सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ ग्यारहवें अध्याय से एक सौ पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 111 chapter to the 115 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि और युधिष्ठिर का संवाद”

    संजय कहते हैं ;- राजन! धर्मराज का वह वचन प्रेम-पूर्ण, मन को प्रिय लगने वाला, मधुर अक्षरों से युक्‍त, सामयिक, विचित्र, कहने योग्‍य तथा न्‍यायसंगत था। भरतश्रेष्‍ठ! उसे सुनकर शिनिप्रवर सात्‍यकि ने युधिष्ठिर को इस प्रकार उतर दिया,

    सात्यकि ने कहा ;- ‘अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! आपने अर्जुन को सहायता के लिये जो-जो बातें कही हैं, वह सब मैंने सुनली। आपका कथन अद्भुत, न्‍यायसंगत और यश की वृद्धि करने वाला है। ‘राजेन्‍द्र! ऐसे समय में मेरे-जैसे प्रिय व्‍यक्ति को देखकर आप जैसी बातें कह सकते हैं, वैसी ही कही है। आप अर्जुन से जो कुछ बात कह सकते हैं, वही आपने मुझसे भी कहा है। ‘महाराज! अर्जुन के हित के लिये मुझे किसी प्रकार भी अपने प्राणों की रक्षा की चिन्‍ता नहीं करनी है; फिर आपका आदेश मिलने पर मैं इस महायुद्ध में क्‍या नहीं कर सकता हूं? ‘नरेन्‍द्र! आपकी आज्ञा हो तो देवताओं, असुरों तथा मनुष्‍यों सहित तीनों लोकों के साथ मैं युद्ध कर सकता हैं। फिर यहाँ इस अत्‍यन्‍त दुर्बल कौरवी सेंना का सामना करना कौन-सी बड़ी बात हैं। ‘राजन! मैं रणक्षेत्र में आज चारों ओर घूमकर दुर्योधन की सेना के साथ युद्ध करुंगा और उस पर विजय पाऊँगा। यह मैं आपसे सच्‍ची बात कहता हूँ। ‘राजन! मैं कुशलतापूर्वक रहकर सकुशल अर्जुन के पास पहुँच जाऊँगा और जयद्रथ के मारे जाने पर उनके साथ ही आपके पास लौट आऊँगा। ‘परंतु नरेश्‍वर! भगवान श्रीकृष्‍ण तथा बुद्धिमान अर्जुन ने युद्ध के लिये जाते समय मुझसे जो कुछ कहा था, वह सब आपको सूचित कर देना मेरे लिये अत्‍यन्‍त आवश्‍यक हैं। ‘अर्जुन ने सारी सेना के बीच में भगवान श्रीकृष्‍ण को सुनते हुए मुझे बारंबार कहकर द्दढ़तापूर्वक बांध लिया है।

     ‘उन्‍होंने कहा था- ‘माधव! आज मैं जब तक जयद्रथ का वध करता हूँ, तब तक युद्ध में तुम श्रेष्‍ठ बुद्धि का आश्रय लेकर पूरी सावधानी के साथ राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। ‘’महाबाहो! मैं तुम पर अथवा महारथी प्रद्युम्‍न पर ही भरोसा करके राजा को धरोहर की भाँति सौंपकर निरपेक्ष भाव से जयद्रथ के पास जा सकता हूँ। ‘’माधव! तुम जानते ही हो कि रणक्षेत्र में श्रेष्‍ठ पुरुषों द्वारा सम्‍मानित आचार्य द्रोण कितने वेगशाली हैं। उन्‍होंने जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे भी तुम प्रतिदिन सुनते ही होंगे। ’द्रोणाचार्य भी धर्मराज को बंदी बनाना चाहते हैं और वे समरांगण में राजा युधिष्ठिर को कैद करने में समर्थ भी हैं। ’ऐसी अवस्‍था में नरश्रेष्‍ठ धर्मराज युधि‍ष्ठिर की रक्षा का सारा भार तुम पर ही रखकर आज मैं सिन्‍ध्‍ुाराज के वध के लिये जाऊँगा। ‘’माधव! यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में धर्मराज को बलपूर्वक बंदी न बना सकें तो मैं जयद्रथ का वध करके शीघ्र ही लौट आऊँगा। ‘’मधुवंशी वीर! यदि द्रोणाचार्य ने नरश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को कैद कर लिया तो सिन्‍धुराज का वध नहीं हो सकेगा और मुझे भी महान दु:ख होगा। ‘’यदि सत्‍यवादी नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डुकुमार युधिष्ठिर इस प्रकार बंदी बनाये गये तो निश्‍चय ही हमें पुन: वन में जाना पड़ेगा।‘’यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में कुपित होकर युधिष्ठिर को कैद कर लेंगे तो मेरी वह विजय अवश्य ही व्‍यर्थ हो जायगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘’महाबाहु माधव! इसलिये तुम आज मेरा प्रिय करने, मुझे विजय दिलाने और मेरे यश की वृद्धि करने के लिये युद्ध स्‍थल में राजा युधिष्ठिर की रक्षा करेंगे। ‘प्रभो! इस प्रकार द्रोणाचार्य से निरन्‍तर भय मानते हुए सव्‍यसाची अर्जुन ने आपको मेरे पास धरोहर के रुप में रख छोड़ा है।’ महाबाहो! प्रभो! मैं प्रतिदिन युद्धस्‍थल में रुक्मिणी नन्‍दन प्रद्युम्‍न के सिवा दूसरे किसी वीर को ऐसा नहीं देखता; जो द्रोणाचार्य के सामने खड़ा होकर उनसे युद्ध कर सके। ‘अर्जुन मुझे भी बुद्धिमान द्रोणाचार्य का सामना करने में समर्थ योद्धा मानते हैं। महीपते! मैं अपने आचार्य की इस सम्‍भावना को तथा उनके उस आदेश को न तो पीछे ढकेल सकता हूँ और न आपको ही त्‍याग सकता हूँ। ‘द्रोणाचार्य अमेद्य कवच से सुरक्षित है। वे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने के कारण रणक्षेत्र में अपने विपक्षी को पाकर उसी प्रकार क्रीड़ा करते हैं, जैसे कोई बालक पृथ्‍वी के साथ खेल रहा हों। ‘यदि कामदेव के अवतार श्रीकृष्‍ण कुमार प्रद्युम्‍न यहाँ हाथ में लेकर खड़े होते तो उन्‍हें मैं आपको सौंप देता। वे अर्जुन के समान ही आपकी रक्षा कर सकते थे। ‘आप पहले अपनी रक्षा को व्‍यवस्‍था कीजिये। मेरे चले जाने पर कौन आपका संरक्षण चलाने वाला है, जो रणक्षेत्र में तब तक द्रोणाचार्य का सामना करता रहे, जब तक कि मैं अर्जुन के पास जाता (और लौटता) हूँ।

    ‘महाराज! आज आपके मन में अर्जुन के लिये भय नहीं होना चाहिये। वे महाबाहु किसी कार्य भार को उठा लेने पर कभी शिथिल नहीं होते हैं। ‘राजन! जो सौवीर, सिन्‍धु तथा पुरुदेश के योद्धा हैं, जो उत्तर और दक्षिण के निवासी एवं अन्‍य महारथी हैं तथा जो कर्ण आदि श्रेष्‍ठ रथी बताये गये हैं; वे कुपित हुए अर्जुन की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। ‘नरेश्‍वर! देवता, असुर, मनुष्‍य, राक्षस, किन्‍नर तथा महान सर्वागणों सहित यह समूची पृथ्‍वी और सभी स्‍थावर-जंगम प्राणी युद्ध के लिये उद्यत हो जायें, तो भी सब मिलकर भी युद्धस्‍थल में अर्जुन का सामना नहीं कर सकते है। ‘महाराज! ऐसा जानकर अर्जुन के विषय में आपका भय दूर हो जाना चाहिये। जहाँ सत्‍य पराक्रमी और महा धनुर्धर वीर श्रीकृष्‍ण एवं अर्जुन विद्यमान हैं, वहाँ किसी प्रकार भी कार्य में व्‍याघात नहीं हो सकता है। ‘आपके भाई अर्जुन में जो दैवीशक्ति, अस्त्र विद्या की निपुणता, योग, युद्धस्‍थल में असमर्थ, कृतज्ञता और दया आदि सदु्ण हैं, उनका आप बारंबार चिन्‍तन कीजिये।

     ‘राजन्! मैं आपका सहायक रहा हूँ, यदि मैं भी अर्जुन के पास चला जाता हूँ तो युद्ध में द्रोणाचार्य जिन विभिन्‍न अस्त्रों का प्रयोग करेंगे, उन पर भी आप अच्‍छी तरह विचार कर लीजिये। ‘भरतवंशी नरेश! द्रोणाचार्य आपको कैद करने की बड़ी इच्‍छा रखते हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए उसे सत्‍य कर दिखाना चाहते हैं। ‘अब आप अपनी रक्षा का प्रबन्‍ध कीजिये। पार्थ! मेरे चले जाने पर कौन आपका रक्षक होगा, जिस पर विश्‍वास करके मैं अर्जुन के पास चला जा। ‘महाराज! कुरुनन्‍दन! मैं आपको इस महासमर में किसी वीर के संरक्षण में रखे बिना कही नहीं जाऊँगा। यह मैं आप से सच्‍ची बात कहता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-51 का हिन्दी अनुवाद)

     बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ महाराज! अपनी बुद्धि से इस विषय में बहुत सोच-विचार करके आपको जो परम मंगलकारक कृत्‍य जान पड़े, उसके लिये मुझे आज्ञा दें’। 

   युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहु माधव! तुम जैसा कहते हो, वही ठीक है। आर्य! श्‍वेतवाहन द्रोणाचार्य की ओर से मेरा हृदय शुद्ध (निश्निन्‍त) नहीं हो रहा है। मैं अपनी रक्षा के लिये महान प्रयत्‍न करुगां। तुम मेरी आज्ञा से वहीं जाओं, जहाँ अर्जुन गया है। मुझे युद्ध में अपनी रक्षा करनी चाहिये या अर्जुन के पास तुम्‍हें भेजना चाहिये। इन बातों पर तुम स्‍वयं ही अपनी बुद्धि से विचार करके वहाँ जाना पसंद करो।। अत: जहाँ अर्जुन गया है, वहाँ जाने के लिये तुम तैयार हो जाओ। महाबली भीमसेन मेरी भी रक्षा कर लेंगे।

