सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ छःवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोण और उनकी सेना के साथ पाण्डव-सेना का द्वन्द्व युद्ध तथा द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करते समय रथ-भंग हो जाने पर यधिष्ठर का पलायन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जब अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथ के समीप पहुँच गये, तब द्रोणाचार्य द्वारा रोके हुए पाञ्चाल सैनिकों ने कौरवों के साथ क्या किया।
संजय कहते हैं ;- महाराज! उस दिन अपराह्ण काल में, जब रोमाञ्चकारी युद्ध चल रहा था, पाञ्चालों और कौरवों में द्रोणाचार्य को दांव पर रखकर द्यूत सा होने लगा। माननीय नरेश! पाञ्चाल सैनिक द्रोण को मार डालने की इच्छा से प्रसन्नचित्त होकर गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे। तदनन्तर उन पाञ्चालों और कौरवों में घोर देवासुर संग्राम के समान अद्भुत एवं भयंकर युद्ध होने लगे। समस्त पाञ्चाल पाण्डवों के साथ द्रोणाचार्य के रथ के समीप जाकर उनकी सेना के व्यूह का भेदन करने की इच्छा से बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रदर्शन करने लगे। वे पाञ्चाल रथी रथ पर बैठकर मध्यम वेग का आश्रय ले पृथ्वी को कंपाते हुए द्रोणाचार्य के रथ के अत्यन्त निकट जाकर उनको सामना करने लगे। केकय देश के महारथी वीर बृहत्क्षत्र ने महेन्द्र के वज्र के समान तीखे बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ द्रोणाचार्य पर धावा किया। उस समय महायशम्वी क्षेमधूर्ति सैकड़ों और हजारों तीखे बाण छोड़ते हुए शीघ्रतापूर्वक बृहत्क्षत्र का सामना करने के लिये गये।
अत्यन्त बल से विख्यात चेदिराज धृष्टकेतु ने भी बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य पर धावा किया, मानो देवराज इन्द्र ने शम्बरासुर पर चढ़ाई की हो। मुंह बाये हुए काल के समान सहसा आक्रमण करने वाले धृष्टकेतु का सामना करने के लिये महाधनुर्धर वीरधन्वा बड़े वेग से आ पहुँचे। तदनन्तर पराक्रमी द्रोणाचार्य ने विजय की इच्छा से सेना सहित खड़े हुए महाराज युधिष्ठिर को आगे बढ़ने से रोक दिया। प्रभो! आपके पराक्रमी पुत्र विकर्ण ने वहाँ आते हुए पराक्रम शाली युद्ध कुशल नकुल का सामना किया। शत्रुसूदन दुर्मुख ने अपने सामने आते हुए सहदेव पर कई हजार बाणों की वर्षा की। व्याघ्रदत्त ने अत्यन्त तेज किये हुए तीखे बाणों द्वारा बारंबार शत्रुसेना को कम्पित करते हुए वहाँ पुरुष सिंह सात्यकि को आगे बढ़ने से रोका। मनुष्यों में व्याघ्र के समान पराक्रमी तथा श्रेष्ठ रथी द्रौपदी के पांचों पुत्र कुपित होकर शत्रुओं पर उत्तम बाणों की वर्षा कर रहे थे। सोमदत्त कुमार शल ने उन सबको रोक दिया। भयंकर रुपधारी एवं भयानक महारथी ऋष्यश्रृगं कुमार अलम्बुष ने उस समय क्रोध में भरकर आते हुए भीमसेन को रोका। राजन! पूर्व काल में जिस प्रकार श्रीराम और रावण का संग्राम हुआ था, उसी प्रकार उस रणक्षेत्र में मानव भीमसेन तथा राक्षस अलम्बुष का युद्ध हुआ।
भरतभूषण! युधिष्ठिर ने झुकी हुई गांठवाले नब्बे बाणों से द्रोणाचार्य के सम्पूर्ण मर्म स्थानों में आघात किया। भरतश्रेष्ठ यशस्वी कुन्ती कुमार के क्रोध दिलाने पर द्रोणाचार्य ने उनकी छाती में पच्चीस बाण मारे। फिर द्रोण ने सम्पूर्ण धनुर्धरों को देखते-देखते घोड़े सारथि और ध्वज सहित युधिष्ठिर को बीस बाण मारे। धर्मात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए द्रोणाचार्य के छोड़े हुए उन बाणों को अपनी बाण-वर्षा द्वारा रोक दिया। तब धनुर्धर द्रोणाचार्य उस युद्ध स्थल में महात्मा धर्मराज युधिष्ठिर पर अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने समरागंण में युधिष्ठिर के धनुष को काट दिया। धनुष काट देने के पश्रात् महारथी द्रोणाचार्य बड़ी उतावली के साथ कई हजार बाणों की वर्षा करके उन्हें सब ओर से ढक लिया। राजा युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य के बाणों से अदृश्य हुआ देख समस्त प्राणियों ने उन्हें मारा गया ही मान लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-47 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! कुछ लोग ऐसा समझते थे कि युधिष्ठिर पराजित होकर भाग गये। कुछ लोगों की यही धारणा थी कि महामनस्वी ब्राह्मण द्रोणाचार्य के हाथ से राजा युधिष्ठिर मार डाले गये। इस प्रकार भारी संकट में पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने यद्ध द्रोणाचार्य के द्वारा काट दिये गये उस धनुष को त्याग कर दूसरा प्रकाशमान एवं अत्यन्त वेगशाली दिव्य धनुष धारण किया। तदनन्तर वीर युधिष्ठिर ने समरागंण में द्रोणाचार्य के चलाये हुए सहस्त्रों बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वह अद्भुत-सी बात हुई। राजन! उस समरागड़ण में क्रोध से लाल आंखें किये युधिष्ठिर ने द्रोण के उन बाणों को काटकर एक शक्ति हाथ में ली, जो पर्वतों को भी विदीर्ण कर देने वाली थीं। वह अत्यन्त घोर शक्ति मन में भय उत्पन्न करने वाली थी। भारत! उसे चलाकर हर्ष में भरे हुए बलवान युधिष्ठिर ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उन्होंने उस सिंहनाद से सम्पूर्ण भूतों में भय सा उत्पन्न कर दिया। युद्ध स्थल में धर्मराज के द्वारा उठायी हुई उस शक्ति को देखकर समस्त प्राणी सहसा बोल उठे-‘द्रोणाचार्य स्वस्ति (द्रोणाचार्य का कल्याण हो )'। केंचुल से छूटे हुए सर्प के समान राजा की भुजाओं से मुक्त हुई वह शक्ति आकाश दिशाओं तथा विदिशाओं (कोणों) को प्रकाशित करती हुई जलते मुखवाली नागिन के समान द्रोणाचार्य के निकट जा पहुँची। प्रजानाथ! तब सहसा आती हुई उस शक्ति को देखकर अस्त्र वेताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। वह अस्त्र भयंकर दीखने वाली उस शक्ति को भस्म करके तुरंत ही यशस्वी युधिष्ठिर के रथ की ओर चला।
माननीय नरेश! तब महाप्रज्ञ राजा युधिष्ठिर ने द्रोण द्वारा चलाये गये उस ब्रह्मास्त्र को ब्रह्मास्त्र द्वारा ही शान्त कर दिया। इसके बाद झुकी हुई गांठवाले पांच बाणों द्वारा रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य को घायल करके तीखे क्षुरप्र से उनके विशाल धनुष काट दिया। आर्य! क्षत्रिय मर्दन द्रोण ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर सहसा धर्म पुत्र युधिष्ठिर पर गदा चलायी। शत्रुओं को संताप देनेवाले नेरश! उस गदा को सहसा अपने ऊपर आती देख क्रोध में भरे हुए युधिष्ठिर ने भी गदा ही उठा ली और द्रोणाचार्य पर चला दी। एकबारगी छोड़ी हुई वे दोनों गदाएं एक दूसरी से टकराकर संघर्ष से आग की चिनगारियां छोड़ती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ीं। माननीय नरेश! तब द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए चार तीखे एवं उत्तम बाणों द्वारा धर्मराज के चारों घोड़ों को मार डाला। फिर एक भल्ल चलाकर उनका धनुष काट दिया।
एक भल्ले से इन्द्र ध्वज के समान उनकी ध्वजा खण्डित कर दी और तीन बाणों से पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को भी पीड़ा पहुँचायी। भरतश्रेष्ठ! जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथ से तुरंत ही कूदकर राजा युधिष्ठिर बिना आयुध के हाथ ऊपर उठाये धरती पर खड़े हो गये। प्रभो! उन्हें रथ और विशेषत: आयुध से रहित देख द्रोणाचार्य ने शत्रुओं तथा उनकी सम्पूर्ण सेनाओं को मोहित कर दिया। दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले द्रोण के हाथ बड़ी फुर्ती से चलते थे। जैसे प्रचण्ड सिंह किसी मृग का पीछा करता हो, उसी प्रकार वे तीखे बाण समूहों की वर्षा करते हुए राजा युधिष्ठिर की ओर दौड़े। शत्रुनाशक द्रोणाचार्य के द्वारा युधिष्ठिर का पीछा होता देख पाण्डवदल में सहसा हाहाकार मच गया। भारत! माननीय नरेश! पाण्डुसेना में यह महान कोलाहल होने लगा कि ‘राजा मारे गये, राजा मारे गये’। तदनन्तर कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर तुरंत ही सहदेव के रथ पर आरुढ़ हो अपने वेगशाली घोड़ों द्वारा वहाँ से हट गये
(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में युधिष्ठिर का पलायन विषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव सैना के क्षेमधूर्ति, वीरधन्वा, निरमित्र तथा व्याघ्रदत्त का वध और दुर्मुख एवं विकर्ण की पराजय”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर सुदृढ़ पराक्रमी केकय राज बृहत्क्षत्र को आते देख क्षेमधूर्ति ने अनेक बाणों द्वारा उनकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन! तब राजा बृहत्क्षत्र ने भी झुकी हुई गांठवाले नब्बे बाणों द्वारा तुरंत ही द्रोणाचार्य के सैन्य व्यूह का विघटन करने की इच्छा से क्षेमधूर्ति को घायल कर दिया। इससे क्षेमधूर्ति अत्यन्त कुपित हो उठा और उसने पानीदार तीखे महामनस्वी केकयराज का धनुष काट डाला। धनुष कट जाने पर समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ बृहत्क्षत्र को समरागंण में झुकी हुई गांठ वाले बाण से उसने तुरंत ही बींध डाला। तदनन्तर बृहत्क्षत्र ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर हंसते-हंसते महारथी क्षेमधूर्ति को घोड़ों, सारथि और रथ से हीन कर दिया। इसके बाद दूसरे पानीदार तीखे भल्ले से राजा क्षेमधूर्ति के प्रज्वलित कुण्डों वाले मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। सहसा कटा हुआ घुंघराले बालों बाला क्षेमधूर्ति का वह मस्तक मुकुट सहित पृथ्वी पर गिरकर आकाश से टूटे हुए तारे के समान प्रतीत हुआ।
रणक्षेत्र में क्षेमधूर्ति का वध करके प्रसन्न हुए महारथी बृहत्क्षत्र युधिष्ठिर के हित के लिये सहसा आपकी सेना पर टूट पड़े। भारत! इसी प्रकार द्रोणाचार्य के हित के लिये महाधनुर्धर पराक्रमी वीरधन्वा ने वहाँ आते हुए धृष्टकेतु को रोका। वे दोनों वेगशाली वीर बाण रुपी दाढ़ों से युक्त हो परस्पर भिड़कर अनेक सहस्त्र बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। महान वन में तीव्र मद वाले दो यूथपति गजराजों के समान वे दोनों पुरुष सिंह परस्पर युद्ध करने लगे। दोनों ही महान पराक्रमी थे और एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से रोष में भरकर पर्वत की गुफा में पहुँचकर लड़ने वाले दो सिंहों के समान आपस में जूझ रहे थे। प्रजानाथ! उनका वह घमासान युद्ध देखने ही योग्य था। वह सिद्धों और चारण समूहों को भी आश्चर्यजनक एवं अद्भुत दिखायी देता था। भरतनन्दन! तत्पश्रात वीरधन्वा ने कुपित होकर हंसते हुए से ही एक भल्ल द्वारा धृष्टकेतु के धनुष के टुकड़े कर दिये। महारथी चेदिराज धृष्टकेतु ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर एक लोहे की बनी हुई स्वर्णदण्ड विभुषित विशाल शक्ति हाथ में ले ली। भारत! उस अत्यनत प्रबल शक्ति को दोनों हाथों से उठाकर यत्नशील धृष्टकेतु ने सहसा वीरधन्वा के रथ पर उसे दे मारा। उस वीरघातिनी शक्ति की गहरी चोट खाकर वीरधन्वा का वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया और वह तुरंत ही रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।
प्रभो! त्रिगर्त देश के उस महारथी वीर के मारे जाने पर पाण्डव सैनिकों ने चारों ओर से आपकी सेना को विघटित कर दिया। तदनन्तर दुर्मुख ने रणक्षेत्र में सहदेव पर साठ बाण चलाये और उन पाण्डुकुमार को डांट बताते हुए बड़े जोर से गर्जना की। यह देख माद्री कुमार कुपित हो उठे। वे दुर्मुख के भाई लगते थे। उन्होंने अपने पास आते हुए भ्राता दुर्मुख को हंसते हुए से तीखे बाणों द्वारा बींध डाला। भारत! रणक्षेत्र में महाबली सहदेव का वेग बढ़ता देख दुर्मुख ने नौ बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब महाबली सहदेव ने एक भल्ले से दुर्मुख की ध्वजा काट कर चार तीखे बाणों द्वारा उसके चारों घोड़ों को मार डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-38 का हिन्दी अनुवाद)
फिर दूसरे पानीदार एवं तीखे भल्ले से उसके सारथि के चमकीले कुण्डल वाले मस्तक को धड़ से काट गिराया। तत्पश्चात सहदेव ने तीखे क्षुरप्र से समरागंण में दुर्मख के विशाल धनुष को काटकर उसे भी पांच बाणों से घायल कर दिया। राजन! भरतनन्दन! तब दुर्मुख दुखी मन से उस अश्वहीन रथ को त्यागकर निरमित्र के रथ पर जा चढ़ा। इससे शत्रुवीरों का संहार करने वाले सहदेव कुपित हो उठे और उन्होंने उस महासमर में सेना के बीचों-बीच एक भल्ल से निरमित्र को मार डाला। त्रिगर्त राज का पुत्र राजा निरमित्र अपने वियोग से आपकी सेना को व्यथित करता हुआ रथ की बैठक से नीचे गिर पड़ा। जैसे पूर्वकाल मे दशरथ नन्दन भगवान श्रीराम महाबली खर का वध करके सुशोभित हुए थे, उसी प्रकार महाबाहु सहदेव निरमित्र को मारकर शोभा पा रहे थे। नरेश्रवर! महारथी राजकुमार निरमित्र को मारा गया देख त्रिगर्तों के दल में महान हाहाकार मच गया। राजन! नकुल ने विशाल नेत्रों वाले आपके पुत्र विकर्ण को दो ही घड़ी में पराजित कर दिया; यह अद्भुत–सी बात हुई। व्याघ्रदत्त ने झुकी हुई गांठवाले बाणों द्वारा सेना के मध्यभाग में घोड़ों, सारथि और ध्वज सहित सात्यकि को अदृशय कर दिया। तब शूरवीर शिनिनन्दन सात्यकि ने सिद्धहस्त पुरुष की भाँति उन बाणों का निवारण करके अपने बाणों द्वारा घोड़ों, सारथि और ध्वज सहित व्याघ्रदत्त को मार गिराया।
प्रभो! मगध नरेश के पुत्र राजकुमार व्याघ्रदत्त के मारे जाने पर मगध नरेश के वीरों ने सब ओर से प्रयत्नशील होकर युयुधान पर धावा किया। वे शूरवीर मागघ सैनिक बहुत से बाणों, सहस्त्रों तोमरों, भिन्दिपालों, प्रासों, मुद्ररों और मूसलों का प्रहार करते हुए समरागंण में रणदुर्जय सात्यकि के साथ युद्ध करने लगे। बलवान युद्ध दुर्मद पुरुष प्रवर सात्यकि ने हंसते हुए ही उन सबको अधिक कष्ट उठाये बिना ही परास्त कर दिया। प्रभो! मरने से बचे हुए मागध सैनिकों को चारों ओर भागते देख सात्यकि के बाणों से पीड़ित हुई आपकी सेना का व्यूह भंग हो गया। इस प्रकार मधुवंश के श्रेष्ठ वीर महायशस्वी सात्यकि रणक्षेत्र में आपकी सेना का विनाश करके अपने उत्तम धनुष को हिलाते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। राजन! महामना महाबाहु सात्यकि के द्वारा डरायी गयी और तितर-बितर की हुई आपकी सेना फिर युद्ध के लिये सामने नहीं आयी। तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने सहसा आंखें घुमाकर सत्यकर्मा सात्यकि पर स्वयं ही आक्रमण किया।
(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथव पर्व में संकुल युद्ध विषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदी-पुत्रों के द्वारा सोमदत कुमार शल का वध तथा भीमसेन के द्वारा अल्म्बुष की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! महायशस्वी शल ने महाधनुर्धर द्रौपदी के पुत्रों को पांच-पांच बाणों से बींध कर पुन:सात बाणों द्वारा घायल कर दिया। प्रभो! उस भयंकर वीर के द्वारा अत्यन्त पीड़ित होने के कारण वे सहसा मोहित हो यह नहीं जान सके कि इस समय युद्ध में हमारा कर्त्तव्य क्या है। तब नकुल के पुत्र शत्रुसूदन शतानीक ने दो बाणों द्वारा नरश्रेष्ठ शल को घायल करके बड़े हर्ष के साथ सिंहनाद किया। इसी प्रकार अन्य द्रौपदी पुत्रों ने भी समरागड़ण में प्रयत्नशील होकर अमर्षशील शल को तुरंत ही तीन तीन बाणों द्वारा बींध डाला। महाराज! तब महायशस्वी शल ने उन पर पांच बाण चलाये, जिनमें से एक-एक के द्वारा एक-एक की छाती छेद डाली। फिर महामना शल के बाणों से घायल हुए उन पांचों भाइयों ने उस वीर को रणक्षेत्र में चारों ओर से घेरकर अपने बाणों द्वारा अत्यन्त घायल कर दिया।
अर्जुनकुमार श्रुतकीर्ति ने अत्यन्त कुपित हो चार तीखे बाणों द्वारा शल के चारों घोड़ों को यमलोक भेज दिया। फिर भीमसेन के पुत्र सुतसोमन ने पैने बाणों द्वारा महामना सोमदतकुमार के धनुष को काटकर उन्हें भी बींध डाला और बड़े जोर से गर्जना की। तदनन्तर युधिष्ठरकुमार प्रतिविन्ध्य ने शल की ध्वजा काटकर पृथ्वी पर गिरा दी। फिर नकुल पुत्र शतानीक ने उनके सारथि को मारकर रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। राजन! अन्त में सहदेव कुमार ने यह जानकर कि मेरे भाइयों ने शल को विमुख कर दिया है, महामनस्वी शल के मस्त को क्षुरप्र से काट डाला। सोमदत्तकुमार प्रात:काल के सूर्य की भाँति प्रकाशमान सुवर्ण भूषित वह मस्तक उस रणभूमि को प्रकाशित करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! महामना शल के मस्तक को कटा हुआ देख आपके सैनिक अत्यन्त भयभीत हो अनेक दलों में बंटकर भागने लगे। तदननतर जैसे पूर्वकाल में रावणकुमार मेघनाद ने लक्ष्मण के साथ युद्ध किया था, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए राक्षस अलम्बुष ने महाबली भीमसेन के साथ संग्राम आरम्भ किया।
उस रणक्षेत्र में उन दोनों मनुष्य एवं राक्षस को युद्ध करते देख समस्त प्राणियों को अत्यन्त आश्चर्य और हर्ष हुआ। राजन! फिर भीमसेन ने हंसते हुए नौ पैने बाणों द्वारा ऋष्यश्रृंगकुमार अमर्षशील राक्षसराज अलम्बुष को घायल कर दिया। तब समरागंण में घायल हुआ वह राक्षस भयंकर गर्जना करके भीमसेन की ओर दौड़ा। उसके सेवकों ने भी उसी का साथ दिया। उसने झुकी हुई गांठवाले पांच बाणों द्वारा भीमसेन को घायल करके उनके साथ आये हुए तीन सौ रथियों का समर भूमि में शीघ्र ही संहार कर डाला। फिर चार सौ योद्धाओं को मारकर भीमसेन को भी एक बाण से घायल किया। इस प्रकार राक्षस के द्वारा अत्यन्त घायल किये जाने पर महाबली भीमसेन मूर्च्छित हो रथ की बैठक में गिर पड़े। तदनन्तर पुन: होश में आकर क्रोध से व्याकुल हुए वायु पुत्र भीम ने भार वहन करने में समर्थ, उत्तम तथा भयंकर धनुष तानकर पैने बाणों द्वारा सब ओर से अलम्बुष को पीड़ित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! काले काजल के देर के समान वह राक्षस बहुत से बाणों द्वारा सब ओर से घायल होकर लोहू-लुहान हो लिये हुए पलाश के वृक्ष के समान सुशोभित होने लगा। भीमसेन के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा समरभूमि में घायल होकर और महात्मा पाण्डुकुमार भीम के द्वारा किये गये अपने भाई के वध का स्मरण करके उस राक्षस ने भंयकर रुप धारण कर लिया और भीमसेन से कहा-। ‘पार्थ! इस समय तुम रणक्षेत्र में डटे रहो और आज मेरा पराक्रम देखो। अर्जुन! मेरे बलवान भाई राक्षसराज बक को तुमने मार डाला था, वह सब कुछ मेरी आंखो की ओट में हुआ था मेरे सामने तुम कुछ नहीं कर सकते थे’।
भीमसेन से ऐसा कहकर वह राक्षस उसी समय अन्तर्धान हो गया और फिर उनके ऊपर बाणों की भारी वर्षा करने लगा।। राजन! उस समय समरागंण में राक्षस के अद्श्य हो जाने पर भीमसेन ने झुकी हुई गौंठ वाले बाणों द्वारा वहाँ के समूचे आकाश को भर दिया। भीमसेन के बाणों की मार खाकर अलम्बुष पलक मारते-मारते अपने रथ पर आ बैठा। वह क्षुद्र निशाचर कभी तो धरती पर जाता और कभी सहसा आकाश में पहुँच जाता था। उसने वहाँ छोटे-बड़े बहुत-से रुप धारण किये। वह मेघ के समान गर्जना करता हुआ कभी बहुत छोटा हो जाता और कभी महान, कभी सूक्ष्मरुप धारण करता और कभी स्थूल बन जाता था। इसी प्रकार वहाँ सब ओर घूम-घूमकर वह भिन्न-भिन्न प्रकार की बोलियां भी बोलता था। उस समय भीमसेन पर आकाश से बाणों की सहस्त्रों धाराएं गिरने लगीं। शक्ति, कणप, प्रास, शूल, पट्टिश, तोमर, शतघ्नी, परिघ, भिन्दिपाल, फरसे, शिलाएं, खंग, लोहे की गोलियां, ॠष्टि और वज्र आदि अस्त्र-शस्त्रों की भारी वर्षा होने लगी। राक्षस-द्वारा की हुई उस भयंकर शस्त्र वर्षा ने युद्ध के मुहाने पर पाण्डुपुत्र भीम के बहुत से सैनिकों का संहार कर डाला।
राजन! राक्षस अलम्बुष ने युद्धस्थल में पाण्डव सेना के बहुत-से हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिको का बारंबार संहार किया। उसके बाणों से छिन्न-भिन्न होकर बहुतेरे रथी रथों से गिर पड़े। उसने युद्धस्थल में खून की नदी बहा दी, जिसमें रक्त ही पानी के समान जान पड़ते थे, हाथियों के शरीर उस नदी में ग्राह के समान सब ओर छा रहे थे, छत्र हंसो का भ्रम उत्पन्न करते थे, वहाँ कीच जम गयी थी, कटी हुई भुजाएं सर्पों के समान सब ओर व्याप्त हो रही थीं। राजन! पाञ्चाल और सृंजयों को बहाती हुई वह नदी राक्षसों से घिरी हुई थीं। महाराज! उस निशाचर को समरागंण में इस प्रकार निर्भय सा विचरते देख पाण्डव अत्यन्त उद्विग्न हो उसका पराक्रम देखने लगे। उस समय आपके सैनिकों को महान हर्ष हो रहा था। वहाँ रणवाद्यों का रोमांञ्चकारी एवं भंयकर शब्द बड़े जोर-जोर से होने लगा।
आपकी सेना का वह घोर हषर्नाद सुनकर पाण्डुकुमार भीमसेन नहीं सहन कर सके। ठीक उसी तरह जैसे हाथी ताल ठोंकने का शब्द नहीं सह सकता। तब वायुकुमार भीमसेन ने जलाने का उद्यत हुए अग्नि के समान क्रोध से लाल आंखे करके स्वाह नामक अस्त्र का संघान किया, मानो साक्षात त्वष्टा ही प्रयोग कर रहे हो। उससे चारों ओर सहस्रों बाण प्रकट होने लगे। उस बाणों द्वारा आपकी सेना का संहार होने लगा। युद्धस्थल में भीमसेन द्वारा चलाये हुए उस अस्त्र ने राक्षस की महामाया को नष्ट करके उसे गहरी पीड़ा दी। बारंबार भीमसेन की मार खाकर राक्षसराज अलम्बुष रणक्षेत्र में उसका सामना छोड़कर द्रोणाचार्य की सेना में भाग गया। राजन! महामना भीमसेन के द्वारा राक्षसराज अलम्बुष के पराजित हो जाने पर पाण्डव-सैनिकों ने सम्पूर्ण दिशाओं को अपने सिंहनादों से निनादित कर दिया। उन्होंने अत्यन्त हर्ष में भरकर महाबली भीमसेन की उसी प्रकार भूरि-भूरि प्रशंसा की, जैसे मरुद्रणों ने समरागंण में प्रह्मद को जीतकर आये हुए देवराज इन्द्र की स्तुति की थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्व में अलम्बुष की पराजय विषयक एक सौ आठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“घटोत्कच द्वारा अलम्बुष का वध और पाण्डव सेना में हर्ष-ध्वनि”
संजय कहते हैं ;- राजन! युद्ध में इस प्रकार निर्भय से विचरत हुए अलम्बुष के पास हिडिम्बाकुमार घटोत्कच बड़े वेग से आ पहुँचा और उसे अपने तीखे बाणों द्वारा बींधने लगा। वे दोनों राक्षसों सिंह के समान पराक्रमी थे और इन्द्र तथा शम्बरासुर के समान नाना प्रकार की मायाओं का प्रयोग करते थे। उन दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। अलम्बुष ने अत्यन्त कुपित होकर घटोत्कच को घायल कर दिया। वे दोंनो राक्षस समाज के मुखिया थे। प्रभो! जैसे पूर्वकाल में श्रीराम और रावण का संग्राम हुआ था, उसी प्रकार उन दोनों में भी युद्ध हुआ। घटोत्कच बीस नाराचों द्वारा अलम्बुष की छाती में गहरी चोट पहुँचाकर बारंबार सिंह के समान गर्जना की।। राजन! इसी प्रकार अलम्बुष भी युद्ध दुर्मद घटोत्कच को बारंबार घायल करके समूचे आकाश को हर्ष पूर्वक गुंजाता हुआ सिंहनाद करता था। इस प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दोनों महाबली राक्षसराज परस्पर मायाओं का प्रयोग करते हुए समान रुप से युद्ध करने लगे। वे प्रतिदिन सैकड़ों मायाओं की सृष्टि करने वाले थे और दोनो ही माया युद्ध में कुशल थे। अत: एक दूसरे को मोहित करते हुए माया द्वारा ही युद्ध करने लगे। नरेश्वर! घटोत्कच युद्धस्थल में जो-जो माया दिखाता, उसे अलम्बुष अपनी माया द्वारा ही नष्ट कर देता था।। माया युद्ध विशारद राक्षसराज अलम्बुष को इस प्रकार युद्ध करते देख समस्त पाण्डव कुपित हो उठे थे।
राजन! वे अत्यन्त उद्विग्न हुए भीमसेन आदि श्रेष्ठ और क्रोध में भर कर रथों द्वारा सब ओर से अलम्बुष पर टूट पड़े। माननीय नरेश! जैसे जलती हुई उल्काओं द्वारा चारों ओर से घेरकर हाथी पर प्रहार किया जाता हैं, उसी प्रकार रथसमूह के द्वारा अलम्बुष को कोष्ठ बद्ध करके वे सब लोग चारों ओर से उस पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय अलम्बुष को अपने अस्त्रों की माया से उनके उस महान अस्त्र वेग को दबाकर रथसमूह के उस घेरे से मुक्त हो गया, मानों कोई गजराज दावानल के घेरे से बाहर हो गया हो।। उसने इन्द्र के वज्र की भाँति घोर टंकार करने वाले अपने भयंकर धनुष को तानकर भीमसेन को पच्चीस और उनके पुत्र घटोत्कच को पांच बाण मारे।
आर्य! उसने युधिष्ठिर को तीन, सहदेव को सात, नकुल को तिहत्तर और द्रौपदी-पुत्रों को पांच-पांच बाणों से घायल करके घोर गर्जना की। तब भीमसेन ने नौं, सहदेव ने पांच और युधिष्ठिर ने तो बाणों से राक्षस अलम्बुष को घायल कर दिया। तत्पश्चात नकुल ने चौसठ और द्रौपदी कुमारों ने तीन-तीन बाणों से अलम्बुष को बींध डाला। तदनन्तर महाबली हिडिम्बाकुमार ने युद्धस्थल में उस राक्षस को पचास बाणों से घायल करके पुन: सत्तर बाणों द्वारा बींध डाला और बड़े जोर से गर्जना की। राजन! उसके महान सिंहनाद से वृक्षों, जलाशयों, पर्वतो और वनों सहित यह सारी पृथ्वी काँप उठी। उन महाधनुर्धर महारथियों द्वारा सब ओर से अत्यन्त घायल होकर बदले में अलम्बुष ने भी पांच-पांच बाणों से उन सबको वेध दिया। भरतश्रेष्ठ! उस युद्धस्थल में कुपित हुए राक्षस अलम्बुष को क्रोध में भरे हुए निशाचर घटोत्कच ने सात बाणों से घायल कर दिया। बलवान घटोत्कच द्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत होकर उस महाबली राक्षसराज ने तुरंत ही सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। जैसे रोष में भरे हुए महाबली सर्प पर्वत के शिखर पर चढ़ जाते हैं उसी प्रकार अलम्बुष के वे झुकी गांठवाले बाण उस समय घटोत्कच के शरीर में घुस गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-37 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तदनन्तर पाण्डव और हिडिम्बाकुमार घटोत्कच सबने उद्विग्न होकर सब ओर से अलम्बुष पर पैने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। विजय से उल्लासित होने वाले पाण्डवों द्वारा समरभूमि में विद्व होकर मर्त्यधर्म को प्राप्त हुए अलम्बुष से कुछ भी करते न बना। तब समर कुशल महाबली भीमसेन-कुमार ने अलम्बुष को उस अवस्था में देखकर मन ही मन उसके वध का निश्चय किया। उसके जले हुए पर्वत शिखर तथा कटे-छटे कोयले के पहाड़ के समान प्रतीत होने वाले राक्षसराज अलम्बुष के रथ पर पहुँचने के लिये महान वेग प्रकट किया। क्रोध में भरे हुए हिडिम्बाकुमार ने अपने रथ से अलम्बुष के रथ पर कूदकर उसे पकड़ लिया और जैसे गरुड़ सर्प को टांग लेता है, उसी प्रकार उसने भी अलम्बुष को रथ से उठा लिया।। दोनों भुजाओ से अलम्बुष को ऊपर उठा कर घटोत्कच ने बारंबार घुमाया और जैसे जल से भरे हुए घड़े को पत्थर पर पटक दिया जाय, उसी प्रकार उसे शीघ्र ही पृथ्वी पर दे मारा। घटोत्कच में बल और फुर्ती दोनों विद्यमान थे। वह अद्भुत पराक्रम से सम्पन्न था। उसने रणक्षेत्र में कुपित होकर आपकी समस्त सेनाओं को भयभीत कर दिया। वीर घटोत्कच के द्वारा मारे गये शालकंट कटा के पुत्र अलम्बुष के सारे अंग फट गये थे। उसकी हड्डियां चूर-चूर हो गयीं थी और वह बड़ा भयंकर दिखायी देता था।
उस निशाचर अलम्बुष के मारे जाने पर कुन्ती के सभी पुत्र प्रसन्नचित्त हो सिंहनाद करने और वस्त्र हिलाने लगे।। भरतश्रेष्ठ! टूट-फूट कर गिरे हुए पर्वत के समान महाबली राक्षसराज अलम्बुष को मारा गया देख आपके शूरवीर योद्धा तथा उनकी चारों सेनाएं हाहाकार करनी लगी। पृथ्वी पर अकस्मात टूट कर गिरे हुए मंगलमह के समान पराक्रमी हुए उस राक्षस को बहुत से मनुष्य कौतूहल-वश देखने लगे। जैसे इन्द्र ने बलासुर का वध करके महान सिंहनाद किया था, उसी प्रकार घटोत्कच ने उस बलवानों में श्रेष्ठ अलम्बुष को मारकर बड़े जोर से गर्जना की। तदनन्तर घटोत्कच धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास जाकर हाथ जोड़ मस्तक नवाकर अपना कर्म निवेदन करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा। राजन! तब ज्येष्ठ पाण्डव ने उसका मस्तक सूंघकर उसे हदय से लगा लिया और कहा- ‘वत्स! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।’ उस समय युधिष्ठिर के नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। शालकंटकटा के पुत्र राक्षस अलम्बुष को जब घटोत्कच ने पृथ्वी पर रगड़कर मार डाला, तब सब लोग बहुत प्रसन्न हुए।। पके हुए अलम्बुष (मुंडिर) फल के समान अपने शत्रु अलम्बुष को मारकर घटोत्कच वह दुष्कर पराक्रम करने के कारण अपने पिता पाण्डवों तथा बन्धु-बान्धवों से सम्मानित एंव प्रशसित हो उस समय बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करने लगा। बाणों की सनसनाहट के शब्द से मिला हुआ बड़ा भारी आनन्द कोलाहल प्रकट हुआ। उसे सुनकर समस्त पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। वह आनन्द ध्वनि जगत में बहुत दूर तक फैल गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्व में अलम्बुवधविषयक एक सौ नवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवादक)
“द्रोणाचार्य और सात्यकि का युद्ध तथा युधिष्ठिर का सात्यकि कि प्रशंसा करते हुए उसे अर्जुन की सहायता के लिये कौरव सेना में प्रवेश करने का आदेश”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! सात्यकि ने युद्ध में द्रोणाचार्य को किस प्रकार रोका ? यह यर्थाथ रूप से बताओ। इसे सुनने के लिये मेरे मन में महान कौतूहल हो रहा है।
संजय ने कहा ;- राजन! महामती! द्रोणाचार्य का सात्यकि आदि पाण्डव-योद्धाओं के साथ जो रोमांञ्चकारी संग्राम हुआ था, उसका वर्णन सुनिये। माननीय नरेश! द्रोणाचार्य ने जब अपनी सेना को युयुधान के द्वारा पीड़ित होते देखा, तब वे सत्यपराक्रमी सात्यकि पर स्वंय ही टूट पड़े। उस समय सहसा आते हुए महारथी द्रोणाचार्य को सात्यकि ने पच्चीस बाण मारे। तब पराक्रमी द्रोणाचार्य ने भी युद्धस्थल में एकाग्रचित्त हो तुरंत ही सोने के पंखवाले पांच पैने बाणों द्वारा युयुधान-को घायल कर दिया। राजन! द्रोणाचार्य के बाण शत्रुओं के मांस खाने वाले थे। सात्यकि के सुद्दढ़ कवच को छिन्न–भिन्न करके फुफकारते हुए सर्पों के समान धरती में समा गये। तब अंकुश की मार खाये हुए गजराज के समान अत्यन्त कुपित हुए महाबाहु सात्यकि ने अग्नि के समान तेजस्वी पचास नाराचों द्वारा द्रोणाचार्य को वेध दिया। सात्यकि के द्वारा समरांगण में घायल हो द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही बहुत से बाण मारकर विजय के लिये प्रस्थान करने वाले सात्यकि को क्षत-विक्षत कर दिया। तदनन्तर महाधनुर्धर महाबली द्रोण ने पुन: कुपित होकर झुकी हुई गांठवाले एक बाण द्वारा सात्यकि को गहरी चोट पहुचायी। प्रजानाथ! समरभूमि में द्रोणाचार्य के द्वारा क्षत-विक्षत होकर सात्यकि से कुछ भी करते नहीं बना। नरेश्वर! रणक्षेत्र में पैने बाणों की वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य को देखकर युयुधान के मुख पर विषाद छा गया। प्रजापालक नरेश! उन्हें उस अवस्था में देखकर आपके पुत्र और सैनिक प्रसन्नचित होकर बांरबार सिंहनाद करने लगे।
भारत! उनकी यह घोर गर्जना सुनकर और सात्यकि को पीड़ित देख कर राजा युधिष्ठिर ने अपने समस्त सैनिक से कहा-।
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘योद्धाओं! जैसे राहु सूर्य को ग्रस लेता है, उसी प्रकार वह वृष्णिवंश का श्रेष्ठ और सत्यपराक्रमी सात्यकि युद्धस्थल में वीर द्रोणाचार्य के द्वारा काल के गाल मे जाना चाहता है। अत: तुम लोग दौड़ो और वहीं जाओ; जहाँ सात्यकि युद्ध करता है’। इसके बाद राजा ने पाञ्चाल-राजकुमार धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा-‘द्रुपदनन्दन! खड़े क्यों हो! तुरंत ही द्रोणाचार्य पर धावा करो। क्या तुम नहीं देखते कि द्रोण की ओर से हम लोगों पर घोर भय उपस्थित हो गया है?। ‘जैसे कोई बालक डोर में बैठे हुए पक्षी के साथ खेलता है, उसी प्रकार ये महाधनुर्धर द्रोण युद्धस्थल में युयुधान के साथ क्रीड़ा करते हैं। ‘अत: तुम्हारे साथ भीमसेन आदि सभी महारथी वहीं युयुधान के रथ के समीप जायं। ‘फिर मैं भी सम्पूर्ण सैनिकों के साथ तुम्हारे पीछे-पीछे आऊँगा। इस समय यमराज को दाढ़ों में पहुँचे हुए सात्यकि को छुडाओं ‘। भारत! ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर ने उस समय रणक्षेत्र में युयुधान की रक्षा के लिये अपनी सारी सेना के साथ द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। राजन! आपका भला हो। अकेले द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करने की इच्छा से आये हुए पाण्डवों और सृंजयों का वहाँ सब ओर महान कोलाहल छा गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
वे मनुष्यों में व्याघ्र के समान पराक्रमी सैनिक महारथी द्रोणाचार्य के पास जाकर कंक और भोर के पंखो से युक्त तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! जैसे घर पर आये हुए अतिथियों को जल और आसन आदि के द्वारा सत्कार किया जाता हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने स्वंय उन समस्त आक्रमणकारी वीरों की मुसकराते हुए ही अगवानी की। जैसे अतिथि तृप्त होते हैं, उसी प्रकार धनुर्धर द्रोणाचार्य के बाणों से उन सबकी यथेष्ट तृप्ति की गयी। प्रभो! जैसे दोपहर के प्रचण्ड मार्तण्ड की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार वे समस्त योद्धा भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य की ओर देखने में भी समर्थ न हो सके। शस्त्रवारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य उन समस्त महाधनुर्धरों को अपने बाण समूहों द्वारा उसी प्रकार संलग्न करने लगे, जैसे अंशुमाली सूर्य अपनी किरणों से जगत को संताप देते हैं। महाराज! उस समय द्रोणाचार्य की मार खाते देख पाण्डव और सृंजय सैनिकों कीचड़ में फंसे हुए हाथियों के समान कोई रक्षक न पा सके। जैसे सूर्य की किरणें सब ओर ताप प्रदान करती हुई फैल जाती हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के विशाल बाण सब ओर फैलते और शत्रुओं को संतप्त करते दिखायी देते थे। उस युद्ध में द्रोणाचार्य के द्वारा पांचालों के पच्चीस सुप्रसिद्ध महारथी मारे गये, जो धृष्टद्युम्न को बहुत ही प्रिय थे।
लोगों ने देखा, पाण्डवों और पाञ्चालों की समस्त सेनाओं में जो मुख्य-मुख्य योद्धा थे, उन्हें शूरवीर द्रोणाचार्य चुन-चुन कर मार रहे हैं। महाराज! सौ केकय-योद्धाओं को मारकर शेष सैनिकों को चारों ओर खदेड़ने के पश्चात द्रोणाचार्य मुंह बानायें हुए यमराज के समान खड़े हो गये। नरेश्वर! महाबाहु द्रोणाचार्य ने पाञ्चाल, सृंजय, मत्स्य और केकयों के सैकड़ों तथा सहस्त्रों वीरों को परास्त किया। जैसे घोर जंगल में दावानल से व्याप्त हुए वनवासी जन्तुओं को कन्दन ध्वनि सुनायी पड़ती हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के बाणों से घायल हुए उस विपक्षी योद्धाओं का आर्तनाद वहाँ श्रवणगोचर होता था। नरेश्वर! उस समय वहाँ आकाश में खड़े हुए देवता, पितर और गंधर्व कहते थे, ये पाञ्चाल और पाण्डव अपने सैनिकों के साथ भागे जा रहे थे। इस प्रकार समरांगण में सोमकों का वध करते हुए द्रोणाचार्य के सामने न तो कोई जा सके और न कोई उन्हें चोट ही पहुँचा सके।
बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाला वह भंयकर संग्राम चल ही रहा था कि सहसा कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने पांचजन्य की ध्वनि सुनी। भगवान श्रीकृष्ण के फूंकने पर वह महाराज पाञ्जजन्य बड़े जोर से अपनी ध्वनि का विस्तार कर रहा था। सिन्धुराज जयद्रथ की रक्षा में नियुक्त हुए वीरगण युद्ध में सल्लग्न थे। अर्जुन के रथ के पास आपके पुत्र और सैनिक गरज रहे थे तथा गाण्डीव धनुष की टंकार सब ओर से दब गयी थीं। तब पाण्डु पुत्र राजा युधिष्ठिर मोह के वशीभुत होकर इस प्रकार चिन्ता करने लगे-‘जिस प्रकार शक्खराज पाञ्जजन्य की ध्वनि हो रही है और जिस तरह कौरव-सैनिक बारंबार हर्षनाद कर रहे हैं, उससे जान पड़ता हैं, निश्चय ही अर्जुन कुशल नहीं हैं’। ऐसा विचार कर अजातशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर का हृदय व्याकुल हो उठा। वे चाहते थे कि जयद्रथ वध का कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाय। अत: बारंबार मोहित हो अश्रु-गद्द वाणी में शिनिप्रवर सात्यकि को सम्बोधित करके बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद)
शैनेय! साधु पुरुषों ने पूर्वकाल में विपत्ति के समय एक सुहृद के कर्त्तव्य के विषय में जिस सनातन धर्म का साक्षात्कार किया है, आज उसी के पालन का अवसर उपस्थित हुआ है। शिनिप्रवर सात्यके! इस दृष्टि से विचार करने पर मैं समस्त योद्धाओं में किसी को भी तुमसे बढ़कर अपना अतिशय सुहृत नहीं समझ पाता हूँ। जो सदा प्रसन्नचित रहता हो तथा जो नित्य-निरन्तर अपने प्रति अनुराग रखता हो, उसी को संकटकाल में किसी महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन करने के लिये निुयक्त करना चाहिये, ऐसा मेरा मत हैं। वार्ष्णैय! जैसे भगवान श्रीकृष्ण सदा पाण्डवों के परम आश्रय है; उसी प्रकार तुम भी हो। तुम्हारा पराक्रम भी श्रीकृष्ण के समान ही है। अत: मैं तुम पर जो कार्यभार रख रहा हूं, उसका तुम्हें निर्वाह करना चाहिये। मेरे मनोरथ को सदा सफल बनाने की ही तुम्हें चेष्टा करनी चाहिये।
नरश्रेष्ठ! अर्जुन तुम्हारा भाई, मित्र और गुरु है। वह युद्ध के मैदान में संकट में पड़ा हुआ है। अत: तुम उसकी सहायता के लिये प्रयत्न करो। तुम सत्यवती, शूरवीर तथा मित्रों को आश्रय अभय देने वाले हो। वीर! तुम अपने कर्मों द्वारा संसार में सत्यवादी के रुप में विख्यात हो। शैनेय! जो मित्र के लिये युद्ध करते हुए शरीर का त्याग करता है तथा जो ब्राह्मणों को समूची पृथ्वी का दान कर देता है, वे दोनों समान पुण्य के भागी होते हैं। हमने सुना है कि बहुत-से राजा ब्राह्मणों को विधिपूर्वक इस समूची पृथ्वी का दान करके स्वर्गलोक में गये हैं। धर्मात्मन! इसी प्रकार तुमसे भी मैं अर्जुन की सहायता के लिये हाथ जोड़कर याचना करता हूँ। प्रभो! ऐसा करने में तुम्हे पृथ्वी दान के समान अथवा उससे भी अधिक फल प्राप्त होगा। सात्यके! मित्रों को अभय प्रदान करने वाले एक तो भगवान श्रीकृष्ण ही सदा हमारे लिये युद्ध में अपने प्राणों का परित्याग करने के लिये उद्यत रहते हैं और दूसरे तुम। युद्ध में सुयश पाने की इच्छा रख कर पराक्रम करने वाले वीर पुरुष की सहायता कोई शूरवीर पुरुष ही कर सकता हैं। दूसरा कोई निम्न कोटि का मनुष्य उसका सहायक नहीं हो सकता।
माधव! ऐसे घोर युद्ध में लगे हुए रणक्षेत्र में अर्जुन का सहायक एवं संरक्षक होने योग्य तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं है।। पाण्डु पुत्र अर्जुन ने तुम्हारे सैकड़ों कार्यों की प्रशंसा करते और मेरा कार्य हर्ष बढ़ाते हुए बारंबार तुम्हारे गुणों का वर्णन किया था। वह कहता था- ‘सात्यकि के हाथों में बड़ी फुर्ती है। वह विचित्र रीति से युद्ध करने वाला और शीघ्रता पूर्वक पराक्रम दिखाने वाला है। सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञाता, विद्वान एवं शूर-वीर, सात्यकि युद्धस्थल में कभी मोहित नहीं होता है। ‘उसके कंधें महान, छाती चौड़ी, भुजाएं बड़ी-बड़ी और ठोढ़ी विशाल एवं हष्ट-पुष्ट हैं। वह महाबली, महापराक्रमी, महामनस्वी और महारथी है। ‘सात्यकि मेरा शिष्य और सखा है। मैं उसको प्रिय हूँ और वह मुझे। युयुधान मेरा सहायक होकर मेरे विपक्षी कौरवों का संहार कर डालेगा। ‘राजेन्द्र! महाराज! यदि युद्ध के श्रेष्ठ मुहाने पर हमारी सहायता के लिये भगवान श्रीकृष्ण, बलराम, अनिरुद्ध, महारथी प्रद्युम्न, गद, सारण अथवा वृष्णिवंशियों सहित साम्ब कवच धारण करके तैयार होंगे, तो भी मैं पुरुषसिंह सत्यपराक्रमी शिनि के पौत्र सात्यकि को अवश्य ही अपनी सहायता-के कार्य में नियुक्त करुंगा; क्योंकि मेरी दृष्टि में दूसरा कोई सात्यकि के समान नहीं है’। तात! इस प्रकार अर्जुन ने द्वैत वन में श्रेष्ठ पुरुषों की सभा में तुम्हारे यथार्थ गुणों का वर्णन करते हुए परोक्ष में मुझ से उपर्युक्त बातें कही थी। वार्ष्णैय! अर्जुन का, मेरा, भीमसेन का तथा दोनों माद्री कुमारों का तुम्हारे विषय में जो वैसा संकल्प हैं, उसे तुम्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 64-84 का हिन्दी अनुवाद)
जब मैं तीर्थों में विरता हुआ द्वारका में गया था, वहाँ भी अर्जुन के प्रति जो तुम्हारा भक्तिभाव है, उसे मैंने प्रत्यक्ष देखा था। शैनैय! इस विनाशकारी संकट में पड़े हुए हम लोगों की तुम जिस प्रकार सेवा एंव सहायता कर रहे हों, वैसा सौहार्द मैंने तुम्हारे सिवा दूसरों में नहीं देखा है। महाबाहु महाधनुर्धर साधव! वही तुम हम लोगों पर कृपा करने के लिये ही उत्तम कुल में जन्म-ग्रहण, अर्जुन के प्रति भक्तिभाव, मनैत्री, गुरुभाव, सौहार्द, पराक्रम, कुलीनता और सत्य के अनुरुप कर्म करो। द्रोणाचार्य द्वारा दी गयी कवच धारणा से सुरक्षित हो दुर्योधन सहसा अर्जुन का सामना करने के लिये गया है। बहुतेरे कौरव महारथियों ने पहले से ही उसका पीछा किया था।। जहाँ अर्जुन हैं, उस ओर बड़े जोर की गर्जना सुनायी दे रही हैं। अत: दूसरों को मान देने वाले शैनेय! तुम्हें शीघ्रतापूर्वक बड़े वेग से वहाँ जाना चाहिये। भीमसेन और हम लोग अपने सैनिकों के साथ सब प्रकार-से सावधान हैं। यदि द्रोणाचार्य तुम्हारा पीछा करेंगे तो हम सब लोग उन्हें रोकेंगे। शैनेय! वह देखा, उधर युद्धस्थल में सेनाएं भाग रही हैं। रणक्षेत्र में महान, कोलाहल हो रहा हैं और मोरचे बंदी करके खड़ी हुई सेना में दरारें पड़ रही हैं।।
तात! पूर्णिमा के दिन प्रचण्ड वायु के वेग से विक्षुब्ध हुए समुन्द्र के समान सत्यवाची अर्जुन के द्वारा पीड़ित हुई दुर्योधन की सेना में हलचल मच गयी है। इधर-उधर भागते हुए रथो, मनुष्यों और घोड़ों के द्वारा उड़ी हुई धूल से आच्छादित हुई यह सारी सेना चक्कर काट रही है। शत्रुवीरों का संहार करने वाला अर्जुन, नखर (बघनखे) और प्रासों द्वारा युद्ध करने वाले तथा अधिक संख्या में एकत्र हुए सिन्धु सौवीर देश के शूरवीर सैनिकों से घिर गया है। इस सेना का निवारण किये बिना जयद्रथ को जीतना असम्भव है। ये सभी सैनिक सिन्ध्ुाराज के लिये अपना जीवन न्यौछावर कर चुके हैं। बाण, शक्ति और ध्वजारूपों से सुशोभित तथा घोड़े और हाथियों से भरी हुई कौरवों की इस दुर्जय सेना को देखो। सुनो, डंको की आवाज हो रही हैं, जोर-जोर से शंख बज रहे हैं, वीरों के सिंहनाद तथा रथों के पहियों की घर्घराहट के शब्द सुनायी पड़ रहे हैं। हाथियों के चिंग्घाड़ने की आवाज सुनो। सहस्त्रों पैदल सिपाहियों तथा पृथ्वी को कम्पित करते हुए दौड़ लगाने वाले घुड़सवारों के शब्द सुन लो।
नरव्याघ्र! अर्जुन के सामने सिन्धुराज की सेना है और पीछे द्रोणाचार्य की। इसकी संख्या इतनी अधिक है कि यह देवराज इन्द्र को भी पीड़ित कर सकती है। इस अनन्त सैन्य समुन्द्र में डूबकर अर्जुन अपने प्राणों का भी परित्याग कर देगा। युद्ध में उसके मारे जाने पर मेरे-जैसा मनुष्य कैसे जीवित रह सकता हैं। युयुधान! तुम्हारे जीते-जी मैं सब प्रकार से बड़े भारी संकट में पड़ गया हूँ। निद्राविजयी पाण्डु कुमार अर्जुन श्याम वर्ण वाला दर्शनीय तरुण है। वह शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाता और विचित्र रीति से युद्ध करता है। तात! उस महाबाहु वीर ने सूर्योदय के समय अकेले ही कौरवी सेना में प्रवेश किया था और अब दिन बीतता चला जा रहा है। वार्ष्णैय! पता नहीं, इस समय तक अर्जुन जीवित है या नहीं। महासमर में जिसके वेग को सहन करना देवताओं के लिये भी असम्भव है, कौरवों की वह सेना समुद्र के समान विशाल है, तात! उस कौरवी सेना में महाबाहु अर्जुन ने अकेले ही प्रवेश किया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 85-103 का हिन्दी अनुवाद)
आज किसी प्रकार मेरी बुद्धि युद्ध में नहीं लग रही है। इधर द्रोणाचार्य भी युद्धस्थल में बड़े वेग से आक्रमण करके मेरी सेना को पीड़ित कर रहे हैं। महाबाहो! विप्रवर द्रोणाचार्य जैसा कार्य कर रहे हैं, वह सब तुम्हारे आंखों के सामने हैं। एक ही समय प्राप्त हुए अनेक कार्यों में से किसका पालन आवश्यक हैं, इसका निर्णय करने में तुम कुशल हों। मानद! सबसे महान प्रयोजन को तुम्हें शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिेये। मुझे तो सब कार्यों में सबसे महान कार्य वही जान पड़ता है कि युद्धस्थल में अर्जुन की रक्षा की जाय। तात! मैं दशार्ह नन्दन भगवान श्रीकृष्ण के लिये शोक नहीं करता। वे तो सम्पूर्ण जगत के संरक्षक और स्वामी हैं। युद्धस्थल में तीनों लोक संग्रहित होकर आ जायें तो भी वे पुरुषसिंह श्रीकृष्ण उन सबको परास्त कर सकते हैं, यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। फिर दुर्योधन की इस अत्यन्त दुर्जल सेना को जीतना उनके लिये कौन बड़ी बात है?। परंतु वार्ष्णेय! यह अर्जुन तो युद्धस्थल में बहुसंख्यक सैंनिको द्वारा पीड़ित होने पर समरांगण में अपने प्राणों का परित्याग कर देगा। इसीलिये मैं शोक और दु:ख में डूबा जा रहा है। अत: तुम मेरे-जैसे मनुष्य से प्रेरित हो ऐसे संकट के समय अर्जुन-जैसे प्रिय सखा के पथ का अनुसरण करो, जैसा कि तुम्हारे-जैसे वीर पुरुष किया करते हैं।
सात्वत! वृष्णिवंशी प्रमुख वीरों में रणक्षेत्र के लिये दो ही व्यक्ति अतिरथी माने गये हैं-एक तो महाबाहु प्रद्युम्न और दूसरे सुविख्यात वीर तुम। नरव्याघ्र! तुम अस्त्र विद्या के ज्ञान में भगवान श्रीकृष्ण के समान, बल में बलरामजी के तुल्य और वीरता में धनंजय के समान हो। इस जगत में भीष्म और द्रोण के बाद तुझ पुरुषसिंह सात्यकि-को ही श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण युद्धाकाल में निपुण बताते हैं। जब अच्छे पुरुषों का समाज जुटता हैं, उस समय उसमें आये हुए सब लोग संसार में तुम्हारे गुणों को सदा-सर्वदा सबसे विलक्षण ही बतलाते हैं। उनका कहना है कि सात्यकि देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर तथा बड़े-बड़े नागों सहित बहुसंख्यक शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। सम्पूर्ण जगत से अकेले ही युद्ध कर सकते हैं। माधव! लोग कहते हैं कि संसार में सात्यकि के लिये कोई कार्य असाध्य नहीं है। महाबली वीर! सब लोगों की तथा मेरी और अर्जुन की-दोनों भाईयों की तुम्हारे विषय में बड़ी उत्तम भावना है।
अत: मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसका पालन करो। महाबाहो! तुम हमारी पूर्वोक्त धारणा को बदल न देना। समरांगण में प्यारे प्राणों का मोह छोड़कर निर्भय के समान विचरो। शैनेय! दशार्ह कुल के वीर पुरुष रणक्षेत्र में अपने प्राण बचाने की चेष्टा नहीं करते हैं। युद्ध से मुंह मोड़ना; युद्धस्थल में डटे न रहना और संग्राम भूमि में पीठ दिखाकर भागना यह कायरों और अक्षम पुरुषों का मार्ग है। दशार्ह कुल के वीर पुरुष इससे दूर रहते हैं। तात! क्षिनिप्रवर! धर्मात्मा अर्जुन तुम्हारा गुरु है तथा भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे और बुद्धिमान अर्जुन के भी गुरु हैं। इन दोनों कारणों को जानकर मैं तुमसे इस कार्य के लिये कह रहा हूँ। तुम मेरी बात की अवहेलना न करो। क्योंकि मैं तुम्हारे गुरु का भी गुरु हूँ। तुम्हारा वहाँ जाना भगवान श्रीकृष्ण को, मुझको तथा अर्जुन को भी प्रिय है। यह मैंने तुमसे सच्ची बात कही है। अत: जहाँ अर्जुन हैं, वहाँ जाओ। सत्यपराक्रमी वत्स! तुम मेरी इस बात को जानकर दुर्बुद्धि दुर्योधन की इस सेना में प्रवेश करों। सात्वत! इसमें प्रवेश करके यथायोग्य सब महारथियों से मिलकर युद्ध में अपने अनुरुप पराक्रम दिखाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्वणि में युधिष्ठिरवाक्ये विषयक एक सौ दसवां अध्याय पुरा हुआ)
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