(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म जी के धराशायी होने से कौरवों का शोक तथा उनके द्वारा कर्ण का स्मरण”
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, भगवती सरस्वती और महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! अनुप सत्व, ओज, बल और पराक्रम से सम्पन्न देवव्रत भीष्म को पांचालराज शिखण्डी के हाथ से मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र के नेत्र शोक से व्याकुल हो उठे होंगे। ब्रह्मर्षे! अपने ज्येष्ठ पिता के मारे जाने पर पराक्रमी धृतराष्ट्र ने कैसी चेष्टा की? भगवन! उनका पुत्र दुर्योधन, भीष्म, द्रोण आदि महारथियों के द्वारा महाधनुर्धर पाण्डवों को पराजित करके स्वयं राज्य हथिया लेना चाहता था।
भगवन! तपोधन! सम्पूर्ण धनुर्धरों के ध्वजस्वरूप भीष्म जी के मारे जाने पर कुरुवंशी दुर्योधन ने जो प्रयत्न किया हो, वह सब मुझे बताइये।
वैशम्पायनजी ने कहा ;– जनमेजय! ज्येष्ठ पिता को मारा गया सुनकर कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र चिन्ता और शोक में डूब गये। उन्हें क्षणभर को भी शान्ति नहीं मिल रही थी। वे भूपाल निरन्तर उस दु:खदायिनी घटना का ही चिन्तन करते रहे। उसी समय विशुद्ध अन्त:करण वाला गवल्गणपुत्र संजय पुन: उनके पास आया। महाराज! रात के समय कुरुक्षेत्र के शिविर से हस्तिनापुर में आये हुए संजय से अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने वहाँ का समाचार पूछा। भीष्म की मृत्यु का वृत्तान्त सुनकर मन सर्वथा अप्रसन्न एवं उत्साहशून्य हो गया था। वे अपने पुत्रों की विजय चाहते हुए आतुर की भाँति विलाप कर रहे थे।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– तात! संजय! भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्म के लिये अत्यन्त शोक करके कालप्रेरित कौरवों ने आगे कौन-सा कार्य किया। उन दुर्धर्ष वीर महात्मा भीष्म के मारे जाने पर तो समस्त कुरुवंशी शोक के समुद्र में डूब गये होंगे; फिर उन्होंने कौन-सा कार्य किया। संजय! महात्मा पाण्डवों की वह विशाल एवं प्रचण्ड सेना तो तीनों लोकों के हृदय में तीव्र भय उत्पन्न कर सकती है। उस महान भय के अवसर पर दुर्योधन की सेना में कौन ऐसा वीर महारथी पुरुष था, जिसका आश्रय पाकर समरांगण में वीर कौरव भयभीत नहीं हुए हैं। संजय! कुरुश्रेष्ठ देवव्रत के मारे जाने पर उस समय सब राजाओं ने कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! उस युद्ध में देवव्रत भीष्म के मारे जाने पर उस समय आपके पुत्रों ने जो कार्य किया, वह सब मैं बता रहा हूँ। मेरे इस कथन को आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये। राजन! जब सत्यपराक्रमी भीष्म मार दिये गये, उस समय आपके पुत्र और पाण्डव अलग-अलग चिन्ता करने लगे। पुरुषसिंह! वे क्षत्रिय–धर्म का विचार करके अत्यन्त विस्मित और प्रसन्न हुए। फिर अपने कठोरतापूर्ण धर्म की निन्दा करते हुए उन्होंने महात्मा भीष्म को प्रणाम किया और उन अमित पराक्रमी भीष्म के लिये झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा तकिये और शय्या की रचना की। इसी प्रकार परस्पर वार्तालाप करके भीष्म जी की रक्षा की व्यवस्था कर दी और उन गंगानन्दन देवव्रत की अनुमति ले उनकी परिक्रमा करके आपस में मिलकर वे कालप्रेरित क्षत्रिय क्रोध से लाल आँखें किये पुन: युद्ध के लिये निकले।
तदनन्तर बाजों की ध्वनि और नगाड़ों की गडगड़ाहट के साथ आपकी तथा पाण्डवों की सेनाएँ युद्ध के लिये निकलीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! जिस समय गंगानन्दन भीष्म रथ से गिरे थे, उस समय सूर्य पश्चिम दिशा में ढल चुके थे। यद्यपि महात्मा गंगानन्दन भीष्म ने उन सबको युद्ध बंद कर देने की सलाह दी थी, तथापि काल से विवेक शक्ति नष्ट हो जाने के कारण वे भरतश्रेष्ठ क्षत्रिय उनके हितकर वचन की अवहेलना करके अमर्ष के वशीभूत हो हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये तुरंत ही युद्ध के लिये निकल पड़े। पुत्र सहित आपके मोह से और शान्तनुनन्दन भीष्म का वध हो जाने से समस्त राजाओं सहित सम्पूर्ण कुरूवंशी मृत्यु के अधीन हो गये हैं। जैसे हिसंक जन्तुओं से भरे हुए वन में बिना रक्षक की भेड़ और बकरियाँ भय से उद्विग्न रहती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक देवव्रत से रहित हो मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे।
