सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)

छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन का भगदत्त के हाथी के साथ युद्ध, हाथी और भगदत्‍त का भयानक पराक्रम”

    धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;– संजय! इस प्रकार जब सैनिक पृथक-पृथक युद्ध के लिये लौटे और कौरव-योद्धा आगे बढ़कर सामना करने के लिये उद्यत हुए, उस समय मेरे तथा कुन्‍ती के वेगशाली पुत्रों ने आपस में किस प्रकार युद्ध किया? संशप्‍तकों की सेना पर चढ़ाई करके अर्जुन ने क्‍या किया? अथवा संशप्‍तकों ने अर्जुन का क्‍या कर लिया? 

   संजय ने कहा ;– राजन! इस प्रकार जब पांडव-सैनिक पृथक-पृथक युद्ध के लिये लौटे और कौरव-योद्धा आगे बढ़कर सामना करने के लिये उद्यत हुए, उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने हाथियों की सेना साथ लेकर स्‍वयं ही भीमसेन पर आक्रमण किया। जैसे हाथी से हाथी और साँड से साँड़ भिड़ जाता है, उसी प्रकार राजा दुर्योधन के ललकारने पर भीमसेन स्‍वयं ही हाथियों की सेना पर टूट पड़े।आदरणीय नरेश! कुन्‍तीकुमार भीमसेन युद्ध में कुशल तथा बाहुबल से सम्‍पन्‍न हैं। उन्‍होंने थोड़ी ही देर में हाथियों की उस सेना को विदीर्ण कर डाला। 

   वे पर्वत के समान विशालकाय हाथी सब ओर मद की धारा बहा रहे थे; परंतु भीमसेन के नाराचों से विद्ध होने पर उनका सारा मद उतर गया। वे युद्ध में विमुख होकर भाग चले। 

    जैसे जोर से उठी हुई वायु मेघों की घटा को छिन्‍न-भिन्‍न कर डालती है, उसी प्रकार पवनपुत्र भीमसेन ने उन समस्‍त गज सेनाओं को तहस-नहस कर डाला। जैसे उदित हुए सूर्य समस्‍त भुवनों में अपनी किरणों का विस्‍तार करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन उन हाथियों पर बाणों की वर्षा करते हुए शोभा पा रहे थे।

वे भीम के बाणों से मारे जाकर परस्‍पर सटे हुए हाथी आकाश में सूर्य की किरणों से गुँथे हुए नाना प्रकार के मेघों की भाँति शोभा पा रहे थे। इस प्रकार गज-सेना का संहार करते हुए पवनपुत्र भीमसेन के पास आकर क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने उन्‍हें अपने पैने बाणों से बींध डाला। यह देख भीमसेन की आँखें खून के समान लाल हो गयीं। उन्‍होंने क्षणभर में राजा दुर्योधन का नाश करने की इच्‍छा से पंख युक्‍त पैने बाणों द्वारा उसे बींध डाला। दुर्योधन के सारे अंग बाणों से व्‍याप्‍त हो गये थे। अत: उसने कुपित होकर सूर्य की किरणों के समान तेजस्‍वी नाराचों द्वारा पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन को मुसकराते हुए-से घायलकर दिया। राजन! उसके रत्‍न निर्मित विचित्र ध्वज के ऊपर मणिमय नाग विराजमान था। उसे पाण्‍डुनन्‍दन भीम ने शीघ्र ही दो भल्‍लों से काट गिराया और धनुष के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। 

   आर्य! भीमसेन के द्वारा दुर्योधन को पीड़ित होते देख क्षोभ में डालने की इच्‍छा से मतवाले हाथी पर बैठे हुए राजा अंग उनका सामना करने के लिये आ गये। वह गजराज मेघ के समान गर्जना करने वाला था। उसे अपनी ओर आते देख भीमसेन ने उसके कुम्‍भ स्‍थल में नाराचों द्वारा बड़ी चोट पहुँचायी। भीमसेन का नाराच उस हाथी के शरीर को विदीर्ण करके धरती में समा गया, इससे वह गजराज वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँति पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। वह म्‍लेच्‍छजातीय अंग हाथी से अलग नहीं हुआ था। उस हाथी के साथ-साथ वह नीचे गिरना ही चाहता था कि शीघ्रकारी भीमसेन एक भल्‍ल के द्वारा उसका सिर काट दिया। उस वीर के धराशायी होते ही उसकी वह सारी सेना भागने लगी। घोड़े, हाथी तथा रथ सभी घबराहट में पड़कर इधर-उधर चक्‍कर काटने लगे। वह सेना अपने ही पैदल सिपाहियों को रौंदती हुई भाग रही थी। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

    इस प्रकार उन सेनाओं के व्‍यूह भंग होने तथा चारों ओर भागने पर प्राग्ज्योतिषपुर के राजा भगदत्‍त ने अपने हाथी के द्वारा भीमसेन पर धावा किया। इन्‍द्र ने जिस ऐरावत हाथी के द्वारा दैत्‍यों और दानवों पर विजय पायी थी, उसी के वंश में उत्‍पन्‍न हुए गजराज पर आरूढ़ हो भगदत्‍त ने भीमसेन पर चढ़ाई की थी। वह गजराज अपने दो पैरों तथा सिकोड़ी हुई सूँड़ के द्वारा सहसा भीमसन पर टूट पड़ा। उसके नेत्र सब ओर घूम रहे थे। वह क्रोध में भरकर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन को मानो मथ डालेगा, इस भाव से भीमसेन के रथ की ओर दौड़ा और उसे घोड़ों सहित सामान्‍यत: चूर्ण कर दिया। 

    भीमसेन पैदल दौड़कर उस हाथी के शरीर में छिप गये। पाण्‍डुपुत्र भीम अंजलिकावेध जानते थे। इसलिये वहाँ से भागे नहीं। वे उसके शरीर के नीचे होकर हाथ से बारंबार थपथपाते हुए वध की आकांक्षा रखने वाले उस अविनाशी गजराज को लाड़-प्‍यार करने लगे।

   उस समय वह हाथी तुरंत ही कुम्‍हार के चाक के समान सब और घूमने लगा। उसमें दस हजार हाथियों का बल था। वह शोभायमान गजराज भीमसेन को मार डालने का प्रयत्‍न कर रहा था। भीमसेन भी उसके शरीर के नीचे से निकलकर उस हाथी के सामने खड़े हो गये। उस समय हाथी ने अपनी सूँड से गिरा कर उन्‍हें दोनों घुटनों से कुचल डालने का प्रयत्‍न किया। इतना ही नहीं, उस हाथी ने उन्‍हें गले में लपेटकर मार डालने की चेष्ट की। तब भीमसेन ने उसे भ्रम में डालकर उसकी सूँड़ की लपेट से अपने आपको छुड़ा लिया। तदनंतर भीमसेन पुन: उस हाथी के शरीर में ही छिप गये और अपनी सेना की ओर से उस हाथी का सामना करने के लिये किसी दूसरे हाथी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। थोडी देर बाद भीम हाथी के शरीर से निकलकर बड़े वेग से भाग गये। उस समय सारी सेना में बड़े जोर से कोलाहल होने लगा। 

     आर्य! उस समय सबके मुँह से यही बात निकल रही थी 'अहो! इस हाथी ने भीमसेन को मार डाला, यह कितनी बुरी बात है।' राजन! उस हाथी से भयभीत हो पांडवों की सारी सेना सहसा वहीं भाग गयी, जहाँ भीमसेन खड़े थे। तब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन को मारा गया जानकर पांचालदेशीय सैनिकों के साथ ले भगदत्‍त को चारों ओर से घेर लिया। शत्रुओं को संताप देने वाले वे श्रेष्‍ठ रथी उन महारथी भगदत्‍त को सब ओर से घेरकर उनके ऊपर सैकड़ों और हजारों पैने बाणों की वर्षा करने लगे। पर्वतराज भगदत्‍त ने उन बाणों के प्रहार का अंकुश द्वारा निवारण किया और हाथी को आगे बढ़ाकर पांडव तथा पांचाल योद्धाओं को कुचल डाला। प्रजानाथ! उस युद्धस्‍थल में हाथी के द्वारा बूढ़े राजा भगदत्‍त का हम लोगों ने अद्भुत पराक्रम देखा।

   तत्‍पश्चात दशार्णराज ने मदस्रावी, शीघ्रगामी तथा तिरछी दिशा की ओर से आक्रमण करने वाले गजराज के द्वारा भगदत्‍त पर धावा किया। वे दोनों हाथी बड़े भयंकर रूप वाले थे। उन दोनों का युद्ध वैसा ही प्रतीत हुआ, जैसा कि पूर्वकाल में पंखयुक्‍त एवं वृक्षावली से विभूषित दो पर्वतों में युद्ध हुआ करता था। प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश के हाथी ने लौटकर और पीछे हटकर दशार्णराज के हाथी के पार्श्‍वभाग में गहरा आघात किया और उसे विदीर्ण करके मार गिराया। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद)

    तत्‍पश्चात राजा भगदत्‍त ने सूर्य की किरणों के समान चमकीले सात तोमरों द्वारा हाथी पर बैठे हुए शत्रु दशार्णराज को, जिसका आसन विचलित हो गया था, मार डाला। तब युधिष्ठिर ने राजा भगदत्‍त को अपने बाणों से घायल करके विशाल रथ-सेना के द्वारा सब ओर से घेर लिया। जैसे वन के भीतर पर्वत के शिखर पर दावालन प्रज्‍वलित हो रहा हो, उसी प्रकार सब ओर रथियों से घिरकर हाथी की पीठ पर बैठे हुए राजा भगदत्‍त सुशोभित हो रहे थे। बाणों की वर्षा करते हुए भयंकर धनुर्धर रथियों का मण्‍डल उस हाथी पर सब ओर से आक्रमण कर रहा था और वह हाथी चारों ओर चक्‍कर काट रहा था।

   उस समय प्राग्ज्योतिषपुर के राजा ने उस महान गजराज को सब ओर से काबू करके सहसा सात्‍यकि के रथ की ओर बढाया। युयुधान अपने रथ को छोड़कर दूर हट गये और उस महान गजराज ने शिनि-पौत्र सात्‍यकि के उस रथ को सूँड़ से पकड़कर बड़े वेग से फेंक दिया। तदनन्‍तर सारथि ने अपने रथ के विशाल सिंधी घोड़ों को उठाकर खड़ा किया और कूद कर रथ पर जा चढ़ा। फिर रथ सहित सात्‍यकि के पास जाकर खड़ा हो गया। इसी बीच में अवसर पाकर वह गजराज बड़ी उतावली के साथ रथों के घेरे से पार निकल गया और समस्‍त राजाओं को उठा-उठाकर फेंकने लगा। 

    उस शीघ्रगामी गजराज से डराये हुए नरश्रेष्‍ठ नरेश युद्धस्‍थल में उस एक को ही सैकड़ों हाथियों के समान मानने लगे। जैसे देवराज इन्‍द्र ऐरावत हाथी पर बैठकर दानवों का नाश करते हैं, उसी प्रकार अपने हाथी की पीठ पर बैठे हुए राजा भगदत्‍त पांडव-सैनिकों का संहार कर रहे थे। उस समय इधर-उधर भागते हुए पांचाल सैनिकों के हाथी-घोड़ों का महान भयंकर चीत्‍कार शब्‍द प्रकट हुआ। भगदत्त के द्वारा समरभूमि में पाण्‍डव-सैनिकों के खदेड़े जाने पर भीमसेन कुपित हो पुन: प्राग्ज्योतिषपुर के स्‍वामी भगदत्‍त पर चढ़ आये। उस समय आक्रमण करने वाले भीमसेन के घोड़ों पर उस हाथी ने सूँड़ से जल छोड़कर उन्‍हें भयभीत कर दिया। फिर तो वे घोड़े भीमसेन को लेकर दूर भाग गये। तब आकृतिपुत्र रुचिपर्वा ने तुरंत ही उस हाथी पर आक्रमण किया। वह रथ पर बैठकर साक्षात यमराज के समान जान पड़ता था। उसने बाणों की वर्षा से उस हाथी को गहरी चोट पहुँचायी। यह देख जिनके अंगो की जोड़ सुन्‍दर है उन पर्वतराज भगदत्‍त ने झुकी हुई गाँठ वाले बाण के द्वारा रुचिपर्वा को यमलोक पहुँचा दिया। 

     उस वीर के मारे जाने पर अभिमन्‍यु, द्रौपदीकुमार, चेकितान, धृष्‍टकेतु तथा युयुत्सु ने भी उस हाथी को पीड़ा देना आरम्‍भ किया। ये सब लोग उस हाथी को मार डालने की इच्‍छा से विकट गर्जना करते हुए अपने बाणों की धारा से सींचने लगे, मानो मेघ पर्वत को जल की धारा से नहला रहे हों। तदनन्‍तर विद्वान राजा भगदत्‍त ने अपने पैरों की एँड़ी, अंकुश एवं अंगुष्‍ठ से प्रेरित करके हाथी को आगे बढ़ाया। फिर तो अपने कानों को खड़े करके एक-टक आँखों से देखते हुए सूँड़ फैलाकर उस हाथी ने शीघ्रतापूर्वक धावा किया और युयुत्‍सु के घोड़ों को पैरों से दबाकर उनके सारथि को मार डाला। 

   राजन! युयुत्‍सु बड़ी उतावली के साथ रथ से उतरकर दूर चले गये थे। तत्‍पश्चात पाण्‍डव योद्धा उस गजराज को शीघ्रतापूर्वक मार डालने की इच्‍छा से भैरव-गर्जना करते हुए अपने बाणों की वर्षा द्वारा उसे सींचने लगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 58-68 का हिन्दी अनुवाद)

     उस समय घबराये हुए आपके पुत्र युयुत्सु अभिमन्‍यु के रथ पर जा बैठे। हाथी की पीठ पर बैठे हुए राजा भगदत्‍त शत्रुओं पर बाण-वर्षा करते हुए सम्‍पूर्ण लोकों में अपनी किरणों का विस्‍तार करने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहे थे। अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने बारह, युयुत्‍सु ने दस और द्रौपदी के पुत्रों तथा धृष्‍टकेतु ने तीन-तीन बाणों से भगदत्‍त के उस हाथी को घायल कर दिया। अत्‍यन्‍त प्रयत्‍नपूर्वक चलाये हुए उन बाणों से हाथी का सारा शरीर व्‍याप्‍त हो रहा था। उस अवस्‍था में वह सूर्य की किरणों में पिरोये हुए महामेघ के समान शोभा पा रहा था। महावत के कौशल और प्रयत्‍न से प्रेरित होकर वह हाथी शत्रुओं के बाणों से पीड़ित होने पर भी उन विपक्षियों को दायें-बायें उठाकर फेंकने लगा। जैसे ग्‍वाला जंगल में पशुओं को डंडे से हाँकता है, उसी प्रकार भगदत्‍त ने पांडव सेना को बार-बार घेर लिया। 

    जैसे बाज पक्षी के चंगुल में फँसे हुए अथवा उसके आक्रमण से त्रस्‍त हुए कौओं में शीघ्र ही काँव-काँव का कोलाहल होने लगता है, उसी प्रकार भागते हुए पाण्‍डव-योद्धाओं का आर्तनाद जोर-जोर से सुनायी दे रहा था। नरेश्वर! उस समय विशाल अंकुश की मार खाकर वह गजराज पूर्वकाल के पंखधारी श्रेष्‍ठ पर्वत की भाँति शत्रुओं को उसी प्रकार अत्‍यन्‍त भयभीत करने लगा, जैसे विक्षुब्‍ध महासागर व्‍यापारियों को भय में डाल देता है। 

    महाराज! तदनन्‍तर भय से भागते हुए हाथी, रथ, घोड़े तथा राजाओं ने वहाँ अत्‍यन्‍त भयंकर आर्तनाद फैला दिया। उनके उस भयंकर शब्‍द ने युद्धस्‍थल में पृथ्वी, आकाश, स्‍वर्ग तथा दिशा-विदिशाओं को सब ओर से आच्‍छादित कर दिया। उस गजराज के द्वारा राजा भगदत्‍त ने शत्रुओं की सेना में अच्‍छी तरह प्रवेश किया। जैसे पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के समय देवताओं द्वारा सुरक्षित देवसेना में विरोचन ने प्रवेश किया था। 

    उस समय वहाँ बड़े जोर से वायु चलने लगी। आकाश में धूल छा गयी। उस धूल ने समस्‍त सैनिकों को ढक दिया। उस समय सब लोग चारों ओर दौड़ लगाने वाले उस एकमात्र हाथी को हाथियों के झुंड-सा मानने लगे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में भगदत्‍त का युद्धविषयक छब्‍बीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)

सताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तविंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का संशप्‍तक सेना के साथ भयंकर युद्ध और उसके अधिकांश भाग का वध”

   संजय कहते हैं ;- महाबाहो! आप जो मुझसे युद्ध में अर्जुन के पराक्रम पूछ रहे हैं, उन्‍हें बताता हूँ। अर्जुन ने रणक्षेत्र में जो कुछ किया था, वह सुनिये। भगदत्‍त के विचित्र रूप से युद्ध करते समय वहाँ धूल उड़ती देखकर और हाथी के चिग्‍घाड़ने का शब्‍द सुनकर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से कहा। मधुसूदन! राजा भगदत्‍त अपने हाथी पर सवार जिस प्रकार उतावली के साथ युद्ध के लिये निकले थे, उससे जान पड़ता है निश्चय ही यह महान कोलाहल उन्‍हीं का है। 

   'मेरा तो यह विश्वास है कि वे युद्ध में इन्‍द्र से कम नही हैं। भगदत्‍त हाथी की सवारी में कुशल और गजारोही योद्धाओं में इस पृथ्वी पर सबसे प्रधान है।' और उनका वह गजश्रेष्‍ठ सुप्रतीक भी युद्ध में अपना शानी नहीं रखता है। वह सब शस्‍त्रों का उल्‍लंघन करके युद्ध में अनेक बार पराक्रम प्रकट कर चुका है। उसने परिश्रम को जीत लिया है। 

   अनघ! वह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों के आघात तथा अग्नि के स्‍पर्श को भी सह सकने वाला है। आज वह अकेला ही समस्‍त पांडव सेना का विनाश कर डालेगा। हम दोनों के सिवा दूसरा कोई नहीं है, जो उसे बाधा देने में समर्थ हो। अत: आप शीघ्रतापूर्वक वहीं चलिये, जहाँ प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश भगदत्‍त विद्यमान हैं। 'अपने हाथी के बल से युद्ध में घमंड दिखाने वाले और अवस्‍था में भी बड़े होने का अहंकार रखने वाले इन राजा भगदत्‍त को मैं देवराज इन्‍द्र का प्रिय अतिथि बनाकर स्‍वर्गलोक भेज दूँगा।' सव्‍यसाची अर्जुन के इस वचन से प्रेरित हो श्रीकृष्‍ण उस स्‍थान पर रथ लेकर गये, जहाँ भगदत्‍त पाण्‍डव सेना का संहार कर रहे थे। अर्जुन को जाते देख पीछे से चौदह हजार संशप्तक महारथी उन्‍हें ललकारते हुए चढ़ आये। 

   उनमें दस हजार महारथी तो त्रिगर्तदेश के थे और चार हजार भगवान श्रीकृष्‍ण के सेवक थे। आर्य! राजा भगदत्‍त के द्वारा अपनी सेना को विदीर्ण होती देखकर तथा पीछे से संशप्‍तकों की ललकार सुनकर उनका हृदय दुविधा में पड़ गया। वे सोचने लगे– आज मेरे लिये कौन-सा कार्य श्रेयस्‍कर होगा। यहाँ से संशप्‍तकों की ओर लौट चलूँ अथवा युधिष्ठिर के पास जाऊँ। कुरुश्रेष्‍ठ! बुद्धि से इस प्रकार विचार करने पर अर्जुन के मन में यह भाव अत्‍यन्‍त दृढ़ हुआ कि संशप्‍तकों के वध का ही प्रयत्‍न करना चाहिये। श्रेष्‍ठ वानर-चिह्न से सुशोभित ध्‍वजा वाले इन्‍द्रकुमार अर्जुन उपयुक्‍त बात सोचकर सहसा लौट पड़े। वे रणक्षेत्र में अकेले ही हजारों रथियों का संहार करने को उद्यत थे। अर्जुन के वध का उपाय सोचते हुए दुर्योधन और कर्ण दोनों के मन में यही विचार उत्‍पन्‍न हुआ था। इसलिये उसने युद्ध को दो भागों में बाँट दिया। 

   पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन एक बार दुविधा में पड़कर चंचल हो गये थे, तथापि नरश्रेष्‍ठ संशप्तक वीरों के वध का निश्चय करके उन्‍होंने उस दुविधा को मिथ्‍या कर दिया था। राजन! तदनन्‍तर संशप्‍तक महारथियों ने अर्जुन पर झुकी हुई गाँठ वाले एक लाख बाणों की वर्षा की। महाराज! उस समय न तो कुन्‍तीकुमार अर्जुन, न जर्नादन श्रीकृष्‍ण, न घोड़े और न रथ ही दिखायी देते थे। सब-के-सब वहाँ बाणों के ढेर से आच्‍छादित हो गये थे। 

    उस अवस्‍था में भगवान जनार्दन पसीने-पसीने हो गये। उन पर मोह-सा छा गया। यह सब देख अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र से उन सबको अधिकांश में नष्‍ट कर दिया। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तविंश अध्याय के श्लोक 21-31 का हिन्दी अनुवाद)

   सैकड़ों भुजाएँ बाण, प्रत्‍यंचा और धनुष सहित कट गयीं। ध्वज, घोड़े, सारथि और रथी सभी धराशायी हो गये। वृक्ष, पर्वत-शिखर और मेघों के समान विशाल एवं ऊँचे शरीर वाले, सजे-सजाये हाथी, जिनके सवार पहले ही मार दिये गये थे, अर्जुन के बाणों से आहत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस रणक्षेत्र में बहुत-से हाथी अर्जुन के बाणों से मथित होकर सवारों सहित प्राणशून्‍य होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े। उस समय उनके झूल चिथड़े-चिथड़े होकर दूर जा पड़े और उनके आभूषणों के भी टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। किरीटधारी अर्जुन के भल्ल नामक बाणों से ऋष्टि, प्रास, खड्‍ग, नखर, मुद्गर और फरसों सहित वीरों की भुजाएँ कट कर गिर गयी। 

    आर्य! योद्धाओं के मस्‍तक, जो बालसूर्य, कमल और चन्‍द्रमा के समान सुन्‍दर थे, अर्जुन के बाणों से छिन्‍न-भिन्‍न हो पृथ्‍वी पर गिर पड़े। जब क्रोध में भरे हुए अर्जुन नाना प्रकार के प्राणनाशक बाणों द्वारा शत्रुओं का नाश करने लगे, उस समय आभूषणों से विभूषित हुई संशप्‍तकों की सारी सेना जलने लगी। जैसे हाथी कमलों से भरे हुए सरोवर को मथ डालता है, उसी प्रकार अर्जुन को सारी सेना का विनाश करते देख सब प्राणी 'साधु-साधु' कहकर अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। इन्‍द्र के समान अर्जुन का वह पराक्रम देख भगवान श्रीकृष्‍ण अत्‍यन्‍त आश्चर्य में पड़कर हाथ जोड़े हुए बोले। 

   'पार्थ! मेरा विश्वास है कि आज समर-भूमि में तुमने जो कार्य किया है, यह इन्‍द्र, यम और कुबेर के लिये भी दुष्‍कर है।' 'इस संग्राम में मैंने सैकड़ों और हजारों संशप्‍तक महारथियों को एक साथ गिरते देखा है।' इस प्रकार वहाँ खड़े हुए संशप्‍तक योद्धाओं में से अधिकांश का वध करके अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा,

अर्जुन ने कहा ;- 'अब भगदत्‍त के पास चलिये।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में संशप्‍तकों का वधविषयक सताईसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)

अठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टाविंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“संशप्‍तकों का संहार करके अर्जुन का कौरव-सेना पर आक्रमण”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्‍तर द्रोण की सेना के समीप जाने की इच्‍छा वाले अर्जुन के सुवर्णभूषित एवं मन के समान वेगशाली अश्वों को भगवान श्रीकृष्‍ण ने बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य की सेना तक पहुँचने के लिये हाँका। द्रोणाचार्य के सताये हुए अपने भाइयों के पास जाते हुए कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन को भाइयों सहित सुशर्मा ने युद्ध की इच्‍छा से ललकारा और पीछे से उन पर आक्रमण किया। तब श्‍वेतवाहन अर्जुन ने अपराजित श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा, 'अच्‍युत! यह भाइयों सहित सुशर्मा मुझे पुन: युद्ध के लिये बुला रहा है।' 

   'तथा भगदत्‍त और उनके हाथी का पराक्रम उधर उत्तर दिशा की ओर अपनी सेना का नाश किया जा रहा है। मधुसूदन! इन संशप्‍तकों ने आज मेरे मन को दुविधा में डाल दिया है।' 'क्‍या मैं संशप्‍तकों का वध करूँ अथवा शत्रुओं द्वारा पीड़ित हुए अपने सैनिकों की रक्षा करूँ। इस प्रकार मेरा मन संकल्‍प-विकल्‍प में पड़ा है, सो आप जानते ही हैं। बताइये, अब मेरे लिये क्‍या करना अच्‍छा होगा।' 

    अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने रथ को उसी ओर लौटाया, जिस ओर से त्रिगर्तराज सुशर्मा उन पाण्‍डुकुमार को युद्ध के लिये ललकार रहा था। तत्‍पश्चात अर्जुन ने सुशर्मा को सात बाणों से घायल करके दो छुरों द्वारा उसके ध्वज और धनुष को काट डाला।साथ ही त्रिगर्तराज के भाइयों को भी छ: बाण मारकर अर्जुन ने उसे घोड़े और सारथि सहित तुरंत यमलोक भेज दिया। 

    तदनन्‍तर सुशर्मा ने सर्प के समान आकृति वाली लोहे की बनी हुई एक शक्ति को अर्जुन के ऊपर चलाया और वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण पर तोमर से प्रहार किया। अर्जुन ने तीन बाणों द्वारा शक्ति तथा तीन बाणों द्वारा तोमर को काटकर सुशर्मा को अपने बाण-समूहों द्वारा मोहित करके पीछे लौटा दिया। 

   राजन! इसके बाद वे इन्‍द्र के समान बाण-समूहों की भारी वर्षा करते हुए जब आपकी सेना पर आक्रमण करने लगे, उस समय आपके सैनिकों में से कोई भी उन उग्ररूपधारी अर्जुन को रोक न सका। तत्‍पश्चात जैसे अग्नि घास-फूँस के समूह को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणों द्वारा समस्‍त कौरव महारथियों को क्षत-विक्षत करते हुए वहाँ आ पहुँचे। परम बुद्धिमान कुन्‍तीपुत्र के उस असह्य वेग को कौरव सैनिक उसी प्रकार नहीं सह सके, जैसे प्रज्ञा अग्नि का स्‍पर्श नहीं सहन कर पाती। राजन! अर्जुन ने बाणों की वर्षा से कौरव सेनाओं को आच्‍छादित करते हुए गरुड़ के समान वेग से भगदत्‍त पर आक्रमण किया। 

    महाराज! विजयी अर्जुन ने युद्ध में शत्रुओं की अश्रुधारा को बढ़ाने वाले जिस धनुष को कभी निष्‍पाप भरतवंशियों का कल्‍याण करने के लिये नवाया था, उसी को कपटद्यूत खेलने वाले आपके पुत्र के अपराध के कारण सम्‍पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करने के लिये हाथ में लिया। नरेश्वर! कुन्‍तीकुमार अर्जुन के द्वारा मथी जाती हुई आपकी वाहिनी उसी प्रकार छिन्‍न–भिन्‍न होकर बिखर गयी, जैसे नाव किसी पर्वत से टकराकर टूक-टूक हो जाती है। तदनन्‍तर दस हजार धनुर्धर वीर जय अथवा पराजय के हेतुभूत युद्ध का क्रूरतापूर्ण निश्चय करके लौट आये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टाविंश अध्याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)

   उन महारथियों ने अपने हृदय से भय को निकालकर अर्जुन को वहाँ घेर लिया। युद्ध में समस्‍त भारों को सहन करने वाले अर्जुन ने उनसे लड़ने का भारी भार भी अपने ही ऊपर ले लिया। जैसे साठ वर्ष का मदस्‍त्रावी हाथी क्रोध में भरकर नरकुलों के जंगल को रौंदकर धूल में मिला देता है, उसी प्रकार प्रयत्‍नशील पार्थ ने आपकी सेना को मटियामेट कर दिया। उस सेना के मथ डाले जाने पर राजा भगदत्‍त ने उसी सुप्रतीक हाथी के द्वारा सहसा धनंजय पर धावा किया। 

    नरश्रेष्‍ठ अर्जुन ने रथ के द्वारा ही उस हाथी का सामना किया। रथ और हाथी का वह संघर्ष बड़ा भयंकर था। शास्‍त्रीय विधि के अनुसार निर्मित और सु‍सज्जित रथ तथा सुशिक्षित हाथी के द्वारा वीरवर अर्जुन और भगदत्‍त संग्रामभूमि में विचरने लगे। तदनन्‍तर इन्‍द्र के समान शक्तिशाली राजा भगदत्‍त अर्जुन पर मेघ-सदृश हाथी से बाणसमूहरूपी जलराशि की वर्षा करने लगे। इधर पराक्रमी इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने अपने बाणों की वृष्टि से भगदत्‍त की बाण-वर्षा को अपने पास तक पहुँचने के पहले ही छिन्‍न-भिन्‍न कर दिया। आर्य! तदनन्‍तर प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश राजा भगदत्‍त ने भी विपक्षी की उस बाण-वर्षा का निवारण करके महाबाहु अर्जुन और श्रीकृष्‍ण को अपने बाणों से घायल कर दिया। 

    फिर उनके ऊपर बाणों का महान जाल-सा बिछाकर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन दोनों के वध के लिये उस गजराज को आगे बढ़ाया। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उस हाथी को आक्रमण करते देख भगवान श्रीकृष्‍ण ने तुरंत ही रथ द्वारा उसे दाहिने कर दिया। यद्यपि वह महान गजराज आक्रमण करते समय अपने बहुत निकट आ गया था, तो भी अर्जुन ने धर्म का स्‍मरण करके सवारों सहित उस हाथी को मृत्यु के अधीन करने की इच्‍छा नहीं की।

    आदरणीय महाराज! उस हाथी ने बहुत-से हाथियों, रथों और घोड़ों को कुचलकर यमलोक भेज दिया। यह देख अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में भगदत्‍तका युद्धविषयक अट्ठाईसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)

उन्नतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और भगदत्त का युद्ध, श्रीकृष्‍ण द्वारा भगदत्त के वैष्‍णवास्‍त्र से अर्जुन की रक्षा तथा अर्जुन द्वारा हाथी सहित भगदत्त का वध”

   धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;– संजय! उस समय क्रोध में भरे हुए पाण्‍डुकुमार अर्जुन ने भगदत्त का और भगदत्त ने अर्जुन का क्‍या किया? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ। 

    संजय ने कहा ;– राजन! भगदत्त से युद्ध में उलझे हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन दोनों को समस्‍त प्राणियों ने मौत की दाढ़ों में पहुँचा हुआ ही माना। शक्तिशाली महाराज! हाथी की पीठ से भगदत्त रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन पर निरन्‍तर बाणों की वर्षा कर रहे थे। उन्‍होंने धनुष को पूर्ण रूप से खींचकर छोड़े हुए लोहे के बने और शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख युक्‍त बाणों से देवकीपुत्र श्रीकृष्‍ण को घायल कर दिया। भगदत्त के चलाये हुए अग्नि के स्‍पर्श के समान तीक्ष्‍ण और सुन्‍दर पंख वाले बाण देवकी पुत्र श्रीकृष्‍ण के शरीर को छेदकर धरती में समा गये। 

    तब अर्जुन ने राजा भगदत्त का धनुष काटकर उनके परिवार को मार डाला और उन्‍हें लाड़ लड़ाते हुए-से उनके साथ युद्ध आरम्‍भ किया। भगदत्त ने सूर्य की किरणों के समान तीखे चौदह तोमर चलाये, परंतु सव्‍यसाची अर्जुन ने उसमें से प्रत्‍येक के दो-दो टुकड़े कर डाले।तब इन्‍द्रकुमार ने भारी बाण-वर्षा के द्वारा उस हाथी के कवच को काट डाला, जिससे कवच जीर्ण-शीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कवच कट जाने पर हाथी को बाणों के आघात से बड़ी पीड़ा होने लगी। वह खून की धारा से नहा उठा और बादलों से रहित एवं जल धारा से भीगे हुए गिरिराज के समान शोभा पाने लगा। तब भगदत्त ने वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण को लक्ष्‍य करके सुवर्णमय दण्‍ड से युक्‍त लोहमयी शक्ति चलायी। परंतु अर्जुन ने उसके दो टुकड़े कर डाले। तदनन्‍तर अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा राजा भगदत्त के छत्र और ध्‍वजा को काटकर मुसकराते हुए दस बाणों द्वारा तुरंत ही उन पर्वतेश्‍वर को बींध डाला। 

   अर्जुन के कंकपत्रयुक्‍त सुन्‍दर पाँख वाले बाणों द्वारा अत्‍यन्‍त घायल हो राजा भगदत्त उन पाण्‍डुपुत्र पर कुपित हो उठे। उन्‍होंने श्‍वेतवाहन अर्जुन के मस्‍तक पर तोमरों का प्रहार किया और जोर से गर्जना की। उन तोमरों ने समरभूमि में अर्जुन के किरीट को उलट दिया। 

उलटे हुए किरीट को ठीक करते हुए पाण्‍डुपुत्र अर्जुन ने भगदत्त से कहा,

   अर्जुन ने कहा ;– 'राजन! अब इस संसार को अच्‍छी तरह देख लो।' अर्जुन के ऐसा कहने पर भगदत्त ने अत्‍यन्‍त कुपित हो एक तेजस्‍वी धनुष हाथ में लेकर श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन पर बाणों की वर्षा प्रारम्‍भ कर दी। अर्जुन ने उसके धनुष को काटकर उनके तूणीरों के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर तुरंत ही बहत्तर बाणों से उनके सम्‍पूर्ण मर्मस्‍थानों में गहरी चोट पहुँचायी। उन बाणों से घायल हो अत्‍यन्‍त पीड़ित होकर भगदत्त ने वैष्णवास्त्र प्रकट किया। उसने कुपित हो अपने अंकुश को ही वैष्‍णवास्‍त्र से अभिमन्त्रित करके पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन की छाती पर छोड़ दिया। भगदत्त का छोड़ा हुआ अस्त्र सबका विनाश करने वाला था। भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन को ओट में करके स्‍वयं ही अपनी छाती पर उसकी चोट सह ली। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

    भगवान श्रीकृष्‍ण की छाती पर आकर वह अस्त्र वैजयन्‍ती माला के रूप में परिणत हो गया। वह माला कमलकोश की विचित्र शोभा से युक्‍त तथा सभी ऋतुओं के पुष्‍पों से सम्‍पन्‍न थी। उससे अग्नि, सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रभा फैल रही थी। उसका एक-एक दल अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। कमलदलों से सुशोभित तथा हवा से हिलते हुए दलों वाली उस वैजयन्‍ती माला से तीसी के फूलों के समान श्‍यामवर्ण वाले केशिहन्‍ता, शूरसेननन्‍दन, शागधन्‍वा, शत्रुसूदन भगवान केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो वर्षा-काल में संध्‍या के मेघों से आच्‍छादित श्रेष्‍ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो। 

उस समय अर्जुन के मन में बड़ा क्‍लेश हुआ। उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा,

    अर्जुन ने कहा ;- 'अनघ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ों को काबू में रखूँगा केवल सारथि का काम करूँगा; किंतु कमलनयन! आप वैसी बात कहकर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। यदि मैं संकट में पड़ जाता अथवा अस्त्र का निवारण करने में असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होता। जब मैं युद्ध के लिये तैयार खड़ा हूँ, तब आपको ऐसा नहीं करना चाहिये।' 

'आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथ में धनुष और बाण हों तो मैं देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित इन सम्‍पूर्ण लोकों पर विजय पा सकता हूँ।' 

    तब वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से ये रहस्‍यपूर्ण वचन कहे,

श्री कृष्ण ने कहा ;– 'अनघ! कुन्‍तीनन्‍दन! इस विषय में यह गोपनीय रहस्‍य की बात सुनो, जो पूर्वकाल में घटित हो चुकी है।' 'मैं चार स्‍वरूप धारण करके सदा सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये उद्यत रहता हूँ। अपने को ही यहाँ अनेक रूपों में विभक्‍त करके समस्‍त संसार का हित साधन करता हूँ।'

    'मेरी एक मूर्ति इस भूमण्‍डल पर स्थित हो तपश्चर्या करती है। दूसरी मूर्ति शुभाशुभकर्म करने वाले जगत को साक्षी रूप से देखती रहती है।' 'तीसरी मूर्ति मनुष्‍य लोक का आश्रय ले नाना प्रकार के कर्म करती है और चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्‍त्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है।' 'सहस्‍त्र–युग के पश्चात मेरा वह चौथा स्‍वरूप जब योग-निद्रा से उठता है, उस समय वर पाने के योग्‍य श्रेष्‍ठ भक्‍तों को उत्तम वर प्रदान करता है।' 'एक बार जबकि वही समय प्राप्‍त था, पृथ्‍वीदेवी ने अपने पुत्र नरकासुर के लिये मुझसे जो वर माँगा, उसे सुनो।'

    'मेरा पुत्र वैष्णवास्त्र से सम्‍पन्‍न होकर देवताओं और दानवों के लिये अवध्‍य हो जाय, इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्त्र प्रदान करें।' 'उस समय पृथ्‍वी के मूँह से अपने पुत्र के लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैंने पूर्वकाल में अपना परम उत्तम अमोघ वैष्‍णव-अस्‍त्र उसे दे दिया।' 

'उसे देते समय मैंने कहा- वसुधे! यह अमोघ वैष्‍णवास्‍त्र नरकासुर की रक्षा के लिये उसके पास रहे। फिर उसे कोई भी नष्‍ट नहीं कर सकेगा।' 'इस अस्‍त्र से सुरक्षित रहकर तुम्‍हारा पुत्र शत्रुओं की सेना को पीड़ित करने वाला और सदा सम्‍पूर्ण लोकों में दुर्धर्ष बना रहेगा।' 'तब 'जो आज्ञा' कहकर मनस्विनी पृथ्‍वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयीं। वह नरकासुर भी शत्रुओं को संताप देने वाला तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय हो गया।' 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद)

    'पार्थ! नरकासुर से वह मेरा अस्त्र इस प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश भगदत्त को प्राप्‍त हुआ। आर्य! इन्‍द्र तथा रुद्र सहित तीनों लोकों में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो इस अस्‍त्र के लिये अवध्‍य हो।' 'अत: मैंने तुम्‍हारी रक्षा के लिये उस अस्‍त्र को दूसरे प्रकार से उसके पास से हटा दिया है। पार्थ! अब वह महान असुर उस उत्‍कृष्‍ट अस्‍त्र से वंचित हो गया है। अत: तुम उसे मार डालो।' 

    'दुर्जय वीर भगदत्त तुम्‍हारा वैरी और देवताओं का द्रोही है। अत: तुम उसका वध कर डालो; जैसे कि मैंने पूर्वकाल में लोकहित के लिये नरकासुर का संहार किया था।' महात्‍मा केशव के ऐसा कहने पर कुन्‍तीकुमार अर्जुन उसी समय भगदत्त पर सहसा पैने बाणों की वर्षा करने लगे। तत्‍पश्चात महाबाहु महामना पार्थ ने बिना किसी घबराहट के हाथी के कुम्‍भस्‍थल में एक नाराच का प्रहार किया। वह नाराच उस हाथी के मस्‍तक पर पहुँचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वत पर चोट करता है। जैसे सर्प बाँबी में समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथी के कुम्‍भस्‍थल में पंख सहित घुस गया। 

    वह हाथी बारंबार भगदत्त के हाँकने पर भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं करता था, जैसे दुष्‍टा स्त्री अपने दरिद्र स्‍वामी की बात नहीं मानती है। उस महान गजराज ने अपने अंगों को निश्‍चेष्‍ट करके दोनों दाँत धरती पर टेक दिये और आर्त स्‍वर से चीत्‍कार करके प्राण त्‍याग दिये। 

तदनन्‍तर भगवान श्रीकृष्‍ण ने गाण्‍डीवधारी अर्जुन से कहा,

   श्री कृष्ण ने कहा ;- 'कुन्‍तीनन्‍दन! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्‍था का है। इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगों में झुर्रियाँ पड़ जाने के कारण पलकें झपी रहने से इसके नेत्र प्राय: बंद से रहते हैं। यह शूरवीर तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय है। इस राजा ने अपने दोनों नेत्रों को खुले रखने के लिये पलकों को कपड़े की पट्टी से ललाट में बाँध रखा है।' भगवान श्रीकृष्‍ण के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के शिर की पट्टी अत्‍यन्‍त छिन्‍न-भिन्‍न कर दी। उस पट्टी के कटते ही भगदत्त की आँखें बंद हो गयीं। फिर तो प्रतापी भगदत्त को सारा जगत् अन्‍धकारमय प्रतीत होने लगा। उस समय झुकी हुई गाँठ वाले एक अर्धचन्‍द्राकार बाण के द्वारा पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने राजा भगदत्त के वक्ष:स्‍थल को विदीर्ण कर दिया। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा हृदय विदीर्ण कर दिये जाने पर राजा भगदत्त ने प्राणशून्‍य हो अपने धनुष-बाण त्‍याग दिये। उनके सिर से पगड़ी और पट्टी का वह सुन्‍दर वस्‍त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनाल के ताडन से उसका पत्‍ता टूट कर गिर जाता है। 

    सोने के आभूषणों से विभूषित उस पर्वताकार हाथी से सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो सुन्‍दर पुष्‍पों से सुशोभित कनेर का वृक्ष हवा के वेग से टूट कर पर्वत के शिखर से नीचे गिर पड़ा हो। राजन! इस प्रकार इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने इन्‍द्र के सखा तथा इन्‍द्र के समान ही पराक्रमी राजा भगदत्त को युद्ध में मारकर आपकी सेना के अन्‍य विजयालिभाषी वीर पुरुषों को भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षों को उखाड़ फेंकती है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में भगदत्त वध विषयक उन्तीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)

तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा वृषक और अचल का वध, शकुनि की माया और उसकी पराजय तथा कौरव, सेना का पलायन”

   संजय कहते हैं ;– राजन! जो सदा इन्‍द्र के प्रिय सखा रहे हैं, उन अमित तेजस्‍वी प्राग्‍ज्‍योतिषपुरनरेश भगदत्त को मारकर अर्जुन दाहिनी ओर घूमे। उधर से गान्‍धारराज सुबल के दो पुत्र शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले वृषक और अचल दोनों भाई आ पहुँचे और युद्ध में अर्जुन को पीड़ित करने लगे। उन दोनों धनुर्धर वीरों ने अर्जुन पर आगे और पीछे से भी आक्रमण करके अत्‍यन्‍त वेगशाली पैने बाणों द्वारा उन्‍हें बहुत घायल कर दिया। तब कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने अपने तीखे बाणों द्वारा सुबलपुत्र वृषक के घोड़ों, सारथि, रथ, धनुष, छत्र और ध्वजा को तिल-तिल करके काट डाला। 

    तत्‍पश्चात अर्जुन ने अपने बाण-समूहों तथा नाना प्रकार के आयुधों द्वारा सुबलपुत्र आदि समस्‍त गान्‍धारों को पुन: व्‍याकुल कर दिया। फिर क्रोध में भरे हुए धनंजय ने हथियार उठाये हुए पाँच सौ गान्‍धारदेशीय वीरों को अपने बाणों से मारकर यमलोक भेज दिया।

    महाबाहु वृषक उस अश्वहीन रथ से शीघ्र उतरकर अपने भाई अचल के रथ पर जा चढ़ा। फिर उसने अपने हाथ में दूसरा धनुष ले लिया। इस प्रकार एक रथ पर बैठे हुए वे दोनों भाई वृषक और अचल बारंबार बाणों की वर्षा से अर्जुन को घायल करने लगे। महाराज! आपके दोनों साले महामनस्‍वी राजकुमार वृषक और अचल, इन्‍द्र को वृत्रासुर तथा बलासुर के समान, अर्जुन को अत्‍यन्‍त घायल करने लगे। जैसे गर्मी के दो महीने सूर्य की उष्‍ण किरणों द्वारा सम्‍पूर्ण लोकों को संतप्‍त करते रहते हैं, उसी प्रकार वे दोनों भाई गान्धार राजकुमार लक्ष्‍य वेधने में सफल होकर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन पर बारंबार आघात करने लगे। 

    राजन! वे नरश्रेष्‍ठ राजकुमार वृषक और अचल रथ पर एक-दूसरे से सटकर खड़े थे। उसी अवस्‍था में अर्जुन ने एक ही बाण से उन दोनों को मार डाला। महाराज! वे दोनों वीर परस्‍पर सगे भाई होने के कारण एक जैसे लक्षणों से युक्‍त थे। दोनों ही सिंह के समान पराक्रमी, लाल नेत्रों वाले तथा विशाल भुजाओं से सुशोभित थे। वे दोनों एक ही साथ रथ से पृथ्वी पर गिर पड़े। 

   उन दोनों भाइयों के शरीर उनके बन्‍धुजनों के लिये अत्‍यन्‍त प्रिय थे। वे अपने पवित्र यश को दसों दिशाओं में फैलाकर रथ से भूतल पर गिरे और वहीं स्थिर हो गये। प्रजानाथ! युद्ध से पीठ न दिखाने वाले अपने दोनों मामाओं को युद्ध में मारा गया देख आपके सभी पुत्र अपने नेत्रों से आँसुओं की अत्‍यन्‍त वर्षा करने लगे। 

     अपने दोनो भाइयों को मारा गया देख सैकड़ों मायाओं के प्रयोग में निपुण शकुनि ने श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को मोहित करते हुए उनके प्रति माया का प्रयोग किया। फिर तो अर्जुन के ऊपर दंडे, लोहे के गोले, पत्‍थर, शतघ्नी, शक्ति, गदा, परिघ, खड्ग, शूल, मुद्गर, पट्टिश, कम्पन, ऋष्टि, नखर, मुसल, फरसे, छूरे, क्षुरप्र , नालीक, वत्सदंत, अस्थिसंधि, चक्र, बाण, प्रास तथा अन्‍य नाना प्रकार के सैकड़ों अस्त्र-शस्त्र सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं से आ-आकर पड़ने लगे। गदहे, ऊँट, भैंसे, सिंह, व्‍याघ्र, रोझ, चीते, रीक्ष, कुत्‍ते, गीध, बन्‍दर, साँप तथा नाना प्रकार के भूखे राक्षस एवं भाँति-भाँति के पक्षी अत्‍यन्‍त कुपित हो अर्जुन पर धावा करने लगे। तदनन्‍तर दिव्‍यास्‍त्रों के ज्ञाता शूरवीर कुन्‍तीपुत्र धनंजय सहसा बाण-समूहों की वर्षा करते हुए उन सबको मारने लगे। शूरवीर अर्जुन के सुदृढ़ एवं श्रेष्‍ठ सायकों द्वारा मारे जाते हुए वे समस्‍त हिंसक पशु सब ओर से घायल हो घोर चीत्‍कार करते हुए वहीं नष्‍ट हो गये। 

    तदनन्‍तर अर्जुन के रथ के समीप अन्‍धकार प्रकट हुआ और उस अन्‍धकार से क्रूरतापूर्ण बातें कानों में, पड़कर अर्जुन को डाँट बताने लगीं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 24-42 का हिन्दी अनुवाद)

    उस महासमर में प्रकट हुए उस भयदायक घोर एवं भयानक अंधकार को अर्जुन ने अपने विशाल उत्‍तम ज्‍योतिर्मय अस्त्र द्वारा नष्‍ट कर दिया। उस अधंकार का निवारण हो जाने पर बड़े भयंकर जल-प्रवाह प्रकट होने लगे। तब अर्जुन ने उस जल के निवारण के लिये आदित्‍यास्‍त्र का प्रयोग किया। उस अस्‍त्र ने वहाँ का सारा जल सोख लिया। इस प्रकार सुबलपुत्र शकुनि के द्वारा बारंबार प्रयुक्‍त हुई नाना प्रकार की मायाओं को उस समय अर्जुन ने अपने अस्‍त्र-बल से हँसते-हँसते शीघ्र ही नष्‍ट कर दिया। तब मायाओं का नाश हो जाने पर अर्जुन के बाणों से आहत एवं भयभीत होकर शकुनि अधम मनुष्‍यों की भाँति तेज चलने वाले घोड़ों के द्वारा भाग खड़ा हुआ। तदनन्‍तर अस्‍त्रों के ज्ञाता अर्जुन शत्रुओं को अपनी फुर्ती दिखाते हुए कौरव सेना पर बाण-समूहों की वर्षा करने लगे। महाराज! अर्जुन के द्वारा मारी जाती हुई आपके पुत्र की विशाल सेना उसी प्रकार दो भागों में बट गयी, मानो गंगा किसी विशाल पर्वत के पास पहुँचकर दो धाराओं में विभक्‍त हो गयी हों। राजन! किरीटधारी अर्जुन से पीड़ित हो आपकी सेना के कितने ही नरश्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य के पीछे जा छिपे और कितने ही सैनिक राजा दुर्योधन के पास भाग गये। 

   महाराज! उस समय हम लोग उड़ती हुई धूलराशि से व्‍याप्‍त हुई सेना में कहीं अर्जुन को देख नहीं पाते थे। मुझे तो दक्षिण दिशा की ओर केवल उनके धनुष की टंकार सुनायी देती थी। शंख और दुन्‍दुभियों की ध्‍वनि, वाद्यों के शब्‍द तथा गाण्‍डीव धनुष के गम्‍भीर घोष आकाश को लाँघकर स्‍वर्ग तक जा पहुँचे। तत्‍पश्चात पुन: दक्षिण दिशा में विचित्र युद्ध करने वाले योद्धाओं का अर्जुन के साथ बड़ा भारी युद्ध होने लगा और मैं द्रोणाचार्य के पास चला गया। 

    भरतनन्‍दन! युधिष्ठिर की सेना के सैनिक इधर-उधर से घातक प्रहार कर रहे थे। जैसे वायु आकाश में बादलों को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है, उसी प्रकार उस समय अर्जुन आपके पुत्रों की विभिन्‍न सेनाओं का विनाश करने लगे। इन्‍द्र की भाँति बाणरूपी जलराशि की अत्‍यन्‍त वर्षा करने वाले भयंकर वीर अर्जुन को आते देख कोई भी महाधनुर्धर पुरुषसिंह कौरव योद्धा उन्‍हें रोक न सके। 

    अर्जुन की मार खाकर आपके सैनिक अत्‍यन्‍त पीड़ित हो रहे थे। उनमें से बहुतेरे तो इधर-उधर भागते समय अपने ही पक्ष के योद्धाओं को मार डालते थे। अर्जुन के द्वारा छोड़े हुए कंकपक्ष से युक्‍त बाण विपक्षी वीरों के शरीर को छेद डालने वाले थे। वे सम्‍पूर्ण दिशाओं को आच्‍छादित करते हुए टिड्डीदल के समान वहाँ सब ओर गिरने लगे। आर्य! वे बाण घोड़े, रथी, हाथी और पैदल सैनिकों को भी विदीर्ण करके उसी प्रकार धरती में समा जाते थे, जैसे सर्प बाँबी में प्रवेश कर जाते हैं। हाथी, घोड़े और मनुष्‍यों पर अर्जुन दूसरा बाण नहीं छोड़ते थे। वे सब-के-सब पृथक-पृथक एक ही बाण से घायल हो प्राणशून्‍य होकर धरती पर गिर पड़ते थे। 

     बाणों के आघात से घायल होकर ढेर-के-ढेर मनुष्‍य मरे पड़े थे। चारों ओर हाथी धराशायी हो रहे थे और बहुत-से घोड़े मार डाले गये थे। उस समय कुत्‍तों और गीदड़ों के समूह से कोलाहलपूर्ण होकर वह युद्ध का प्रमुख भाग अद्भुत प्रतीत हो रहा था। वहाँ पिता पुत्र को त्‍याग देता था, सुहृद अपने श्रेष्‍ठ सुहृद को छोड़ देता था तथा पुत्र बाणों के आघात से आतुर होकर अपने पिता को भी छोड़कर चल देता था। उस समय अर्जुन के बाणों से पीड़ीत हुए सब लोग अपने-अपने प्राण बचाने की ओर ध्‍यान देकर सवारियों को भी छोड़कर भाग जाते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में शकुनि का पलायन विषयक तीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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