सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव पाण्डव सेनाओं का घमासान युद्ध तथा अश्रत्थामा के द्वारा राजा नील का वध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! पाण्डुपुत्र अर्जुन के द्वारा पराजित हो जब सारी सेनाएँ भाग खड़ी हुईं, उस समय विचलित हो पलायन करते हुए तुम लोगों के मन की कैसी अवस्था हो रही थी? भागती हुई सेनाओं को जब अपने ठहरने के लिये कोई स्थान नहीं दिखायी देता हो, उस समय उन सबको संगठित करके एक स्थान पर ले आना बड़ा कठिन काम होता है। अत: संजय! तुम मुझे वह सब समाचार ठीक-ठीक बताओ।
संजय ने कहा ;– प्रजानाथ! यद्यपि सेनाओं मे भगदड़ पड़ गयी थी, तथापि बहुत-से विश्वविख्यात वीरों ने आपके पुत्र का प्रिय करने की इच्छा रखकर अपने यश की रक्षा करते हुए उस समय द्रोणाचार्य का साथ दिया। प्रभो! वह भयंकर संग्राम छिड़ जाने पर समस्त योद्धा निर्भय-से होकर आर्यजनोचत्त पुरुषार्थ प्रकट करने लगे। जब सब ओर से हथियार उठे हुए थे और राजा युधिष्ठिर सामने आ पहुँचे थे, उस दशा में भीमसेन, सात्यकि अथवा वीर धृष्टद्युम्न की असावधानी का लाभ उठाकर अमित तेजस्वी कौरव योद्धा पाण्डव सेना पर टूट पड़े। क्रूर स्वभाव वाले पांचाल सैनिक एक-दूसरे को प्रेरित करने लगे, अरे! द्रोणाचार्य को पकड़ लो, द्रोणाचार्य को बंदी बना लो और आपके पुत्र समस्त कौरवों को आदेश दे रहे थे कि देखना, द्रोणाचार्य को शत्रु पकड़ न पावें।
एक ओर से आवाज आती थी 'द्रोण को पकड़ो, द्रोण को पकड़ो'। दूसरी ओर से उत्तर मिलता, 'द्रोणाचार्य को कोई नहीं पकड़ सकता'। इस प्रकार द्रोणाचार्य को दाँव पर रखकर कौरव और पाण्डवों में युद्ध का जूआ आरम्भ हो गया था। पांचालों के जिस-जिस रथसमुदाय को द्रोणाचार्य मथ डालने का प्रयत्न करते, वहाँ-वहाँ पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न उनका सामना करने के लिये आ जाता था। इस प्रकार भागविपर्यय द्वारा भयंकर संग्राम आरम्भ होने पर भैरव-गर्जना करते हुए उभय पक्ष के वीरों ने विपक्षी वीरों पर आक्रमण किया।
उस समय पाण्डवों को शत्रुदल के लोग विचलित न कर सके। वे अपने को दिये गये क्लेशों को याद करके आपके सैनिकों को कँपा रहे थे। पांडव लज्जाशील,सत्त्वगुण से प्रेरित और अमर्ष के अधीन हो रहे थे। वे प्राणों की परवा न करके उस महान समर में द्रोणाचार्य का वध करने के लिये लौट रहे थे। उस भंयकर युद्ध में प्राणों की बाजी लगाकर खेलने वाले अमित तेजस्वी वीरों का संघर्ष लोहों तथा पत्थरों के परस्पर टकराने के समान भयंकर शब्द करता था। महाराज! बड़े-बूढ़े लोग भी पहले के देखे अथवा सुने हुए किसी भी वैसे संग्राम का स्मरण नहीं करते हैं।
वीरों का विनाश करने वाले उस युद्ध में लौटते हुए विशाल सैनिक-समूह के महान भार से पीड़ीत हो यह पृथ्वी काँपने-सी लगी। वहाँ सब ओर चक्कर काटते हुए सैन्य-समूह का अत्यन्त भयंकर कोलाहल आकाश को स्तब्ध-सा करके अजातशत्रु युधिष्ठिर की सेना में व्याप्त हो गया। रणभूमि में विचरते हुए द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेना में प्रवेश करके अपने तीखे बाणों द्वारा सहस्त्रों सैनिकों के पाँव उखाड़ दिये। अद्भुत पराक्रम करने वाले द्रोणाचार्य के द्वारा जब उन सेनाओं का मन्थन होने लगा, उस समय स्वयं सेनापति धृष्टद्युम्न ने द्रोण के पास पहुँचकर उन्हें रोका।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में अद्भुत युद्ध होने लगा, जिसकी कहीं कोई तुलना नहीं थी, यह मेरा निश्चित मत है। तदनन्तर अग्नि के समान कान्तिमान नील बाणरूपी चिनगारियों तथा धनुषरूपी लपटों का विस्तार करते हुए कौरव सेना को दग्ध करने लगे, मानो आग घास-फूस के ढेर को जला रही हो। राजा नील को कौरव-सेना का दहन करते देख प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने, जो पहले स्वयं ही वार्तालाप आरम्भ करने वाला था, मुसकराते हुए मधुर वचनों में कहा।
'नील! तुमको बाणों की ज्वाला से इन बहुत-से योद्धाओं को दग्ध करने से क्या लाभ? तुम अकेले मुझसे ही युद्ध करो और कुपित होकर मेरे ऊपर शीघ्र प्रहार करो।' नील का मुख विकसित कमल के समान कान्तिमान था। उन्होंने पद्म-समूह की सी आकृति तथा कमल-दल के सदृश नेत्रों वाले अश्वत्थामा को अपने बाणों से बींध डाला। उनके द्वारा घायल होकर अश्वत्थामा ने सहसा तीन तीखे भल्लों द्वारा अपने शत्रु नील के धनुष, ध्वज तथा छत्र को काट डाला।
तब नील ढाल और सुन्दर तलवार हाथ में लेकर उस रथ से कूद पड़े। जैसे पक्षी किसी मनचाही वस्तु को लेने के लिये झपट्टा मारता है, उसी प्रकार नील ने भी अश्वत्थामा के धड़ से उसका सिर उतार लेने का विचार किया। निष्पाप नरेश! उस समय अश्वत्थामा ने मुसकराते हुए से भल्ल मारकर उसके द्वारा नील के ऊँचे कंधों, सुन्दर नासिकाओं तथा कुण्डलों सहित मस्तक को धड़ से काट गिराया। पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तिमान मुख और कमल-दल के समान सुन्दर नेत्र वाले राजा नील बड़े ऊँचे कद के थे। उनकी अंगकान्ति नील-कमल-दल के समान श्याम थी। वे अश्वत्थामा द्वारा मारे जाकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
आचार्य पुत्र के द्वारा प्रज्वलित तेज वाले राजा नील के मारे जाने पर पाण्डव सेना अत्यन्त व्याकुल और व्यथित हो उठी। आर्य! उस समय समस्त पाण्डव महारथी यह सोचने लगे कि इन्द्रकुमार अर्जुन शत्रुओं के हाथ से हमारी रक्षा कैसे कर सकते हैं? वे बलवान अर्जुन तो इस सेना के दक्षिण भाग में बचे-खुचे संशप्तकों और नारायणी सेना के सैनिकों का संहार कर रहे हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में नीलवध विषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-पाण्डव सेनाओं का घमासान युद्ध, भीमसेन का कौरव महारथियो के साथ संग्राम, भयंकर संहार,पाण्डवों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण, अर्जुन और कर्ण का युद्ध, कर्ण के भाइयों का वध तथा कर्ण और सात्यकि का संग्राम”
संजय कहते हैं ;– महाराज! अपनी सेना का वह विनाश भीमसेन से नहीं सहा गया। उन्होंने गुरुदेव को साठ और कर्ण को दस बाणों से घायल कर दिया। तब द्रोणाचार्य ने सीधे जाने वाले, तीखी धार से युक्त पैने बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक भीमसेन के मर्मस्थानों पर आघात किया। वे भीमसेन के प्राणों का अन्त कर देना चाहते थे। इस आघात-प्रतिघात को निरन्तर जारी रखने की इच्छा से द्रोणाचार्य ने भीमसेन को छब्बीस, कर्ण ने बारह और अश्वत्थामा ने सात बाण मारे।
तदनन्तर राजा दुर्योधन ने उनके ऊपर छ: बाणों द्वारा प्रहार किया। फिर महाबली भीमसेन ने उन सबको अपने बाणों द्वारा घायल कर दिया। उन्होंने द्रोण को पचास, कर्ण को दस, दुर्योधन को बारह और अश्वत्थामा को आठ बाण मारे। तत्पश्चात भयंकर गर्जना करते हुए भीम ने रणक्षेत्र में उन सबका सामना किया। भीमसेन मृत्यु के तुल्य अवस्था में पहुँच गये थे और अपने प्राणों का परित्याग करना चाहते थे। उसी समय अजातशत्रु युधिष्ठिर ने अपने योद्धाओं को यह कहकर आगे बढ़ने की आज्ञा दी कि 'तुम सब लोग भीमसेन की रक्षा करो।' यह सुनकर वे अमित तेजस्वी वीर भीमसेन के समीप चले। सात्यकि आदि महारथी तथा पाण्डुकुमार माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव– ये सभी पुरुषश्रेष्ठ वीर परस्पर मिलकर एक साथ अत्यन्त क्रोध में भरकर बड़े-बड़े धनुर्धरों से सुरक्षित हो द्रोणाचार्य की सेना को विदीर्ण कर डालने की इच्छा से उस पर टूट पड़े। वे भीम आदि सभी महारथी अत्यन्त पराक्रमी थे।
उस समय रथियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण ने घबराहट छोड़कर उन अत्यन्त बलवान समरभूमि में युद्ध करने वाले महारथी वीरों को रोक दिया। परंतु पाण्डववीर मौत के भय को बाहर छोड़कर आपके सैनिकों पर चढ़ आये। घुड़सवार घुड़सवारों को तथा रथारोही योद्धा रथियों को मारने लगे। उस युद्ध में शक्ति और खड्गों के घातक प्रहार हो रहे थे। फरसों से मार-काट हो रही थी। तलवार खींचकर उसके द्वारा ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि उसका कटु परिणाम प्रत्यक्ष सामने आ रहा था। हाथियों के संघर्ष में अत्यन्त दारुण संग्राम होने लगा। कोई हाथी से गिरता था तो कोई घोड़े से ही औंधे सिर धराशायी हो रहा था। आर्य! उस युद्ध में कितने मनुष्य बाणों से विदीर्ण होकर रथ से नीचे गिर जाते थे। कितने ही योद्धा कवचशून्य हो धरती पर गिर पड़ते थे और सहसा कोई हाथी उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मस्तक को भी कुचल देता था।
दूसरे हाथियों ने भी दूसरे बहुत-से गिरे हुए मनुष्यों को अपने पैरों से रौंद डाला। अपने दाँतों से धरती पर आघात करके बहुत-से रथियों को चीर डाला। कितने ही गजराज अपने दाँतों में लगी हुई मनुष्यों की आँतें लिये समर-भूमि में सैकड़ों योद्धाओं को कुचलते हुए चक्कर लगा रहे थे। काले रंग के लोहमय कवच धारण करके रणभूमि में गिरे हुए कितने ही मनुष्यों, रथों, घोड़ों और हाथियों को बड़े-बड़े गजराजों ने मोटे नरकुलों के समान रौंद डाला। बड़े-बड़े राजा कालसंयोग से अत्यन्त दु:खदायिनी तथा गीध की पाँखरूपी बिछौनों से युक्त शय्याओं पर लज्जापूर्वक सो रहे थे।
वहाँ पिता रथ के द्वारा युद्ध के मैदान में आकर पुत्र का ही वध कर डालता था तो पुत्र भी मोहवश पिता के प्राण ले रहा था। इस प्रकार वहाँ मर्यादाशून्य युद्ध हो रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)
कितने ही रथ टूट गये, ध्वज कट गये, छत्र पृथ्वी पर गिरा दिये गये और जूए खण्डित हो गये। उन खण्डित हुए आधे जूओं को ही लेकर घोड़े तेजी से भाग रहे थे। कितने ही वीरों की भुजाएँ तलवार सहित काट गिरायी गयीं, कितनों के कुण्डलमण्डित मस्तक धड़ से अलग कर दिये गये। कहीं किसी बलवान हाथी ने रथ को उठाकर फेंक दिया और वह पृथ्वी पर गिरकर चूर-चूर हो गया। किसी रथी ने नाराच के द्वारा गजराज पर आघात किया और वह धराशायी हो गया। किसी हाथी के वेगपूर्वक आघात करने पर सवार सहित घोड़ा धरती पर ढेर हो गया। इस प्रकार वहाँ मर्यादाशून्य अत्यन्त भयंकर एवं महान युद्ध होने लगा। उस समय सभी सैनिक 'हा तात! हा पुत्र! सखे! तुम कहाँ हो? ठहरो, कहाँ भागे जा रहे हो? मारो, लाओ, इसका वध कर डालो'–इस प्रकार की बातें कह रहे थे। हास्य, उछल-कूद और गर्जना के साथ उनके मुख से नाना प्रकार की बातें सुनायी देती थीं।
मनुष्य, घोड़े और हाथी के रक्त एक-दूसरे से मिल रहे थे। उस रक्त प्रवाह से वहाँ की उड़ती हुई भयंकर धूल शान्त हो गयी। उस रक्तराशि को देखकर भीरु पुरुषों पर मोह छा जाता था। किसी वीर ने अपने चक्र के द्वारा शत्रुपक्षीय वीर के चक्र का निवारण करके युद्ध में बाण-प्रहार के योग्य अवसर न होने के कारण गदा से ही उसका सिर उड़ा दिया। कुछ लोगों में एक-दूसरे के केश पकड़कर युद्ध होने लगा। कितने ही योद्धाओं में अत्यन्त भयंकर मुक्कों की मार होने लगी। कितने ही शूरवीर उस निराश्रय स्थान में आश्रय ढूँढ़ रहे थे और नखों तथा दाँतों से एक-दूसरे को चोट पहुँचा रहे थे।
उस युद्ध में एक शूरवीर की खड्ग सहित ऊपर उठी हुई भुजा काट डाली गयी। दूसरे की भी धनुष-बाण और अंकुश सहित बाँह खण्डित हो गयी। वहाँ एक सैनिक दूसरे को पुकारता था और दूसरा युद्ध से विमुख होकर भागा जा रहा था। किसी दूसरे वीर ने सामने आये हुए अन्य योद्धा के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। यह देख कोई तीसरा वीर बड़े जोर से कोलाहल करता हुआ भागा। उसके उस आर्तनाद से एक अन्य योद्धा अत्यन्त डर गया। कोई अपने ही सैनिकों को और कोई शत्रु योद्धाओं को अपने तीखे बाणों से मार रहा था। उस युद्ध में पर्वतशिखर के समान विशालकाय हाथी नाराच से मारा जाकर वर्षाकाल में नदी के तट की भाँति धरती पर गिरा और ढेर हो गया।
झरने बहाने वाले पर्वत की भाँति किसी मदस्त्रावी गजराज ने सारथि और अश्वों सहित रथ को पैरों से भूमि पर दबाकर उन सबको कुचल डाला। अस्त्र-विद्या में निपुण और खून से लथ-पथ हुए शूरवीरों को परस्पर प्रहार करते देख बहुत-से दुर्बल हृदय वाले भीरू मनुष्यों के मन में मोह का संचार होने लगा। उस समय सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से व्याप्त होकर सारा जन-समूह उद्विग्न हो रहा था, किसी को कुछ नहीं सूझता था। उस युद्ध में किसी भी नियम या मर्यादा का पालन नहीं हो रहा था।
तब सेनापति धृष्टद्युम्न ने यही उपयुक्त अवसर है, ऐसा कहते हुए सदा शीघ्रता करने वाले पाण्डवों को और भी जल्दी करने के लिये प्रेरित किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले पाण्डव सेनापति की आज्ञा का पालन करने के लिये वहाँ द्रोणाचार्य के रथ पर प्रहार करते हुए उसी प्रकार टूट पड़े, जैसे बहुत-से हंस किसी सरोवर पर सब ओर से उड़कर आते हैं। उस समय दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्य के रथ के समीप सब ओर से यही भयानक आवाज आने लगी कि 'दौड़ो, पकड़ो और निर्भय होकर शत्रुओं को काट डालो।'
तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, राजा जयद्रथ, अवंती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द तथा राजा शल्य ने मिलकर इन आक्रमणकारियों को रोका। वे पाण्डवों सहित पांचालवीर आर्यधर्म के अनुसार विजय के लिये प्रयत्नशील थे। उन्हें रोकना या पराजित करना बहुत कठिन था। वे बाणों से पीड़ित होने पर द्रोणाचार्य को छोड़ न सके। यह देख अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने सैकड़ों बाणों की वर्षा करके चेदि, पांचाल तथा पाण्डव योद्धाओं का महान संहार आरम्भ किया। आर्य! उनके धनुष की प्रत्यंचा का गम्भीर घोष सम्पूर्ण दिशाओं में सुनायी देता था। वह वज्र की गर्जना के समान घोर शब्द बहुसंख्यक मनुष्यों को भयभीत कर रहा था।
इसी समय अर्जुन बहुत-से संशप्तकों पर विजय प्राप्त करके उस स्थान पर आये, जहाँ आचार्य द्रोण पाण्डव-सैनिकों का मर्दन कर रहे थे। संशप्तक योद्धा महान सरोवर के समान थे, बाणों के समूह ही उनके जल-प्रवाह थे, धनुष ही उनमें उठी हुई बड़ी-बड़ी भँवरों के समान जान पड़ते थे तथा प्रवाहित होने वाला रक्त ही उन सरोवरों का जल था। अर्जुन संशप्तकों का वध करके उन महान सरोवरों के पार होकर वहाँ आते दिखायी दिये थे। सूर्य के समान तेजस्वी एवं यशस्वी के चिह्न स्वरूप वानरध्वज को हमने दूर से ही देखा, जो अपने दिव्य तेज से उद्भासित हो रहा था।
वे पाण्डुवंश के प्रलयकालीन सूर्य अपनी अस्त्रमयी किरणों से उस संशप्तकरूपी समुद्र को सोखकर कौरव-सैनिकों को भी संतप्त करने लगे। जैसे प्रलयकाल में प्रकट हुई अग्नि सम्पूर्ण भूतों को दग्ध कर देती हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने अपने अस्त्र–शस्त्रों के तेज से समस्त कौरव-सैनिकों को जलाना आरम्भ किया। हाथी, घोड़े तथा रथ पर आरुढ़ होकर युद्ध करने वाले बहुत-से योद्धा अर्जुन के सहस्त्रों बाण-समूहों से आहत एवं पीड़ित हो बाल खोले हुए पृथ्वी पर गिर पड़े।
कोई आर्तनाद करने लगे, कोई नष्ट हो गये, कोई अर्जुन के बाणों से मारे जाकर प्राणशून्य हो पृथ्वी पर गिर पड़े। उन योद्धाओं में से जो लोग रथ से कूद पड़े थे या धरती पर गिर गये थे अथवा युद्ध से विमुख होकर भाग चले थे, उन सबको एक वीर सैनिक के लिये निश्चित नियम का निरन्तर स्मरण रखते हुए अर्जुन ने नहीं मारा। कौरव-सैनिकों के रथ टूट-फूटकर बिखर गये। उनकी विचित्र अवस्था हो गयी। वे प्राय: युद्ध से विमुख हो गये और 'हा कर्ण, हा कर्ण' कहकर पुकारने लगे।
तब अधिरथपुत्र कर्ण ने उन शरणार्थी सैनिकों की करुण पुकार सुनकर 'डरो मत' इस प्रकार उन्हें आश्वासन देकर अर्जुन का सामना करने के लिये प्रस्थान किया। उस समय अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ, भरतवंशियों के श्रेष्ठ महारथी तथा सम्पूर्ण भारतीय सेना का हर्ष बढ़ाने वाले कर्णने आग्नेयास्त्र प्रकट किया। प्रज्वलित बाण-समूह तथा देदीप्यमान धनुष धारण करने वाले कर्ण के उन बाण-समूहों को अर्जुन ने अपने बाणों के समुदाय द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 54-74 का हिन्दी अनुवाद)
उसी प्रकार अधिरथकुमार कर्ण ने भी प्रज्वलित तेज वाले अर्जुन के बाणों का तथा उनके प्रत्येक अस्त्र का अपने अस्त्रों द्वारा निवारण करके बाणों की वर्षा करते हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। इसी समय धृष्टद्युम्न, भीम तथा महारथी सात्यकि ने भी कर्ण के पास पहुँचकर उसे तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। तब राधानन्दन कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा द्वारा अर्जुन के बाणों का निवारण करके अपने तीन बाणों द्वारा धृष्टद्युम्न आदि तीनों वीरों के धनुषों को भी काट दिया।
अपने धनुष कट जाने पर विषहीन भुजंगमों के समान उन शूरवीरों ने रथ-शक्तियों को ऊपर उठाकर सिंहों के समान भयंकर गर्जना की। उनके हाथों से छूटी हुई वे अत्यन्त वेगशालिनी सर्पाकार महाशक्तियाँ अपनी प्रभा से प्रकाशित होती हुई कर्ण की ओर चलीं। परंतु बलवान कर्ण ने सीधे जाने वाले तीन-तीन बाण-समूहों द्वारा उन शक्तियों के टुकड़े-टुकड़े करके अर्जुन पर बाणों की वर्षा करते हुए सिंहनाद किया। अर्जुन ने भी राधानन्दन कर्ण को सात शीघ्रगामी बाणों द्वारा बींधकर अपने पैने बाणों से उसके छोटे भाई को मार डाला।
तत्पश्चात सीधे जाने वाले छ: सायकों द्वारा शत्रुंजय का संहार करके एक भल्ल द्वारा रथ पर बैठे हुए विपाट का मस्तक तत्काल काट गिराया। इस प्रकार धृतराष्ट्रपुत्रों के देखते-देखते एकमात्र अर्जुन ने युद्ध के मुहाने पर सूतपुत्र कर्ण के तीन भाइयों का वध कर डाला।
तदनन्तर भीमसेन ने गरुड़ की भाँति अपने रथ से उछलकर उत्तम खड्ग द्वारा कर्णपक्ष के पद्रंह योद्धाओं को मार डाला। फिर भी उन्होंने अपने रथ पर बैठकर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और दस बाणों द्वारा कर्ण को तथा पाँच बाणों से उसके सारथि और घोड़ों को भी घायल कर दिया। धृष्टद्युम्न ने भी श्रेष्ठ खड्ग और चमकीली ढाल लेकर चन्द्रवर्मा तथा निषधराज बृहत्क्षत्र का काम तमाम कर दिया।
तदनन्तर पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न ने अपने रथ पर बैठकर दूसरा धनुष ले रणक्षेत्र में गर्जना करते हुए तिहत्तर बाणों द्वारा कर्ण को बींध डाला। तत्पश्चात चन्द्रमा के समान कान्तिमान सात्यकि ने भी दूसरा धनुष हाथ में लेकर सूतपुत्र कर्ण को चौसठ बाणों से घायल करके सिंह के समान गर्जना की। इसके बाद उन्होंने अच्छी तरह छोड़े हुए दो भल्लों द्वारा कर्ण के धनुष को काटकर पुन: तीन बाणों द्वारा कर्ण की दोनों भुजाओं तथा छाती में भी चोट पहुँचायी।
तत्पश्चात दुर्योधन, द्रोणाचार्य तथा राजा जयद्रथ ने डूबते हुए राधानन्दन कर्ण का सात्यकिरूपी समुद्र से उद्धार किया। उस समय आपकी सेना के अन्य सैकड़ों पैदल, घुड़सवार, रथी और गजारोही योद्धा सात्यकि से संत्रस्त होकर कर्ण के ही पीछे दौड़े गये। उधर धृष्टद्युम्न, भीमसेन, अभिमन्यु, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव ने रणक्षेत्र में सात्यकि का संरक्षण आरम्भ किया। महाराज! इस प्रकार आपके तथा शत्रुपक्ष के सम्पूर्ण धनुर्धरों के विनाश के लिये उनमें परस्पर प्राणों की परवा न करके अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा।
पैदल, रथ, हाथी और घोड़े क्रमश: हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों के साथ युद्ध करने लगे। रथी हाथियों, पैदलों और घोड़ों के साथ भिड़ गये। रथी और पैदल सैनिक रथियों और हाथियों का सामना करने लगे। घोड़ों से घोड़े, हाथियों से हाथी, रथियों से रथी और पैदलों से पैदल जूझते दिखायी दे रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 75-80 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार उन निर्भीक सैनिकों का महान शक्तिशाली विपक्षी योद्धाओं के साथ अत्यन्त घमासान युद्ध हो रहा था, जो कच्चा मांस खाने वाले पशु-पक्षियों तथा पिशाचों के हर्ष की वृद्धि और यमराज के राष्ट्र की समृद्धि करने वाला था। उस समय पैदल, रथी, घुड़सवार और हाथी सवारों के द्वारा बहुत-से हाथी सवार, रथी,पैदल और घुड़सवार मारे गये। हाथियों ने हाथियों को, रथियों ने शस्त्र उठाये हुए रथियों को, घुड़सवारों ने घुड़सवारों को और पैदल योद्धाओं ने पैदल योद्धाओं को मार गिराया। रथियों ने हाथियों को, गजराजों ने बड़े-बड़े घोड़ों को, घुड़सवारों ने पैदलों को तथा श्रेष्ठ रथियों ने घुड़सवारों को धराशायी कर दिया। उनकी जिह्वा, दाँत और नेत्र-ये सब बाहर निकल आये थे। कवच और आभूषण टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े थे। ऐसी अवस्था में वे सब योद्धा पृथ्वी पर गिरकर नष्ट हो गये थे। शत्रुओं के पास बहुत-से साधन थे। उनके हाथ में उत्तम अस्त्र-शस्त्र थे। उनके द्वारा मारे जाकर पृथ्वी पर पड़े हुए सैनिक बड़े भयंकर दिखायी देते थे। कितने ही योद्धा हाथियों और घोड़ों के पैरोंसे आहत होकर धरती पर गिर पड़ते थे। कितने ही बड़े-बड़े रथों के पहियों से कुचलकर क्षत-विक्षत हो अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे। वहाँ वह भयंकर जनसंहार हिंसक जन्तुओं, पक्षियों तथा राक्षसों को आनन्द प्रदान करने वाला था। उसमें कुपित हुए वे महाबली शूरवीर एक-दूसरे को मारते हुए बलपूर्वक विचरण कर रहे थे। भरतनन्दन! दोनों ओर की सेनाएँ अत्यन्त आहत होकर खून से लथपथ हो एक-दूसरी की ओर देख रही थी, इतने ही में सूर्यदेव अस्ताचल को जा पहुँचे। फिर तो वे दोनों ही धीरे-धीरे अपने-अपने शिबिर की ओर चल दीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में बारहवें दिन के युद्ध में सेना का युद्ध से विरत हो अपने शिबिर को प्रस्थानविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
तैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का उपालम्भ, द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा और अभिमन्युवध के वृतान्त का संक्षेप से वर्णन”
संजय कहते हैं ;– महाराज! जब अमित तेजस्वी अर्जुन ने पहले ही हम सब लोगों को भगा दिया, द्रोणाचार्य का संकल्प व्यर्थ हो गया तथा युधिष्ठिर सर्वथा सुरक्षित रह गये, तब आपके समस्त सैनिक द्रोणाचार्य की सम्मति से युद्ध बंद करके भय से उत्पन्न उद्विग्न हो दसों दिशाओं की ओर देखते हुए शिबिर की ओर चल दिये। वे सब-के-सब युद्ध में पराजित होकर धूल में भर गये थे। उनके कवच छिन्न-भिन्न हो गये तथा कभी न चूकने वाले अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होकर वे रणक्षेत्र में अत्यन्त उपहास के पात्र बन गये।
समस्त प्राणी अर्जुन के असंख्य गुणों की प्रंशसा तथा उनके प्रति भगवान श्रीकृष्ण के सौहार्द का बखान कर रहे थे। उस समय आपके महारथीगण कलंकित से हो रहे थे। वे ध्यानस्थ से होकर मूक हो गये थे। तदनन्तर प्रात:काल दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर उनसे कुछ कहने को उद्यत हुआ। शत्रुओं के अभ्युदय से वह मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया था। द्रोणाचार्य के प्रति उसके हृदय में प्रेम था। उसे अपने शौर्य पर अभिमान भी था। अत: अत्यन्त कुपित हो बातचीत में कुशल राजा दुर्योधन ने समस्त योद्धाओं के सुनते हुए इस प्रकार कहा। 'द्विजश्रेष्ठ! निश्चय ही हम लोग आपकी दृष्टि में शत्रुवर्ग के अन्तर्गत हैं। यही कारण है कि आज आपने अत्यन्त निकट आने पर भी राजा युधिष्ठिर को नहीं पकड़ा है। 'रणक्षेत्र में कोई शत्रु आपके नेत्रों के समक्ष आ जाय और उसे आप पकड़ना चाहें तो सम्पूर्ण देवताओं के साथ सारे पांडव उसकी रक्षा क्यों न कर रहे हों, निश्चय ही वह आपसे छूटकर नहीं जा सकता।'
आपने प्रसन्न होकर पहले तो मुझे वर दिया और पीछे उसे उलट दिया; परंतु श्रेष्ठ पुरुष किसी प्रकार भी अपने भक्त की आशा भंग नहीं करते हैं।' दुर्योधन के ऐसा कहने पर द्रोणाचार्य को तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। वे दुखी होकर राजा से इस प्रकार बोले-'राजन! तुमको मुझे इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग करने वाला नहीं समझना चाहिये। मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारा प्रिय करने की चेष्टा कर रहा हूँ।'
'परंतु एक बात याद रखो, किरीटधारी अर्जुन रणक्षेत्र में जिसकी रक्षा कर रहे हों, उसे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण लोक भी नहीं जीत सकते। 'जहाँ जगत्स्रष्टा भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन सेनानायक हों, वहाँ भगवान शंकर के सिवा दूसरे किस पुरुष का बल काम कर सकता है।' 'तात! आज मैं एक सच्ची बात कहता हूँ, यह कभी झूठी नहीं हो सकती। आज मैं पाण्डव पक्ष के किसी श्रेष्ठ महारथी को अवश्य मार गिराऊँगा।'
'राजन! आज उस व्यूह का निर्माण करुँगा, जिसे देवता भी तोड़ नहीं सकते; परंतु किसी उपाय से अर्जुन को यहाँ से दूर हटा दो।' 'युद्ध के सम्बन्ध में कोई ऐसी बात नहीं है, जो अर्जुन के लिये अज्ञात अथवा असाध्य हो। उन्होंने इधर-उधर से युद्ध-विषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।' द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर पुन: संशप्तकगणों ने दक्षिण दिशा में जा अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ अर्जुन का शत्रुओं के साथ ऐसा घोर संग्राम हुआ, जैसा दूसरा कोई कहीं न तो देखा गया है और न सुना ही गया है। राजन! उस समय वहाँ द्रोणाचार्य ने जिस व्यूह का निर्माण किया, वह मध्याह्नकाल में विचरते हुए सूर्य की भाँति शत्रुओं को संताप देता-सा सुशोभित हो रहा था। उसे जीतना तो दूर रहा, उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी अत्यन्त कठिन था। भारत! यद्यपि उस चक्रव्यूह का भेदन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था तो भी वीर अभिमन्यु ने अपने ताऊ युधिष्ठिर की आज्ञा से उस व्यूह का बारंबार भेदन किया। अभिमन्यु ने वह दुष्कर कर्म करके सहस्त्रों वीरों का वध किया और अन्त में छ: वीरों के साथ अकेला ही उलझकर दु:शासनपुत्र के हाथ से मारा गया।
भूपाल! शत्रुओं को संताप देने वाले सुभद्राकुमार ने जब प्राण त्याग दिये, उस समय हम लोगों को बड़ा हर्ष हुआ और पाण्डव शोक से व्याकुल हो गये। राजन! सुभद्राकुमार के मारे जाने पर हम लोगों ने युद्ध बंद कर दिया।
धृतराष्ट्र बोले ;– संजय! पुरुषसिंह अर्जुन का वह पुत्र अभी युवावस्था में भी नहीं पहुँचा था। उसे युद्ध में मारा गया सुनकर मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण हो रहा है। धर्मशास्त्र के निर्माताओं ने यह क्षत्रिय-धर्म अत्यन्त कठोर बनाया है, जिसमें स्थित होकर राज्य के सभी लोभी शूरवीरों ने एक बालक पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया।संजय! यह अत्यन्त प्रसन्न रहने वाला बालक जब निर्भय-सा होकर युद्ध में विचर रहा था; उस समय अस्त्रविधा के पारंगत बहुसंख्यक शूरवीरों ने उसका वध कैसे किया? यह मुझे बताओ। संजय! अमित तेजस्वी सुभद्राकुमार ने युद्ध के मैदान में रथियों की सेना को विदीर्ण करने की इच्छा से जिस प्रकार युद्ध का खेल किया था, वह सब मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;– राजेन्द्र! आप जो मुझसे सुभद्राकुमार के मारे जाने का वृतान्त पूछ रहे हैं, वह सब मैं आपको पूर्णरूप से बताऊँगा। राजन! आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। आपकी सेना के व्यूह का भेदन करने की इच्छा से कुमार अभिमन्यु ने जिस प्रकार रणक्रीड़ा की थी और उस प्रलयंकर संग्राम में जैसे-जैसे दुर्जय वीरों के भी पाँव उखाड़ दिये थे, वह सब बता रहा हूँ। जैसे प्रचुर लता-गुल्म, घास-पात और वृक्षों से भरे हुए वन में दावानल से घिरे हुए वनवासियों को महान भय का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अभिमन्यु से आपके सैनिकों को अत्यन्त भय प्राप्त हुआ था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में अभिमन्यु वध का संक्षेप से वर्णनविषयक तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुस्त्रिश अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“संजय के द्वारा अभिमन्यु की प्रशंसा, द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह का निर्माण”
संजय कहते है ;– राजन! श्रीकृष्ण सहित पाँचों पांडव देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं। वे समरभूमि में अत्यन्त भयंकर कर्म करने वाले हैं। उनके कर्मों द्वारा ही उनका परिश्रम अभिव्यक्त होता है। सत्त्वगुण, कर्म, फल, बुद्धि, कीर्ति, यश और श्री के द्वारा युधिष्ठिर के समान पुरुष दूसरा कोई न तो हुआ है और न होने वाला ही है। कहते हैं, राजा युधिष्ठिर सत्यधर्मपरायण और जितेन्द्रिय होने के साथ ही ब्राह्मण-पूजन आदि सद्गुणों के द्वारा सदा ही स्वर्गलोक को प्राप्त हैं। राजन! प्रलयकाल के यमराज, पराक्रमी परशुराम और रथ पर बैठे हुए भीमसेन– ये तीनों एक समान कहे जाते हैं। रणभूमि में प्रतिज्ञापूर्वक कर्म करने में कुशल, गाण्डीवधारी कुन्तीकुमार अर्जुन के लिये तो मुझे इस पृथ्वी पर कोई उनके योग्य उपमा ही नहीं मिलती है।
बड़े भाई के प्रति अत्यन्त भक्ति, अपने पराक्रम को प्रकाशित न करना, विनयशीलता, इन्द्रिय-संयम, उपमारहित रूप तथा शौर्य- ये नकुल में छ: गुण निश्चित रूप से निवास करते हैं। वेदाध्ययन, गम्भीरता, मधुरता, सत्य, रूप और पराक्रम की दृष्टि से वीर सहदेव सर्वथा अश्विनीकुमारों के समान हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है। भगवान श्रीकृष्ण में जो उज्जवल गुण हैं तथा पाण्डवों में जो उज्जवल गुण विद्यमान हैं, वे समस्त गुण समुदाय अभिमन्यु में निश्चय ही एकत्र हुए दिखायी देते थे। युधिष्ठिर के पराक्रम, श्रीकृष्ण के उत्तम चरित्र एवं भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन के वीरोचित कर्मों के समान ही अभिमन्यु के भी पराक्रम, चरित्र और कर्म थे।
वह रूप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान में अर्जुन के समान तथा विनयशीलता में नकुल और सहदेव के तुल्य था।
धृतराष्ट्र बोले ;– सूत! मैं किसी भी पराजित न होने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्यु के विषय में सारा वृतान्त सुनना चाहता हूँ। वह युद्ध में कैसे मारा गया?
संजय ने कहा ;– महाराज! स्थिर हो जाइये और जिसे धारण करना कठिन है, उस शोक को अपने हृदय में ही रोके रखिये। मैं आपसे बन्धु–बान्धवों के महान विनाश का वर्णन करूँगा, उसे सुनिये। राजन! आचार्य द्रोण जिस चक्रव्यूह का निर्माण किया था, उसमें इन्द्र के समान पराक्रम प्रकट करने वाले समस्त राजाओं का समावेश कर रखा था। उसमें आरों के स्थान में सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार खड़े किये गये थे। उस समय वहाँ समस्त राजकुमारों का समुदाय उपस्थित हो गया था।
उन सबने प्राणों के रहते युद्ध से विमुख न होने की प्रतिज्ञा कर ली थी। उन सबकी भुजाएँ सुवर्णमयी थी, सबने लाल वस्त्र धारण कर रखे थे और सबके आभूषण भी लाल रंग के ही थे। सबके रथों पर लाल रंग की पताकाएँ फहरा रही थी, सबने सोने की मालाएँ पहन रखी थी, सबके अंगो में चन्दन और अगुरु का लेप किया गया था और सभी फूलों के गजरों तथा महीन वस्त्रों से सुशोभित थे। वे सब एक साथ युद्ध के लिये उत्सुक होकर अर्जुनपुत्र अभिमन्यु की ओर दौड़े। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले उन आक्रमणकारी वीरों की संख्या दस हजार थी। उन्होंने आपके प्रियदर्शन पौत्र लक्ष्मण को आगे करके धावा किया था। उन सब ने एक-दूसरे के दु:ख को समान समझा था और वे परस्पर समान भाव से साहसी थे।
वे एक-दूसरे से होड़ लगाये रखते थे और आपस में एक-दूसरे के हित-साधन में तत्पर रहते थे। राजेन्द्र! राजा दुर्योधन सेना के मध्यभाग में विराजमान था। उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। वह कर्ण, दु:शासन तथा कृपाचार्य आदि महारथियों से घिरकर देवराज इन्द्र के समान शोभा पा रहा था।
उसके दोनों ओर चँवर और व्यजन डुलाये जा रहे थे। वह उदयकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। उस सेना के अग्रभाग में सेनापति द्रोणाचार्य खड़े थे। वहीं सिंधुराज श्रीमान राजा जयद्रथ भी मेरु पर्वत की भाँति खड़ा था। उसके पार्श्व भाग में अश्वत्थामा आदि महारथी विद्यमान थे। महाराज! देवताओं के समान शोभा पाने वाले आपके तीस पुत्र, जुआरी गान्धारराज शकुनि, शल्य तथा भूरिश्रवा-ये महारथी वीर सिंधुराज जयद्रथ के पार्श्व भाग में सुशोभित हो रहे थे।
तदनन्तर 'मरने पर ही युद्ध से निवृत होंगे' ऐसा निश्चय करके आपके और शत्रुपक्ष के योद्धाओं में अत्यन्त भंयकर युद्ध आरम्भ हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में चक्रव्यूह का निर्माण विषयक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
पैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तत्रिश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर और अभिमन्यु का संवाद तथा व्यूह भेदन के लिये अभिमन्यु की प्रतिज्ञा”
संजय कहते हैं ;– राजन! द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित उस दुर्धर्ष सेना का भीमसेन आदि कुन्तीपुत्रों ने डटकर सामना किया। सात्यकि, चेकितान, द्रुपदकुमार, धृष्टद्युम्न, पराक्रमी कुन्तिभोज, महारथी द्रुपद, अभिमन्यु, क्षत्रवर्मा, शक्तिशाली बृहत्क्षत्र, चेदिराज धृष्टकेतु, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, घटोत्कच, पराक्रमी, युधामन्यु, किसी से परास्त न होने वाला वीर शिखण्डी, दुर्धर्षवीर उत्तमौजा, महारथी विराट, क्रोध में भरे हुए द्रौपदीपुत्र, बलवान शिशुपालकुमार, महापराक्रमी केकयराजकुमार तथा सहस्त्रों सृंजयवंशी क्षत्रिय-ये तथा और भी अस्त्रविद्या में पारंगत एवं रणदुर्मद बहुत-से शूरवीर अपने दलबल के साथ वहाँ उपस्थित थे। इन सब ने युद्ध की अभिलाषा से द्रोणाचार्य पर सहसा धावा किया। भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य बड़े पराक्रमी थे। शत्रुओं के आक्रमण से उन्हें तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने अपने समीप आये हुए पाण्डव-वीरों को बाण-समूहों की भारी वृष्टि करके आगे बढ़ने से रोक दिया।
जैसे दुर्भेद्य पर्वत के पास पहुँचकर जल का महान प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण जलाशय अपनी तटभूमि को नहीं लाँघ पाते, उसी प्रकार वे पाण्डव-सैनिक द्रोणाचार्य के अत्यन्त निकट न पहुँच सके। राजन! द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए बाणों से अत्यन्त पीड़ित होकर पाण्डववीर उनके सामने नहीं ठहर सके।
उस समय हम लोगों ने द्रोणाचार्य की भुजाओं का वह अद्भुत बल देखा, जिससे कि सृंजयों सहित सम्पूर्ण पांचालवीर उनके सामने टिक न सके। क्रोध में भरे हुए उन्हीं द्रोणाचार्य को आते देख राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोकने के उपाय पर बारंबार विचार किया। इस समय द्रोणाचार्य का सामना करना दूसरे के लिये असम्भव जानकर युधिष्ठिर ने वह दु:सह एवं महान भार सुभद्राकुमार अभिमन्यु पर रख दिया।
अमित तेजस्वी अभिमन्यु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से किसी बात में कम नहीं था, वह शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ था; अत: उससे युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा। 'तात! संशप्तकों के साथ युद्ध करके लौटने पर अर्जुन जिस प्रकार हम लोगों की निन्दा न करें, वैसा कार्य करो। हम लोग तो किसी तरह भी चक्रव्यूह के भेदन की प्रक्रिया को नहीं जानते हैं।'
'महाबाहो! तुम, अर्जुन, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न– ये चार पुरुष ही चक्रव्यूह का भेदन कर सकते हो। पाँचवाँ कोई योद्धा इस कार्य के योग्य नहीं है।' 'तात अभिमन्यु! तुम्हारे पिता और मामा के पक्ष के समस्त योद्धा तथा सम्पूर्ण सैनिक तुमसे याचना कर रहे हैं। तुम्हीं इन्हें वर देने के योग्य हो।' 'तात! यदि हम विजयी नहीं हुए तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन निश्चय ही हम लोगों को कोसेंगे, अत: शीघ्र अस्त्र लेकर तुम द्रोणाचार्य की सेना का विनाश कर डालो।'
अभिमन्यु ने कहा ;– महाराज! मैं अपने पितृवर्ग की विजय की अभिलाषा से युद्धस्थल में द्रोणाचार्य की अत्यन्त भयंकर, सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ सेना में शीघ्र ही प्रवेश करता हूँ। पिताजी ने मुझे चक्रव्यूह के भेदन की विधि तो बतायी है; परंतु किसी आपत्ति में पड़ जाने पर मैं उस व्यूह से बाहर नहीं निकल सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर बोले ;– योद्धाओं में श्रेष्ठ वीर! तुम व्यूह का भेदन करो और हमारे लिये द्वार बना दो! तात! फिर तुम जिस मार्ग से जाओगे, उसी के द्वारा हम भी तुम्हारे पीछे-पीछे चले चलेंगे। बेटा! हम लोग युद्धस्थल में तुम्हें अर्जुन के समान मानते हैं। हम अपना ध्यान तुम्हारी ओर रखकर सब ओर से तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ ही चलेंगे। भीमसेन बोले ;- बेटा! मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। धृष्टद्युम्न, सात्यकि, पांचालदेशीय योद्धा, केकयराजकुमार, मत्स्य देश के सैनिक तथा समस्त प्रभद्रकगण भी तुम्हारा अनुसरण करेंगे। तुम जहाँ-जहाँ एक बार भी व्यूह तोड़ दोगे, वहाँ-वहाँ हम लोग मुख्य-मुख्य योद्धाओं का वध करके उस व्यूह को बारंबार नष्ट करते रहेंगे।
अभिमन्यु ने कहा ;– जैसे पतंग जलती हुई आग में कूद पड़ता है, उसी प्रकार मैं भी कुपित हो द्रोणाचार्य के दुर्गम सैन्य-व्यूह में प्रवेश करुँगा। आज मैं वह पराक्रम करुँगा, जो पिता और माता दोनों के कुलों के लिये हितकर होगा तथा वह मामा श्रीकृष्ण तथा पिता अर्जुन दोनों को प्रसन्न करेगा। यद्यपि मैं अभी बालक हूँ तो भी आज समस्त प्राणी देखेंगे कि मैंने अकेले ही समूह-के-समूह शत्रु सैनिकों का युद्ध में संहार कर डाला है। यदि आज मेरे साथ युद्ध करके कोई भी सैनिक जीवित बच जाय तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और सुभद्रा की कोख से मेरा जन्म नहीं। यदि मैं युद्ध में एकमात्र रथ की सहायता से सम्पूर्ण क्षत्रिय मण्डल के आठ टुकड़े न कर दूँ तो अर्जुन का पुत्र नहीं।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सुभद्रानन्दन! ऐसी ओजस्वी बातें कहते हुए तुम्हारा बल निरन्तर बढ़ता रहे; क्योंकि तुम द्रोणाचार्य के दुर्गम सैन्य में प्रवेश करने का उत्साह रखते हो। द्रोणाचार्य की सेना उन महाबली धनुर्धर पुरुषसिंह वीरों द्वारा सुरक्षित है, जो कि साध्य, रुद्र तथा मरुद्गणों के समान बलवान और वसु, अग्नि एवं सूर्य के समान पराक्रमी हैं।
संजय कहते हैं ;- राजन! महाराज युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर अभिमन्यु ने अपने सारथि को यह आज्ञा दी–'सुमित्र! तुम शीघ्र ही घोड़ों को रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य की सेना की ओर हाँक ले चलो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में अभिमन्यु की प्रतिज्ञाविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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