     तात! भाइयों सहित धृष्टद्युम्न, महाबली भूपालगण तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र मेरी रक्षा कर लेंगे; इसमें संशय नहीं है। तात! पांच भाई केकय-राजकुमार, राक्षस घटोत्‍कच, विराट द्रुपद, महारथी शिखण्‍डी, धृष्‍टकेतु, बलवान्मामा कुन्तिभोज (पुरुजित), नकुल, सहदेव, पाञ्चाल तथा सृंजय-वीरगण-ये सभी सावधान होकर नि:संदेह मेरी रक्षा करेंगे। सेनासहित द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा -ये युद्धस्‍थल में मेरे पास नहीं पहुँच सकते और न मुझे परास्त ही कर सकेंगे। शत्रुओं को संताप देने वाला धृष्टद्युम्न समरांगण में कुपित हुए द्रोणाचार्य को पराक्रम करके रोक लेगा। ठीक वैसे ही, जैसे तट की समुद्र आगे बढ़ने रोक देती है। जहाँ शत्रुवीरों का संहार करने वाला द्रुपदकुमार संग्रामभूमि में खड़ा होगा, वहाँ मेरी प्रबल सेना पर द्रोणाचार्य किसी तरह आक्रमण नहीं कर सकते। यह धृष्‍टद्युम्‍न, द्रोणाचार्य का नाश करने के लिये कवच, धनुष, बाण, खग और श्रेष्‍ठ आभूषणों के साथ अग्नि से प्रकट हुआ है। अत: शिनिनन्‍दन! तुम निश्चित होकर जाओ! मरे लिये संदेह मत करो। धृष्‍टद्युम्‍न रणक्षेत्र में कुपित हुए द्रोणाचार्य को सर्व‍था रोक देगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथ पर्व में युधिष्ठिर और सात्‍यकि का संवाद विषयक एक सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि अर्जुन के पास जाने की तैयारी और सम्‍मानपूर्वक विदा होकर उनका प्रस्‍थान तथा साथ आते हुए भीम को युधिष्ठिर की रक्षा के लिये लौटा देना”

    संजय कहते हैं ;- राजन! धर्मराज का वह कथन सुनकर शिनिप्रवर सात्‍यकि के मन में राजा को छोड़कर जाने से अर्जुन के अप्रसन्‍न होने की आशा का उत्‍पन्‍न हुई। विशेषत: उन्‍हें अपने लिये लोकापवाद का भय दिखायी देने लगा। वे सोचने लगे-मुझे अर्जुन की ओर आते देख सब लोग यही कहेंगे कि वह डरकर भाग आया है। युद्ध में दुर्जय वीर पुरुषराज सात्‍यकि ने इस प्रकार भाँति-भाँति से विचार करके धर्मराज से यह बात कही,

     सात्यकि ने कहा ;- ‘प्रजानाथ! यदि आप अपनी रक्षा की व्‍यवस्‍था की हुई मानते हैं तो आपका कल्‍याण हो। मैं अर्जुन के पास जाऊँगा और आपकी आज्ञा का पालन करुंगा। ‘राजन! मैं आपसे सच कहता हूँ कि तीनों लोकों में कोई ऐसा पुरुष नहीं हैं, जो मुझे पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन से अधिक प्रिय हो। ‘मानद! मैं आपके आदेश और संदेश से अर्जुन के पथ का अनुसरण करुंगा। आपके लिये कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जिसे मैं किसी प्रकार न कर सकूं। ‘नरश्रेष्‍ठ! मेरे गुरु अर्जुन का वचन मेरे लिये जैसा महत्त्व रखता हैं, आपका वचन भी वैसा ही हैं, बल्कि उससे भी बढ़कर है। ‘नृपश्रेष्‍ठ! दोनों भाई श्रीकृष्‍ण और अर्जुन आपके प्रिय साधन में लगे हुए हैं और उन दोनों के प्रिय कार्य में आप उनके पास जाऊँगा। ‘राजन! जैसे महात्‍म्‍य महासागर में प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार में भी कुपित होकर द्रोणाचार्य की सेना में घुसता हूँ। मैं वही जाऊँगा, जहाँ राजा जयद्रथ हैं। ‘पाण्‍डुनन्‍दन! अर्जुन से भयभीत हो, अपनी सेना का आश्रय लेकर जयद्रथ जहाँ अश्वत्‍थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि श्रेष्‍ठ महारथियों से सुरक्षित होकर खड़ा हैं, वहीं मुझे पहुँचना है। ‘प्रजापालक नरेश! इस समय जहाँ जयद्रथ-वध के लिये उद्यत हुए अर्जुन खड़े हैं, उस स्‍थान को मैं यहाँ से तीन योजन दूर मानता हूँ। ‘राजन! अर्जुन के तीन योजन दूर चले जाने पर भी मैं जयद्रथ-वध के पहले भी सुद्दढ़ हृदय से अर्जुन के स्‍थान पर पहुँच जाऊँगा।

     ‘नरेश्‍वर! गुरु की आज्ञा प्राप्‍त हुए बिना कौन मनुष्‍य युद्ध करेगा और गुरु की आज्ञा मिल जाने पर मेरे-जैसा कौन वीर युद्ध नहीं करेगा?। ‘प्रभो! मुझे जहाँ जाना हैं, उस स्‍थान को मैं जानता हूँ। वह हल, शक्ति, गदा, प्रास, ढाल, तलवार, ऋष्टि अस्त्र, और तोमरों से भरा है। श्रेष्‍ठ धनुष बाणों से परिपूर्ण शत्रु-सैन्‍यरुपी महासागर को मैं मथ डालूंगा। ‘महाराज! यह जो आप हजारों हाथियों की सेना देखते हैं, इसका नाम है आञ्जनक कुल! इसमें पराक्रमशाली गजराज खड़े हैं, जिनके ऊपर प्रहार कुशल और युद्ध निपुण बहुत से ग्‍लेच्‍छा योद्धा सवार हैं। ‘राजन! ये हाथी मेंघों की घटा के समान दिखायी देते हैं और पानी बरसाने वाले बादलों के समान मद की वर्षा करते हैं। हाथी सवारों के हांकने पर ये कभी युद्ध से पीछे नहीं हटते है। महाराज! वध के अतिरिक्‍त और किसी उपाय से इनकी पराजय नहीं हो सकती।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘राजन! आप जिन सहस्रों, रथियों को देख रहे हैं, ये रुक्मरथ नाम वाले महारथी राजकुमार हैं। प्रजानाथ! ये रथों, अस्त्रों और हाथियों के संचालन में भी निपुण हैं। ‘ये सब-के-सब धनुर्वेद के पारंगत विद्वान हैं। सृष्टि-युद्ध में भी निपुण है, महायुद्ध के विशेषत्र हैं और मल्‍लयुद्ध में भी कुशल है। ‘तलवार चलाने का भी इन्‍हें अच्‍छा अभ्‍यास है। ये ढाल, तलवार लेकर विचर ने में समर्थ हैं। शूर और अस्त्र–शस्त्रों के विद्वान होने के साथ ही परस्‍पर स्‍पर्धा रखते हैं। ‘नरेश्‍वर! ये सदा समरभूमि में मनुष्‍यों को जीतने की इच्‍छा रखते हैं। महाराज! कर्ण ने इन्‍हें दु:शासन का अनुगामी बना रखा है। ‘भगवान श्रीकृष्‍ण भी इन सब श्रेष्‍ठ महारथियों की प्रंशसा करते हैं, ये सब-के-सब कर्ण के वश में स्थित हैं और सदा उसका प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं। ‘राजन! कर्ण के ही कहने से ये अर्जुन की ओर से इधर लौट आये हैं। इनके कवच और धनुष अत्‍यन्‍त सुद्दढ़ हैं। वे न तो थके हैं और न पीड़ित ही हुए हैं। ‘दुर्योधन के आदेश से ही निश्‍चय ही मुझसे युद्ध करने के लिये खड़े हैं। कुरुनन्‍दन! मैं आपका प्रिय करने के लिये इन सब को संग्राम में मथ कर सव्‍यसाची अर्जुन के मार्ग पर जाऊँगा।।

   ‘महाराज! जिन दूसरे इन सात सौ हाथियों को आप देख रहे हैं, जो कवच से आच्‍छादित हैं और जिन पर किरात योद्धा चढ़े हुए हैं, ये वे ही हाथी हैं, जिन्‍हें दिग्विजय के समय अपने प्राण बचाने की इच्‍छा रखकर किरातराज ने सव्‍यसाची अर्जुन को भेंट किया था। ये सजे-सजाये हाथी उन दिनों आपके सेवक थे। ‘महाराज! यह काल चक्र का परिवर्तन तो देखिये-जो पूर्वकाल में द्दढ़तापूर्वक आपकी सेवा करने वाले थें, वे आज आपसे ही युद्ध करना चाहते हैं। ‘ये रण दुर्भद किरात इन हाथियों के महावत और इन्‍हें शिक्षा देने में कुशल है। ये सब-के-सब अग्नि से उत्‍पन्‍न हुए हैं। सव्‍यसाची अर्जुन ने इन सबको संग्रामभूमि में पराजित कर दिया था। ‘राजन! आज दुर्योधन के वशीभूत होकर ये मेरे साथ यु्द्ध करने को तैयार है। इन रण-दुर्भद किरातों का अपने बाणों द्वारा संहार करके मैं सिधुराज के वध के प्रयत्‍न में लगे हुए पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के पास जाऊँगा।’ ये जो बड़े गजराज द्दष्टिगोचर हो रहे हैं, ये अञ्जन-नामक दिग्‍गज के कुल में उत्‍पन्‍न हुए हैं इनका स्‍वभाव बड़ा ही कठोर हैं। इन्‍हें युद्ध की अच्‍छी शिक्षा मिली हैं। इनके मण्‍डस्‍थल और मुख से मद की धारा बहती रहती है। वे सब-के-सब सुवर्णमय कवचों से विभूषित है। राजन! ये पहले भी युद्ध स्‍थल में अपने लक्ष्‍य पर विजय पा चुके हैं और समरांगण में ऐरावत के समान पराक्रम प्रकट करते हैं। उत्तर पर्वत (हिमाचल प्रदेश) से आये हुए तीखे स्‍वभाव-वाले लुटेरे और डाकू इन हाथियों पर सवार हैं। ‘वे कर्कश स्‍वभाव वाले तथा श्रेष्‍ठ योद्धा हैं। उन्‍हेांने काले लोहे के बने हुए कवच धारण कर रखें हैं। उनमें से बहुत-से दस्‍यु गायों के पेट से उत्‍पन्‍न हुए हैं। कितने ही बंदरियों की संताने हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें अनेक योनियों का सम्मिश्रण हैं त‍था कितने ही मानव संतान भी हैं। ‘यहाँ एकत्र हुए हिमदुर्ग निवासी पापाचारी ग्‍लेच्‍छों की यह सेना धुएं के समान काली प्रतीत होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘काल से प्रेरित हुआ दुर्योधन इन समस्‍त राजाओं के समुदाय को तथा रथियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, जयद्रथ और कर्ण को पाकर पाण्‍डवों का अपमान करते हैं तथा अपने आप को कृतार्थ मान रहा है। ‘कुन्‍तीनन्‍दन! वे सब लोग आज मेरे नाराचों के लक्ष्‍य बने हुए हैं। वे मन के समान वेगशाली हो तो भी मेरे हाथों से छूट नहीं सकेंगे। ‘दूसरों के बल पर जीने वाले दुर्योधन ने इन सब लोगों का सदा आदरपूर्वक भरण-पोषण किया है; परंतु ये मेरे बाण-समूहों से पीड़ित होकर आज विनष्‍ट हो जायेंगे। ‘राजन! ये जो सोने की ध्‍वजा वाले रथी दिखायी देते हैं, ये दुर्वारण नाम वाले काम्‍बोज सैनिक हैं। आपने इनका नाम सुना होगा। ‘ये शूर, विद्वान तथा धनुर्वेद में परिनिष्ठित हैं। इनमें परस्‍पर बड़ा संगठन हैं। ये एक दूसरे का हित चाहने वाले हैं। ‘भरतनन्‍दन! दुर्योधन की क्रोध में भरी हुई ये कई अक्षौहिणी सेनाएं कौरव वीरों से सुरक्षित हो मेरे लिये तैयार खड़ी हैं। महाराज! ये सब सावधान होकर मुझ पर ही आक्रमण करने वाली हैं। ‘परंतु जैसे आग तिनकों को जला डालती हैं, उसी प्रकार मैं उन समझ कौरव-सेनिकों को मथ डालूंगा।

     अत: राजन! रथ को सुसज्जित करने वाले लोग आज मेरे रथ पर यथावत रुप से भरे हुए तरकसों तथा अन्‍य सब आवश्‍यक उपकरणों को रख दें।। ‘इस संग्राम में नाना प्रकार के आयुधों का उसी प्रकार संग्रह कर लेना चाहिये, जैसा कि आचार्यों ने उपदेश किया है। रथ पर रखी जाने वाली युद्ध सामग्री पहले से पांच गुनी कर देनी चाहिये। ‘आज मैं विषधर सर्प के समान क्रूर स्‍वभाव वाले उन काम्‍बोज-सैनिकों के साथ युद्ध करुंगा, जो नाना प्रकार के शस्त्र समुदायों से सम्‍पन्‍न और भाँति-भाँति के आयुधों द्वारा युद्ध करने में कुशल हैं। ‘दुर्योधन का हित चाहने वाले और विष के समान घातक उन प्रहार कुशल किरात-योद्धाओं के साथ भी संग्राम करुंगा, जिनका राजा दुर्योधन ने सदा ही लालन-पालन किया है।। ‘प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी, दुर्घर्ष एवं इन्‍द्र के ‘राजन! इनके सिवा और भी जो नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक युद्धदुर्भद, काल के तुल्‍य भयंकर तथा दुर्जय योद्धा हैं, रणक्षेत्र में उन सब का सामना करुंगा।‘इसलिये उत्तम लक्षणों से सम्‍पन्‍न श्रेष्‍ठ घोड़े, जो विश्राम कर चुके हों, जिन्‍हें टहलाया गया हो और पानी भी पिला दिया गया हों, पुन: मेरे रथ में जोते जायें।

    संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्‍तर राजा युधिष्ठिर ने सात्‍यकि के रथ पर भरे हुए सारे तरकसों, समस्‍त उपकरणों तथा भाँति-भाँति के शस्त्रों को रखवा दिया। तदनन्‍तर सब प्रकार से सुशिक्षित उन चारों उत्तम घोड़ों को सेवकों ने मदमत बना देने वाला रसीला पेय पदार्थ पिलाया। जब वे पी चुके तो उन्‍हें टहलाया और नहलाया गया। उसके बाद दाना और चारा खिलाया गया। फिर उन्‍हें सब प्रकार से सुसज्जित किया गया। उनके अंगों में गड़े हुए बाण पहले ही निकाल दिये गये थे। वे चारों घोड़े सोने की मालाओं से विभूषित थे। उन योग्‍य अश्‍वों की कान्ति सुवर्ण के समान थी। वे सुशिक्षित और शीघ्रगामी थे। उनके मन में हर्ष और उत्‍साह था। तनिक भी व्‍यग्रता नहीं थी। उन्‍हें विधि‍पूर्वक सजाया गया था। स्‍वर्णमय अलंकारों से अलकृत उन अश्‍वों को सारथि ने रथ में जोता। वह रथ सुवर्णमय केशरों से सशोभित सिंह के चिह्न वाले विशाल ध्‍वज से सम्‍पन्‍न था। मणियों और मूंगों से चित्रित सोने की शलाकाओं से शोभायमान एवं श्‍वेत पताकाओं से अलंकृत था। उस रथ के ऊपर स्‍वर्णमय दण्‍ड से विभूषित छत्र सना हुआ था तथा रथ के भीतर नाना प्रकार के शस्त्र तथा अन्‍य आवश्‍यक सामान रखें गये थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 58-79 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे मातलि इन्‍द्र का सारथि और सखा भी है, उसी प्रकार दारुक का छोटा भाई सात्‍यकि का सारथि और प्रिय सखा था। उसने सात्‍यकि को वह सूचना दी कि रथ जोतकर तैयार है। तदनन्‍तर सात्‍यकि ने स्‍नान करके पवित्र हो यात्रा कालिक मंगलकृत्‍य सम्‍पन्‍न करने के पश्‍चात एक सहस्र स्‍त्रात को सोने की मुद्राएं दान की। ब्राह्मणों के आशीर्वाद पाकर तेजस्‍वी पुरुषों में श्रेष्‍ठ एवं मधुषर्क के अधिकारी सात्‍यकि ने कैलातक नामक मधु का पान किया। उसे पीते ही उनकी आंखें लाल हो गयीं। मद से नेत्र चञ्चल हो उठे, फिर उन्‍होंने अत्‍यन्‍त हर्ष में भरकर वीर कांस्‍य पात्र का स्‍पर्श किया। उस समय प्रज्‍वलित अग्नि के समान रथियों में श्रेष्‍ठ सात्‍यकि का तेज दूना हो गया। उन्‍होंने बाण सहित धनुष को गोद में लेकर ब्राह्मणों के मुख से स्‍वस्ति वाचन का कार्य सम्‍पन्‍न कराकर कवच एवं आभूषण धारण किये, फिर कुमारी कन्‍याओं ने लावा, गन्‍ध तथा पुष्‍पमालाओं से उनका पूजन एंव अभिनन्‍दन किया। इसके बाद सात्‍यकि ने हाथ जोड़कर युधिष्ठिर के चरणों में प्रणाम किया और युधिष्ठिर ने उनका मस्‍तक सूघां। फिर वे उस विशाल रथ पर आरुढ़ हो गये। तदनन्‍तर वे हष्‍ट-पुष्‍ट वायु के समान वेगशाली एवं अजेय सिंधु देशीय घोड़े मदमत हो उस विजयशील रथ को लेकर चल दिये।

    इस प्रकार धर्मराज को सम्‍मानित भीमसेन भी युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्‍यकि के साथ चले। उन दोनों शत्रुदमन वीरों को आपकी सेना में प्रवेश करने के लिये इच्‍छुक देख द्रोणाचार्य आदि आपके सारे सैनिक सावधान होकर खड़े हो गये।। उस समय भीमसेन को कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे आते देख उनका अभिनन्‍दन करके वीर सात्‍यकि उनसे यह हर्ष वर्धक वचन कहा- 'भीमसेन! तुम राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। यही तुम्‍हारे लिये सबसे महान कर्म है। जिस काल ने रांधकर पका दिया है, इस कौरव सेना को चीरकर मैं भीतर प्रवेश कर जाऊँगा।। 'शत्रुदमन वीर! इस समय और भविष्‍य में भी राजा की रक्षा करना ही श्रेयस्‍कर है। तुम मेरा बल जानते हो और मैं तुम्‍हारा! अत: भीमसेन! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो लौट जाओ।

      सात्‍यकि के ऐसा कहने पर भीमसेन ने उनसे कहा,

    भीमसेन ने कहा ;- 'अच्‍छा भैया! तुम कार्य सिद्धि के लिये आगे बढ़ों। पुरुषवर! मैं राजा की रक्षा करुंगा। भीमसेन के ऐसा कहने पर सात्‍यकि ने उनसे कहा,

    सात्यिकि ने कहा ;- 'कुन्‍तीकुमार! तुम जाओ। निश्‍चय ही लौट जाओ। मेरी विजय अवश्‍य होगी। 'भीमसेन! तुम जो मेरे गुणों में अनुरक्‍त होकर मेरे वेश में हो गये हो तथा इस समय दिखायी देने वाले शुभ शकुन मुझे जैसी बात बता रहे हैं, इससे जान पड़ता है कि महात्‍मा अर्जुन के द्वारा पापी जयद्रथ के मारे जाने पर मैं निश्‍चय ही लौटकर धर्मात्‍मा राजा युधिष्ठिर का आलिंग्‍न करुंगा। भीमसेन से ऐसा कहकर उन्‍हें विदा करने के पश्‍चात महायशस्‍वी सात्‍यकि ने आपकी सेना की ओर उसी प्रकार देखा, जैसे बाघ मृगों के झुंड की ओर देखता है। नरेश्‍वर! सात्‍यकि को अपने भीतर प्रवेश करने के लिये उत्‍सुक देख आपकी सेना पर पुन: मोह छा गया और वह बारंबार कांपने लगी। राजन्! तदनन्‍तर धर्मराज की आज्ञा के अनुसार अर्जुन से मिलने के लिये सात्‍यकि आपकी सेना की ओर वेग पूर्वक बढ़े।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथपर्व में सात्‍यकि का कौरव सेना में प्रवेशविषयक एक सौ बांरहवा अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ तेरहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

 “सात्‍यकि का द्रोण और कृतवर्मा के साथ युद्ध करते हुए काम्‍बोजों की सेना के पास पहुँचना”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! जब युयुधान युद्ध की इच्‍छा से आपकी सेना की ओर बढ़े, उस समय अपने सैनिकों से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के रथ का सामना करने-के लिये उनके पीछे-पीछे गये। तदनन्‍तर समरभूमि में उत्‍मत होकर लड़ने वाला पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न तथा राजा वसुदान से पांडव सेना में पुकार-कर कहा- 'योद्धाओं! आओ, दौड़ो और शीघ्रतापर्वूक प्रहार करो, जिससे रणदुर्मद सात्‍यकि सुखपूर्वक आगे जा सकें। क्‍योंकि बहुत-से कौरव महारथी इन्‍हें पराजित करने का प्रयत्‍न करेंगे। सेनापति की पूर्वोक्‍त बात दुहराते हुए सभी पाण्‍डव महारथी बड़े वेग से वहाँ आ पहुँचे। उस समय हम लोगों ने भी उन्‍हें जीतने की अभिलाषा से उन पर धावा कर दिया। युयुधान रथ को देखकर आपके सैनिक शंखध्वनि से मिश्रित बाणों का शब्‍द प्रकट करते हुए उनके सामने दौड़े आये। तदनन्‍तर सात्‍यकि के रथ के समीप महान कोलाहल मच गया।
      महाराज! चारों ओर से दौड़कर आती हुई आपके पुत्र की सेना सात्‍यकि के बाणों से आच्‍छादित हो सैकड़ों टुकड़ियों में बंटकर तितर-भीतर हो गयी। उस सेना के छिन्‍न–भिन्‍न होते ही शिनि के महारथी पौत्र ने सेना के मुहाने पर खड़े हुए सात महाधनुर्धर वीरों को मार गिराया। राजेन्‍द्र! तदनन्‍तर विभिन्‍न जनपदों के स्‍वामी अन्‍यान्‍य वीर राजाओं को भी उन्‍होंने अपने अग्निसदृश बाणों द्वारा यमलोक पहुँचा दिया। वे एक बाण से सैकड़ों वीरों को और सैकड़ों बाणों से एक-एक वीर को घायल करने लगे। जिस प्रकार भगवान पशुपति पशुओं का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार सात्‍यकि ने हाथीसवारों और हाथियों को, घुड़सवारों और घोड़ों को तथा घोड़े और सारथि सहित रथियों को मार डाला। इस प्रकार बाण धारा की वर्षा करने वाले उस अद्भुत पराक्रमी सात्‍यकि के सामने जाने का साहस आपके कोई सैनिक न कर सके। उस महाबाहु वीर ने अपने बाणों से रौंदकर आपके सारे सिपाहियों को मसल डाला। वे वीर सिपाही ऐसे डर गये कि उस अत्‍यन्‍त मानी शूरवीर को देखते ही युद्ध का मैदान छोड़ देते थे।
      माननीय नरेश! सारे कौरव सैनिक सात्‍यकि के तेज से मोहित हो अकेले होने पर भी उन्‍हें अनेक रुपों में देखने लगे। यहाँ बहुसंख्‍यक रथ चूरचूर हो गये थे। उनकी बैठकें टूट-फूट गयी थीं। पहियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। छत्र और ध्‍वज छिन्‍न-भिन्‍न होकर धरती पर पड़े थे। अनुकर्ष, पताका, शिरस्‍त्राण, सुवर्णभूषित अंगदयुक्‍त चन्‍दनचर्चित भुजाएं, हाथी की सूंड तथा सर्पों के समान मोटे-मोटे उस सब ओर बिखरे पड़े थे। नरेश्‍वर! मनुष्‍यों के विभिन्‍न अंगों तथा रथ के पूर्वोक्‍त अवयवों से यहाँ की भूमि आच्‍छादित हो गयी थी। वृषभ समान बड़े-बड़े नेत्रों वाले वीरों के गिरे हुए मनोहर कुण्‍डल सहित चन्‍द्रमा-जैसे मुखों से वहाँ कि भूमि अत्‍यन्‍त शोभा पा रही थी। अनेकों टुकड़ों में कटकर धराशयी हुए पर्वताकार गजराजों से वहाँ की भूमि इस प्रकार अत्‍यन्‍त शोभा सम्‍पन्‍न हो रही थी, मानो यहाँ बहुत-से पर्वत बिखरे हुए हों। कितने ही थोड़े सुनहरी रस्सियों तथा मोती की जालियों से विभूषित आच्‍छादन वस्‍त्रों से विशेष शोभायमान हो रहे थे। महाबाहु सात्‍यकि के द्वारा रौंदे जाकर वे धरती पर पड़े थे और उनके प्राण-पखेरु उड़ गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

      इस प्रकार आपकी नाना प्रकार की सेना का संहार करके तथा बहुत-से सैनिकों को भगाकर सात्‍यकि आपकी सेना के भीतर घुस गये। तदनन्‍तर जिस मार्ग से अर्जुन गये, उसी से सात्‍यकि ने भी जाने का विचार किया, परंतु द्रोणाचार्य ने उन्‍हें रोक दिया। अत्‍यन्‍त क्रोध में भरे हुए सत्‍यकनन्‍दन युयुधान द्रोणाचार्य के पास पहुँचकर रुक तो गये; परंतु पीछे नहीं लौटे। जैसे क्षुब्‍ध जलाशय अपनी तटभूमि तक पहुँचकर फिर पीछे नहीं लौटता है। द्रोणाचार्य ने रणक्षेत्र में महारथी युयुधान को रोककर मर्मस्‍थल को विदीर्ण कर देने वाले पांच पैने बाणों से उन्‍हें घायल कर दिया। राजन! तब सात्‍यकि ने भी समरांगण में शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पांख वाले तथा कंक और मोर-की पांखों से संयुक्‍त हुए सात बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को क्षत-विक्षत कर डाला। फिर द्रोण ने छ: बाण मारकर घोड़ों और सारथि सहित सात्‍यकि को पीड़ित कर दिया। द्रोणाचार्य के इस पराक्रम को महारथी युयुधान सहन न कर सके। माननीय नरेश! तदनन्‍तर युयुधान ने पुन: दस बाण मारकर द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। फिर एक बाण से उनके सारथि को, चार से चारों घोड़ों को और एक बाण से उनकी ध्‍वजा को युद्धस्‍थल में बींध डाला। इसके बाद द्रोणाचार्य ने उतावले होकर टिड्डीदलों के समान अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा घोड़े, सारथि, रथ और ध्‍वज सहित सात्‍यकि को आच्‍छादित कर दिया। इसी प्रकार सात्‍यकि ने भी बिना किसी घबराहट के बहुत-से शीघ्रगामी बाणों की वर्षा करके द्रोणाचार्य को ढक दिया।
      तब द्रोणाचार्य बोले ;- 'माधव! तुम्‍हारे आचार्य अर्जुन तो कायर के समान युद्ध का मैदान छोड़कर चले गये हैं। मैं युद्ध कर रहा था तो भी मुझे छोड़कर मेरी परिक्रमा करते हुए चल दिये। तुम भी अपने आचार्य के समान तुरंत ही समरांगण में मुझे छोड़कर चले नहीं जाओंगे तो युद्ध में तत्‍पर रहते हुए मेरे हाथ से आज जीवित बचकर नहीं जा सकोगे'। 
    सात्‍यकि ने कहा ;- ब्रह्मन! आपका कल्‍याण हो! मैं धर्मराज की आज्ञा से धनंजय के मार्ग पर जा रहा हूँ। आप ऐसा करें, जिससे मुझे विलम्‍ब न हो। शिष्‍यगण तो सदा से ही अपने आचार्य के मार्ग का अनुसरण करते आये हैं। अत: जिस प्रकार मेरे गुरुजी गये हैं, उसी प्रकार मैं भी शीघ्र ही चला जाता हूँ।
     संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसा कहकर सात्‍यकि सहसा द्रोणाचार्य को छोड़कर चल दिये और सारथि से इस प्रकार बोले,
    सात्यिकि ने कहा ;- 'सूत! द्रोणाचार्य मुझे रोकने के लिये सब प्रकार से प्रयत्‍न करेंगे, अत: तुम रणक्षेत्र में सावधान होकर चलो और मेरी यह दूसरी बात भी सुन लो। 'यह अवन्ति के निवासियों की अत्‍यन्‍त तेजस्विनि सेना दिखायी देती है। इसके बाद यह दाक्षिणात्‍यों की विशाल सेना हैं। उसके पश्‍चात यह बाह्लीकों की विशाल वाहिनी है। ये सब-की-सब एक दूसरी का सहारा लेकर युद्ध के लिये डटी हुई है। ये कभी भी समरांगण का परित्‍याग नहीं करेंगी। तुम इन्‍हीं के बीच में प्रसन्‍न्‍तापूर्वक अपने घोड़ों को आगे बढ़ाओं। सारथे! मध्‍यम वेग का आश्रय लेकर तुम मुझे यहाँ ले चलो, जहाँ नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये युद्ध के लिये उद्यत हुए बाह्लिक देशीय सैनिक दिखायी देते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-67 का हिन्दी अनुवाद)

      जहाँ सुतपुत्र कर्ण को आगे करके बहुत से दाक्षिणात्‍य योद्धा खड़े हैं, हाथी, घोड़ों और रथों से भरी हुर्इ जो यह सेना दृष्टिगोचर हो रही है, उसमें अनेक देशों के पैदल सैनिक मौजूद हैं। तुम वहाँ भी मेरे रथ को ले चलो। युद्ध से पीछे न हटने वाले महाभाग युयुधान को आगे बढ़ते देख द्रोणाचार्य कुपित हो उठे और वे बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे दौड़े। सात्‍यकि कर्ण की विशाल वाहिनी को अपने पैने बाणों द्वारा घायल करके अपार कौरवी सेना में घुस गये। सात्‍यकि के प्रवेश करते ही सारे कौरव सैनिक भागने लगे। तब क्रोध में भरे हुए कृतवर्मा ने उन्‍हें आ घेरा। उसे आते देख पराक्रमी सात्‍यकि ने छ: बाणों द्वारा उसे चोट पहुँचाकर चार बाणों से उसके चारों घोड़ों को शीघ्र ही घायल कर दिया। तदनन्‍तर पुन: झुकी हुई गाँठ वाले सोलह बाण मारकर सात्‍यकि ने कृतवर्मा की छाती में गहरी चोट पहुँचायी।
      महाराज! सात्‍यकि के प्रचण्‍ड तेज वाले बहुसंख्‍यक बाणों-द्वारा घायल होने पर कृतवर्मा सहन न कर सका। राजन! वक्रगति से चलने वाले अग्नि के समान तेजस्‍वी वत्‍सदन्‍तनामक बाण को धनुष पर रखकर कृतवर्मा ने उसे कान तक खींचा और उसके द्वारा सात्‍यकि की छाती में प्रहार किया। वह बाण सात्‍यकि के शरीर और कवच दोनों को विदीर्ण करके खून से लथपथ हो पंख एवं पत्रसहित धरती में समा गया। राजन्! कृतवर्मा उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता है। उसने बहुत-से बाण चलाकर बाण समूहों सहित सात्‍यकि के शरासन को काट दिया। नरेश्‍वर! इसके बाद क्रोध में भरे हुए कृतवर्मा ने सत्‍यपराक्रमी सात्‍यकि की छाती में पुन: दस पैने बाणों द्वारा गहरा आघात किया। धनुष कट जाने पर शक्तिशाली शूरवीरों में श्रेष्ठ सात्‍यकि ने कृतवर्मा की दाहिनी भुजा पर शक्ति द्वारा ही प्रहार किया। तदनन्‍तर दूसरे सुदृढ़ धनुष को अच्‍छी तरह खींचकर सात्‍यकि तुरंत ही सैकड़ों और हजारों बाणों की वर्षा की और रथ सहित कृतवर्मा को सब ओर से ढक दिया।
      राजन्! रणक्षेत्र में इस प्रकार कृतवर्मा को आच्‍छादित करके सात्‍यकि ने एक भल्‍ल द्वारा उसके सारथि का सिर काट दिया। उनके द्वारा मारा गया सारथि कृतवर्मा के विशाल रथ से नीचे गिर पड़ा। फिर तो सारथि के बिना उसके घोड़े बड़े जोर से भागने लगे। इससे कृतवर्मा को बड़ी घबराहट हुई; परंतु यह वीर स्‍वयं ही घोड़ों को काबू में करके हाथ में धनुष ले युद्ध के लिये डट गया। उसके इस कर्म की सभी सैनिकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने थोड़ी ही देर में आश्‍वस्‍त होकर अपने उत्तम घोड़ों को आगे बढ़ाया तथा स्‍वंय निर्भय रहकर शत्रुओं के हदय में महान भय उत्‍पन्‍न कर दिया। राजेन्‍द्र! यही अवसर पाकर सात्‍यकि वहाँ से आगे निकल गये। तब कृतवर्मा ने भीमसेन पर धावा किया। कृतवर्मा की सेना से निकलकर युयुधान तुरंत ही काम्‍बोजों की विशाल वाहिनी के पास आ पहुँचे।
      यहाँ बहुत-से शूरवीर महारथियों ने उन्‍हें आगे बढ़ने से रोक दिया। महाराज! तो भी उस समय सत्‍यपराक्रमी सात्‍यकि विचलित नहीं हुए। द्रोणाचार्य ने अपनी बिखरी हुई सेना को एकत्र करके उसकी रक्षा का भार कृतवर्मा को सौंपकर समरांगण में सात्‍यकि के साथ युद्ध करने की इच्‍छा से उद्यत हो उनके पीछे-पीछे दौड़े। इस प्रकार उन्‍हें युयुधान के पीछे दौड़ते देख पांडव सेना के प्रमुख वीर हर्ष में भरकर द्रोणाचार्य को रोकने का प्रयत्‍न करने लगे। परंतु रथियों में श्रेष्‍ठ महारथी कृतवर्मा के पास पहुँचकर भीमसेन का आगे करके आक्रमण करने वाले पाञ्चालों का उत्‍साह नष्‍ट हो गया। राजन! वीर कृतवर्मा ने पराक्रम करके उनको रोक दिया। वे सभी वीर कुछ-कुछ शिथिल एवं अचेत-से हो रहे थे, तो भी अपनी विजय के लिये प्रयत्‍नशील थे; परंतु कृतवर्मा ने सब ओर से उनके उपर बाण-समूहों की वर्षा करके उनके वाहनों को व्‍याकुल कर दिया। कृतवर्मा द्वारा रोके जाने पर वे पाण्‍डव वीर रणक्षेत्र में महान यश की इच्‍छा करते हुए उसी की सेना के साथ युद्ध की अभिलाषा करके श्रेष्‍ठ पुरुषों के समान डटकर खड़े हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथ पर्व में सात्‍यकि प्रवेश विषयक एक सौ तेरहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुदर्शाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र विषाद युक्‍त वचन, संजय का धृतराष्‍ट्र को ही दोषी बताना, कृतवर्मा का भीमसेन और शिखण्‍डी के साथ युद्ध तथा पाण्‍डव सेना की पराजय”

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- संजय! मेरी सेना इस प्रकार अनेक गुणों से सम्‍पन्‍न है और इस तरह अधिक संख्‍या मे इसका संग्रह किया गया है। पांडव सेना में इसका संग्रह किया गया है। पाण्‍डव सेना की अपेक्षा यह प्रबल भी है। इसकी व्‍यूह रचना भी इस प्रकार शास्‍त्रीय विधि के अनुसार की जाती है और इस तरह बहुत-से योद्धाओं का समूह जुट गया है। हम लोगों ने सदा अपनी सेना का आदर-सत्‍कार किया है तथा वह हमारे प्रति सदा से ही अनुरक्‍त भी है। हमारे सैनिक युद्ध की कला में बढ़े-चढ़े हैं। हमारा सैन्‍य-समुदाय देखने में अद्भुत जान पड़ता है तथा इस सेना में वे ही लोग चुन-चुनकर रखे गये हैं, जिनका पराक्रम पहले से ही देख लिया गया है। इसमें न तो कोई अधिक बूढ़ा हैं, न बालक हैं, न अधिक दुबला है और न बहुत ही मोटा है। उनका शरीर हल्‍का, सुडौल तथा प्राय: लंबा है। शरीर का एक-एक अवयव सारवान (सबल) तथा सभी सैनिक नीरोग एवं स्‍वस्‍थ्‍य है। इन सैनिकों का शरीर बंधे हुए कवच से आच्‍छादित है।
     इनके पास शस्त्र आदि आवश्‍यक सामग्रियों की बहुतायत है। ये सभी सैनिक शस्त्रग्रहण सम्‍बन्‍धी बहुत-सी विद्याओं में प्रवीण है। चढ़ने, उतरने, फैलने, कूद-कूदकर चलने, भली-भाँति प्रहार करने, युद्ध के लिये जाने और अवसर देखकर पलायन करने में भी कुशल है। हाथियों, घोड़ों तथा रथों पर बैठकर युद्ध करने की कला में सब लोगों की परीक्षा ली जा चुकी है और परीक्षा लेने के पश्चात उन्‍हें यथायोग्‍य वेतन दिया गया है। हमने किसी को भी गोष्‍ठी द्वारा बहकाकर, उपकार करके अथवा किसी सम्‍बन्‍ध के कारण सेना में भर्ती नहीं किया है। इनमें ऐसा भी कोई नहीं हैं, जिसे बुलाया न गया हो अथवा जिसे बेगार में पकड़कर लाया गया हो। मेरी सारी सेना की यही स्थिति है। इसमें सभी लोग कुलीन, श्रेष्ठ, हष्ट-पुष्ट उद्दण्‍डता शून्‍य, पहले से सम्‍मानित, यशस्‍वी तथा मनस्‍वी है।
      तात! हमारे मन्‍त्रों तथा अन्‍य बहुतेरे प्रमुख कार्यकर्ता जो पुण्‍यात्‍मा, लोकपालों के समान पराक्रमी और मनुष्‍यों में श्रेष्ठ हैं, सदा इस सेना का पालन करके आये हैं। हमारा प्रिय करने की इच्‍छा वाले तथा सेना और अनुचरों सहित स्‍वेच्‍छा से ही हमारे पक्ष में आये हुए बहुत-से भूपालगण भी इसकी रक्षा में तत्‍पर रहते है। सम्‍पूर्ण दिशा में बहकर आयी हुई नदियों से परिपूर्ण होने वाले महासागर के समान हमारी यह सेना अगाध और अपार है। पक्षरहित एवं पक्षियों के समान तीव्र वेग से चलने-वाले रथों और घोड़ों से यह भरी हुई है। मण्‍डस्‍थल से बहाने वाले गजराजों द्वारा आवृत यह मेरी विशाल वाहिनी यदि शत्रुओं द्वारा मारी गयी हैं तो इसमें भाग्‍य के सिवा दूसरा क्‍या कारण हो सकता है। संजय! मेरी सेना भयंकर समुन्‍द्र के समान जान पड़ती है। योद्धा ही इसे अक्षम्‍य जल हैं, वाहन ही इसकी तरंगमालाएं हैं, क्षेपणीय, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्राप्‍त आदि अस्त्र–शस्त्र इसमें मछलियों के समान भरे हुए हैं। ध्‍वजा और आभूषणों के समुदाय इसके भीतर रत्‍नों के समान संचित है। दौड़ते हुए वाहन ही वायु के वेग हैं जिनसे यह सैन्‍य समुद्र कम्पित एवं क्षुब्‍ध-सा जान पड़ता है। द्रोणाचार्य ही इसकी पाताल तक फैली हुर्इ गहराई हैं। कृतवर्मा इसमें महान ह्रद के समान हैं, जलसंघ विशाल ग्राह है और कर्णरुपी चन्‍द्रमा के उदय से यह सदा उद्वेलित होता रहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुदर्शाधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय! ऐसे मेरे सैन्‍यरुपी महासागर का वेगपूर्वक भेदन करके जब पाण्‍डव श्रेष्ठ सव्यसाची अर्जुन तथा सात्‍यतवंशी उदार महारथी युयुधान एकमात्र रथ की सहायता से इसके भीतर घुस गये, तब मैं अपनी सेना के शेष रहने की आशा नहीं देखता हूँ। उन दोनों अत्‍यन्‍त वेगशाली वीरों को वहाँ सबका उल्‍लंघन करके घुसे हुए देख तथा सिन्‍धुराज जयद्रथ की गाण्डीव से छूटे हुए बाणों की सीमा में उपस्थित पाकर काल-प्रेरित कौरवों ने वहाँ कौन-सा कार्य किया? उस दारुण संहार के समय, जहाँ मृत्‍यु के सिवा दूसरी कोई भाँति नहीं थी, किस प्रकार उन्‍होंने कर्त्तव्‍य का निश्‍चय किया? संजय! श्रीकृष्‍ण और अर्जुन बिना कोई क्षति उठाये युद्धस्‍थल में मेरी सेना के भीतर घुस गये; परंतु इसमें कोई भी वीर उन दोनों को रोकने वाला न निकला। हमने दूसरे बहुत-से महारथी योद्धाओं की परीक्षा करके ही उन्‍हें सेना में भर्ती किया है और यथायोग्‍य वेतन देकर तथा प्रिय वचन बोलकर उनका सत्‍कार किया है। तात! मेरी सेना में कोई भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अनादर-पूर्वक रखा गया हो। सबको उनके कार्य के अनुरुप ही भोजन और वेतन प्राप्‍त होता है। तात संजय! मेरी सेना में ऐसा एक भी योद्धा नहीं रहा होगा, जिसे थोड़ा वेतन दिया जाता हो अथवा‍ बिना वेतन के ही रखा गया हो। तात! मैंने, मेरे पुत्रों ने तथा कुटूम्‍बीजनों एवं बन्‍धु–बान्‍धवों ने सभी सैनिकों का यथाशक्ति दान, मान और आसन देकर सत्‍कार किया है। तथापि सव्‍यसाची अर्जुन ने संग्राम भूमि में पहुँचते ही उन सबको पराजित कर दिया है और सात्‍यकि ने भी उन्‍हें कुचल डाला है। इसे भाग्‍य के सिवा और क्‍या कहा जा सकता है?
      संजय! संग्राम में जिसकी रक्षा की जाती है और जो लोग रक्षक हैं, उन रक्षकों सहित रक्षणीय पुरुष के लिये एकमात्र साधारण मार्ग रह गया है पराजय। अर्जुन को समरांगण में सिन्‍धुराज के सामने खड़ा देख अत्‍यन्‍त मोहग्रस्‍त हुए मेरे पुत्र ने कौन-सा कर्त्तव्‍य निश्चित किया? सात्‍यकि को रणक्षेत्र में निर्भय-सा प्रवेश करते देख दुर्योधन ने उस समय के लिये कौन-सा कर्त्तव्‍य उचित माना? सम्‍पूर्ण शस्त्रों की पहुँच से परे होकर जब रथियों में श्रेष्‍ठ सात्‍यकि और अर्जुन मेरी सेना में प्रविष्‍ट हो गये, तब उन्‍हें देखकर मेरे पुत्रों ने युद्धस्‍थल में किस प्रकार धैर्य धारण किया? मैं समझता हूँ कि अर्जुन के लिये रथ पर बैठे हुए दशार्ह-नन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण को तथा शिनिप्रवर सात्‍यकि को देखकर मेरे पुत्र शोकमग्‍न हो गये होंगे। सात्‍यकि और अर्जुन को सेना लांघकर जाते और कौरव सैनिकों को युद्धस्‍थल से भागते देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक में डूब गये होंगे। मेरे मन में यह बात आती है कि अपने र‍थियों को शत्रु विजय की ओर से उत्‍साह शून्‍य होकर भागते और भागने में ही बहादुरी दिखाते देख मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें। सात्‍यकि और अर्जुन ने हमारी रथों की बैठकें सूनी कर दी हैं और योद्धाओं को मार गिराया है, यह देखकर मैं सोचता हूँ कि मेरे पुत्र बहुत दुखी हो गये होगे। अर्जुन के बाणों से आहत होकर बड़े-बड़े गजराजों को भागते, गिरते और गिरे हुए देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुदर्शाधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-56 का हिन्दी अनुवाद)

      सात्‍यकि और अर्जुन ने घोड़ों को सवारों से हीन और मनुष्‍यों को रथ से वंचित कर दिया है। यह देख-सुनकर मेरे पुत्र शोक में डूब रहे होंगे। रणक्षेत्र में सात्‍यकि और अर्जुन द्वारा मारे गये तथा इधर-उधर भागते हुए अश्व समूहों को देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकदग्‍ध हो रहे होंगे। पैदल सिपाहियों को रणक्षेत्र में सब ओर भागते देख मैं समझता हूं, मेरे सभी पुत्र विजय से निराश हो शोक कर रहे होंगे। मेरे मन में यह बात आती हैं कि किसी से पराजित न होने वाले दोनों वीर अर्जुन और सात्‍यकि को क्षणभर में द्रोणाचार्य की सेना उल्‍लघंन करते देख मेरे पुत्र शोकाकुल हो गये होंगे। तात! अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के सात्‍यकि सहित अपनी सेना में घुसने का समाचार सुनकर मैं अत्‍यन्‍त मोहित हो रहा हूँ। शिनिप्रवर महारथी सात्‍यकि जब कृतवर्मा की सेना को लांघकर कौरवी सेना में प्रविष्‍ट हो गये, तब कौरवों ने क्‍या किया?
      संजय! जब द्रोणाचार्य ने समर-भूमि में पूर्वोक्‍त प्रकार से पाण्‍डवों को रोक दिया, तब वहाँ किस प्रकार युद्ध हुआ? यह सब मुझे बताओ। द्रोणाचार्य अस्त्रविद्या में निपुण, युद्ध में उन्‍मत होकर लड़ने वाले, बलवान एवं श्रेष्ठ वीर हैं। पाञ्चालों सैनिकों ने उस समय रणक्षेत्र में महाधनुर्धर द्रोण को किस प्रकार घायल किया? क्‍योकि वे द्रोणाचार्य से वैर बांधकर अर्जुन की विजय-की अभिलाषा रखते थे। संजय! भरद्वाज के पुत्र महारथी अश्वत्‍थामा भी पाञ्चालों से दृढ़तापूर्वक वैर बांधे हुए थे। अर्जुन ने सिन्‍धुराज जयद्रथ का वध करने के लिये जो-जो उपाय किया, वह सब मुझसे कहो; क्‍योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो। 
     संजय ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! यह सारी विपति आपको अपने ही अपराध से प्राप्‍त हुई हैं। वीर! इसे पाकर निम्‍न कोटि के मनुष्‍यों की भाँति शोक न कीजिये। पहले जब आपके बुद्धिमान सुहद विदुर आदि ने आपसे कहा था कि राजन! आप पाण्‍डवों के राज्‍य का अपहरण न कीजिये, तब आपने उनकी यह बात नहीं सुनी थी। जो हितैषी सुहृदों की बात नहीं सुनता हैं, वह भारी संकट में पड़कर आपके ही समान शोक करता है। राजन! दशार्हनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने पहले आप से शान्ति के लिये याचना की थी; परंतु आपकी ओर से उन महायशस्‍वी श्रीकृष्‍ण की वह इच्‍छा पूरी न की गयी। नृपश्रेष्ठ सम्‍पूर्ण लोकों के तत्‍वश तथा सर्वलोकेश्वर भगवान श्रीकृष्‍ण ने जब यह जान लिया कि आप सर्वथा सद्गुणशून्‍य हैं, अपने पुत्रों पर पक्षपात रखते है, धर्म के विषय में आपके मन में दुविधा बनी हुई हैं, पाण्‍डवों के प्रति आपके हदय में डाह है, आप उनके प्रति कुटिलतापूर्ण मनसूबे बांधते रहते हैं और व्‍यर्थ ही आर्त मनुष्‍यों के समान बहुत-सी बातें बनाते हैं, तब उन्‍होंने कौरव-पाण्‍डव के महान युद्ध का आयोजन किया।
      मानद! अपने ही अपराध से आपके समाने यह महान जनसंहार प्राप्‍त हुआ है। आपको यह सारा दोष दुर्योधन पर नहीं मढ़ना चाहिये। भारत! मुझे तो आगे, पीछे या बीच में आपका कोई भी शुभ कर्म नहीं दिखायी देता। इस पराजय की जड़ आप ही है। इसलिये स्थिर होकर और लोक के नियत स्‍वभाव को जानकर देवासुर-संग्राम के समान भयंकर इस कौरव-पाण्‍डव युद्ध का यथा‍र्थ वृतान्‍त सुनिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुदर्शाधिकशततम अध्याय के श्लोक 57-78 का हिन्दी अनुवाद)

       जब सत्‍यपराक्रमी सात्‍यकि कौरव-सेना में प्रविष्‍ट हो गये, तब भीमसेन आदि कुन्‍तीकुमारों ने आपकी विशाल वाहिनी पर आक्रमण किया। सेवकों सहित कुपित होकर सहसा आक्रमण करने वाले उन पाण्‍डव वीरों को रणक्षेत्र में एकमात्र महारथी कृतवर्मा ने रोका।। जैसे उद्वेलित हुए महासागर को किनारे की भूमि आगे बढ़ने से रोकती हैं, उसी प्रकार युद्धस्‍थल मे कृतवर्मा ने पाण्‍डव-सेना को रोक दिया। वहाँ हमने कृतवर्मा का अद्भुत पराक्रम देखा। सारे पाण्‍डव एक साथ मिलकर भी समरांगण में उसे लांघ न सके। तदनन्‍तर महाबाहु भीम ने तीन बाणों द्वारा कृतवर्मा को घायल करके समस्‍त पाण्‍डवों का हर्ष बढ़ाते हुए शंख बजाया।
     सहदेव ने बीस, धर्मराज ने पांच और नकुल ने सौ बाणों से कृतवर्मा को बींघ डाला। द्रौपदी के पुत्रों ने तिहत्तर, घटोत्कच ने सात और धृष्टद्युम्न ने तीन बाणों द्वारा उसे गहरी चोट पहुँचायी। विराट, द्रुपद और उनके पुत्र धृष्टद्युम्न ने पांच-पांच बाणों से उसको घायल कर दिया। फिर शिखण्डी ने पहले पांच बाणों द्वारा चोट करके फिर हंसते हुए ही बीस बाणों से कृतवर्मा को बींघ डाला। राजन! उस समय कृतवर्मा ने चारों ओर बाण चलाकर उन महारथियों से प्रत्‍येक को पाचं बाणों द्वारा बींघ डाला और भीमसेन को धनुष और ध्‍वज को काटकर रथ से पृथ्‍वी पर गिरा दिया। भीमसेन का धनुष कट जाने पर महारथी कृतवर्मा ने कुपित हो बड़ी उतावली के साथ सत्तर पैने बाणों द्वारा उनकी छाती में गहरा आघात किया। कृतवर्मा के श्रेष्ठ बाणों द्वारा अत्‍यन्‍त घायल हुए बलवान भीमसेन रथ के भीतर बैठे हुए ही भूकम्‍प के समय हिलने वाले पर्वत के समान कांपने लगे। राजन! भीमसेन को वैसी अवस्‍था में देखकर धर्मराज आदि महारथियों ने बाणों की वर्षा करके कृतवर्मा को बड़ी पीड़ा दी।
      माननीय नरेश! हर्ष में भरे हुए पांडव सैनिकों भीमसेन की रक्षा के लिये अपने रथसमूह द्वारा कृतवर्मा को कोष्ठबद्धसा करके उसे युद्धस्‍थल में अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। इसी बीच में महाबली भीमसेन ने सचेत होकर समरांगण में सुवर्णमय दण्‍ड से विभूषित एक लोहे की शक्ति हाथ में ले ली।। और शीघ्र ही उसे अपने रथ से कृतवर्मा के रथ पर चला दिया। भीमसेन के हाथों से छुटी हुई, केंचुली से निकले हुए सर्प के समान वह भंयकर कृतवर्मा के समीप जाकर प्रज्‍वलित हो उठी। उस समय अपने ऊपर आती हुई प्रलयकाल की अग्नि के समान उस शक्ति को सहसा दो बाण मारकर कृतवर्मा ने उसके दो टुकड़े कर दिये।
      राजन! सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वह सुवर्णभूषित शक्ति काटकर आकाश से गिरी हुई बड़ी भारी उल्‍का के समान पृथ्‍वी पर गिर पड़ी। अपनी शक्ति को कटी हई देख भीमसेन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्‍होंने बड़ी भारी टंकारध्‍वनि करने वाले दूसरे वेगशाली धनुष को हाथ में लेकर समरांगण में कुपति हो कृतवर्मा का सामना किया। राजन! आपको ही कुमन्‍त्रणा से वहाँ भंयकर बलशाली भीमसेन ने कृतवर्मा की छा‍ती मे पांच बाण मारे। माननीय नरेश! भीमसेन ने उन बाणों द्वारा कृतवर्मा के सम्‍पूर्ण अंगो को क्ष‍त-विक्षत कर दिया। वह रणांगण में खून से लथपथ हो खिले हुए लाल फूलों वाले अशोक वृक्ष के समान सुशोभित होने लगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुदर्शाधिकशततम अध्याय के श्लोक 79-103 का हिन्दी अनुवाद)

      तदनन्‍तर उस महाधनुर्धर ने क्रोध में भरकर हंसते हुए ही तीन बाणों द्वारा भीमसेन को गहरी चोट पहुँचाकर युद्ध में विजय के लिये प्रयत्‍न करने वाले उन सभी महारथियों को तीन-तीन बाणों से बींघ डाला। तब उन महारथियों ने कृतवर्मा को सात-सात बाण मारे। उस समय क्रोध में भरे हुए महारथी कृतवर्मा ने हंसते हुए ही समरांगण में क्षुरप्र द्वारा शिखण्डी का धनुष काट डाला। धनुष कट जाने पर शिखण्‍डी ने तुरंत ही कुपित हो उस युद्धस्‍थल में सौ चन्द्रमा से युक्‍त चमकीली ढाल और तलवार हाथ में ले ली। उसने स्‍वर्णभूषित विशाल ढाल को घुमाकर कृतवर्मा के रथ पर वह तलवार दे मारी। राजन! वह महान खड्ग कृतवर्मा के बाण सहित धनुष को काटकर आकाश से टूटे हुए तारे के समान धरती में समा गया। इसी समय पाण्‍डव महारथियों ने युद्ध में जल्‍दी-जल्‍दी हाथ चलाने वाले कृतवर्मा को अपने बाणों द्वारा भारी चोट पहुँचायी। भरतश्रेष्ठ! तदनन्‍तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले कृतवर्मा ने टूटे हुए उस विशाल धनुष को त्‍यागकर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और युद्ध में पाण्‍डवों को तीन-तीन बाण मारकर घायल कर दिया। साथ ही शिखण्‍डी को भी तीन और पांच बाणों से बींघ डाला।
     तत्पश्‍चात महायशस्‍वी शिखण्‍डी ने भी दूसरा धनुष लेकर कछुओं के नखों के समान धार वाले बाणों द्वारा कृतवर्मा का सामना किया। राजन! जैसे सिंह हाथी पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उस रणक्षेत्र में कुपित हुए शूरवीर कृतवर्मा ने समरांगण में महात्‍मा भीष्‍म की मृत्‍यु का कारण बने हुए महारथी शिखण्‍डी पर अपने बल का प्रदर्शन करते हुए बड़े वेग से धावा किया। प्रज्‍वलित अग्नियों के समान तेजस्‍वी तथा शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर अपने बाण समूहों द्वारा दो दिग्‍गजों के समान एक दूसरे पर टूट पड़े। जैसे दो सूर्य पृथक-पृथक अपनी किरणों का विस्‍तार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर अपने श्रेष्ठ धनुष हिलाते और उन पर सैकड़ों बाणों का संधान करके छोड़त थे। अपने पैने बाणों द्वारा एक दूसरे को संताप देते हुए वे दोनों महारथी वीर प्रलयकाल के दो सूर्यों के समान शोभा पा रहे थे। कृतवर्मा ने समरांगण में महारथी शिखण्‍डी को पहले तिहत्तर बाणों से घायल करके फिर सात बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। उन बाणों की गहरी चोट खाकर शिखण्‍डी व्‍यथित एवं मूर्च्छित हो धनुष-बाण त्‍यागकर रथ की बैठक में बैठ गया।
      नरश्रेष्ठ! रणक्षेत्र में शिखण्‍डी को विषादग्रस्त देख आपके सैनिक कृतवर्मा की प्रशंसा करने और वस्त्र हिलाने लगे। महारथी शिखण्‍डी को कृतवर्मा के बाणों से पीड़ित जान सारथि बड़ी उतावली के साथ उसे रणभूमि से बाहर ले गया। कुन्‍तीकुमारों ने शिखण्डी को रथ के पिछले भाग में बेसुध होकर बैठा देख तुंरत ही कृतवर्मा को रणभूमि में अपने रथों-द्वारा चारों ओर से घेर लिया। वहाँ महारथी कृतवर्मा ने अत्‍यन्‍त अद्भुत पराक्रम प्रकट किया। उसने अकेले होने पर भी सेवकों सहित समस्‍त पाण्‍डवों का समरभूमि में सामना किया। महारथी कृतवर्मा ने पाण्‍डवों को जी‍तकर चेदिदेशीय सैनिकों को परास्‍त किया, फिर पाञ्चालों, सृंजयों और महापराक्रमी केकयों को भी हरा दिया। समरांगण में कृतवर्मा के बाणों की मार खाकर पाण्‍डव सैनिक इधर-उधर भगने लगे। वे रणभूमि में कहीं भी स्थिर न हो सके। युद्ध में भीमसेन आदि पाण्‍डवों को जीतकर कृतवर्मा उस रणक्षेत्र में धूमरहित अग्नि के समान शोभा पाता हुआ खड़ा था। समरांगण में कृतवर्मा के द्वारा खदेड़े गये और उसकी बाण वर्षा से पीड़ित हुए पूर्वोक्‍त सभी महारथियों ने युद्ध से मुंह मोड़ लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथपर्व में सात्‍यकि का कौरव सेना में प्रवेश हुआ कृतवर्मा का पराक्रमविषयक एक सौ चौदहंवा अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि के द्वारा कृतवर्मा की पराजय, त्रिगर्ता की गजसेना का संहार और जलसंघ का वध”

     संजय कहते हैं ;- राजन! आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे हैं, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनिये। महामना कृतवर्मा के द्वारा खदेड़ी जाने के कारण जब पाण्डव सेना लज्जा से नतमस्तक हो गयी और आपके सैनिक हर्ष उल्लसित हो उठे, उस समय अथाह सैन्‍य-समुद्र में थाह पाने की इच्छा वाले पाण्डव सैनिकों के लिये जो द्वीप बनकर आश्रयदाता हुआ (उस सात्यकि का पराक्रम श्रवण कीजिए)। राजन! उस महासमर में आपके सैनिकों का भयंकर सिंहनाद सुनकर सात्यकि ने तुरंत ही कृतवर्मा पर आक्रमण किया। उन्होंने क्रोध और अमर्ष में भरकर वहाँ सारथि से कहा,
    सात्यकि ने कहा ;- 'सूत! तुम मेरे उत्तम रथ को कृतवर्मा के सामने ले चलो। देखो, वह अमर्ष युक्त होकर पाण्डव सेना में संहार मचा रहा है। सारथे! इसे जीतकर मैं पुनः अर्जुन के पास चलूँगा।'
महामते! सात्यकि के ऐसा कहने पर सारथि पलक गिरते-गिरते रथ लेकर कृतवर्मा के पास जा पहुँचा। हृदिकपुत्र कृतवर्मा ने अत्यन्त कुपित हो सात्यकि पर पैने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। इससे सात्यकि का क्रोध भी बहुत बढ़ गया। उन्होंने तुरंत ही कृतवर्मा पर समरभूमि में एक तीखे भल्ल का प्रहार किया। फिर चार बाण और मारे। उन चारों बाणों ने कृतवर्मा के चारों घोड़ों को मार डाला। सात्यकि ने भल्ल से उसके धनुष को काट दिया। फिर पैने बाणों द्वारा उसके पृष्ठ रक्षक और सारथि को भी क्षत-विक्षत कर दिया। तदन्तर सत्यपराक्रमी सात्यकि ने कृतवर्मा को रथहीन करके झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उसकी सेना को पीड़ित करना आरम्भ किया। सात्यकि के बाणों से पीड़ित हो कृतवर्मा की सेना भाग खड़ी हुई। तत्पश्चात सत्यपराक्रमी सात्यकि तुंरत आगे बढ़ गये।
      महाराज! पराक्रमी सात्यकि ने द्रोणाचार्य के सैन्य समुद्र को लाँघकर आपकी सेनाओं में पराक्रम किया, उसका वर्णन सुनिये। उस महासमर में कृतवर्मा को पराजित करके हर्ष में भरे हुए शूरवीर सात्यकि बिना किसी घबराहट के सारथि से बोले,
    सात्यकि ने कहा ;- ‘सूत! धीरे-धीरे चलो’। रथ, घोड़े हाथी और पैदलों से भरी हुई आपकी सेना को देखकर सात्यकि ने पुनः सारथि से कहा,
     सात्यिकि ने फिर कहा ;- ‘सूत! द्रोणाचार्य की सेना के बायें भाग में जो यह मेघों की घटा के समान विशाल गज सेना दिखायी देती है, इसके मुहाने पर रुक्मरथ खड़ा है। इसमें बहुत से ऐसे शूरवीर हैं, जिन्हें युद्ध में रोकना अत्यन्त कठिन है। ये दुर्योधन की आज्ञा में प्राणों का मोह छोड़कर मेरे साथ युद्ध करने के लिये खड़े हैं।
     ‘सूत! इन्हें रण में परास्त किये बिना न तो जयद्रथ को प्राप्त किया जा सकता है और न किसी प्रकार अर्जुन ही मुझे मिल सकते हैं। ये समस्त विद्याओं में प्रवीण योद्धा एक साथ संगठित होकर खडे़ हैं। ये त्रिगर्त देश के उदार महारथी राजकुमार महान धनुर्धर हैं और सभी पराक्रर्मपूर्वक युद्ध करने वाले हैं। इन सबकी ध्वजा सुवर्णमयी है। ये समस्त वीर मेरी ही ओर मुँह करके युद्ध करने के लिये खड़े हैं। सारथे! घोड़ों को हाँको और मुझे शीघ्र ही इनके पास पहुँचा दो। मैं द्रोणाचार्य के देखते-देखते त्रिगर्तों के साथ युद्ध करूँगा’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

      तदनन्तर सात्यकि की सम्मति के अनुसार सारथि सूर्य के समान तेजस्वी तथा पताकाओं से विभूषित रथ के द्वारा धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उस रथ के उत्तम घोड़े कुन्द, चन्द्रमा और चाँदी के समान श्वेत रंग के थे, वे सारथि के अधीन रहने वाले और वायु के समान वेगशाली थे तथा युद्ध में उछलते हुए उस रथ का भार वहन करते थे। शंख के समान श्वेत रंग वाले उन उत्तम घोड़ों द्वारा रणभूमि में आते हुए सात्यकि को त्रिगर्तदेशीय शूरवीरों ने सब ओर से गज सेना द्वारा घेर लिया। शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य वेधने-वाले समस्त सैनिक नाना प्रकार के तीखे बाणों की वर्षा कर रहे थे। सात्यकि ने भी पैने बाणों द्वारा गज सेना के साथ युद्ध प्रारम्भ किया, मानों वर्षा काल में महान मेघ पर्वतों पर जल की धारा बरसा रहा हो। शिनिवंश के वीर सात्यकि द्वारा चलाये हुए वज्र और बिजली के समान स्पर्श वाले उन बाणों की मार खाकर उस सेना के हाथी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे।
      उन हाथियों के दाँत टूट गये, सारे अंगों से खून की धाराएँ बहने लगीं, कुम्भ स्थल और गण्ड स्थल फट गये, कान, मुख और शुण्ड छिन्न-भिन्न हो गये, महावत मारे गये और ध्वजा-पताकाएँ टूटकर गिर गयीं। उनके मर्मस्थान विदीर्ण हो गये, घंटे टूट गये और विशाल ध्वज कटकर गिर पड़े। सवार मारे गये तथा झूल खिसकर गिर गये थे। राजन! ऐसी अवस्था में उन हाथियों ने भागकर विभिन्न दिशाओं की शरण ली थी। उनके चिंघाड़ने की ध्वनि मेघों की गर्जना के समान जान पड़ती थी। वे सात्यकि के चलाये हुए नाराच, वत्स-दन्त, भल्ल, अंजलिक, क्षुरप्र और अर्द्धचन्द्र नामक बाणों से विदीर्ण हो नाना प्रकार से आर्तनाद करते, रक्त बहाते तथा मल-मूत्र छोड़ते हुए भाग रहे थे। उनमें से कुछ हाथी चक्कर काटने लगे, कुछ लड़खड़ाने लगे, कुछ धराशायी हो गये और कुछ पीड़ा के मारे अत्यन्त शिथिल हो गये थे। इस प्रकार युयुधान के अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी बाणों द्वारा पीड़ित हुई हाथियों की वह सेना सब ओर भाग गयी।
       उस गजसेना के नष्ट होने पर महाबली जलसंध युद्ध के लिये उधत हो श्वेत घोड़ों वाले सात्यकि के रथ के समीप अपना हाथी ले आया। शूरवीर एवं पवित्र जलसंघ ने अपने शरीर में सोने का कवच धारण कर रखा था। उसकी दोनों भुजाओं में सोने के ही बाजूबंद शोभा पा रहे थे। दोनों भुजाओं कानों में कुण्डल और मस्तक पर किरीट चमक रहे थे। उसके हाथ में तलवार थी और सम्पूर्ण शरीर में रक्त चन्दन का लेप लगा हुआ था। उसने अपने सिर पर सोने की बनी हुई चमकीली माला और वक्षः स्थल पर प्रकाशमान पदक एवं कण्ठहार धारण कर रखे थे। महाराज! हाथी की पीठ पर बैठकर अपने सोने के बने हुए धनुष को हिलाता हुआ जलसंध बिजली सहित मेघ के समान शोभा पा रहा था। सहसा अपनी ओर आते हुए मगधराज के उस गजराज को सात्यकि ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को रोक देती है। राजन! सात्यकि के उत्तम बाणों से उस हाथी को अवरुद्ध हुआ देख महाबली जलसंघ रणक्षेत्र में कुपित हो उठा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-57 का हिन्दी अनुवाद)

      महाराज! क्रोध में भरे हुए जलसंघ ने भार सहन करने में समर्थ बाणों द्वारा शिनिपौत्र सात्यकि की विशाल छाती पर गहरा आघात किया। तत्पश्चात् दूसरे तीखे, पैने और पानीदार भल्ल से उसने बाण फेंकते हुए वृष्णिवीर सात्यकि के धनुष को काट डाला। भारत! धनुष काटने के पश्चात् सात्यकि को उस मागध वीरने हँसते हुए ही पाँच तीखे बाणों द्वारा घायल कर दिया। जलसंघ के बहुत से बाणों द्वारा क्षत-विक्षत होने पर पराक्रर्मी महाबाहु सात्यकि कम्पित नहीं हुए। यह अद्भुत सी बात थी। बलवान सात्यकि ने उसके बाणों को कुछ भी न गिनते हुए संभ्रम में न पड़कर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और कहा-‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। ऐसा कहकर सात्यकि ने हँसते हुए ही साठ बाणों द्वारा जलसंघ की चौड़ी छाती पर गहरी चोट पहुँचायी। फिर अत्यन्त तीखे क्षरप्र से जलसंघ के विशाल धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और तीन बाण मारकर उसे घायल भी कर दिया।
      माननीय नरेश! जलसंघ ने बाण सहित उस धनुष को त्याग कर सात्यकि पर तुरंत ही तोमर का प्रहार किया। फुफकारते हुए महान सर्प के समान वह भयंकर तोमर उस महान समर में सात्यकि की बायीं भुजा को विदीर्ण करता हुआ धरती में समा गया। अपनी बायीं भुजा के घायल होने पर सत्यपराक्रमी सात्यकि ने तीस तीखे बाणों द्वारा जलसंघ को आहत कर दिया। तब महाबली जयसंघ ने सौ चन्द्राकार चमकीले चिह्नों से युक्त वृषभ-चर्म की बनी हुई विषाल ढाल और तलवार हाथ में ले ली तथा उस तलवार को घुमाकर सात्यकि पर छोड़ दिया। वह खंड सात्यकि के धनुष को काटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। धरती पर पहुँचकर वह अकात चक्र के समान प्रकाशित हो रहा था। तब सात्यकि ने धनुष को काटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
     धरती पर पहुँचकर वह अलातचक्र के समान प्रकाशित हो रहा था। तब सात्यकि ने साखू के तने के समान विशाल, इन्द्र के वज्र की भाँति घोर टंकार करने वाले तथा सबके शरीर को विदीर्ण करने में समर्थ दूसरा धनुष हाथ में लेकर उसे कान तक खींचा और कुपित हो एक बाण से जलसंघ को बींध डाला। फिर मधुवंश शिरोमणि सात्यकि ने हँसते हुए से दो छुरों का प्रहार करके जलसंघ की आभूषण भूषित दोनों भुजाओं को काट दिया। तदनन्तर सात्यकि ने तीसरे छुरे से उसके सुन्दर दाँतो वाले मनोहर कुण्डलमण्डित विशाल मस्तक को काट गिराया। मस्तक और भुजाओं के गिर जाने से अत्यंत भयंकर दिखायी देने वाले जलसंघ के उस धड़ ने अपने खून से उस हाथी को नहला दिया। प्रजानाथ! युद्ध स्थल में जलसंघ को मारकर फुर्ती करने वाले सात्यकि ने हाथी की पीठ से उसके हौदे को भी गिरा दिया। खून से भीगे शरीर वाला जलसंध का वह हाथी अपनी पीठ से सटकर लटकते हुए उस हौदे को ढो रहा था। सात्यकि के बाणों से पीड़ित हो वह महान गजराज घोर चीत्कार करके अपनी ही सेना को कुचलता हुआ भाग निकला। आर्य! वृष्णि प्रवर सात्यकि के द्वारा जलसंघ को मारा गया देख आप की सेना में महान हाहाकार मच गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 58-61 का हिन्दी अनुवाद)

      आपके योद्धा शत्रुओं पर विजय पाने का उत्साह खो बैठे। अब वे भाग निकलने में ही में उत्साह दिखाने लगे और युद्ध से मुँह मोड़कर चारों और भाग गये। राजन! उसी समय शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य अपने वेगशाली घोड़ों द्वारा महारथी युयुधान का सामना करने के लिये आ पहुँचे। शिनिपौत्र सात्यकि को बढ़ते देख नर श्रेष्ठ कौरव महारथी द्रोणाचार्य के साथ ही कुपित हो उन पर टूट पड़े। राजन! फिर तो उस रण क्षेत्र में कौरवों सहित द्रोणाचार्य तथा सात्यकि का देवासुर-संग्राम के समान भयंकर युद्ध होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवधमेंसात्‍यकि के कौरव सेना में प्रवेशके अवसरपर जलसंध का वध नामक एक सौ पंद्रहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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