सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“वृषसेन का पराक्रम, कौरव-पाण्डव वीरों का तुमुल युद्ध, द्रोणाचार्य के द्वारा पाण्डवपक्ष के अनेक वीरों का वध तथा अर्जुन की विजय”
संजय कहते हैं ;- महाराज! आपकी विशाल सेना को तितर-बितर हुई देख एकमात्र पराक्रमी वृषसेन ने अपने अस्त्रों की माया से रणक्षेत्र में उसे धारण किया। उस युद्धस्थल में वृषसेन के छोड़े हुए बाण हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्यों को विदीर्ण करते हुए दसों दिशाओं में विचरने लगे। महाराज! जैसे ग्रीष्म-ऋतु में सूर्य से निकलकर सहस्त्रों किरणें सब ओर फैलती हैं, उसी प्रकार वृषसेन के धनुष से सहस्त्रों तेजस्वी महाबाण निकलने लगे। राजन! जैसे प्रचण्ड आँधी से सहसा बड़े-बड़े वृक्ष टूटकर गिर जाते हैं, उसी प्रकार वृषसेन के द्वारा पीड़ित हुए रथी और अन्य योद्धागण सहसा धरती पर गिरने लगे।
नरेश्वर! उस महारथी वीर ने रणभूमि में घोड़ों, रथों और हाथियों के सैकड़ों-हजारों समूहों को मार गिराया। उसे अकेले ही समरभूमि में निर्भय विचरते देख सब राजाओं ने एक साथ अाकर सब ओर से घेर लिया। इसी समय नकुल के पुत्र शतानीक ने वृषसेन पर आक्रमण किया और दस मर्मभेदी नाराचों द्वारा उसे बींध डाला। तब कर्ण के पुत्र ने शतानीक के धनुष को काटकर उनके ध्वज को भी गिरा दिया। यह देख अपने भाई की रक्षा करने के लिये द्रौपदी के दूसरे पुत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अपने बाण-समूहों की वर्षा से कर्णकुमार वृषसेन को अनायास ही आच्छादित करके अदृश्य कर दिया। महाराज! यह देख अश्वत्थामा आदि महारथि सिंहनाद करते हुए उन पर टूट पड़े और जैसे मेघ पर्वतों पर जल की धारा गिराते हैं, उसी प्रकार वे नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए तुरंत ही महारथी द्रौपदीपुत्रों को आच्छादित करने लगे। तब पुत्रों की प्राण रक्षा चाहने वाले पाण्डवों ने तुरंत आकर उन कौरव महारथियों को रोका। पाण्डवों के साथ पांचाल, केकय, मत्स्य, और सृंजय देशीय योद्धा भी अस्त्र-शस्त्र लिये उपस्थित थे। राजन! फिर तो दानवों के साथ देवताओं की भाँति आपके सैनिकों के साथ पाण्डवों का अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था।
इस प्रकार एक-दूसरे के अपराध करने वाले कौरव-पाण्डव वीर परस्पर क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखते हुए युद्ध करने लगे। क्रोधवश युद्ध करते हुए उन अमित तेजस्वी राजाओं के शरीर आकाश में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए पक्षिराज गरुड़ तथा नागों के समान दिखायी देते थे। भीम, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोण, अश्वत्थामा, धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि आदि वीरों से वह रणक्षेत्र ऐसी शोभा पा रहा था, मानो वहाँ प्रलयकाल के सूर्य का उदय हुआ हो। उस समय एक-दूसरे पर प्रहार करने वाले उन महाबली वीरों में वैसा ही भयंकर युद्ध हो रहा था, जैसे पूर्वकाल में बलवान देवताओं के साथ महाबली दानवों का संग्राम हुआ था। तदनन्तर उत्ताल तरंगों से युक्त महासागर की भाँति गर्जना करती हुई युधिष्ठिर की सेना आपकी सेना का संहार करने लगी। इससे कौरव सेना के बड़े-बड़े रथी भाग खड़े हुए।
शत्रुओं के द्वारा अच्छी तरह रौंदी गयी आपकी सेना को भागती देख द्रोणाचार्य ने कहा,,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- 'शूरवीरों! तुम भागो मत, इससे कोई लाभ न होगा'।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय द्रोणाचार्य में अमर्ष और पराक्रम दोनों का समावेश हुआ। उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा को पोंछकर तूणीर से बाण निकाला और उस महान बाण एवं धनुष को हाथ में लेकर सारथि से इस प्रकार कहा।
द्रोणाचार्य बोले ;- सारथे! वहीं चलों, जहाँ सुन्दर श्वेतछत्र धारण किये धर्मराज राजा युधिष्ठिर खड़े हैं। यह धृतराष्ट्र की सेना तितर-बितर हो अनेक भागों में बँटी जा रही है। मैं युधिष्ठिर को रोककर इस सेना को स्थिर करूँगा।
तात! ये पाण्डव, मत्स्य, पांचाल और समस्त सोमक वीर मुझ पर बाण-वर्षा नहीं कर सकते। अर्जुन ने भी मेरी ही कृपा से बड़े-बड़े अस्त्रों को प्राप्त किया है। तात! वे भीमसेन और सात्यकि भी मुझसे लड़ने का साहस नहीं कर सकते। अर्जुन मेरे ही प्रसाद से महान धनुर्धर हो गये हैं। धृष्टद्युम्न भी मेरे ही दिये हुए अस्त्रों का ज्ञान रखता है। तात सारथे! विजय की अभिलाषा रखने वाले वीर के लिये यह प्राणों की रक्षा करने का अवसर नहीं है। तुम स्वर्ग प्राप्ति का उदेश्य लेकर यश और विजय के लिये आगे बढ़ो।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि अश्वहृदय नामक मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके घोड़ों का हर्ष बढ़ाता हुआ आवरणयुक्त प्रकाशमान एवं तेजस्वी रथ के द्वारा शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्य को आगे ले चला उस समय करूष, मत्स्य, चेदि, सात्वत, पाण्डव तथा पांचाल वीरों ने एक साथ आकर द्रोणाचार्य को रोका।
तब लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य कुपित हो चार दाँतों वाले गजराज के समान पाण्डव सेना में घुसकर युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। युधिष्ठिर ने गीध की पाँखों से युक्त पैने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को बींध डाला। तब द्रोणाचार्य ने उनका धनुष काटकर बड़े वेग से उन पर आक्रमण किय। उस समय पांचालों के यश को बढ़ाने वाले कुमार ने, जो युधिष्ठिर के रथ-चक्र की रक्षा कर रहे थे, आते हुए द्रोणाचार्य को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्र को रोकती है।
