सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ सोलहवें अध्याय से एक सौ बीसवें अध्याय तक (From the 116 chapter to the 120 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ सोलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकिका पराक्रम तथा दुर्योधन और कृतवर्माकी पुनः पराजय”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! वे प्रहारकुशल संपूर्ण योद्धा सावधान हो बड़ी फुर्ति के साथ बाण समूहों की वर्षा करते हुए वहाँ युयुधान के साथ युद्ध करने लगे। द्रोणाचार्य ने सात्यकि को सतहत्तर तीखे बाणों से घायल कर दिया। फिर दुर्मर्षण ने बारह और दुःसह ने दस बाणों से उन्हें बींध डाला। तत्पश्चात विकर्ण ने भी कंक की पांख वाले तीस तीखे बाणों से सात्यकि की बायीं पसली और छाती छेद डाली। आर्य तदनंतर दुर्मुख ने दस, दुःशासन ने आठ और चित्रसेन ने दो बाणों से सात्यकि को घायल कर दिया। राजन! उस रणक्षेत्र में दुर्योधन तथा अन्य शूरवीर महारथियों ने भारी बाण-वर्षा करके सात्यकि को पीड़ित कर दिया। आपके महारथी पुत्रों द्वारा सब ओर से घायल किये जाने पर वृष्णिवंशी वीर सात्यकि ने उन सबको पृथक-पृथक अपने बाणों से बींधकर बदला चुकाया। उन्होंने द्रोणाचार्यको तीन, दुःसह को नौ, विकर्ण को पच्चीस, चित्रसेन को सात, दुर्मर्षण को बारह, विविंशति को आठ, सत्यव्रत को नौ तथा विजय को दस बाणों से घायल किया।

     तदनंतर महारथी सात्यकि ने सोने के अंगद से विभूषित अपने विशाल धनुष को हिलाते हुए तुरंत ही आपके महारथी पुत्र दुर्योधन पर आक्रमण किया। सब लोगों के राजा और समस्त संसार के विख्यात महारथी दुर्योधन को उन्होंने अपने बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। फिर तो उन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। उन दोनों महारथियों ने समरभूमि में बाणों का संधान और तीखे बाणों का प्रहार करते हुए एक दूसरे को अदृश्य कर दिया। सात्यकि कुरुराज दुर्योधन के बाणों से बिंधकर अधिक मात्रा में रक्त बहाने लगे। उस समय वे अपना रक्त बहाते हुए लाल चन्दनवृक्ष के समान अधिक शोभा पा रहे थे। सात्यकि के बाणसमूहों से घायल होकर आपका पुत्र दुर्योधन सुवर्णमय मुकुट धारण किये ऊँचे यूप के समान सुशोभित हो रहा था। राजन! रणक्षेत्र में सात्यकि ने धनुर्धर दुर्योधन के धनुष को एक क्षुरप्र द्वारा हँसते हुए से काट दिया। धनुष कट जाने पर उन्होंने बहुत-से बाण मारकर दुर्योधन के शरीर को चुन दिया। शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले अपने शत्रु सात्यकि के बाणों द्वारा विदीर्ण होकर राजा दुर्योधन रणभूमि में विपक्षी के उस विजयसूचक पराक्रम को सह न सका।

     उसने सोने कि पीठ वाले दूसरे दुर्धुर्ष धनुषको लेकर शीघ्र ही सौ बाणों से सात्यकि को घायल कर दिया। आपके बलवान और धनुर्धर पुत्र के द्वारा अत्यंत घायल किये जाने पर सात्यकि ने भी अमर्ष के वशीभूत होकर आपके पुत्र को बड़ी पीड़ा दी। राजा को पीड़ित देखकर आपके अन्य महारथी पुत्रों ने बलपूर्वक बाणों की वर्षा करके सात्यकि को आच्छादित कर दिया। आपके बहुसंख्यक महारथी पुत्रों द्वारा बाणों से आच्छादित किये जाने पर सात्यकि ने उनमें से एक-एक को पहले पाँच-पाँच बाणों से घायल किया। फिर सात-सात बाणों से बींध डाला। तत्पश्चात तुरंत ही आठ शीघ्रगामी बाणों द्वारा दुर्योधन को भी गहरी चोट पहुँचायी। इसके बाद युयुधान ने हँसते हुए ही दुर्योधन के शत्रु-भीषण धनुष को और मणिमय नाग से चिह्नित ध्वज को भी बाणों द्वारा काट गिराया। फिर चार तीखे बाणों से उसके चारों घोड़ों को मारकर महायशस्वी सात्यकि ने क्षुरप्र द्वारा उसके सारथी को भी मार गिराया। तदनंतर हर्ष में भरे हुए सात्यकि ने महारथी कुरुराज दुर्योधन पर बहुत-से मर्मभेदी बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। राजन! सात्यकि के श्रेष्ठ बाणों द्वारा समरांगण में क्षत-विक्षत होकर आपका पुत्र दुर्योधन सहसा भागा और धनुर्धर चित्रसेन के रथ पर जा चढ़ा। जैसे आकाश में राहु चंद्रमा पर ग्रहण लगाता है, उसी प्रकार सात्यकि द्वारा राजा दुर्योधन को ग्रस्त होते देख वहाँ सब लोगों में हाहाकार मच गया। उस कोलाहल को सुनकर महारथी कृतवर्मा सहसा वहीं आ पहुँचा, जहाँ शक्तिशाली सात्यकि खड़े थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 27-46 का हिन्दी अनुवाद)

     वह अपने श्रेष्ठ धनुष को कँपाता, घोड़ों को हाँकता और ‘आगे बढ़ो, जल्दी चलो’ कहकर सारथि को फटकारता हुआ वहाँ आया। महाराज! मुँह बाये हुए काल के समान कृतवर्मा को वहाँ आते देख युयुधान ने अपने सारथि से कहा,

   युयुधान ने कहा ;- ‘सूत, यह कृतवर्मा बाण लेकर रथ के द्वारा तीव्र वेग से आ रहा है। यह संपूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ है। तुम रथ के द्वारा इसकी अगवानी करो’। तदनन्‍तर सात्यकि विधिपूर्वक सजाये गए तेज घोड़ों-वाले रथ के द्वारा रणभूमि में धनुर्धरों के आदर्शभूत कृतवर्मा के पास जा पहुँचे। तत्पश्चात प्रज्वलित पावक और वेगशाली व्याघ्रों के समान वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर अत्यंत कुपित हो एक दूसरे से भिड़ गए। कृतवर्मा ने सात्यकि पर तेज धार वाले छब्बीस तीखे बाण चलाये और पाँच बाणों द्वारा उनके सारथी को भी घायल कर दिया। इसके बाद चार उत्तम बाण मारकर उसने सात्यकि के सुशिक्षित एवं विनीत चारों सिंघी घोड़ों को भी बींध डाला। तदनंतर सोने के केयूर और सोने के ही कवच धारण करने वाले सुवर्णमय ध्वजा से सुशोभित कृतवर्मा ने सोने की पीठ वाले अपने विशाल धनुष की टंकार करके स्वर्णमय पंख वाले बाणों से सात्यकि को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब शिनीपौत्र सात्यकि ने बड़ी उतावली के साथ मन में अर्जुन के दर्शन की कामना लिए वहाँ कृतवर्मा को अस्सी बाण मारे।

     शत्रुओं को संताप देने वाला दुर्धर्ष वीर कृतवर्मा अपने बलवान शत्रु सात्यकि के द्वारा अत्यंत घायल होकर उसी प्रकार काँपने लगा, जैसे भूकम्प के समय पर्वत हिलने लगता है। तत्पश्चात सत्यपराक्रमी सात्यकि ने तिरसठ बाणों से उसके चारों घोड़ों को और सात तीखे बाणों से उसके सारथी को भी शीघ्र ही क्षत-विक्षत कर दिया। अब सात्यकि ने अपने धनुष पर सुवर्णमय पंख वाले अत्यंत तेजस्वी बाण का संधान किया, जो क्रोध में भरे हुए सर्प के समान प्रतीत होता था। उस बाण को उन्होंने कृतवर्मा पर छोड़ दिया। सात्यकि का वह बाण यमदण्ड के समान भयंकर था। उसने कृतवर्मा के सुवर्णजटित चमकीले कवच को छिन्न-भिन्न करके उसे गहरी चोट पहुँचायी तथा खून से लथपथ होकर वह धरती में समा गया। युद्धस्थल में सात्यकि के बाणों से पीड़ित हो कृतवर्मा खून की धारा बहाता हुआ धनुष-बाण छोडकर उस उत्तम रथ से उसके पिछले भाग में गिर पड़ा। सिंह के समान दांतों वाला अमितपराक्रमी नरश्रेष्ठ कृतवर्मा सात्यकि के बाणों से पीड़ित हो घुटनों के बल से रथ की बैठक में गिर गया।

     सहस्रबाहु अर्जुन के समान दुर्जय तथा महासागर के समान अक्षोभ्य कृतवर्मा को इस प्रकार पराजित करके सात्यकि वहाँ से आगे बढ़ गए। जैसे वृत्रनाशक इन्द्र असुरों की सेना को लांघकर जा रहे हों, उसी प्रकार शिनिप्रवर सात्यकि संपूर्ण सैनिकों के देखते-देखते उनके बीच से होकर उस सेना का परित्याग करके चल दिये। उस कौरव सेना में सैकड़ों क्षत्रियशिरोमणियों ने भयानक रक्त की धारा बहा दी थी। वहाँ हाथी, घोड़े तथा रथ खचाखच भरे हुए थे और खंग, शक्ति एवं धनुष सब ओर व्याप्त थे। उधर बलवान कृतवर्मा आश्वस्त होकर दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर युद्धस्थल में पांडवों का सामना करता हुआ वहीं खड़ा रहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिके कौरव-सेना में प्रवेश के पश्चात् दुयोंवन और कृतवर्माकी पराजयविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ सत्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि और द्रोणाचार्यका युद्ध, द्रोणकी पराजय तथा कौरव-सेनाका पलायन”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! जब सात्यकि जहाँ-तहाँ जा-जाकर आपकी सेनाओं को काल के गाल में भेजने लगे, तब भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य ने उन पर महान बाणसमूहों की वर्षा प्रारंभ कर दी। राजन! संपूर्ण सैनिकों के देखते-देखते बलि और इंद्र के समान द्रोणाचार्य और सात्यकि का वह युद्ध बड़ा भयंकर हो गया। उस समय द्रोणाचार्य ने संपूर्णतः लोहे के बने हुए विचित्र तथा विषधर सर्प के समान भयंकर तीन बाणों द्वारा शिनीपौत्र सात्यकि के ललाट में गहरा आघात किया। महाराज! ललाट में धँसे हुए उन सीधे जाने वाले बाणों के द्वारा दुर्योधन तीन शिखरों वाले पर्वत के समान सुशोभित हुए। द्रोणाचार्य अवसर देखते रहते थे। उन्होंने मौका पाकर इंद्र के वज्र की भाँति भयंकर शब्द करने वाले और भी बहुत-से बाण युद्धस्थल में सात्यकि पर चलाये। द्रोणाचार्य के धनुष से छूटकर गिरते हुए उन बाणों को दर्शाहकुलनंदन परमास्त्रवेत्ता सात्यकि ने उत्तम पंखों से युक्त दो-दो बाणों द्वारा काट डाला। प्रजानाथ! सात्यकि की वह पूर्ति देखकर द्रोणाचार्य हंस पड़े। उन्होंने सहसा तीस बाण मारकर शिनिप्रवर सात्यकि को घायल कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने दुर्योधन की फुर्ती को अपनी फुर्ती से मंद सिद्ध करते हुए तेजधार वाले पचास बाणों द्वारा पुनः उन्हें घायल कर दिया।

     राजन! जैसे बांबी से क्रोध में भरे हुए बहुत-से सर्प प्रकट होते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के रथ से शरीर को छेद डालने वाले बाण प्रकट होकर वहाँ सब ओर गिरने लगे। उसी प्रकार दुर्योधन के चलाये हुए लाखों रुधिरभोजी बाण द्रोणाचार्य के रथ पर बरसने लगे। माननीय नरेश! हाथों की फुर्ती की दृष्टि से द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य और सात्यकि में हमें कोई अन्तर नहीं जान पड़ा था। वे दोनों ही नरश्रेष्ठ समान प्रतीत होते थे। तदनंतर सात्यकि ने अत्यंत कुपित हो झुकी हुई गाँठ वाले नौ बाणों द्वारा द्रोणाचार्य पर गहरा आघात किया तथा तीखे बाणों से उनके ध्वज को भी चोट पहुँचायी। तत्पश्चात द्रोण के देखते-देखते सात्यकि ने सौ बाणों से उनके सारथी को भी घायल कर दिया। दुर्योधन की यह फुर्ती देखकर महारथी द्रोण ने सत्तर बाणों से सात्यकि के सारथी को बींधकर तीन-तीन बाणों से उनके घोड़ों को भी घायल कर दिया। फिर एक बाण से सात्यकि के रथ पर फहराते हुए ध्वज को भी काट डाला। इसके बाद सुवर्णमय पंख वाले दूसरे भल्ल से आचार्य ने समरांगण में महामनस्वी सात्यकि के धनुष को भी खंडित कर दिया। इससे महारथी सात्यकि को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धनुष त्यागकर विशाल गदा हाथ में ले ली और उसे द्रोणाचार्य पर दे मारा। वह लोहे की गदा रेशमी वस्त्र से बंधी हुई थी। उसे सहसा अपने ऊपर आती देख द्रोणाचार्य ने अनेक रूप वाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा उसका निवारण कर दिया। तब सत्यापराक्रमी सात्यकि ने दूसरा धनुष लेकर सान पर तेज किये हुए बहुसंख्यक बाणों द्वारा वीर द्रोणाचार्य को बींध डाला। इस प्रकार समरांगण में द्रोण को घायल करके सात्यकि ने सिंह के समान गर्जना की। उसे सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य सहन न कर सके।

    उन्‍होंने सोने की डंडे वाली लोहे की शक्ति लेकर उसे सात्‍यकि के रथ पर बड़े वेग से चलाया। वह काल के समान विकराल शक्ति सात्‍यकि तक न पहुँचकर उनके रथ को विदीर्ण कर‍के भयंकर शब्‍द करती हुई पृथ्‍वी में समा गयी। राजन। भरतश्रेष्ठ। तब शिनि के पौत्र ने एक बाण से द्रोणाचार्य की दाहिनी भुजा पर चोट करके उसे पीड़ा देते हुए आचार्य को घायल कर दिया। नरेश्वर! तब समरभूमि में द्रोणाचार्य ने भी सात्‍यकि के विशाल धनुष को अर्द्धचन्‍द्राकार बाण से काट दिया तथा रथ शक्ति का प्रहार करके सारथि को भी गहरी चोट पहुँचायी। द्रोण की शक्ति से आहत हो सारथि मूर्च्छित हो गया। वह रथ की बैठक में पहुँचकर वहाँ दो घड़ी तक चुपचाप बैठा रहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)

    महाराज! उस समय सात्‍यकि ने लोकोत्तर सारथ्‍य कर्म कर दिखाया। वे द्रोणाचार्य से युद्ध भी करते रहे और स्‍वयं ही घोड़ों की बागडोर भी संभाले रहे। प्रजानाथ! उस युद्धस्‍थल में महारथी सात्‍यकि ने हर्ष में भरकर विप्रवर द्रोणाचार्य को सौ बाणों से घायल कर दिया। भारत! फिर द्रोणाचार्य ने सात्‍यकि पर पांच बाण चलाये। वे भयंकर बाण उस रणक्षेत्र में सात्‍यकि का कवच फाड़कर उनका लोहू पीने लगे। उन भयंकर बाणों से क्षत-विक्षत होकर वीर सात्‍यकि को बड़ा क्रोध हुआ। उन्‍होंने सुवर्णमय रथ वाले द्रोणाचार्य पर बाणों की झड़ी लगा दी। एक बाण से युयुधान ने द्रोणाचार्य के सारथि को धरती पर गिरा दिया और सारथिहीन घोड़ों को अपने बाणों से इधर-उधर मार भगाया। राजन! वह चांदी का बना हुआ रथ[1] युद्ध स्‍थल में दौड़ लगाता हुआ हजारों चक्कर काटता रहा। उस समय उसकी अंशुमाली सूर्य के समान शोभा हो रही थी। उस समय समस्‍त राजा और राजकुमार पुकार पुकारकर कहने लगे-‘अरे! दौड़ो! द्रोणाचार्य के घोड़ों को पकड़ो’।

     नरेश्वर! उस युद्धस्‍थल में वे सभी महारथी शीघ्र ही सात्‍यकि का सामना छोड़कर जहाँ द्रोणाचार्य थे, वही सहसा भाग गये। सात्‍यकि के बाणों से पीड़ित हो उन सबको युद्ध स्‍थल से पलायन करते देख आपकी संगठित हुई सारी सेना पुन: भाग खड़ी हुई। द्रोणाचार्य पुन: व्‍यूह के ही द्वार पर जाकर खड़े हो गये। सात्‍यकि के बाणों से पीड़ित होकर वायु के समान वेग से भागने वाले उनके घोड़ों ने ही उन्‍हें वहा पहुँचा दिया। पराक्रमी द्रोण ने अपने व्‍यूह को पाण्‍डवों और पांचालों द्वारा भंग हुआ देख सात्‍यकि को रोकने का प्रयत्न छोड़ दिया। वे पुन: व्‍यूह की ही रक्षा करने लगे। क्रोधरुपी ईधन से प्रज्‍वलित हुई द्रोणरुपी अग्नि पाण्‍डवों और पांचालों को रोककर सबको दग्‍ध करती हुई सी खड़ी हो गयी और प्रलय काल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होने लगी।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में सात्‍यकि का कौरव सेना में प्रवेश तथा पराक्रमी विषयक एक सौ सत्रहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि द्वारा सुदर्शन का वध”

    संजय कहते हैं ;- कुरुवंशशिरोमणे! द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा आदि आपके प्रमुख महारथियों को जीतकर नरवीर सात्‍यकि ने अपने सारथि से हंसते हुए कहा,

   सात्यकि ने कहा ;- ‘सारथे। इस विजय में आज हम लोग तो निमित्तमात्र हो रहे हैं। वास्‍तव में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने ही हमारे इन शत्रुओं को दग्‍ध कर दिया है। देवराज के पुत्र नरश्रेष्‍ठ अर्जुन के मारे हुए सैनिकों को ही हम लोग यहाँ मार रहे है’। उस महासमर में सारथि से ऐसा कहकर धनुर्धरशिरोमणि शत्रुसूदन शिनिप्रवर बलवान सात्‍यकि ने सहसा सब ओर बाणों की वर्षा करते हुए शत्रुओं पर उसी प्रकार आक्रमण किया, जैसे बाज मांस के टुकड़े पर झपटता है। सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान रथियों में श्रेष्ठ नरवीर सात्‍यकि आपकी सेना में घुसकर चन्द्रमा और शंख के समान शवेतवर्ण वाले घोड़ों द्वारा आगे बढ़ते चले जा रहे थे। उस समय किसी ओर से कोई योद्धा उन्‍हें रोक न सके। भारत! सात्‍यकि का पराक्रम असह्म था। अनका धैर्य और बल महान था। वे इन्‍द्र के समान प्रभावशाली तथा आकाश में प्रकाशित होने वाले शरत्‍काल के सूर्य के समान प्रचण्‍ड तेजस्‍वी थे। आपके समस्‍त सैनिक मिलकर भी उन्‍हें रोक न सके। उस समय अत्‍यन्‍त विचित्र युद्ध करने वाले, सुवर्ण-कवचधारी धनुर्धर नृपश्रेष्ठ सुदर्शन ने अपनी ओर आते हुए सात्‍यकि को अमर्ष भरकर बलपूर्वक रोका।

      भारत! उन दोनों वीरों में बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। जैसे देवगण वृत्रासुर और इन्‍द्र के युद्ध की गाथा गाते हैं, उसी प्रकार आपके योद्धाओं तथा सोमकों ने भी उन दोनों के उस युद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजन सुदर्शन ने समरांगण में सात्‍वतशिरोमणि सात्‍यकि पर सैकड़ों सुतीक्ष्‍ण बाणों द्वारा प्रहार किया; परंतु शिनिप्रवर सात्‍यकि ने उन बाणों को अपने पास आने से पहले ही काट डाला। इसी प्रकार इन्‍द्र के समान पराक्रमी सात्‍यकि भी सुदर्शन पर जिन-जिन बाणों का प्रहार करते थे, श्रेष्ठ रथ पर बैठे हुए सुदर्शन भी अपने उत्तम बाणों द्वारा उन सबके दो-दो तीन तीन टुकड़े कर देते थे। उस समय सात्‍यकि के वेगशाली बाणों द्वारा अपने चलाये हुए बाणों को नष्‍ट हुआ देख प्रचण्‍ड तेजस्‍वी राजा सुदर्शन ने क्रोध से उन्‍हें जला डालने की इच्‍छा रखते हुए से सुवर्ण जटित विचित्र बाणों का उन पर प्रहार आरम्‍भ किया। फिर उन्‍होंने अग्नि के समान तेजस्‍वी तथा कान तक खींचकर छोड़े हुए सुन्‍दर पंख वाले तीन तीखे बाणों से सात्‍यकि को बींध दिया। वे बाण सात्‍यकि का कवच विदीर्ण करके उनके शरीर में समा गये।

     तत्‍पश्चात उन राजकुमार सुदर्शन ने अन्‍य चार तेजस्‍वी बाणों का संधान कर‍के उनके द्वारा चांदी के समान चमकने वाले सात्‍यकि के उन चारों घोड़ों को भी बलपूर्वक घायल कर दिया। सुदर्शन के द्वारा घायल होने पर इन्‍द्र के समान बलवान और वेगशाली शिनिपौत्र सात्‍यकि ने अपने सुतीक्षण बाण समूहों से सुदर्शन के अश्वों का शीघ्र ही संहार करके उच्चस्‍वर से सिंहनाद किया। राजन तत्‍पश्चात इन्‍द्र के ब्रजतुल्‍य भल्ल से उनके सारथि का सिर काटकर शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्‍यकि ने कालाग्रि के समान तेजस्‍वी छुरे से सुदर्शन के पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशमान शोभाशाली कुण्‍डमण्डित मस्‍तक को भी धड़ से काट गिराया। ठीक उसी प्रकार, जैसे पूर्वकाल में ब्रजधारी इन्‍द्र ने समरांगण में अत्‍यन्‍त बलवान बलासुर का सिर बलपूर्वक काट लिया था। नरेश्वर! राजा के पुत्र एवं पौत्र सुदर्शन का रणभूमि में वध करके यदुकुलतिलक देवेन्‍द्र सदृश पराक्रमी वेगशाली महामनस्‍वी सात्‍यकि अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर विजयश्री से सुशोभित होने लगे। राजन! तदनन्‍तर लोगों को आश्चर्यचकित करने की इच्‍छा वाले नरवीर सात्‍यकि अपने सुन्‍दर अश्वों से जुते हुए रथ के द्वारा बाण समूहों से आपकी सेना को हटाते हुए उसी मार्ग से चल दिये, जिससे अर्जुन गये थे। उनके उस आश्चर्यजनक उत्तम पराक्रमी की वहाँ एकत्र हुए समस्‍त योद्धाओं ने बड़ी प्रशंसा की। सात्‍यकि अपने बाणों के पथ में आये हुए शत्रुओं को उन बाणों द्वारा अग्रिदेव- के समान दग्‍ध कर रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवधपर्व में सुदर्शनवधविषयक एक सौ अठारहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि और उनके सारथि का संवाद तथा सात्‍यकि द्वारा काम्‍बोजों और यवन आदि की सेना की पराजय”

  संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्‍तर वृष्णिवंशावतंस बुद्धिमान महामनस्‍वी सात्‍यकि ने युद्ध में सुदर्शन को मारकर सारथि से फिर इस प्रकार कहा,
   सात्यकि ने कहा ;- ‘तात! रथ, घोड़े और हाथियों से भरी हुई द्रोणाचार्य की सेना महासागर के समान थी। उसमें बाण और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्र तरंगमालाओं के समान प्रतीत होते थे। खंग मत्‍स्‍य के समान और गदा ग्राह के तुल्‍य थी। शूरवीरों के आयुधों के प्रहार से महान शब्‍द होता था, वही मानो महा-सागर का भयानक गर्जन था। बाजे बजाने की ध्‍वनि और वीरों के ललकारने की आवाज से उस गर्जन का स्‍वर और भी बढ़ा हुआ था। योद्धाओं के लिये उसका स्‍पर्श अत्‍यन्‍त दु:ख दायक था। जो विजय की अभिलाषा नहीं रखते, ऐसे लोगों के लिये वह प्राणनाशक भयंकर सैन्‍य-समुद्र दुर्घर्ष था। युद्धस्‍थल में खड़ी हुई जलसंध की सेना ने उसे राक्षसों के समान घेर रखा था। उस दुस्‍तर सेना-सागर से हम लोग पार हो गये हैं। उससे भिन्न जो शेष सेना है, उसे मैं सुगमतापूर्वक लांघने योग्‍य थोड़े जलवाली छोटी नदी के समान समझता हूँ। अत: तुम निर्भय होकर घोड़ों को आगे बढ़ाओ। सेवकों सहित दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्य को युद्ध स्‍थल में जीतकर मैं ऐसा मानता हूँ कि इस समय सव्‍यसाची अर्जुन हमारे हाथ में ही आ गये हैं। योद्धाओं में श्रेष्ठ कृतवर्मा को पराजित करके मैं ऐसा समझता हूँ कि अर्जुन मुझे मिल गये। जैसे सूखे तृण और लता वाले वन में प्रज्‍वलित हुई अग्‍नि के लिये कहीं कोई बाधा नहीं रहती, उसी प्रकार मुझे इन अनेक सेनाओं को देखकर तनिक भी त्रास नहीं हो रहा है। देखो, पाण्‍डवप्रवर किरीटधारी अर्जुन जिस मार्ग से गये हैं, वहाँ की भूमि धराशायी हुए पैदलों, घोड़ों, रथों और हाथियों के समुदाय से विषम एवं दुर्लंघ्य हो गयी है।
      सारथे। उन्‍हीं महात्‍मा अर्जुन की खदेड़ी हुई वह सेना इधर-उधर भाग रही है। दौड़ते हुए रथों, हाथियों और घोड़ों से लाल रेशम के समान यह धूल ऊपर को उठ रही है। इससे मैं समझता हूँ कि श्रीकृष्‍ण जिनके सारथि हैं, वे श्‍वेतवाहन अर्जुन हमारे निकट ही हैं, तभी यह अमित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष की टंकार सुनायी दे रही है। इस समय मेरे सामने जैसे शुभ शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे जान पड़ता है अर्जुन सूर्यास्‍त होने के पहले ही जयद्रथ को मार डालेंगे। सूत। धीरे-धीरे घोड़ों को आराम देते हुए उस ओर चलो, जहाँ वह शत्रुसेना खड़ी है, जहाँ ये तलत्राण धारण किये दुर्योधन आदि योद्धा उपस्थित हैं। जहाँ कवच धारण किये रणदुर्मद क्रूरकर्मा काम्‍बोज, धनुष-बाण धारण किये प्रहार कुशल यवन, शक, किरात, दरद, बर्बर, ताम्रलिप्‍त तथा हाथों में भाँति-भाँति के आयुध धारण किये अन्‍य बहुत से म्‍लेच्‍छ ये सबके सब जहाँ दुर्योधन को अगुआ बनाकर दस्‍ताने पहने युद्ध की इच्‍छा से मेरी ओर मुंह करके खड़े हैं, वहीं चलो। इन सबको युद्धस्‍थल में रथ, हाथी, घोड़े और पैदलों सहित मार लेने पर निश्चित रुप से समझ लो कि हमलोग इस अत्‍यन्‍त भयंकर दुर्गम सकंट से पार हो गये। सारथि ने कहा- 'सत्‍यपराक्रमी वृष्णिनन्‍दन! आपके सामने क्रोध में भरे हुए जमदग्रिनन्‍दन परशुराम भी खड़े हो जायं तो मुझे भय नहीं होगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)

     महाबाहो! रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अथवा मद्रराज शल्‍य ही क्‍यों न खड़े हों, तथापि आपके आश्रित रहकर मुझे कदापि भय नहीं हो सकता। शत्रुसूदन! आपके पहले भी युद्ध में बहुतेरे कवचधारी, क्रूरकर्मा रणदुर्मद काम्‍बोजों को परास्‍त किया है। धनुष-बाण धारण करने वाले प्रहार कुशल यवनों को जीता है। शकों, किरातों, दरदों, बर्बरों, ताम्रलिप्‍तों तथा हाथों में नाना प्रकार के आयुध लिये अन्‍य बहुत से म्‍लेच्‍छों को पराजित किया है। इन अवसरों पर पहले कभी कोई किसी प्रकार का भय नहीं हुआ था। फिर इस गाय की खुर के समान तुच्‍छ युद्धस्‍थल में आकर क्‍या भय हो सकता है आयुष्‍मन्! बताइये, इन दो मार्गों में से किसके द्वारा आपको अर्जुन के पास पहुँचाऊं। वार्ष्‍णेय! आप किनके ऊपर क्रुद्ध हैं, किनकी मौत आ गयी है किनका मन आज यमपुरी में जाने के लिये उत्‍साहित हो रहा है। युद्ध में काल, अन्‍तक और यम के समान पराक्रम दिखाने वाले आप जैसे बल विक्रमसम्‍पन्न वीर को देखकर आज कौन कौन से योद्धा मैदान छोड़कर भागने वाले हैं महाबाहो! आज राजा यम किनका स्‍मरण कर रहे हैं।'
     सात्‍यकि बोले ;- 'सूत! जैसे इन्‍द्र दानवों का वध करते हैं, उसी प्रकार आज मैं इन मथमुंडे काम्‍बोजों का ही वध करुंगा और ऐसा करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर लूंगा। अत: तुम उन्‍हीं की ओर मुझे ले चलो। इन सबका संहार करके ही आज मैं अपने प्रिय सुहृद पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के पास चलूंगा। आज दुर्योंधन सहित समस्‍त कौरव मेरा पराक्रम देखेंगे। सूत! आज इन सिरमुण्‍डों के मारे जाने तथा अन्‍य सारी सेनाओं का बारंबार विनाश होने पर युद्ध स्‍थल में छिन्न-भिन्न होती हुई कौरव सेना का नाना प्रकार से आर्तनाद सुनकर दुर्योधन को बड़ा संताप होगा। आज रणक्षेत्र में मैं अपने आचार्य पाण्‍डवप्रवर शवेत वाहन माहात्‍मा अर्जुन के प्रकट किये हुए मार्ग को दिखाऊंगा। आज मेरे बाणों से अपने सहस्‍त्रों प्रमुख योद्धाओं को मारा गया देखकर राजा दुर्योधन अत्‍यन्‍त पश्चाताप करेगा। आज शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाकर उत्तम बाणों का प्रहार करते हुए मेरे धनुष को कौरव लोग अलातचक्र के समान देखेंगे। मैं अपने बाणों से सारे कौरवसैनिकों का शरीर व्‍याप्‍त कर दूंगा और वे बारंबार रक्त बहाते हुए प्राण त्‍याग देंगे। इस प्रकार अपने सैनिकों का संहार देखकर सुयोधन संतप्‍त हो उठेगा। आज क्रोध में भरकर मैं कौरव सेना के उत्तमोत्तम वीरों को चुन-चुनकर मारुंगा, जिससे दुर्योधन को यह मालूम होगा कि अब संसार में दो अर्जुन प्रकट हो गये हैं। आज महासमर में मेरे द्वारा सहस्‍त्रों राजाओं का विनाश देखकर राजा दुर्योधन को बड़ा संताप होगा। आज सहस्‍त्रों राजाओं का संहार करके मैं इन राजाओं के समाज में महात्‍मा पाण्‍डवों के प्रति अपने स्‍नेह और भक्ति का प्रदर्शन करुंगा। अब कौरवों को मेरे बल, पराक्रम और कृतज्ञता का परिचय मिल जायगा। 
     संजय कहते हैं ;- राजन! सात्‍यकि के ऐसा कहने पर सारथि ने चन्‍द्रमा के समान श्‍वेत वर्ण वाले उन घोड़ों को, जो सुशिक्षित और अच्‍छी प्रकार सवारी काम देने वाले थे, बड़े वेग से हांका। मन और वायु के समान वेग वाले उन उत्तम घोड़ों ने आकाश को पीते हुए से चलकर युयुधान को शीघ्र ही यवनों के पास पहुँचा दिया। युद्ध में कभी पीछे ने हटने वाले सात्‍यकि को अपनी सेनाओं के बीच पाकर शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले बहुतेरे यवनों ने उनके ऊपर बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-55 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन! वेगशाली सात्‍य‍कि ने झुकी हुई गांठ वाले अपने बाणों द्वारा उन सबके बाणों तथा अन्‍य अस्त्रों को काट गिराया। वे बाण उनके पास तक पहुँच न सके। उन भयंकर वीर ने सब ओर घूम-घूमकर सोने के पुंख और गीध की पांख वाले तीखे बाणों यवनों के मस्‍तक, भुजाएं तथा लाल लोहे एवं कांस के बने हुए कवच भी काट डाले। वे बाण उनके शरीरों को विदीर्ण करके पृथ्‍वी में घुस गये। वीर सात्‍यकि द्वारा रणभूमि में आहत होकर सैकड़ों म्‍लेच्‍छ प्राण त्‍यागकर धराशायी हो गये। वे कान तक खींचकर छोड़े हुए और अविच्छिन्न गति से परस्‍पर सटकर निकलते हुए बाणों द्वारा पांच, छ: सात और आठ यवनों को एक ही साथ विदीर्ण कर डालते थे। प्रजानाथ! सात्‍यकि ने आपकी सेना का संहार करते हुए वहाँ की भूमि को सहस्‍त्रों काम्‍बोजों, शकों, शबरों, किरातों और बर्बरों की लाशों से पाटकर अगम्‍य बना दिया था।
        वहाँ मांस और रक्त की कीच जम गयी थी। उन लुटेरों के लंबी दाढ़ी वाले शिरस्‍त्राण युक्त मुण्डित मस्‍तकों से आच्‍छादित हुई रणभूमि पंखहीन पक्षियों से व्‍याप्‍त हुई सी जान पड़ती थी। जिनके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे, उन कबन्‍धों से भरा हुआ वह सारा रणक्षेत्र लाल रंग के बादलों से ढके हुए आकाश के समान जान पड़ता था। वज्र और विद्युत के समान कठोर स्‍पर्श वाले सुन्‍दर पर्व युक्त बाणों द्वारा सात्‍यकि के हाथ से मारे गये उन यवनों ने वहाँ की भूमि को अपनी लाशों से ढक लिया।
      महाराज। थोड़े से यवन शेष रह गये थे, जो बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाये हुए थे। वे अपने समुदाय से भ्रष्‍ट होकर अचेत-से हो रहे थे। उन सभी कवचधारी यवनों को युयुधान ने युद्धस्‍थल में जीत लिया था। वे हाथों और कोड़ों से अपने घोड़ों को पीटते हुए उत्तम वेग का आश्रय ले चारों ओर भय के मारे भाग गये। भरतनन्‍दन! उस रणक्षेत्र में दुर्जय काम्‍बोज सेना को, यवन सेना को तथा शकों की विशाल वाहि‍नी को खदेड़कर सत्‍यपराक्रमी पुरुषसिंह सात्‍यकि आपके सैनिकों पर विजयी हो कौरव सेना में घुस गये और सारथि को आदेश देते हुए बोले- ‘आगे बढ़ो’। जिसे पहले दूसरों ने नहीं किया था, समरांगण में सात्‍यकि के उस पराक्रम को देखकर चारणों और गन्‍धर्वों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रजानाथ! अर्जुन के पृष्‍टरक्षक सात्‍यकि को जाते देख चारणों को बड़ा हर्ष हुआ और आपके सैनिकों ने भी उनकी बड़ी सराहना की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवधपर्व में सात्‍यकि के कौरव सेना में प्रवेश के प्रसंग में यवनों की पराजयविषयक एक सौ उन्नीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ बीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि द्वारा दुर्योंधन की सेना का संहार तथा भाइयों सहित दुर्योंधन का पलायन”

     संजय कहते हैं ;- राजन! रथियों में श्रेष्ठ युयुधान यवनों और काम्‍बोजों को पराजित करके आपकी सेना के बीच से होते हुए अर्जुन की ओर चले। पुरुषसिंह सात्‍यकि के दांत बड़े सुन्‍दर थे। उनके कवच और ध्‍वज भी विचित्र थे। वे मृग की गन्‍ध लेते हुए व्‍याघ्र के समान आपकी सेना को भयभीत कर रहे थे। युयुधान रथ के द्वारा विभिन्‍न मार्गों पर विचरते हुए अपने उस महावेगशाली धनुष को जोर-जोर से घुमा रहे थे, जिसका पृष्‍ठभाग सोने से मढ़ा था और जो सुवर्णमय चन्‍द्राकार चिह्नों से व्‍याप्‍त था। उनके भुजबंद और शिरस्त्राण सुवर्ण के बने हुए थे। वे स्‍वर्णमय कवच से आच्‍छादित थे। सोने के ध्‍वज और धनुष से सुशोभित शूरवीर सात्‍यकि मेरु पर्वत के शिखर की भाँति शोभा पा रहे थे। युद्धस्‍थल में मण्‍डलाकार धनुष धारण किये अपने तेज स्‍वरुप सूर्यरशिमयों से प्रकाशित, मानव सूर्य सात्‍यकि शरत काल में उगे हुए सूर्यदेव के समान देदीप्‍यमान हो रहे थे। उनके कंधे और चाल-ढाल वृषभ के समान थे। नेत्र भी वृषभ के ही तुल्‍य बड़े-बड़े थे। वे नरश्रेष्ठ सात्‍यकि आपके सैनिकों के बीच में उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे गौओं के झुंड में सांड़ की शोभा होती है। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी और मदोन्‍मत्त गजराज के समान मन्‍दगति से चलने वाले सात्‍यकि जब मदस्‍त्रावी मातगड़ के समान कौरव सैनिकों के मध्‍य भाग में खड़े हुए, उस समय आपके योद्धा उन्‍हें मार डालने की इच्‍छा से भूखे बाघों के समान उन पर टूट पड़े।
      वे सात्‍यकि जब द्रोणाचार्य और कृतवर्मा की दुस्‍तर सेना को लांघकर जलसंधरुपी सिन्‍धु को पार कर‍के काम्‍बोजों की सेना का संहारकर कृतवर्मारुपी ग्राह के चंगुल से छूटकर आपकी सेना के समुद्र से पार हो गये, उस समय अत्‍यन्‍त क्रोध में भरे हुए आपके रथियों ने उन्‍हें चारों ओर से घेर लिया। दुर्योधन, चित्रसेन, दु:शासन, विविंशति, शकुनि, दु:सह, तरुण वीर दुर्धर्ष क्रथ तथा अन्‍य बहुत से दुर्जय शूरवीर अमर्ष में भरकर अस्त्र-शस्त्र लिये वहाँ आगे बढ़ते हुए सात्‍यकि के पीछे-पीछे दौड़े। माननीय नरेश। पूर्णिमा के दिन वायु के झकोरों से वेगपूर्वक ऊपर उठने वाले महासागर के समान आपकी सेना में बड़े जोर-जोर से गर्जन-तर्जन का शब्‍द होने लगा। उन सबको आक्रमण करते देख शिनिप्रवर सात्‍यकि ने अपने सारथि से हंसते हुए से कहा,
      सात्यकि ने कहा ;- ‘सूत। धीरे-धीरे चलो। सूत! यह हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से भरी हुई जो दुर्योधन सेना युद्ध के लिये उद्यत हो मेरी ही ओर तीव्र वेग से चली आ रही है, इस सेना-समुद्र को मैं इस महान समरांगण में अपने रथ की घर्घराहट से सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करता तथा पृथ्‍वी, अन्‍तरिक्ष एवं सागरों को भी कंपाता हुआ आगे बढ़ने से रोकूंगा। ठीक उसी तरह, जैसे तट की भूमि पूर्णिमा को उद्धेलित होने वाले महासागर को रोक देती है। सारथे। इस महायुद्ध में देवराज इन्‍द्र के समान मेरा पराक्रम तुम देखो। मैं अभी-अभी अपने पैने बाणों से शत्रुओं की सेनाओं का संहार कर डालता हूँ। इस युद्धस्‍थल में मेरे द्वारा मारे गये सहस्‍त्रों पैदलों, घुड़ सवारों, रथियों और हाथीसवारों को देखना, जिनके शरीर मेरे अग्नि सदृश वाणों द्वारा विदीर्ण होंगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)

      अमित तेजस्‍वी सात्‍यकि जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय युद्ध के लिये उत्‍सुक हुए आपके सारे सैनिक शीघ्र ही उनके समीप आ पहुँचे। वे ‘दौड़ो, मारो, ठहरो, देखो-देखो’ इत्‍यादि बातें बोल रहे थे। शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले एवं विचित्र युद्ध की कला में निपुण शिनिप्रवर सात्‍यकि ने हंसते हुए वहाँ उपर्युक्त बातें बोलने वाले तीन सौ घुड़सवारों तथा चार सौ हाथीसवार को अपने तीखे बाणों से मार गिराया। सात्‍यकि तथा आपकी सेना के धनुर्धरों का वह नरसंहारकारी युद्ध देवासुर-संग्राम के समान अत्‍यन्‍त भयंकर हो चला। माननीय नरेश! शिनिपौत्र सात्‍यकि ने अपने विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा मेघों की घटा के समान प्रतीत होने वाली आपके पुत्र की सेना का अकेले ही सामना किया।
      महाराज! उस समरांगण में पराक्रमी सात्‍यकि बाणों के समूह से आच्‍छादित हो गये थे, तो भी उनहोंने मन में तनिक भी घबराहट नहीं आने दी और आपके बहुत-से सैनिकों का संहार कर डाला। शक्तिशाली राजेन्‍द्र! वहाँ सबसे महान आश्चर्य की बात मैंने यह देखी कि सात्‍यकि का कोई भी बाण व्‍यर्थ नहीं गया। रथ, हाथी और घोड़ों से भरी तथा पैदल रुपी लहरों से व्‍याप्‍त हुई आपकी सागर-सदृश सेना सात्‍यकिरुपी तटभूमि के समीप आकर अवरुद्ध हो गयी। सात्‍यकि के बाणों द्वारा सब ओर से मारी जाती हुई आप की सेना के पैदल, हाथी और घोड़े सभी घबरा गये और बारंबार चक्कर काटने लगे। सर्दी से पीड़ित हुई गायों के समान आपकी सारी सेना वहीं चक्‍कर लगा रही थी। मैंने वहाँ एक भी पैदल, रथी, हाथी तथा सवारसहित घोड़े को ऐसा नहीं देखा, जो युयुधान के बाणों से विद्ध न हुआ हो। राजन! नरेश्वर! सात्‍यकि ने आपके सैनिकों का जैसा संहार किया था, वैसा वहाँ अर्जुन ने भी नहीं किया था। शिनिपौत्र पुरुषश्रेष्ठ सात्‍यकि निर्भय हो बड़ी फुर्ती से अस्त्र चलाते और अपनी कुशलता का प्रदर्शन करते हुए अर्जुन से भी अधिक पराक्रमपूर्वक युद्ध कर रहे थे। तब राजा दुर्योधन ने तीन बाणों से सात्‍यकि के सारथि को और चार पैने बाणों द्वारा उनके घोड़ों को घायल कर दिया। तत्‍पश्चात सात्‍यकि को भी पहले तीन बाणों से बींधकर फिर आठ बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी।
      तदनन्‍तर दु:शासन ने सोलह, शकुनि ने पच्चीस और चित्रसेन ने पांच बाणों द्वारा शिनिप्रवर सात्‍यकि को बींध डाला। इसके बाद दु:सह ने सात्‍यकि की छाती में पंद्रह बाण मारे। महाराज! इस प्रकार उन बाणों से आहत होकर वृष्टिवंश के सिंह सात्‍यकि ने मुसकराते हुए ही उन सबको ही तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। उस युद्ध स्‍थल में शीघ्रतापूर्वक पराक्रम करने वाले शिनिवंशी सात्‍यकि अपने अत्‍यन्‍त तेज बाणों द्वारा शत्रुओं को गहरी चोट पहुँचाकर बाज के समान सब ओर विचरने लगे। उन्‍होंने सुबलपुत्र शकुनि के धनुष और दस्‍ताने काट कर दुर्योधन की छाती में तीन बाण मारे। फिर शिनिवंश के प्रमुख वीर ने चित्रसेन को सौ, दु:सह को दस और दु:शासन को बीस बाणों से घायल कर दिया। प्रजानाथ। तत्‍पश्चात आपके साले ने दूसरा धनुष लेकर सात्‍यकि को पहले आठ बाण मारे। फिर पांच बाणों से उन्‍हें घायल कर दिया। दु:शासन ने दस और दु:सह ने भी तीन बाण मारे। राजन! दुर्मुख ने बारह बाणों से सात्‍यकि को क्षत-विक्षत कर दिया। भारत! इसके बाद दुर्योधन ने तिहत्तर बाणों से युयुधान को घायल करके तीन पैने बाणों द्वारा उनके सारथि को भी बींध डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-47 का हिन्दी अनुवाद)

     तब सात्‍यकि ने एक साथ विजय के लिये प्रयत्न करने वाले उन समस्‍त शूरवीर महारथियों को पुन: पांच-पांच बाणों से घायल कर दिया। तत्‍पश्चात रथियों में श्रेष्ठ सात्‍यकि ने आपके पुत्र के सारथि के ऊपर शीघ्र ही एक भल्‍ल का प्रहार किया। सारथि उसके द्वारा मारा जाकर पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। प्रभो! उस सारथि के धराशायी होने पर आपके पुत्र का रथ हवा के समान तीव्र वेग से भागने वाले घोड़ों द्वारा युद्ध स्‍थल से दूर हटा दिया गया।
      राजन! प्रजानाथ! तदनन्‍तर आपके पुत्र और सैनिक राजा दुर्योधन के रथ की वैसी दशा देखकर सैकड़ों संख्‍या में भाग खड़े हुए। भारत! आपकी सेना को भागती देख सात्‍यकि ने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले तीखे बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी। राजन! इस प्रकार आपके सहस्‍त्रों सैनिकों को भगाकर सात्‍यकि श्‍वेतवाहन अर्जुन के रथ की ओर चल दिये। आर्य। महाबाहु सात्‍यकि को आगे जाते देखकर आपके सैनिक उस देखी हुई घटना को भी अनदेखी करके दूसरे काम में लग गये। सात्‍यकि बाणों को ग्रहण करते हुए अपनी और सारथि की भी रक्षा करते थे। उनके इस कार्य की आपके सैनिकों ने भी भूरी-भूरी प्रशंसा की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवधपर्व में सात्‍यकि का शत्रुसेना में प्रवेश और दुर्योधन का पलायनविषयक एक सौ बीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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