सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the 11th chapter to the 15th chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र का भगवान श्रीकृष्‍ण की संक्षिप्‍त लीलाओं का वर्णन करते हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन की महिमा बताना”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;– संजय! वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण के दिव्‍य कर्मों का वर्णन सुनो। भगवान गोविन्‍द ने जो-जो कार्य किये हैं, वैसा दूसरा कोई पुरुष कदापि नहीं कर सकता। संजय! बाल्‍यावस्‍था में ही जबकि वे गोपकुल में पल रहे थे, महात्‍मा श्रीकृष्‍ण ने अपनी भुजाओं के बल और पराक्रम को तीनों लोकों मे विख्‍यात कर दिया। 

   यमुना के तटवर्ती वन में उच्चै:श्रवा के समान बलशाली और वायु के समान वेगवान अश्वराज केशी रहता था। उसे श्रीकृष्‍ण ने मार डाला। इसी प्रकार एक भयंकर कर्म करने वाला दानव वहाँ बैल का रूप धारण करके रहता था, जो गौओं के लिये मृत्यु के समान प्रकट हुआ था। उसे भी श्रीकृष्‍ण ने बाल्‍यावस्‍था में अपने हाथों से ही मार डाला। तत्‍पश्‍चात कमलनयन श्रीकृष्‍ण ने प्रलम्‍ब, नरकासुर, जम्‍भासुर, पीठ नामक महान असुर और यमराज सदृश मुर का भी संहार किया। 

   इसी प्रकार श्रीकृष्‍ण ने पराक्रम करके ही जरासंध के द्वारा सुरक्षित महातेजस्‍वी कंस को उसके गणों सहित रणभूमि मे मार गिराया।  शत्रुहन्‍ता श्रीकृष्‍ण ने बलराम जी के साथ जाकर युद्ध में पराक्रम दिखाने वाले, बलवान, वेगवान, सम्‍पूर्ण अक्षौहिणी सेनाओं के अधिपति, भोजराज कंस के मझले भाई शूरसेन देश के राजा सुनामा को समर में सेना सहित दग्‍ध कर डाला। 

   पत्‍नी सहित श्रीकृष्‍ण ने परम क्रोधी ब्रह्मर्षि दुर्वासा की आराधना की। अत: उन्‍होंने प्रसन्‍न होकर उन्‍हें बहुत-से वर दिये। कमलनयन वीर श्रीकृष्‍ण ने स्‍वयंवर में गान्धारराज की पुत्री को प्राप्‍त करके समस्‍त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उस समय अच्‍छी जाति के घोड़ों की भाँति श्रीकृष्‍ण के वैवाहिक रथ में जुते हुए वे असहिष्‍णु राजा लोग कोड़ों की मार से घायल कर दिये गये थे। जर्नादन श्रीकृष्‍ण ने समस्‍त अक्षौहिणी सेनाओं के अधिपति महाबाहु जरासंध को उपाय पूर्वक दूसरे योद्धा के द्वारा मरवा दिया। 

    बलवान श्रीकृष्‍ण ने राजाओं की सेना के अधिपति पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल को अग्रपूजन के समय विवाद करने के कारण पशु की भाँति मार डाला। तत्‍पश्‍चात माधव ने आकाश में स्थित रहने वाले सौम नामक दुर्घर्ष दैत्‍य-नगर को, जो राजा शाल्व द्वारा सुरक्षित था, समुद्र के बीच पराक्रम करके मार गिराया। उन्‍होंने रणक्षेत्र में अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि, कोसल, वत्‍स, गर्ग, करूष तथा पौण्‍ड्र आदि देशों पर विजय पायी थी। संजय! इसी प्रकार कमलनयन श्रीकृष्‍ण ने अवन्ती, दक्षिण प्रान्‍त, पर्वतीय देश, दाशेरक, काश्‍मीर, औरसिक, पिशाच, मुद्गल, काम्बोज, वाटधान, चोल, पाण्‍डय, त्रिगर्त, मालव, अत्‍यन्‍त दुर्जय दरद आदि देशों के योद्धाओं को तथा नाना दिशाओं से आये हुए खशों, शकों और अनुयायियों सहित कालयवन को भी जीत लिया। 

    पूर्वकाल में श्रीकृष्‍ण ने जल-जन्‍तुओं से भरे हुए समुद्र में प्रवेश करके जल के भीतर निवास करने वाले वरुण देवता को युद्ध में परास्‍त किया। इसी प्रकार हृषीकेश ने पाताल निवासी पंचजन नामक दैत्‍य को युद्ध में मारकर दिव्‍य पंचजन्‍य शंख प्राप्‍त किया। खाण्डव वन में अर्जुन के साथ अग्निदेव को संतुष्‍ट करके महाबली श्रीकृष्‍ण ने दुर्धर्ष आग्‍नेय अस्‍त्र चक्र को प्राप्‍त किया था। वीर श्रीकृष्‍ण गरुड़ पर आरूढ़ हो अमरावती पुरी में जाकर वहाँ के निवासियों को भयभीत करके महेन्‍द्र भवन से पारिजात वृक्ष उठा ले आये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 23-51 का हिन्दी अनुवाद)

    उनके पराक्रम को इन्‍द्र अच्‍छी तरह जानते थे, इसलिये उन्‍होंने वह सब चुपचाप सह लिया। राजाओं में से किसी को भी मैंने ऐसा नहीं सुना है, जिसे श्रीकृष्‍ण ने जीत न लिया हो। संजय! उस दिन मेरी सभा में कमलनयन श्रीकृष्‍ण के जो महान आश्‍चर्य प्रकट किया था, उसे इस संसार में उनके सिवा दूसरा कौन कर सकता है? मैंने प्रसन्‍न होकर भक्ति भाव से भगवान श्रीकृष्‍ण के उस ईश्‍व‍रीय रूप का जो दर्शन किया, वह सब मुझे आज भी अच्‍छी तरह स्‍मरण है। मैंने उन्‍हें प्रत्‍यक्ष की भाँति जान लिया था। 

    संजय! बुद्धि और पराक्रम से युक्‍त भगवान हृषीकेश के कर्मों का अन्‍त नहीं जाना जा सकता। यदि गद, साम्‍ब, प्रद्युम्न, विदूरथ, अगावह, अनिरुद्ध, चारूदेष्‍ण, सारण, उल्‍मुक, निशठ, झिल्‍ली, पराक्रमी बभ्रु, पृथु, विपृथु, शमीक तथा अरिमेजय- ये तथा दूसरे भी बलवान एवं प्रहार कुशल वृष्णिवंशी योध्दा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर महात्‍मा केशव के बुलाने पर पाण्डव सेना में आ जायँ और समरभूमि में खड़े हो जायँ तो हमारा सारा उद्योग संशय मे पड़ जाय; ऐसा मेरा विश्‍वास है। वनमाला और हल धारण करने वाले वीर बलराम कैलास-शिखर के समान गौरवर्ण हैं। उनमें दस हजार हाथियों का बल है। वे भी उसी पक्ष में रहेंगे, जहाँ श्रीकृष्‍ण हैं।

    संजय! जिन भगवान वासुदेव को द्विजगण सबका पिता बताते हैं, क्‍या वे पाण्‍डवों के लिये स्‍वयं युद्ध करेंगे? तात! संजय! जब पाण्‍डवों के लिये श्रीकृष्‍ण कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार हो जायँ, उस समय वहाँ कोई भी योद्धा उनका सामना करने को तैयार न होगा। यदि सब कौरव पाण्‍डवों को जीत लें तो वृष्णिवंशभूषण भगवान श्रीकृष्‍ण उनके हित के लिये अवश्‍य उत्‍तम शस्‍त्र ग्रहण कर लेंगे। 

    उस दशा में पुरुषसिंह महाबाहु श्रीकृष्‍ण सब राजाओं तथा कौरवों को रणभूमि में मारकर सारी पृथ्‍वी कुन्‍ती को दे देंगे। जिसके सारथि सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के नियन्‍ता श्रीकृष्‍ण तथा योद्धा अर्जुन हैं, रणभूमि में उस रथ का सामना करने वाला दूसरा कौन रथ होगा? किसी भी उपाय से कौरवों की जय होती नहीं दिखायी देती। इसलिये तुम मुझसे सब समाचार कहो। वह युद्ध किस प्रकार हुआ? अर्जुन श्रीकृष्‍ण के आत्‍मा हैं और श्रीकृष्‍ण किरीटधारी अर्जुन को आत्‍मा हैं। अर्जुन में विजय नित्‍य विद्यमान है और श्रीकृष्‍ण में कीर्ति का सनातन निवास है। अर्जुन सम्‍पूर्ण लोकों में कभी कहीं भी पराजित नहीं हुए हैं। श्रीकृष्‍ण में असंख्‍य गुण हैं। यहाँ प्राय: प्रधान गुण के नाम लिये गये हैं। दुर्योधन मोहवश सच्चिदानन्‍द स्‍वरूप भगवान केशव को नहीं जानता है, यह दैव योग से मोहित हो मौत के फंदे में फँस गया। 

    यह दशार्ह कुल भूषण श्रीकृष्‍ण और पाण्‍डुपुत्र अर्जुन को नहीं जानता हैं, वे दोनों पूर्व देवता महात्‍मा नर और नारायण हैं। उनकी आत्‍मा तो एक है; परंतु इस भूतल के मुनष्‍यों को वे शरीर से दो होकर दिखायी देते हैं। उन्‍हें मन से भी पराजित नहीं किया जा सकता। वे यशस्‍वी श्रीकृष्‍ण और अर्जुन यदि इच्‍छा करे तो मेरी सेना को तत्‍काल नष्‍ट कर सकते हैं; परंतु मानव भाव का अनुसरण करने के कारण ये वैसी इच्‍छा नहीं करते हैं। तात! भीष्‍म तथा महात्‍मा द्रोण का वध युग के उलट जाने की- सी बात है। सम्‍पूर्ण लोकों को यह घटना मानो मोह में डालने वाली है। जान पड़ता है, कोई भी न तो ब्रह्मचर्य के पालन से, न वेदों के स्‍वाध्‍याय से, न कर्मों के अनुष्‍ठान से और न अस्‍त्रों के प्रयोग से ही अपने को मृत्यु से बचा सकता है। 

   संजय! लोक सम्‍मानित, अस्‍त्र विधा के ज्ञाता तथा युद्ध दुर्मद वीरवर भीष्‍म और द्रोणाचार्य के मारे जाने का समाचार सुनकर मैं किस लिये जीवित रहूँ? पूर्वकाल में राजा युधिष्ठिर के पास जिस प्रसिद्ध राजलक्ष्‍मी को देखकर हम लोग उनसे डाह करने लगे थे, आज भीष्‍म और द्रोणाचार्य के वध से हम उसके कटु फल का अनुभव कर रहें हैं।

   सूत! मेरे ही कारण यह कौरवों का विनाश प्राप्‍त हुआ है। जो काल से परिपक्व हो गये हैं, उनके वध के लिये तिनके भी वज्र का काम करते हैं। युधिष्ठिर इस संसार में अनन्‍त ऐश्वर्य के भागी हुए हैं। जिनके कोप से महात्‍मा भीष्‍म और द्रोण मार गिराये गये। युधिष्ठिर को धर्म का स्‍वाभाविक फल प्राप्‍त हुआ हैं, किंतु मेरे पुत्रों को उसका फल नहीं मिल रहा है। सबका विनाश करने के लिये प्राप्‍त हुआ यह क्रूर काल बीत नहीं रहा है। 

    तात! मनस्‍वी पुरुषों द्वारा अन्‍य प्रकार से सोचे हुए कार्य भी दैवयोग से कुछ और ही प्रकार के हो जाते हैं; ऐसा मेरा अनुभव है। अत: इस अनिवाय अपार दुश्चिन्‍त्‍य एवं महान संकट के प्राप्‍त होने पर जो घटना जिस प्रकार हुई हो, वह मुझे बताओ। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में धृतराष्‍ट्र विलाप विषयक ग्‍यारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का वर माँगना और द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर को अर्जुन की अनुपस्थिति में जीवित पकड़ लाने की प्रतिज्ञा करना”

    संजय ने कहा ;– महाराज! मैं बड़े दु:ख के साथ आप से उन सब घटनाओं का वर्णन करूँगा। द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्‍डवों तथा सृंजयों ने कैसे उनका वध किया है? इन सब बातों को मैंने प्रत्‍यक्ष देखा था। सेनापति का पद प्राप्‍त करके महारथी द्रोणाचार्य ने सारी सेना के बीच में आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा। राजन! तुमने कौरव श्रेष्‍ठ गंगापुत्र भीष्‍म के बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, भरतनन्‍दन! इस कार्य के अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्‍त करो। आज तुम्‍हारा कौन सा मनोरथ पूर्ण करूँ? तुम्‍हें जिस वस्‍तु की इच्‍छा हो, उसे ही माँग लो। तब राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन आदि के साथ सलाह करके विजयी वीरों में श्रेष्‍ठ एवं दुर्जय आचार्य द्रोण से इस प्रकार कहा।

    आचार्य! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को जीवित पकड़ कर यहाँ मेरे पास ले आइये। आपके पुत्र की वह बात सुनकर कुरुकुल के आचार्य द्रोण सारी सेना को प्रसन्‍न करते हुए इस प्रकार बोले। राजन! कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर धन्‍य हैं, जिन्‍हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो। उन दुर्धर्ष वीर के वध के लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो। पुरुषसिंह! तुम्‍हें उनके वध की इच्‍छा क्‍यों नहीं हो रहीं है? दुर्योधन! तुम मेरे द्वारा निश्चित रूप से युधिष्ठिर का वध कराना क्‍यों नहीं चाहते हो? अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्ठिर से द्वेष रखने वाला इस संसार में कोई है ही नहीं। इसीलिये तुम उन्‍हें जीवित देखना और अपने कुल की रक्षा करना चाहते हो। अथवा भरतश्रेष्‍ठ! तुम युद्ध में पाण्‍डवों को जीत कर इस समय उनका राज्‍य वापस दे सुन्‍दर भ्रातृभाव का आदर्श उपस्थित करना चाहते हो। कुन्‍तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्‍य हैं। उन बुद्धिमान नरेश का जन्‍म बहुत ही उत्‍तम है और वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्‍योंकि तुम भी उन पर स्‍नेह रखते हो'। भारत! द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर तुम्‍हारे पुत्र के मन का भाव जो सदा उसके हृदय में बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया। बृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी अपने आकार को छिपा नहीं सकते। राजन! इसीलिये आपका पुत्र अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर इस प्रकार बोला।

   आचार्य! युद्ध के मैदान में कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर के मारे जाने से मेरी विजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि युधिष्ठिर का वध होने पर कुन्‍ती के पुत्र हम सब लोगों को अवश्‍य ही मार डालेंगे। सम्‍पूर्ण देवता भी समस्‍त पाण्‍डवों को रणक्षेत्र में नहीं मार सकते। यदि सारे पाण्‍डव अपने पुत्रों सहित युद्ध में मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्‍ण सम्‍पूर्ण नरेश मण्‍डल को अपने वश में करके समुद्र और वनों सहित इस सारी समृद्धिशालिनी वसुधा को जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्‍ती को दे डालेंगे। अथवा पाण्‍डवों में से जो भी शेष रह जायगा, वही हम लोगों को शेष नहीं रहने देगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

   सत्‍यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिर को जीते-जी पकड़ ले आने पर यदि उन्‍हें पुन: जूए में जीत लिया जाय तो उनमें भक्ति रखने वाले पाण्‍डव पुन: वन में चले जायँगे। इस प्रकार निश्चय ही मेरी विजय दीर्घकाल तक बनी रहेगी। इसीलिये मैं कभी धर्मराज युधिष्ठिर का वध करना नहीं चाहता। राजन! द्रोणाचार्य प्रत्‍येक बात के वास्‍तविक तात्‍पर्य को तत्‍काल समझ लेने वाले थे। दुर्योधन के उस कुटिल मनोभाव को जान कर बुद्धिमान द्रोण ने मन-ही-मन कुछ विचार किया और अन्‍तर रखकर उसे वर दिया। 

    द्रोणाचार्य बोले ;- राजन! यदि वीरवर अर्जुन युद्ध में युधिष्ठिर की रक्षा न करते हों, तब तुम पाण्‍डवश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को अपने वश में आया हुआ ही समझों। तात! रणक्षेत्र में इन्‍द्र सहित सम्‍पूर्ण देवता और असुर भी अर्जुन का सामना नहीं कर सकते हैं। अत: मुझमें भी उन्‍हें जीतने का उत्‍साह नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि अर्जुन मेरा शिष्‍य है और उसने पहले मुझसे ही अस्‍त्र विधा सीखी है, तथापि वह तरुण है। अनेक प्रकार के पुण्‍य कर्मों से युक्‍त है। विजय अथवा मृत्यु इन दोनों में से एक का वरण करने का दृढ़ निश्चय कर चुका है। इन्‍द्र और रुद्र आदि देवताओं से पुन: बहुत से दिव्‍यास्‍त्रों की शिक्षा पा चुका है और तुम्‍हारे प्रति उसका अमर्ष बढ़ा हुआ है। इसलिये राजन! मैं अर्जुन से लड़ने का उत्‍साह नहीं रखता हूँ। अत: जिस उपाय से भी सम्‍भव हो, तुम उन्‍हें युद्ध से दूर हटा दो। कुन्‍तीकुमार अर्जुन के रणक्षेत्र से हट जाने पर समझ लो कि तुमने धर्मराज को जीत लिया। 

   नरश्रेष्‍ठ! उनको पकड़ लेने में ही तुम्‍हारी विजय है, उनके वध में नहीं; परंतु इसी उपाय से तुम उन्‍हें पकड़ पाओगे। राजन! पुरुषसिंह कुन्‍तीपुत्र अर्जुन के युद्ध से हट जाने पर यदि वे दो घड़ी भी मेरे सामने संग्राम में खड़े रहेंगे तो मैं आज सत्‍यधर्म परायण राजा युधिष्ठिर को पकड़कर तुम्‍हारे वश में ला दूँगा, इसमें संशय नहीं है। राजन! अर्जुन के समीप तो समरभूमि में इन्‍द्र आदि सम्‍पूर्ण देवता और असुर भी युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सकते हैं। 

    संजय कहते हैं ;- राजन! द्रोणाचार्य ने कुछ अन्‍तर रखकर जब राजा युधिष्ठिर को पकड़ लाने की प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके मूर्ख पुत्र उन्‍हें कैद हुआ ही मानने लगे। आपका पुत्र दुर्योधन यह जानता था कि द्रोणाचार्य पाण्‍डवों के प्रति पक्षपात रखते हैं, अत: उसने उनकी प्रतिज्ञा को स्थिर रखने के लिये उस गुप्‍त बात को भी बहुत लोगों में फैला दिया। शत्रुओं का दमन करने वाले आर्य धृतराष्‍ट्र! तदनन्‍तर दुर्योधन ने युद्ध की सारी छावनियों में तथा सेना के विश्राम करने के प्राय: सभी स्‍थानों पर द्रोणाचार्य की युधिष्ठिर को पकड़ लाने की उस प्रतिज्ञा को घोषित करवा दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में द्रोणप्रतिज्ञा विषयक बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का युधिष्ठिर को आश्‍वासन देना तथा युद्ध में द्रोणाचार्य का पराक्रम”

   संजय कहते हैं ;- राजन! जब द्रोणाचार्य ने कुछ अन्‍तर रखकर राजा युधिष्ठिर को कैद करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके सैनिकों ने युधिष्ठिर के पकड़े जाने का उद्योग सुनकर जोर-जोर से सिंहनाद करना और भुजाओं पर ताल ठोकना आरम्‍भ किया। भरतनन्‍दन! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने शीघ्र ही अपने विश्‍वसनीय गुप्‍तचरों द्वारा यथा योग्‍य सारी बाते पूर्णरूप से जान लीं कि द्रोणाचार्य क्‍या करना चाहते हैं। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को और दूसरे राजाओं को सब ओर से बुलवाकर धनंजय अर्जुन से कहा,

    युधिष्ठिर ने कहा ;- 'पुरुषसिंह! आज द्रोण क्‍या करना चाहते हैं, यह तुमने सुना ही होगा? अत: तुम ऐसी नीति बताओ, जिससे उनकी इच्‍छा सफल न हो। शत्रुसूदन द्रोण ने कुछ अन्‍तर रखकर प्रतिज्ञा की है। महाधनुर्धर अर्जुन! वह अन्‍तर उन्‍होंने तुम्‍हीं पर डाल रक्‍खा है। अत: महाबाहो! आज तुम मेरे समीप रहकर ही युद्ध करो, जिससे दुर्योधन द्रोणाचार्य से अपने इस मनोरथ को पूर्ण न करा सके। 

   अर्जुन बोले ;– राजन! जिस प्रकार मेरे लिये आचार्य का कभी वध न करना कर्तव्‍य है, उसी प्रकार किसी भी दशा में आपका परित्‍याग करना मुझे अभीष्‍ट नहीं है। पाण्‍डुनन्‍दन! इस नीति के अनुसार बर्ताव करते हुए मैं युद्ध में अपने प्राणों का परित्‍याग कर दूँगा; परंतु किसी प्रकार भी आचार्य का शत्रु नहीं बनूँगा। महाराज! यह धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन जो आपको युद्ध में कैद करके सारा राज्‍य हथिया लेना चाहता है, वह इस जगत में अपने उस मनोरथ को किसी प्रकार पूर्ण नहीं कर सकता। नक्षत्रों सहित आकाश फट पड़े और पृथ्‍वी के टुकड़े-टुकड़े हो जायँ, तो भी मेरे जीते-जी द्रोणाचार्य आपको पकड़ नहीं सकते; यह ध्रुव सत्‍य है। राजेन्‍द्र! यदि रणक्षेत्र में साक्षात वज्रधारी इन्‍द्र अथवा भगवान विष्‍णु सम्‍पूर्ण देवताओं के साथ आकर दुर्योधन की सहायता करें, तो भी मेरे जीते-जी वह आपको पकड़ नहीं सकेगा; अत: आपको सम्‍पूर्ण अस्‍त्र–शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य से भय नहीं करना चाहिये। 

   महाराज! मैं अपनी दूसरी भी निश्चल प्रतिज्ञा आपको सुनाता हूँ। मैंने कभी झूठ कहा हो, इसका स्‍मरण नहीं है। मेरी कहीं पराजय हुई हो, इसकी भी याद नहीं है और मैंने प्रतिज्ञा करके उसे तनिक भी झूठी कर दिया हो, इसका भी मुझे स्‍मरण नहीं है। 

    संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्‍तर पाण्‍डवों के शिविर में शंख, भेरी, मृदंग और आनक आदि बाजे बजने लगे। महात्‍मा पाण्‍डवों का सिंहनाद सहसा प्रकट हुआ। धनुष की टंकार का भयंकर शब्‍द आकाश में गूँजने लगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

   महातेजस्वी पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सेना में वह शंखध्वनि सुनकर आपकी सेनाओं में भी भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे। भारत! तदनन्‍तर आपकी और उनकी सेनाएँ व्‍यूहबद्ध होकर धीरे-धीरे युद्ध के लिये एक-दूसरी के समीप आने लगीं। तदनन्‍तर कौरवों तथा पाण्‍डवों और द्रोणाचार्य तथा धृष्टद्युम्न रोमांचकारी भयंकर युद्ध होने लगा। 

    सृंजय योद्धा उस युद्ध में द्रोणाचार्य की सेना का विनाश करने के लिये बड़े यत्‍न के साथ चेष्‍टा करने लगे, परंतु सफल न हो सके; क्‍योंकि वह सेना आचार्य द्रोण के द्वारा भली-भाँति सुरक्षित थी। इसी प्रकार आपके पुत्र की सेना के उदार महारथी, जो प्रहार करने में कुशल थे, पाण्‍डव सेना को परास्‍त न कर सके; क्‍योंकि किरीटधारी अर्जुन उसकी रक्षा कर रहे थे। जैसे रात में पुष्‍पों से सुशोभित वनश्रेणियाँ प्रसुप्‍त देखी जाती हैं, उसी प्रकार वे सुरक्षित हुई दोनों सेनाएँ आमने-सामने निश्चल भाव से खड़ी थीं। राजन! तदनन्‍तर सुवर्णमय रथ वाले द्रोणाचार्य सूर्य के समान प्रकाशमान आवरणयुक्‍त रथ के द्वारा आगे बढ़कर सेना के प्रमुख भाग में विचरने लगे। द्रोणाचार्य युद्धस्‍थल में केवल रथ के द्वारा उद्यत होकर अकेले ही शीघ्रतापूर्वक अस्‍त्र-शस्‍त्रों का प्रयोग कर रहे थे। उस समय पाण्‍डव तथा सृंजय भय के मारे उन्‍हें अनेक-सा मान रहे थे। महाराज! उनके द्वारा छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर की सेना को भयभीत करते हुए चारों ओर विचर रहे थे। दोपहर के समय सहस्‍त्रों किरणों से व्‍याप्‍त प्रचण्‍ड तेज वाले भगवान सूर्य जैसे दिखायी देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। 

    भरतनन्‍दन! जैसे दानवदल क्रोध में भरे हुए देवराज इन्‍द्र की ओर देखने का साहस नहीं करता है, उसी प्रकार पाण्‍डव सेना का कोई भी वीर समरभूमि में द्रोणाचार्य की ओर आँख उठाकर देख न सका। इस प्रकार प्रतापी द्रोणाचार्य ने पाण्‍डव सेना को मोहित करके पैने बाणों द्वारा तुरंत ही धृष्टद्युम्न की सेना का संहार आरम्‍भ कर दिया। उन्‍होंने अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा सम्‍पूर्ण दिशाओं को अवरुद्ध करके आकाश को भी आच्‍छादित कर दिया और जहाँ धृष्‍टद्युम्न खड़ा था, वहीं वे पाण्‍डव सेना का मर्दन करने लगे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में अर्जुन के द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासनविषयक तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोण का पराक्रम, कौरव-पाण्‍डव वीरों का द्वन्‍द्वयुद्ध, रणनदी का वर्णन तथा अभिमन्‍यु की वीरता”

   संजय कहते हैं ;- राजन! जैसे आग घास-फूस के समूह को जला देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य पाण्‍डव दल में महान भय उत्‍पन्‍न करते और सारी सेना को जलाते हुए सब ओर विचरने लगे।
   सुवर्णमय रथ वाले द्रोण को वहाँ प्रकट हुए साक्षात अग्निदेव के समान क्रोध में भरकर सम्‍पूर्ण सेनाओं को दग्‍ध करते देख समस्‍त सृंजय वीर काँप उठे। बाण चलाने में शीघ्रता करने वाले द्रोणाचार्य के युद्ध में निरन्‍तर खींचे जाते हुए धनुष की प्रत्‍यंचा का टंकारघोष वज्र की गड़गड़ाहट के समान बड़े जोर-जोर से सुनायी दे रहा था।शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले द्रोणाचार्य के छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्‍डव-सेना के रथियों, घुड़सवारों, हाथियों, घोड़ों और पैदल योद्धाओं को गर्दमें मिला रहे थे। आषाढ़ मास बीत जाने पर वर्षा के प्रारम्‍भ में जैसे मेघ अत्‍यन्‍त गर्जन-तर्जन के साथ फैलाकर आकाश में छा जाता और पत्‍थरों की वर्षा करने लगता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी बाणों की वर्षा करके शत्रुओं के मन में भय उत्‍पन्‍न करने लगे। 
    राजन! शक्तिशाली द्रोणाचार्य उस समय रणभूमि में विचरते और पाण्‍डव सेना को क्षुब्‍ध करते हुए शत्रुओं के मन में लोकोत्तर भय की वृद्धि करने लगे। उनके घूमते हुए रथरूपी मेघमण्‍डल में सुवर्णभूषित धनुष विद्युत के समान बारंबार प्रकाशित दिखायी देता था। उन सत्‍यपरायण परम बुद्धिमान तथा नित्‍य धर्म में तत्‍पर रहने वाले वीर द्रोणाचार्य ने उस रणक्षेत्र में प्रलयकाल के समान अत्‍यन्‍त भयंकर रक्‍त की नदी प्रवाहित कर दी। 
    उस नदी का प्राकट्य क्रोध के आवेग से हुआ था। मांसभक्षी जन्‍तुओं से वह घिरी हुई थी। सेनारूपी प्रवाह द्वारा वह सब ओर से परिपूर्ण थी और ध्‍वजरूपी वृक्षों को तोड़-फोड़कर बहा रही थी। उस नदी में जल की जगह रक्‍तराशि भरी हुई थी, रथों की भँवरे उठ रही थीं, हाथी और घोड़ों की ऊँची-ऊँची लाशें उस नदी के ऊँचे किनारों के समान प्रतीत होती थीं। उसमें कवच नाव की भाँति तैर रहे थे तथा वह मांसरूपी कीचड़ से भरी हुई थी। मेद, मज्‍जा और हडिडयाँ वहाँ बालुकाराशि के समान प्रतीत होती थीं। पग‍ड़ियों का समूह उसमें फेन के समान जान पड़ता था। संग्रामरूपी मेघ उस नदी को रक्‍त की वर्षा द्वारा भर रहा था। वह नदी प्रासरूपी मत्‍स्‍यों से भरी हुई थी। वहाँ पैदल, हाथी और घोड़े ढेर-के-ढेर पड़े हुए थे। बाणों का वेग ही उस नदी का प्रखर प्रवाह था, जिसके द्वारा वह प्रवाहित हो रही थी। शरीररूपी काष्‍ठ से ही मानो उसका घाट बनाया गया था। रथरूपी कछुओं से वह नदी व्‍याप्‍त हो रही थी। 
    योद्धाओं के कटे हुए मस्‍तक कमल-पुष्‍प के समान जान पड़ते थे, जिनके कारण वह कमलवन से सम्‍पन्‍न दिखायी देती थी। उसके भीतर असंख्‍य डूबती-बहती तलवारों के कारण वह नदी मछलियों से भरी हुई-सी जान पड़ती थी। रथ और हाथियों से यत्र-तत्र घिरकर वह नदी गहरे कुण्‍ड के रूप में परिणत हो गयी थी। वह भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित-सी प्रतीत होती थी। सैकड़ों विशाल रथ उसके भीतर उठती हुई भँवरों के समान प्रतीत होते थे। वह धरती की धूल और तरंगमालाओं से व्‍याप्‍त हो रही थी। उस युद्धस्‍थल में वह नदी महापराक्रमी वीरों के लिये सुगमता से पार करने योग्‍य और कायरों के लिये दुस्‍तर थी। 
    उसके भीतर सैकड़ों लाशें पड़ी हुई थी। गीध और कंक उस नदी का सेवन करते थे। वह सहस्‍त्रों महारथियों को यमराज के लोक में ले जा रही थी। उसके भीतर शूल सर्पों के समान व्‍याप्‍त हो रहे थे। विभिन्‍न प्राणी ही वहाँ जल-पक्षी के रूप में निवास करते थे। कटे हुए क्षत्रिय-समुदाय उसमें विचरने वाले बड़े-बड़े हंसों के समान प्रतीत होते थे। वह नदी राजाओं के मुकुटरूपी जल-पक्षियों से सेवित दिखायी देती थी। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद)

    उसमें रथों के पहिये कछुओं के समान, गदाएँ नाकों के समान और बाण छोटी-छोटी मछलियों के समान भरे हुए थे। बगलों, गीधों और गीदड़ों के भयानक समुदाय उसके तट पर निवास करते थे। 
नृपश्रेष्‍ठ! बलवान द्रोणाचार्य के द्वारा रणभूमि में मारे गये सैकड़ों प्राणियों को वह पितृलोक मे पहुँचा रही थी। 
    उसके भीतर सैकड़ों लाशें बह रही थीं। केश सेवार तथा घासों के समान प्रतीत होते थे। राजन! इस प्रकार द्रोणाचार्य ने वहाँ खून की नदी बहायी थी, जो कायरों का भय बढ़ाने वाली थी। उस समय समस्‍त सेनाओं को अपने गर्जन-तर्जन से डराते हुए महारथी द्रोणाचार्य पर युधिष्ठिर आदि योद्धा सब ओर से टूट पड़े। 
   उन आक्रमण करने वाले पाण्‍डव वीरों को आपके सुदृढ़ पराक्रमी सैनिकों ने सब ओर से रोक दिया। उस समय दोनों दलों मे रोमांचकारी युद्ध होने लगा। सैकड़ों मायाओं को जानने वाले शकुनि ने सहदेव पर धावा किया और उनके सारथि, ध्वज एवं रथ सहित उन्‍हें अपने पैने बाणों से घायल कर दिया। 
   तब माद्रीकुमार सहदेव ने अधिक कुपित न होकर शकुनि के ध्‍वज, धनुष, सारथि और घोड़ों को अपने बाणों द्वारा छिन्‍न–भिन्‍न करके साठ बाणों से सुबलपुत्र शकुनि को भी बींध डाला। यह देख सुबलपुत्र शकुनि गदा हाथ में लेकर उस श्रेष्‍ठ रथ से कूद पड़ा। राजन! उसने अपनी गदा द्वारा सहदेव के रथ से उनके सारथि को मार गिराया।
    महाराज! उस समय वे दोनों महाबली शूरवीर रथहीन हो गदा हाथ मे लेकर रणक्षेत्र में खेल-सा करने लगे, मानो शिखर वाले दो पर्वत परस्‍पर टकरा रहे हो। द्रोणाचार्य ने पांचालराज द्रुपद को दस शीघ्रगामी बाणों से बींध डाला। फिर द्रुपद ने भी बहुत-से बाणों द्वारा उन्‍हें घायल कर दिया। तब द्रोण ने भी और अधिक सायकों द्वारा द्रुपद को क्षत-विक्षत कर दिया। 
    वीर भीमसेन बीस तीखें बाणों द्वारा विविंशति को घायल करके भी उन्‍हें विचलित न कर सके। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। महाराज! फिर विविंशति ने भी सहसा आक्रमण करके भीमसेन के घोड़े, ध्‍वज और धनुष काट डाले; यह देख सारी सेनाओं ने उसकी भूरि-भू‍रि प्रशंसा की। 
    वीर भीमसेन युद्ध में शत्रु के इस पराक्रम को न सह सके। उन्‍होंने अपनी गदा द्वारा उसके समस्‍त सुशिक्षित घोड़ों को मार डाला। राजन! घोड़ों के मारे जाने पर महाबली विविंशति ढाल और तलवार लिये रथ से कूद पड़ा और जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्‍मत्त गजराज पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उसने भीमसेन पर चढ़ाई की। वीर राजा शल्‍य ने अपने प्‍यारे भानजे नकुल को हँसकर लाड़ लड़ाते और कुपित करते हुए-से अनेक बाणों द्वारा बींध डाला।
    तब प्रतापी नकुल ने उस युद्धस्‍थल में शल्‍य के घोड़ों, छत्र, ध्वज, सारथि और धनुष को काट गिराया और विजयी होकर अपना शंख बजाया। धृष्‍टकेतु ने कृपाचार्य के चलाये हुए अनेक बाणों को काटकर उन्‍हें सत्‍तर बाणों से घायल कर दिया और तीन बाणों द्वारा उनके चिह्नस्‍वरूप ध्‍वज को भी काट गिराया। 
    तब ब्राह्मण कृपाचार्य ने भारी बाण-वर्षा के द्वारा अमर्षशील धृष्‍टकेतु को युद्ध में आगे बढ़ने से रोका और घायल कर दिया। सात्‍यकि ने मुसकराते हुए से एक नाराच द्वारा कृतवर्मा की छाती में चोट की और पुन: अन्‍य सत्‍तर बाणों द्वारा उसे क्षत-विक्षत कर दिया। 
तब भोजवंशी कृतवर्मा ने तुरंत ही सतहत्‍तर पैने बाणों द्वारा सात्‍यकि को बींध डाला, तथापि वह उन्‍हें विचलित न कर सका। जैसे तेज चलने वाली वायु पर्वत को नहीं हिला पाती है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 37-57 का हिन्दी अनुवाद)

    दूसरी ओर सेनापति धृष्टद्युम्न ने त्रिगर्तराज सुशर्मा को उसके मर्मस्‍थानों में अत्‍यन्‍त चोट पहुँचायी। यह देख सुशर्मा ने भी तोमर द्वारा धृष्‍टद्युम्न के गले की हँसली पर प्रहार किया। समरभूमि मे महापराक्रमी मत्‍स्‍यदेशीय वीरों के साथ विराट ने विकर्तनपुत्र कर्ण को रोका। वह अद्भुत-सी बात थी।
    वहाँ सूतपुत्र कर्ण का भयंकर पुरुषार्थ प्रकट हुआ। उसने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उनकी समस्‍त सेना की प्रगति रोक दी। महाराज! तदनन्‍तर राजा द्रुपद स्वयं जाकर भगदत्त से भिड़ गये। महाराज! फिर उन दोनों में विचित्र-सा युद्ध होने लगा। पुरुषश्रेष्‍ठ भगदत्‍त ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से राजा द्रुपद को उनके सारथि, रथ और ध्वज सहित बींध डाला। 
    यह देख द्रुपद ने कुपित हो शीघ्र ही झुकी हुई गाँठ वाले बाण के द्वारा महारथी भगदत्त्त की छाती में प्रहार किया। भूरिश्रवा और शिखण्‍डी- ये दोनों संसार के श्रेष्‍ठ योद्धा और अस्‍त्रविद्या के विशेषज्ञ थे, उन दोनों ने सम्‍पूर्ण भूतों को त्रास देने वाला युद्ध किया। 
    राजन! पराक्रमी भूरिश्रवा ने रणक्षेत्र में द्रुपदपुत्र महारथी शिखण्‍डी को सायक समूहों की भारी वर्षा करके आच्‍छादित कर दिया। प्रजानाथ! भरतनन्‍दन! तब क्रोध में भरे हुए शिखण्‍डी ने नब्‍बे बाण भरकर सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा को कम्पित कर दिया। भयंकर कर्म करने वाले राक्षस घटोत्‍कच और अलम्बुष ये दोनों एक दूसरे को जीतने की इच्‍छा से अत्‍यन्‍त अद्भुत युद्ध करने लगे। 
    वे घंमड मे भरे हुए निशाचर सैकड़ों मायाओं की सृष्टि करते और माया द्वारा ही एक-दूसरे को परास्‍त करना चाहते थे। वे लोगों को अत्‍यन्‍त आश्चर्य में डालते हुए अदृश्‍य भाव से विचर रहे थे। चेकितान अनुविन्द के साथ अत्‍यन्‍त भयंकर युद्ध करने लगे, मानो देवासुर- संग्राम मे महाबली बल और इन्‍द्र लड़ रहे हों। 
    राजन! जैसे पूर्वकाल में भगवान विष्‍णु हिरण्‍याक्ष के साथ युद्ध करते थे, उसी प्रकार उस रणक्षेत्र में लक्ष्‍मण क्षत्रदेव के साथ भारी संग्राम कर रहा था। राजन! तदनन्‍तर विधिपूर्वक सजाये हुए चंचल घोड़ों वाले रथ पर आरूढ़ हो गर्जना करते हुए राजा पौरव ने सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु पर आक्रमण किया। तब शत्रुओं का दमन और युद्ध की अभिलाषा करने वाले महाबली अभिमन्‍यु भी तुरंत सामने आया और उनके साथ महान युद्ध करने लगा। 
    पौरव ने सुभद्राकुमार पर बाण समूहों की वर्षा प्रारम्‍भ कर दी। यह देख अर्जुनपुत्र अभिमन्‍यु ने उनके ध्वज, छत्र, और धनुष को काटकर धरती पर गिरा दिया। फिर अन्‍य सात शीघ्रगामी बाणों द्वारा पौरव को घायल करके अभिमन्‍यु ने पाँच बाणों से उनके घोड़ों और सारथि को भी क्षत-विक्षत कर दिया। 
     तत्‍पश्चात अपनी सेना का हर्ष बढ़ाते और बारंबार सिंह के समान गर्जना करते हुए अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने तुरंत ही एक ऐसा बाण हाथ में लिया, जो राजा पौरव का अन्‍त कर डालने में समर्थ था। उस भयानक दिखायी देने वाले सायक को धनुष पर चढ़ाया हुआ जान कृतवर्मा ने दो बाणों द्वारा अभिमन्‍यु के सायक सहित धनुष को काट डाला।
    तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर चमचमाती हुई तलवार खींच ली और ढाल हाथ में ले ली। उसने अपनी शक्ति का परिचय देते हुए सुशिक्षित हाथों वाले पुरुष की भाँति अनेक ताराओं के चिह्नों से युक्‍त ढाल के साथ अपनी तलवार को घुमाते और अनेक पैंतरे दिखाते हुए रणभूमि में विचरना आरम्‍भ किया। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 58-77 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन! उस समय नीचे घुमाने, ऊपर घुमाने, अगल-बगल में चारों ओर घुमाने की और फिर ऊपर उठाने की क्रियाएँ इतनी तेजी से हो रही थीं कि ढाल और तलवार में कोई अन्‍तर ही नहीं दिखायी देता था। तब अभिमन्‍यु सहसा गर्जता हुआ उछलकर पौरव के रथ के ईषादण्‍ड पर चढ़ गया। फिर उसने पौरव की चुटिया पकड़ ली। उसने पैरों के आघात से पौरव के सारथि को मार डाला और तलवार से उनके ध्‍वज को काट गिराया। फिर जैसे गरुड़ समुद्र को क्षुब्‍ध करके नाग को पकड़कर दे मारते हैं, उसी प्रकार उसने भी पौरव को रथ से नीचे पटक दिया। 
     उस समय सम्‍पूर्ण राजाओं ने देखा, जैसे सिंह ने किसी बैल को गिराकर अचेत कर दिया हो, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने पौरव को गिरा दिया है। वे अचेत पड़े हैं और उनके सिर के बाल कुछ उखड़ गये हैं।पौरव अभिमन्‍यु के वश में पड़कर अनाथ की भाँति खींचे जा रहे हैं और गिरा दिेये गये हैं। यह देखकर जयद्रथ सहन न कर सका। वह मोर की पाँख से आच्‍छादित और सैकड़ों क्षुद्रघंटिकाओं के समूह से अलंकृत ढाल और खड्ग लेकर गर्जता हुआ अपने रथ से कूद पड़ा। तब अर्जुनपुत्र अभिमन्‍यु जयद्रथ को आते देख पौरव को छोड़कर तुरंत ही पौरव के रथ से कूद पड़ा और बाज के समान जयद्रथ पर झपटा। 
     अभिमन्‍यु शत्रुओं के चलाये हुए प्रास, पट्टिश और तलवारों को अपनी तलवार से काट देते और अपनी ढाल पर भी रोक लेते थे। शूर एवं बलवान अभिमन्‍यु सैनिकों को अपना बाहुबल दिखाकर पुन: विशाल खड्ग और ढाल हाथ में ले अपने पिता के अत्‍यन्‍त वैरी वृद्धक्षत्र के पुत्र जयद्रथ के सम्‍मुख उसी प्रकार चला, जैसे सिंह हाथी पर आक्रमण करता है। 
     वे दोनो खड्ग, दन्‍त और नख का आयुध के रूप में उपयोग करते थे और बाघ तथा सिंहों के समान एक-दूसरे से भिड़कर बड़े हर्ष और उत्‍साह के साथ परस्‍पर प्रहार कर रहे थे। ढाल और तलवार के सम्‍पात, अविघात  और निपात की कला में उन दोनों पुरुषसिंह अभिमन्‍यु और जयद्रथ में किसी को कोई अन्‍तर नहीं दिखायी देता था। 
    खड्ग का प्रहार, खड्ग-संचालन के शब्‍द, अन्‍यान्‍य शस्‍त्रों के प्रदर्शन तथा बाहर-भीतर को चोटें करने में उन दोनों वीरों की समान योग्‍यता दिखायी देती थी। वे दोनों महामनस्‍वी वीर बाहर और भीतर चोट करने के उत्‍तम पैंतरे बदलते हुए पंखयुक्‍त दो पर्वतों के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। इसी समय तलवार चलाते हुए यशस्‍वी सुभद्राकुमार की ढाल पर जयद्रथ ने प्रहार किया। उस चमकीली ढाल पर सोने का पत्र जड़ा हुआ था। उसके ऊपर जयद्रथ ने जब बलपूर्वक प्रहार किया, तब उससे टकराकर उसका वह विशाल खड्ग टूट गया। 
अपनी तलवार टूटी हुई जानकर जयद्रथ छ: पग उछल पड़ा और पलक मारते-मारते पुन: आने रथ पर बैठा हुआ दिखायी दिया। 
    उस समय अर्जुनपुत्र अभिमन्‍यु युद्ध से मुक्‍त होकर अपने उत्‍तम रथ पर जा बैठा। इतने ही में सब राजाओं ने एक साथ आकर उसे सब ओर से घेर लिया। तब महाबली अर्जुनकुमार ने ढाल और तलवार ऊपर उठाकर जयद्रथ की ओर देखते हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया।      शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने सिन्‍धुराज जयद्रथ को छोड़कर, जैसे सूर्य सम्‍पूर्ण जगत को तपाते हैं, उसी प्रकार उस सेना को संताप देना आरम्‍भ किया। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 78-87 का हिन्दी अनुवाद)

    तब शल्‍य ने समरभूमि में अभिमन्‍यु पर सम्‍पूर्णत: लोहे की बनी हुई एक स्‍वर्णभूषित भयंकर शक्ति छोड़ी, जो अग्नि शिखा के समान प्रज्‍वलित हो रही थी। जैसे गरुड़ उड़ते हुए श्रेष्‍ठ नाग को पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने उछलकर उस शक्ति को पकड़ लिया और म्‍यान से तलवार खींच ली।
   अमित तेजस्‍वी अभिमन्‍यु की वह फुर्ती और शक्ति देखकर सब राजा एक साथ सिंहनाद करने लगे। उस समय शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने वैदूर्यमणि की बनी हुई तीखी धारवाली उसी शक्ति को अपने बाहुबल से शल्‍य पर चला दिया। केंचुल से छूटकर निकले हुए सर्प के समान प्रतीत होने वाली उस शक्ति ने शल्‍य के रथ पर पहुँचकर उनके सारथि को मार डाला और उसे रथ से नीचे गिरा दिया। 
    यह देखकर विराट, द्रुपद, धृष्‍टकेतु, युधिष्ठिर, सात्‍यकि, केकयराजकुमार, भीमसेन, धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र 'साधु,साधु' कहकर कोलाहल करने लगे। उस समय युद्धभूमि में पीठ न दिखाने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु का हर्ष बढ़ाते हुए नाना प्रकार के बाण-संचालजनित शब्‍द और महान सिंहनाद प्रकट होने लगे।
    महाराज! उस समय आपके पुत्र शत्रु की विजय की सूचना देने वाले उस सिंहनाद को नहीं सह सके। वे सब-के-सब सहसा सब ओर से अभिमन्‍यु पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे, मानो मेघ पर्वत पर जल की धाराएँ बरसा रहे हों।  अपने सारथि को मारा गया देख कौरवों का प्रिय करने की इच्‍छा वाले शत्रुसूदन शल्‍य ने कुपित होकर सुभद्राकुमार पर पुन: आक्रमण किया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में अभिमन्‍यु का पराक्रमविषयक चौदहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

पंद्रहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पचदश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“शल्‍य के साथ भीमसेन का युद्ध तथा शल्‍य की पराजय”


    धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! तुमने बहुत से अत्‍यन्‍त विचित्र दन्‍दयुद्धों का वर्णन किया है, उनकी कथा सुनकर मैं नेत्र वाले लोगों के सौभाग्य की स्‍पृहा करता हूँ। देवताओं और असुरों के समान इस कौरव-पाण्‍डव-युद्ध को संसार के मनुष्‍य अत्‍यन्‍त आश्चर्य की वस्‍तु बतायेंगे।
    इस समय इस उत्‍तम युद्ध-वृतान्‍त को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है; अत: शल्‍य और सुभद्राकुमार के युद्ध का वृतान्‍त मुझसे कहो। 
    संजय ने कहा ;- राजन! राजा शल्‍य अपने सारथि को मारा गया देख कुपित हो उठे और पूर्णत: लोहे की बनी हुई गदा उठाकर गर्जते हुए अपने उत्तम रथ से कूद पड़ें। 
   उन्‍हें प्रलयकाल की प्रज्‍वलित अग्नि तथा दण्‍डधारी यमराज के समान आते देख भीमसेन विशाल गदा हाथ में लेकर बड़े वेग से उनकी और दौड़े। उधर से अभिमन्‍यु भी वज्र के समान विशाल गदा हाथ में लेकर आ पहुँचा और 'आओ, आओ' कहकर शल्‍य को ललकारने लगा। उस समय भीमसेन ने बड़े प्रयत्‍न से उसको रोका। 
   सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु को रोककर प्रतापी भीमसेन राजा शल्‍य के पास जा पहुँचे और समरभूमि में पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। इसी प्रकार मद्रराज शल्‍य भी महाबली भीमसेन को देखकर तुरंत उन्‍हीं की ओर बढ़े, मानो सिंह किसी गजराज पर आक्रमण कर रहा हो। 
    उस समय सहस्‍त्रों रणवाद्यों और शंखों के शब्‍द वहाँ गूँज उठे। वीरों के सिंहनाद प्रकट होने लगे और नगाड़ों के गंभीर घोष सर्वत्र व्‍याप्‍त हो गये। एक दूसरे की ओर दौड़ते हुए सैकड़ों दर्शकों, कौरवों और पाण्‍डवों के साधुवाद का महान शब्‍द वहाँ सब ओर गूँजने लगा। 
भरतनन्‍दन! समस्‍त राजाओं मे मद्रराज शल्‍य के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं था, जो युद्ध में भीमसेन के वेग को सहने का साहस कर सके। 
     इसी प्रकार संसार में भीमसेन के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में महामनस्‍वी मद्रराज शल्‍य की गदा के वेग को सह सकता है। उस समय भीमसेन के द्वारा घुमायी गयी विशाल गदा सुवर्णपत्र से जटित होने के कारण अग्नि के समान प्रज्‍वलित हो रही थी। वह वीरजनों के हृदय में हर्ष और उत्‍साह की वृद्धि करने वाली थी। 
    इसी प्रकार गदायुद्ध के विभिन्‍न मार्गों और मण्‍डलों से विचरते हुए महाराज शल्‍य की महाविधुत के समान प्रकाशमान गदा बड़ी शोभा पा रही थी। वे शल्‍य और भीमसेन दोनों गदारूप सींगों को घुमा-घुमाकर साँड़ों की भाँति गरजते हुए पैंतरे बदल रहे थे। मण्‍डलाकार घूमने के मार्गों और गदा के प्रहारों में उन दोनों पुरुषसिंहों की योग्‍यता एक-सी जान पड़ती थी। 
    उस समय भीमसेन की गदा से टकराकर शल्‍य की विशाल एवं महाभयंकर गदा आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई तत्‍काल छिन्‍न-भिन्‍न होकर बिखर गयी। इसी प्रकार शत्रु के आघात करने पर भीमसेन की गदा भी चिनगारियाँ छोड़ती हुई वर्षाकाल की संध्‍या के समय जुगनुओं से जगमगाते हुए वृक्ष की भाँति शोभा पाने लगी। 
   भारत! तब मद्रराज शल्‍य ने समरभूमि में दूसरी गदा चलायी, जो आकाश को प्रकाशित करती हुई बारंबार अंगारों की वर्षा कर रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

    इसी प्रकार भीमसेन ने शत्रु को लक्ष्‍य करके जो गदा चलायी थी, वह आकाश से गिरती हुई बड़ी भारी उल्‍का के समान कौरव-सेना को संतप्‍त करने लगी। वे दोनों गदाएँ गदाधारियों में श्रेष्‍ठ भीमसेन और शल्‍य को पाकर परस्‍पर टकराती हुई फुफकारती नागकन्‍याओं की भाँति अग्नि की तृष्टि करती थीं। 
    जैसे दो बड़े व्‍याघ्र पंजो से और दो विशाल हाथी दाँतों से आपस में प्रहार करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन और शल्‍य गदाओं के अग्रभाग से एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए विचर रहे थे। एक ही क्षण में गदा के अग्रभाग से घायल होकर वे दोनों महामनस्‍वी वीर खून से लथपथ हो फूलों से भरे हुए दो पलाश वृक्षों के समान दिखायी देने लगे।
   उन दोनो पुरुषसिंहों की गदाओं के टकराने का शब्‍द इन्‍द्र के वज्र की गड़गड़ाहट के समान सम्‍पूर्ण दिशाओं मे सुनायी देता था। उस समय मद्रराज की गदा से बायें-दायें चोट खाकर भी भीमसेन विचलित नहीं हुए। जैसे पर्वत वज्र का आघात सहकर भी अविचल भाव से खड़ा रहता है। 
    इसी प्रकार भीमसेन की गदा के वेग से आहत होकर महाबली मद्रराज वज्राघात से पीड़ित पर्वत की भाँति धैर्यपूर्वक खड़े रहे। वे दोनों महावेगशाली वीर गदा उठाये एक-दूसरे पर टूट पड़े। फिर अन्‍तर्मार्ग में स्थित हो मण्‍डलाकार गति से विचरने लगे। तत्‍पश्‍चात आठ पग चलकर दोनों दो हाथियों की भाँति परस्‍पर टूट पड़े और सहसा लोहे के डंडो से एक-दूसरे को मारने लगे। 
    वे दोनों वीर परस्‍पर के वेग से और गदाओं द्वारा अत्‍यन्‍त घायल हो दो इन्‍द्रध्‍वजों के समान एक ही समय पृथ्‍वी पर गिर पड़े। उस समय शल्‍य अत्‍यन्‍त विह्वल होकर बार-बार लम्‍बी साँस खींच रहे थे। इतने ही में महारथी कृतवर्मा तुरंत राजा शल्‍य के पास आ पहुँचा। महाराज! आकर उसने देखा कि राजा शल्‍य गदा से पीड़ित एवं मूर्छा से अचेत हो आहत हुए नाग की भाँति छटपटा रहे हैं। 
    यह देख महारथी कृतवर्मा युध्दस्थल में मद्रराज शल्‍य को अपने रथ पर बिठाकर तुरंत ही रणभूमि से बाहर हटा ले गया। 
    तदनन्‍तर महाबाहु वीर भीमसेन भी मदोन्‍मत्त की भाँति विह्वल हो पलक मारते-मारते उठकर खड़े हो गये और हाथ में गदा लिये दिखायी देने लगे। आर्य! उस समय मद्रराज शल्‍य को युद्ध मे विमुख हुआ देख हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-सेनाओं सहित आपके सारे पुत्र भय से काँप उठे। विजय से सुशोभित होने वाले पाण्‍डवों द्वारा पीड़ित हो आपके सभी सैनिक भयभीत हो हवा के उड़ाये हुए बादलों की भाँति चारों दिशाओं मे भाग गये। 
    राजन! इस प्रकार आपके पुत्रों को जीतकर महारथी पाण्‍डव प्रज्‍वलित अग्नियों की भाँति रणक्षेत्र में प्रकाशित होने लगे। उन्‍होंने हर्षित होकर बारंबार सिंहनाद किये और बहुत-से शंख बजाये; साथ ही उन्‍होंने भेरी, मृदंग और आनक आदि वाद्यों को भी बजवाया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में शल्‍य का पलायनविषयक पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


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