कुमार के द्वारा द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को रोका गया देख पाण्डव सेना में जोर-जोर से सिंहनाद होने लगा और सब लोग कहने लगे 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा'। कुमार ने उस महायुद्ध में कुपित हो बारंबार सिंहनाद करते हुए एक बाण द्वारा द्रोणाचार्य की छाती मे चोट पहुँचायी। इतना ही नहीं, उस महाबली कुमार ने कई हजार बाणों द्वारा रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य को रोक दिया; क्योंकि उनके हाथ अस्त्र-संचालन की कला में दक्ष थे और उन्होंने परिश्रम को जीत लिया था। परंतु द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने शूर, आर्यव्रती एवं मन्त्रास्त्रविधा में परिश्रम किये हुए चक्र-रक्षक कुमार को परास्त कर दिया।
राजन! भरद्वाजनन्दन विप्रवर द्रोणाचार्य आपकी सेना के संरक्षक थे। वे पाण्डव सेना के बीच में घुसकर सम्पूर्ण दिशाओं में विचरने लगे।उन्होंने शिखण्डी को बारह, उत्तमौजा को बीस, नकुल को पाँच और सहदेव को सात बाणों से घायल करके युधिष्ठिर को बारह, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को तीन-तीन, सात्यकि को पाँच और विराट को दस बाणों से बींध डाला। राजन! उन्होंने रणक्षेत्र में मुख्य-मुख्य योद्धाओं पर धावा करके उन सबको क्षोभ में डाल दिया और कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये उन पर वेग से आक्रमण किया।
राजन! उस समय वायु के थपेड़ों से विक्षुब्ध हुए महासागर के समान क्रोध में भरे हुए महारथी द्रोणाचार्य को राजा युगन्धर ने रोक दिया। तब झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा युधिष्ठिर को घायल करके द्रोणाचार्य ने एक भल्ल नामक बाण द्वारा मारकर युगन्धर को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। यह देख विराट, द्रुपद, केकय, सात्यकि, शिबि, पांचाल देशीय व्याघ्रदत्त तथा पराक्रमी सिंहसेन- ये तथा और भी बहुत-से नरेश राजा युधिष्ठिर की रक्षा करने के लिये बहुत से सायकों की वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य की राह रोककर खड़े हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 34-54 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! पांचालदेशीय व्याघ्रदत्त ने पचास तीखे बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। तब सब लोग जोर-जोर से हर्षनाद करने लगे। हर्ष में भरे हुए सिंहसेन ने तुरंत ही महारथी द्रोणाचार्य को घायल करके अन्य महारथियों के मन में त्रास उत्पन्न करते हुए सहसा जोर से अट्टहास किया। (35)
तब द्रोणाचार्य ने आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए धनुष की डोरी साफ कर महान टंकारघोष करके सिंहसेन पर आक्रमण किया। (36)
फिर बलवान द्रोण ने आक्रमण के साथ ही भल्ल नामक दो बाणों द्वारा सिंहसेन और व्याघ्रदत्त के शरीर से उनके कुण्डलमण्डित मस्तक काट डाले। इसके बाद पाण्डवों ने उन अन्य महारथियों को भी अपने बाणसमूहों से मथित करके विनाशकारी यमराज के समान वे युधिष्ठिर के रथ के समीप खड़े हो गये। राजन! नियम एवं व्रत का पालन करने वाले द्रोणाचार्य युधिष्ठिर के बहुत निकट आ गये। तब उनकी सेना के सैनिकों में महान हाहाकार मच गया। सब लोग कहने लगे 'हाय, राजा मारे गये'। वहाँ द्रोणाचार्य का पराक्रम देख कौरव सैनिक कहने लगे, 'आज राजा दुर्योधन अवश्य कृतार्थ हो जायँगे'। 'इस मुहूर्त में द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में निश्चय ही राजा युधिष्ठिर को पकड़कर बड़े हर्ष के साथ हमारे राजा दुर्योधन के समीप ले आयेंगे'।
राजन! जब आपके सैनिक ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय उनके समक्ष कुन्तीनन्दन महारथी अर्जुन अपने रथ की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए बड़े वेग से आ पहुँचे। वे उस मार-काट से भरे हुए संग्राम में रक्त की नदी बहा कर आये थे। उसमें शोणित ही जल था। रथ की भँवरे उठ रही थीं। शूरवीरों की हड्डियाँ उसमें शिलाखण्डों के समान बिखरी हुई थीं। प्रेतों के कंकाल उस नदी के कूल-किनारे जान पड़ते थे, जिन्हें वह अपने वेग से तोड़-फोड़कर बहाये लिये जाती थी। बाणों के समुदाय उसमें फेनों के बहुत बड़े ढेर के समान जान पड़ते थे। प्रास आदि शस्त्र उसमें मत्स्य के समान छाये हुए थे। उस नदी को वेगपूर्वक पार करके कौरव सैनिकों को भगाकर पाण्डुनन्दन किरीटधारी अर्जुन ने सहसा द्रोणाचार्य की सेना पर आक्रमण किया। वे अपने बाणों के महान समुदाय से द्रोणाचार्य को मोह में डालते हुए-से आच्छादित करने लगे। यशस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन इतनी शीघ्रता के साथ निरन्तर बाणों को धनुष पर रखते और छोड़ते थे कि किसी को इन दोनों क्रियाओं में तनिक भी अन्तर नहीं दिखायी देता था।
महाराज! न दिशाएँ, न अन्तरिक्ष, न आकाश और न पृथ्वी ही दिखायी देती थी। सम्पूर्ण दिशाएँ बाणमय हो रही थीं। राजन! उस रणक्षेत्र में गाण्डीवधारी अर्जुन ने बाणों के द्वारा महान अन्धकार फैला दिया था। उसमें कुछ भी दिखायी नहीं देता था। सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, सम्पूर्ण जगत अन्धकार से व्याप्त हो गया, उस समय न कोई शत्रु पहचाना जाता था न मित्र। तब द्रोणाचार्य और दुर्योधन आदि ने अपनी सेना को पीछे लौटा लिया। शत्रुओं का मन अब युद्ध से हट गया है और वे बहुत डर गये हैं, यह जानकर अर्जुन ने भी धीरे-धीरे अपनी सेनाओं को युद्धभूमि से हटा लिया। उस समय हर्ष में भरे हुए पाण्डव, सृंजय और पांचाल वीर जैसे ऋषिगण सूर्यदेव की स्तुति करते हैं, उसी प्रकार मनोहर वाणी से कुन्तीकुमार अर्जुन के गुणगान करने लगे।
