहिनी को परास्त करके महारथी सात्यकि को शत्रुओं के साथ युद्ध करते देख सावधान हो रथ के द्वारा वेग पूर्वक आगे बढ़े। महाराज! अर्जुन को देखने की इच्छा लिये पाण्डु नन्दन भीमसेन समरांगण में आपके योद्धाओं को लाँघते हुए वहाँ पहुँचे थे पराक्रमी भीम ने वहाँ सिंधुराज जयद्रथ के वध के लिये पराक्रम करते हुए युद्ध में तत्पर महारथी अर्जुन को देखा। महाराज! उन्हें देखते ही पुरुषसिंह भीम ने वर्षा काल में गरजते हुए मेघ के समान बड़े जोर से सिंहनाद किया। कुरुनन्दन! गरजते हुए भीमसेन के उस भयंकर सिंहनाद को युद्ध स्थल में कुन्ती कुमार अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण ने सुना।
उस महारथी वीर के सिंहनाद को एक ही साथ सुनकर उन दोनों वीरों ने भीमसेन को देखने की इच्छा प्रकट करते हुए बारंबार गर्जना की। महाराज! गरजते हुए दो साँड़ों के समान अर्जुन और श्रीकृष्ण महान सिंहनाद करते हुए आगे बढ़ने लगे। नरेश्वर! भीमसेन तथा धनुर्धर अर्जुन की गर्जना सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों का सिंहनाद सुनकर राजा का शोक दूर हो गया। वे शक्तिशाली नरेश समरभूमि में अर्जुन की विजय के लिये शुभ कामना करने लगे। मदोन्मत्त भीमसेन के बारंबार गर्जना करने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्मपुत्र महाबाहु युधिष्ठिर मुसकराकर मन ही मन कुछ सोचते हुए अपने हृदय की बात इस प्रकार कहने लगे -‘भीम! तुमने सूचना दे दी और गुरुजन की आज्ञा का पालन कर दिया। पाण्डु नन्दन! जिनके शत्रु तुम हो, उन्हें युद्ध में विजय नहीं प्राप्त हो सकती। सौभाग्य की बात है कि संग्राम भूमि में सव्यसाची अर्जुन जीवित है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 41-56 का हिन्दी अनुवाद)
यह भी आनन्द की बात है कि सत्यपराक्रमी वीर सात्यकि सकुशल हैं। मैं सौभाग्यवश इस समय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन की गर्जना सुन रहा हूँ। ‘जिसने रणक्षेत्र में इन्द्र को जीतकर अग्निदेव को तृप्त किया था, वह शत्रुहन्ता अर्जुन मेरे सौभाग्य से युद्ध स्थल में जीवित है। ‘जिसके बाहुबल का भरोसा करके हम सब लोग जीवन धारण करते हैं, शत्रु सेनाओं का संहार करने वाला वह अर्जुन हमारे सौभाग्य से जीवित है। ‘जिसने देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जय निवात कवच नामक दानवों को एकमात्र धनुष की सहायता से जीत लिया था, वह कुन्ती कुमार अर्जुन हमारे भाग्य से जीवित है। ‘विराट की गौओं का अपहरण करने के लिये एक साथ आये हुए समस्त कौरवों को जिसने मत्स्य देश की राजधानी के समीप पराजित किया था, वह पार्थ जीवित है, यह सौभाग्य की बात है। ‘जिसने महासमर में अपने बाहुबल से चौदह हजार कालकेय नामक दैत्यों का वध किया था, वह अर्जुन हमारे भाग्य से जीवित है। ‘जिसने अपने अस्त्र बल से दुर्योधन के लिये बलवान गन्धर्वराज चित्रसेन को परास्त किया था, वह पार्थ सौभाग्यवश जीवित है। ‘जिसके मस्तक पर किरीट शोभा पाता है, जिसके रथ में श्वेत घोड़े जोते जाते हैं, भगवान कृष्ण जिसके सारथि हैं तथा जो सदा ही मुण प्रिय है, वह बलवान अर्जुन अभी जीवित है, यह सौभाग्य की बात है।
