सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छानबेवें अध्याय से सौवें अध्याय तक (From the 96 chapter to the 100 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

छानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“इरावान् के वध से अर्जुन का दुःखपूर्ण उदार, भीमसेन के द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध, अभिमन्यु और अम्बष्ठक का युद्ध, युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन तथा आठवें दिन के युद्ध का उपसंहार”

संजय कहते हैं ;- राजन्! अपने पुत्र इरावान के वध का वृत्तान्त सुनकर अर्जुन को बड़ा दुख हुआ। वे सर्प के समान लंबी साँस खींचने लगे। नरेश्वर! तब उन्होंने समरभूमि में भगवान् वासुदेव से इस प्रकार कहा- भगवन्! निश्चय ही महाज्ञानी विदुर ने पहले ही यह सब देख लिया था। कौरवों और पाण्डवों का यह भयंकर विनाश परमबुद्धिमान विदुर की दृष्टि में पहले ही आ गया था। इसलिये उन्होंने राजा धृतराष्ट्र को मना किया था। मधुसूदन! और भी बहुत से वीरों को संग्राम में कौरवों ने मारा और हमने कौरव सैनिकों का संहार किया। नरश्रेष्ठ! धन के लिये यह कुत्सित कर्म किया जा रहा है। धिक्कार है उस धन को, जिसके लिये इस प्रकार जाति भाईयों का विनाश किया जा रहा है। मनुष्य का निर्धन रहकर मर जाना अच्छा है, परंतु जाति भाईयों के वध से धन प्राप्त करना कदापि अच्छा नहीं है।

     कृष्ण! हम यहाँ आए हुए जाति भाईयों को मारकर क्या प्राप्त कर लेंगे। दुर्योधन के अपराध से और सुबलपुत्र शकुनि तथा कर्ण की कुमन्त्रणा से ये क्षत्रिय मारे जा रहे है। महाबाहु मधुसूदन! राजा युधिष्ठिर ने दुर्योधन से पहले जो याचना की थी, वहीं उत्तम कार्य था; यह बात अब मेरी समझ में आ रही है। युधिष्ठिर ने आधा राज्य अथवा पाँच गांव माँगे थे, परंतु दुर्बुद्धि दुर्योधन ने उनकी माँग पूरी नहीं की। आज क्षत्रिय वीरों को रणभूमि में सोते देख मैं सबसे अधिक अपनी निन्दा करता हूँ। क्षत्रियों की इस जीविका को धिक्कार है। मधुसूदन! रणक्षेत्र में मेरे मुख से ऐसी बात सुनकर ये क्षत्रिय मुझे असमर्थ समझेंगे, परंतु इन जाति भाईयों के साथ युद्ध करना मुझे अच्छा नहीं लगता है। (तथापि मैं आपके आदेशानुसार युद्ध करूँगा; अतः) आप शीघ्र ही अपने घोड़ों को दुर्योधन की सेना की ओर हाँकिये, जिससे इन दोनों भुजाओं द्वारा अपार सैन्य सागर को पार करूँ। माधव! इस समय को व्यर्थ बिताने का अवसर नहीं है। अर्जुन के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का विनाश करने वाले केशव ने वायु के समान वेगशाली उन श्वेत घोड़ों को आगे बढ़ाया।

   भारत! तदनन्तर जैसे पूर्णिमा को वायु की प्रेरणा से समुद्र का वेग बढ़ जाने से उसकी भीषण गर्जना सुनायी पड़ती है, उसी प्रकार आपकी सेना का महान कोलाहल प्रकट हुआ। महाराज! अपराहकाल में पाण्डवों के साथ भीष्म का भीषण संग्राम आरम्भ हुआ, जिसमें मेघ की गर्जना के समान गम्भीर घोष हो रहा था। राजन्! तब आपके पुत्र, जैसे वसुगण इन्द्र के सब ओर खड़े होते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य को चारों ओर से घेरकर रणभूमि में भीमसेन पर टूट पड़े। तत्पश्चात् शान्तनुनन्दन भीष्म, रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य भगदत्त और सुशर्मा ने अर्जुन पर धावा किया। कृतवर्मा और बाह्लीक सात्यकि पर टूट पड़े। राजा अम्बष्ठ ने अभिमन्यु का सामना किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

    महाराज! शेष अन्य महारथियों ने शत्रुपक्ष के शेष महारथियों पर आक्रमण किया। फिर तो उनमें घोर एवं भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। जनेश्वर! जैसे घी की आहुति देने से अग्निदेव प्रज्वलित हो उठते है, उसी प्रकार रणक्षेत्र में आपके पुत्रों को देखकर भीमसेन क्रोध से जल उठे। परंतु महाराज! आपके पुत्रों ने कुन्तीनन्दन भीम को अपने बाणों से उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे वर्षा ऋतु में बादल पर्वत को जल की धाराओं से ढक लेते हैं। प्रजानाथ! भरतनन्दन! आपके पुत्रों द्वारा बार बार बाणों की वर्षा से आच्छादित किये जाने पर क्रोधपूर्वक अपने मुँह के कोनों को चाटते हुए सिंह के समान शौर्य का अभिमान रखने वाले वीर भीमसेन ने एक अत्यन्त तीखे क्षुरप्र के द्वारा आपके पुत्र व्यूढोरस्क को मार गिराया। उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी।

     तत्पश्चात् जैसे सिंह छोटे से मृग को दबोच लेता है, उसी प्रकार भीम ने दूसरे पानीदार एव तीखे भल्ल से आपके पुत्र कुण्डली को धराशायी कर दिया। आर्य! इसक बाद भीम ने बड़ी उतावली के साथ बहुत से तीखे और पानीदार बाण हाथ में लिये और आपके पुत्रों को लक्ष्य करके छोड़ दिया। सुदृढ़ धनुर्धर भीमसेन के द्वारा चलाये हुए उन बाणों ने आपके बहुत से महारथी पुत्रों को मारकर रथों से नीचे गिरा दिया। उनके नाम इस प्रकार है- अनाधृष्टि, कुण्डभेदी, वैराट, दीर्घलोचन, दीर्घबाहु, सुबाहु तथा कनकध्वज।

     भरतश्रेष्ठ! वे सभी वीर वहाँ गिरकर वसन्त ऋतु में धराशायी हुए पुष्पयुक्त आम्रवृक्षों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। तब उस महायुद्ध में आपके शेषपुत्र महाबली भीमसेन को काल के समान समझकर वहाँ से भाग चले। तदनन्तर युद्धस्थल में आपके पुत्रों को दग्ध करते हुए वीर भीमसेन पर द्रोणाचार्य ने सब ओर से उसी प्रकार बाणों की वर्षा आरम्भ की, जैसे बादल पर्वत पर जल की धाराएँ गिराते हैं। महाराज! उस समय हमने कुन्तीपुत्र भीम का अद्भुत पराक्रम देखा। यद्यपि द्रोणाचार्य बाणों की वर्षा करके उन्हें रोक रहे थे, तो भी उन्होंने आपके पुत्रों को मार डाला। जैसे साँड आकाश से गिरती हुई जल वर्षा को अपने शरीर पर शान्त भाव से धारण और सहन करता है, उसी प्रकार भीमसेन द्रोणाचार्य की छोड़ी हुई बाण वर्षा को धारण कर रहे थे।

     महाराज! भीमसेन ने उस युद्धस्थल में आपके पुत्रों का वध तो किया ही, द्रोणाचार्य को भी आगे बढ़ने से रोक रखा था। यह उन्होंने अद्भुत पराक्रम किया। राजन्! जैसे महाबली व्याघ्र मृगों के झुंड में विचरता हो, उसी प्रकार भीमसेन आपके वीर पुत्रों के समुदाय में खेल रहे थे। जैसे भेडि़या पशुओं के बीच में रहकर भी उन्हें विदीर्ण कर डालता है, उसी प्रकार भीमसेन रणभूमि में आपके पुत्रों को भगा रहे थे। दूसरी ओर गंगानन्दन भीष्म, भगदत्त और कृपाचार्य ये तीनों महारथी युद्ध में वेग से आगे बढ़ने वाले पाण्डुकुमार अर्जुन का निवारण कर रहे थे। परंतु अतिरथी वीर अर्जुन ने रणभूमि में उनके अस्त्रों का अस्त्रों द्वारा निवारण करके आपकी सेना के प्रमुख वीरों को यमराज के पास भेज दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद)

    अभिमन्यु ने रथियों में श्रेष्ठ लोकविख्यात राजा अम्बष्ठ को सायकों द्वारा रथहीन करके आगे बढ़ने से रोक दिया। यशस्वी सुभद्राकुमार अभिमन्यु से पीड़ित एवं रथहीन होकर राजा अम्बष्ठ अपने रथ से कूद पड़े और महामना सुभद्राकुमार पर उन्होंने रणक्षेत्र में तलवार चलायी। फिर वे महाबली नरेश कृतवर्मा के रथ पर जा बैठे। युद्ध के पैतरों को जानने में कुशल तथा शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने अपनी ओर आती हुई अम्बष्ठ की तलवार को अपनी फुर्ती के कारण निष्फल कर दिया। प्रजानाथ! उस समय रणक्षेत्र मे अम्बष्ठ की चलायी हुई तलवार को सुभद्राकुमार द्वारा निष्फल की गयी देख समस्त सैनिकों के मुख से निकली हुई साधु-साधु (वाह-वाह) की ध्वनि गूँज उठी।

     धृष्टद्युम्न आदि अन्य महारथी आपकी सेना के साथ तथा आपके प्रमुख सैनिक पाण्डव सेना के साथ युद्ध करने लगे। भारत! राजेन्द्र! एक दूसरे पर सुदृढ़ प्रहार और दुष्कर पराक्रम करने वाले आपके और पाण्डवों के सैनिकों में अत्यन्त भयंकर महान् संग्राम होने लगा। कितने की मानी शूरवीर उस रणक्षेत्र में एक दूसरे के केश पकड़कर नखों, दाँतों, मुक्कों और घुटनों से प्रहार करते हुए लड़ रहे थे। अवसर पाकर वे थप्पड़ों, तलवारों तथा सुदृढ़ भुजाओं द्वारा भी एक दूसरे को यमलोक पहुँचा देते थे। उस युद्ध में पिता ने पुत्र को और पुत्र ने पिता को मार डाला। सबके सभी अंग व्याकुल हो गये थे, तो भी सब लोग युद्ध कर रहे थे। आर्य! उस रणक्षेत्र में मारे गये नरेशों के सुवर्णमय पृष्ठ से विभूषित सुन्दर धनुष तथा बहुमूल्य तरकस जहाँ-जहाँ पड़े हुए थे। सोने अथवा चाँदी के पंखों से युक्त तथा तेल के धोये हुए तीखे बाण केचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान सुशोभित होते थे। हमने देखा कि रणभूमि में धनुर्धर वीरों की तलवारें और ढालें फेंकी पड़ी है। तलवारों में हाथी के दाँत की मूँठें लगी थीं और उनमें यथास्थान सुवर्ण जड़ा हुआ था। इसी प्रकार ढालों में सुवर्णमय विचित्र तारक चिह्न दिखायी देते थे।

     सुवर्णभूषित प्रास, स्वर्णजटित पट्टिश, सोने की बनी हुई ऋृष्टियाँ तथा स्वर्णभूषित चमकीली शक्तियाँ यंत्र-तंत्र पड़ी हुई थी। आर्य! वहाँ सुन्दर कवच पड़े थे। भारी मूसल, परिघ, पट्टिश और भिन्दिपाल भी इधर-उधर बिखरे दिखायी देते थे। नाना प्रकार के विचित्र एवं स्वर्णभूषित धनुष गिरे हुए थे। हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले भाँति-भाँति के कम्बल तथा चँवर और व्यंजन भी यत्र-तत्र गिरे दिखायी देते थे। भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों को हाथों से लेकर पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणहीन महारथी सैनिक जीवित से दिखायी देते थे। किन्हीं के शरीर गदा की चोट से चूर-चूर हो गये थे, किन्हीं के मस्तक मूसलों की मार से फट गये थे तथा कितने ही मनुष्य घोड़े, हाथी एवं रथों से कुचल गये थे। ये सभी वहाँ पृथ्वी पर प्राणहीन होकर सो गये थे। राजन्! इसी प्रकार घोड़े, हाथी और मनुष्यों के मृत शरीरों से सारी वसुधा आच्छादित हो उस समय पर्वतों से ढकी हुई सी जान पड़ती थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 57-74 का हिन्दी अनुवाद)

     आर्य! समरभूमि में गिरे हुए बाण, तोमर, शक्ति, ऋष्टि, खंडग, पट्टिश, प्रास, लोहे के भाले, फरसे, परिघ, भिन्दिपाल तथा शतघ्नी (तोप)- इन अस्त्र शस्त्रों तथा इनके द्वारा विदीर्ण हुए मृत शरीरों से सारी पृथ्वी पट गयी थीं। शत्रुओं का नाश करने वाले महाराज! वहाँ पृथ्वी पर कुछ ऐसे लोग गिरे थे, जिनके मुख से शब्द नहीं निकल पाता था। कुछ ऐसे थे, जो बहुत थोड़ा बोल पाते थे। प्रायः सभी लोग खून से लथपथ हो रहे थे और बहुत से ऐसे शरीर पड़े थे, जो सर्वथा प्राणहीन हो चुके थे। इन सबके द्वारा वहाँ की भूमि मानो चुन दी गयी थी। भारत! रणभूमि में गिरे हुए बैल के समान विशाल नेत्रों वाले वेगशाली वीरों की दस्तानों और केयूरों से युक्त चन्दन चर्चित भुजाओं से, हाथी की सूँड़ के समान प्रतीत होने वाली छिन्न-भिन्न हुई जाँघों से तथा उत्तम चूड़ामणि (मुकुट) से आबद्ध कुण्डलमण्डित मस्तकों से वहाँ की भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी। रक्त से सनकर इधर-उधर बिखरे हुए सुवर्णमय कवचों से वह युद्धभूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो वहाँ जिसकी लपटें शान्त हो गयी है, ऐसी आग जगह जगह पड़ी हो। चारों ओर तरकस फेंके पड़े थे, धनुष गिरे थे और सोने के पंख वाले बाण बिखरे हुए थे। सब ओर क्षुद्रघण्टिकाओं के जाल से विभूषित टूटे-फूटे रथ पड़े थे।

     बाणों से मारे गये घोड़े खून से लथपथ हो जीभ निकाले ढेर हो रहे थे। अनुकर्ष, पताका, उपासंग, ध्वज तथा बड़े-बड़े वीरों के श्वेत महाशंख बिखरे पड़े थे। जिनकी सूँड़ें कट गयी थी, ऐसे मतवाले हाथी धराशायी हो रहे थे। उन सबके द्वारा वह रणभूमि भाँति-भाँति के अलंकारों से अलंकृत युवती के समान सुशोभित हो रही था। कुछ दन्तार हाथी प्रास धँस जाने के कारण गहरी व्यथा से युक्त सूँड़ों द्वारा बार बार शब्द करते और पानी के उनके कारण वह युद्धस्थल जल के स्त्रोत बहाने वाले पर्वतों से युक्त सा प्रतीत होता था। वहाँ नाना प्रकार के रंग वाले कम्बल, हाथियों के झूल तथा वैदूर्यमणि के दण्ड वाले सुन्दर अंकुश गिरे हुए थे।

     चारों ओर गजराजों के घंटे पड़े हुए थे। हाथियों की पीठ पर बिछाये जाने वाले फटे हुए विचित्र कम्बल और अंकुश सब ओर गिरे हुए थे। गले के विचित्र आभूषण और सुनहरे रस्से भी जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े थे। अनेक टुकड़ों में कटे हुए यन्त्र, सुवर्णमय तोमर, धूल से कपिल वर्ण के दिखायी देने वाले अश्वों की छाती को ढकने वाले सुनहरे कवच, बाजूबंद सहित घुड़सवारों के हाथों में धारण किये हुए तीखे और चमकीले प्रास तथा चमचमाती हुई ऋष्टियाँ छिन्न-भिन्न होकर यत्र-तत्र पड़ी थी। जहाँ-तहाँ गिरे हुए विचित्र उष्णीष (पगड़ी आदि), पानी की तरह बरसाये गये सुवर्णभूषित नाना प्रकार के बाण, घोड़ों की जीन, झूल और उनकी पीठ पर बिछाने योग्य रंकु नामक मृगों के कोमल चर्ममय आसन, जो पैरों से कुचलकर धूल में सन गये थे तथा नरेशों के मुकुट आबद्ध बहुमूल्य एवं विचित्र मणिरत्न सब ओर बिखरे पड़े थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 75-80 का हिन्दी अनुवाद)

     योद्धाओं के मनोहर कुण्डलों से विभूषित, कमल एवं चन्द्रमा के समान कान्तिमान् तथा मूँछों से युक्त और अत्यन्त अलंकृत कटे हुए मस्तक, जिनमें सोने के सुन्दर कुण्डल जगमगा रहे थे, फेंके हुए से पड़े थे। महाराज! इन सब वस्तुओं से आच्छादित हुई वहाँ की भूमि ग्रहों और नक्षत्रों से भरे हुए आकाश के समान विचित्र शोभा धारण कर रही थी।

     संजय कहते हैं ;- भारत! इस प्रकार आपकी और पाण्डवों की वे दोनों विशाल सेनाएँ एक दूसरी से भिड़कर युद्धस्थल में रौंदी जा रही थी। भरतनन्दन! उस समय जब अधिकांश सैनिक परिश्रम से चूर-चूर हो रहे थे, कितने ही भाग गये थे और बहुतेरे योद्धा रौंद डाले गये थे, रात हो गयी थी एवं हमें अपने सेवक नहीं दिखायी दे रहे थे, तब कौरवों और पाण्डवों ने अपनी अपनी सेना को युद्ध भूमि से लौटने का आदेश दे दिया।

     फिर उस महाभयानक तथा अत्यन्त रौद्र रूप वाले प्रदोष काल में कौरव तथा पाण्डव एक साथ अपनी सेनाओं को लौटाकर यथा समय शिविर में जा पहुँचे और विश्राम करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में आठवें दिन के युद्ध में सेना के शिविर में लौटने से सम्बन्ध रखने वाला छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

सत्तानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन अपने मन्त्रियों से सलाह करके भीष्म से पाण्डवों को मारने अथवा कर्ण को युद्ध के लिये आज्ञा देने का अनुरोध करना”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर राजा दुर्योधन, सुबलपुत्र शकुनि, आपका पुत्र दुःशासन, दुर्जयवीर सूतपुत्र कर्ण- ये सभी मिलकर अभीष्ट कार्य के विषय में गुप्त परामर्श करने लगे। उनकी मन्त्रणा का मुख्य विषय यह था कि पाण्डवों को दल बलसहित युद्ध में कैसे जीता जा सकता है। उस समय राजा दुर्योधन ने सूत पुत्र कर्ण तथा महाबली शकुनि को सम्बोधित करके उन सब मन्त्रियों से कहा- 'मित्रों! द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य, शल्य तथा भूरिश्रवा- ये लोग युद्ध में कुन्ती के पुत्रों को कभी कोई बाधा नहीं पहुँचाते हैं इसका क्या कारण है, यह मैं नहीं जानता। वे पाण्डव स्वयं अवध्य रहकर मेरी सेना का संहार कर रहे हैं। कर्ण! इस प्रकार मेरी सेना तथा अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध में क्षय होता चला जा रहा है। राधानन्दन! तुम युद्ध में मुँह मोड़कर बैठ रहे हो, इस लिये पाण्डवों ने मुझे परास्त कर दिया। द्रोणाचार्य के समाने ही मेरे देखते-देखते भीमसेन ने मेरे वीर भाईयों को मार डाला। पाण्डव शूरवीर और देवताओं के लिये भी अवध्य है। उनके द्वारा पराजित होकर मैं जीवन के संशय में पड़ गया हूँ। ऐसी दशा में रणक्षेत्र में मैं कैसे युद्ध करूँगा।'

यह सुनकर सूत्रपुत्र कर्ण ने शत्रुदमन नरनाथ महाराज दुर्योधन से इस प्रकार कहा- 
   कर्ण बोला ;- भरतश्रेष्ठ! शोक न करो। मैं तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगा, परंतु शान्तनुनन्दन भीष्म शीघ्र ही महायुद्ध से हट जायँ। भरतवंशी नरेश! जब युद्ध में गंगानन्दन भीष्म हथियार डाल देंगे और उससे सर्वथा निवृत्त हो जायँगे, उस समय मैं युद्ध में भीष्म के देखते देखते सोमकों सहित समस्त कुन्तीपुत्रों को एक साथ मार डालूँगा, यह मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ। भीष्म सदा ही पाण्डवों पर दया करते है; अतः युद्ध में वे इन महारथियों को जीतने में सर्वथा असमर्थ हैं। तात! भीष्म युद्ध में अभिमान रखने वाले तथा सदा युद्ध को प्रिय मानने वाले है; तथापि पाण्डवों पर दया रखने के कारण वे उन सबको संग्राम में कैसे जीत सकेगे। भारत! अतः तुम शीघ्र ही यहाँ से भीष्म के शिविर में जाकर अपने उन पूजनीय वृद्ध पितामह को राजी करके उनसे हथियार रखवा दो। राजन्! भीष्म के हथियार डाल देने पर पाण्डवों को केवल मेरे द्वारा युद्ध में सुहृदों और बान्धवों सहित मारा गया समझो।
       कर्ण के ऐसा कहने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने वहीं अपने भाई दुःशासन से इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- 'दुःशासन! तुम शीघ्र सब प्रकार से ऐसी व्यवस्था करो, जिससे यात्रा सम्बन्धी सब आवश्यक तैयारी सम्पन्न हो जाय।' राजन्! दुःशासन से ऐसा कहकर जनेश्वर दुर्योधन ने कर्ण से कहा, शत्रुदमन! मैं मनुष्यों में श्रेष्ठ भीष्म को युद्ध से हटने के लिये राजी करके अभी तुम्हारे पास लौट आता हूँ। फिर भीष्म के हट जाने पर तुम युद्ध के मैदान में शत्रुओं पर प्रहार करना। प्रजानाथ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन तुरंत ही अपने भाईयों के साथ शिविर से बाहर निकला, मानो देवताओं के साथ इन्द्र अपने भवन से बाहर आए हो। उस समय भाई दुःशासन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ दुर्योधन को घोड़े पर चढ़ाया। नरेश्वर! महाराज! माथे पर मुकुट, भुजाओं में अंगद तथा हाथों में आदि आभूषण धारण किये मार्ग पर जाता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी शोभा पा रहा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तनवतितम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

     उसने शिरीष पुष्प एवं सुवर्ण के समान पीतवर्ण का बहुमूल्य सुगन्धित चन्दन लगा रखा था। राजन्! उसके सारे अंग निर्मल वस्त्र से ढके हुए थे। वह सिंह के समान मस्तानी चाल से चलता था और अपनी निर्मल प्रभा के कारण आकाश में प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहा था। भीष्म के शिविर की ओर जाते हुए पुरुषश्रेष्ठ दुर्योधन के पीछे सारे जगत् के महाधनुर्धर कौरव पक्षीय नरेश तथा विशाल धनुष धारण करने वाले उसके भाई उसी प्रकार जा रहे थे, जैसे इन्द्र के पीछे देवता चलते है। भारत! कुछ लोग घोड़ों पर और कुछ लोग हाथियों पर चढ़े थे। दूसरे लोग रथों पर आरूढ़ हो सब ओर से नरश्रेष्ठ दुर्योधन को घेरे हुए थे। राजा दुर्योधन की रक्षा के लिये समस्त सुहृद् अस्त्र-शस्त्र लेकर उसी प्रकार उसके साथ हो गये थे, जैसे स्वर्ग के देवता इन्द्र की रक्षा के लिये उनके साथ रहते हैं। इस प्रकार कौरवों से पूजित हो महाबली कौरवराज दुर्योधन यशस्वी भीष्म के शिविर में गया।
    उसके भाई उसे घेरकर निरन्तर उसी के साथ-साथ रहे। उदार स्वभाव वाले राजा दुर्योधन ने उस समय सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार करने में समर्थ, हाथी की सूँड़ के समान विशाल तथा अस्त्र प्रहार की शिक्षा में निपुणता को प्राप्त हुई अपनी दाहिनी भुजा को ऊपर उठाकर सम्पूर्ण दिशाओं में उठी हुई विभिन्न देश के निवासी मनुष्यों की प्रणामाज्जलियों को स्वीकार करते हुए उनकी मधुर बातें सुनीं। सम्पूर्ण जगत् का अधीश्वर महायशस्वी राजा दुर्योधन सम्पूर्ण सेनाओं से घिरकर सूतों और मागधों के मुख से अपनी स्तुति सुनता और सब लोगों का समादर करता हुआ (भीष्म के शिविर की ओर ) आगे बढ़ता गया। सुगन्धित तेल से भरे हुए सोने के जलते दीपक लिये बहुत से सेवक महाराज दुर्योधन को सब ओर से घेरकर चल रहे थे। उन सुवर्णमय प्रदीपों से घिरकर प्रकाशित होने वाला राजा दुर्योधन दीप्तिमान् महाग्रहों से संयुक्त चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था। सुनहरी पगड़ी धारण करके हाथों में बेंत और झर्झर लिये बहुतेरे सिपाही धीरे-धीरे सब ओर से लोगों की भीड़ को हटाते हुए चल रहे थे। तत्पश्चात् राजा दुर्योधन भीष्म के सुन्दर निवास स्थान के निकट पहुँचकर घोड़े से उतर पड़ा और भीष्म जी के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके बहुमूल्य बिछौनों से युक्त सर्वतों भद्रनामक सर्वोत्तम स्वर्णमय सिंहासन पर बैठ गया।
      इसके बाद नेत्रों में आँसू भरकर हाथ जोड़े हुए गद्गद कण्ठ से वह भीष्म से इस प्रकार बोला 
दुर्योधन बोला ;- 'शत्रुसूदन! हम लोग आपका आश्रय लेकर युद्ध के मैदान में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों को भी जीतने का उत्साह रखते है; फिर मित्रों और बान्धवों सहित वीर पाण्डवों को जीतना कौन सी बड़ी बात है। अतः प्रभो! गंगानन्दन! आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिये। जैसे देवराज इन्द्र दानवों का संहार करते हैं, उसी प्रकार आप वीर पाण्डवों को मार डालिये। महाराज! भरतनन्दन! मैं केकयों सहित सम्पूर्ण सोमकों, पांचालों और करूषों को मार डालूँगा- आपकी यह बात सत्य हो। भारत! आप युद्ध में सामने आये हुए कुन्तीपुत्रों और महाधनुर्धर सोमकों का वध कीजिये और ऐसा करके अपने वचन को सत्य कीजिये। शक्तिशाली राजन्! यदि पाण्डवों के प्रति दयाभाव अथवा मेरे दुर्भाग्यवश मेरे प्रति द्वेषभाव रखने के कारण आप पाण्डवों की रक्षा करते हैं तो समरभूमि में शोभा पाने वाले कर्ण को युद्ध के लिये आज्ञा दे दीजिये। वह सुहृदों और बान्धवों सहित कुन्तीपुत्रों को अवश्य जीत लेगा। सत्यपराक्रमी भीष्म से ऐसा कहकर आपका पुत्र राजा दुर्योधन और कुछ नहीं बोला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म के प्रति दुर्योधन का वचनविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

अट्ठानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध के लिये प्रतिज्ञा करना तथा प्रातःकाल दुर्योधन के द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था"

    संजय कहते हैं ;- महाराज! आपके पुत्र द्वारा वाग्बाणों से अत्यन्त विद्ध होकर महामना भीष्म को महान् दुःख हुआ; तथापि उन्होंने उससे कोई किन्चिन्मात्र भी अप्रिय वचन नहीं कहा। वे दुःख और रोष से युक्त होकर दीर्घकाल तक कुछ सोचते हुए लंबी साँस खींचते रहे। वाणीरूपी अंकुश से पीड़ित होकर वे हाथी के समान व्यथा का अनुभव करने लगे। भारत! फिर क्रोध से दोनों आँखें चढ़ाकर लोकवेत्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म इस प्रकार देखने लगे, मानो देवताओं, असुरों और गन्धर्वों सहित सम्पूर्ण लोकों को दग्ध कर डालेंगे। फिर आपके पुत्र को सांत्वना देते हुए वे उससे इस प्रकार बोले- 'बेटा दुर्योधन! तुम इस प्रकार वाग्बाणों से मुझे क्यों छेद रहे हो? मैं तो यथाशक्ति शत्रुओं पर विजय पाने की चेष्टा करता हूँ और तुम्हारे प्रिय साधन में लगा हुआ हूँ। इतना ही नहीं, तुम्हारा प्रिय करने की इच्छा से मैं समराग्नि में अपने प्राणों को होम देने के लिए भी तैयार हूँ।
      परंतु तुम्हे याद होगा, जब शूरवीर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने युद्ध में देवराज इन्द्र को परास्त करके खाण्डव वन में अग्नि को तृप्त किया था, वहीं उसकी अजेयता का प्रमाण है। महाबाहो! जब गन्धर्व लोग तुम्हें बलपूर्वक पकड़ ले गये थे, उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन ने ही तुम्हें छुड़ाया था। उनके अनन्त पराक्रम को समझने के लिये यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा। प्रभो! उस अवसर पर तुम्हारे ये शूरवीर भाई और राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण तो मैदान छोड़कर भाग गये थे। यह अर्जुन की अद्भुत शक्ति का पर्याप्त उदाहरण है। उन दिनों विराटनगर में हम सब लोग एक साथ युद्ध के लिये डटे हुए थे, परंतु अर्जुन ने अकेले ही हम लोगों पर आक्रमण किया। यह उनकी अपरिमित शक्ति का पर्याप्त उदाहरण है।
     अर्जुन ने क्रोध में भरे द्रोणाचार्य को तथा मुझे भी युद्ध में परास्त करके सबके वस्त्र छीन लिये थे। यह उनकी अजेयता का पर्याप्त उदाहरण है। पूर्वकाल में उसी गोग्रह के अवसर पर पाण्डुकुमार ने महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य को भी परास्त कर दिया था। यह दृष्टान्त उन्हें समझने के लिये पर्याप्त है। उन दिनों सदा अपने पुरुषार्थ का अभिमान रखने वाले कर्ण को भी जीतकर अर्जुन ने उसके वस्त्र छीनकर उत्तरा को अर्पित किये थे। यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा। जिन्हे परास्त करना इन्द्र के लिये भी कठिन था, उन निवात कवचों को अर्जुन ने युद्ध में परास्त कर दिया था। उनकी अलौकिक शक्ति को समझने के लिये यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा। विश्वरक्षक, शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले अनन्तशक्ति, सृष्टि और संहार के एकमात्र कर्ता देवाधिदेव सनातन परमात्मा सर्वेश्वर भगवान् वासुदेव जिनकी रक्षा करने वाले है, उन वेगशाली वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन को युद्ध के मैदान में कौन जीत सकता है।
      राजन्! सुयोधन! यह बात नारद आदि महर्षियों ने तुमसे कई बार कही है, परंतु तुम मोहवश कहने और न कहने योग्य बात को समझते ही नहीं हो। गान्धारीनन्दन! जैसे मरणासन्न मनुष्य सभी वृक्षों को सुनहरे रंग का देखता है, उसी प्रकार तुम भी सब कुछ विपरीत ही देख रहे हो। तुमने स्वयं ही पाण्डवों तथा सृंजयों के साथ महान् वैर ठाना है। अतः अब तुम्हीं युद्ध करो। हम सब लोग देखते हैं। तुम स्वयं पुरुषत्व का परिचय दो। पाण्डवों को तो इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं जीत सकते।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)

     किंतु पुरुषसिंह! मैं केवल शिखण्डी को छोड़कर युद्ध में आये हुए समस्त सोमकों और पाञ्चालों को मार डालूँगा। या तो उन्हीं के हाथों युद्ध में मारा जाकर मैं यमलोक का रास्ता लूँगा अथवा उन्हीं को समरांगण में मारकर मैं तुम्हे हर्ष प्रदान करूँगा। शिखण्डी पहले राजभवन में स्त्री के रूप में उत्पन्न हुआ था; फिर वरदान से पुरुष हो गया; अतः मेरी दृष्टि में तो यह स्त्रीरूपा शिखण्डिनी है। भारत! मेरे प्राणों पर संकट आ जाय तो भी मैं उसे नहीं मारूँगा। जिसे विधाता ने पहले स्त्री बनाया था; वह शिखण्डिनी आज भी मेरी दृष्टि में स्त्री ही है। गान्धारीनन्दन! अब तुम सुख से जाकर सो जाओ। कल मैं बड़ा भीषण युद्ध करूँगा, जिसकी चर्चा लोग तब तक करते रहेंगे, जब तक कि यह पृथ्वी बनी रहेगी।
      संजय कहते हैं ;- जनेश्वर! भीष्म के ऐसा कहने पर आपका पुत्र दुर्योधन अपने उन गुरुजन के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करने के पश्चात अपने शिविर को चला गया। वहाँ आकर शत्रुओं का विनाश करने वाले राजा दुर्योधन ने लोगों के उस महान् समुदाय को तुरंत बिदा कर दिया और स्वयं शिविर के भीतर प्रवेश किया। भूपाल! वहाँ जाकर राजा ने सुख से रात बितायी और सवेरा होने पर उसने प्रातः काल उठकर राजाओं को यह आज्ञा दी- राजसिंहों! तुम सब लोग सेना को युद्ध के लिये तैयार करो, आज पितामह भीष्म रणभूमि में कुपित होकर सोमकों का संहार करेंगे। राजन्! रात में दुर्योधन के अनेक प्रकार के विलाप को सुनकर भीष्म ने यह समझ लिया कि अब दुर्योधन मुझे युद्ध से हटाना चाहता है। इससे उनके मन में बड़ा खेद हुआ। भीष्म ने पराधीनता की भूरि-भूरि निन्दा करके रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध करने का संकल्प लेकर दीर्घकाल तक विचार किया।
     महाराज! गंगानन्दन भीष्म ने क्या सोचा है? इस बात को संकेत से समझकर दुर्योधन ने दुःशासन से कहा,
     दुर्योधन ने कहा ;- 'दुःशासन! तुम शीघ्र ही भीष्म की रक्षा करने वाले रथों को जोतकर तैयार कराओ। अपने पास कुल बाईस सेनाएँ है। उन सब को भीष्म की रक्षा में ही नियुक्त कर दो। आज वह अवसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिये हम बहुत वर्षों से विचार करते आ रहे हैं। आज सेनासहित समस्त पाण्डवों का वध तथा राज्य का लाभ होगा। इस विषय में भीष्म की रक्षा को ही अपना प्रधान कर्तव्य समझता हूँ। वे सुरक्षित रहने पर हमारे सहायक होंगे और संग्राम भूमि में कुन्तीकुमारों का वध कर सकेंगे। विशुद्ध अन्तःकरण वाले महात्मा भीष्म ने मुझसे कहा है कि राजन्! मैं शिखण्डी को नहीं मार सकता; क्योंकि वह पहले स्त्री रूप में उत्पन्न हुआ था और इसलिये युद्ध में मुझे उसका परित्याग कर देना है।
      महाबाहो! सारा संसार यह जानता है कि मैंने पूर्वकाल में पिता का प्रिय करने की इच्छा से समृद्धिशाली राज्य तथा स्त्रियों का परित्याग कर दिया था। नरश्रेष्ठ! मैं कभी किसी स्त्री को अथवा जो पहले स्त्री रहा हो, उस पुरुष को भी किसी प्रकार युद्ध में मार नहीं सकता; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। राजन्! तुमने भी सुना होगा, यह शिखण्डी पहले स्त्री रूप में पैदा हुआ था। यह बात मैंने तुमसे युद्ध की तैयारी के समय बता दी थी। इस प्रकार कन्यारूप में उत्पन्न हुई शिखण्डनी पहले स्त्री होकर अब पुरुष हो गयी है। वह पुरुष बना हुआ शिखण्डी यदि मुझसे युद्ध करेगा तो मैं उसके ऊपर किसी प्रकार भी बाण नहीं चलाऊँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 39-42 का हिन्दी अनुवाद)

     तात! पाण्डव पक्ष के दूसरे जो जो विजयाभिलाषी क्षत्रिय युद्ध में मुहाने पर मेरे सामने आयेंगे, उन सबका मैं वध करूँगा। भरतश्रेष्ठ दुःशासन! शस्त्रों के ज्ञाता गंगान्दन भीष्म ने इस प्रकार मुझसे कहा है। अतः युद्धभूमि में सब प्रकार से भीष्म की रक्षा को ही मैं अपना मुख्य कर्तव्य मानता हूँ। यदि महायुद्ध में सिंह की रक्षा नहीं की जाय तो उसे एक भेडि़या मार सकता है, परंतु हम भेडि़ये के सदृश शिखण्डी के हाथ से सिंह के समान भीष्म का वध नहीं होने देंगे। (अतः उनकी रक्षा के लिये सारी आवश्यक व्यवस्था करो।) मामा शकुनि, शल्य, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और विविंशति- ये सब लोग सावधान होकर गंगानन्दन भीष्म की रक्षा करो। उनके सुरक्षित रहने पर ही हमारी विजय निश्चित है।
     उस समय दुर्योधन की यह बात सुनकर उन सब वीरों ने रथ की विशाल सेना द्वारा गंगानन्दन भीष्म को सब ओर से घेर लिया। आपके सब पुत्र भी भीष्म को चारों ओर से घेरकर प्रसन्नतापूर्वक चले। वे उस समय भूलोक और स्वर्गलोक को भी कँपाते हुए पाण्डवों के मन में क्षोभ उत्पन्न कर रहे थे। वे समस्त कौरव महारथी सुशिक्षित रथों और हाथियों से भीष्म को घेरकर कवच आदि से सुसज्जित हो युद्ध के लिये खड़े हो गये। जिस प्रकार देवासुर-संग्राम के समय देवताओं ने वज्रधारी इन्द्र की रक्षा की थी, उसी प्रकार वे सब कौरव योद्धा महारथी भीष्म की रक्षा करने लगे।
      तब राजा दुर्योधन ने अपने भाईयों से पुनः इस प्रकार कहा- 'दुःशासन! अर्जुन के रथ के बायें पहिये की रक्षा युधामन्यु और दाहिने पहिये की रक्षा उत्तमौजा करते हैं। इस प्रकार अर्जुन के ये दो रक्षक हैं और अर्जुन भी शिखण्डी की रक्षा करते हैं। अर्जुन से सुरक्षित और हम लोगों से उपेक्षित होकर शिखण्डी हमारे भीष्म को जिस प्रकार मार न सके, ऐसी व्यवस्था करो।' बड़े भाई की यह बात सुनकर आपका पुत्र दुःशासन भीष्म को आगे करके सेना के साथ युद्ध के मैदान में गया। भीष्म को रथों के समूह से घिरा हुआ देख रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने धृष्टद्युम्न से कहा,
    अर्जुन ने कहा ;- 'नरेश्वर! पाञ्चालराजकुमार! आज तुम पुरुषसिंह शिखण्डी को भीष्म के सामने उपस्थित करो। मैं उसकी रक्षा करूँगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म-दुर्योधन सवांद विषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

निन्यानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“नवें दिन के युद्ध के लिये उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूहरचना और उनके घमासान युद्ध का आरम्भ तथा विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन”

      संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म सेना के साथ शिविर से बाहर निकले। उन्होंने अपनी सेना को सर्वतोभद्र नामक महान् व्यूह के रूप में संगठित किया। भारत! कृपाचार्य, कृतवर्मा, महारथी शैव्य, शकुनि, सिन्धुराज जयद्रथ तथा काम्बोजराज सुदक्षिण - ये सब नरेश भीष्म तथा आपके पुत्रों के साथ सम्पूर्ण सेना के आगे तथा व्यूह के प्रमुख भाग में खड़े हुए थे। आर्य! द्रोणाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य तथा भगदत्त - ये कवच बाँधकर व्यूह के दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर खड़े थे। अश्वत्थामा, सोमदत्त तथा अवन्ती के दोनों राजकुमार महारथी विन्द और अनुविन्द- ये सब विशाल सेना के साथ व्यूह के वाम पक्ष का संरक्षण कर रहे थे। महाराज! भरतवंशी नरेश! त्रिगर्तदेशीय सैनिकों के द्वारा सब ओर से घिरा हुआ दुर्योधन पाण्डवों का सामना करने के लिये व्यूह के मध्यभाग में खड़ा हुआ। रथियों में श्रेष्ठ अलम्बुष और महारथी श्रुतायु- ये दोनों कवच धारण करके सम्पूर्ण सेनाओं तथा व्यूह के पृष्ठभाग में खड़े थे। भारत! इस प्रकार व्यूह रचना करके उस समय आपके पुत्र कवच आदि से सुसज्जित हो प्रजवलित अग्नियों के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे।
      उधर राजा युधिष्ठिर, पाण्डुकुमार भीमसेन, माद्रां के दोनों पुत्र नकुल और सहदेव सब सेनाओं तथा व्यूह के अग्र भाग में कवच बाँधकर खड़े हुए। धृष्टद्युम्न, राजा विराट और महारथी सात्यकि- ये शत्रु सेना का विनाश करने वाले वीर भी विशाल सेना के साथ व्यूह में यथास्थान स्थित थे। महाराज! शिखण्डी, अर्जुन, राक्षस घटोत्कच, महाबाहु चेकितान तथा पराक्रमी कुन्तिभोज - ये विशाल सेना से घिरे हुए वीर युद्धभूमि में यथायोग्य स्थान पर खड़े थे। महाधनुर्धर अभिमन्यु, महाबली द्रुपद, विशाल धनुष धारण करने वाले युयुधान, पराक्रमी युधामन्यु और पाँचों भाई केकय राजकुमार - ये कवच धारण करके युद्ध के लिये तैयार खड़े थे। इस प्रकार शूरवीर पाण्डव भी समरांगण में अत्यन्त दुर्जय महाव्यूह की रचना करके कवच बाँध युद्ध के लिये तैयार थे।
      संजय कहते हैं ;- राजन्! आपकी सेना के नरेश अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए उद्यत हो भीष्म को आगे करके पाण्डवों पर चढ़ आये। नरेश्वर! उसी प्रकार भीमसेन आदि पाण्डवों ने भी आपकी सेना पर आक्रमण किया। संग्राम में भीष्म के साथ युद्ध की इच्छा रखने वाले विजयाभिलाषी पाण्डव सिंहनाद, किल-किल शब्द, शंखध्वनि, क्रकच, गोश्रृंग, भेरी, मृदंग, पणव तथा पुष्कर आदि बाजों को बजाते तथा भैरव-गर्जना करते हुए कौरव सेना पर चढ़ आये। भेरी, मृदंग शंख और दुन्दुभियों की ध्वनि एवं उच्च स्वर से सिंहनाद करते तथा अनेक प्रकार से अपनी शेखी बघारते हुए हम लोगों ने भी बड़ी उतावली के साथ अत्यन्त क्रुद्ध हो सहसा उन पर आक्रमण किया और उनकी गर्जना का उत्तर हम भी अपनी गर्जना द्वारा ही देने लगे। उस समय उभय पक्ष के सैनिकों में महान् युद्ध होने लगा। दोनों पक्ष के योद्धा एक दूसरे पर धावा करते हुए अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगे। उस समय जो महान् कोलाहल हुआ, उससे सारी पृथ्वी काँपने लगी। पक्षी अत्यन्त घोर शब्द करते हुए आकाश में चक्कर काटने लगे। सूर्य यद्यपि तेजस्वी रूप में उदित हुआ था, तथापि उस समय निस्तेज हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनशततम अध्याय के श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद)

    महान् भय की सूचना देने वाली भयंकर वायु बड़े वेग से बहने लगी। घोर वज्रपात के से भयानक शब्द सुनायी देने लगे। सियारि ने अशुभ बोली बोलने लगीं। महाराज! वे गीदडि़याँ सिर पर आये हुए विकट विनाश की सूचना दे रही थी। राजन्! दिशाएँ जलती प्रतीत होने लगी। सब ओर धूल की वर्षा होने लगी। रक्त मिश्रित हड्डियाँ बरसने लगीं। रोते हुए वाहनों के नेत्रों से आँसू गिरने लगे।
     प्रजानाथ! वे सारे वाहन भारी चिन्ता में पड़कर मल-मूल करने लगे। भरतश्रेष्ठ! भयंकर गर्जना करने वाले नरभक्षी राक्षसों के महान् शब्द सुनायी पड़ते थे; परंतु उनके बोलने वाले अदृश्य थे। चारों ओर से गीदड़ और बलशायी कौए वहाँ टूटे पड़ते थे। आर्य! वहाँ कुत्ते भी नाना प्रकार की आवाज में भूँकते देखे जाते थे। बड़ी-बड़ी प्रज्वलित उल्काएँ सूर्यदेव से टकराकर महान् भय की सूचना देती हुई सहसा पृथ्वी पर गिर रही थीं।
      उस महान् संग्राम में पाण्डव तथा कौरव पक्ष की विशाल सेनाएँ शंख और मृदंग की ध्वनि से उसी प्रकार काँप रही थीं, जैसे वायु के वेग से समूचा वन प्रान्त हिलने लगता है। उस अमंगलजनक मुहूर्त में नरेशों, हाथियों और अश्वों से परिपूर्ण हो परस्पर आक्रमण करती हुई उभय पक्ष की उन विशाल सेनाओं का भयंकर शब्द वायु से विक्षुब्ध हुए समुद्रों की गर्जना के समान जान पड़ता था।


(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में परस्पर व्यूह रचना के पश्चात् उत्पातदर्शनविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

सौवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) शततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु का राक्षस अलम्बुष के साथ घोर युद्ध एवं अभिमन्यु के द्वारा नष्ट होती हुई कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन”

     संजय कहते हैं ;- राजन्! रथियों में श्रेष्ठ तेजस्वी अभिमन्यु पिंगल वर्ण वाले श्रेष्ठ घोड़ों से जुते हुए रथ द्वारा दुर्योधन की विशाल सेना पर टूट पड़ा। जैसे बादल जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार वह बाणों की वृष्टि कर रहा था। जैसे वाराहरूपधारी भगवान् विष्णु ने महासागर में प्रवेश किया था, उसी प्रकार शत्रुसूदन सुभद्राकुमार समर में कुपित हो शस्त्रों के प्रवाह से युक्त कौरवों के अक्षय सैन्यसमुद्र में प्रवेश कर रहा था। कुरुनन्दन! उस समय आपके सैनिक उसे युद्ध में रोक न सके। राजन्! रणक्षेत्र में अभिमन्यु के छोड़े हुए शत्रुनाशक बाणों ने बहुत से शूरवीर क्षत्रियों को यमराज के लोक में पहुँचा दिया। सुभद्राकुमार समरांगण में क्रुद्ध होकर यमदण्ड के समान घोर तथा प्रज्वलित मुख वाले विषधर सर्पों के समान भयंकर सायकों का प्रहार कर रहा था। अर्जुन कुमार ने रथों सहित रथियों, सवारों सहित घोड़ों और हाथियों सहित गजारोहियों को तुरंत ही विदीर्ण कर डाला। युद्ध में ऐसा महान् पराक्रम करते हुए अभिमन्यु और उसके कर्म की सभी राजाओं ने प्रसन्न होकर भूरि-भूरि प्रशंसा की।
      भारत! जैसे हवा रूई के ढेर को आकाश में उड़ा देती है, उसी प्रकार सुभद्राकुमार ने सम्पूर्ण सेनाओं को चारों दिशाओं में भगा दिया। भरतनन्दन! अभिमन्यु के द्वारा खदेड़ी जाती हुई आपकी सेनाएँ कीचड़ में फंसे हुए हाथियों के समान किसी को अपना रक्षक न पा सकी। नरश्रेष्ठ! आपकी सम्पूर्ण सेनाओं को खदेड़ कर अभिमन्यु धूमरहित अग्नि की भाँति प्रकाशित हो रहा था। राजन्! आपके सैनिक शत्रुघाती अभिमन्यु का वेग नहीं सह सके। जैसे कालप्रेरित फतिंगे प्रज्वलित अग्नि की आँच नहीं सह पाते (उसी में झुलस कर मर जाते हैं), वहीं दशा आपके सैनिकों की थी। सम्पूर्ण शत्रुओं पर प्रहार करता हुआ पाण्डव महारथी महाधनुर्धर अभिमन्यु वज्रधारी इन्द्र के समान दृष्टिगोचर हो रहा था। राजन्! अभिमन्यु के धनुष का पृष्ठभाग सुवर्ण से जटित था, वह सम्पूर्ण दिशाओं में विचरण करता हुआ बादलों में चमकने वाली बिजली के समान सुशोभित होता था।
      युद्ध के मैदान में उसके धनुष से तीखे और चमचमाते बाण इस प्रकार छूटते थे, मानो विकसित वृक्षावलियों से भरे हुए वनप्रान्त से भ्रमरों के समूह निकल रहे हो। महामना सुभद्राकुमार अभिमन्यु सुवर्णमय रथ के द्वारा पूर्ववत् रणभूमि में विचरता रहा लोगों ने उसकी गति में कोई अन्तर नहीं देखा। महाधनुर्धर अभिमन्यु कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, बृहद्बल और सिन्धुराज जयद्रथ- सबको मोहित करके सुन्दर और शीघ्र गति से सब ओर विचरता रहा। भारत! आपकी सेना को भस्म करते हुए उस अभिमन्यु के धनुष को हम सदा सूर्यमण्डल के सदृश मण्डलाकार हुआ ही देखते थे। सबको संताप देते हुए उस वेगशाली वीर को देखकर समस्त शूरवीर क्षत्रिय उसके कर्माें द्वारा यह मानने लगे कि इस लोक में दो अर्जुन हो गये है। महाराज! अभिमन्यु से पीड़ित हुई भरतवंशियों की वह विशाल सेना मदोन्मत्त युवती की भाँति वहीं चक्कर काट रही थी। मयासुर पर विजय पाने वाले इन्द्र की भाँति अभिमन्यु ने उस विशाल सेना को भगाकर, महारथियों को कँपाकर अपने सुहृदों को आनन्दित किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

       उसके द्वारा युद्ध में खदेड़े हुए आपके सैनिक मेघों की गर्जना के समान घोर आर्तनाद करने लगे। भरतवंशी नरेश! पूर्णिमा के दिन वायु के थपेड़ों से उद्वेलित हुए समुद्र की गर्जना के समान आपकी सेना का वह भयंकर चीत्कार सुनकर उस समय दुर्योधन ने राक्षस ऋष्यश्रुंगपुत्र अलम्बुष से इस प्रकार कहा,
     दुर्योधन ने कहा ;- 'महाबाहो! यह अर्जुन का पुत्र द्वितीय अर्जुन के समान पराक्रमी है। जैसे वृत्रासुर देवताओं की सेना को मार भगाता था, उसी प्रकार वह भी क्रोधपूर्वक मेरी सेना को खदेड़ रहा है। मैं युद्धस्थल में सम्पूर्ण विद्याओं के पारंगत तथा राक्षसों में सर्वश्रेष्ठ तुम जैसे वीर को छोड़कर दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो उस रोग की सबसे उत्तम दवा हो सके। अतः तुम तुरंत जाकर युद्ध के मैदान में वीर सुभद्राकुमार का वध करो और हम लोग भीष्म तथा द्रोणाचार्य को आगे करके अर्जुन को मार डालेंगे।' आपके पुत्र दुर्योधन के ऐसा कहने पर उसकी आज्ञा से बलवान् एवं प्रतापी राक्षसराज अलम्बुष तुरंत ही वर्षाकाल के मेघ की भाँति जोर-जोर से गर्जना करता हुआ समरभूमि में गया।
      संजय कहते हैं ;- राजन्! उसके महान् गर्जन से वायु से विक्षुब्ध हुए समुद्र के समान पाण्डवों की विशाल सेना में सब ओर हलचल मच गयी। महाराज! उसके सिंहनाद से भयभीत हो बहुत से सैनिक अपने प्यारे प्राणों को त्याग कर पृथ्वी पर गिर पड़े। अभिमन्यु भी हर्ष और उत्साह में भरकर हाथ में धनुष बाण लिये रथ की बैठक में नृत्य सा करता हुआ उस राक्षस की ओर दौड़ा। तत्पश्चात् क्रोध में भरा हुआ वह राक्षस युद्ध में अभिमन्यु के समीप पहुँचकर पास ही खड़ी हुई उसकी सेना को भगाने लगा। इस प्रकार पीड़ित हुई पाण्डवों की विशालवाहिनी पर उस राक्षस ने युद्ध में उसी प्रकार धावा किया, जैसे बल नामक दैत्य ने देव सेना पर आक्रमण किया था। आर्य! युद्धस्थल में भयंकर राक्षस के द्वारा मारी जाती हुई उस सेना का महान् संहार होने लगा। उस समय राक्षस ने अपना पराक्रम दिखाते हुए रणक्षेत्र में सहस्रों बाणों द्वारा पाण्डवों की उस विशाल सेना को खदेड़ना आरम्भ किया। उस घोर राक्षस के द्वारा उस प्रकार मारी जाती हुई वह पाण्डव सेना भय के मारे रणभूमि से भाग चली।
      जैसे हाथी कमलमण्डित सरोवर को मथ डालता है, उसी प्रकार रणभूमि में पाण्डव सेना को रौंदकर अलम्बुष ने महाबली द्रौपदी पुत्रों पर धावा किया। द्रौपदी के पाँचों पुत्र महान् धनुर्धर तथा प्रहार करने में कुशल थे। उन्होंने संग्राम भूमि में कुपित हो उस राक्षस पर उसी प्रकार धावा किया, मानो पाँच ग्रह सूर्यदेव पर आक्रमण कर रहे हो। उस समय उन पराक्रमी द्रौपदीपुत्रों द्वारा वह श्रेष्ठ राक्षस उसी प्रकार पीड़ित होने लगा, जैसे भयानक प्रलयकाल आने पर चन्द्रमा पाँच ग्रहों द्वारा पीड़ित होते हैं। तत्पश्चात् महाबली प्रतिविन्ध्य ने पूर्णतः लोहे के बने हुए अप्रतिहत धार वाले शीघ्रगामी तीखे बाणों द्वारा उस राक्षस को विदीर्ण कर डाला। वे बाण उसके कवच को छेदकर शरीर में धँस गये। उनके द्वारा राक्षसराज अलम्बुष की वैसी ही शोभा हुई, मानो महान मेघ सूर्य की किरणों से ओत प्रोत हो रहा हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) शततम अध्याय के श्लोक 41-54 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! शरीर में धँसे हुए उन सुवर्णभूषित बाणों द्वारा राक्षस अलम्बुष चमकीले शिखरों वाले पर्वत की भाँति सुशोभित हुआ। तदनन्तर उन पाँचों भाइयों ने उस महासमर में सुवर्णभूषित तीक्ष्ण बाणों द्वारा राक्षसराज अलम्बुष को क्षत-विक्षत कर दिया। राजन्! क्रोध में भरे हुए सर्पों के समान उन घोर सायकों द्वारा अत्यन्त घायल हुआ अलम्बुष अडंकुशविद्ध गजराज की भाँति कुपित हो उठा।
      महाराज! उन महारथियों के बाणों से अत्यन्त आहत और पीड़ित हो अलम्बुष दो घड़ी तक भारी मोह (मूर्छा) में डूबा रहा। तदन्तर होश में आकर वह दूने क्रोध से जल उठा। फिर उसने उनके सायकों, ध्वजों और धनुषों के टुकड़े-टुकड़े कर डालें। इसके बाद रथ की बैठक में नृत्य सा करते हुए महारथी अलम्बुष ने मुसकराते हुए उनमें से एक एक को पाँच पाँच बाणों से घायल कर दिया। फिर अत्यन्त उतावली के साथ रोषावेश में भरे हुए उस महाबली राक्षस ने कुपित हो उन महामनस्वी पाँचों भाईयों के घोड़ों और सारथियों को भी मार डाला।
      इसके बाद पुनः कुपित हो भाँति-भाँति के सैकड़ों और हजारों तीखे बाणों द्वारा उन सबको गहरी चोट पहुँचायी। उन महाधनुर्धर वीरों को रथहीन करके युद्ध में उन्हें मार डालने की इच्छा से निशाचर अलम्बुष ने बड़े वेग से उन पर धावा किया। उन पाँचों भाईयों को रणक्षेत्र में दुरात्मा राक्षस के द्वारा अत्यन्त पीड़ित देख अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने पुनः उसके ऊपर आक्रमण किया। फिर उन दोनों में वृत्रासुर और इन्द्र के समान भयंकर युद्ध होने लगा। आपके और पाण्डव पक्ष के सभी महारथी उस युद्ध को देखने लगे।
     महाराज! उस महायु़द्ध में क्रोध से उद्दीत हो आँखें लाल-लाल करके एक दूसरे से भिड़े हुए वे दोनों महाबली वीर युद्ध में काल और अग्नि के समान परस्पर देखने लगे। उनका वह घोर संग्राम अत्यन्त कटु परिणाम को प्रकट करने वाला था। पूर्वकाल में देवासुर संग्राम के अवसर पर इन्द्र और शम्बरासुर में जैसा भयंकर युद्ध हुआ था, वैसा ही उनमें भी हुआ।


(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में अलम्बुष और अभिमन्यु का संग्रामविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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