इस प्रकार शत्रुओं को जीतकर सब सेनाओं के पीछे श्रीकृष्ण सहित अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने शिविर को गये। जैसे नक्षत्रों द्वारा चितकबरे प्रतीत होने वाले आकाश में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रनील, पद्मराग, सुवर्ण, वज्रमणि, मूँगे तथा स्फटिक आदि प्रधान-प्रधान मणिरत्नों से विभूषित विचित्र रथ में बैठे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन शोभा पा रहे थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में द्रोण के प्रथम दिन के युद्ध में सेना को पीछे लौटाने से सम्बन्ध रखने वाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“सुशर्मा आदि संशप्तक वीरों की प्रतिज्ञा तथा अर्जुन का युद्ध के लिये उनके निकट जाना”
संजय कहते हैं ;– प्रथानाथ! वे दोनों सेनाएँ अपने शिविर में जाकर ठहर गयीं। जो सैनिक जिस विभाग और जिस सैन्यदल में नियुक्त थे, उसी में यथायोग्य स्थान पर जाकर सब ओर ठहर गये। सेनाओं को युद्ध से लौटाकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अत्यन्त दुखी हो दुर्योधन की ओर देखते हुए लज्जित होकर बोले।
राजन! मैंने पहले ही कह दिया था कि अर्जुन के रहते हुए सम्पूर्ण देवता भी युद्ध में युधिष्ठिर को पकड़ नहीं सकते हैं। तुम सब लोगों के प्रयत्न करने पर भी उस युद्धस्थल में अर्जुन ने मेरे पूर्वोक्त कथन को सत्य कर दिखाया है। तुम मेरी बात पर संदेह न करना। वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरे लिये अजेय हैं। राजन! यदि किसी उपाय से श्वेतवाहन अर्जुन दूर हटा दिये जायें तो ये राजा युधिष्ठिर मेरे वश में आ जायँगे। यदि कोई वीर अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारकर दूसरे स्थान में खींच ले जाये तो वह कुन्तीकुमार उसे परास्त किये बिना किसी प्रकार नहीं लौट सकता।
नरेश्वर! इस सूने अवसर में मैं धृष्टद्युम्न के देखते-देखते पाण्डव सेना को विदीर्ण करके धर्मराज युधिष्ठिर को अवश्य पकड़ लूँगा। अर्जुन से अलग रहने पर यदि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर मुझे निकट आते देख युद्धस्थल का परित्याग नहीं कर देंगे तो तुम निश्चय समझो, वे मेरी पकड़ में आ जायँगे। 'महाराज! यदि अर्जुन के बिना दो घड़ी भी युद्धभूमि में खड़े रहे तो मैं तुम्हारे लिये धर्मपुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को आज उनके गणों सहित अवश्य पकड़ लाऊँगा; इसमें संदेह नहीं है और यदि वे संग्राम से भाग जाते हैं तो यह हमारी विजय से भी बढ़कर है'।
संजय कहते हैं ;– राजन! द्रोणाचार्य का यह वचन सुनकर उस समय भाइयों सहित त्रिगर्तराज सुशर्मा ने इस प्रकार कहा। महाराज! गाण्डीवधारी अर्जुन ने हमेशा हम लोगों का अपमान किया है। यद्यपि हम सदा निरपराध रहे हैं तो भी उनके द्वारा सर्वदा हमारे प्रति अपराध किया गया। हम पृथक-पृथक किये गये उन अपराधों को याद करके क्रोधाग्नि से दग्ध होते रहते हैं तथा रात में हमें कभी नींद नहीं आती है। अब हमारे सौभाग्य से अर्जुन स्वयं ही अस्त्र-शस्त्र धारण करके आँखों के सामने आ गये हैं। इस दशा में हम मन-ही-मन जो कुछ करना चाहते थे, वह प्रतिशोधात्मक कार्य अवश्य करेंगे।
उसने आपका तो प्रिय होगा ही, हम लोगों की सुयश की भी वृद्धि होगी। हम इन्हें युद्धस्थल से बाहर खींच ले जायँगे और मार डालेंगे। 'आज हम आपके सामने यह सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि यह भूमि या तो अर्जुन से सूनी हो जायेगी या त्रिगर्तों में से कोई इस भूतल पर नहीं रह जायगा। मेरा यह कथन कभी मिथ्या नहीं होगा'। भरतनन्दन! सुशर्मा के ऐसा कहने पर सत्यरथ, सत्यवर्मा, सत्यव्रत, सत्येषु तथा सत्यकर्मा नाम वाले उसके पाँच भाइयों ने भी इसी प्रतिज्ञा को दुहराया। उनके साथ दस हजार रथियों की सेना भी थी। महाराज! ये लोग युद्ध के लिये शपथ खाकर लौटे थे। महाराज! ऐसी प्रतिज्ञा करके प्रस्थलाधिपति पुरुषसिंह त्रिगर्तराज सुशर्मा तीस हजार रथियों सहित मालव, तुण्डिकेर, मावेल्लक, ललित्थ , मद्रकगण तथा दस हजार रथियों से युक्त अपने भाइयों के साथ युद्ध के लिये गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)
विभिन्न देशों से आये हुए दस हजार श्रेष्ठ महारथी भी वहाँ शपथ लेने के लिये उठकर गये। उन सब ने पृथक-पृथक अग्निदेव की पूजा करके हवन किया तथा कुश के चीर और विचित्र कवच धारण कर लिये। कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेने के पश्चात उन्होंने अपने अंगों में घी लगाया और 'मौर्वी' नामक तृण विशेष की बनी हुई मेखला धारण की। वे सभी वीर पहले यज्ञ करके लाखों स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा में बाँट चुके थे। उन सब ने पूर्वकाल में यज्ञों का अनुष्ठान किया था, वे सभी पुत्रवान तथा पुण्यलोकों में जाने के अधिकारी थे, उन्होंने अपने कर्तव्यों को पूरा कर लिया था। वे हर्षपूर्वक युद्ध में अपने शरीर का त्याग करने को अद्यत थे और अपने आपको यश एवं विजय से संयुक्त करने जा रहे थे।
ब्रह्मचर्य पालन, वेदों के स्वाध्याय तथा पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञों के अनुष्ठान आदि साधनों से जिन पुण्यलोकों की प्राप्ति होती है, उन सब में वे उत्तम युद्ध के द्वारा ही शीघ्र पहुँचने की इच्छा रखते थे।ब्राह्मणों को भोजन आदि से तृप्त करके उन्हें अलग-अलग स्वर्णमुद्राओं, गौओं तथा वस्त्रों की दक्षिणा देकर परस्पर बातचीत करके उन्होंने वहाँ एकत्र हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्त किया और हर्षोल्लासपूर्वक निर्मल जल का स्पर्श करके अग्नि को प्रज्वलित किया। फिर समीप आकर युद्ध का व्रत ले अग्नि के सामने ही दृढ़ निश्चयपूर्वक प्रतिज्ञा की। उन सभी ने समस्त प्राणियों के सुनते हुए अर्जुन का वध करने के लिये प्रतिज्ञा की और उच्च स्वर से यह बात कही।
यदि हम लोग अर्जुन को युद्ध में मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणों से पीड़ित हो भय के कारण युद्ध से पराड़्मुख हो जायें तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्त हों जो व्रत का पालन न करने वाले, ब्रह्महत्यारे, मद्य पीने वाले, गुरुस्त्रीगामी, ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाले, राजा की दी हुई जीविका को छीन लेने वाले, शरणागत को त्याग देने वाले, याचक को मारने वाले, घर में आग लगाने वाले, गोवध करने वाले, दूसरों की बुराई में लगे रहने वाले, ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाले, ऋतुकाल में भी मोहवश अपनी पत्नी के साथ समागन न करने वाले, श्राद्ध के दिन मैथुन करने वाले, अपनी जाति छिपाने वाले, धरोहर को हड़प लेने वाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने वाले, नपुंसक के साथ युद्ध करने वाले, नीच पुरुषों का संग करने वाले, ईश्वर और परलोक पर विश्वास न करने वाले,अग्नि, माता और पिता की सेवा का परित्याग करने वाले, खेती को पैरों से कुचलकर नष्ट कर देने वाले, सूर्य की और मुँह करके मूत्र त्याग करने वाले तथा पापपरायण पुरुषों को प्राप्त होते हैं। ‘यदि आज हम युद्ध में अर्जुन को मारकर लोक में असम्भव माने जाने वाले कर्म को भी कर लेंगे तो मनोवांछित पुण्यलोकों को प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं हैं।' राजन! ऐसा कहकर वे वीर संशप्तकगण उस समय अर्जुन को ललकारते हुए युद्धस्थल में दक्षिण दिशा की ओर जाकर खड़े हो गये। उन पुरुषसिंह संशप्तकों द्वारा ललकारे जाने पर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।
राजन! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्ध के लिये बुलाये तो मैं पीछे नही हटूँगा। ये संशप्तक मुझे महायुद्ध में बुला रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 40-48 का हिन्दी अनुवाद)
'यह सुशर्मा अपने भाइयों के साथ आकर मुझे युद्ध के लिये ललकार रहा है, अत: गणों सहित इस सुशर्मा का वध करने के लिये मुझे आज्ञा देने की कृपा करें'। पुरुषप्रवर! मैं शत्रुओं की यह ललकार नहीं सह सकता। आपसे सच्ची प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि इन शत्रुओं को युद्ध में मारा गया ही समझिये'।
युधिष्ठिर बोले ;– तात! द्रोणाचार्य क्या करना चाहते हैं, यह तो तुमने अच्छी तरह सुन ही लिया होगा। उनका वह संकल्प जैसे भी झूठा हो जाये, वही तुम करो। महारथी वीर! आचार्य द्रोण बलवान, शौर्यसम्पन्न और अस्त्रविद्या में निपुण हैं, उन्होंने परिश्रम को जीत लिया है तथा वे मुझे पकड़कर दुर्योधन के पास ले जाने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं।
अर्जुन बोले ;– राजन्! ये पांचाल राजकुमार सत्यजित आज युद्धस्थल में आपकी रक्षा करेंगे। इनके जीते-जी आचार्य अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सकेंगे। प्रभो! यदि पुरुषसिंह सत्यजित रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हो जायें तो आप सब लोगों के साथ होने पर भी किसी तरह युद्धभूमि में न ठहरियेगा।
संजय कहते है ;- राजन! तब राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन को जाने की आज्ञा दे दी और उनको हृदय से लगा लिया। प्रेमपूर्वक उन्हें बार-बार देखा और आशीर्वाद दिया। तदनन्तर बलवान कुन्तीकुमार अर्जुन राजा युधिष्ठिर को वहीं छोड़कर त्रिगर्तों की ओर बढ़े, मानो भूखा सिंह अपनी भूख मिटाने के लिये मृगों के झुंड की ओर जा रहा हो। तब दुर्योधन की सेना बड़ी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के बिना राजा युधिष्ठिर को कैद करने के लिये अत्यन्त क्रोधपूर्वक प्रयत्न करने लगी।
तत्पश्चात दोनों सेनाएँ बड़े वेग से परस्पर भिड़ गयी, मानो वर्षा ऋतु में जल से लबालब भरी हुई गंगा और सरयू वेगपूर्वक आपस में मिल रही हों।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में अर्जुन की रणयात्राविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“संशप्तक सेनाओं के साथ अर्जुन का युद्ध और सुधन्वा का वध”
संजय कहते हैं ;– राजन! तदनन्तर संशप्तक योद्धा रथों द्वारा ही सेना का चन्द्राकार व्यूह बनाकर समतल प्रदेश में प्रसन्नतापूर्वक खड़े हो गये। आर्य! किरीटधारी अर्जुन को आते देख पुरुषसिंह संशप्तक हर्षपूर्वक बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उस सिंहनाद ने सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं तथा आकाश को व्याप्त कर लिया। इस प्रकार सम्पूर्ण लोक व्याप्त हो जाने से वहाँ दूसरी कोई प्रतिध्वनि नहीं होती थी।
अर्जुन ने उन सबको अत्यन्त हर्ष में भरा हुआ देख किंचित मुस्कराते हुए भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा। देवकीनन्दन! देखिये तो सही, ये त्रिगर्तदेशीय सुशर्मा आदि सब भाई मृत्यु के निकट पहुँचे हुए हैं। आज युद्धस्थल में जहाँ इन्हें रोना चाहिये, वहाँ ये हर्ष से उछल रहे हैं। अथवा इसमें संदेह नहीं कि यह इन त्रिगर्तों के लिये हर्ष का ही अवसर है; क्योंकि ये उन परम उत्तम लोकों में जायँगे, जो दुष्ट मनुष्यों के लिये दुर्लभ हैं। भगवान हृषीकेश से ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने युद्ध में त्रिगर्तों की व्यूहाकार खड़ी हुई सेना पर आक्रमण किया।
उन्होंने सुवर्णजटित देवदत्त नामक शंख लेकर उसकी ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को परिपूर्ण करते हुए उसे बड़े वेग से बजाया। उस शंखनाद से भयभीत हो वह संशप्तक-सेना युद्धभूमि में लोहे की प्रतिमा के समान निश्चेष्ट खड़ी हो गयी। भरतश्रेष्ठ! वह निश्चेष्ट हुई सेना ऐसी सुशोभित हुई, मानो कुशल कलाकारों द्वारा चित्रपट में अंकित की गयी हो। सम्पूर्ण आकाश में फैले हुए उस शंखनाद ने समूची पृथ्वी और महासागर को भी प्रतिध्वनित कर दिया। उस ध्वनि से सम्पूर्ण सैनिकों के कान बहरे हो गये।
उनके घोड़े आँखे फाड़-फाड़कर देखने लगे। उनके कान और गर्दन स्तब्ध हो गये, चारों पैर अकड़ गये और वे मूत्र के साथ-साथ रूधिर भी त्याग करने लगे। थोड़ी देर में चेत होने पर संशप्तको ने अपनी सेना को स्थिर किया और एक साथ ही पाण्डुपुत्र अर्जुन पर कंकपक्षी की पाँख वाले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु पराक्रमी अर्जुन ने पंद्रह शीघ्रगामी बाणों द्वारा उनके सहस्त्रों बाणों को अपने पास आने से पहले ही शीघ्रतापूर्वक काट डाला।
तदनन्तर संशप्तकों ने दस-दस तीखे बाणों से पुन: अर्जुन को बींध डाला, यह देख उन कुन्तीकुमार ने भी तीन-तीन बाणों से संशप्तकों को घायल कर दिया। राजन! फिर उनमें से एक-एक योद्धा ने अर्जुन को पाँच-पाँच बाणों से बींध डाला और पराक्रमी अर्जुन ने भी दो-दो बाणों द्वारा उन सबको घायल करके तुरंत बदला चुकाया।
तत्पश्चात अत्यन्त कुपित हो संशप्तकों ने पुन: श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को पैने बाणों द्वारा उसी प्रकार परिपूर्ण करना आरम्भ किया, जैसे मेघ वर्षा द्वारा सरोवर को पूर्ण करते हैं। तत्पश्चात अर्जुन पर एक ही साथ हजारों बाण गिरे, मानो वन में फूले हुए वृक्ष पर भौंरों के समूह आ गिरे हों। तदनन्तर सुबाहु ने लोहें के बने हुए तीस बाणों द्वारा अर्जुन के किरीट में गहरा आघात किया। सोने के पंखों से युक्त सीधे जाने वाले वे बाण उनके किरीट में चारों ओर से धँस गये। उन बाणों द्वारा किरीटधारी अर्जुन की वैसी ही शोभा हुई जैसे स्वर्णमय मुकुट से मण्डित भगवान सूर्य उदित एवं प्रकाशित हो रहे हों।
तब पाण्डुनन्दन अर्जुन ने भल्ल का प्रहार करके युद्ध में सुबाहु के दस्ताने को काट दिया और उसके ऊपर पुन: बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद)
यह देख सुशर्मा, सुरथ, सुधर्मा, सुधन्वा और सुबाहु ने दस-दस बाणों से किरीटधारी अर्जुन को घायल कर दिया। फिर कपिध्वज अर्जुन ने भी पृथक-पृथक बाण मारकर उन सबको घायल कर दिया। भल्लों द्वारा उनकी ध्वजाओं तथा सायकों को भी काट गिराया।
सुधन्वा का धनुष काटकर उसके घोड़ों को भी बाणों से मार डाला। फिर शिरस्त्राण सहित उसके मस्तक को भी काटकर धड़ से नीचे गिरा दिया। वीरवर सुधन्वा के धराशायी हो जाने पर उसके अनुगामी सैनिक भयभीत हो गये, वे भय के मारे वहीं भाग गये, जहाँ दुर्योधन की सेना थी। तब क्रोध में भरे हुए इन्द्रकुमार अर्जुन ने बाण-समूहों की अविच्छिन्न वर्षा करके उस विशाल वाहिनी का उसी प्रकार संहार आरम्भ किया, जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों द्वारा महान अधंकार का नाश करते हैं। तदनन्तर जब संशप्तकों की सारी सेना भागकर चारों ओर छिप गयी और सव्यसाची अर्जुन अत्यन्त क्रोध में भर गये, तब उन त्रिगर्तदेशीय योद्धाओं के मन में भारी भय समा गया।
अर्जुन के झुकी हुई गाँठ वाले बाणों की मार खाकर वे सभी सैनिक वहाँ भयभीत मृगों की भाँति मोहित हो गये। तब क्रोध में भरे हुए त्रिगर्तराज ने अपने उन महारथियों से कहा,
त्रिगर्तराज ने कहा ;- 'शूरवीरों! भागने से कोई लाभ नहीं है। तुम भय न करो।'
'सारी सेना के सामने भयंकर शपथ खाकर अब यदि दुर्योधन की सेना में जाओगे तो तुम सभी श्रेष्ठ महारथी क्या जवाब दोगे?' हमें युद्ध में ऐसा कर्म करके किसी प्रकार संसार में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहिये। अत: तुम सब लोग लौट आओ। हमें यथा शक्ति एक साथ संगठित होकर युद्धभूमि में डटे रहना चाहिये।' राजन! त्रिगर्तराज के ऐसा कहने पर वे सभी वीर बारंबार गर्जना करने और एक-दूसरे में हर्ष एवं उत्साह भरते हुए शंख बजाने लगे। तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेना के ग्वाले मृत्यु को ही युद्ध से निवृति का अवसर मानकर पुन: लौट आये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवध पर्व में सुधन्वा का वधविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“संशप्तकगणों के साथ अर्जुन का घोर युद्ध”
संजय कहते हैं ;– राजन! उन संशप्तकगणों को पुन: लौटा हुआ देख अर्जुन ने महात्मा श्रीकृष्ण से कहा। हृषीकेश! घोड़ों को इन संशप्तकगणों की ओर ही बढ़ाइये। मुझे ऐसा जान पड़ता है, ये जीते-जी रणभूमि का परित्याग नहीं करेंगे। 'आज आप मेरे अस्त्र, भुजाओं और धनुष का बल देखिये। क्रोध में भरे हुए रुद्रदेव जैसे पशुओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन्हें मार गिराऊँगा।
तब श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अर्जुन की मंगलकामना करते हुए उनका अभिनन्दन किया और दुर्धर्ष वीर अर्जुन ने जहाँ-जहाँ जाने की इच्छा की, वहीं-वहीं उस रथ को पहुँचाया। रणभूमि में श्वेत घोड़ों द्वारा खींचा जाता हुआ वह रथ उस समय आकाश में उड़ने वाले विमान के समान अत्यन्त शोभा पा रहा था। राजन! पूर्वकाल में देवताओं और असुरों के संग्राम में इन्द्र का रथ जिस प्रकार चलता था, उसी प्रकार अर्जुन का रथ भी कभी आगे बढ़कर और कभी पीछे हटकर मण्डलाकार गति से घूमने लगा। तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने बाणसमूहों से आच्छादित करते हुए उन्हें चारों ओर से घेर लिया।
भरतश्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में श्रीकृष्ण सहित कुन्तीकुमार अर्जुन को युद्ध में अदृश्य कर दिया। तब अर्जुन ने कुपित होकर युद्ध में अपना द्विगुण पराक्रम प्रकट करते हुए गाण्डीव धनुष को सब ओर से पोंछकर उसे तुरंत हाथ में लिया। फिर पाण्डुकुमार ने भौंहें टेढ़ी करके क्रोध को सूचित करने वाले अपने महान शंख देवदत्त को बजाया।
तदनन्तर अर्जुन ने शत्रु-समूहों का नाश करने वाले त्वाष्ट्र नामक अस्त्र का प्रयोग किया। फिर तो उस अस्त्र से सहस्त्रों रूप पृथक-पृथक प्रकट होने लगे। अपने ही समान आकृति वाले उन नाना रूपों में मोहित हो वे एक-दूसरे को अर्जुन मानकर अपने तथा अपने ही सैनिकों पर प्रहार करने लगे।
ये अर्जुन हैं, ये श्रीकृष्ण हैं, ये दोनों अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं– इस प्रकार बोलते हुए वे मोहाच्छन्न हो युद्ध में एक-दूसरे पर आघात करने लगे। उस दिव्यास्त्र से मोहित हो वे परस्पर के आघात से क्षीण होने लगे। उस रणक्षेत्र में समस्त योद्धा फूले हुए पलाश वृक्ष के समान शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात उस दिव्यास्त्र ने संशप्तकों के छोड़े हुए सहस्त्रों बाणों को भस्म करके बहुसंख्यक वीरों को यमलोक पहुँचा दिया। इसके बाद अर्जुन ने हंसकर ललित्थ, मालव, मावेल्लक, त्रिगर्त तथा यौधेय सैनिकों को बाणों द्वारा गहरी पीड़ा पहुँचायी। वीर अर्जुन के द्वारा मारे जाते हुए क्षत्रियगण काल से प्रेरित हो अर्जुन के ऊपर नाना प्रकार के बाणसमूहों की वर्षा करने लगे।
उस भयंकर बाण-वर्षा से ढक जाने के कारण वहाँ न ध्वज दिखायी देता था, न रथ; न अर्जुन दृष्टिगोचर हो रहे थे, न भगवान श्रीकृष्ण। उस समय 'हमने अपने लक्ष्य को मार लिया' ऐसा समझकर वे एक-दूसरे की ओर देखते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन मारे गये– ऐसा सोचकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने कपड़े हिलाने लगे। आर्य! वे सहस्त्रों वीर वहाँ भेरी, मृदंग और शंख बजाने तथा भयानक सिंहनाद करने लगे।
उस समय श्रीकृष्ण पसीने-पसीने हो गये और खिन्न होकर अर्जुन से बोले- 'पार्थ! कहाँ हो। मैं तुम्हें देख नहीं पाता हूँ। शत्रुओं का नाश करने वाले वीर! क्या तुम जीवित हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीकृष्ण का वह वचन सुनकर अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ वायव्यास्त्र का प्रयोग करके शत्रुओं द्वारा की हुई उस बाण-वर्षा को नष्ट कर दिया। तदनन्तर भगवान वायुदेव ने घोड़े, रथ और आयुधों सहित संशप्तक समूहों को वहाँ से सूखे पत्तों के ढेर की भाँति उड़ाना आरम्भ किया। माननीय महाराज! वायु के द्वारा उड़ाये जाते हुए वे सैनिक समय-समय पर वृक्षों से उड़ने वाले पक्षियों के समान शोभा पा रहे थे।
उन सबको व्याकुल करके अर्जुन अपने पैने बाणों से शीघ्रतापूर्वक उनके सौ-सौ और हजार-हजार योद्धाओं का एक साथ संहार करने लगे। उन्होंने भल्लों द्वारा उनके सिर उड़ा दिये, आयुधों सहित भुजाएँ काट डालीं और हाथी की सूँड़ के समान मोटी जाँघों को भी बाणों द्वारा पृथ्वी पर काट गिराया। धनंजय ने शत्रुओं को शरीर के अनेक अंगो से विहीन कर दिया। किन्हीं की पीठ काट ली तो किन्हीं के पैर उड़ा दिये। कितने ही सैनिक बाहु, पसली और नेत्रों से वंचित होकर व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने गन्धर्व नगरों के समान प्रतीत होने वाले और विधिवत सजे हुए रथों के अपने बाणों द्वारा टुकड़े-टुकड़े कर दिये और शत्रुओं को हाथी, घोड़े एवं रथों से वंचित कर दिये। वहाँ कहीं-कहीं रथवर्ती ध्वजों के समूह ऊपर से कट जाने के कारण मुण्डित तालवनों के समान प्रकाशित हो रहे थे।
पताका, अंकुश और ध्वजों से विभूषित गजराज वहाँ इन्द्र के वज्र से मारे हुए वृक्षयुक्त पर्वतों के समान ऊपर चढ़े हुए योद्धाओं सहित धराशायी हो गये। चामर, माला और कवचों से युक्त बहुत-से-घोड़े अर्जुन के बाणों से मारे जाकर सवारों सहित धरती पर पड़े थे। उनकी आँतें और आँखें बाहर निकल आयी थीं। पैदल सैनिकों के खड्ग एवं नखर कटकर गिरे हुए थे। कवच, ऋष्टि और शक्तियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। कवच कट जाने से अत्यन्त दीन हो वे मरकर पृथ्वी पर पड़े थे।
कितने ही वीर मारे गये थे और कितने ही मारे जा रहे थे। कुछ गिर गये थे और कुछ गिर रहे थे। कितने ही चक्कर काटते और आघात करते थे। इन सबके द्वारा वह युद्धस्थल अत्यन्त क्रूरतापूर्ण जान पड़ता था। रक्त की वर्षा से वहाँ की उड़ती हुई भारी धूलराशि शान्त हो गयी और सैकड़ों कबन्धों आच्छादित होने के कारण उस भूमि पर चलना कठिन हो गया।
रणक्षेत्र में अर्जुन का वह भयंकर एवं बीभत्स रथ प्रलयकाल में पशुओं का संहार करने वाले रुद्रदेव के क्रीड़ास्थल सा प्रतीत हो रहा था। अर्जुन के द्वारा मारे जाते हुए रथ और हाथी व्याकुल होकर उन्हीं की ओर मुँह करके प्राणत्याग करने के कारण इन्द्रलोक के अतिथि हो गये। भरतश्रेष्ठ! वहाँ मारे गये महारथियों से आच्छादित हुई वह सारी भूमि सब ओर से प्रेतों द्वारा घिरी हुई सी जान पड़ती थी। जब इधर सव्यसाची अर्जुन उस युद्ध में भली प्रकार लगे हुए थे, उसी समय अपनी सेना का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया।
व्यूह-रचनापूर्वक प्रहार करने में कुशल योद्धाओं ने युधिष्ठिर को पकड़ने की इच्छा से तुरंत ही उन पर चढ़ाई कर दी, वह युद्ध बड़ा भयानक हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में अर्जुन-संशप्तक युद्धविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व)
बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य के द्वारा गरुड़व्यूह का निर्माण, युधिष्ठिर का भय, धृष्टद्युम्न का आश्वासन, धृष्टद्युम्न और दुर्मुख का युद्ध तथा संकुल युद्ध में गजसेना का संहार”
संजय कहते हैं ;– राजेन्द्र! महारथी द्रोणाचार्य ने वह रात बिताकर दुर्योधन से बहुत कुछ बातें कहीं और संशप्तकों के साथ अर्जुन के युद्ध का योग लगा दिया। भरतश्रेष्ठ! फिर संशप्तकों का वध करने के लिये अर्जुन जब दूर निकल गये, तब सेना की व्यूहरचना करके धर्मराज युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये द्रोणाचार्य ने पाण्डवों की विशाल सेना पर आक्रमण किया। द्रोणाचार्य के बनाये हुए गरुड़ व्यूह को देखकर युधिष्ठिर ने अपनी सेना का मण्डलार्धव्यूह बनाया।
गरुड़व्यूह में गरुड़ के मुँह के स्थान पर महारथी द्रोणाचार्य खड़े थे। शिरोभाग में भाइयों तथा अनुगामी सैनिकों सहित राजा दुर्योधन उपस्थित हुआ। बाण चलाने वालों में श्रेष्ठ कृपाचार्य और कृतवर्मा उस व्यूह की आँख के स्थान में स्थित हुए। भूतशर्मा, क्षेमशर्मा, पराक्रमी करकाश, कलिंग, सिंहल, पूर्व दिशा के सैनिक, शूर आभीरगण, दाशेरकगण, शक, यवन, काम्बोज, शूरसेन, दरद, मद्र, केकय तथा हंस पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरवीर एवं हाथी सवार, घुड़सवार, रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करके उस गरुड़ के ग्रीवा भाग में खड़े थे। भूरिश्रवा, शल्य, सोमदत्त तथा बाह्लिक- ये वीरगण अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह के दाहिने पार्श्व में स्थित थे।
अवंती के विन्द और अनुविन्द तथा काम्बोजराज सुदक्षिण ये बाये पार्श्व का आश्रय लेकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के आगे खड़े हुए।पृष्ठभाग में कलिंग, अम्बष्ठ , मगध, पौण्ड्र, मद्रक, गन्धार , शकुन, पूर्वदेश, पर्वतीय प्रदेश और वसाति आदि देशों के वीर थे।
पुच्छभाग में अपने पुत्र, जाति-भाई तथा कुटुम्ब के बन्धु-बान्धवों सहित भिन्न-भिन्न देशों की विशाल सेना साथ लिये विकर्तनपुत्र कर्ण खड़ा था। राजन! उस व्यूह के हृदयस्थान में जयद्रथ, भीमरथ, सम्पाति, ऋषभ, जय, भूमिंजय, वृषक्राथ तथा महाबली निषधराज बहुत बड़ी सेना के साथ खड़े थे। ये सब-के-सब ब्रह्मलोक की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर लड़ने वाले तथा युद्ध की कला में अत्यन्त निपुण थे। इस प्रकार पैदल, अश्वारोही, गजारोही तथा रथियों द्वारा आचार्य द्रोण का बनाया हुआ वह व्यूह वायु के झकोरों से उछलते हुए समुद्र के समान दिखायी देता था। उसके पक्ष और प्रपक्ष भागों से युद्ध की इच्छा रखने वाले योद्धा उसी प्रकार निकलने लगे, जैसे वर्षाकाल में विद्युत से प्रकाशित गर्जते हुए मेघ सम्पूर्ण दिशाओं से प्रकट होने लगते हैं। राजन! उस व्यूह के मध्यभाग में विधिपूर्वक सजाये हुए हाथी पर आरूढ़ हो प्राग्ज्योतिषपुर के राजा भगदत्त उदयाचल पर प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव के समान सुशोभित हो रहे थे।
राजन! सेवकों ने राजा भगदत्त के ऊपर मुक्ता मालाओं से अलंकृत श्वेत छत्र लगा रक्खा था। उनका वह छत्र कृतिका नक्षत्र के योग से युक्त पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति शोभा दे रहा था। राजा का काली कज्जल-राशि के समान मदान्ध गजराज अपने मस्तक की मदवर्षा के कारण महान मेघों की अतिवृष्टि से आर्द्र हुए विशाल पर्वत के समान शोभा पा रहा था। जैसे इन्द्र देवगणों से घिरकर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार भाँति-भाँति के आयुधों और आभूषणों से विभूषित, वीर एवं बहुसंख्यक पर्वतीय नृपतियों से घिरे हुए भगदत्त की बड़ी शोभा हो रही थी। राजा युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य के रचे हुए उस अलौकिक तथा शत्रुओं के लिये अजेय व्यूह को देखकर युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- 'कबूतर के समान रंगवाले घोड़ों पर चलने वाले वीर! आज तुम ऐसी नीति का प्रयोग करो, जिससे मैं उस ब्राह्मण के वश में न होऊँ।'
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
धृष्टद्युम्न बोले ;– उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! द्रोणाचार्य कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, आप उनके वश में नहीं होंगे। आज मैं सेवकों सहित द्रोणाचार्य को रोकूँगा। कुरूनन्दन! मेरे जीते-जी आपको किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में मुझे किसी प्रकार जीत नहीं सकते।
संजय कहते हैं ;- महाराज! ऐसा कहकर कबूतर के समान रंग वाले घोड़े रखने वाले महाबली द्रुपदपुत्र ने बाणों का जाल-सा बिछाते हुए स्वयं द्रोणाचार्य पर धावा किया। जिसका दर्शन अनिष्ट का सूचक था, उस धृष्टद्युम्न को सामने खड़ा देख द्रोणाचार्य क्षणभर में अत्यन्त अप्रसन्न और उदास हो गये। महाराज! वह द्रोणाचार्य का वध करने के लिये पैदा हुआ था; इसलिये उसे देखकर मर्त्यभाव का आश्रय ले द्रोणाचार्य मोहित हो गये।
राजन! शत्रुओं का संहार करने वाले आपके पुत्र दुर्मुख ने द्रोणाचार्य को उदास देख धृष्टद्युम्न को आगे बढ़ने से रोक दिया। वह द्रोणाचार्य का प्रिय करना चाहता था। भरतनन्दन! उस समय शूरवीर धृष्टद्युम्न तथा दुर्मुख में तुमुल युद्ध होने लगा, धीरे-धीरे उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर लिया। धृष्टद्युम्न ने शीघ्र ही अपने बाणों के जाल से दुर्मुख को आच्छादित करके महान बाणसमूह द्वारा द्रोणाचार्य को भी आगे बढ़ने से रोक दिया। द्रोणाचार्य को रोका गया देख आपका पुत्र अत्यन्त प्रयत्न करके नाना प्रकार के बाण-समूहों द्वारा धृष्टद्युम्न को मोहित करने लगा। वे दोनों पांचाल राजकुमार और कुरुकुल के प्रधान वीर जब युद्ध में पूर्णत: आसक्त हो रहे थे, उसी समय द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर की सेना को अपनी बाण-वर्षा द्वारा अनेक प्रकार से तहस-नहस कर डाला।
जैसे वायु के वेग से बादल सब ओर से फट जाते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिर की सेनाएँ भी कहीं-कहीं से छिन्न-भिन्न हो गयीं। राजन! दो घड़ी तक तो वह युद्ध देखने में बड़ा मनोहर लगा; परंतु आगे चलकर उनमें पागलों की तरह मर्यादा शून्य मार-काट होने लगी। नरेश्वर! उस समय वहाँ आपस में अपने-पराये की पहचान नहीं हो पाती थी। केवल अनुमान अथवा नाम बताने से ही शत्रु-मित्र का विचार करके युद्ध हो रहा था।
उन वीरों के मुकुटों, हारों, आभूषणों तथा कवचों में सूर्य के समान प्रभामयी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही थीं। उस युद्धस्थल में फहराती हुई पताकाओं से युक्त रथों, हाथियों और घोड़ों का रूप बकपंक्तियों से चितकबरे प्रतीत होने वाले मेघों के समान दिखायी देता था। पैदल पैदलों को मार रहे थे, प्रचण्ड घोड़े घोड़ों का संहार कर रहे थे, रथी रथियों का वध करते थे और हाथी बड़े-बड़े हाथियों को चोट पहुँचा रहे थे। जिनके ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं, उन गजराजों का शत्रुपक्ष के बड़े-बड़े़ हाथियों के साथ क्षण भर में अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ गया।
वे एक-दूसरे से अपने शरीरों को सटाकर आपस में खींचा-तानी करते थे। दाँतों से दाँतों पर टक्कर लगने से धूम सहित आग-सी उठने लगती थी। उन हाथियों की पीठ पर फहराती हुई पताकाएँ वहाँ से टूट-टूटकर गिरने लगीं। उनके दाँतो के आपस में टकराने से आग प्रकट होने लगी। इससे वे आकाश में छाये हुए बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। कोई हाथी दूसरे योद्धाओं को उठाकर फेंकते थे, कोई गरज रहे थे और कुछ हाथी मरकर धराशायी हो रहे थे। उनकी लाशों से आच्छादित हुई भूमि शरदऋतु के आरम्भ में मेघों से आच्छादित आकाश के समान प्रतीत होती थी। बाण, तोमर तथा ऋष्टि आदि अस्त्र–शस्त्रों से मारे जाते हुए गजराजों का चीत्कार प्रलयकाल के मेघों की गर्जना के समान जान पड़ता था।
(सम्पूर्णमहाभारत (द्रोण पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद)
कुछ बड़े हाथी तोमरों की मार से घायल हो रहे थे, कुछ बाणों की चोट से क्षत-विक्षत हो अत्यन्त भयभीत हो गये थे और कुछ सम्पूर्ण हाथियों के शब्द का अनुसरण करते हुए उन्हीं की ओर बढ़े जा रहे थे।कुछ हाथी वहाँ हाथियों द्वारा दाँतों से घायल किये जाने पर उत्पातकाल के मेघों के समान भयंकर आर्तनाद कर रहे थे। कितने ही हाथी शत्रु पक्ष के श्रेष्ठ हाथियों द्वारा घायल हो युद्धभूमि से विमुख कर दिये गये थे। वे पुन: महावतों द्वारा उत्तम अकुंशों से हाँके जाने पर अपनी ही सेना को रौंदते हुए पुन: लौट आये। महावतों ने बाणों और तोमरों से महावतों को भी घायल कर दिया था। अत: वे हाथियों से पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके आयुध एवं अंकुश हाथों से छूटकर इधर-उधर जा गिरे। कितने ही गजराज मनुष्यों से शून्य हो इधर-उधर चीत्कार करते हुए फिर रहे थे। वे एक-दूसरे की सेना में घुसकर फटे हुए बादलों के समान छिन्न-भिन्न हो धरती पर गिर पड़े।
कितने ही बड़े-बड़े हाथी अपनी पीठ पर मरकर गिरे हुए आयुधशून्य सवारों को ढोते हुए अकेले विचरने वाले गजराजों के समान सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर लगा रहे थे। उस समय बहुत से हाथी उस युद्धस्थल में तोमर, ऋष्टि तथा फरसों की मार खाकर घायल हो आर्तनाद करके धरती पर गिर जाते थे। उनके पर्वताकार शरीरों के गिरने से सब ओर से आहत हुई भूमि सहसा काँपने और आर्तनाद करने लगी।
वहाँ मारे जाकर पताकाओं तथा गजारोहियों सहित सब ओर गिरे हुए हाथियों से आच्छादित हुई वह भूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो इधर-उधर बिखरे हुए पर्वत-खण्डों से व्याप्त हो रही हो। उस रणक्षेत्र में कितने ही रथियों ने अपने भल्लों द्वारा हाथी पर बैठे हुए महावतों की छाती छेदकर उन्हें सहसा मार गिराया। उन महावतों के अंकुश और तोमर इधर-उधर बिखर गये थे।
कितने ही हाथी नाराचों से घायल हो क्रौंच पक्षी की भाँति चिग्घाड़ रहे थे और अपने तथा शत्रुपक्ष के सैनिकों को भी रौंदते हुए दसों दिशाओं में भाग रहे थे। राजन! हाथी, घोड़े तथा रथ योद्धाओं की लाशों से ढकी हुई वहाँ की भूमि पर रक्त और मांस की कीच जम गयी थी। कितने ही हाथियों ने अपने दाँतों के अग्रभाग से पहिये वाले तथा बिना पहिये के बड़े-बड़े रथों को रथियों सहित चकनाचूर करके अपनी सूँड़ों से उछालकर फेंक दिया।
रथियों से रहित रथ, सवारों से शून्य घोड़े और जिनके सवार मार डाले गये हैं ऐसे हाथी भय से व्याकुल हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग रहे थे। वहाँ पिता ने पुत्र को और पुत्र ने पिता को मार डाला। ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। (56)
मनुष्यों के पैर रक्त की कीच में टखनों तक धँस जाते थे। उस समय वे दहकते हुए दावानल से घिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षों के समान जान पड़ते थे। योद्धाओं के वस्त्र, कवच, ध्वज और पताकाएँ रक्त से सींच उठी थीं। वहाँ सब कुछ रक्त से रँगकर लाल-ही-लाल दिखायी देता था।रणभूमि में गिराये हुए घोड़ों, रथों और पैदलों के समुदाय बारंबार आते-जाते रथों के पहियों से कुचलकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे।
वह सेना का समुद्र हाथियों के समूहरूपी महान वेग, मरे हुए मनुष्यरूपी सेवार तथा रथसमूहरूपी भयंकर भँवरों के कारण अद्भुत शोभा पा रहा था। विजयरूपी धन की इच्छा रखने वाले योद्धारूपी व्यापारी वाहनरूपी बड़ी-बड़ी नौकाओं द्वारा उस सैन्य-समुद्र में उतर कर डूबते हुए भी प्राणों का मोह नहीं करते थे।
वहाँ समस्त योद्धाओं पर बाणों की वर्षा हो रही थी। कहीं उनके चिह्न लुप्त नहीं थे। उनमें से कोई योद्धा अपनी ध्वज आदि चिह्नों के नष्ट हो जाने पर भी मोह को नहीं प्राप्त हुआ। इस प्रकार जब अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय शत्रुओं को मोहित करके द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में संकुलयुद्धविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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