‘जिसने पुत्र शोक से संतप्त हो दुष्कर कर्म करने की इच्छा रखकर जयद्रथ के वध की अभिलाषा से भारी प्रतिज्ञा कर ली है, वह अर्जुन क्या आज युद्ध में आज सिंधुराज को मार डालेगा ? क्या सूर्यास्त होने से पहले ही प्रतिज्ञा पूर्ण करके लौटे हुए, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित अर्जुन से मैं मिल सकूँगा? ‘क्या दुर्योधन के हित में तत्पर रहने वाला राजा जयद्रथ अर्जुन के हाथ से मारा जाकर शत्रुपक्ष को आनन्दित करेगा? ‘क्या युद्ध में सिंधुराज को अर्जुन के हाथ से मारा गया देखकर राजा दुर्योधन हमारे साथ संधि कर लेगा। ‘क्या मूर्ख दुर्योधन संग्राम भूमि में भीमसेन के हाथ से अपने भाइयों का वध होता देखकर हमारे साथ संधि कर लेगा? ‘अन्यान्य बड़े-बड़े योद्धाओं को भी धराशायी किये गये देखकर क्या मन्द बुद्धि दुर्योधन को पश्चाताप होगा? ‘क्या एकमात्र भीष्म की मृत्यु से हम लोगों का वैर शान्त हो जायगा? क्या शेष वीरों की रक्षा के लिये दुर्योधन हमारे साथ संधि कर लेगा? इस प्रकार राजा युधिष्ठिर जब दया से द्रवित होकर भाँति-भाँति की बातें सोच रहे थे, उस समय दूसरी ओर घोर युद्ध हो रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का कौरव - सेना में प्रवेश युधिष्ठिर का हर्ष विषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ उनत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! इस प्रकार मेघ की गर्जना के समान गम्भीर स्वर से सिंहनाद करते हुए महाबली भीमसेन को किन वीरों ने रोका ? मैं तो तीनों लोकों में किसी को ऐसा नहीं देखता, जो क्रोध में भरे हुए भीमसेन के सामने युद्ध स्थल में खड़ा हो सके। संजय! मुझे एसा कोई वीर पुरुष नहीं दिखायी देता, जो काल के समान गदा उठाकर युद्ध की इच्छा रखने वाले भीमसेन के सामने समरभूमि में ठहर सके। जो रथ से रथ को और हाथी से हाथाी को मार सकता है, उस वीर पुरुष के सामने साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो, कौन युद्ध के लिये खड़ा होगा? क्रोध में भरकर मेरे पुत्रों का वध करने की इच्छा वाले भीमसेन के आगे दुर्योधन के हित में तत्पर रहने वाले कौन-कौन योद्धा खड़े हो सके ? भीमसेन दावानल के समान हैं और मेरे पुत्र तिनकों के समान। उन्हें जला डालने की इच्छा वाले भीमसेन के सामने युद्ध के मुहाने पर कौन-कौन वीर खड़े हुए? जैसे काल समस्त प्रजा को अपना ग्रास बना लेता है, उसी प्रकार युद्ध स्थल में भीमसेन के द्वारा मेरे पुत्रों को काल के गाल में जाते देख किन वीरों ने आगे बढ़कर भीमसेन को रोका? मुझे भीमसेन से जैसा भय लगता है, वैसा न तो अर्जुन से और न श्रीकृष्ण से, न सात्यकि से और न धृष्टद्युम्न से ही लगता है। संजय! मेरे पुत्रों को दग्ध करने की इच्छा से प्रज्वलित हुए भीमरूपी अग्निदेव के सामने कौन-कौन शूरवीर डटे रह सके, यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! इस प्रकार गरजते हुए महाबली भीमसेन पर बलवान कर्ण ने भयंकर सिंहनाद के साथ आक्रमण किया। अत्यन्त अमर्षशील कर्ण ने रण भूमि में अपना बल दिखाने के लिये अपने विशाल धनुष को खींचते और युद्ध की अभिलाषा रखते हुए, जैसे वृक्ष वायु का मार्ग रोकता है, उसी प्रकार भीमसेन का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। वीर भीमसेन भी अपने सामने कर्ण को खड़ा देख अत्यन्त कुपित हो उठे और तुरंत ही उसके