सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का द्रोणाचार्य से सेनापति होने के लिये प्रार्थना करना”
संजय कहते हैं ;– राजन! कर्ण का यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधन ने सेना के मध्य भाग में स्थित हुए आचार्य द्रोण से इस प्रकार कहा।
दुर्योधन बोला ;- द्विजश्रेष्ठ! आप उत्तम वर्ण, श्रेष्ठ कुल में जन्म, शास्त्रज्ञान, अवस्था, बुद्धि, पराक्रम, युद्धकौशल, अजेयता, अर्थज्ञान, नीति, विजय, तपस्या तथा कृतज्ञता आदि समस्त गुणों के द्वारा सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपके समान योग्य संरक्षक इन राजाओं में भी दूसरा नहीं हैं। अत: जैसे इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हम लोगों की रक्षा करें। हम आपके नेतृत्व में रहकर शत्रुओं पर विजय पाना चाहते हैं। रुद्रों में शंकर, वसुओं में पावक, यक्षों मे कुबेर, देवताओं में इन्द्र, ब्राह्मणों में वसिष्ठ, तेजोमय पदार्थों में भगवान सूर्य, पितरों में धर्मराज, जलचरों मे वरुणदेव, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा और दैत्यों मे शुक्राचार्य के समान आप समस्त सेनानायकों में श्रेष्ठ है; अत: हमारे सेनापति होइये। अनघ! मेरी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आपके अधीन रहें। उन सबके द्वारा शत्रुओं के मुकाबले में व्यूह बनाकर आप मेरे विरोधियों का उसी प्रकार नाश कीजिये, जैसे इन्द्र दैत्यों का नाश करते हैं। जैसे कार्तिकेय देवताओं के आगे चलते हैं, उसी प्रकार आप हम लोगों के आगे चलिये। जैसे बछड़े साँड़ के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार युद्ध में हम सब लोग आप के पीछे चलेंगे। आपको अग्रगामी सेनापति के रूप में देखकर भयंकर धनुषधारण करने वाले महाधनुर्धर अर्जुन अपने दिव्य धनुष की टंकार फैलाते हुए भी प्रहार नहीं करेंगे।
पुरुषसिंह! यदि आप मेरे सेनापति हो जायँ तो मैं युद्ध में निश्चय ही भाइयों तथा सगे सम्बन्धियों सहित युधिष्ठिर को जीत लूँगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! दुर्योधन के ऐसा कहने पर सब राजा अपने महान सिंहनाद से आपके पुत्र का हर्ष बढ़ाते हुए द्रोण से बोले,
राजागण बोले ;– आचार्य! आपकी जय हो।
दूसरे सैनिक भी प्रसन्न होकर दुर्योधन को आगे करके महान यश की अभिलाषा रखते हुए द्रोणाचार्य की प्रशंसा करके उनका उत्साह बढ़ाने लगे। राजन! उस समय द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व में द्रोण को उत्साहप्रदानविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य का सेनापति के पद पर अभिषेक, कौरव-पाण्डव-सेनाओं का युद्ध और द्रोण का पराक्रम”
द्रोणाचार्य ने कहा ;– राजन! मैं छहों अगों सहित वेद, मनु जी का कहा हुआ अर्थशास्त्र, भगवान शंकर की दी हुई बाण-विधा और अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र भी जानता हूँ। विजय की अभिलाषा रखने वाले तुम लोगों ने मुझमें जो-जो गुण बताये हैं, उन सबको प्राप्त करने की इच्छा से मैं पाण्डवों के साथ युद्ध करूँगा। राजन! मैं द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न को युद्धस्थल में किसी प्रकार भी नहीं मारूँगा; क्योंकि वह पुरुषप्रवर धृष्टद्युम्न मेरे ही वध के लिये उत्पन्न हुआ है।
मैं समस्त सोमकों का संहार करते हुए पाण्डव-सेनाओं के साथ युद्ध करूँगा; परंतु पाण्डव लोग युद्ध में प्रसन्नतापूर्वक मेरा सामना नहीं करेंगे।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार आचार्य द्रोण की अनुमति मिल जाने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने उन्हें शास्त्रीय विधि के अनुसार सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया। तदनन्तर जैसे पूर्वकाल में इन्द्र आदि देवताओं ने स्कन्द को सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया था, उसी प्रकार दुर्योधन आदि राजाओं ने भी द्रोणाचार्य का अभिषेक किया। उस समय वाद्यों के घोष तथा शंखों की गम्भीर ध्वनि के साथ द्रोणाचार्य के सेनापति बना लिये जाने पर सब लोगों के हृदय में महान हर्ष प्रकट हुआ। पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन, सूत, मागध और वन्दीजनों के स्तोत्र, गीत तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों के जय-जयकार के शब्द से एवं नाचने वाली स्त्रियों के नृत्य से दोणाचार्य का विधिवत सत्कार करके कौरवों ने यह मान लिया कि अब पाण्डव पराजित हो गये।
राजन! महारथी द्रोणाचार्य सेनापति का पद पाकर अपनी सेना की व्यूह-रचना करके आपके पुत्रों को साथ ले युद्ध के लिये उत्सुक हो आगे बढ़े। सिन्धुराज जयद्रथ, कलिंग नरेश और आपके पुत्र विकर्ण- ये तीनों उनके दक्षिण पार्श्व का आश्रय ले कवच बाँधकर खड़े हुए।गान्धार देश के प्रधान-प्रधान घुड़सवारों के साथ, जो चमकीले प्रासों द्वारा युद्ध करने वाले थे, गान्धरराज शकुनि उन दक्षिण पार्श्व के योद्धाओं का प्रपक्ष बनकर चला।
कृपाचार्य, कृतवर्मा, चित्रसेन, विविंशति और दु:शासन आदि वीर योद्धा बड़ी सावधानी के साथ द्रोणाचार्य के वाम पार्श्व की रक्षा करने लगे। उनके सहायक या प्रपक्ष थे सुदक्षिण आदि काम्बोज देशीय सैनिक। ये सब लोग शकों और यवनों के साथ महान वेगशाली घोड़ो पर सवार हो युद्ध के लिये आगे बढ़े। मद्र, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, शिबि, शूरसेन, शूद्र, मलद, सौवीर, कितव, प्राच्य तथा दाक्षिणात्य वीर-ये सबके सब आपके पुत्र दुर्योधन को आगे करके सूतपुत्र कर्ण के पृष्ठ भाग में रहकर अपनी सेनाओं को हर्ष प्रदान करते हुए आपके पुत्रों के साथ चले। समस्त योद्धाओं में श्रेष्ठ विकर्तन पुत्र कर्ण सारी सेनाओं में नूतन शक्ति और उत्साह का संचार करता हुआ सम्पूर्ण धनुर्धरों के आगे-आगे चला। उसका अत्यन्त कान्तिमान विशाल ध्वज बहुत ऊँचा था। उसमें हाथी को बाँधने वाली साँकल का चिह्न सुशोभित था। वह ध्वज अपने सैनिकों का हर्ष बढ़ाता हुआ सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहा था। कर्ण को देखकर किसी को भी भीष्म जी के मारे जाने का दु:ख नहीं रह गया। कौरवों सहित सब राजा शोक रहित हो गये।
हर्ष में भरे हुए बहुत-से योद्धा वहाँ वेगपूर्वक बोल उठे- इस रणक्षेत्र में कर्ण को उपस्थित देख पाण्डव लोग ठहर नहीं सकेंगे। क्योंकि कर्ण समरांगण में इन्द्र के सहित देवताओं को भी जीतने में समर्थ है। फिर, जो बल और पराक्रम में कर्ण की अपेक्षा निम्न श्रेणी के हैं, उन पाण्डवों को युद्ध में पराजित करना उसके लिये कौन बड़ी बात है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)
अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले भीष्म ने तो युद्ध में कुन्तीकुमारों की रक्षा की है; परंतु कर्ण अपने तीखे बाणों द्वारा उनका विनाश कर डालेगा। प्रजानाथ! इस प्रकार प्रसन्न होकर परस्पर बात करते तथा राधानन्दन कर्ण की प्रंशसा और आदर करते हुए आपके सैनिक युद्ध के लिये चले। उस समय द्रोणाचार्य ने हमारी सेना के द्वारा शकटव्यूह का निर्माण किया था। राजन! हमारे महामनस्वी शत्रुओं की सेना का क्रौंचव्यूह दिखायी देता था। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही प्रसन्नता पूर्वक उस व्यूह की रचना की थी। पाण्डवों के उस व्यूह के अग्रभाग में अपनी वानरध्वजा को बहुत ऊँचे तक फहराते हुए पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन खड़े हुए थे। अमित तेजस्वी अर्जुन का वह ध्वज सूर्य के मार्ग तक फैला हुआ था। वह सम्पूर्ण सेनाओं के लिये श्रेष्ठ आश्रय तथा समस्त धनुर्धरों के तेज का पुंज था। वह ध्वज पाण्डुनन्दन महात्मा युधिष्ठिर की सेना को अपनी दिव्य प्रभा से उद्भासित कर रहा था।
जैसे प्रलयकाल में प्रज्वलित सूर्य सारी वसुधा को देदीप्यमान करते दिखाये देते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान अर्जुन का वह विशाल ध्वज सर्वत्र प्रकाशमान दिखायी देता था। समस्त योद्धाओं में अर्जुन श्रेष्ठ हैं, धनुषों में गाण्डीव श्रेष्ठ है, सम्पूर्ण चेतन सत्ताओं में सच्चिदानन्दघन वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं और चक्रों में सुदर्शन श्रेष्ठ है। श्वेत घोड़ों से सुशोभित वह रथ इन चार तेजों को धारण करता हुआ शत्रुओं के सामने उठे हुए कालचक्र के समान खड़ा हुआ। इस प्रकार वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन अपनी सेना के अग्रभाग में सुशोभित हो रहे थे।
राजन! आपकी सेना के प्रमुख भाग में कर्ण और शत्रुओं की सेना के अग्रभाग में अर्जुन खड़े थे। वे दोनों उस समय विजय के लिये रोषावेश में भरकर एक-दूसरे का वध करने की इच्छा से रणक्षेत्र में परस्पर दृष्टिपात करने लगे। तदनन्तर सहसा महारथी द्रोणाचार्य आगे बढ़े। फिर तो भयंकर आर्तनाद के साथ सारी पृथ्वी काँप उठी।
इसके बाद प्रचण्ड वायु के वेग से बड़े जोर की धूल उठी, जो रेशमी वस्त्रों के समुदाय-सी प्रतीत होती थी। उस तीव्र एवं भयंकर धूल ने सूर्य सहित समूचे आकाश को ढक लिया। आकाश में मेघों की घटा नहीं थी, तो भी वहाँ से मास, रक्त तथा हड्डियों की वर्षा होने लगी।
नरेश्वर! उस समय गीध, बाज, बगले, कंक और हजारों कौवे आपकी सेना के ऊपर-ऊपर उड़ने लगे। गीदड़ जोर-जोर से दारुण एवं भयदायक बोली बोलने लगे और मांस खाने तथा रक्त पीने की इच्छा से बारंबार आपकी सेना को दाहिने करके घूमने लगे। उस समय एक प्रज्वलित एवं देदीप्यमान उल्का युद्धस्थल में अपने पुच्छभाग द्वारा सबको घेरकर भारी गर्जना और कम्पन के साथ पृथ्वी पर गिरी।
राजन! सेनापति द्रोण के युद्ध के लिये प्रस्थान करते ही सूर्य के चारों ओर बहुत बड़ा घेरा पड़ गया और बिजली चमकने के साथ ही मेघ-गर्जना सुनायी देने लगी। ये तथा और भी बहुत से भयंकर उत्पात प्रकट हुए, जो युद्ध में वीरों की जीवन-लीला के विनाश की सूचना देने वाले थे। तदनन्तर एक-दूसरे के वध की इच्छा वाले कौरवों तथा पाण्डवों की सेनाओं में भयंकर युद्ध होने लगा और उनके कोलाहल में सारा जगत व्याप्त हो गया। कोध्र में भरे हुए पाण्डव तथा कौरव विजय की अभिलाषा लेकर एक-दूसरे को तीखे अस्त्र-शस्त्र द्वारा मारने लगे। वे सभी योद्धा प्रहार करने में कुशल थे।
महाधनुर्धर महातेजस्वी द्रोणाचार्य ने पाण्डवों की विशाल सेना पर सैकड़ों पैने बाणों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से आक्रमण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 44-54 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उस समय द्रोणाचार्य को युद्ध के लिये उद्यत देख सृंजयों सहित पाण्डवों ने पृथक-पृथक बाणों की वर्षा करते हुए उनका सामना किया। जैसे वायु बादलों को उड़ाकर छिन्न–भिन्न कर देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के द्वारा क्षत-विक्षत हुई पांचालों सहित पाण्डवों की विशाल सेना तितर-बितर हो गयी। द्रोण ने युद्ध में बहुत से दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके क्षण-भर में पाण्डवों तथा सृंजयों को पीड़ित कर दिया। जैसे इन्द्र दानवों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य से पीड़ित हो धृष्टद्युम्न आदि पांचाल योद्धा भय से काँपने लगे। तब दिव्यास्त्रों के ज्ञाता यज्ञसेनकुमार शूरवीर महारथी धृष्टद्युम्न ने अपने बाणों की वर्षा से द्रोणाचार्य की सेना को बारंबार घायल किया। बलवान द्रुपदपुत्र ने अपने बाणों की वर्षा से द्रोणाचार्य की बाणवृष्टि को रोककर समस्त कौरव सैनिकों को मारना आरम्भ किया।तब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने अपनी सेना को काबू में करके उसे युद्धस्थल में स्थिर भाव से खड़ा कर दिया और द्रुपदकुमार पर धावा किया। जैसे क्रोध में भरे हुए इन्द्र सहसा दानवों पर बाणों की बौछार करतें हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न पर बाणों की बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी।
जैसे सिंह दूसरे मृगों को भगा देता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के बाणों से विकम्पित हुए पाण्डव तथा सृंजय बारंबार युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे। राजन! बलवान द्रोणाचार्य पाण्डवों का सेना में अलात चक्र की भाँति चारों ओर चक्कर लगाने लगे। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। शास्त्रोक्त विधि से निर्मित हुआ आचार्य द्रोण का वह श्रेष्ठ रथ आकाशचारी गन्धर्वनगर के समान जान पड़ता था। वायु के वेग से उसकी पताका फहरा रही थी। वह रथी के मन को आह्लाद प्रदान करने वाला था। उसके घोड़े उछल-उछलकर चल रहे थे। उसका ध्वज-दण्ड स्फटिक मणि के समान स्वच्छ एवं उज्जवल था। वह शत्रुओं को भयभीत करने वाला था। उस श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर द्रोणाचार्य शत्रु सेना का संहार कर रहे थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व में द्रोणपराक्रमविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य के पराक्रम और वध का संक्षिप्त समाचार”
संजय कहते हैं ;- महाराज! द्रोणाचार्य को इस प्रकार घोड़े, सारथि, रथ और हाथियों का संहार करते देखकर भी व्यथित हुए पाण्डव-सैनिक उन्हें रोक न सके। तब राजा युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न और अर्जुन से कहा,,
युधिष्ठिर ने कहा ;– वीरों! मेरे सैनिकों को सब ओर से प्रयत्नशील होकर द्रोणाचार्य को रोकना चाहिये। यह सुनकर वहाँ अर्जुन और सेवकों सहित धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य को रोका। फिर तो सभी महारथी उन पर टूट पड़े। राजन! केकयराजकुमार, भीमसेन, अभिमन्यु, घटोत्कच, युधिष्ठिर, नकुल-सहदेव, मत्स्यदेशीय सैनिक, द्रुपद के सभी पुत्र, हर्ष और उत्साह में भरे हुए द्रौपदी के पाँचों पुत्र, धृष्टकेतु, सात्यकि, कुपित चेकितान और महारथी युयुत्सु– ये तथा और भी जो भूमिपाल पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के अनुयायी थे, वे सब अपने कुल और पराक्रम के अनुकूल अनेक प्रकार के वीरोचित कार्य करने लगे।
उस रणक्षेत्र में पाण्डवों द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सेना की ओर द्रोणाचार्य ने क्रोधपूर्वक आँखे फाड़-फाड़कर देखा। जैसे वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार रथ पर बैठे हुए रणदुर्जय वीर द्रोणाचार्य प्रचण्ड कोप धारण करके पाण्डव सेना का संहार करने लगे। वे बूढ़े होकर भी जवान के समान फुर्तीले थे। द्रोणाचार्य उन्मत की भाँति युद्धस्थल में इधर-उधर चारों और विचरते और रथों, घोड़ों पैदल मनुष्यों तथा हाथियों पर धावा करते थे।
उनके घोड़े स्वभावत: लाल रंग के थे। उस पर भी उनके सारे अंग खून से लथ पथ होने के कारण वे और भी लाल दिखायी देते थे। उनका वेग वायु के समान तीव्र था। राजन! उन घोड़ों की नस्ल अच्छी थी और वे बिना विश्राम किये निरन्तर दौड़ लगाते रहते थे। नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले द्रोणाचार्य को क्रोध में भरे हुए काल के समान आते देख पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के सारे सैनिक इधर-उधर भाग चले।
वे कभी भागते, कभी पुन: लौटते और कभी चुपचाप खड़े होकर युद्ध देखते थे; इस प्रकार की हल-चल में पड़े हुए उन योद्धाओं का अत्यन्त दारुण भंयकर कोलाहल चारों ओर गूँज उठा। वह कोलाहल शूरवीरों का हर्ष और कायरों का भय बढ़ाने वाला था। वह आकाश और पृथ्वी के बीच में सब ओर व्याप्त हो गया। तब द्रोणाचार्य ने पुन: रणभूमि में अपना नाम सुना-सुनाकर शत्रुओं पर सैकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए अपने भयंकर स्वरूप को प्रकट किया।
आर्य! बलवान द्रोणाचार्य वृद्ध होकर भी तरुण के समान फुर्ती दिखाते हुए पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की सेनाओं में काल के समान विचरने लगे। वे योद्धाओं के मस्तकों और आभूषण से भूषित भयंकर भुजाओं को भी काटकर रथ की बैठकों को सूनी कर देते और महारथियों की ओर देख-देखकर दहाड़ते थे। प्रभो! उनके हर्षपूर्वक किये हुए सिंहनाद अथवा बाणों के वेग से उस रणक्षेत्र में समस्त योद्धा सर्दी से पीड़ित हुई गायों की भाँति थर-थर काँपने लगे। द्रोणाचार्य के रथ की घरघराहट, प्रत्यंचा को दबा-दबाकर खींचने के शब्द और धनुष की टंकार से आकाश में महान कोलाहल होने लगा।
द्रोणाचार्य के धनुष से सहस्त्रों बाण निकलकर सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों पर बड़े वेग से गिरने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
द्रोणाचार्य के धनुष का वेग महान था। उन्होंने अस्त्रों द्वारा आग-सी प्रज्वलित कर दी थी। पाण्डव और पांचाल सैनिक उनके पास पहुँचकर उन्हें रोकने की चेष्टा करने लगे। द्रोणाचार्य ने हाथी, घोड़े और पैदलों सहित उन समस्त योद्धाओं को यमलोक पहुँचा दिया थोड़ी देर में भूतल पर रक्त की कीच मचा दी। द्रोणाचार्य ने निरन्तर बाणों की वर्षा और उत्तम अस्त्रों का विस्तार करके सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों का जाल सा बुन दिया, जो स्पष्ट दिखलायी दे रहा था। पैदल सैनिकों, रथियों, घुड़सवारों तथा हाथी सवारों में सब ओर विचरता हुआ उनका ध्वज बादलों में विघुत-सा दृष्टिगोचर हो रहा था। पाँचों श्रेष्ठ केकय राजकुमारों तथा पांचालराज द्रुपद को अपने बाणों से मथ कर उदार हृदय वाले द्रोणाचार्य ने हाथों में धनुष-बाण लेकर युधिष्ठिर की सेना पर आक्रमण किया।
यह देख भीमसेन, अर्जुन, सात्यकि, धृष्टद्युम्न , शैब्य कुमार, काशिराज तथा शिबि गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाण-समूहों की वर्षा करने लगे।
(इन सबके बाण द्रोणाचार्य के सायकों द्वारा छिन्न-भिन्न एवं निष्फल हो युद्धस्थल में धरती पर लोटते दिखायी देने लगे, मानो नदियों के द्वीप में ढेर-के-ढेर कास अथवा सरकण्डे काटकर बिछा दिये गये हों।)
द्रोणाचार्य ने धनुष से छुटे हुए सुवर्णमय विचित्र पंखों से युक्त बाण हाथी, घोड़े और युवकों के शरीर को छेदकर धरती में घुस गये। उस समय उनके पंख रक्त से रँग गये थे। जैसे वर्षाकाल के मेघों की घटा से आकाश आच्छादित हो जाता है, उसी प्रकार वहाँ बाणों से विदीर्ण होकर गिरे हुए योद्धाओं के समूहों, रथों, हाथियों और घोड़ों से सारी रणभूमि पट गयी थी। सात्यकि, भीमसेन और अर्जुन जिसमें सेनापति थे तथा जिसके भीतर अभिमन्यु, द्रुपद एवं काशिराज जैसे योद्धा मौजूद थे, उस सेना को तथा अन्यान्य महावीरों को भी द्रोणाचार्य ने समरांगण में रौंद डाला; क्योंकि वे आपके पुत्रों को ऐश्वर्य की प्राप्ति कराना चाहते थे। राजन! कौरवेन्द्र! युद्धस्थल में ये तथा और भी बहुत से वीरोचित कर्म करके महात्मा द्रोणाचार्य प्रलयकाल के सूर्य की भाँति सम्पूर्ण लोकों को तपाकर यहाँ से स्वर्ग में चले गये।
इस प्रकार सुवर्णमय रथ वाले शूरवीर द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में पाण्डव पक्ष के लाखों योद्धाओं का संहार करके अन्त में धृष्टद्युम्न के द्वारा मार गिराये गये। धैर्यशाली द्रोणाचार्य ने युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीरों की एक अक्षौहिणी से भी अधिक सेना का संहार करके पीछे स्वयं भी परम-गति प्राप्त कर ली। राजन! सुवर्णमय रथ वाले द्रोणाचार्य अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके अन्त में पाण्डवों सहित अमंगलकारी क्रूरकर्मा पांचालों के हाथ से मारे गये।
नरेश्वर! युद्धस्थल में आचार्य द्रोण के मारे जाने पर आकाश में स्थित अदृश्य भूतों का तथा कौरव-सैनिकों का आर्तनाद सुनायी देने लगा। उस समय स्वर्ग लोक, भू-लोक, अन्तरिक्ष लोक, दिशाओं तथा विदिशाओं को भी प्रतिध्वनित करता हुआ समस्त प्राणियों का अहो! धिक्कार है! यह शब्द वहाँ जोर-जोर से गूँजने लगा। देवता, पितर तथा जो इनके पूर्ववर्ती भाई-बन्धु थे, उन्होंने भी वहाँ भरद्वाजनन्दन महारथी द्रोणाचार्य को मारा गया देखा। पाण्डव विजय पाकर सिंहनाद करने लगे। उनके उस महान सिंहनाद से पृथ्वी काँप उठी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में द्रोणवधश्रवणविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य की मृत्यु का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का शोक करना”
धृतराष्ट्र बोले ;– संजय! रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य क्या कर रहे थे कि पाण्डव तथा सृंजय उन पर चोट कर सके? वे तो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और अस्त्र-विधा में निपुण थे। उनका रथ टूट गया था बाणों का प्रहार करते समय धनुष ही खण्डित हो गया था अथवा द्रोणाचार्य असावधान थे, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी? तात! द्रोणाचार्य तो शत्रुओं के लिये सर्वथा दुर्जय थे। वे सुवर्णमय पंख वाले बाणसमूहों की बारंबार वर्षा करते थे। उनके हाथों में फुर्ती थी। वे विचित्र रीति से युद्ध करने वाले और विद्वान थे। दूर तक बाण मारने वाले और अस्त्र-युद्ध में पारंगत थे। फिर उन जितेन्द्रिय दिव्यास्त्रधारी और अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने कैसे मार दिया? वे तो रणक्षेत्र में कठोर कर्म करने वाले, विजय के लिये प्रयत्नशील और महारथी वीर थे।
निश्चय ही पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव ही प्रबल है, ऐसा मेरा विश्वास है; क्योंकि द्रोणाचार्य जैसे शूरवीर महामना धृष्टद्युम्न के हाथ से मारे गये। जिन वीर सेनापति में चार प्रकारक अस्त्र प्रतिष्ठित थे, उन धनुर्धरों के आचार्य द्रोण को तुम मुझे मारा गया बता रहे हो। व्याघ्रचर्म से आच्छादित सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हो सुनहरा शिरस्त्राण धारण करने वाले द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर आज मैं अपने शोक को किसी प्रकार दूर नहीं कर पाता हूँ।
संजय! निश्चय ही कोई भी दूसरे के दु:ख से नहीं मरता है, तभी तो मैं मन्दबुद्धि मनुष्य द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर भी जी रहा हूँ। मैं तो दैव को ही श्रेष्ठ मानता हूँ। पुरुषार्थ तो अनर्थ का ही कारण है। निश्चय ही मेरा यह अत्यन्त सुदृढ़ हृदय लोहे का बना हुआ है, जिससे द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर भी इसके सौ टुकड़े नहीं हो जाते। गुणार्थी ब्राह्मण तथा राजकुमार ब्राह्म और दैव अस्त्रों के लिये जिनकी उपासना करते थे, उन्हें मृत्यु कैसे हर ले गयी? द्रोण का रणभूमि में गिराया जाना समुद्र के सूखने, मेरु पर्वत के चलने-फिरने और सूर्य के आकाश से टूट कर गिरने के समान है। मैं इसे किसी प्रकार सहन नहीं कर पाता। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य दुष्टों को दण्ड देने वाले और धार्मिकों के रक्षक थे। उन्होंने मुझ कृपण के लिये अपने प्राण तक दे दिये।
मेरे मूर्ख पुत्रों को जिनके ही पराक्रम के भरोसे विजय की आशा बनी हुई थी तथा जो बुद्धि में बृहस्पति और शुक्राचार्य के समान थे, वे द्रोणाचार्य कैसे मारे गये? जिनके रंग लाल थे, जो विशाल एवं दृढ़ शरीर वाले थे, जिन्हें सोने की जालियों से आच्छादित किया जाता था, जो रथ में जोते जाने पर वायु के समान वेग से चलते थे, संग्राम में सब प्रकार के शस्त्रों द्वारा किये जाने वाले प्रहार को बचा जाते थे, जो बलवान, सुशिक्षित और रथ को अच्छी तरह वहन करने वाले थे, रणभूमि में जो दृढ़तापूर्वक डटे रहते और जोर-जोर से हिनहिनाते थे, धनुषों की टंकार के साथ होने वाली बाणवर्षा तथा अस्त्र-शस्त्रों के आघात को सहन करने में समर्थ एवं शत्रुओं को जीतने का उत्साह रखने वाले थे, जो पीड़ा तथा श्वास को जीत चुके थे, वे सिन्धुदेशीय घोड़े युद्धस्थल में चिग्घाड़ते हुए हाथियों और शंखों एवं नगाड़ों की आवाज से घबराये तो नहीं थे?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
क्या द्रोणाचार्य के रथ को वहन करने वाले वे शीघ्रगामी अश्व पराजित हो गये थे? तात! द्रोणाचार्य के सुवर्णमय रथ में जुते हुए और उन्हीं नरवीर आचार्य की सवारी में काम आने वाले वे घोड़े पाण्डव सेना को पार कैसे नहीं कर सके? उस सुवर्णभूषित उत्तम रथ पर आरूढ़ हो सत्यपराक्रमी द्रोणाचार्य ने युद्धस्थल में क्या?
समस्त जगत के धनुर्धर जिनकी विधा का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उन सत्यपराक्रमी बलवान द्रोणाचार्य ने युद्ध में क्या किया? स्वर्ग में देवराज इन्द्र के समान जो इस लोक में श्रेष्ठ और समस्त धनुर्धरों में महान थे, उन भयंकर कर्म करने वाले द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये उस रणक्षेत्र में कौन-कौन से रथी गये थे? उस समरांगण में दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करने वाले तथा सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए महाबली द्रोणाचार्य को देखकर तो समस्त पाण्डव योद्धा भाग खड़े होते थे। भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी सारी सेना के साथ जाकर धृष्टद्युम्नरूपी डोरी की सहायता से द्रोणाचार्य को घेर तो नहीं लिया?
निश्चय ही अर्जुन ने अपने सीधे जाने वाले बाणों के द्वारा अन्य रथियों को आगे बढ़ने से रोक दिया था। इसलिये पापकर्मा धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य पर चढ़ाई कर सका। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा सुरक्षित भयंकर स्वभाव वाले धृष्टद्युम्न को छोड़कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो अत्यन्त तेजस्वी द्रोणाचार्य के वध में समर्थ हो। केकय, चेदि, कारूष, मत्स्य देशीय सैनिकों तथा अन्य भूमिपालों ने आचार्य को उसी प्रकार व्याकुल कर दिया होगा, जैसे बहुत-सी चींटियाँ सर्प का विह्बल कर देती हैं; उसी अवस्था में उन पाण्डव सैनिकों द्वारा सब ओर से घिरे हुए नीच धृष्टद्युम्न ने दुष्कर कर्म में लगे हुए द्रोणाचार्य को मार डाला होगा, यही बात मेरे मन में आती है।
जो छहों अंगों तथा पंचम वेद स्थानीय इतिहास-पुराणों सहित चारों वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणों के लिये उसी प्रकार आश्रय बने हुए थे, जैसे नदियों के लिये समुद्र हैं। जो शत्रुओं को संताप देने वाले तथा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों के धर्मों का अनुष्ठान करने वाले थे, वे वृद्ध ब्राह्मण द्रोणाचार्य शस्त्र द्वारा कैसे मारे गये? मैने अमर्ष में भरकर सदा कष्ट भोगने के अयोग्य कुन्तीकुमारों को क्लेश ही दिया है; परंतु मेरे इस बर्ताव को द्रोणाचार्य ने चुपचाप सह लिया था। उनके उसी कर्म का यह वधरूपी फल प्राप्त हुआ है। जगत के सम्पूर्ण धनुधर जिनके शिक्षणरूपी कर्म का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उन सत्यप्रतिज्ञ पुण्यात्मा द्रोणाचार्य को राजलक्ष्मी के लोभियों ने कैसे मार डाला? स्वर्ग लोक में इन्द्र के समान जो इस लोक में सबसे श्रेष्ठ थे, उन महान सत्त्वशाली, महाबली द्रोणाचार्य को कुन्ती के पुत्रों ने उसी प्रकार मार डाला, जैसे छोटे मत्स्यों ने मिलकर तिमि नामक महामत्स्य को मार डाला हो। यह कैसे सम्भव हुआ?
जो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले, बलवान, दृढ़धन्वा तथा शत्रुओं का मर्दन करने वाले थे, कोई भी विजयाभिलाषी वीर जिनके बाणों का लक्ष्य बन जाने पर जीवित नहीं रह सकता था, जिन्हें जीते जी दो शब्दों ने कभी नहीं छोड़ा था- एक तो वेदाध्ययन की इच्छा वाले लोगों के समक्ष वेदध्वनि का शब्द और दूसरा धनुर्धारियों के बीच में प्रत्यंचा की टंकार का शब्द।
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद)
सिंह और हाथी के समान पराक्रमी, उदार, लज्जाशील और किसी से पराजित न होने वाले पुरुषसिंह द्रोण का वध मैं नहीं सहन कर सकता। संजय! जिनके यश और बल का तिरस्कार होना असम्भव था, उन दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्य को समरभूमि में सम्पूर्ण नरेशों के देखते-देखते धृष्टद्युम्न ने कैसे मार डाला? कौन-कौन से वीर उस समय निकट से द्रोणाचार्य की रक्षा करते हुए उनके आगे रहकर युद्ध करते थे और कौन-कौन योद्धा दुर्गम मार्ग पर पैर बढ़ाते हुए उनके पीछे रहकर रक्षा करते थे? कौन वीर उन महात्मा के दाहिने पहिये की और कौन बायें पहिये की रक्षा करते थे? कौन उस युद्धस्थल में युद्ध परायण वीरवर द्रोणाचार्य के आगे थे और किन लोगों ने अपने शरीर का मोह छोड़कर विपक्षियों का सामना करते हुए उस रणक्षेत्र में मृत्यु का वरण किया था। किन वीरों ने युद्ध में द्रोणाचार्य को उत्तम धैर्य प्रदान किया? उनकी रक्षा करने वाले मूर्ख क्षत्रियों ने भयभीत होकर युद्धस्थल में उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ दिया? और इस प्रकार शत्रुओं ने सूने में तो उन्हें नहीं मार डाला?
जो बड़ी-से-बड़ी आपत्ति पड़ने पर भी रण में अपने शौर्य के कारण शत्रु को भयवश पीठ नहीं दिखा सकते थे, वे विपक्षियों द्वारा किस प्रकार मारे गये? संजय! बड़े भारी संकट में पड़ने पर श्रेष्ठ पुरुष को यही करना चाहिये कि वह यथाशक्ति पराक्रम दिखावे; यह बात द्रोणाचार्य में पूर्णरूप से प्रतिष्ठित थी। तात! इस समय मेरा मन मोहित हो रहा है; अत: तुम यह कथा बंद करों! संजय! फिर होश में आने पर तुमसे यह समाचार पूछूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में धृतराष्ट्र का शोकविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा धृतराष्ट्र का शोक से व्याकुल होना और संजय से युद्ध विषयक प्रश्न”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;– जनमेजय! सूतपुत्र संजय से इस प्रकार प्रश्न करते-करते हार्दिक शोक से अत्यन्त पीड़ित हो अपने पुत्रों की विजय की आशा टूट जाने के कारण राजा धृतराष्ट्र अचेत से होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय अचेत पड़े हुए राजा धृतराष्ट्र को उनकी दासियाँ पंखा झलने लगीं और उनके ऊपर परम सुगन्धित एवं अत्यन्त शीतल जल छिड़कने लगी। महाराज को गिरा देख धृतराष्ट्र की बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठ गयीं और उन्हें हाथों से सहलाने लगीं। फिर उन सुमुखी स्त्रियों ने राजा को धीरे-धीरे धरती से उठाकर सिंहासन पर बिठाया। उस समय उनके नेत्रों से आँसू झर रह थे और कण्ठ गद्गद हो रहे थे। सिंहासन पर पहुँचकर भी राजा धृतराष्ट्र मूर्छा से पीड़ित हो निश्चेष्ट हो गये। उस समय सब ओर से उनके ऊपर व्यजन डुलाया जा रहा था।
फिर धीरे-धीरे होश में आने पर काँपते हुए राजा धृतराष्ट्र ने पुन: सूत जातीय संजय से युद्ध का यथावत समाचार पूछा।
धृतराष्ट्र बोले ;– जो उगते सूर्य की भाँति अपनी प्रभा से अन्धकार दूर कर देते हैं, उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को द्रोण के समीप आने से किसने रोका था? जो मद की धारा बहाने वाले, हथिनी के साथ समागम के समय आये हुए विपक्षी हाथी पर आक्रमण करने वाले तथा गजयूथपतियों के लिये अजेय मतवाले गजराज के समान वेगशाली और पराक्रमी हैं, कौरवों के प्रति जिनका क्रोध बढ़ा हुआ है, जिन पुरुषप्रवर वीर ने रणक्षेत्र में बहुत से वीरों का संहार किया हैं, जो महापराक्रमी, धैर्यवान एवं सत्यप्रतिज्ञ हैं और अपनी भयंकर दृष्टि से अकेले ही दुर्योधन की सम्पूर्ण सेना को भस्म कर सकते हैं, जो क्रोध भरी दृष्टि से ही शत्रु का संहार करने में समर्थ हैं, विजय के लिये प्रयत्नशील, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले, जितेन्द्रिय तथा लोक में विशेष सम्मानित हैं, उस प्रसन्नवदन धनुर्धर युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य के सामने आते देख मेरे पक्ष के किन शूरवीरों ने रोका था?
जो धर्म से कभी विचलित नहीं होते हैं, उन महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर पुरुष सिंह कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर पर मेरे किन योद्धाओं ने आक्रमण किया था? जिन्होंने वेग से ही पहुँचकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया था, जो शत्रु के समक्ष महान पराक्रम प्रकट करते हैं, जो महाबली, महाकाय और महान उत्साही हैं तथा जिनमें दस हजार हाथियों के समान बल है, उन भीमसेन को आते देख किन वीरों ने रोका था? जो मेघ के समान श्यामवर्ण वाले परम पराक्रमी महारथी अर्जुन विद्युत की उत्पत्ति करते हुए बादलों के समान भयंकर वज्रास्त्र का प्रयोग करते हैं, जो जल की वर्षा करने वाले इन्द्र के समान बाणसमूहों की वृष्टि करते हैं तथा जो अपने धनुष की टंकार और रथ के पहिये की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को शब्दायमान कर देते हैं, वे स्वयं भयंकर मेघ स्वरूप जान पड़ते हैं। धनुष ही उनके समीप विधुत्प्रभा के समान प्रकाशित होता है। रथियों की सेना उनकी फैली हुई घटाएँ जान पड़ती हैं। रथ के पहियों की घरघराहट मेघ-गर्जना के समान प्रतीत होती है। उनके बाणों की सनसनाहट वर्षा के शब्द की भाँति अत्यन्त मनोहर लगती है। क्रोधरूपी वायु उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। वे मनोरथ की भाँति शीघ्रगामी और विपक्षियों के मर्मस्थलों को विदीर्ण कर डालने वाले हैं। बाण धारण करके वे बड़े भयानक प्रतीत होते और रक्तरूपी जल से सम्पूर्ण दिशाओं को आप्लावित करते हुए मनुष्यों की लाशों से धरती को पाट देते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 19-42 का हिन्दी अनुवाद)
जिस समय भयंकर गर्जना करने वाले रौद्ररूपधारी बुद्धिमान अर्जुन ने युद्ध में गाण्डीव धारण करके सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए गृध्रपंखयुक्त बाणों द्वारा दुर्योधन आदि मेरे पुत्रों और सैनिकों को घायल करना आरम्भ किया, उस समय तुम लोगों के मन की कैसी अवस्था हुई थी? वानर के चिह्न से युक्त श्रेष्ठ ध्वजा वाले अर्जुन जब आकाश को अपने बाणों से ठसाठस भरते हुए तुम लोगों पर चढ़ आये थे, उस समय उन्हें देखकर तुम्हारे मन की कैसी दशा हुई थी?
जिस समय अर्जुन नें भयंकर सिंहनाद करते हुए तुम लोगों का पीछा किया था, उस समय गाण्डीव की टंकार सुनकर हमारी सेना भाग तो नहीं गयी थी? उस अवसर पर पार्थ ने अपने बाणों द्वारा तुम्हारे सैनिकों के प्राण तो नहीं ले लिये थे? जैसे वायु वेगपूर्वक चलकर मेघों की घटा को छिन्न-छिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन ने वेग से चलाये हुए बाण-समूहों द्वारा विपक्षी नरेशों को घायल कर दिया होगा। सेना के प्रमुख भाग में जिनका नाम सुनकर ही सारे सैनिक विदीर्ण हो जाते हैं, उन्हीं गाण्डीवधारी अर्जुन का वेग रणक्षेत्र में कौन मनुष्य सह सकता है?
जहाँ सारी सेनाएँ काँप उठी, समस्त वीरों के मन में भय समा गया, वहाँ किन वीरों ने द्रोणाचार्य का साथ नहीं छोड़ा और कौन-कौन से अधम सैनिक भय के मारे मैदान छोड़कर भाग गये? मानवेतर प्राणियों पर भी विजय पाने वाले वीर अर्जुन को युद्ध में अपने प्रतिकूल पाकर किन वीरों ने वहाँ अपने शरीरों को निछावर करके मृत्यु को स्वीकार किया? मेरे सैनिक श्वेतवाहन अर्जुन के वेग और वर्षाकाल के मेघ की गम्भीर गर्जना की भाँति गाण्डीव धनुष की टंकार ध्वनि को नहीं सह सकेंगे।
जिसके सारथि भगवान श्रीकृष्ण और योद्धा वीर धनंजय हैं, उस रथ को जीतना मैं देवताओं तथा असुरों के लिये भी असम्भव मानता हूँ। सुकुमार, तरुण, शूरवीर, दर्शनीय, मेधावी, युद्धकुशल, बुद्धिमान और सत्यपराक्रमी पाण्डुपुत्र नकुल जब युद्ध में जोर-जोर से गर्जना करके समस्त सैनिकों को पीड़ित करते हुए द्रोणाचार्य पर चढ़ आये, उस समय किन वीरों ने उन्हें रोका था? विषधर सर्प के समान क्रोध में भरे हुए तथा तेज से दुर्जय सहदेव जब युद्ध में शत्रुओं का संहार करते हुए द्रोणाचार्य के सामने आये, उस समय श्रेष्ठ व्रतधारी अमोघ बाणों वाले लज्जाशील और अपराजित वीर सहदेव को आते देख किन शूरवीरों ने उन्हें रोका था?
जिन्होंने सौवीरराज की विशाल सेना को मथकर उनकी सर्वांग सुन्दरी कमनीय कन्या भोजा को अपनी रानी बनाने के लिये हर लिया था, उन पुरुष शिरोमणि सात्यकि में सत्य, धैर्य, शौर्य और विशुद्ध ब्रह्मचर्य आदि सारे सद्गुण विद्यमान रहते हैं।
वे सात्यकि बलवान, सत्यपराक्रमी, उदार, अपराजित युद्ध में वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के समान शक्तिशाली, अवस्था में उनसे कुछ छोटे, अर्जुन से ही शिक्षा पाकर बाणविद्या में श्रेष्ठ अस्त्रों के संचालन में कुंतीकुमार अर्जुन के तुल्य यशस्वी हैं। उन वीरवर सात्यकि को किसने द्रोणाचार्य के पास आने से रोका? वृष्णिवंश के श्रेष्ठ शूरवीर सात्यकि सम्पूर्ण धनुर्धरों में उत्तम हैं। वे अस्त्र-विधा, यश तथा पराक्रम में परशुराम जी के समान हैं।
जैसे भगवान श्रीकृष्ण में तीनों लोक स्थित हैं, उसी प्रकार सात्वतवंशी सात्यकि में सत्य, धैर्य, बुद्धि, शौर्य तथा परम उत्तम ब्रह्मास्त्र विद्यमान हैं। इस प्रकार सर्वसद्गुणसम्पन्न महाधनुर्धर सात्यकि को रोकना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। उनके पास पहुँचकर किन शूरवीरों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका?
पांचालों मे उत्तम श्रेष्ठ कुल एवं ख्याति के प्रेमी, सदा सत्कर्म करने वाले, संग्राम में उत्तम आत्मबल का परिचय देने वाले, अर्जुन के हितसाधन में तत्पर, मेरा अनर्थ करने के लिये उद्यत रहने वाले, यमराज, कुबेर, सूर्य, इन्द्र और वरुण के समान तेजस्वी, विख्यात महारथी तथा भयंकर युद्ध में अपने प्राणों को निछावर करके द्रोणाचार्य से भिड़ने के लिये सदा तैयार रहने वाले वीर धृष्टद्युम्न को किन शूरवीरों ने रोका?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)
जिसने अकेले ही चेदि देश से आकर पाण्डव पक्ष का आश्रय लिया है, उस धृष्टकेतु को द्रोण के पास आने से किसने रोका? जिस वीर ने अपरान्त पर्वत के द्वारदेश में स्थित दुर्जय राजकुमार का वध किया, उस केतुमान को द्रोणाचार्य के पास आने से किसने रोका?
जो पुरुषसिंह स्त्री और पुरुष दोनों शरीरों के गुण अवगुण को अपने अनुभव द्वारा जानता है, युद्धस्थल में जिसका मन कभी म्लान नहीं होता, जो समरांगण में महात्मा भीष्म की मृत्यु में हेतु बन चुका है, उस द्रुपदपुत्र शिखण्डी को द्रोणाचार्य के सम्मुख आने से किन वीरों ने रोका था? जिस वीर में अर्जुन से भी अधिक मात्रा में समस्त गुण मौजूद हैं, जिसमें अस्त्र, सत्य तथा ब्रह्मचर्य सदा प्रतिष्ठित हैं, जो पराक्रम में भगवान श्रीकृष्ण, बल में अर्जुन, तेज में सूर्य और बुद्धि में बृहस्पति के समान है, वह महामना अभिमन्यु जब मुँह फैलाये हुए काल के समान द्रोणाचार्य के सम्मुख जा रहा था, उस समय किन शूरवीरों ने उसे रोका था?
तरुण अवस्था और तरुण बुद्धि वाले शत्रुवीरों के हन्ता सुभद्राकुमार ने जब द्रोणाचार्य पर धावा किया था, उस समय तुम लोगों का मन कैसा हो रहा था? पुरुषसिंह द्रौपदीकुमार समुद्र की ओर जाने वाली नदियों की भाँति जब द्रोणाचार्य पर धावा कर रहे थे, उस समय युद्ध में किन शूरवीरों ने उनको रोका था? इन द्रौपदीकुमारों ने बारह वर्षों तक खेल-कूद छोड़कर अस्त्रों की शिक्षा पाने के लिये उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भीष्म के समीप निवास किया था।
क्षत्रंजय, क्षत्रदेव तथा दूसरों को मान देने वाले क्षत्रवर्मा ये धृष्टद्युम्न के तीन वीर पुत्र हैं। उन्हें द्रोण के पास आने से किन वीरों ने रोका था? जिन्हें युद्ध के मैदान में वृष्णिवंशियों ने सौ वीरों से भी अधिक माना है, उन महाधनुर्धर चेकितान को द्रोण के पास आने से किसने रोका? वृद्धक्षेम के पुत्र उदारचित्त अनाधृष्टि ने युद्धस्थल में कलिंगराज की कन्या का अपहरण किया था। उन्हें द्रोण के पास आने से किसने रोका? केकय देश के सत्यपराक्रमी, धर्मात्मा पाँच वीर राजकुमार लाल रंग के कवच, आयुध और ध्वज धारण करने वाले हैं तथा उनके शरीर की कान्ति भी इन्द्रगोप के समान लाल रंग की है; वे पाण्डवों की मौसी के बेटे हैं। वे जब पाण्डवों की विजय के लिये द्रोणाचार्य को मारने के लिये उन पर चढ़ आये, उस समय किन वीरों ने उन्हें रोका था? वारणावत नगर में सब राजा लोग मार डालने की इच्छा से क्रोध में भरकर छ: महीनों तक युद्ध करते रहने पर भी योद्धाओं में श्रेष्ठ जिस वीर को परास्त न कर सके, धनुर्धरों मे उत्तम, शौर्य सम्पन्न, सत्यप्रतिज्ञ, महाबली, उस पुरुषसिंह युयुत्सु को द्रोणाचार्य के पास आने से किसने रोका?
जिसने काशीपुरी में काशिराज के महारथी पुत्र को, जो स्त्रियों के प्रति आसक्त था, समरभूमि में भल्ल नामक बाण द्वारा रथ से मार गिराया; जो कुन्तीकुमारों की गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित रखने वाला तथा दुर्योधन का अनर्थ करने के लिये उद्यत रहने वाला है तथा जिसकी उत्पति द्रोणाचार्य के वध के लिये हुई है; वह महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न जब रणक्षेत्र में योद्धाओं को अपने बाणों की अग्नि से जलाता और सब ओर से सारी सेना को विदीर्ण करता हुआ द्रोणाचार्य के सम्मुख आ रहा था, उस समय किन शूरवीरों ने उसे रोका था?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 63-77 का हिन्दी अनुवाद)
जो द्रुपद की गोद में पला हुआ था और शस्त्रों द्वारा सुरक्षित था, अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ उस शिखण्डीपुत्र को द्रोणाचार्य के पास आने से किन वीरों ने रोका? जैसे चमड़े को अंगों में लपेट लिया जाता है, उसी प्रकार जिन्होंने अपने रथ के महान घोष द्वारा इस सारी पृथ्वी को व्याप्त कर लिया था, जो प्रधान-प्रधान शत्रुओं का वध करने वाले और महारथी वीर थे, जिन्होंने प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते हुए सुन्दर अन्न, पान तथा प्रचुर दक्षिणा से युक्त एवं विघ्नरहित दस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया और कितने ही सर्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये, वे राजा उशीनर के वीर पुत्र सर्वत्र विख्यात है, गंगा जी के स्त्रोत में जितने सिकता कण बहते हैं, उतनी ही अर्थात असंख्य गौएँ उशीनर कुमार ने अपने यज्ञ में ब्राह्मणों को दी थीं।
राजा जब उस दुष्कर यज्ञ का अनुष्ठान पूर्ण कर चुके, तब सम्पूर्ण देवताओं ने यह पुकार-पुकार कर कहा कि ऐसा यज्ञ पहले के और बाद के भी मनुष्यों ने कभी नहीं किया था। स्थावर जंगमरूप तीनों लोकों मे एकमात्र उशीनरपौत्र शैव्य को छोड़कर दूसरे किसी ऐसे राजा को न तो हम इस समय उत्पन्न हुआ देखते हैं और न भविष्य में किसी के उत्पन्न होने का लक्षण ही देख पाते हैं, जो इस महान भार को वहन करने वाला हो। इस मर्त्यलोक के निवासी मनुष्य उनकी गति को नहीं पा सकेंगे। उन्हीं उशीनर का पौत्र शैब्य सावधान हो जब द्रोणाचार्य के सम्मुख आ रहा था, उस समय मुँह फैलाये हुए काल के समान उस वीर को किसने रोका?
शत्रुघाती मत्स्यराज विराट की रथसेना को, जो द्रोणाचार्य को नष्ट करने की इच्छा से खोजती हुई आ रही थी, किन वीरों ने रोका था? जो भीमसेन से तत्काल प्रकट हुआ तथा जिससे मुझे महान भय बना रहता है, वह महान बल और पराक्रम से सम्पन्न मायावी राक्षस वीर घटोत्कच कुन्तीकुमारों की विजय चाहता है और मेरे पुत्रों के लिये कंटक बना हुआ है, उस महाकाय घटोत्कच को द्रोणाचार्य के पास आने से किसने रोका?
संजय! ये तथा और भी बहुत से वीर जिनके लिये युद्ध में प्राण त्याग करने को तैयार हैं, उनके लिये कौन-सी ऐसी वस्तु होगी, जो जीती न जा सके। शांर्ग धनुष धारण करने वाले पुरुषसिंह भगवान श्रीकृष्ण जिनके आश्रय तथा हित चाहने वाले हैं, उन कुन्तीकुमारों की पराजय कैसे हो सकती है? भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के परम गुरु हैं, समस्त लोकों के सनातन स्वामी हैं, संग्रामभूमि में सबकी रक्षा करने वाले दिव्य स्वरूप, सामर्थ्यशाली, दिव्य नारायण हैं। मनीषी पुरुष जिनके दिव्य कर्मों का वर्णन करते हैं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का अपने मन की स्थिरता के लिये भक्ति पूर्वक वर्णन करूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में धृतराष्ट्र वाक्यविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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