सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि के द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छों की सेना का संहार और दु:शासन का सेनासहित पलायन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! मेरी विशाल सेना को रौंद कर जाते हुए सात्यकि और अर्जुन को देखकर मेरे उन निर्लज्ज पुत्रों ने क्या किया। वे सब-के सब मरना चाहते थे। उस समय युद्धस्थल में अर्जुन के समान ही सात्यकि का चरित्र देखकर उनकी कैसी धारणा हुई थी। वे सेना के बीच में परास्त होकर अपने क्षात्रबल का क्या वर्णन करेंगे समरांगण में महायशस्वी सात्यकि किस प्रकार सारी सेना को लांघकर आगे बढ़ गये। संजय! युद्धस्थल में मेरे पुत्रों के जीते जी शिनिनन्दन सात्यकि किस तरह आगे जा सके संजय! यह सब मुझे बताओ। तात! यह मैं तुम्हारे मुंह से अत्यंत विचित्र बात सुन रहा हूँ कि शत्रुदल के उन बहुसंख्यक महारथियों के साथ एकमात्र सात्यकि का ऐसा संग्राम हुआ। मैं अपने भाग्यहीन पुत्र के लिये सब कुछ विपरीत ही मान रहा हूं; क्योंकि समरांगण में अकेले सात्यकि ने बहुत से महारथियों का वध कर डाला है।
संजय! और सब पाण्डव तो दूर रहें, क्रोध में भरे हुए अकेले सात्यकि के लिये भी मेरी सेना पर्याप्त नहीं है। जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है, उसी प्रकार सात्यकि विचित्र युद्ध करने वाले विद्वान द्रोणाचार्य को भी युद्ध में परास्त करके मेरे पुत्रों का वध कर डालेंगे। कृतवर्मा आदि बहुत से शूरवीर समरांगण में प्रयत्न करते ही रह गये; परंतु पुरुषप्रवर सात्यकि मारे न जा सके। शिनि के महायशस्वी पौत्र सात्यकि ने वहाँ जैसा युद्ध किया, वैसा तो अर्जुन ने भी नही किया था।
संजय ने कहा ;- राजन! आपकी खोटी सलाह और दुर्योधन की काली करतूत से यह सब कुछ हुआ है। भारत! मैं जो कुछ कहता हूं, उसे सावधान होकर सुनिये।
आपके पुत्र की आज्ञा से युद्ध के लिये अत्यन्त क्रूरतापूर्ण निश्चय करके परस्पर शपथ ले वे सभी पराजित योद्धा पुन: लौट आये। तीन हजार घुड़सवार और हाथीसवार दुर्योधन को अपना अगुआ बनाकर चले। उनके साथ शक, काम्बोज, बाह्लीक, यवन, पारद, कुलिन्द, तंगण, अम्बष्ठ, पैशाच, बर्बर तथा पर्वतीय योद्धा भी थे। राजेन्द्र! वे सब-के-सब कुपित हो हाथों में पत्थर लिये सात्यकि की ओर उसी प्रकार दौड़े, जैसे फतिंगे जलती हुई आग पर टूटे पड़ते हैं। राजन! पत्थरों द्वारा करने वाले पर्वतीयों के पांच सौ शूरवीर रथी लिये सुसज्जित हो सात्यकि पर चढ़ आये। तत्पश्चात एक हजार रथी, सौ महारथी, एक हजार हाथी और दो हजार घुड़सवारों के साथ बहुत से महारथी और असंख्य पैदल सैनिक सात्यकि पर नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए टूट पड़े।
भरतवंशी महाराज! ‘इस सात्यकि को मार डालो’। इस प्रकार उन समस्त सैनिकों को प्रेरित करते हुए दु:शासन ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। वहाँ हमने सात्यकि का अद्भुत चरित्र देखा कि वे बिना किसी घबराहट के अकेले ही बहुसंख्यक योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। उन्होंने रथ सेना और गज सेना का तथा उन समस्त घुड़ सवारों एवं लुटेरे म्लेच्छों का भी सब प्रकार से संहार कर डाला। वहाँ चूर-चूर हुए चक्कों, टूटे हुए उत्तमोत्तम आयुधों, टूक-टूक हुए धुरों, खण्डित हुए ईषादण्डों और बन्धुरों, मथे गये हाथियों, तोड़कर गिराये हुए ध्वजों, छिन्न-भिन्न कवचों और विनष्ट हुए सैनिकों की लाशों से वहाँ की पृथ्वी पट गयी थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)
माननीय भरतनरेश! योद्धाओं के हारों, आभूषणों, वस्त्रों और अनुकर्षों से आच्छादित हुई वहाँ की भूमि तारों से व्याप्त हुए आकाश के समान जान पड़ती थी। भारत! अञ्जन और वामन नामक दिग्गज के कुल में उत्पन्न हुए पर्वताकार श्रेष्ठ गजराज भी वहाँ धराशायी हो गये थे। नरेश्वर! सुप्रतीक, महापद्य, ऐरावत तथा अन्य पुण्डरीक, पुष्पदन्त और सार्वभौम- (इन) दिग्गजों के कुलों में उत्पन्न हुए बहुतेरे दंतार हाथी भी वहाँ धरती पर लोट रहे थे। राजन! वहाँ सात्यकि ने वनायु, काम्बोज (काबुल) और बाह्लीक देशों में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अश्वों तथा पहाड़ी घोड़ों को भी मार गिराया। शिनि के उस वीर पौत्र ने अनेक देशों में उत्पन्न हुए विभिन्न जाति के सैकड़ों और हजारों हाथियों का भी संहार कर डाला। वे हाथी जब काल के गाल में जा रहे थे, उस समय दु:शासन ने लूट-पाट करने वाले म्लेच्छों से इस प्रकार कहा- ‘धर्म को न जानने वाले योद्धाओं! इस तरह भाग जाने से तुम्हें क्या मिलेगा लौटो और युद्ध करो। इतने पर भी उन्हें जोर जोर से भागते देख आपके पुत्र दु:शासन ने पत्थरों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर पर्वतीयों को आज्ञा दी। वीरो! तुम लोग प्रस्तरों द्वारा युद्ध करने में कुशल हो। सात्यकि को इस कला का ज्ञान नही है। प्रस्तर युद्ध को न जानते हुए भी युद्ध की इच्छा रखने वाले इस शत्रु को तुम लोग मार डालो। इसी प्रकार समस्त कौरव भी प्रस्तरयुद्ध में प्रवीण नहीं है। अत: तुम डरो मत। आक्रमण करो। सात्यकि तुम्हें नहीं पा सकता है।' जैसे मन्त्री राजा के पास जाते हैं, उसी प्रकार वे पाषाणयोधी समस्त पर्वतीय नरेश सात्यकि की ओर दौड़े। वे पर्वत निवासी योद्धा हाथी के मस्तक के समान बड़े-बड़े प्रस्तर हाथ में लेकर समरांगण में युयुधान के सामने युद्ध के लिये तैयार होकर खड़े हो गये।
आपके पुत्र दु:शासन से प्रेरित होकर सात्यकि के वध की इच्छा रखने वाले अन्य बहुतेरे सैनिकों ने भी क्षेपणीयास्त्र उठा कर सब ओर से सात्यकि की सम्पूर्ण दिशाओं को अवरुद्ध कर लिया। प्रस्तर युद्ध की इच्छा रखने वाले उन योद्धाओं के आक्रमण करते ही सात्यकि ने तेज किये हुए बाणों का संधान करके उन्हें उन पर चलाया। पर्वतीय सैनिकों द्वारा की हुई उस भयंकर पाषाण वर्षा को शिनिप्रवर सत्यकि ने अपने सर्पतुल्य नाराचों द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया। माननीय नरेश। जुगनुओं की जमातों के समान उद्भासित होने वाले उन प्रस्तरचूणों से प्राय: सारी सेनाएं आहत हो हाहाकार करने लगीं। राजन! तदनन्तर बड़े-बड़े प्रस्तर खण्ड उठाये हुए पांच सौ शूरवीर अपनी भुजाओं के कट जाने से धरती पर गिर पड़े। फिर एक हजार दूसरे योद्धा तथा एक लाख अन्य सैनिक सात्यकि तक पहुँचने भी नहीं पाये थे कि अपने हाथ में लिये शिलाखण्डों से कटी हुई बाहुओं के साथ ही धराशायी हो गये। सात्यकि के भल्ल से चूर-चूर हुए शिलाखण्डों द्वारा मारे गये म्लेच्छ प्राणशून्य होकर जहां-तहाँ पड़े थे। महामना सात्यकि द्वारा समरभूमि में मारे जाते हुए वे म्लेच्छ सैनिक उन पर बड़ी भयंकर पत्थरों की वर्षा करते थे। वे पाषाणों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर विजय के लिये यत्नशील होकर रणक्षेत्र में डटे हुए थे। उनकी संख्या अनेक सहस्त्र थी; परंतु सात्यकि ने उन सबका संहार कर डाला। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)
तदनंतर पुन: हाथ में लोहे के गोले और त्रिशूल लिये मुँह फैलाये हुए दरद, तंगण, खस, लम्पाक, और कुलिंददेशीय म्लेच्छों ने सात्य्कि पर चारों ओर से पत्थर बरसाने आरम्भ किये; परंतु प्रतीकार करने में निपुण सात्यकि ने अपने नाराचों द्वारा उन सबको छिन्न-भिन्न कर दिया।आकाश में तीखे बाणों द्वारा टूटने-फूटने वाले प्रस्तर खण्डों के शब्द से भयभीत हो रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक युद्ध स्थल में इधर-उधर भागने लगे। पत्थर के चूर्णों से व्याप्त हुए मनुष्य, हाथी और घोड़े वहाँ ठहर न सके, मानो उन्हें भ्रमरों ने डस लिया हो।
जो मरने से बचे थे, वे हाथी भी खून से लथपथ हो रहे थे। उनके कुम्भस्थल विदीर्ण हो गये थे। राजन! बहुत से हाथियों के सिर क्षत-विक्षत हो गये थे। उनके दांत टूट गये थे, शुण्डदण्ड खण्डित हो गये थे तथा सैकड़ों गजराजों के सात्यकि ने अंग भंग कर दिये थे। माननीय नरेश! सात्यकि सिद्धहस्त पुरुष की भाँति क्षणभर में पांच सौ योद्धाओं का संहार करके सेना के मध्य भाग में विचरने लगे। उस समय घायल हुए हाथी युयुधान के रथ को छोड़कर भाग गये। बाणों से चूर-चूर होने वाले पत्थरों की ऐसी ध्वनि सुनायी पड़ती थी, मानो कमलदलों पर गिरती हुई जलधाराओं का शब्द कानों में पड़ रहा हो। आर्य! जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र का गर्जन बहुत बढ़ जाता है, उसी प्रकार सात्यकि के द्वारा पीडित हुई आपकी सेना का महान कोलाहल प्रकट हो रहा था।
उस भयंकर शब्द को सुनकर द्रोणाचार्य ने अपने सारथि से कहा,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- ‘सूत। यह सात्वतकुल का महारथी वीर सात्यकि रणक्षेत्र में क्रुद्ध होकर कौरव सेना को बारंबार विदीर्ण करता हुआ काल के समान विचर रहा है। सारथे! जहाँ यह भयानक शब्द हो रहा है, वहीं मेरे रथ को ले चलो। निश्चय ही युयुधान पाषाणयोधी योद्धाओं से भिड़ गया है, तभी तो ये भागे हुए घोड़े सम्पूर्ण रथियों को रणभूमि से बाहर लिये जा रहे हैं। ये रथी शस्त्र और कवच से हीन होकर शस्त्रों के आघात से रुगण हो यत्र-तत्र गिर रहे हैं। इस भयंकर युद्ध में सारथि अपने घोड़ों को काबू में नहीं रख पाते हैं’।
द्रोणाचार्य का यह वचन सुनकर सारथि ने सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोण से इस प्रकार कहा,
सारथि ने कहा ;- ‘आयुष्मन! कौरव सेना चारों ओर भाग रही है। देखिये, रणक्षेत्र में वे सब योद्धा व्यूह-भंग करके इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ये पाण्डवों सहित पांचाल वीर संगठित हो आपको मार डालने की इच्छा से सब ओर से आप पर ही आक्रमण कर रहे हैं। शत्रुदमन! इस समय जो कर्त्तव्य प्राप्त हो, उस पर ध्यान दीजिये; यहीं ठहरना है या अन्यत्र जाना है। सात्यकि तो बहुत दूर चले गये’। द्रोणाचार्य का सारथि जब इस प्रकार कहर रहा था, उसी समय शिनिनन्दन सात्यकि बहुतेरे रथियों का संहार करते दिखायी दिये। समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए आपके सैनिक उनके रथ को छोड़कर द्रोणाचार्य की सेना की ओर भाग गये। पहले दु:शासन जिन रथियों के साथ लौटा था, वे सब-के-सब भयभीत होकर द्रोणाचार्य के रथ की ओर भाग गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवपर्व में सात्यकिप्रवेशविषयक एक सौ इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वाविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य का दु:शासन को फटकारना और द्रोणाचार्य के द्वारा वीरकेतु आदि पाञ्चालों का वध एवं उनका धृष्टद्युम्न के साथ घोर युद्ध, द्रोणाचार्य का मूर्च्छित होना, धृष्टद्युम्न का पलायन, आचार्य की विजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए दु:शासन और कौरव सैनिक उनके रथ को छोड़कर द्रोणाचार्य के रथ की ओर भाग गये। दु:शासन के रथ को अपने समीप खड़ा हुआ देख द्रोणाचार्य उससे इस प्रकार बोले।,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- ‘दु:शासन। ये सारे रथी कहाँ से भागे आ रहे हैं राजा दुर्योधन सकुशल तो है न क्या सिधुराज जयद्रथ अभी जीवित है। ‘तुम तो राजा के बेटे, राजा के भाई और महारथी वीर हो। युवराज का पद प्राप्त करके तुम इस युद्धस्थल में किस लिये भागे फिरते हो। ‘दु:शासन! तुमने द्रौपदी से कहा था’ अरी! तू जूए में जीती हुई दासी है। अत: हमारी इच्छा के अनुसार आचरण करने वाली हो जा। मेरे बड़े भाई राजा दुर्योधन की वस्त्र वाहिका बन जा। ‘अब तेरे सम्पूर्ण पति थोथे तिलों के समान नहीं के बराबर हो गये हैं। पहले ऐसी बातें कहकर अब तुम युद्ध से भाग क्यों रहे हो। ‘पाञ्चालों और पाण्डवों के साथ स्वयं ही बड़ा भारी वैर ठानकर युद्धस्थल में अकेले सात्यकि का सामना करके कैसे भयभीत हो उठे हो। ‘क्या पहले तुम जूए में पासे उठाते समय नहीं जानते थे कि ये एक दिन भयंकर विषधर सर्पों के समान विनाशकारी बाण बन जायंगे। ‘पूर्वकाल में विशेषत: पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को जो अप्रिय वचन सुनाये गये और द्रौपदी देवी को जो कष्ट पहुँचाया गया, इन सबकी जड़ तुम्हीं रहे हो।
‘कहां गया तुम्हारा वह दर्प और अभिमान कहाँ है तुम्हारा पराक्रम और कहाँ गयी तुम्हारी गर्जना विषैले सर्पों के समान कुन्तीकुमारों को कुपित कहाँ भागे जा रहे हो। ‘यह कौरव सेना, यह राज्य और इसका राजा दुर्योधन - ये सभी शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि तुम राजा के क्रूरकर्मी भाई होकर आज युद्ध में पीठ दिखाकर भाग रहे हो। ‘वीर! तुम्हें जो अपने बाहुबल का आश्रय लेकर इस भागती हुई भयभीत सेना की रक्षा करनी चाहिये। ‘परंतु तुम आज युद्ध छोड़कर भयभीत हो उठे और शत्रुओं का हर्ष बढ़ा रहे हो। शत्रुसूदन! तुम जो सेनापति हो। तुम्हारे भागने पर दूसरा कौन युद्धभूमि में ठहर सकेगा? अब आश्रयदाता या रक्षक ही डर जाय, तब दूसरा क्यों न भयभीत होगा।
‘कौरव! अकेले सात्यकि के साथ युद्ध करते समय; जब आज तुम्हारी बुद्धि संग्राम से पलायन करने में प्रवृत्त हो गयी, तुमने भागने का विचार कर लिया, तब जिस समय तुम गाण्डीवधारी अर्जुन, भीमसेन अथवा नकुल-सहदेव को युद्धस्थल में देखोगे, उस समय तुम क्या करोगे ? ‘रणक्षेत्र मे अर्जुन के बाण सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी हैं। उनके समान सात्यकि के बाण नहीं हैं, जिनसे भयभीत होकर तुम भागे जा रहे हो। ‘वीर! जल्दी जाओ। अपनी माता गान्धारी देवी के पेट में घुस जाओ; अन्यथा इस भूतल पर दूसरा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ भाग जाने से मुझे तुम्हारे जीवन की रक्षा दिखायी देती हो। ‘यदि तुमने भागने का ही विचार की लिया है, तब यह पृथ्वी का राज्य शान्तिपूर्वक ही धर्मराज युधिष्ठिर को सौंप दो।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वाविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)
‘केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान अर्जुन के बाण जब तक तुम्हारे शरीर में नहीं घुस रहे हैं, तब तक ही तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘महामनस्वी कुन्ती कुमार तब तक तुम्हारे सौ भाइयों को रणक्षेत्र में मारकर यह सारी पृथ्वी तुमसे छीन नहीं लेते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘जब तक धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तथा युद्ध की प्रशंसा करने वाले भगवान श्रीकृष्ण क्रोध नहीं करते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘जब तक महाबाहु भीमसेन विशाल कौरव सेना में घुसकर तुम्हारे सारे भाइयों को दबोच नहीं लेते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘पूर्वकाल में भीष्म जी ने तुम्हारे भाई दुर्योधन से यह कहा था कि ‘सौम्य! पाण्डव युद्ध में अजेय हैं। तुम उनके साथ संधि कर लो।’ परंतु तुम्हारे मूर्ख भ्राता दुर्योधन ने यह कार्य नहीं किया। ‘अतः अब तुम रणक्षेत्र में धैर्य धारण करके प्रयत्न पूर्वक पाण्डवों के साथ युद्ध करो। मैंने सुना है भीमसेन तुम्हारा भी खून पीयेंगे। भीमसेन की वो प्रतिज्ञा झूठी नहीं है। वह उसी रूप में सत्य होगी। ‘ओ मूर्ख! क्या तुम भीमसेन के पराक्रम को नहीं जानते, जो तुमने उनके साथ वैर ठाना और अब युद्ध से भागे जा रहे हो?
‘भरतनन्दन! अब तुम शीघ्र ही इसी रथ के द्वारा जहाँ सात्यकि खड़े हैं, वहाँ जाओ। तुम्हारे न रहने से सारी सेना भाग जायेगी। तुम अपने लाभ के लिये रणक्षेत्र में सत्य पराक्रमी सात्यकि के साथ युद्ध करो’। द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर आपका पुत्र दुःशासन कुछ भी नहीं बोला। वह उनकी सुनी हुई बातों को भी अनसुनी सी करके उसी मार्ग पर चल दिया, जिससे सात्यकि गये थे। उसने युद्ध से पीछे न हटने वाले म्लेच्छों की विशाल सेना के साथ समरांगण में सात्यकि के पास पहुँकर उनके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध आरम्भ किया। इधर रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी क्रोध में भरकर मध्यम वेग का आश्रय ले पाञ्चालों और पाण्डवों पर टूट पड़े। द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में पाण्डवों की विशाल सेना में प्रवेश करके उनके सैंकड़ों और हजारों सैनिको को भगाने लगे। महाराज! उस समय आचार्य द्रोण युद्धस्थल में अपना नाम सुना-सुना कर पाण्डव, पाञ्चाल तथा मत्स्यदेशीय सैनिकों का महान संहार करने लगे। इधर-उधर घूम-घूमकर समस्त सेनाओं को पराजित करते हुए द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये उस समय तेजस्वी पाञ्चालकुमार वीरकेतु आया। उसने झुकी हुई गाँठ वाले पाँच बाणौं द्वारा द्रोणाचार्य को घायल करके एक से उनके ध्वज को और सात बाणों से उनके सारथियों को भी बेध दिया।
महाराज! उस युद्ध में मैंने यह अद्भुत बात देखी कि द्रोणाचार्य उस वेगशाली पाञ्चाल राजकुमार वीरकेतु की ओर बढ़ न सके। माननीय नरेश! द्रोणाचार्य को रणक्षेत्र में अवरुद्ध हुआ देख धर्मपुत्र की विजय चाहने वाले पाञ्चालों ने सब ओर से उन्हें घेर लिया। राजन्! उन्होंने अग्नि के समान तेजस्वी बाणों, बहुमूल्य तोमरों तथा नाना प्रकार के शस्त्रों की वर्षा करके अकेले द्रोणाचार्य को ढक दिया। नरेश्वर! द्रोणाचार्य अपने बाण समूहों द्वारा चारों ओर से उन समस्त अस्त्र-शस्त्रों के टुकड़े -टुकड़े करके आकाश में महान मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न करने के पश्चात प्रवाहित होने वाले वायु देव के समान सुशोभित हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वाविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात शत्रुवीरों का संहार करने वाले आचार्य ने सूर्य और अग्नि के समान अत्यन्त भयंकर बाण को धनुष पर रखा और उसे वीरकेतु के रथ पर चला दिया। राजन्! वह प्रज्वलित होता हुआ सा बाण पाञ्चालकुलनन्दन वीरकेतु को विदीर्ण करके खून से लथपथ हो तुरंत ही धरती में समा गया। फिर तो पाञ्चालकुल को आनन्दित करने वाला वह राजकुमार वायु से टूटकर पर्वत के शिखर से नीचे गिरने वाले चम्पा के विशाल वृक्ष के समान तुरंत रथ से नीचे गिर पड़ा। उस महान धनुर्धर महाबली राजकुमार के मारे जाने परपाञ्चालसैनिकों ने शीघ्र ही आकर द्रोणाचार्य को चारों ओर से घेर लिया।
भारत! चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्रवर्मा और चित्ररथ - ये चारों वीर अपने भाई की मृत्यु से दुःखित हो युद्ध की इच्छा रखकर एक साथ ही द्रोण पर टूट पड़े और जिस प्रकार वर्षाकाल में मेघ पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे बाणों की वर्षा करने लगे। उन महारथी राजकुमारों द्वारा बारंबार घायल किये जाने पर द्विजश्रेष्ठ द्रोण ने उनके विनाश के लिये महान क्रोध प्रकट किया। तब द्रोणाचार्य ने उनके ऊपर बाणों का जाल सा बिछा दिया। नृपश्रेष्ठ! द्रोणाचार्य के कान तक खींचकर छोड़े हुए उन बाणों द्वारा घायल होकर वे राजकुमार यह भी न जान सके कि हमें क्या करना चाहिये? भरतनन्दन! रणक्षेत्र में कुपित हुए द्रोणाचार्य ने हँसते हुए से अपने बाणों द्वारा उन किंकर्तव्यविमूढ़ राजकुमारों को घोड़े, सारथि तथा रथ से हीन कर दिया। तत्पश्चात दूसरे तेज धार वाले भल्लों से महायशस्वी द्रोण ने उन राजकुमारों के मस्तक उसी प्रकार काट गिराये, मानों वृक्षों से फूल चुन लिये हों। राजन! जैसे पूर्वकाल के देवासुर संग्राम में दैत्य और दानव धराशायी हुए थे, उसी प्रकार वे सुन्दर कान्तिवाले राजकुमार मारे जाकर उस समय रथों से पृथ्वी पर गिर पड़े। महाराज! प्रतापी द्रोण ने युद्ध स्थल में उन राजकुमारों का वध करके सुवर्णमय पृष्ठभाग वाले दुर्जय धनुष को घुमाना आरम्भ किया।
राजन्! उस समय व धनुष मेंघों की घटा में बिजली के समान प्रकाशित हो रहा था। देवताओं के समान तेजस्वीपाञ्चालमहारथियों को मारा गया देख धृष्टद्युम्न अत्यन्त उद्विग्न हो नेत्रों में आँसू बहाते हुए कुपित हो उठे और संग्राम भूमि में द्रोणाचार्य के रथ की ओर बढ़े। राजन! रणक्षेत्र में धृष्टद्युम्न के बाणों से द्रोणाचार्य की गति अवरुद्ध हुई देख कौरव सेना में सहसा हाहाकार मच गया। महामना धृष्टद्युम्न के द्वारा बाणों से आच्छादित किये जाने पर भी द्रोणाचार्य को तनिक भी व्यथा नहीं हुई। वे मुसकराते हुए ही युद्ध में संलग्न रहे। महाराज! तत्पश्चात धृष्टद्युम्न ने क्रोध से अचेत होकर झुकी हुई गाँठ वाले नब्बे बाणों द्वारा द्रोणाचार्य की छाती में प्रहार किया। बलवान वीर धृष्टद्युम्न के द्वारा गहरी चोट पहुँचायी जाने पर महायशस्वी द्रोणाचार्य रथ के पिछले भाग में बैठ गये और मूर्च्छित हो गये। उनको उस अवस्था में देखकर बल और पराक्रम से सम्पन्न धृष्टद्युम्न ने धनुष रख दिया और तुरंत ही तलवार हाथ में ले ली। माननीय नरेश! महारथी धृष्टद्युम्न शीघ्र ही अपने रथ से कूदकर द्रोणाचार्य के रथ पर जा चढ़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वाविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-73 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! वे क्रोध में लाल आँखें करके द्रोणाचार्य के सिर को धड़ से अलग कर देना चाहते थे। इसी समय द्रोणाचार्य होश में आ गये और उन्होंने अपने को मार डालने की इच्छा से धृष्टद्युम्न को निकट आया देख महान् टंकार करने वाले अपने धनुष को हाथ में लेकर निकट से बेधने वाले बित्ते बराबर बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। आचार्य समरांगण में महारथी धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध करने लगे। निकट से युद्ध करने वाले द्रोणाचार्य के पास उन्हीं के बनाये हुए वैतस्तिक नामक बाण थे, जिनके द्वारा उन्होंने धृष्टद्युम्न को क्षत-विक्षत कर दिया। महाबली और पराक्रमी धृष्टद्युम्न उन बहुसंख्यक बाणों द्वारा घायल होकर अपना वेग भंग हो जोने के कारण उस रथ से कूद पड़े और पुनः अपने रथ पर आरूढ़ हो वे वीर महारथी धृष्टद्युम्न महान धनुष हाथ में ल्रेकर समरांगण में द्रोणाचार्य को बेधने लगे। महाराज! द्रोणाचार्य ने भी अपने बाणों द्वारा द्रुपदपुत्र को घायल कर दिया। जैसे त्रिलोकी के राज्य की इच्छा रखने वाले इन्द्र और प्रह्लाद में परस्पर युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उस समय द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में अत्यन्त अद्भुत युद्ध होने लगा। वे दोनों ही युद्ध की प्रणाली के ज्ञाता थे। अतः विचित्र मण्डल, यमक तथा अन्य प्रकार के मार्गों का प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे को बाणों से क्षत-विक्षत करने लगे। वर्षाकाल के दो मेघों के समान बाण-वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न युद्धस्थल में सम्पूर्ण योद्धाओं के मन मोहने लगे। वे दोनोें महामनस्वी वीर अपने बाणों द्वारा आकाश, दिशाओं तथा पृथ्वी को आच्छादित करने लगे। उन दोनों के उस अद्भुत युद्ध की सभी प्राणियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।
महाराज! सभी क्षत्रियों तथा आपके अन्य सैनिकों ने भी उन दोनों के युद्ध की प्रशंसा की। राजन! पाञ्चाल योद्धा यों कहकर कोलाहल करने लगे कि द्रोणाचार्य समरांगण में धृष्टद्युम्न के साथ उलझे हुए हैं। वे अवश्य ही हमारे अधीन हो जायेंगे। इसी समय द्रोण ने युद्ध में बड़ी उतावली के साथ धृष्टद्युम्न के सारथि का सिर वृक्ष के पके हुए फल के समान धड़ से नीचे गिरा दिया। राजन्! फिर तो महामना धृष्टद्युम्न के घोड़े भाग चले। उनके भाग जाने पर पराक्रमी द्रोणाचार्य रणभूमि में सब ओर घूम-घूमकर पाञ्चालों और सृन्जयों के साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले प्रतापी द्रोणाचार्य पाण्डवों और पाञ्चालों को पराजित करके पुनः अपने व्यूह में आकर खड़े हो गये। प्रभो! उस समय पाण्डव सैनिक युद्ध में उन्हें जीतने का साहस न कर सके।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि का प्रवेश और द्रोणाचार्य का पाराक्रम विषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि का घोर युद्ध और दुःशासन की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर दुःशासन ने वर्षा करने वाले मेघ के समान लाखों बाण बिखेरते हुए वहाँ शिनि पौत्र सात्यकि पर धावा कर दिया। वह पहले साठ फिर सोलह बाणों से बींधकर भी युद्ध में मैनाक पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े हुए सात्यकि को कम्पित न कर सका शूरवीर दुःशासन ने नाना देशों से प्राप्त हुए विशाल रथ समूह के द्वारा तथा बाणों की वर्षा से भी सात्यकि को अत्यन्त आवृत कर लिया। भरतश्रेष्ठ! उसने मेघ के समान अपनी गम्भीर गर्जना से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए चारों ओर से बहुत से बाणों की वर्षा की। कुरुवंशी दुःशासन को रधक्षेत्र में आक्रमण करते देख महाबाहु सात्यकि ने उस पर धावा करके अपने बाणों द्वारा उसे आच्छादित कर दिया। वे दुःशासन आदि योद्धा सात्यकि के बाण-समूहों से आच्छादित होने पर समरभूमि में भयभीत हो उठे और आपकी सारी सेना के देखते-देखते भागने लगे। राजेन्द्र! उनके भागने पर भी आपका पुत्र दुःशासन वहीं निर्भय खड़ा रहा। उसने सात्यकि को अपने बाणों से पीड़ित कर दिया। उसने चार बाणों से उसके घोड़ों को, तीन से सारथि को और सौ बाणों से स्वयं सात्यकि को युद्धभूमि में घायल करके बड़े जोर से गर्जना की।
महाराज! तब मधुवंशी सात्यकि ने समरांगण में कुपित होकर दुःशासन के रथ, सारथि और ध्वज को अपने बाणों द्वारा अदृश्य कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शूरवीर दुःशासन को अपने बाणों से अत्यन्त आच्छादित कर दियो। जैसे मकड़ी अपने जाल से किसी जीव को लपेट देती है, उसी प्रकार शंकित भाव से पास आये हुए दुःशासन को शत्रु विजयी सात्यकि ने बड़ी उतावली के साथ अपने बाणों द्वारा आवृत कर लिया।इस प्रकार दुःशासन को सैंकड़ों बाणों से ढका हुआ देख राजा दुर्योधन ने त्रिगर्तों को युयुधान के रथ पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। वे त्रिगर्तों के तीन हजार रथी, जो युद्ध में कुशल थे, कठोर कर्म करने वाले युयुधान के समीप गये।
उन्होंने युद्ध के लिये दृढ़ निश्चय करके परस्पर शपथ ग्रहण करने के अनन्तर विशाल रथ सेना के द्वारा उन्हें घेर लिया। तब सात्यकि ने युद्ध में बाणों वर्षा करते हुए आक्रमण करने वाले पाँच सौ प्रमुख योद्धाओं को सेना के मुहाने पर मार गिराया। जैसे आँधी के वेग से टूटे हुए वृक्ष पर्वत से नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार शिनि श्रेष्ठ सात्यकि के बाणों से मारे गये वे त्रिगर्त योद्धा तुरंत ही धराशायी हो गये। महाराज! प्रजापालक नरेश! उस समय गिरे हुए गजराजों, अनेक टुकड़ों में कटी हुई ध्वजाओं तथा धरती पर पड़े हुए, सोने की कलंगियों से सुशोभित घोड़ों से, जो सात्यकि के बाणों से क्षत-विक्षत होकर खून से लथपथ हो रहे थे, आच्छादित हुई यह पृथ्वी वैसी ही शोभा पा रही थी, मानों वह लाल फूलों से भरे हुए पलाश के वृक्षों द्वारा ढक गयी हो। जैसे कीचड़ में फँसे हुए हाथियों को कोई रक्षक नहीं मिलता है, उसी प्रकार समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए आपके सैनिक कोई रक्षक न पा सके।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे बड़े-बड़े सर्प गरुड़ के भय से बिलों में घुस जाते हैं, उसी प्रकार आपके वे सभी पराजित सैनिक द्रोणाचार्य के रथ के पास इकट्ठे हो गये। विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा पाँच सौ योद्धाओं का संहार करके वीर सात्यकि धीरे-धीरे धनंजय के रथ की ओर बढ़ने लगे। उस समय आपके पुत्र दुःशासन ने वहाँ से जाते हुए नरश्रेष्ठ सात्यकि को झुकी हुई गाँठ वाले नौ ब्राणों द्वारा शीघ्र ही बींध डाला। तब महाधनुर्धर सात्यकि ने भी सोने के पंख तथा गीध की पाँख वाले पाँच तीखे और सीधे जाने वाले बाणों द्वारा दुःशासन को बेधकर बदला चुकाया। भरतवंशी महाराज! इसके बाद दुःशासन ने हँसते हुए से ही वहाँ तीन बाणों द्वारा सात्यकि को घायल करके पुनः पाँच बाणों से बींध डाला। तब शिनि पौत्र सात्यकि पाँच बाणों से आपके पुत्र को रणक्षेत्र में घायल करके उसका धनुष काटकर मुसकराते हुए वहाँ से अर्जुन की ओर चल दिये। तदनन्तर दुःशासन ने वहाँ से जाते हुए वृष्णि वीर सात्यकि पर कुपित हो उन्हें मार डालने की इच्छा से सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई शक्ति चलायी।
राजन! आपके पुत्र की उस भयंकर शक्ति को उस समय सात्यकि ने कंक पत्र युक्त तीखे बाणों द्वारा सौ टुकड़ों में खंडित कर दिया। जनेश्वर! तत्पश्चात आपके पुत्र ने दूसरा धनुष लेकर सात्यकि को अपने बाणों द्वारा घायल करके सिंह के समान गर्जना की। इससे महाभाग सात्यकि ने समरांगण में कुपित होकर आपके पुत्र को मोहित करते हुए झुकी हुई गाँठ वाले अग्नि की लपटों के समान प्रज्वलित तीन बाणों द्वारा उसकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। फिर लोह के बने हुए तीखी धार वाले आठ बाणों से उसे पुनः घायल कर दिया। तब दुःशासन ने भी बीस बाण मारकर सात्यकि को क्षत-विक्षत कर दियो। महाराज! इधर महाभाग सात्यकि ने भी झुकी हुई गाँठ वाले तीन बाणों द्वारा दुःशासन की छाती में चोट पहुँचायी। इसके बाद महारथी युयुधान ने अत्यन्त कुपित हो पैने बाणों से उसके चारों घोड़ों को मार डाला। फिर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से सारथि को भी यमलोक पहुँचा दिया।
तदनन्तर महान अस्त्रवेत्ता सात्यकि ने एक भल्ल से दुःशासन का धनुष, पाँच से उसके दस्ताने तथा दो भल्लों से उसकी ध्वजा एवं रथ शक्ति के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इतना ही नहीं, उन्होंने तीखे बाणों द्वारा उसके दोनों पाश्व रक्षकों को भी मार डाला। धनुष कट जाने पर रथ, घोड़े और सारथि से हीन हुए दुःशासन को त्रिगर्त - सेनापति ने अपने रथ पर बिठाकर वहाँ से दूर हटा दिया। भारत! उस समय महाबाहु सात्यकि ने लगभग दो घड़ी तक दुःशासन का पीछा किया; परंतु भीमसेन की बात याद आ जाने से उसका वध नहीं किया। भरतनन्दन! भीमसेन ने सभा में सबके सामने ही युद्ध स्थल में आपके पुत्रों का वध करने की प्रतिज्ञा की थी। राजन! प्रभो! इस प्रकार समरांगण में दुःशासन पर विजय पाकर सात्यकि तत्काल ही उसी मार्ग पर चल दिये, जिससे अर्जुन गये थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि का प्रवेश और दुःशासन की पराजय विषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-पाण्डव-सेना का घोर युद्ध तथा पाण्डवों के साथ दुर्योधन का संग्राम”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! क्या मेरी उस सेना में कोई भी महारथी वीर नहीं थे, जिन्होंने अर्जुन के पास जाते हुए सात्यकि को न तो मारा और न उन्हें रोका ही। जैसे देवराज इन्द्र दानवों के साथ युद्ध में पराक्रम दिखाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रतुल्य बलशाली सत्य पराक्रमी सात्यकि ने समरांगण में अकेले ही महान कर्म किया। अथवा जिस मार्ग से सात्यकि आगे बढ़े थे, वह वीरों से शून्य तो नहीं हो गया था वहाँ के अधिकांश सैनिक मारे तो नहीं गये थे। संजय! तुम रणक्षेत्र में वृष्णि वंश के वीर सात्यकि के द्वारा किये हुए जिस कर्म की प्रशंसा कर रहे हो, वह कर्म देवराज इन्द्र भी नहीं कर सकते। वृष्णि और अंधक वंश के प्रमुख वीर महामना सात्यकि का वह कर्म अचिन्त्य ( सम्भावना से परे ) है। उस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। उसे सुनकर मेरा मन व्यथित हो उठा है। संजय! जैसा कि तुम बता रहे हो, यदि एक ही सत्य पराक्रमी सात्यकि ने मेरी बहुत सी सेनाओं को धूल में मिला दिया है, तब तो मुझे यह मान लेना चाहिये कि मेरे पुत्र जीवित नहीं हैं। संजय! जब बहुत से महामनस्वी वीर युद्ध कर रहे थे, उस समय अकेले सात्यकि उन्हें पराजित करके कैसे आगे बढ़ गये, यह सब मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! रथ, हाथी, घोड़े और पैदलों से भरा हुआ आपका सेना सम्बन्धी उद्योग महान था। आपके सैनिकों का समाहार प्रलय काल के समान भयंकर जान पड़ता था। मानद! जब आपकी सेना के भिन्न-भिन्न समूह सब ओर से बुलाये गये, उस समय जो महान समुदाय एकत्र हुआ, इसके समान इस संसार में दूसरा कोई समूह नहीं था, ऐसा मेरा विश्वास है। वहाँ आये हुए देवता तथा चारण ऐसा कहते थे कि इस भूतल पर सारे समूहों की अन्तिम सीमा यही होगी। प्रजानाथ! जयद्रथ वध के समय उद्वेलित हुए समुद्रों के जल से जैसा भैरव गर्जन सुनायी देता है, उस रणक्षेत्र में एक दूसरे पर धावा करने वाले सैन्य-समूहों का कोलाहल भी वैसा ही भयंकर था। नरश्रेष्ठ! आपकी और पाण्डवों की सेनाओं में सब ओर से एकत्र हुए भूमिपालों के सैंकड़ों और हजारों दल थे। वे सभी प्रमुख वीर रोषावेष से परिपूर्ण हो समरभूमि में सुदृढ़ पराक्रम कर दिखाने वाले थे। वहाँ उन सबका महान एवं तुमुल कोलाहल रोंगटे खड़े कर देने वाला था। एक दूसरे के प्रति गर्जना करने वाले पाण्डवों तथा कौरवों के सिंहनाद और किल किलाहट के शब्द वहाँ सहस्रों बार प्रकट होते थे। भरतनन्दन! वहाँ नगाड़ों की भयानक गड़गड़ाहट, बाणों की सनसनाहट तथा परस्पर प्रहार करने वाले मनुष्यों की गर्जना के शब्द बड़े जोर से सुनाई दे रहे थे।
माननीय नरेश! तदनन्तर भीमसेन, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव तथा पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने सैनिकों को पुकार कर कहा,
पांडवों ने कहा ;- वीरों! आओ, शत्रुओं पर प्रहार करो। बड़े वेग से इन पर टूट पड़ो; क्योंकि वीर सात्यकि और अर्जुन शत्रुओं की सेना में घुस गये हैं। ‘वे दोनों जयद्रथ का वध करने के लिये जैसे सुख पूर्वक आगे जा सकें, उसी प्रकार शीघ्रता पूर्वक प्रयत्न करो।’ इस तरह उन्होंने सारी सेनाओं को आदेश दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बाद उन्होंने फिर कहा -‘सात्यकि और अर्जुन के न होने पर ये कौरव तो कृतार्थ हो जायेंगे और हम पराजित होंगे। अतः तुम सब लोग एक साथ मिलकर महान वेग का आश्रय ले तुरंत ही इस सैन्य समुद्र में हलचल मचा दो। ठीक वैसे ही जैसे प्रचण्ड वायु महासागर को विक्षुब्ध कर देती है’। राजन! भीमसेन तथा धृष्टद्युम्न के द्वारा इस प्रकार प्रेरित हुए पाण्डव सैनिकों ने अपने प्यारे प्राणों का मोह छोड़ कर युद्ध स्थल में कौरव योद्धाओं का संहार आरम्भ कर दिया। वे उत्तम तेज वाले नरेश स्वर्ग लोक प्राप्त करना चाहते थे। अतः उन्हें युद्ध में शस्त्रों द्वारा मृत्यु आने की अभिलाषा थी।। इसीलिये उन्होंने मित्र का कार्य सिद्ध करने के प्रयत्न में अपने प्राणों की परवा नहीं की। राजन! इसी प्रकार आपके सैनिक भी महान सुयश प्राप्त करना चाहते थे। अतः वे युद्ध विषयक श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय ले वहाँ युद्ध के लिये डटे रहे। जिस प्रकार वह अत्यनत भयंकर घमासान युद्ध चल रहा था, उसी समय सात्यकि आपकी सारी सेनाओं को जीतकर अर्जुन की ओर बढ़ चले। वहाँ वीरों के सुवर्णमय कवचों की प्रभाएँ सूर्य की किरणों से उद्भासित हो युद्ध स्थल में सब ओर खड़े हुए सैनिकों के नेत्रों में चकाचैंध पैदा कर रही थी।
महाराज! इस प्रकार विजय के लिये प्रयत्नशील हुए महामनस्वी पाण्डवों की उस विशाल वाहिनी सेना में राजा दुर्योधन ने प्रवेश किया। भारत! पाण्डव सैनिकों तथा दुर्योधन का वह भयंकर संग्राम समस्त प्राणियों के लिये महान संहारकारी सिद्ध हुआ।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- सूत! जब इस प्रकार सारी सेनाएँ भाग रही थीं, उस समय स्वयं भी वैसे संकट में पड़े हुए दुर्योधन ने क्या उस युद्ध में पीठ नहीं दिखायी ? उस महासमर में बहुत से योद्धाओं के साथ किसी एक वीर का विशेषतः राजा दुर्योधन का युद्ध करना तो मुझे विषम ( अयोग्य ) प्रतीत हो रहा है। अत्यन्त सुख में पला हुआ, इस लोक तथा राज लक्ष्मी का स्वामी अकेला दुर्योधन बहुसंख्यक योद्धाओं के साथ युद्ध करके रणभूमि से विमुख तो नहीं हुआ?
संजय ने कहा ;- भरतवंशी नरेश! आपके एकमात्र पुत्र दुर्योधन का शत्रु पक्ष के बहुसंख्यक योद्धाओं के साथ जो आश्चर्यजनक संग्राम हुआ था, उसे मैं बताता हूँ, सुनिये। दुर्योधन ने समरांगण में पाण्डवों को सब ओर से उसी प्रकार मथ डाला, जैसे हाथी कमलों से भरे हुए किसी पोखरे को। नरेश्वर! आपके पुत्र द्वारा आपकी सेना के आगे बढ़ने के लिये प्रेरित हुई देख भीमसेन को अगुआ बनाकर पाञ्चाल योद्धाओं ने दुर्योधन पर आक्रमण कर दिया। तब दुर्योधन ने पाण्डुपुत्र भीमसेन को दस बाणों से, वीर नकुल और सहदेव को तीन-तीन बाणों से तथा धर्मराज युधिष्ठिर को सात बाणों से घायल कर दिया। तत्पश्चात उसने राजा विराट और द्रुपद को छः छः बाणों से बींध डाला, फिर शिखण्डी को, धृष्टद्युम्न को बीस और द्रौपदी के पुत्रों को तीन-तीन बाणों से घायल किया। तदनन्तर उस रणक्षेत्र में उसने अपने भयंकर बाणों द्वारा दूसरे-दूसरे सैकंड़ों योद्धाओं, हाथियों और रथों को उसी प्रकार काट डाला, जैसे क्रोध में भरा हुआ यमराज समस्त प्राणियों का विनाश करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन ने अपने धनुष को खींचकर मण्डलाकार बना दिया था। वह अपनी शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र से इतनी शीघ्रता के साथ बाणों को धनुष पर रखता, चलाता तथा शत्रुओं का वध करता था कि कोई उसके इस कार्य को देख नहीं पाता था। शत्रुओं के संहार में लगे हुए दुर्योधन के सुवर्णमय पृृष्ठ वाले विशाल धनुष को सब लोग समरांगण में सदा मण्डलाकार हुआ ही देखते थे। कुरुनन्दन! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने दो भल्ल मारकर युद्ध में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले आपके पुत्र के धनुष को काट दिया। और उसे विधि पूर्वक चलाये हुए उत्तम दस बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। वे बाण तुरंत ही उसके कवच में जा लगे और उसे छेदकर धरती में समा गये। इससे कुन्ती कुमारों को बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध होने पर सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियों ने इन्द्र को सब ओर से घेर लिया था, उसी प्रकार पाण्डव भी युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। तत्पश्चात आपके प्रतापी पुत्र ने दूसरा धनुष लेकर ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ ऐसा कहते हुए वहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। उस महासमर में आपके पुत्र को आते देख विजय की अभिलाषा रखने वाले पांचाल सैनिक संघबद्ध हो उसका सामना करने के लिये आगे बढ़े।
उस समय युद्ध में युधिष्ठिर को पकड़ने की इच्छा वाले द्रोणाचार्य ने उन सब योद्धाओं को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे प्रचण्ड वायु द्वारा उड़ाये गये जलवर्षी मेघों को पर्वत रोक देता है। राजन! महाबाहो! फिर तो वहाँ युद्ध स्थल में पाण्डवों तथा आपके सैनिकों में महान रोमान्चकारी संग्राम होने लगा। जो रुद्र की क्रीड़ा भूमि ( श्मशान के सदृश ) सम्पूर्ण देहधारियों के लिये संहार का स्थान बन गया। प्रभो! तदनन्तर जिधर अर्जुन गये थे, उसी ओर बड़े जोर का कोलाहल होने लगा, जो सम्पूर्ण शब्दों के ऊपर उठकर सुनने वालों के रोंगटे खड़े किये देता था। महाबाहो! उस महासमर में कौरवी सेना के भीतर आपके धनुर्धरों की तथा अर्जुन और सात्यकि की भीषण गर्जना सुनायी देती थी। पृथ्वीवते! उस महायुद्ध में व्यूह के द्वार पर शत्रुओं के साथ जूझते हुए द्रोणाचार्य का भी सिंहनाद प्रकट हो रहा था। इस प्रकार अर्जुन, द्रोणाचार्य तथा महारथी सात्यकि के कुपित होने पर युद्ध भूमि में यह भयंकर विनाश का कार्य सम्पन्न हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि का प्रवेश और दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध विषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य के द्वारा बृहत्क्षत्र, धृष्टकेतु, जरासन्ध पुत्र सहदेव तथा धृष्टद्युम्न कुमार क्षत्रधर्मा का वध और चेकितान की पराजय”
संजय कहते हैं ;- महाराज! अपरान्ह काल में सोमकों के साथ द्रोणाचार्य का पुनः महान संग्राम छिड़ गया, जिसमें मेघों की गर्जना के समान गम्भीर सिंहनाद हो रहा था। नरवीर द्रोण लाल घोड़ों वाले रथ पर आरूढ़ हो चित्त को एकाग्र करके मध्यम वेग का आश्रय ले समरभूमि में पाण्डवों पर टूट पड़े। राजन! आपके प्रिय और हित साधन में लगे हुए महाधनुर्धर महाबली उत्तम कलश जन्मा द्रोणाचार्य ने अपने विचित्र पंखों वाले पैने बाणों द्वारा सोमकों, सृजयों तथा केकयों का संहार आरम्भ किया। भरतवंशी नरेश! प्रतापी द्रोणाचार्य मानो उस युद्ध स्थल में प्रधान-प्रधान योद्धाओं को चुन रहे हों, इस प्रकार उनके साथ खेल सा कर रहे थे।
नरेश्वर! उस समय रण कर्कश केकय महारथी बृहत्क्षत्र, जो अपने पाँचों भाइयों में सबसे बड़े थे, द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने गन्धमादन पर्वत पर पानी बरसाने वाले महामेघ के समान पैने बाणों की वर्षा करके आचार्य द्रोणाचार्य को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। महाराज! तब द्रोण ने अत्यन्त कुपित हो सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सोने के पंख वाले पंद्रह बाणों का बृहत्क्षत्र पर प्रहार किया। द्रोणाचार्य के छोड़े हुए रोष भरे विषधर सर्पों के समान उन भयंकर बाणों से प्रत्येक को बृहत्क्षत्र ने युद्ध में पाँच पाँच बाण मारकर प्रसन्नतापूर्वक काट डाला। उनकी इस फुर्ती को देखकर विप्रवर द्रोण ने हँसते हुए झुकी हुई गाँठ वाले आठ बाणों का प्रहार किया। द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए बाणों को शीघ्र ही अपने ऊपर आते देख बृहत्क्षत्र ने उतने ही तीखे बाणों द्वारा उन्हें युद्ध स्थल में काट गिराया। महाराज! इससे आपकी सेना को बड़ा आश्चर्य हुआ।
बृहत्क्षत्र द्वारा किये हुए उस अत्यन्त दुष्कर कर्म को देखकर उनकी अपेक्षा अपनी विशेषता प्रकट करते हुए द्रोणाचार्य ने रणक्षेत्र में परम दुर्जय दिव्य ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। राजेन्द्र! युद्ध भूमि में द्रोणाचार्य के द्वारा चलाये हुए ब्रह्मास्त्र को देखकर केकय नरेश बृहत्क्षत्र ने ब्रह्मास्त्र द्वारा ही उसे शान्त कर दिया। भरतनन्दन! ब्रह्मास्त्र का निवारण हो जाने पर बृहत्क्षत्र ने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सोने के पंखों से युक्त साठ बाणों द्वारा ब्राह्मण द्रोणाचार्य को बेध दिया। तब मनुष्यों में श्रेष्ठ द्रोण ने उन पर नाराच चलाया। वह नाराच बृहत्क्षत्र का कवच विदीर्ण करके धरती में समा गया। नृपश्रेष्ठ! जैसे काला साँप बाँबी में प्रवेश करता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के धनुष से छूटा हुआ यह बाण युद्ध स्थल में केकय राजकुमार बृहत्क्षत्र को विदीर्ण करके पृथ्वी में घुस गया। महाराज! द्रोणाचार्य के बाणों से अत्यन्त घायल हो जाने पर केकय राजकुमार को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी दोनों सुन्दर आँखें फाड़ -फाड़कर देखने लगे। उन्होंने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्ण-पंखयुक्त सत्तर बाणों से द्रोणाचार्य को बींध डाला और एक बाण द्वारा उनके सारथि के मर्मस्थानों में गहरी चोट पहुँचायी। माननीय नरेश! जब बृहत्क्षत्र ने बहुसंख्यक बाणों से द्रोणाचार्य को क्षत-विक्षत कर दिया, तब उन्होंने केकय नरेश के रथ पर तीखे सायकों की वर्षा आरम्भ कर दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
द्रोणाचार्य ने महारथी बृहत्क्षत्र को व्याकुल करके अपने बाणों द्वारा उनके चारों घोड़ों को मार डाला। फिर एक बाण मारकर सारथि को रथ की बैठक के नीचे गिरा दिया और दो बाणों से उनके ध्वज और छत्र को भी पृथ्वी पर काट गिराया। तदनन्तर अच्छी तरह चलाये हुए नाराच से द्विजश्रेष्ठ द्रोण ने बृहत्क्षत्र की छाती को छेद डाला। वक्षःस्थल विदीर्ण होने के कारण बृहत्क्षत्र धरती पर गिर पड़े। बृहत्क्षत्र के मारे जाने पर शिशुपाल के पुत्र धृष्टकेतु ने अत्यन्त कुपित हो अपने सारथि से इस प्रकार कहा,
धृष्टकेतु ने कहा ;- ‘सारथे! जहाँ ये द्रोणाचार्य कवच धारण किये खड़े हैं और समस्त केकयों तथा पांचाल सेना का संहार कर रहे हैं, वहीं चलो’। उनकी वह बात सुनकर सारथि ने काम्बोज देशीय ( काबुली ) वेगशाली घोड़ें द्वारा रथियों मे रेष्ठ धृष्टकेतु को द्रोणाचार्य के निकट पहुँचा दिया। अत्यन्त बल सम्पन्न चेदिराज धृष्टकेतु द्रोणाचार्य का वध करेन के लिये उनकी ओर उसी प्रकार दौड़ा, जैसे फतिंगा आग पर टूट पड़ता है। उसने घोड़े, रथ और ध्वज सहित द्रोणाचार्य को उस समय साठ बाणों से वेध दिया। फिर सोते हुए शेर को पीड़ित करते हुए-से उसने अन्य तीखे बाणों द्वारा भी आचार्य को घायल कर दिया।
तब द्रोणाचार्य ने गीध की पाँख वाले तीखे क्षुरप्र द्वारा विजय के लिये प्रसन्न करने वाले बलवान धृष्टकेतु के धनुष को बीच से ही काट दिया। यह देख महारथी शिशुपाल कुमार ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर कंक और मोर की पाँखों से युक्त बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। द्रोणाचार्य ने चार बाणों से धृष्टकेतु के चारों घोड़ों को मार कर उनके सारथि के भी मस्तक को हँसते हुए-से काटकर धड़ से अलग कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने धृष्टकेतु को पच्चीस बाण मारे। उस समय धृष्टकेतु ने शीघ्रता पूर्वक रथ से कूदकर गदा हाथ में ले ली और रोष में भरी हुई सर्पिणी के समान उसे द्रोणाचार्य पर दे मारा। वह गदा लोहे की बनी हुई और भारी थी। उसमें सोने जड़े हुए थे, उसे उठी हुई कालरात्रि के समान अपने ऊपर गिरती देख द्रोणाचार्य ने कई हजार पैने बाणों से उसके टुकड़े टुकड़े कर दिये। माननीय कौरव नरेश! द्रोणाचार्य द्वारा अनेक बाणों से छिन्न-भिन्न की हुई वह गदा भूतल को निनादित करती हुई धम से गिर पड़ी। अपनी गदा को नष्ट हुई देख अमर्ष में भरे हुए वीर धृष्टकेतु ने द्रोणाचार्य पर तोमर तथा स्वर्णभूषित तेजस्विनी शक्ति का प्रहार किया। द्रोणाचार्य ने तोमर को पाँच बाणों से छिन्न-भिन्न करके पाँच बाणों द्वारा धृष्टकेतु की शक्ति के भी टुकड़े-टुकड़े की दिये। वे दोनों अस्त्र गरुड़ के द्वारा खण्डित किये हुए दो सर्पों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े।
तत्पश्चात अपने वध की इच्छा रखने वाले धृष्टकेतु के वध के लिये प्रतापी द्रोणाचार्य ने समर भूमि में उसके ऊपर एक बाण का प्रहार किया। जैसे हंस कमल वन में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह बाण अमित तेजस्वी धृष्टकेतु के कवच और वक्षःस्थल को विदीर्ण करके धरती में समा गया। जैसे भूखा हुआ नीलकण्ठ छोटे फतिंगे को खा जाता है, उसी प्रकार शूरवीर द्रोणाचार्य ने उस महासमर में धृष्टकेतु को अपने बाणों का ग्रास बना लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)
चेदिराज के मारे जाने पर उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता उसका पुत्र अमर्ष के वशीभूत हो पिता के स्थान पर आकर डट गया। परंतु हँसते हुए द्रोणाचार्य ने उसे भी अपने बाणों द्वारा उसी प्रकार यमलोक पहुँचा दिया, जैसे बलवान महाव्याघ्र विशाल वन में किसी हिरन के बच्चे को दबोच लेता है। राजन! उन पाण्डव योद्धाओं के इस प्रकार नष्ट होने पर जरासंध के वीर पुत्र सहदेव ने स्वयं ही द्रोणाचार्य पर धावा किया। जैसे बादल आकाश में सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार महाबाहु सहदेव ने युद्ध स्थल में अपने बाणों की धाराओं से द्रोणाचार्य को तुरंत ही अदृश्य कर दिया। उसकी वह फुर्ती देखकर क्षत्रियों का संहार करने वाले द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही उस पर सैंकड़ों और सहस्रों बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। इस प्रकार रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य ने सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते रथ पर बैठे हुए रथियों में श्रेष्ठ जरासंध कुमार को अपने बाणों द्वारा आच्छादित करके उसे शीघ्र ही काल के गाल में डाल दिया। जैसे काल आने पर यमराज समस्त प्राणियों को ग्रस लेता है, उसी प्रकार काल के समान द्रोणाचार्य ने जो जो वीर उनके सामने पहुँचा, उसे मौत के हवाले कर दिया।
महाराज! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने युद्ध स्थल में अपना नाम सुनाकर अनेक सहस्र बाणों द्वारा पाण्डव सैनिकों को ढक दिया। द्रोणाचार्य के चलाये हुए वे बाण सान पर चढ़ाकर तेज किये गये थे। उन पर आचार्य के नाम खुदे हुए थे। उन्होंने समर भूमि में सैंकड़ों मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों का संहार कर डाला। जैसे सर्दी से पीड़ित हुई गौएँ थर-थर काँपती हैं और जैसे देवराज इन्द्र की मार खाकर बड़े-बड़े असुर काँपने लगते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के बाणों से विद्ध होकर पांचाल सैनिक काँप उठे। भरतश्रेष्ठ! फिर तो द्रोणाचार्य के द्वारा मारी जाती हुई पाण्डवों की सेनाओं में घोर आर्तनाद होने लगा। भरतनन्दन! उस समय ऊपर से तो सूर्य तपा रहे थे और रणभूमि में द्रोणाचार्य के सायकों की मार पड़ रही थी। उस अवस्था में पाञ्चाल वीर मन ही मन अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो उठे। उस युद्ध स्थल में भरद्वाज नन्दन द्रोणाचार्य के बाण समूहों से आहत होकर पाञ्चाल महारथी मूर्च्छित हो रहे थे। उनकी जाँघें अकड़ गयी थीं।
महाराज! उस समय चेदि, सृंजय, काशी और कोसल प्रदेशों के सैनिक हर्ष और उत्साह में भरकर युद्ध की अभिलाषा से द्रोणाचार्य पर टूट पड़े। ‘द्रोणाचार्य को मार डालो, द्रोणाचार्य को मार डालो’ परस्पर ऐसा कहते हुए चेदि, पांचाल और सृंजय वीरों ने द्रोणाचार्य पर धावा किया। वे पुरुषसिंह वीर समरांगण में महातेजस्वी आचार्य द्रोण को यमराज के घर भेज देने की इच्छा से अपनी सारी शक्ति लगाकर प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार प्रयत्न में लगे हुए उन वीरों को विशेषतः चेदि देश के प्रमुख योद्धाओं को द्रोणाचार्य ने अपने बाणों द्वारा यमलोक भेज दिया। चेदि देश के प्रधान वीर जब इस प्रकार नष्ट होने लगे, तब द्रोणाचार्य के बाणों से पीड़ित हुए पाञ्चाल योद्धा थर-थर काँपने लगे। माननीय भरतनन्दन! वे द्रोण के वैसे पराक्रम को देखकर भीमसेन तथा धृष्टद्युम्न को पुकारने लगे।
और परस्पर कहने लगे - ‘इस ब्राह्मण ने निश्चय ही कोई बड़ी भारी दुष्कर तपस्या की है, तभी तो यह युद्ध में अत्यन्त क्रुद्ध होकर श्रेष्ठ क्षत्रियों को दग्ध कर रहा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचविंशत्यधिकशतकम अध्याय के श्लोक 60-78 का हिन्दी अनुवाद)
‘युद्ध करना तो क्षत्रिय का धर्म है। तप करना ही ब्राह्मण का उत्तम धर्म माना गया है। यह तपस्वी और अस्त्र विद्या का विद्वान ब्राह्मण अपने दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर सकता है’। भारत उस युद्ध में बहुत से क्षत्रिय शिरोमणि वीर अस्त्र रूपी दाहक स्पर्श वाले द्रोणाचार्य रूपी भयंकर एवं दुष्कर अग्नि में प्रविष्ट होकर भस्म हो गये।
पाञ्चाल सैनिक कहने लगे ;- ‘महातेजस्वी द्रोण अपने बल, उत्साह और धैर्य के अनुसार समसत प्राणियों को मोहित करते हुए हमारी सेनाओं का संहार कर रहे हैं’। उनकी यह बात सुनकर क्षत्रधर्मा युद्ध के लिये द्रोणाचार्य के सामने आकर खड़ा हो गया। उस महाबली वीर ने अर्धचन्द्राकार बाण मारकर क्रोध से उद्विग्न मन वाले द्रोणाचार्य के धनुष और बाण को काट दिया। इससे क्षत्रियों का मर्दन करने वाले द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और अत्यन्त वेगशाली तथा प्रकाशमाल दूसरा धनुष हाथ में लेकर उन्होंने एक तीखा बाण अपने धनुष पर रखा, जो शत्रु सेना का विनाश करने वाला था। बलवान आचार्य ने कान तक धनुष को खींचकर उस बाण को छोड़ दिया। वह बाण क्षत्रधर्मा का वध करके धरती में समा गया। क्षत्रधर्मा का हृदय विदीर्ण हो जाने के कारण रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस प्रकार धृष्टद्युम्न कुमार के मारे जाने पर सारी सेनाएँ भय से काँपने लगीं।।
तदनन्तर महाबली चेकितान ने द्रोणाचार्य पर चढ़ाई की। उन्होंने दस बाणों से द्रोण को घायल करके उनकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। साथ ही चार बाणों से उनके सारथियों को और चार ही बाणों द्वारा उनके चारों घोड़ों को भी बींध डाला। तब आचार्य ने उनकी दोनों भुजाओं और छाती में कुल तीन बाण मारे। फिर सात सायकों द्वारा उनकी ध्वजा के टुकड़े टुकड़े करके तीन बाणों से सारथि का वध कर दिया। चेकितान के सारथि के मारे ताने पर वे घोड़े उनका रथ लेकर भाग चले। आर्य! द्रोणाचार्य ने समरांगण में उनके शरीरों को बाणों से भर दिया था। जिनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे, चेकितान के उस रथ को देखकर तथा रणक्षेत्र में एकत्र हुए चेदि, पांचाल तथा सृंजय वीरों पर दृष्टिपात करके द्रोणाचार्य ने उन सबको चारों ओर भगा दिया। आर्य! उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जिनके काल तक के बाल पक गये थे, शरीर की कान्ति श्याम थी तथा जो पचासी ( या चार सौ ) वर्षों की अवस्था के बूढ़े थे, वे द्रोणाचार्य रण क्षेत्र में सोलह वर्ष के नवजवान की भाँति विचर रहे थे।
महाराज! रणभूमि में निर्भय से विचरते हुए शत्रु सूदन द्रोण को शत्रुओं ने वज्रधारी इन्द्र समझा। नरेश्वर! उस समय महाबाहु बुद्धिमान राजा द्रुपद ने कहा,
द्रुपद ने कहा ;- ‘जैसे बाघ छोटे मृग को मारता है, उसी प्रकार यह व्याध-तुल्य ब्राह्मण क्षत्रियों का संहार कर रहा है। ‘दुर्बुद्धि पापी दुर्योधन अत्यन्त कष्टप्रद लोकों में जायगा, जिसके लोभ से इस समरांगण में बहुत से क्षत्रिय शिरोमणि वीर मारे गये हैं। ‘सैंकड़ों योद्धा कटकर गाय - बैलों के समान धरती पर सो रहे हैं। इन सबके शरीर खून से लथपथ हो गये हैं और ये कुत्तों तथा सियारों के भोजन बन गये हैं’। महाराज! ऐसा कहकर एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा द्रुपद ने रण्रक्षेत्र मे कुन्ती के पुत्रों को आगे करके तुरंत ही द्रोणाचार्य पर धावा बोल दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में द्रोण पराक्रम विषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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