ऊपर सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए बाण बलपूर्वक छोड़ने लगे। कर्ण ने भी उन बाणों को ग्रहण किया और उनके विपरीत बहुत से बाण चलाये। उस समय कर्ण और भीमसेन के संघर्ष में विजय के लिये प्रयत्नशील होकर देखने वाले सम्पूर्ण योद्धाओं के शरीर काँपने-से लगे। उन दोनों के ताल ठोंकने के आवाज सुनकर तथा समरांगण में भीमसेन की घोर गर्जना सुनकर रथियों और घुड़सवारों के भी शरीर थर-थर काँपने लगे। वहाँ आये हुए क्षत्रिय शिरोमणि योद्धा महामना पाण्डु नन्दन भीमसेन के बारंबार होने वाले घोर सिंहनाद से आकाश और पृथ्वी को व्याप्त मानने लगे। उस समरांगण में प्रायः सम्पूर्ण योद्धाओं के धनुष तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र हाथों से छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। कितनों के तो प्राण ही निकल गये। सारी सेना के समस्त वाहन संत्रस्त होकर मल-मूत्र त्यागने लगे। उनका मन उदाय हो गया। बहुत से भयंकर अपशकुन प्रकट होने लगे। राजन! कर्ण और भीम के उस भयंकर युद्ध में आकाश गीधों, कौवों और कंकों से छा गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर कर्ण ने बीस बाणों से भीमसेन को गहरी चोट पहुँचायी। फिर तुरंत ही उनके सारथि को पाँच बाणों से बींध डाला। तब शीघ्रता करने वाले महायशस्वी भीमसेन ने भी हँसकर चौंसठ बाणों द्वारा रणभूमि में कर्ण पर आक्रमण किया। राजन! फिर महाधनुर्धर कर्ण ने चार बाण चलाये। परंतु भीमसेन ने अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए झुकी हुई गाँठ वाले अनेक बाणों द्वारा अपने पास आने के पहले ही कर्ण के बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब कर्ण ने अनेकों बार बाण समूहों की वर्षा करके भीमसेन को आच्छादित कर दिया। कर्ण के द्वारा बारंबार आच्छादित होते हुए पाण्डु नन्दन महारथी भीम ने कर्ण के धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और झुकी हुई गाँठ वाले बहुत से बाणों द्वारा उसे घायल कर दिया। तत्पश्चात भयंकर कर्म करने वाले महारथी सूतपुत्र कर्ण ने दूसरा धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ायी और समरभूमि में भीमसेन को घायल कर दिया। तब भीमसेन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेग पूर्वक सूत पुत्र की छाती मे झुकी हुई गाँठ वाले तीन बाण धँसा दिये। भरतश्रेष्ठ! ठीक छाती के बीच में गड़े हुए उन बाणों द्वारा कर्ण तीन शखरों वाले ऊँचे पर्वत के समान सुशोभित हुआ। उन उत्तम बाणों से बिंधे हुए कर्ण की छाती से बहुत रक्त गिरने लगा, मानो धातु की धाराएँ बहाने वाले पर्वत से गैरिक धातु (गेरु) प्रवाहित हो रहा हो। उस गहरे प्रहार से पीड़ित हो कर्ण कुछ विचलित हो उठा। फिर धनुष को कान तक खींचकर उसने अनेक बाणों द्वारा भीमसेन को बींध डाला। तत्पश्चात उन पर पुनः सैंकड़ों और हजारों बाणों का प्रहार किया। सुदृढ़ धनुर्धर कर्ण के बाणों से पीड़ित हो भीमसेन ने एक क्षुर के द्वारा तुरंत ही उनके धनुष की प्रत्यन्चा काट दी। साथ ही उसके सारथि को एक भल्ल से मारकर रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं , महारथी भीम ने उसके चारों घोड़ों के भी प्राण ले लिये।
प्रजानाथ! उस समय कर्ण भय के मारे उस अश्वहीन रथ से कूदकर तुरंत की वृषसेन के रथ पर जा बैठा। इस प्रकार बलवान एवं प्रतापी भीमसेन ने रणभूमि में कर्ण को पराजित करके मेघ गर्जना के समान गम्भीर स्वर से सिंहनाद किया। भीमसेन का वह महान सिंहनाद सुनकर उनके द्वारा युद्ध में कर्ण को पराजित हुआ जान राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए। उस समय पाण्डव सेना सब ओर शंखनाद करने लगी। शत्रु सेना की शंख ध्वनि सुनकर आपके सैनिक भी जोर-जोर से गर्जना करने लगे। राजा युधिष्ठिर ने युद्ध स्थल में हर्ष के कारण अपनी सेना को शंख और बाणों की ध्वनि तथा हर्षनाद से व्याप्त कर दिया। इसी समय अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की और भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाया। परंतु उसकी ध्वनि को तिरोहित करके गरजते हुए भीमसेन का भयंकर सिंहनाद सम्पूर्ण सेनाओं में सुनायी देने लगा।
तदनन्तर वे दोनों वीर एक दूसरे पर पृथक-पृथक सीधे जाने वाले बाणों का प्रहार करने लगे। राधा नन्दन कर्ण मृदुता पूर्वक बाण चलाता था और पाण्डु नन्दन भीमसेन कठोरता पूर्वक। महाराज! कुन्ती पुत्र भीमसेन के द्वारा कर्ण को बहु संख्यक बाणों से पीड़ित हुआ देख, दुर्योधन ने दु:शल से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘दु:शल! देखो, कर्ण संकट में पड़ा है। तुम शीघ्र उसके लिये रथ प्रस्तुत करो’। राजा के ऐसा कहने पर दु:शल कर्ण के पास दौड़ा गया; फिर महारथी कर्ण दुःशल के रथ पर आरूढ़ हो गया। इसी समय भीमसेन ने सहसा जाकर दस बाणों से उन दोनों को घायल कर दिया। तत्पश्चात पुनः कर्ण पर आघात किया और दुःशल का सिर काट लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीमसेन का प्रवेश और कर्ण की पराजय विषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना, द्रोणाचार्य का उसे द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध के लिये वापस भेजना और उसके साथ युधामन्यु तथा उत्तमौजा का युद्ध”
संजय कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार जब वह सेना विचलित होकर भाग चली, अर्जुन सिंधुराज के वध के लिये आगे बढ़ गये और उनके पीछे सात्यकि तथा भीमसेन भी वहाँ जा पहुँचे, तब आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी उतावली के साथ एकमात्र रथ द्वारा बहुत से आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में सोचता विचारता हुआ द्रोणाचार्य के पास गया। आपके पुत्र का वह रथ मन और वायु के समान वेगशाली था। वह बड़ी तेजी के साथ तत्काल द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचा।
उस समय आपका पुत्र कुरुनन्दन दुर्योधन क्रोध से लाल आँखें करके घबराहट के स्वर में द्रोणाचार्य से इस प्रकार बोला,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘आचार्य! अर्जुन, भीमसेन और अपराजित वीर सात्यकि- ये तीनों महारथी मेरी सम्पूर्ण एवं विशाल सेनाओं को पराजित करके सिंधुराज जयद्रथ के समीप पहुँच गये हैं। उन्हें कोई रोक नहीं सका है। ‘वहाँ भी वे सब के सब अपराजित होकर मेरी सेना पर प्रहार कर रहे हैं। मान लिया, महारथी अर्जुन रणभूमि में (अधिक शक्तिशाली होने के कारण) आपको लाँघ कर आगे बढ़ गये हैं; परंतु दूसरों को मान देने वाले गुरुदेव! सात्यकि और भीमसेन ने किस तरह आपका लंघन किया? ‘विपंवर! सात्यकि, भीमसेन तथा अर्जुन के द्वारा आपकी पराजय समुद्र को सुखा देने के समान इस संसार में आश्चर्य भरी घटना है। लोग बड़े जोर से इस बात की चर्चा कर रहे हैं। ‘सारे योद्धा यह कह रहे हैं कि धनुर्वेद के पारंगत आचार्य द्रोण कैसे युद्ध में पराजित हो गये। आपका यह हारना लोगों के लिये अविश्वसनीय हो गया है। ‘वास्तव में मेरा भाग्य ही खोटा है। ये तीनों महारथी जहाँ आप जैसे पुरुषसिंह को लाँघकर आगे बढ़ गये हैं, उस युद्ध में मेरा विनाश ही अवश्यम्भावी है। ‘ऐसी परिस्थितियों में जो कर्त्तव्य है, उसके सम्बन्ध में आपकी क्या राय है, यह बताइये। मानद! जो हो गया सो तो हो ही गया। अब जो शेष कार्य है, उसका विचार कीजिये। ‘ब्रह्मन! इस समय सिंधुराज की रक्षा के लिये तुरंत करने योग्य जो कार्य हमारे सामने प्राप्त है, उसे अच्छी तरह सोच विचारकर शीघ्र सम्पन्न कीजिये’।
द्रोणाचार्य ने कहा ;- तात! सोचने विचारने को तो बहुत है, किंतु इस समय जो कर्त्तव्य प्राप्त है, वह मुझसे सुनो। पाण्डव पक्ष के तीन महारथी हमारी सेना को लाँघकर आगे बढ़ रहे हैं। पीछे उनका जितना भय है, उतना ही आगे भी है। परंतु जहाँ अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं, वहीं मेरी समझ में अणिक भय की आशंका है। इस समय कौरव सेना आगे और पीछे से भी शत्रुओं के आक्रमण का शिकार हो रही है। इस परिस्थति में मैं सबसे आवश्यक कार्य यही मानता हूँ कि सिंधुराज जयद्रथ की रक्षा की जाय। तात! जयद्रथ कुपित हुए अर्जुन से डरा हुआ है। अतः वह हमारे लिये सबसे रक्षणीय है। भयंकर वीर सात्यकि और भीमसेन भी जयद्रथ को ही लक्ष्य करके गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
शकुनि की बुद्धि में जो जुआ खेलने की बात पैदा हुई थी, वह वास्तव में आज इस रूप में सफल हो रही है। उस दिन सभा में किसी पक्ष की जीत या हार नहीं हुई थी। आज यहाँ जो हम लोग प्राणों की बाजी लगाकर जूआ खेल रहे हैं, इसी में वास्तविक हार जीत होने वाली है। शकुनि कौरव सभा में पहले जिन भयंकर पासों को हाथ में लेकर जूए का खेल खेलता था, उन्हें वह तो पासे ही समझता था, परंतु वास्तव में वे दुर्धर्ष बाण थे। तात! असली जूआ तो वहाँ हो रहा है जहाँ तुम्हारे बहुत से कौरव यौद्धा खड़े हैं। इस सेना को ही तुम जुआरी समझो। प्रजानाथ! बाणों को ही पासे मान लो। राजन! सिंधुराज जयद्रथ को ही बाजी या दाँव समझो। उसी पर जूए की हार जीत का फैसला होगा।
महाराज! सिंधुराज के ही जीवन की बाजी लगाकर शत्रुओं के साथ हमारी भारी द्यूत क्रीड़ा चल रही है। यहाँ तुम सब लोग अपने जीवन का मोह छोड़कर रण भूमि में विधि पूर्वक जयद्रथ की रक्षा करो। निश्चय ही उसी पर हम द्यूत क्रीड़ा करने वालों की असली हार जीत निर्भर है। राजन! जहाँ वे महाधनुर्धर योद्धा सावधान होकर सिंधुराज की रक्षा करने लगे हैं, वहीं तुम स्वयं भी शीघ्र चले जाओ और सिंधुराज की रक्षा करो। मैं तो यहीं रहूँगा और तुम्हारे पास दूसरे रक्षकों को भेजता रहूँगा। साथ ही पाण्डवों तथा सृंजयों सहित आये हुए पांचाल को व्यूह के भीतर जाने से रोकूँगा। तदनन्तर आचार्य की आज्ञा से दुर्योधन अपने आपको उग्र कर्म करने के लिये तैयार करके अपने अनुचरों के साथ शीघ्र वहाँ से चला गया।
अर्जुन के चक्ररक्षक पांचाल कुमार युधामन्यु और उत्तमौजा सेना के बाहरी भाग से होकर सव्यसाची अर्जुन के समीप जाने लगे। महाराज! जब अर्जुन युद्ध की इच्छा से आपकी सेना के भीतर घुसे थे, उस समय ये दोनों भीम के साथ ही थे, किंतु कृतवर्मा ने उन दोनों को पहले रोक दिया था। अब वे दोनों वीर पाश्व भाग से आपकी सेना का भेदन करके उसके भीतर घुस गये। पाश्व भाग से सेना के भीतर आते हुए उन दोनों वीरों को कुरुराज दुर्योधन ने देखा। तब उस बलवान भरतवंशी वीर दुर्योधन ने तुरंत आगे बढ़कर बड़ी उतावली के साथ आते हुए उन दोनों भाइयों के साथ भारी युद्ध छेड़ दिया। वे दोनों क्षत्रिय शिरोमणि विख्यात महारथी वीर थे। उन दोनों ने युद्ध स्थल में धनुष उठाकर दुर्योधन पर धावा बोल दिया। युधामन्यु ने कंकपत्र युक्त तीस बाणों द्वारा दुर्योधन को घायल कर दिया। फिर बीस बाणों से उसके सारथि को और चार से चारों घोड़ों को बींध डाला। तब आपके पुत्र दुर्योधन ने एक बाण से युधामन्यु की ध्वजा काट डाली और एक से उसके धनुष के दो टुकड़े कर दिये। इतना ही नहीं, एक भल्ल मारकर उसने युधामन्यु के सारथि को भी रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। फिर चार तीखे बाणों द्वारा उसके चारों घोड़ों को भी घायल कर दिया। इससे युधामन्यु भी कुपित हो उठा। उसने युद्ध स्थल में बड़ी उतावली के साथ आपके पुत्र की छाती में तीस बाण मारे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिंशदधिकशतकम अध्याय के श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद)
इसी प्रकार उत्तमौजा ने भी अत्यन्त कुपित हो अपने सुवर्ण भूषित बाणों द्वारा उसके सारथि को गहरी चोट पहुँचायी और उसे यमलोक भेज दिया। राजेन्द्र! तब दुर्योधन ने भी पांचालराज उत्तमौजा के चारों घोड़ों और दोनों पाश्वरक्षकों को सारथि सहित मार डाला। युद्ध में घोड़ों और सारथि के मारे जाने पर उत्तमौजा शीघ्रता पूर्वक अपने भाई युधामन्यु के रथ पर जा चढ़ा। भाई के रथ पर बैठकर उत्तमौजा ने अपने बहुसंख्यक बाणों द्वारा दुर्योधन के घोड़ों पर इतना प्रहार किया कि वे प्राणशून्य होकर धरती पर गिर पड़े। घोड़ों के धराशायी हो जाने पर युधामन्यु ने उस युद्ध स्थल में उत्तम बाण का प्रहार करके दुर्योधन के धनुष और तरकस को भी शीघ्रता पूर्वक काट गिराया।
घोड़े और सारथि के मारे जाने पर आपका पुत्र राजा दुर्योधन रथ से उतर पड़ा और गदा लेकर पाञ्चाल देश के उन वीरों की ओर दौड़ा। उस समय क्रोध में भरे हुए कुरुराज दुर्योधन को अपनी ओर आते देख दोनों भाई युधामन्यु और उत्तमौजा रथ के पिछले भाग से नीचे कूद गये। नरेश्वर! तदनन्तर अत्यन्त कुपित हुए गदाधारी दुर्योधन ने घोड़े, सारथि और ध्वज सहित उस सुवर्ण जटित सुन्दर रथ को गदा के आघात से चूर-चूर कर दिया। इस प्रकार उस रथ को तोड़-फोड़ कर घोड़ों और सारथि से हीन हुए शत्रुसंतापी दुर्योधन शीघ्र ही मद्रराज शल्य के रथ पर जा चढ़ा। तत्पश्चात पाञ्चाल सेना के वे दोनों प्रधान महारथी राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा दूसरे दो रथों पर आरूढ़ होकर अर्जुन के समीप चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में दुर्योधन का युद्ध विषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें