सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के एक सौ एकवें अध्याय से एक सौ पाचवें अध्याय तक (From the 101 chapter to the 105 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्यु के द्वारा अलम्बुष की पराजय, अर्जुन के साथ भीष्म का तथा कृपाचार्य, अश्वत्थामा और द्रोणाचार्य के साथ सात्यकि का युद्ध”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! समर में बड़े-बड़े महारथियों का संहार करते हुए शूरवीर अर्जुनकुमार अभिमन्यु के साथ राक्षस अलम्बुष ने किस प्रकार युद्ध किया? इसी प्रकार शत्रुवीरों का हनन करने वाले सुभद्राकुमार ने राक्षस अलम्बुष के साथ कैसे युद्ध किया? युद्धस्थल में उन दोनों से सम्बध रखने वाला जो भी वृत्तान्त हो, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ। उस युद्ध के मैदान में अर्जुन ने मेरी सेनाओं के साथ क्या किया? रथियों में श्रेष्ठ भीमसेन अथवा राक्षस घटोत्कच या नकुल-सहदेव एवं महारथी सात्यकि ने क्या किया? संजय! यह सब मुझे यथार्थ रूप से बताओ; क्योंकि तुम इन बातों के बताने में कुशल हो।

     संजय ने कहा ;- आर्य मैं बड़े दुख के साथ उस रोमान्चकारी संग्राम का वर्णन करूंगा। जो राक्षसराज अलम्बुष और सुभद्राकुमार अभिमन्यु में हुआ था तथा पाण्डुपुत्र अर्जुन, भीमसेन, नकुल और सहदेव ने युद्ध में किस प्रकार पराक्रम किया और उसी प्रकार भीष्म, द्रोण आदि आपके सभी योद्धाओं ने निर्भीक से होकर अद्भुत और विचित्रकर्म किये- यह सब भी मुझसे सुनिये। अलम्बुष ने समरभूमि में महारथी अभिमन्यु को जोर-जोर से गर्जना करके बार बार डाँट बतायी और 'खड़ा रह, खड़ा रह' ऐसा कहकर बड़े वेग से उस पर धावा किया। इसी प्रकार वीर अभिमन्यु ने भी बार बार सिंहनाद करते हुए अपने पितृव्य भीमसेन के अत्यन्त वैरी महाधनुर्धर अलम्बुष पर वेग से आक्रमण किया। फिर तो वे मनुष्य तथा राक्षस दोनों वीर तुरंत ही युद्धस्थल में एक-दूसरे से भिड़ गए। दोनों ही रथियों में श्रेष्ठ थे, अतः देवता और दानव की भाँति रथों द्वारा एक-दूसरे का सामना करने लगे। राक्षस श्रेष्ठ अलम्बुष मायावी था और अर्जुनकुमार अभिमन्यु को दिव्यास्त्रों का ज्ञान था।

      महाराज! तदनन्तर अर्जुनपुत्र अभिमन्यु ने तीन तीखे सायकों से रणक्षेत्र में अलम्बुष को बींधकर पुनः पाँच बाणों से घायल कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए अलम्बुष ने भी नौ शीघ्रगामी बाणों द्वारा अर्जुनपुत्र अभिमन्यु की छाती में उसी प्रकार वेगपूर्वक प्रहार किया, जैसे अंकुश द्वारा गजराज पर प्रहार किया जाता है। भारत! तत्पश्चात् शीघ्रतापूर्वक सारे कार्य करने वाले निशाचर ने एक हजार बाण मारकर युद्धस्थल में अर्जुन के पुत्र को पीड़ित कर दिया। इससे क्रुद्व होकर अभिमन्यु ने राक्षसराज अलम्बुष की चौड़ी छाती में झुकी हुई गाँठ वाले नौ पैने बाण मारे। वे बाण राक्षस के शरीर को विदीर्ण करके उसके मर्म स्थानों में धँस गये। राजन! उन बाणों से सम्पूर्ण अंगों के क्षत-विक्षत हो जाने पर राक्षसराज अलम्बुष खिले हुए पलाश के वृक्षों से आच्छादित पर्वत की भाँति सुशोभित होने लगा। सुवर्णमय पंख से युक्त उन बाणों को अपने अंगों में धारण किये महाबली राक्षसश्रेष्ठ अलम्बुष अग्नि की ज्वालाओं से युक्त पर्वत की भाँति शोभा पा रहा था।

      महाराज! तब अमर्षशील अलम्बुष ने कुपित होकर देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुनकुमार को पंख वाले बाणों से आच्छादित कर दिया। उसके द्वारा छोड़े हुए यमदण्ड के समान भयंकर एवं तीखे बाण अभिमन्यु के शरीर को छेदकर धरती में समा गये। उसी प्रकार अभिमन्यु के छोड़े हुए सुवर्णभूषित बाण भी अलम्बुष को विदीर्ण करके पृथ्वी में समा गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)

      जैसे इन्द्र युद्धस्थल में मयासुर को विमुख कर देते हैं, उसी प्रकार सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने रणक्षेत्र में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा मारकर उस राक्षस को युद्ध से विमुख कर दिया। फिर समरांगण में शत्रु से पीड़ित एवं विमुख हुए राक्षस ने शत्रुओं को तपाने वाली अपनी (अन्धकारमयी) तामसी महामाया प्रकट की। महीपते! तब वे समस्त पाण्डव सैनिक अन्धकार से आच्छादित हो गये। अतः न तो रणक्षेत्र में अभिमन्यु को देख पाते थे और न अपने तथा शत्रुपक्ष के सैनिकों को ही। यह भयंकर एवं महान अन्धकार देखकर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले अभिमन्यु ने अत्यन्त उग्र भास्करास्त्र को प्रकट किया। राजन! इससे सम्पूर्ण जगत में प्रकाश छा गया।

      इस प्रकार महापराक्रमी नरश्रेष्ठ अभिमन्यु ने उस दुरात्मा राक्षस की माया को नष्ट कर दिया और अत्यन्त कुपित हो झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उसे समरभूमि में आच्छादित कर दिया। उस राक्षस ने और भी बहुत-सी जिन-जिन मायाओं का प्रयोग किया, उन सबको सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता अनन्त आत्मबल से सम्पन्न अभिमन्यु ने नष्ट कर दिया। अपनी माया नष्ट हो जाने पर सायकों की मार खाता हुआ राक्षस अलम्बुष अत्यन्त भय के कारण अपने रथ को वहीं छोड़कर भाग गया। माया द्वारा युद्ध करने वाले उस राक्षस के पराजित हो जाने पर अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने तुरंत ही रणक्षेत्र में आपकी सेना का उसी प्रकार मर्दन आरम्भ किया, जैसे गन्धयुक्त मदान्ध गजराज कमलों से भरी हुई पुष्करिणी को मथ डालता है।

     तदन्तर अपनी सेना को भागती हुई देख शान्तनुनन्दन भीष्म ने बड़ी भारी बाण वर्षा करके सुभद्राकुमार अभिमन्यु को रोक दिया। फिर आपके महारथी पुत्रों ने वीर अभिमन्यु को सब ओर से घेर लिया और युद्धस्थल में उस अकेले को बहुत-से योद्धाओं ने सायकों द्वारा जोर-जोर से घायल करना आरम्भ किया। वीर अभिमन्यु अपने पिता अर्जुन के समान पराक्रमी था। बल और विक्रम से वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की समानता करता था। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ उस वीर ने रणक्षेत्र में उन कौरव रथियों के साथ अपने पिता और मामा दोनों के सदृश अनेक प्रकार का शौर्यपूर्ण कार्य किया।

     इसके पश्चात् वीर अर्जुन समरांगण में आपके सैनिकों का संहार करते हुए अपने पुत्र की रक्षा के लिए अमर्ष में भरकर भीष्म के पास आ पहुँचे। राजन! जैसे सूर्य पर राहु आक्रमण करता है, उसी प्रकार आपके पितृव्य देवव्रत भीष्म ने समरभूमि में कुन्तीकुमार अर्जुन पर धावा किया। जनेश्वर! उस समय आपके पुत्र रथ, हाथी, घोड़ों की सेना साथ लेकर युद्धस्थल में भीष्म को घेरकर खड़े हो गये और सब ओर से उनकी रक्षा करने लगे। राजन! भरतश्रेष्ठ! उसी प्रकार पाण्डव अर्जुन को सब ओर से घेरकर कवच आदि से सुसज्जित हो महायुद्ध के लिये तैयार हो गये। राजन! उस समय भीष्म के सामने खड़े हुए अर्जुन को कृपाचार्य ने पच्चीस बाण मारे तब सात्यकि ने अपने बाणों से कृपाचार्य को घायल कर दिया। यह देख कृपाचार्य ने भी अत्यन्त कुपित हो बड़ी उतावली के साथ सात्यकि की छाती में कंकपत्रविभूषित नौ बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-59 का हिन्दी अनुवाद)

      तब वेगशाली सात्यकि ने भी क्रोध में भरकर अपने धनुष को झुकाया और तुरंत ही उस पर कृपाचार्य का अन्त करने वाला बाण रखा। उस बाण का प्रकाश इन्द्र के वज्र के समान था। उसे वेग से आते देख परमक्रोधी अश्वत्थामा ने अत्यन्त कुपित हो उसके दो टुकड़े कर डाले। महाराज! जब कृपाचार्य की ओर बढ़ते हुए अपने अस्त्र को अश्वत्थामा के द्वारा कटा देख रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि ने कृपाचार्य को छोड़कर जैसे आकाश में राहु चन्द्रमा पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में अश्वत्थामा पर धावा किया। भारत! उस द्रोणपुत्र ने सात्यकि के धनुष के दो टुकड़े कर दिये और धनुष कट जाने पर उन्हें सायकों से घायल करना आरम्भ किया। महाराज! तब सात्यकि ने भार-साधन में समर्थ एवं शत्रु विनाशक दूसरा धनुष हाथ में लेकर साठ बाणों द्वारा अश्वत्थामा की भुजाओं तथा छाती को छेद डाला। इससे अत्यन्त घायल और व्यथित होकर मूर्च्छित हो ध्वज का सहारा ले वह दो घड़ी तक रथ के पिछले भाग में बैठा रहा। तत्पश्चात् प्रतापी द्रोणपुत्र ने होश में आकर कुपित हो समरभूमि में सात्यकि को नाराच से घायल कर दिया।

       वह नाराच सात्यकि को छेदकर उसी प्रकार धरती में समा गया, जैसे वसन्त ऋतु में बलवान सर्प शिशु बिल में घुसता है। इसके बाद दूसरे भल्ल से समरभूमि में अश्वत्थामा ने सात्यकि के उत्तम ध्वज को काट डाला और बड़े जोर से सिहंनाद किया। भारत! महाराज! तदनन्तर जैसे वर्षा ऋतु में बादल सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार उसने पुनः अपने भयंकर बाणों द्वारा सात्यकि को आच्छादित कर दिया। नरेश्वर! उस समय सात्यकि ने उस बाण समूह को नष्ट करके तुरंत ही अश्वत्थामा के ऊपर अनेक प्रकार के बाणों का जाल-सा बिछा दिया। फिर शत्रुवीरों का संहार करने वाले युयुधान ने मेघों की घटा से मुक्त हुए सूर्य की भाँति द्रोणपुत्र को संताप देना आरम्भ किया। महाबली सात्यकि ने पुनः एक हजार बाणों की वर्षा करके अश्वत्थामा को ढक दिया और बड़े जोर से गर्जना की।

