सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के एक सौ बीसवें अध्याय से एक सौ बाईसवें अध्याय तक (From the 120 chapter to the 122 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म जी की महत्ता तथा अर्जुन के द्वारा भीष्म को तकिया देना एवं उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना और श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर-संवाद”

   धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! भीष्म जी बलवान् और देवता के समान थे। उन्होंने अपने पिता के लिये आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया था। उस दिन उनके रथ से गिर जाने के कारण उनके सहयोग से वञ्चित हुए मेरे पक्ष के योद्धाओं की क्या दशा हुई? भीष्म जी ने अपनी दयालुता के कारण जब द्रुपदकुमार शिखण्डी पर प्रहार करने से हाथ खींच लिया, तभी मैंने यह समझ लिया था कि अब पाण्डवों के हाथ से अन्य कौरव भी अवश्य मारे जायगे मेरी समझ में इससे बढ़कर महान् दु:ख की बात और क्या होगी कि आज अपने ताऊ भीष्म के मारे जाने का समाचार सुनकर भी जीवित हूँ। मेरी बुद्धि बहुत ही खोटी है।

     संजय! निश्चय ही मेरा हृदय लोहे का बना हुआ है क्योंकि आज भीष्म जी के मारे जाने का समाचार सुनकर भी यह सैकड़ों टुकड़ों में विदीर्ण नहीं हो रहा है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले संजय! विजय की अभिलाषा रखने वाले कुरुकुल सिंह भीष्म जब युद्ध में मारे गये, उस समय उन्होंने दूसरी कौन-कौन-सी चेष्टाएं की थीं? वह सब मुझसे कहो। रणभूमि में देवव्रत भीष्म, का मारा जाना मुझे बारंबार असह्य हो उठता है। जो भीष्म पूर्वकाल में जमदग्निनंदन परशुराम के दिव्यास्त्रों द्वारा भी नहीं मारे जा सके, वे ही द्रुपदकुमार पाञ्चाल देशीय शिखण्डी के हाथ से मारे गये यह कितने दु:ख की बात है।

     संजय ने कहा ;- महाराज! कुरुकुल वृद्ध पितामह भीष्म सायंकाल में जब रणभूमि में गिरे, उस समय उन्होंने आपके पुत्रों को विषाद में डाल दिया और पाञ्चालों को हर्ष मनाने का अवसर दे दिया। वे पृथ्वी का स्पर्श किये बिना ही उस समय बाणशय्या पर सो रहे थे। भीष्म के रथ से गिरकर धरती पर पड़ जाने पर समस्त प्राणियों में भयंकर हाहाकार मच गया।

     राजन्! कुरुकुल के युद्ध विजयी वीर भीष्म दोनों दलों के लिये सीमावर्ती वृक्ष के समान थे। उनके गिर जाने से उभय पक्ष की सेनाओं में जो क्षत्रिय थे, उनके मन में भारी भय समा गया। प्रजानाथ! जिनके कवच ओर ध्वज छिन्न-भिन्न हो गये थे, उन शांतनुनंदन भीष्म जी को उस अवस्था में देखकर कौरव और पाण्डव दोनों ही उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उस समय आकाश में अंधकार छा गया। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी। शांतनुनंदन भीष्म के मारे जाने पर यह सारी पृथ्वी भयानक शब्द करने लगी। वहाँ सोये हुए पुरुषवर भीष्म को देखकर कुछ दिव्य‍ प्राणी कहने लगे, ब्रह्मज्ञानियों के शिरोमणि हैं, ये ब्रह्मणवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इन्हीं पुरुष सिंह ने पूर्वकाल में अपने पिता शांतनु को कामासक्त जानकर अपने आपको ऊध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) बना लिया। इस प्रकार सिद्धों और चारणों सहित ऋषिगण भरतकुल के महापुरुष भीष्म को बाणशय्या पर स्थित देख पूर्वोक्त बाते कहते थे।

     आर्य! भरतवंशियों के पितामह शांतनुनंदन भीष्म के मारे जाने पर आपके पुत्रों को कुछ भी नहीं सूझता था। भारत! उनके मुख पर विषाद छा गया था। वे श्रीहीन और लज्जित हो नीचे की ओर मुंह लटकाये खडे़ थे। पाण्डव विजय पाकर युद्ध के मुहाने पर खडे़ थे और सब-के-सब सोने की जालियों से विभूषित बड़े-बड़े शङ्खों को बजा रहे थे। निष्पाप महाराज! जब हर्षातिरेकस सहस्रों बाजे बज रहे थे, उस समय हमने कुंतीकुमार महाबली भीमसेन को देखा। वे महाबल और पराक्रम से सम्पन्न शत्रु को वेगपूर्वक मार देने के कारण अत्यंभत हर्ष के साथ नाच रहे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-50 का हिन्दी अनुवाद)

     उस समय कौरवों पर भयंकर मोह छा गया था। कर्ण और दुर्योधन भी बारंबार लंबी सांसे खींच रहे थे। कौरव पितामह भीष्म के इस प्रकार रथ से गिर जाने पर सर्वत्र हाहाकार मच गया। कहीं कोई मर्यादा नहीं रह गयी। भीष्म जी को रणभूमि में गिरा देख आपका वीर पुत्र पुरुषसिंह दु:शासन अपने भाई के भेजने पर अपनी ही सेना से घिरा हुआ बड़े वेग से द्रोणाचार्य की सेना की ओर दौड़ गया। उस समय वह कौरव-सेना को विषाद में डाल रहा था। महाराज! दु:शासन को आते देख समस्त कौरव सैनिक उसे चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये कि देखें, यह क्या कहता है। भरतश्रेष्ठ! दु:शासन ने द्रोणाचार्य से भीष्म के मारे जाने का समाचार बताया। वह अप्रिय बात सुनते ही द्रोणाचार्य मूर्च्छित हो गये। आर्य! सचेत होने पर प्रतापी द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही अपनी सेनाओं को युद्ध से रोक दिया। कौरवों को युद्ध से लौटते देख पाण्डवों ने भी शीघ्रगामी अश्वों पर चढे़ हुए दूतों द्वारा सब ओर आदेश भेजकर अपने सैनिकों का भी युद्ध बंद करा दिया।

      बारी-बारी से सब सेनाओं के युद्ध से निवृत्त हो जाने पर सब राजा कवच खोलकर भीष्मस के पास आये। तदनंतर लाखों योद्धा युद्ध से विरत होकर जैसे देवता प्रजापति की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार महात्मा भीष्म के पास आये। वे पाण्डव तथा कौरव बाण शय्या पर सोये हुए भरतश्रेष्ठ भीष्म की सेवा में पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके खडे़ हो गये। पाण्डव तथा कौरव जब प्रणाम करके उनके सामने खडे़ हुए, तब शांतनुनंदन धर्मात्मा भीष्म ने उनसे इस प्रकार कहा,

भीष्म जी ने कहा ;- ‘महाभाग नरेशगण! आप लोगों का स्वागत है। देवोपम महारथियों! आपका स्वागत है। मैं आप लोगों के दर्शन से बहुत संतुष्ट हूँ। इस प्रकार उन सब लोगों से स्वागत भाषण करके अपने लटकते हुए सिर के द्वारा ही बोले,- ‘राजाओं! मेरा सिर बहुत लटक रहा है। इसके लिये आप लोग मुझे तकिया दें।' तब राजा लोग तत्कामल बढ़िया, कोमल और महीन वस्त्र के बने हुए बहुत-से तकिये ले आये; परंतु पितामह भीष्म ने उन्हें लेने की इच्छा नहीं की तदनंतर पुरुषसिंह भीष्म ने हंसते हुए से उन राजाओं से कहा,

भीष्म पितामह ने कहा ;- ‘भूमिपालो! ये तकिये वीर शय्या के अनुरूप नहीं हैं।'

    इसके बाद वे सम्पूर्ण लोकों के विख्यात महारथी नरश्रेष्ठ महाबाहु पाण्डुपुत्र धनंजय की ओर देखकर इस प्रकार बोले,

   भीष्म जी बोले ;- ‘महाबाहु धनंजय! मेरा शिर लटक रहा है। बेटा! यहाँ इसके अनुरूप जो तकिया तुम्हें ठीक जान पड़े, वह ला दो।'

    संजय कहते हैं ;- राजन्! तब अर्जुन ने पितामह भीष्म को प्रणाम करके अपना विशाल धनुष चढ़ा लिया और आंसू भरे नेत्रों से देखकर इस प्रकार कहा,

अर्जुन ने कहा ;- ‘समस्त शस्त्रधारियों में अग्रगण्य कुरुश्रेष्ठ! दुर्जय वीर पितामह! मैं आपका सेवक हूं; आज्ञा दीजिये; क्या सेवा करूं?' तब शांतनुनंदन ने उनसे कहा,

    शांतनुनन्दन भीष्म ने कहा ;- ‘तात! मेरा शिर लटक रहा है। कुरुश्रेष्ठ फाल्गुन! तुम मेरे लिये तकिया लगा दो। वीर कुंतीकुमार! इस शय्या के अनुरूप शीघ्र मुझे तकिया दो। तुम्ही उसे देने में समर्थ हों क्योंकि सम्पूर्ण धनुर्धरों में तुम्हारा बहुत ऊंचा स्थान है। तुम क्षत्रिय-धर्म के ज्ञाता तथा बुद्धि और सत्त्व आदि सद्गुणों से सम्पन्न हो।' अर्जुन ने ‘जो आज्ञा’ कहकर इस कार्य के लिये प्रयत्न करना स्वीकार किया और गाण्डीव धनुष ले उसे अभिमन्त्रित करके झुकी हुई गांठ वाले तीन बाणों को धनुष पर रखा।

    तत्पश्चात भरतकुल के महातमा महारथी भीष्म की अनुमति ले उन अत्यंत वेगशाली तीन तीखे बाणों द्वारा उनके मस्तक को अनुगृहीत किया (कुछ ऊंचा करके स्थिर कर दिया) सव्यसाची अर्जुन ने उनके अभिप्राय को समझकर जब ठीक तकिया लगा दिया, तब धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले धर्मात्मा भरतश्रेष्ठ भीष्म बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने वह तकिया देने से अर्जुन की प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया और समस्ती भरतवंशियों की ओर देखकर योद्धाओं में श्रेष्ठ, सुहृदों का आनंद बढ़ाने वाले, भरतकुलभूषण, कुंतीपुत्र अर्जुन से इस प्रकार कहा,

   भीष्म पितामह ने कहा ;- ‘पाण्डुनंदन! तुमने मेरी शय्या के अनुरूप मुझे तकिया प्रदान किया है। यदि इसके विपरीत तुमने और कोई तकिया दिया होता तो मैं कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता। महाबाहो! अपने धर्म के स्थित रहने वाले क्षत्रिय को युद्ध स्थल में इसी प्रकार बाण शय्या पर शयन करना चाहिये।' अर्जुन से ऐसा कहकर भीष्म ने पाण्डवों के पास खडे़ हुए उन समस्त राजाओं और राजपुत्रों से कहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 51-71 का हिन्दी अनुवाद)

 भीष्म पितामह फिर बोले ;-  'पाण्‍डुनंदन अर्जुन ने मेरे शिर में यह तकिया लगाया है, उसे आप लोग देखें। मैं इस शय्‍या पर तब तक शयन करूंगा, जब तक कि सूर्य उत्तरायण में नहीं लौट आते हैं। सात घोड़ों से जुत हुए उत्तम तेजस्‍वी रथ के द्वारा जब सूर्य कुबेर की निवासभूत उत्तर दिशा के पथ पर आ जायंगे, उस समय जो राजा मेरे पास आयेंगे, वे मेरी ऊर्ध्‍व गति को देख सकेंगे। निश्चय ही उसी समय मैं अत्‍यंत प्रियतम सुहृदों की भाँति अपने प्‍यारे प्राणों का त्‍याग करूंगा। राजाओ! मेरे इस स्‍थान के चारों ओर खाई खोद दो। मैं यहीं इसी प्रकार सैंकडो़ं बाणों से व्‍याप्‍त शरीर के द्वारा भगवान् सूर्य की उपासना करूंगा। भूपालगण! अब आप लोग आपस का वैरभाव छोड़कर युद्ध से विरत हो जाये।'

    संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनंतर शरीर से बाण को‍ निकाल फेंकने की कला में कुशल वेद्य भीष्‍म जी की सेवा में उपस्थित हुए। वे समस्‍त आवश्‍यक उपकरणों से युक्‍त और कुशल पुरुषों द्वारा भलीभाँति शिक्षा पाये हुए थे। उन्‍हें देखकर गंगानंदन भीष्‍म ने आपके पुत्र दुर्योधन से कहा,

   भीष्म जी बोले ;- ‘वत्‍स! इन चिकित्‍सकों को धन देकर सम्‍मानपूर्वक विदा कर दो। मुझे यहाँ इस अवस्‍था में अब इन वैद्यों से क्‍या काम है? क्षत्रिय-धर्म में जिसकी प्रशंसा की गयी है। उस उत्तम गति को मैं प्राप्‍त हुआ हूँ। भूपालो! मैं बाण शय्‍या पर सोया हुआ हूँ। अब मेरा यह धर्म नहीं है कि इन बाणों को निकाल कर चिकित्‍सा कराऊं। नरेश्वरो! मेरे इस शरीर को इन बाणों के साथ ही दग्‍ध कर देना चाहिये।'

    भीष्‍म की यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने यथा-योग्‍य सम्‍मान करके वैद्यों को विदा किया। तदनंतर विभिन्‍न जनपदों के स्‍वामी नरेशगण अमित तेजस्‍वी भीष्‍म की यह धर्म विषयक उत्तम निष्‍ठा देखकर बड़े विस्मित हुए। राजन्! आपके पितृतुल्‍य भीष्‍म को उपर्युक्‍त तकिया देकर उन नरेश, पाण्‍डव तथा महारथी कौरव सभी ने एक साथ सुंदर बाण शय्‍या पर सोये हुए महात्‍मा भीष्‍म के पास जाकर उन्‍हें प्रणाम करके उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और सब ओर से भीष्‍म की रक्षा की व्‍यवस्‍था करके सभी वीर अपने शिबिर को ही चल दिये। वे अत्‍यंत आतुर होकर भीष्‍म का ही चिंतन कर रहे थे। सायंकाल में खून से लथपथ हुए वे सब लोग अपने निवास स्‍थान पर गये।

     पाण्‍डव महारथी भीष्‍म के गिर जाने से बहुत प्रसन्‍न थे और हर्ष में भरकर विश्राम कर रहे थे। उस समय महाबली भगवान् श्रीकृष्‍ण य‍थासमय उनके पास पहुँचकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,

भगवान श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘कुरुनंदन! सौभाग्‍य की बात है कि तुम जीत रहे हो। यह भी भाग्‍य की ही बात है कि भीष्‍म रथ से गिरा दिये गये। ये सत्‍यप्रतिज्ञ महारथी भीष्‍म सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के पारंगत विद्वान् थे। इन्‍हें मनुष्‍य तथा सम्‍पूर्ण देवता मिलकर भी मार नहीं सकते थे। आप दृष्टिपातमात्र से ही दूसरों को भस्‍म करने में समर्थ हैं। आपके पास पहुँचकर भीष्‍म आपकी घोर दृष्टि से ही नष्‍ट हो गये हैं’। उनके ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्‍ण को इस प्रकार उत्तर दिया,

    युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘श्रीकृष्‍ण! आप हमारे आश्रय हैं तथा आप ही भक्‍तों को अभय दान करने-वाले हैं। आपके ही कृपा-प्रसाद से विजय होती है और आपके ही रोष से पराजय होती है। केशव! आप समरभूमि में सदा जिनकी रक्षा करते हैं और नित्‍यप्रति जिनके हित में तत्‍पर रहते हैं, उनकी विजय हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। आपकी शरण लेने पर सर्वथा विजय की प्राप्ति कोई आश्चर्य की बात नहीं है, ऐसा मेरा निश्चय है।' युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जनार्दन श्रीकृष्‍ण ने मुसकराते हुए कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- 'नृपश्रेष्‍ठ! आपका कथन सर्वथा युक्तिसंगत है।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अंतर्गत भीष्‍मवधपर्व में भीष्‍म को तकिया देने से संबंध रखने वाला एक सौ बीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का दिव्य जल प्रकट करके भीष्म जी की प्यास बुझाना तथा भीष्म जी का अर्जुन की प्रशंसा करते हुए दुर्योधन को संधि के लिये समझाना”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! जब रात बीती और सवेरा हुआ, उस समय सब राजा, पाण्डव तथा आपके पुत्र पुन: वीर-शय्या पर सोये हुए वीर पितामह भीष्म की सेवा में उपस्थित हुए। कुरुश्रेष्ठ! वे सब क्षत्रिय क्षत्रिय-शिरोमणि भीष्म जी को प्रणाम करके उनके समीप खडे़ हो गये। सहस्रों कन्याएं वहाँ आकर चंदन-चूर्ण, लाजा (खील) और माला-फूल आदि सब प्रकार की शुभ सामग्री शांतनुनंदन भीष्म के ऊपर बिखेरने लगीं। स्त्रियां, बूढे़, बालक तथा अन्य साधारण जन शांतनुकुमार भीष्म जी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये, मानो समस्त प्रजा अधंकार नाशक भगवान सूर्य की उपासना के लिये उपस्थित हुई हो।

      सैकड़ों बाजे और बजाने वाले, नट, नर्तक और बहुत-से शिल्पी कुरुवंश के वृद्ध पुरुष पितामह भीष्म के पास आये। कौरव तथा पाण्डव युद्ध से निवृत्त हो कवच खोलकर अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर पहले की भाँति परस्पर प्रेमभाव रखते हुए अवस्था की छोटाई-बड़ाई के अनुसार यथोचित क्रम से शत्रुदमन दुर्जय वीर देवव्रत भीष्म के समीप एक साथ बैठ गये। सैकडो़ं राजाओं से भरी और भीष्म से सुशोभित हुई वह भरतवंशियों की दीप्तिशालिनी सभी आकाश में सूर्यमण्डल की भाँति उस रणभूमि में शोभा पाने लगी। गंगानंदन भीष्म के पास बैठी हुई राजाओं की वह मण्डली देवेश्वर ब्रह्मा जी की उपासना करने वाले देवताओं के समान सुशोभित हो रही थी।

     भरतश्रेष्ठा! भीष्म जी बाणों से संतप्त होकर सर्प के समान लम्बी सांस खींच रहे थे। वे अपनी वेदना को धैर्यपूर्वक सह रहे थे। बाणों की जलन से उनका सारा शरीर जल रहा था। वे शस्त्रों के आघात से मूर्च्छित हो रहे थे। उस समय उन्होंने राजाओं की ओर देखकर केवल इतना ही कहा ‘पानी’। राजन! तब वे क्षत्रियनरेश चारों ओर से भोजन की उत्तमोत्तम सामग्री और शीतल जल से भरे हुए घडे़ ले आये। उनके द्वारा लाये हुए उस जल को देखकर शांतनुनंदन भीष्म ने कहा- ‘अब मैं मनुष्य लोक के कोई भी भोग अपने उपयोग में नहीं ला सकता, मैं उन्हें छोड़ चुका हूँ। यद्यपि यहाँ बाणशय्या पर सो रहा हूं, तथापि मनुष्य लोक से ऊपर उठ चुका हूँ। केवल सूर्य-चन्द्रमा के उत्तरपथ पर आने की प्रतीक्षा में यहाँ रुका हुआ हूं।'

     भारत! ऐसा कहकर शांतनुनंदन भीष्म ने अपनी वाणी द्वारा अन्य राजाओं की निंदा करते हुए कहा,

   भीष्म जी ने कहा ;- ‘अब मैं अर्जुन को देखना चाहता हूं।' तब महाबाहु अर्जुन पितामह भीष्म के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके हाथ जोडे़ खडे़ हो गये और विनयपूर्वक बोले,

    अर्जुन बोले ;- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है, मैं कौन-सी सेवा करूं?’ राजन! प्रणाम करके आगे खडे़ हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन को देखकर धर्मात्मा भीष्म, बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले,

  भीष्म जी बोले ;- ‘अर्जुन! तुम्हारे बाणों से मेरे सम्पूर्ण अंग बिंधे हुए हैं; अत: मेरा यह शरीर दग्ध-सा हो रहा है। सारे मर्मस्थानों में अत्यंत पीड़ा हो रही है। मुंह सूखता जा रहा है। महाधनुर्धर अर्जुन! वेदना से पीड़ित शरीर वाले मुझ वृद्ध को तुम पानी लाकर दो। तुम्हीं विधिपूर्वक मेरे लिये दिव्य जल प्रस्तुत करने में समर्थ हो।' तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर पराक्रमी अर्जुन रथ पर आरूढ़ हो गये और गाण्डीव धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे खींचने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

    उनके धनुष की टंकार ध्वनि वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर सभी प्राणी और समस्त भूपाल डर गये। तब रथियों में श्रेष्ठ पाण्डुपुत्र अर्जुन ने शरशय्या पर सोये हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में उत्तम भरतशिरो‍मणि भीष्म की रथ द्वारा की परिक्रमा करके अपने धनुष पर एक तेजस्वी बाण-का संधान किया और सब लोगों के देखते-देखते मन्त्रोचारणपूर्वक उस बाण को पर्जन्‍यास्त्र से संयुक्ति करके भीष्म के दाहिने पार्श्व में पृथ्वी पर उसे चलाया। फिर तो शीतल, अमृत के समान मधुर तथा दिव्य सुगंध एवं दिव्यरस से संयुक्त जल की सुंदर स्वच्छ धारा ऊपर की ओर उठकर भीष्म के मुख में पड़ने लगी। उस शीतल जल धारा से अर्जुन ने दिव्यकर्म एवं पराक्रम वाले कुरुश्रेष्ठ भीष्म को तृप्त कर दिया। इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन के उस अद्भुतकर्म से वहाँ बैठे हुए समस्त भूपाल बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। अर्जुन का वह अलौकिक कर्म देखकर समस्त कौरव सर्दी की सतायी हुई गौओं के समान थर-थर कांपने लगे। वहाँ बैठे हुए नरेशगण आश्चर्य से चकित हो सब ओर अपने दुपट्टे हिलाने लगे। चारों ओर शंक और नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि गूँज उठी।

      राजन! उस जल से तृप्त होकर शांतनुनंदन भीष्म ने अर्जुन से समस्त वीर नरेशों के समीप उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा,

    भीष्म जी ने कहा ;- ‘महाबाहु कौरवनंदन! तुममें ऐसे पराक्रम का होना आश्चर्य की बात नहीं है। अमित तेजस्वी वीर! मुझे नारद जी ने पहले ही बता दिया था कि तुम पुरातन महर्षि नर हो और नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से इसी भूतल पर ऐसे-ऐसे महान कर्म करोगे, जिन्हें निश्चय ही सम्पूर्ण देवताओं के साथ देवराज इन्द्र भी नहीं कर सकते। पार्थ! जानकार लोग तुम्हें सम्पूर्ण क्षत्रियों की मृत्युरूप जानते हैं। तुम भूतल पर मनुष्यों में श्रेष्ठ और धनुर्धरों में प्रधान हो। जंगम प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं, पक्षियों में पक्षिराज गरुड़ श्रेष्ठ माने जाते हैं, सरिताओं में समुद्र श्रेष्ठ हैं और चौपायों में गौ उत्तम मानी गयी है। तेजोमय पदार्थों में सूर्य श्रेष्ठ हैं, पर्वतों में हिमालय महान हैं, जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं और तुम सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ हो।

    मैंने, विदुर ने, द्रोणाचार्य ने, परशुराम जी ने, भगवान श्रीकृष्ण‍ तथा संजय ने भी बार-बार युद्ध न करने की सलाह दी है; परंतु दुर्योधन ने हम लोगों की बातें नहीं सुनीं। दुर्योधन की बुद्धि विपरीत हो गयी है, वह अचेत-सा हो रहा है; इसलिये हम लोगों की बात पर विश्वास नहीं करता है। वह शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा है। इसलिये भीमसेन के बल से पराजित हो मारा जाकर रणभूमि में दीर्घकाल के लिये सो जायेगा।' भीष्म जी की यह बात सुनकर कौरवराज दुर्योधन मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया। तब शांतनुनंदन भीष्म ने उसकी ओर देखकर कहा- 'राजन! मेरी बात पर ध्यान दो और क्रोधशून्य हो जाओ। दुर्योधन! बुद्धिमान अर्जुन ने जिस प्रकार शीतल, अमृत के समान मधुर गंधयुक्त जल की धारा प्रकट की है, उसे तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। इस संसार में ऐसा पराक्रम करने वाला दूसरा कोई नहीं है। आग्नेय, वारूण, सौम्य, वायव्य, ऐन्द्र, पाशुपत, ब्राह्म, पारमेष्ठ्यत, प्राजापत्य, धात्र, त्वाष्ट्र, सावित्र और वैवस्वत आदि सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों को इस समस्त मानव-जगत में एकमात्र अर्जुन अथवा देवकीनंदन भगवान श्रीकृष्ण जानते हैं। दूसरा कोई यहाँ इन अस्त्रों को नहीं जानता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद)

     'तात! पाण्डुपुत्र अर्जुन को युद्ध में किसी प्रकार भी जीतना असम्भव है। जिन महामनस्वी पुरुष के ये अलौकिक कर्म प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं; जो धैर्यवान, युद्ध में शूरता दिखाने वाले तथा संग्राम में सुशोभित होने वाले हैं, राजन! उन अस्त्रविद्या के विद्वान अर्जुन के साथ इस समरभूमि में तुम्हारी शीघ्र संधि हो जानी चाहिये। इसमें विलम्ब न हो। तात! कुरुश्रेष्ठ! जब तक महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण अपने लोगों के प्रेम के अधीन हैं, तभी तक शूरवीर अर्जुन के साथ तुम्हारी संधि हो जाय तो ठीक है। तात! जब तक अर्जुन झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा तुम्हारी सारी सेना का विनाश नहीं कर डालते हैं, तभी तक उनके साथ तुम्हारी संधि हो जानी चाहिये। राजन! इस समर भूमि में मरने से बचे हुए तुम्हारे सहोदर भाई जब तक मौजूद हैं और जब तक बहुत-से नरेश भी जीवन धारण कर रहे हैं, तभी तक तुम अर्जुन के साथ संधि कर लो। तात! जब तक युधिष्ठिर रणभूमि में क्रोध से प्रज्वलित नेत्र होकर तुम्हारी सारी सेना को भस्म नहीं कर डालते हैं, तभी-तक उनके साथ तुम्हें संधि कर लेनी चाहिये। महाराज! नकुल-सहदेव तथा पाण्डुपुत्र भीमसेन- ये सब मिलकर जब तक तुम्हारी सेना का सर्वनाश नहीं कर डालते हैं, तभी तक पाण्डववीरों के साथ तुम्हारा सौहार्द स्थापित हो जाय, यही मुझे अच्छा लगता है। तात! मेरे साथ ही इस युद्ध का भी अंत हो जाय। तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। अनघ! मैंने जो बातें तुमसे कही हैं, वे तुम्हे रुचिकर प्रतीत हो। मैं संधि को ही तुम्हारे तथा कौरव कुल के लिये कल्याणकारी मानता हूँ।

     राजन! तुम क्रोध छोड़कर कुंतीकुमारों के साथ संधि स्थापित कर लो। अर्जुन ने आज तक जो कुछ किया है, उतना ही बहुत है। मुझ भीष्म के जीवन का अंत होने से (तुम्हारे वैर का भी अंत हो जाय) तुम लोगों में प्रेम-संबंध स्थापित हो और जो लोग मरने से बचे हैं, वे अच्छी तरह जीवि‍त रहें। इसके लिये तुम प्रसन्न हो जाओ। तुम पाण्डवों का आधा राज्य दे दो। धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ चले जायं। कौरवराज! ऐसा करने से तुम राजाओं में मित्रद्रोही और नीच नहीं कहलाओगे तथा तुम्हें पापपूर्ण अपयश नहीं प्राप्त होगा। राजन! मेरे जीवन का अंत होने से प्रजाओं में शांति हो जाय। सब राजा प्रसन्नतापूर्वक एक दूसरे से मिलें। पिता पुत्र से, भानजा मामा से और भाई-भाई से मिले। दुर्योधन! यदि तुम मोहवश अपनी मूर्खता के कारण मेरे इस समयोचित वचन को नहीं मानोगे तो अंत में पछताओगे और इस युद्ध में ही तुम सब लोगों का अंत हो जायगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूं।' गंगानंदन भीष्म समस्त राजाओं के बीच सौहार्दवश दुर्योधन को यह बात सुनाकर मौन हो गये। बाणों से उनके मर्मस्थल में अत्यंत पीड़ा हो रही थी। उन्होंने उस व्यथा को किसी प्रकार काबू में करके अपने मन को परमात्मा के चिंतन में लगा दिया।

      संजय कहते हैं ;- राजन! जैसे मरणासन्न पुरुष को कोई दवा अच्छी नहीं लगती है, उसी प्रकार महात्मा भीष्‍म का वह धर्म और अर्थ से युक्त परम हितकर और निर्दोष वचन भी आपके पुत्र को पसंद नहीं आया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व में दुर्योधन के प्रति भीष्म का कथनविषयक एक सौ इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ बाईसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वाविंशत्यसधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! शांतनुनंदन भीष्म के चुप हो जाने पर सब राजा वहाँ से उठकर अपने-अपने विश्राम स्थान को चले गये। भीष्म जी को रथ से गिराया गया सुनकर पुरुषप्रवर राधानंदन कर्ण के मन में कुछ भय समा गया। वह बड़ी उतावली के साथ उनके पास आया। उस समय उसने देखा, महात्मा भीष्म शरशय्या पर सो रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे वीरवर भगवान् कार्तिकेय जन्म-काल में शरशय्या (सरकण्डों के बिछावन) पर सोये थे। वीर भीष्म के नेत्र बंद थे।
     उन्हें देखकर महातेजस्वी कर्ण की आखों में आंसू छलक आये और अश्रुगद्गदग कण्ठ होकर उसने कहा,
    कर्ण ने कहा ;- ‘भीष्म! भीष्म! महाबाहो! कुरुश्रेष्ठ! मैं वही राधापुत्र कर्ण हूं, जो सदा आपकी आंखों में गड़ा रहता था और जिसे आप सर्वत्र द्वेषदृष्टि से देखते थे।’ कर्ण ने यह बात उनसे कही। उसकी बात सुनकर बंद नेत्रों वाले बलवान् कुरुवृद्ध भीष्म ने धीरे से आंखें खोलकर देखा और उस स्थान को एकांत देख पहरेदारों को दूर हटाकर एक हाथ से कर्ण का उसी प्रकार सस्नेह आलिंगन किया, जैसे पिता अपने पुत्र को गले से लगाता है। तत्पश्चात उन्होंने इस प्रकार कहा- ‘आओ, आओ, कर्ण! तुम सदा मुझसे लाग-डांट रखते रहे। सदा मेरे साथ स्पर्धा करते रहे। आज यदि तुम मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्यारण नहीं होता। वत्स! तुम राधा के नहीं, कुंती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं। महाबाहो! तुम सूर्य के पुत्र हो। मैंने नारद जी से तुम्हारा परिचय प्राप्त किया था। तात! श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास से भी तुम्हारे जन्म का वृत्तांत ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्य है। इसमें संदेह नहीं हैं। तुम्हारे प्रति मेरे मन में द्वेष नहीं है; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ।
      उत्तम व्रत का पालन करने वाले वीर! मैं कभी-कभी तुमसे जो कठोर वचन बोल दिया करता था, उसका उद्देश्य था, तुम्हारे उत्साह और तेज को नष्ट करना; क्योंकि सूतनंदन! तुम राजा दुर्योधन के उकसाने से अकारण ही समस्त पाण्डवों पर बहुत बार आक्षेप किया करते थे। तुम्हारा जन्म (कन्यावस्था में ही कुंती के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण) धर्मलोप से हुआ है; इसीलिये नीच पुरुषों के आश्रय से तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार ईर्ष्यावश गुणवान पाण्डवों से भी द्वेष रखने वाली हो गयी है और इसी के कारण कौरव-सभा में मैंने तुम्हें अनेक बार कटुवचन सुनाये हैं। मैं जानता हूं, तुम्हारा पराक्रम समरभूमि में शत्रुओं के लिये दु:सह है। तुम ब्राह्मण-भक्त‍, शूरवीर तथा दान में उत्तम निष्ठा रखने वाले हो। देवापम वीर! मनुष्यों में तुम्हारे समान कोई नहीं है। मैं सदा अपने कुल में फूट पड़ने के डर से तुम्हें कटुवचन सुनाता रहा।
     बाण चलाने, दिव्यास्त्रों का संधान करने, फुर्ती दिखाने तथा अस्त्र-बल में तुम अर्जुन तथा महात्मा श्रीकृष्ण समान हो। कर्ण! तुमने कुरुराज दुर्योधन के लिये कन्या‍ लाने के निमित्त अकेले काशीपुर में जाकर केवल धनुष की सहायता से वहाँ आये हुए समस्त राजाओं को युद्ध में परास्त कर दिया था। युद्ध की श्लाघा रखने वाले वीर! यद्यपि राजा जरासंघ दुर्जय एवं बलवान् था, तथापि वह रणभूमि में तुम्हारी समानता न कर सका। तुम ब्राह्मण भक्त, धैर्यपूर्वक युद्ध करने वाले तथा तेज और बल से सम्पन्न हो। संग्राम-भूमि में देवकुमारों के समान जान पड़ते हो और प्रत्येक युद्ध में मनुष्यों से अधिक पराक्रमी हो। मैंने पहले जो तुम्हारे प्रति क्रोध किया था, वह अब दूर हो गया है: क्योंकि प्रारब्ध के विधान को कोई पुरुषार्थ द्वारा नहीं टाल सकता। शुत्रुसूदन! मेरी मृत्यु के द्वारा ही यह वैर की आग बुझ जाय और भूमण्डल के समस्त नरेश अब दु:ख शोक से रहित एवं निर्भय हो जायँ।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वाविंशत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)