भरतशिरोमणि भीष्म के धराशायी हो जाने पर कौरव-सेना नक्षत्ररहित आकाश, वायुशून्य अन्तरिक्ष, नष्ट हुई खेती वाली भूमि, असंस्कृत वाणी तथा राजा बलि के बाँध लिये जाने पर नायकविहीन हुई असुरों की सेना के समान अद्विग्न, असमर्थ और श्रीहीन हो गयी। गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्म के धराशायी होने पर भरत-वंशियों की सेना विधवा सुन्दरी के समान, जिसका पानी सूख गया हो, उस नदी के समान, जिसे भेड़ियों ने वन में घेर रक्खा हो और जिसका साथी यूथप मार डाला गया हो, उस चितकबरी मृगी के समान तथा शरभ ने जिसमें रहने वाले सिंह को मार डाला हो, उस विशाल कन्दरा के समान भयभीत, विचलित और श्रीहीन जान पड़ती थी। वीर और बलवान पाण्डव अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक मार गिराने वाले थे, उनके द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर आपकी सेना महासागर में चारों और से वायु के थपेड़े खाकर टूटी हुई नौका के समान बड़ी विपत्ति में फँस गयी। उस समय आपकी सेना के घोड़े, रथ और हाथी सब अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। उसके अधिकांश सैनिक अपने प्राण खो चुके थे। उसका दिल बैठ गया था और वह अत्यन्त दीन हो रही थी। उस सेना के भिन्न-भिन्न सैनिक, नरेशगण अत्यन्त भयभीत हो देवव्रत भीष्म के बिना मानो पाताल में डूब रहे थे।
उस समय कौरवों ने कर्ण का स्मरण किया। जैसे गृहस्थ का मन अतिथि की ओर तथा आपत्ति में पड़े हुए मनुष्य का मन अपने मित्र या भाई-बन्धु की ओर जाता है, उसी प्रकार कौरवों का मन समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ एवं तेजस्वी वीर कर्ण की ओर गया; क्योंकि वही भीष्म के समान पराक्रमी समझा जाता था। भारत! वहाँ सब राजा ‘कर्ण! कर्ण!’ की पुकार करने लगे। वे कहने लगे कि ‘राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण हमारा हितैषी है। हमारे लिये अपना शरीर निछावर किये हुए है। अपने मन्त्रियों और बन्धुओं के साथ महायशस्वी कर्ण ने दस दिनों तक युद्ध नहीं किया है। उसे शीघ्र बुलाओ। देर न करो।
राजन! बात यह हुई थी कि जब बल और पराक्रम से सुशोभित रथियों की गणना की जा रही थी, उस समय समस्त क्षत्रियों के देखते-देखते भीष्म जी ने महाबाहु नरश्रेष्ठ कर्ण को अर्धरथी बता दिया। यद्यपि वह दो रथियों के समान है। रथियों और अतिरथियों की संख्या में वह अग्रगण्य और शूरवीर के सम्मान का पात्र है। रणक्षेत्र में असुरों सहित सम्पूर्ण देवेश्ररों के साथ भी वह युद्ध करने का उत्साह रखता है।
राजन! अर्धरथी बताने के कारण ही क्रोधवश उसने गंगानन्दन भीष्म से कहा,
कर्ण ने कहा ;– ‘कुरूनन्दन! आपके जीते-जी मैं कदापि युद्ध नहीं करूँगा। कौरव! यदि आप उस महासमर में पाण्डुपुत्रों को मार डालेंगे तो मैं दुर्योधन की अनुमति लेकर वन को चला जाऊँगा। ‘अथवा यदि पाण्डवों के द्वारा मारे जाकर आप स्वर्ग-लोक में पहुँच गये तो मैं एकमात्र रथ की सहायता से उन सबको मार डालूँगा, जिन्हें आप रथी मानते हैं’।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 41-53 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा कहकर महाबाहु महायशस्वी कर्ण आपके पुत्र की सम्मति ले दस दिनों तक युद्ध में सम्मिलित नहीं हुआ। भारत! समरभूमि में पराक्रम प्रकट करने वाले अनन्त पराक्रमी भीष्म ने युद्धस्थल में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के बहुत से योद्धाओं को मार डाला। उन महापराक्रमी सत्यप्रतिज्ञ शूरवीर भीष्म के मारे जाने पर आपके पुत्रों ने कर्ण का उसी प्रकार स्मरण किया, जैसे पार जाने की इच्छा वाले पुरुष नाव की इच्छा करते हैं। समस्त राजाओं सहित आपके पुत्र और सैनिक ‘हा कर्ण’ कहकर विलाप करने लगे और बोले– ‘कर्ण! तुम्हारे पराक्रम का यह अवसर आया है’।
इस प्रकार आपके महाबली योद्धा लोग राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण को, जो दुर्योधन के लिये अपना शरीर निछावर किये बैठा था, एक साथ पुकारने लगे। राजन! कर्ण ने जमदग्निनन्दन परशुराम जी से अस्त्र–विधा की शिक्षा प्राप्त की है और उसका पराक्रम दुर्निवार्य है। इसलिये हम लोगों का मन कर्ण की ओर गया, ठीक वैसे ही, जैसे बड़ी भारी आपत्ति के समय मनुष्य का मन अपने मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियों की ओर जाता है। राजन! जैसे भगवान विष्णु देवताओं की सदा अत्यन्त महान भय से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कर्ण हमें भारी भय से उबारने में समर्थ है।
वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! जब संजय इस प्रकार बार-बार कर्ण का नाम ले रहा था, उस समय राजा धृतराष्ट्र ने विषधर सर्प के समान उच्छ्वास लेकर इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! जब तुम लोगों का मन विकर्तनपुत्र कर्ण की ओर गया, तब क्या तुमने शरीर निछावर करने वाले सूतपुत्र राधानन्दन कर्ण को वहाँ देखा? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि संकट में पड़कर घबराये हुए और भयभीत होकर अपनी रक्षा चाहते हुए कौरवों की प्रार्थना को सत्यपराक्रमी कर्ण ने निष्फल कर दिया हो? भीष्म के मारे जाने पर युद्धस्थल में कौरवों के पक्ष में जो कमी आ गयी थी, क्या उसे धनुर्धारियों में श्रेष्ठ कर्ण ने पूरा कर दिया? क्या उस खण्डित अंश की पूर्ति करके कर्ण ने शत्रुओं के मन में भय उत्पन्न किया? संजय! जगत मे कर्ण को ‘पुरुषसिंह’ कहा जाता है।
क्या उसने रणभूमि में शोकार्त होकर विशेष रूप से क्रन्दन करने वाले अपने उन बन्धुजनों की रक्षा एवं कल्याण के लिये अपने प्राणों का परित्याग करके मरे पुत्रों की विजयाभिलाषा को सफल किया?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में धृतराष्ट्र-प्रश्नविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
द्वितीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण की रणयात्रा”
संजय कहते हैं ;- राजन! अधिरथनन्दन सूतपुत्र कर्ण यह जानकर कि भीष्मजी के मारे जाने पर कौरवों की सेना अगाध महासागर में टूटी हुई नौका के समान संकट में पड़ गयी है, सगे भाई के समान आपके पुत्र की सेना को संकट से उबारने के लिये चला।
राजन! तत्पश्चात योद्धाओं के मुख से अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले पुरुषप्रवर शान्तनुनन्दन महारथी भीष्म के मारे जाने का विस्तृत वृत्तान्त सुनकर धनुर्धरों में श्रेष्ठ शत्रुसूदन कर्ण सहसा दुर्योधन के समीप चल दिया। रथियों में श्रेष्ठ भीष्म के शत्रुओं द्वारा मारे जाने पर, जैसे पिता अपने पुत्रों को संकट से बचाने के लिये जाता हो, उसी प्रकार सूतपुत्र कर्ण डूबती हुई नौका के समान आपके पुत्र की सेना को संकट से उबारने के लिये बड़ी उतावली के साथ दुर्योधन के निकट आ पहुँचा। शत्रुसमूह का विनाश करने वाले कर्ण ने परशुराम जी के दिये हुए दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा ली और उस पर हाथ फेरकर कालाग्नि तथा वायु के समान शक्तिशाली बाणों को ऊपर उठाते हुए इस प्रकार कहा।
कर्ण बोला ;– ब्राह्मणों के शत्रुओं का विनाश करने वाले तथा अपने ऊपर किये हुए उपकारों का आभार मानने वाले जिन वीर शिरोमणि भीष्म जी में चन्द्रमा में सदा सुशोभित होने वाले शशचिह्न के समान सदा धृति, बुद्धि, पराक्रम, ओज, सत्य, स्मृति, विनय, लज्जा, प्रियवाणी तथा अनसूया– ये सभी विरोचित गुण तथा दिव्यास्त्र शोभा पाते थे, वे शत्रुवीरों के हन्ता देवव्रत यदि सदा के लिये शान्त हो गये तो मैं सम्पूर्ण वीरों को मारा गया ही मानता हूँ। निश्चय ही इस संसार में कर्मों के अनित्य सम्बन्ध से कभी कोई वस्तु स्थिर नहीं रहती है। श्रेष्ठ एवं महान व्रतधारी भीष्म जी के मारे जाने पर कौन संशयरहित होकर कह सकता है कि कल सूर्योदय होगा ही।
भीष्मजी में वसु देवताओं के समान प्रभाव था। वसुओं के समान शक्तिशाली महाराज शान्तनु से उनकी उत्पति हुई थी। ये वसुधा के स्वामी भीष्म अब वसु देवताओं को ही प्राप्त हो गये हैं; अत: उनके अभाव में तुम सभी लोग अपने धन, पुत्र, वसुन्धरा, कुरुवंश, कुरूदेश की प्रजा तथा इस कौरव सेना के लिये शोक करो।
संजय कहते हैं ;- महान प्रभावशाली वर देने में समर्थ लोकेश्वर शासक तथा अमित तेजस्वी भीष्म के मारे जाने पर भरतवंशियों की पराजय होने से कर्ण मन-ही-मन बहुत दुखी हो नेत्रों से आँसू बहाता हुआ लंबी साँस खीचनें लगा। राजन! राधानन्दन कर्ण की यह बात सुनकर आपके पुत्र और सैनिक एक-दूसरे की ओर देखकर शोकवश बारंबार फूट-फूटकर रोने तथा नेत्रों से आँसू बहाने लगे। पाण्डव सेना के राजा लोगों द्वारा जब कौरव-सेना का ध्वंस होने लगा और बड़ा भारी संग्राम आरम्भ हो गया, तब सम्पूर्ण महारथियों में श्रेष्ठ कर्ण समस्त श्रेष्ठ रथियों का हर्ष और उत्साह बढ़ाता हुआ इस प्रकार बोला। ‘सदा मृत्यु की ओर दौड़ लगाने वाले इस अनित्य संसार में आज मुझे बहुत चिन्तन करने पर भी कोई वस्तु स्थिर नहीं दिखायी देती; अन्यथा युद्ध में आप जैसे शूरवीरों के रहते हुए पर्वत के समान प्रकाशित होने वाले कुरुश्रेष्ठ भीष्म कैसे मार गिराये गये?
‘महारथी शान्तनुनन्दन भीष्म का रण में गिराया जाना सूर्य के आकाश से गिरकर पृथ्वी पर आ पड़ने के समान है। यह हो जाने पर समस्त भूपाल अर्जुन का वेग सहन करने में असमर्थ हैं, जैसे पर्वतों को भी ढोने वाले वायु का वेग साधारण वृक्ष नहीं सह सकते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)
आज यह कौरवदल अपने प्रधान सेनापति के मारे जाने से अनाथ एवं अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। शत्रुओं ने इसके उत्साह को नष्ट कर दिया है। इस समय संग्रामभूमि में मुझे इस कौरव सेना की उसी प्रकार रक्षा करनी है, जैसे महात्मा भीष्म किया करते थे। मैंने यह भार अपने ऊपर ले लिया। जब मैं यह देखता हूँ कि सारा जगत अनित्य है तथा युद्धकुशल भीष्म भी युद्ध में मारे गये हैं, तब ऐसे अवसर पर मैं भय किस लिये करूँ? मैं उन कुरुप्रवर पाण्डवों को अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा यमलोक पहुँचाकर रणभूमि में विचरूँगा और संसार में उत्तम यश का विस्तार करके रहूँगा अथवा शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर युद्धभूमि में सदा के लिये सो जाऊँगा। युधिष्ठिर धैर्य, बुद्धि, सत्य और सत्त्वगुण से सम्पन्न हैं। भीमसेन का पराक्रम सैकड़ों हाथियों के समान है तथा अर्जुन भी देवराज इन्द्र के पुत्र एवं तरुण हैं। अत: पाण्डवों की सेना को सम्पूर्ण देवता भी सुगमतापूर्वक नहीं जीत सकते। जहाँ रणभूमि में यमराज के समान नकुल और सहदेव विद्यमान हैं, जहाँ सात्यकि तथा देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण हैं, उस सेना में कोई कायर मनुष्य प्रवेश कर जाये तो वह मौत के मुख से जीवित नहीं निकल सकता। मनस्वी पुरुष बढ़े हुए तप का तप से और प्रचण्ड बल का बल से ही निवारण करते हैं। यह सोचकर मेरा मन भी शत्रुओं को रोकने के लिये दृढ़ निश्चय किये हुए है तथा अपनी रक्षा के लिये भी पर्वत की भाँति अविचल भाव से स्थित है।
फिर कर्ण अपने सारथि से कहने लगा- सूत! इस प्रकार मैं युद्ध में जाकर इन शत्रुओं के बढ़ते हुए प्रभाव को नष्ट करते हुए आज इन्हें जीत लूँगा। मेरे मित्रों के साथ कोई द्रोह करे, यह मुझे सह्य नहीं। जो सेना के भाग जाने पर भी साथ देता है, वही मित्र है। या तो मैं सत्पुरुषों के करने योग्य इस श्रेष्ठ कार्य को सम्पन्न करूँगा अथवा अपने प्राणों का परित्याग करके भीष्मजी के ही पथ पर चला जाऊँगा। मैं संग्रामभूमि में शत्रुओं के समस्त समुदायों का संहार कर डालूँगा अथवा उन्हीं के हाथ से मारा जाकर वीर-लोक प्राप्त कर लूँगा।
सूत! दुर्योधन का पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया है। उसके स्त्री-बच्चे रो-रोकर 'त्राहि-त्राहि' पुकार रहे हैं। ऐसे अवसर पर मुझे क्या करना चाहिये, यह मैं जानता हूँ। अत: आज मैं राजा दुर्योधन के शत्रुओं को अवश्य जीतूँगा। कौरवों की रक्षा और पाण्डवों के वध की इच्छा करके मैं प्राणों की भी परवाह न कर इस महाभयंकर युद्ध में समस्त शत्रुओं का संहार कर डालूँगा और दुर्योधन को सारा राज्य सौंप दूँगा। तुम मेरे शरीर में मणियों तथा रत्नों से प्रकाशित सुन्दर एवं विचित्र सुवर्णमय कवच बाँध दो और मस्तक पर सूर्य के समान तेजस्वी शिरस्त्राण रख दो। अग्नि, विष तथा सर्प के समान भयंकर बाण एवं धनुष ले आओ। 'मेरे सेवक बाणों से भरे हुए सोलह तरकश रख दें, दिव्य धनुष ले आ दें, बहुत- से खड्गों, शक्तियों, भारी गदाओं तथा सुवर्णजटित विचित्र नाल वाले शंख को भी ले आकर रख दें। हाथी को बाँधने के लिये बनी हुई इस विचित्र सुनहरी रस्सी को तथा कमल के चिह्न से युक्त दिव्य एवं अद्भुत ध्वज को स्वच्छ सुन्दर वस्त्रों से पोंछकर ले आवें। इसके सिवा सुन्दर ढंग से गुँथी हुई विचित्र माला और खील आदि मांगलिक वस्तुएँ प्रस्तुत करें।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 26-37 का हिन्दी अनुवाद)
सूतपुत्र! तुम शीघ्र ही मेरे लिये श्रेष्ठ एवं शीघ्रगामी घोड़े ले आओ, जो श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल तथा मन्त्रपूत जल से नहाये हुए हों, शरीर से हृष्टपुष्ट हों और जिन्हें सोने के आभूषणों से सजाया गया हो। उन्ही घोड़ों से जुता हुआ सुन्दर रथ शीघ्र ले आओ, जो सोने की मालाओं से अलंकृत, सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित होने वाले विचित्र रत्नों से जटित तथा युद्धोपयोगी सामग्रियों से सम्पन्न हो। विचित्र एवं वेगशाली धनुष, उत्तम प्रत्यंचा, कवच, बाणों से भरे हुए विशाल तरकश और शरीर के आवरण- इन सबको लेकर शीघ्र तैयार हो जाओ। वीर! रणयात्रा की सारी आवश्यक सामग्री, दही से भरे हुए कांस्य और सुवर्ण के पात्र आदि सब कुछ शीघ्र ले आओ। यह सब लाने के पश्चात मेरे गले में माला पहनाकर विजय-यात्रा के लिये तुम लोग तुरंत नगाड़े बजवा दो। सूत! यह सब कार्य करके तुम शीघ्र ही रथ लेकर उस स्थान पर चलो, जहाँ किरीटधारी अर्जुन, भीमसेन, धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा नकुल-सहदेव खड़े हैं। वहाँ युद्धस्थल में उनसे भिड़कर या तो उन्हीं को मार डालूँगा। या स्वंय ही शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर भीष्म के पास चला जाऊँगा।
जिस सेना में सत्यधृति राजा युधिष्ठिर खड़े हों, भीमसेन, अर्जुन, वासुदेव, सात्यकि तथा सृंजय मौजूद हों, उस सेना को मैं राजाओं के लिये अजेय मानता हूँ। तथापि मैं समरभूमि में सावधान रहकर युद्ध करूँगा और यदि सबका संहार करने वाली मृत्यु स्वयं आकर अर्जुन की रक्षा करे तो भी मैं युद्ध के मैदान में उनका सामना करके उन्हें मार डालूँगा अथवा स्वयं ही भीष्म के मार्ग से यमराज का दर्शन करने के लिये चला जाऊँगा।
अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि मैं उन शूरवीरों के बीच में न जाऊँ। इस विषय में मैं इतना ही कहता हूँ कि जो मित्रद्रोही हों, जिनकी स्वामी भक्ति दुर्बल हो तथा जिनके मन में पाप भरा हो; ऐसे लोग मेरे साथ न रहें।
संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसा कहकर कर्ण वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए, कूबर और पताका से युक्त, सुवर्णभूषित, सुन्दर, समृद्धिशाली, सुदृढ़ तथा श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो युद्ध में विजय पाने के लिये चल दिया। उस समय देवगणों से इन्द्र की भाँति समस्त कौरवों से पूजित हो रथियों में श्रेष्ठ, भयंकर धनुर्धर, महामनस्वी कर्ण युद्ध के उस मैदान में गया, जहाँ भरतशिरोमणि भीष्म का देहावसान हुआ था। सुवर्ण, मुक्ता, मणि तथा रत्नों की माला से अलंकृत सुन्दर ध्वजा से सुशोभित, उत्तम घोड़ों से जुते हुए तथा मेघ के समान गंभीर घोष करने वाले रथ के द्वारा अमित तेजस्वी कर्ण विशाल सेना साथ लिये युद्धभूमि की ओर चल दिया।
अग्नि के समान तेजस्वी अपने सुन्दर रथ पर बैठा हुआ अग्नि सदृश कान्तिमान, सुन्दर एवं धनुर्धर महारथी अधिरथपुत्र कर्ण विमान में विराजमान देवराज इन्द्र के समान सुशोभित हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व में कर्ण की रणयात्राविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
तृतीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म जी के प्रति कर्ण का कथन”
संजय कहते हैं ;- महाराज! अमित तेजस्वी महात्मा भीष्म बाण-शय्या पर सो रहे थे। उस समय वे प्रलयकालीन महावायुसमूह से सोख लिये गये समुद्र के समान जान पड़ते थे। समस्त क्षत्रियों का अन्त करने में समर्थ गुरु एवं पितामह महाधनुर्धर भीष्म को सव्यसाची अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्रों के द्वारा मार गिराया था। उन्हें उस अवस्था में देखकर आपके पुत्रों की विजय की आशा भंग हो गयी। उन्हें अपने कल्याण की भी आशा नहीं रही। उनके रक्षाकवच भी छिन्न-भिन्न हो गये। कहीं पार न पाने वाले तथा अथाह समुद्र में थाह चाहने वाले कौरवों के लिये भीष्म जी द्वीप के समान आश्रय थे, जो पार्थ द्वारा धराशायी कर दिये गये थे।
वे यमुना के जलप्रवाह के समान बाणसमूह से व्याप्त हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो महेन्द्र ने असह्य मैनाक पर्वत को धरती पर गिरा दिया हो। वे आकाश से च्युत होकर पृथ्वी पर पड़े हुए सूर्य के समान तथा पूर्वकाल मे वृत्रासुर से पराजित हुए अचिन्त्य देवराज इन्द्र के सदृश प्रतीत होते थे। उस युद्धस्थल में भीष्म का गिराया जाना समस्त सैनिकों को मोह में डालने वाला था। आपके ज्येष्ठ पिता महान व्रतधारी भीष्म समस्त सैनिकों में श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धनुर्धरों के शिरोमणि थे। वे अर्जुन के बाणों से व्याप्त होकर वीरशय्या पर सो रहे थे। उन भारतवंशी वीर पुरुषप्रवर भीष्म को उस अवस्था में देखकर अधिरथपुत्र महातेजस्वी कर्ण अत्यन्त आर्त होकर रथ से उतर पड़ा और अंजलि बाँध अभिवादन पूर्वक प्रणाम करके आँसू से गद्गद वाणी में इस प्रकार बोला।
भारत! आपका कल्याण हो। मैं कर्ण हूँ। आप अपनी पवित्र एवं मंगलमयी वाणी द्वारा मुझसे कुछ कहिये और कल्याणमयी दृष्टि द्वारा मेरी ओर देखिये। निश्चय ही इस लोक में कोई भी अपने पुण्य कर्मों का फल यहाँ नहीं भोगता है; क्योंकि आप वृद्धावस्था तक सदा धर्म में ही तत्पर रहे हैं, तो भी यहाँ इस दशा में धरती पर सो रहे हैं।
कुरुश्रेष्ठ! कोश-संग्रह मन्त्रणा, व्यूह रचना तथा अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार में आपके समान कौरववंश में दूसरा कोई मुझे नहीं दिखायी देता, जो अपनी विशुद्ध बुद्धि से युक्त हो समस्त कौरवों को भय से उबार सके तथा यहाँ बहुत से योद्धाओं का वध करके अन्त में पितृलोक को प्राप्त हो। भरतश्रेष्ठ! आज से कोध्र में भरे हुए पाण्डव उसी प्रकार कौरवों का विनाश करेंगे, जैसे व्याघ्र हिरनों का।
आज गाण्डीव की टंकार करने वाले सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम को जानने वाले कौरव उनसे उसी प्रकार डरेंगे, जैसे वज्रधारी इन्द्र से असुर भयभीत होते हैं। आज गाण्डीव धनुष से छुटे हुए बाणों का वज्रपात के समान शब्द कौरवों तथा अन्य राजाओं को भयभीत कर देगा। वीर! जैसे बड़ी-बड़ी लपटों से युक्त प्रज्वलित हुई आग वृक्षों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन के बाण धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके सैनिकों को जला डालेंगे।
वायु और अग्निदेव– ये दोनों एक साथ वन में जिस-जिस मार्ग से फैलते हैं, उसी-उसी के द्वारा बहुत से तृण, वृक्ष और लताओं को भस्म करते जाते हैं। पुरुषसिंह! जैसी प्रज्वलित अग्नि होती है, वैसे ही कुन्तीकुमार अर्जुन हैं– इसमें संशय नहीं है और जैसी वायु होती है, वैसे ही श्रीकृष्ण हैं, इसमें भी संशय नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! बजते हुए पांचजन्य और टंकारते हुए गाण्डीव धनुष की भयंकर ध्वनि सुनकर आज सारी कौरव सेनाएँ भयभीत हो उठेंगी। वीर! शत्रुसूदन कपिध्वज अर्जुन के उड़ते हुए रथ की घरघराहट को आपके सिवा दूसरे राजा नहीं सह सकेंगे। आपके सिवा दूसरा कौन राजा अर्जुन से युद्ध कर सकता है? मनीषी पुरुष जिनके दिव्य कर्मों का बखान करते हैं, जो मानवेतर प्राणियों–असुरों तथा दैत्यों से भी संग्राम कर चुके हैं, त्रिनेत्रधारी महात्मा भगवान शंकर के साथ भी जिन्होंने युद्ध किया है और उनसे वह उत्तम वर प्राप्त किया है, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये सर्वथा दुर्लभ है, जिन्हें पहले आप भी जीत नहीं सके हैं, उन्हें आज दूसरा कौन युद्ध में जीत सकता है?
आप अपने पराक्रम से शोभा पाने वाले वीर थे। आपने देवताओं तथा दानवों का दर्प दलन करने वाले क्षत्रियहन्ता घोर परशुरामजी को भी युद्ध में जीत लिया है। आज यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अमर्ष में भरकर दृष्टि हर लेने वाले विषधर सर्प के समान अत्यन्त भयंकर युद्धकुशल शूरवीर पाण्डुपुत्र अर्जुन को अस्त्रबल से मार सकूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में कर्णवाक्यविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
चौथा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म जी का कर्ण को प्रोत्साहन देकर युद्ध के लिये भेजना तथा कर्ण के आगमन से कौरवों का हर्षोल्लास”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार बहुत कुछ बोलते हुए कर्ण की बात सुनकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म ने प्रसन्न चित्त होकर देश और काल के अनुसार यह बात कही। कर्ण! जैसे सरिताओं का आश्रय समुद्र, ज्योतिर्मय पदार्थों का सूर्य, सत्य का साधु पुरुष, बीजों का उर्वरा भूमि और प्राणियों की जीविका का आधार मेघ है, उसी प्रकार तुम भी अपने सुहृदों के आश्रयदाता बनो। जैसे देवता सहस्त्रलोचन इन्द्र का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त बन्धु-बान्धव तुम्हारा आश्रय लेकर जीवन धारण करें।
तुम शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले और मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाले होओ। जैसे भगवान विष्णु देवताओं के आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम कौरवों के आधार बनो। कर्ण! तुमने दुर्योधन के लिये विजय की इच्छा रखकर अपनी भुजाओं के बल और पराक्रम से राजपुर में जाकर समस्त काम्बोजों पर विजय पायी है। गिरिव्रज के निवासी नग्नजित आदि नरेश, अम्बष्ठ, विदेह और गान्धार देशीय क्षत्रियों को भी तुमने परास्त किया है। कर्ण! पूर्वकाल में तुमने हिमालय के दुर्ग में निवास करने वाले रणकर्कश किरातों को भी जीतकर दुर्योधन के अधीन कर दिया था।
उत्कल, मेकल, पौण्ड्र, कलिंग, अंध्र, निषाद, त्रिगर्त और बाह्लीक आदि देशों के राजाओं को भी तुमने परास्त किया है। कर्ण! इनके सिवा और भी जहाँ-तहाँ संग्रामभूमि में दुर्योधन का हित चाहने वाले तुम महापराक्रमी शूरवीर ने बहुत से वीरों पर विजय पायी है। तात! कुटुम्बी, कुल और बन्धु-बान्धवों सहित दुर्योधन जैसे सब कौरवों का आधार हैं, उसी प्रकार तुम भी कौरवों के आश्रयदाता बनो। मैं तुम्हारा कल्याणचिन्तन करते हुए तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, जाओ, शत्रुओं के साथ युद्ध करो। रणक्षेत्र में कौरव सैनिकों को कर्तव्य का आदेश दो और दुर्योधन को विजय प्राप्त कराओ। दुर्योधन की तरह तुम भी मेरे पौत्र के समान हो। धर्मत: जैसे मैं उसका हितैषी हूँ, उसी प्रकार तुम्हारा भी हूँ।
नरश्रेष्ठ! संसार मे यौन सम्बन्ध की अपेक्षा साधु पुरुषों के साथ की हुई मैत्री का सम्बन्ध श्रेष्ठ है; यह मनीषी महात्मा कहते हैं। तुम सच्चे मित्र होकर और यह सब कुछ मेरा ही है, ऐसा निश्चित विचार रखकर दुर्योधन के ही समान समस्त कौरवदल की रक्षा करो। भीष्मजी का यह वचन सुनकर विकर्तनपुत्र कर्ण ने उनके चरणों में प्रणाम किया और वह फिर सम्पूर्ण धनुर्धर सैनिकों के समीप चला गया। वहाँ कर्ण ने कौरव सैनिकों का वह अनुपम एवं विशाल स्थान देखा। समस्त सैनिक व्यूहाकार में खड़े थे और अपने वक्ष:स्थल के समीप अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को बाँधे हुए थे। कर्ण ने उस समय सारी कौरव सेना को उत्साहित किया।
समस्त सेनाओं के आगे चलने वाले महाबाहु, महामनस्वी कर्ण को आया और युद्ध के लिये उपस्थित हुआ देख दुर्योधन आदि समस्त कौरव हर्ष से खिल उठे। उन समस्त कौरवों ने उस समय गर्जने, ताल ठोकने, सिंहनाद करने तथा नाना प्रकार से धनुष की टंकार फैलाने आदि के द्वारा कर्ण का स्वागत-सत्कार किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणाभिषेकपर्व में कर्ण का आश्रासनविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
पाँचवा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण का दुर्योधन के समक्ष सेनापति पद के लिये द्रोणाचार्य का नाम प्रस्तावित करना”
संजय कहते हैं ;– राजन! पुरुषसिंह कर्ण को रथ पर बैठा देख दुर्योधन ने प्रसन्न होकर इस प्रकार कहा।
दुर्योधन ने कहा ;- कर्ण! तुम्हारे द्वारा इस सेना का संरक्षण हो रहा है, इससे मैं इसे सनाथ हुई-सी मानता हूँ। अब यहाँ हमारे लिये क्या करना उपयोगी और हितकर है, इसका निश्चय करो'।
कर्ण ने कहा ;– पुरुषसिंह नरेश्वर! तुम तो बड़े बुद्धिमान हो। स्वयं ही अपना विचार हमें बताओ; क्योंकि धन का स्वामी उसके सम्बन्ध में आवश्यक कर्तव्य का जैसा विचार करता है, वैसा दूसरा कोई नहीं कर सकता। अत: नरेश्वर! हम सब लोग तुम्हारी ही बात सुनना चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि तुम कोई ऐसी बात नहीं कहोगे, जो न्यायसंगत न हो।
दुर्योधन ने कहा ;- कर्ण! पहले आयु, बल-पराक्रम और विद्या में सबसे बढ़े-चढ़े पितामह भीष्म हमारे सेनापति थे। वे अत्यन्त यशस्वी महात्मा पितामह समस्त योद्धाओं को साथ ले उत्तम युद्ध प्रणाली द्वारा मेरे शत्रुओं का संहार करते हुए दस दिनों तक हमारा पालन करते आये हैं। वे तो अत्यन्त दुष्कर कर्म करके अब स्वर्ग लोक के पथ पर आरूढ़ हो गये हैं। ऐसी दशा में उनके बाद तुम किसे सेनापति बनाये जाने योग्य मानते हो? समरांगण के श्रेष्ठ वीर! सेनापतिे के बिना कोई सेना दो घड़ी भी संग्राम मे टिक नहीं सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे मल्लाह के बिना नाव जल में स्थिर नहीं रह सकती है।
जैसे बिना नाविक की नाव जहाँ-कहीं भी जल में बह जाती है और बिना सारथि का रथ चाहे जहाँ भटक जाता है, उसी प्रकार सेनापति के बिना सेना भी जहाँ चाहे भाग सकती है। जैसे कोई मार्गदर्शक न होने पर यात्रियों का सारा दल भारी संकट मे पड़ जाता है, उसी प्रकार सेनानायक के बिना सेना को सब प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अत: तुम मेरे पक्ष के सब महामनस्वी वीरों पर दृष्टि डाल कर यह देखो कि भीष्मजी के बाद अब कौन उपयुक्त सेनापति हो सकता है। इस युद्धस्थल में तुम जिसे सेनापति पद के योग्य बताओगे, नि:संदेह हम सब लोग मिलकर उसी को सेनानायक बनायेंगे।
कर्ण ने कहा ;– राजन! ये सभी महामनस्वी पुरुषप्रवर नरेश सेनापति होने के योग्य हैं। इस विषय में कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जो राजा यहाँ मौजूद हैं, वे सभी अपने कुल, शरीर, ज्ञान, बल, पराक्रम और बुद्धि की दृष्टि से सेनापति पद के योग्य हैं। ये सब के सब वेदज्ञ, बुद्धिमान और युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले हैं। परंतु सब-के-सब एक ही समय सेनापति नहीं बनाये जा सकते, इसलिये जिस एक में सभी विशिष्ठ गुण हों, उसी को अपनी सेना का प्रधान बनाना चाहिये। किंतु ये सभी नरेश परस्पर एक दूसरे से स्पर्धा रखने वाले हैं। यदि इनमें से किसी एक को सेनापति बना लोगे तो शेष सब लोग मन-ही-मन अप्रसन्न हो तुम्हारे हित की भावना से युद्ध नहीं करेंगे, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है।
इसलिये जो इन समस्त योद्धाओं के आचार्य, वयोवृद्ध गुरु तथा शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं, वे आचार्य द्रोण ही इस समय सेनापति बनाये जाने के योग्य हैं। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, दुर्जय वीर द्रोणाचार्य के रहते हुए इन शुक्राचार्य और बृहस्पति के समान महानुभाव को छोड़कर दूसरा कौन सेनापति हो सकता है। भारत! समस्त राजाओं में तुम्हारा कोई भी ऐसा योद्धा नहीं है, जो समरभूमि में आगे जाने वाले द्रोणाचार्य के पीछे-पीछे न जाय।
राजन! तुम्हारे ये गुरुदेव समस्त सेनापतियों, शस्त्रधारियों और बुद्धिमानों मे श्रेष्ठ हैं। अत: दुर्योधन! जैसे असुरों पर विजय की इच्छा रखने वाले देवताओं ने रणक्षेत्र में कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया था, इसी प्रकार तुम भी आचार्य द्रोण को शीघ्र सेनापति बनाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व में कर्णवाक्यविषयक पाँचवा अध्याय पूरा हुआ)
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