     महाराज! जैसे राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, उसी प्रकार सात्यकि के द्वारा अपने पुत्र पर ग्रहण लगा हुआ देख प्रतापी द्रोणाचार्य ने उनके ऊपर धावा किया। राजन! उस महायुद्ध में सात्यकि द्वारा पीड़ित हुए अपने पुत्र की रक्षा करने के लिये आचार्य ने तीखे बाण से उन्हें घायल कर दिया। तब सात्यकि ने रणक्षेत्र में गुरुपुत्र महारथी अश्वत्थामा को छोड़कर पूर्णतः लोहे के बने हुए बीस बाणों से द्रोणाचार्य को बींध डाला। इसी समय शत्रुओं को संताप देने वाले अमेय आत्मबल से सम्पन्न महारथी कुन्तीपुत्र अर्जुन युद्धस्थल में कुपित हो द्रोणाचार्य पर टूट पड़े। महाराज! तत्पश्चात् द्रोणाचार्य और अर्जुन उस महासमर में एक दूसरे से भिड़ गये, मानो आकाश में बुध और शुक्र एक दूसरे पर आक्रमण कर रहे हों।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में अलम्बुष और अभिमन्यु का युद्धविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्व्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध तथा भीमसेन के द्वारा गजसेना का संहार”

    धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! महाधनुर्धर द्रोण और पाण्डुनन्दन अर्जुन- इन दोनों पुरुषसिंहों ने रणक्षेत्र में किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक एक दूसरे का सामना किया। सूत! युद्धस्थल में बुद्धिमान द्रोणाचार्य को पाण्डुपुत्र अर्जुन सदा ही प्रिय लगते हैं और अर्जुन को भी आचार्य रणक्षेत्र में सदा ही प्रिय रहे हैं। उस दिन संग्रामभूमि में दो प्रचण्ड सिंहों की भाँति हर्ष और उत्साह में भरे हुए वे दोनों रथी द्रोणाचार्य और धनंजय किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक एक-दूसरे से युद्ध करते थे।

      संजय ने कहा ;- महाराज! समरभूमि में द्रोणाचार्य अर्जुन को अपना प्रिय नहीं समझते हैं और अर्जुन भी क्षत्रिय धर्म को आगे रखकर युद्धस्थल में गुरु को अपना प्रिय नहीं मानते हैं। राजन! क्षत्रिय लोग रणक्षेत्र में आपस में किसी को नहीं छोड़ते हैं। वे पिता और भाइयों के साथ भी मर्यादाशून्य होकर युद्ध करते हैंं। भारत! उस रणक्षेत्र में अर्जुन ने द्रोणाचार्य को तीन बाणों से घायल किया; परंतु अर्जुन के धनुष से छूटे हुए उन बाणों को युद्धस्थल में द्रोणाचार्य ने कुछ भी नहीं समझा। तब अर्जुन ने समरभूमि में अपने बाणों की वर्षा से पुनः द्रोणाचार्य को ढक दिया। यह देख वे रोष से जल उठे, मानो वन में दावानल प्रज्वलित हो उठा हो। भरतनन्दन! राजेन्द्र! तब द्रोणाचार्य ने युद्ध में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से अर्जुन को शीघ्र ही आच्छादित कर दिया।

      राजन! राजा दुर्योधन ने सुशर्मा को समरभूमि में द्रोणाचार्य के पृष्ठभाग की रक्षा के लिये प्रेरित किया। उसकी आज्ञा पाकर त्रिगर्तराज सुशर्मा ने भी समर में क्रोधपूर्वक धनुष को अत्यन्त खींचकर लोहमुख बाणों के द्वारा अर्जुन को ढक दिया। महाराज! जैसे शरद ऋतु के आकाश में हंस उड़ते दिखायी देते हैं, उसी प्रकार उन दोनों के छोड़े हुए बाण आकाश में सुशोभित हो रहे थे। प्रभो! वे बाण सब ओर से कुन्तीकुमार अर्जुन के ऊपर पड़कर उनके शरीर में धँसने लगे, मानो फलों के भार से झुके स्वादिष्ट वृक्ष पर चारों ओर से पक्षी टूटे पड़ते हों। तब रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने सिंहनाद करके समरांगण में पुत्रसहित त्रिगर्तराज सुशर्मा को अपने बाणों से घायल कर दिया। जैसे प्रलयकाल में साक्षात काल सबको मार डालता है, उसी प्रकार अर्जुन की मार खाकर त्रिगर्तदेशीय सैनिक मरने का निश्चय करके पुनः उन्हीं पर टूट पड़े। उन्होंने पाण्डुनन्दन अर्जुन के रथ पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी।

       राजेन्द्र! अर्जुन ने सब ओर से होने वाली उस बाण वर्षा को उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे पर्वत जल की वर्षा को धारण करता है। उस युद्ध में हमने अर्जुन के हाथों की अद्भुत फुर्ती देखी, जैसे हवा बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार बहुत-से योद्धाओं द्वारा की हुई उस दुःसह बाण वर्षा का उन्होंने अकेले ही निवारण कर दिया। महाराज! अर्जुन के उस पराक्रम से देवता और दानव सभी संतुष्ट हुए। भारत! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने युद्ध के मुहाने पर त्रिगर्त-सेनाओं को लक्ष्य करके वायव्यास्त्र का प्रयोग किया; फिर तो आकाश को विक्षुब्ध कर देने वाली वायु प्रकट हुई, जो वृक्षों को गिराने और सैनिकों को नष्ट करने लगी। महाराज! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अत्यन्त भयंकर वायव्यास्त्र को देखकर उसका निवारण करने के लिये भयानक पर्वतास्त्र का प्रयोग किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्व्यधिकशततम अध्याय श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

     नरेश्वर! द्रोणाचार्य के द्वारा युद्ध में पर्वतास्त्र का प्रयोग होने पर वायु शान्त और सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयी। तब वीरवर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने त्रिगर्तराज के रथसमूहों को उत्साहरहित एवं पराक्रमशून्य करके उन्हें युद्ध से विमुख कर दिया। तब रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य, दुर्योधन, अश्वत्थामा, शल्य, काम्बोजराज सुदक्षिण, अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द तथा बाह्लीकदेशीय सैनिकों के साथ राजा बाह्लीक इन सबने रथियों की विशाल सेना साथ लेकर उसके द्वारा पार्थ की सम्पूर्ण दिशाओं को अर्थात उनके सभी भागों को रोक दिया।

      उसी प्रकार भगदत्त तथा महाबली श्रुतायु ने हाथियों की सेना द्वारा भीमसेन की सम्पूर्ण दिशाओं को रोक लिया। प्रजानाथ! भूरिश्रवा, शल और शकुनि ने तीखे और चमकीले बाण समूहों की वर्षा करके माद्रीकुमार नकुल और सहदेव को रोका। भीष्म सैनिकों सहित आपके पुत्रों के साथ संगठित होकर युद्ध में राजा युधिष्ठिर के पास जाकर उन्हें सब ओर से घेर लिया। हाथियों की सेना को आते देख वीर कुन्तीकुमार भीमसेन जैसे वन में सिंह अपने जबड़ों को चाटता है, उसी प्रकार मुँह के दोनों कोनों को चाटने लगे। गदा हाथ में लिये हुए भीमसेन को देखकर उन गजारोही सैनिकों ने उन्हें यत्नपूर्वक चारों ओर से घेर लिया।

     उस गजसेना के बीच में पड़े हुए पाण्डुनन्दन भीमसेन महान मेघ-समूह के मध्य में स्थित हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। पाण्डव श्रेष्ठ भीमसेन ने अपनी गदा की चोट से सारी गज सेनाओं को उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे वायु महान मेघों की सब और फली हुई अनुपम घटा को छिन्न-भिन्न कर देती है। महाबली भीमसेन की गदा से आहत हुए दन्तार हाथी युद्ध स्थल में गरजते हुए मेघों के समान आर्तनाद करने लगे। हाथियों के दाँतों से अनेक बाद विदीर्ण हुए भीमसेन युद्ध के मुहाने पर खिले हुए अशोक के समान शोभा पा रहे थे।

      उन्होंने किसी दन्तार हाथी का दाँत पकड़कर उखाड़ लिया और उस हाथी को दन्तहीन बना दिया। फिर उसी दाँत के द्वारा उसके कुम्भस्थल में प्रहार करके दण्डधारी यमराज की भाँति समरांगण में उसे मार गिराया। खून से रँगी हुई गदा लेकर मेदा और मज्जा के लेप से अपनी शोभा बिगाड़कर रक्त का उबटन लगाये हुए भीमसेन भगवान रुद्र के समान दिखायी दे रहे थे। राजन! इस प्रकार भीमसेन की मार खाकर मरने से बचे हुए महान गज अपनी ही सेना को रौंदते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में भागने लगे। भरतश्रेष्ठ! सब ओर भागते हुए उन महान गजराओं के साथ ही दुर्योधन की सारी सेना युद्धभूमि से विमुख हो चली।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में भीमपराक्रमविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध और रक्तमयी रणनदी का वर्णन”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! दोपहर होते-होते भीष्म का सोमकों के साथ लोकविनाशक भयंकर संग्राम होने लगा। रथियों में श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने सैकड़ों और हजारों तीखे बाणों की वर्षा करके पाण्डवों की विशाल सेना को नष्ट करना आरम्भ किया। राजन! जैसे बैलों के समुदाय कटे हुए धान के बोझों का मर्दन करते है, उसी प्रकार आपके ताऊ देवव्रत ने उस सेना को रौंद डाला। तब धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, विराट और द्रुपद ने समरभूमि में महारथी भीष्म के पास पहुँचकर उन्हें बाणों से घायल करना आरम्भ किया। भारत! तदनन्तर भीष्म ने विराट और धृष्टद्युम्न को तीन बाणों से घायल करके द्रुपद पर नाराच का प्रहार किया।

      राजन! शत्रुसूदन भीष्म के द्वारा घायल हुए वे महाधनुर्धर वीर पैरों से कुचले हुए सर्पों की भाँति समरांगण में अत्यन्त कुपित हो उठे। शिखण्डी ने भरतवंशियों के पितामह भीष्म को बींध डाला; परंतु मन-ही-मन उसे स्त्री रूप मानकर अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले भीष्म ने उस पर प्रहार नहीं किया। धृष्टद्युम्न रणक्षेत्र में क्रोध से अग्नि की भाँति जल उठे। उन्होंने तीन बाणों से पितामह भीष्म को उनकी छाती और भुजाओं में चोट पहुँचायी। द्रुपद ने पच्चीस, विराट ने दस और शिखण्डी ने पच्चीस सायकों द्वारा भीष्म को घायल कर दिया। महाराज! उनके सायकों से अत्यन्त घायल होने के कारण वे रक्त प्रवाह से नहा उठे और वसन्त ऋतु में पुष्पों से भरे हुए रक्तशोक की भाँति शोभा पाने लगे।

      आर्य! उस समय गंगानन्दन भीष्म ने उन सबको तीन-तीन सीधे जाने वाले बाणों से घायल कर दिया और एक भल्ल के द्वारा द्रुपद का धनुष काट दिया। तब उन्होंने दूसरा धनुष हाथ में लेकर युद्ध के मुहाने पर पाँच तीखे बाणों द्वारा भीष्म को और तीन बाणों से उनके सारथियों को भी घायल कर दिया। महाराज! भीम, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, पाँचों भाई केकयराजकुमार, सात्वतवंशी सात्यकि, युधिष्ठिर आदि पाण्डव सैनिक तथा धृष्टद्युम्न आदि पांचाल सैनिक द्रुपद की रक्षा के लिए गंगानन्दन भीष्म पर टूट पड़े।

      तब वहाँ उन सबके पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवारों में अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध होने लगा, जो यमराज के राष्ट्र की वृद्धि करने वाला था। रथी ने रथी का सामना करके उसे यमलोक पहुँचा दिया। पैदल, हाथीसवार और घुड़सवारों ने भी एक-दूसरे से भिड़कर ऐसा ही किया। प्रजानाथ! उस युद्धस्थल में जहाँ तहाँ सब योद्धा झुकी हुई गाँठ वाले नाना प्रकार के भयंकर बाणों द्वारा अपने विपक्षियों को परलोक के अतिथि बनाने लगे। कितने ही रथ रथियों और सारथियों से शून्य हो भागते हुए घोड़ों के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर काट रहे थे। राजन। वे रथ उस रणक्षेत्र में आपके बहुत-से पैदल मनुष्यों तथा घोड़ों को कुचलते हुए हवा के समान तीव्र गति से भाग रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रजानाथ! कितने ही रथी रथों से हीन हो गये थे। वे कवच, कुण्डल और पगड़ी धारण किये बड़े तेजस्वी दिखायी देते थे। उन सबने कण्ठ में स्वर्णमय पदक और भुजाओं में बाजूबंद धारण कर रखे थे। वे देखने में देवकुमारों के समान सुन्दर और युद्ध में इन्द्र के समान शौर्यसम्पन्न थे। वे समृद्धि में कुबेर और नीतिज्ञता में बृहस्पति जी से भी बढ़कर थे। ऐसे सर्वलोकेश्वर शूरवीर भी रथहीन हो गँवार मनुष्यों की भाँति जहाँ-तहाँ भागते दिखायी देते थे। नरश्रेष्ठ! कितने ही दन्तार हाथी अपने श्रेष्ठ सवारों से रहित हो अपनी ही सेना को कुचलते हुए प्रत्येक शब्द के पीछे दौड़ते थे। माननीय महाराज! ढाल, विचित्र चँवर, पताका, श्वेत छत्र, सुवर्णदण्डभूषित चामर- ये चारों और बिखरे पड़े थे, और ( इन्हीं के ऊपर से) नूतन मेघों की घटा के सदृश हाथी मेघों के समान भयंकर गर्जना करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ते दिखायी देते थे।

     प्रजानाथ! इसी प्रकार हाथियों से रहित हाथीसवार भी आपके और पाण्डवों के भयानक युद्ध में इधर-उधर दौड़ते दिखायी देते थे। अनेक देशों में उत्पन्न, सुवर्णभूषित और वायु के समान वेगशाली सैकड़ों और हजारों घोड़ों को हमने रणभूमि से भागते देखा। हमने युद्ध में बहुत-से घुड़सवारों को देखा, जो घोड़ों के मारे जाने पर हाथ में तलवार लिये सब और भागते और शत्रुओं द्वारा खदेड़े जाते थे। उस महायुद्ध में एक हाथी भागते हुए दूसरे हाथी के पास पहुँचकर अपने वेग से बहुतेरे पैदल सिपाहियों तथा घोड़ों को कुचलता हुआ उसका अनुसरण करता था।

     राजन! इसी प्रकार उस रणक्षेत्र में एक हाथी बहुत से रथों को रौंद डालता था और रथ पृथ्वी पर पड़े हुए घोड़ों को कुचलकर भागते जाते थे। नरेश्वर! समरांगण में बहुत-से घोड़ों ने पैदल मनुष्यों को कुचल दिया। राजन! इस प्रकार वे सैनिक अनेक बार एक दूसरे को कुचलते रहे। उस महाभयंकर घोर युद्ध में रक्त, आँत और तरंगों से युक्त एक भयानक नदी बह चली। वह हड्डियों के समूहरूपी शिलाखण्डों से भरी थी। केश ही उसमें सेवार और घास के समान जान पड़ते थे। रथ कुण्ड और बाण भँवर के समान प्रतीत होते थे। घोड़े ही उस दुर्गम नदी के मत्स्य थे। कटे हुए मस्तक पत्थरों के टुकड़ों के समान बिखरे थे। हाथी ही उसमें विशाल ग्राहक के समान जान पड़ते थे, कवच और पगड़ी फेनराशि के समान थे, धनुष ही उसका वेगयुक्त प्रवाह और खड्ग ही वहाँ कच्छप के समान प्रतीत होते थे।

      पताका और ध्वजाएँ किनारे के वृक्षों के समान जान पड़ती थीं। मनुष्यों की लाशें ही उसके कगारें थीं, जिन्हें वह अपने वेग से तोड़-तोड़कर बहा रही थी। मांसाहारी पक्षी ही उसके आस पास हंसों के समान भरे हुए थे। वह नदी यम के राज्य को बढ़ा रही थी। राजन! बहुत से शूरवीर महारथी क्षत्रिय नौका के समान घोड़े, रथ, हाथी आदि पर चढ़कर भय से रहित हो उस नदी के पार जा रहे थे। जैसे वैतरणी नदी मरे हुए प्राणियों को प्रेतराज के नगर में पहुँचाती है, उसी प्रकार वह रक्तमयी नदी डरपोक और कायरों को मूर्च्छित से करके रणभूमि से दूर हटाने लगी। वहाँ खड़े हुए क्षत्रिय वह अत्यन्त भयंकर मारकाट देखकर यह पुकार-पुकार कर कह रहे थे कि दुर्योधन के अपराध से ही सारे क्षत्रिय विनाश को प्राप्त हो रहे हैं। पापात्मा राजा धृतराष्ट्र ने लोभ से मोहित होकर गुणवान पाण्डवों से द्वेष क्यों किया?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-47 का हिन्दी अनुवाद)

       महाराज! इस प्रकार वहाँ परस्पर कही हुई पाण्डवों की प्रशंसा तथा आपके पुत्रों की अत्यन्त भयंकर निंदा से युक्त नाना प्रकार की बातें सुनायी पड़ती थी। भारत! तब सम्पूर्ण योद्धाओं के मुख से निकली हुई उन बातों को सुनकर सम्पूर्ण लोकों का अपराध करने वाले आपके पुत्र दुर्योधन ने भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य से कहा- 'आप लोग अहंकार छोड़कर युद्ध करें; विलम्ब क्यों कर रहे हैं?'

      राजन! तदनन्तर कौरवों का पाण्डवों के साथ अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा, जो कपटपूर्ण द्यूत के कारण सम्भव हुआ था और जिसमें बड़ी भारी मारकाट मच रही थी। विचित्रवीर्यनन्दन महाराज धृतराष्ट्र! पूर्वकाल मे महात्मा पुरुषों के मना करने पर भी जो आपने उनकी बातें नहीं मानीं, उसी का यह भयंकर फल प्राप्त हुआ है, इसे देखिये।

      राजन! सेना और सेवकों सहित पाण्डव अथवा कौरव समरभूमि में अपने प्राणों की रक्षा नहीं करते है- प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध कर रहे हैं। पुरुषसिंह! नरेश्वर! इस कारण से अथवा देव की प्रेरणा से या आपके ही अन्याय से होने वाले इस युद्ध में स्वजनों का घोर संहार हो रहा है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में घमासान युद्धविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय, कौरव-पाण्डव सैनिकों का घोर युद्ध, अभिमन्यु से चित्रसेन की, द्रोण से द्रुपद की और भीमसेन से बाह्लीक की पराजय तथा सात्यकि और भीष्म का युद्ध”

     संजय कहते है ;- राजन! पुरुषसिंह अर्जुन अपने तीखे बाणों से सुशर्मा के अनुगामी नरेशों को यमलोक भेजने लगे। तब सुशर्मा ने युद्धस्थल में अनेक बाणों द्वारा कुन्तीकुमार अर्जुन को घायल कर दिया। फिर उसने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को सत्तर और अर्जुन को नौ बाण मारे। यह देख इन्द्रपुत्र महारथी अर्जुन ने अपने बाणसमूहों के द्वारा सुशर्मा को रोककर रणक्षेत्र में उसके योद्धाओं को यमलोक पहुँचाना आरम्भ किया। राजन! जैसे युगान्त में साक्षात काल के द्वारा सारी प्रजा मारी जाती है, उसी प्रकार रणक्षेत्र में अर्जुन के द्वारा मारे जाते हुए सारे महारथी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे। आर्य! कुछ लोग घोड़ों को, कुछ दूसरे लोग रथों को और इसी प्रकार कुछ लोग हाथियों को छोड़कर दसों दिशाओं में भागने लगे। प्रजानाथ! दूसरे लोग उस समय बड़ी उतावली के साथ अपने हाथी, घोड़े एवं रथ को साथ ले रणभूमि से भाग निकले। भारत! उस महायुद्ध में पैदल सिपाही भी अपने अस्त्र-शस्त्रों को फेंककर उनकी कोई अपेक्षा न रखकर जिधर से राह मिली, उधर से ही भागने लगे।
      यद्यपि त्रिगर्तराज सुशर्मा तथा अन्य श्रेष्ठ नरेशों ने भी बार बार रोकने का प्रयत्न किया, तथापि वे सैनिक युद्ध में ठहर न सके। उस सेना को भागती देख आपके पुत्र दुर्योधन ने रणभूमि में भीष्म को आगे करके सम्पूर्ण सेनाओं के साथ महान प्रयत्नपूर्वक धनंजय पर धावा किया। प्रजानाथ! उसके आक्रमण का उद्देश्य था त्रिगर्तराज के जीवन की रक्षा। केवल दुर्योधन ही अपने समस्त भाइयों के साथ नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करता हुआ समरभूमि में खड़ा रहा। शेष सब मनुष्य भाग गये। राजन! उसी प्रकार पाण्डव भी कवच बाँधकर सम्पूर्ण उद्योग के साथ अर्जुन की रक्षा के लिये उसी स्थान पर गये, जहाँ भीष्म स्थित थे।
       गाण्डीवधारी अर्जुन के भयंकर पराक्रम को जानने के कारण वे लोग उत्साह के साथ कोलाहल और सिंहनाद करते हुए सब ओर से भीष्म पर आक्रमण करने लगे। तदनन्तर ताल चिह्नित ध्वजा वाले शूरवीर भीष्म ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से युद्ध में पाण्डव सेना को आच्छादित कर दिया। महाराज! तत्पश्चात् समस्त कौरव एकत्र संगठित होकर दोपहर होते होते पाण्डवों के साथ घोर युद्ध करने लगे। शूरवीर सात्यकि कृतवर्मा को पाँच बाणों से घायल करके समरभूमि में सहस्रों बाणों की वर्षा करते हुए खड़े रहे।
          इसी प्रकार राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को तीखे बाणों से एक बार घायल करके सत्तर बाणों द्वारा पुनः घायल किया और पाँच बाणों से उनके सारथियों को भी भारी चोट पहुँचायी। भीमसेन ने अपने प्रपितामह राजा बाह्लीक को बाणों द्वारा घायल करके वन में सिंह के समान बड़े जोर से गर्जना की। अर्जुनकुमार अभिमन्यु को चित्रसेन ने बहुत से बाणों द्वारा घायल कर दिया था, तो भी शूरवीर अभिमन्यु सहस्रों बाणों की वर्षा करता हुआ युद्धभूमि में डटा रहा। उसने तीन बाणों से समरांगण में चित्रसेन को अत्यन्त घायल कर दिया। राजन! जैसे आकाश में दो महाघोर ग्रह बुध और शनैश्वर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार दो महान वीर चित्रसेन और अभिमन्यु रणभूमि में शोभा पा रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)

        तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने चित्रसेन के चारों घोड़ों को मारकर नौ बाणों से उसके सारथियों को भी नष्ट कर दिया। तत्पश्चात् बड़े जोर से सिंहनाद किया। प्रजानाथ! घोड़ों के मारे जाने पर महारथी चित्रसेन तुरंत ही रथ से कूद पड़े और दुर्मुख के रथ पर आरूढ़ हो गये। पराक्रमी द्रोणाचार्य ने भी झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से द्रुपद को घायल करके बड़ी उतावली के साथ उनके सारथि को भी बींध डाला। इस प्रकार युद्ध के मुहाने पर द्रोणाचार्य से पीड़ित हो राजा द्रुपद पूर्व वैर का स्मरण करते हुए शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा वहाँ से भाग गये। भीमसेन ने दो ही घड़ी में सारी सेना के देखते-देखते राजा बाह्लीक को घोड़े, सारथि तथा रथ से शून्य कर दिया। महाराज! नरश्रेष्ठ बाह्लीक बड़ी घबराहट में पड़ गये। उनका जीवन अत्यन्त संशय में पड़ गया। उस अवस्था में वे रथ से कूदकर शीघ्र ही उस महायुद्ध में लक्ष्मण के रथ पर आरूढ़ हो गये।
       राजन्! दूसरी ओर उस महायुद्ध में सात्यकि ने कृतवर्मा को रोककर नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए पितामह भीष्म पर धावा किया। उन्होंने अपने विशाल धनुष की टंकार फैलाते तथा रथ की बैठक में नृत्य करते हुए से पंखयुक्त साठ तीखे बाणों द्वारा भरतवंशी पितामह भीष्म को घायल कर दिया। पितामह ने सात्यकि पर लोहे की बनी हुई एक विशाल शक्ति चलायी, जो सुवर्णजटित, अत्यन्त वेगशालिनी तथा सर्पिणी के समान आकार वाली एवं सुन्दर थी। उस अत्यन्त दुर्जय मृत्युस्वरूपा शक्ति को सहसा आती देख महायशस्वी सात्यकि ने अपनी फुर्ती के कारण उसको असफल कर दिया। वह परम भयंकर शक्ति सात्यकि तक न पहुँचकर अत्यन्त तेजस्विनी बड़ी भारी उल्का के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी।
      राजन! तब सात्यकि ने भी अपनी सुनहरी प्रभावशाली शक्ति लेकर उसे भीष्म के रथ पर बड़े वेग से चलाया उस महासमर में सात्यकि की भुजाओं के वेग से चलायी हुई वह शक्ति अत्यन्त वेगपूर्वक भीष्म की ओर चली, मानो कालरात्रि मनुष्य की ओर जा रही हो। परंतु भरतवंशी भीष्म ने अपने अत्यन्त तीखे दो क्षुरप्रों से उस सहसा आती हुई शक्ति को दो जगह से काट दिया। वह छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। शक्ति को काटकर हँसते हुए शत्रुसूदन गंगानन्दन भीष्म ने कुपित हो सात्यकि की छाती में नौ बाण मारे। पाण्डु के भाई महाराज धृतराष्ट्र! उस समय मधुवंशी सात्यकि को बचाने के लिये पाण्डवों ने रथ, घोड़े और हाथियों की सेना के साथ आकर युद्धभूमि में भीष्म को चारों ओर से घेर लिया। तत्पश्चात युद्ध में विजय की अभिलाषा रखने वाले कौरवों तथा पाण्डवों में परस्पर घोर युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में सात्यकि का युद्धविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ पाँचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का दुःशासन को भीष्म की रक्षा के लिये आदेश, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के द्वारा शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय तथा शल्य के साथ उन सबका युद्ध”

   संजय कहते है ;- महाराज! ग्रीष्म ऋतु के अन्त में (वर्षारम्भ होने पर) जैसे मेघ आकाश में सूर्यदेव को ढक लेते हैं, उसी प्रकार पाण्डवों ने भी युद्धभूमि में क्रुद्ध हुए भीष्म को सब ओर से घेर लिया है। यह देखकर आपके पुत्र दुर्योधन ने दुःशासन से कहा,
       दुर्योधन ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! ये शूरवीरों का नाश करने वाले महाधनुर्धर शौर्यसम्पन्न भीष्म पराक्रमी पाण्डवों द्वारा चारों ओर से घेर लिये गये है। वीर! तुम्हें उन महात्मा भीष्म की रक्षा करनी चाहिये। युद्ध में सुरक्षित रहने पर हमारे पितामह भीष्म समरांगण में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले पाण्डवों सहित पांचालों का संहार कर डालेंगे। अतः इस अवसर पर मैं भीष्म की रक्षा को ही प्रधान कार्य समझता हूँ; क्योंकि ये महावली महाधनुर्धर भीष्म हम लोगों के रक्षक हैं। अतः तुम सम्पूर्ण सेना के साथ समरभूमि में दुष्करकर्म करने वाले पितामह भीष्म को चारों ओर से घेरकर उनकी रक्षा करों।
      दुर्योधन के ऐसा कहने पर आपका पुत्र दुःशासन समरभूमि में अपनी विशाल सेना के साथ जा भीष्म को सब ओर से घेरकर खड़ा हो गया और बड़े यत्न से सावधान रहकर उनकी रक्षा करने लगा। तदन्तर सुबलपुत्र शकुनि एक लाख घुड़सवारों की सेना के साथ युद्ध के लिये आ पहुँचा। वे सभी सैनिक अपने हाथों में चमकते हुए प्रास, ऋष्टि और तोमर लिये हुए थे। सबको अपने शौर्य का अभिमान था। सभी बलवान, सुन्दर अस्त्रविद्या की शिक्षा पाये हुए युद्धकुशल श्रेष्ठ पैदल सिपाहियों की भी बहुत बड़ी संख्या उन घुड़सवारों के साथ थी। इस प्रकार युद्धभूमि में शोभा पाने वाले कई हजार योद्धाओं से घिरा हुआ शकुनि कवच धारण करके युद्ध के लिये ही वहाँ खड़ा हो गया।
      राजन! दुर्योधन के कहने पर शकुनि भीष्म की रक्षा के लिए उपस्थित होकर नकुल, सहदेव तथा धर्मराज युधिष्ठिर- इन तीनों श्रेष्ठ पुरुषों को सब ओर से घेरकर इन्हें आगे बढ़ने से रोकने लगा। तदन्तर राजा दुर्योधन ने पाण्डवों की प्रगति को रोकने के लिए दस हजार घुड़सवार सैनिक और भेजे। गरुड़ के समान अत्यन्त वेगशाली वे अश्व रणभूमि में यथास्थान पहुँच गऐ। जैसे मरुद्गणों से महातेजस्वी इन्द्र की शोभा होती है, उसी प्रकार उन अत्यन्त वेगशाली अश्वों के द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सुबलपुत्र शकुनि सुशोभित होने लगा। राजन! उन घोड़ों की टाप से आहत होकर यह पृथ्वी काँपने और भयंकर शब्द करने लगी। उस समय घोड़ों की टापों का महान शब्द सब ओर उसी प्रकार सुनायी देने लगा, मानो पर्वत पर जलते हुए बडे़-बड़े बाँसों के जंगल में उनके पोरों के फटने का शब्द हो रहा हो। वहाँ घोड़ों के उछलने-कुदने से जो बड़े जोर की धुलि उपर को उठी, उसने मानो सूर्य के रथ के समीप पहुँचकर उन्हें आच्छादित कर दिया। उन वेगशाली अश्वों ने पांडव सेना को उसी प्रकार श्रुब्ध कर दिया, जैसे महान वेग से उड़ने वाले हंस किसी विशाल जलाशय में पड़कर उसे मथ डालते हैं। वायु के समान वेग वाले उन अश्वों ने पांडव सेना को व्याकुल कर दिया। उनके हिनहिनाने की आवाज से दबकर दूसरा कोई शब्द नहीं सुनायी पड़ता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चाधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद)

          महाराज! तब राजा युधिष्ठिर तथा पाण्डुपुत्र माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव ने समरभूमि में उन घुड़सवारों का वेग नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा ऋतु में अधिक जल से परिपूर्ण होकर मर्यादा तोड़ने वाले समुद्र के पूर्णिमा तिथि में बढ़े हुए वेग को तट की भूमि रोक देती है। राजन! तत्पश्चात वे रथी झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा घुड़सवारों के मस्तक काटने लगे। महाराज! उन सुदृढ़ धनुर्धरों द्वारा मारे गये वे घुड़सवार रणभूमि में उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पर्वतों की कन्दरा में बड़े बड़े हाथी हाथियों से ही मारे जाकर गिरते है। वे घुड़सवार भी दसों दिशाओं में विचरते हुए झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों तथा प्रासों द्वारा शत्रुपक्ष के सैनिकों के मस्तक काट गिराते थे। भरतश्रेष्ठ! ऋष्टियों द्वारा मारे गये घुड़सवार अपने मस्तकों को उसी प्रकार गिराते थे, जैसे बड़े बड़े वृक्ष अपने पके हुए फलों को गिराते है। राजन! सवारों सहित वहाँ मारे गये बहुत से घोड़े सब ओर गिरे और गिराये जाते हुए दिखायी देते थे। जैसे सिंह का सामना पड़ जाने पर मृग भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये भागते हैं, उसी प्रकार मारे जाते हुए घोड़े भय से व्याकुल हो इधर-उधर भाग रहे थे। महाराज! पाण्डव उस महासमर में शत्रुओं को जीतकर शंख फूँकने और नगाड़े पीटने लगे।
      भरतश्रेष्ठ! तब अपनी सेना पराजित हुआ देख दुर्योधन ने दीन होकर मद्रराज शल्य से इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- 'महाबाहो! ये ज्येष्ठ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव को साथ लेकर रणभूमि में आप लोगों के देखते-देखते मेरी सेना को खदेड़ रहे हैं। प्रभो! महाबाहों! जैसे तटप्रान्त समुद्र को आगे बढ़ने से रोकता है, उसी प्रकार आप भी युधिष्ठिर को आगे बढ़ने से रोकिये; क्योंकि आपका बल और पराक्रम अत्यन्त असह सुना जाता है। राजन! आपके पुत्र की यह बात सुनकर प्रतापी राजा शल्य रथसमूह के साथ उसी स्थान पर गये, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। उस समय सहसा अपनी ओर आती हुई राजा शल्य की उस विशालवाहिनी तथा स्वयं मद्रराज को भी पाण्डुपुत्र महारथी धर्मराज युधिष्ठिर ने महान जल-प्रवाह के समान समरभूमि में रोक दिया। उन्होंने शल्य की छाती मे तुरंत ही दस बाण मारे तथा नकुल और सहदेव ने भी सीधे जाने वाले सात बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब मद्रराज शल्य ने भी उनको तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया।
        फिर युधिष्ठिर को उन्होंने साठ तीखे बाण मारे। इसके बाद दो दो बाणों से उन्होंने उत्तम कुल में उत्पन्न माद्रीकुमारों को घायल किया तथा अनेक बाणों द्वारा राजा युधिष्ठिर को भी पुनः चोट पहुँचायी। तब शत्रुविजयी महाबाहु भीमसेन समरभूमि में राजा युधिष्ठिर को मृत्यु के मुख में पड़े हुए के समान मद्रराज के रथ के समीप पहुँचा हुआ देखकर युद्ध के लिये वहाँ आ पहुँचे। भीमसेन ने आते ही पूर्णतः लोहे के बने हुए और मर्मस्थानों को विदीर्ण करने में समर्थ तीखे नाराचों से मद्रराज शल्य को गहरी चोट पहुँचायी। तब भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों महारथी विशाल सेना के साथ अनायास ही बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ राजा शल्य की रक्षा के लिये आ पहुँचे। तदनन्तर जब सूर्यदेव पश्चिम दिशा का आश्रय लेकर अस्ताचल को जा रहे थे, उसी समय दोनों सेनाओं में अत्यन्त दारुण महाघोर युद्ध आरम्भ हुआ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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