    कर्ण ने कहा ;- 'महाबाहो! भीष्म! आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं भी जानता हूँ। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है। वास्तव में मैं कुंती का ही पुत्र हूं, सूतपुत्र नहीं हूँ। परंतु माता कुंती ने तो मुझे पानी में बहा दिया और सूत ने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया। पूर्वकाल से ही मैं दुर्योधन के साथ स्नेह करता आया हूँ और प्रसन्नतापूर्वक रहा हूँ। दुर्योधन से मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारा जो-जो दुष्कर कार्य होगा, वह सब मैं पूरा करूंगा। दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगकर मैं उसे निष्फल नहीं कर सकता। जैसे वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन की सहायता के लिये दृ‍ढ़ प्रतिज्ञ हैं, उसी प्रकार मेरे धन, शरीर, स्त्री, पुत्र तथा यश सब कुछ दुर्योधन के लिये निछावर हैं। यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुरुनंदन भीष्म! मैंने दुर्योधन का आश्रय लेकर पाण्डवों का क्रोध सदा इसलिये बढ़ाया है कि यह क्षत्रिय-जाति रोगों का शिकार होकर न मरे (युद्ध में वीर गति प्राप्त करे)।
      यह युद्ध अवश्यम्भावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता। भला, दैव को पुरुषार्थ के द्वारा कौन मिटा सकता है। पितामह! आपने भी तो ऐसे निमित्त (लक्षण) देखे थे, जो भूमण्डल के विनाश की सूचना देने वाले थे। आपने कौरव-सभा में उनका वर्णन भी किया था। पाण्डवों तथा भगवान् वासुदेव को मैं सब प्रकार से जानता हूं, वे दूसरे पुरुषों के लिये सर्वथा अजेय हैं, तथापि मैं उनसे युद्ध करने का उत्साह रखता हूँ और मेरे मन का यह निश्चित विश्वास है कि मैं युद्ध में पाण्डवों को जीत लूंगा। पाण्डवों के साथ हम लोगों का यह वैर अत्यंत भयंकर हो गया है। अब इसे दूर नहीं किया जा सकता। मैं अपने धर्म के अनुसार प्रसन्नचित्त होकर अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। तात! मैं युद्ध के लिये निश्चय कर चुका हूँ। वीर! मेरा विचार है कि आपकी आज्ञा लेकर युद्ध करूं। अत: आप मुझे इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। मैंने क्रोध के आवेग से अथवा चपलता के कारण यहाँ जो कुछ आपके प्रति कटुवचन कहा हो या आपके प्रतिकूल आचरण किया हो, वह सब आप कृपापूर्वक क्षमा कर दें।'
     भीष्म ने कहा ;- 'कर्ण! यदि यह भयंकर वैर अब नहीं छोड़ा जा सकता तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से युद्ध करो। दीनता और क्रोध छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार सत्पुरूषों के आचार में स्थिर रहकर युद्ध करो। तुम रणक्षेत्र में पराक्रम कर चुके हो और आचारवान तो हो ही। कर्ण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त करो। धनंजय के हाथ से मारे जाने पर तुम्हें क्षत्रिय धर्म के पालन से प्राप्त होने वाले लोकों की उपलब्धि होगी। तुम अभिमानशून्य होकर बल और पराक्रम का सहारा ले युद्ध करो, क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्या‍णकारी साधन नहीं है। कर्ण! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मैंने कौरवों और पाण्डवों में शांति स्थापित करने के लिये दीर्घकाल तक महान प्रयत्न किया था; किंतु मैं उसमें कृतकार्य न हो सका।' संजय कहते हैं- राजन्! गंगानंदन भीष्म के एसा कहने पर राधानंदन कर्ण उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अंतर्गत भीष्मवधपर्व में भीष्म-कर्ण संवाद विषयक एक सौ बाईसवां अध्याय पूरा हुआ)

[भीष्म पर्व समाप्त]

 भीष्म पर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या ६१००

 अब “द्रोण पर्व ”आरंभ होता है 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें