सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! इरावान को संग्राम में मारा गया देख महारथी कुन्तीपुत्रों ने क्या किया? यह मुझसे कहो। संजय बोले- राजन इरावान को युद्धभूमि में मारा गया देख भीमसेन का पुत्र राक्षस घटोत्कच बड़े जोर से सिंहनाद करने लगा। नरेश्वर! उस राक्षस की गर्जना से समुद्र, आकाश, पर्वत और वनों सहित यह सारी पृथ्वी जोर-जोर से हिलने लगी। अन्तरिक्ष, दिशाएँ तथा समस्त कोणों के प्रदेश भी काँपने लगे। भारत! घटोत्कच का महान सिंहनाद सुनकर आपके सैनिकों की जाँघें अकड़ गयीं, शरीर काँपने लगा और सम्पूर्ण अंगों से पसीना निकलने लगा। महाराज! आपके सभी सैनिक सब ओर से दीनचित्त हो सिंह से डरे हुए हाथियों की भाँति भयपूर्ण चेष्टाएँ करने लगे। वज्र की गड़गड़ाहट के समान भयंकर गर्जना करके काल, अन्तक और यम के समान क्रोध में भरे हुए उस राक्षस ने भीषण रूप बना प्रज्वलित त्रिशूल हाथ में ले भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न बड़े बड़े राक्षसों के साथ आकर आपकी सेना का संहार आरम्भ किया। अत्यन्त क्रोध में भरे भयंकर दिखायी देने वाले उस राक्षस को आक्रमण करते देख उसके भय से अपनी सेना प्रायः युद्ध से विमुख होकर भाग चली।
तब राजा दुर्योधन ने विशाल धनुष लेकर बारम्बार सिंह के समान गर्जना करते हुए वहाँ घटोत्कच पर धावा किया। उसके पीछे मद की धारा बहाने वाले पर्वताकार दस हजार गजराजाओं की सेना लिये स्वयं वंग देश का राजा भी गया। महाराज! हाथियों की सेना से घिरे हुए आपके पुत्र दुर्योधन को आते हुए देख वह निशाचर कुपित हो उठा। राजेन्द्र! फिर तो दुर्योधन की सेना और राक्षसों में भयंकर एवं रोमान्चकारी युद्ध होने लगा। घिरी हुई मेघों की घटा के समान हाथियों की सेना को देखकर क्रोध में भरे हुए राक्षस हाथ में अस्त्र-शस्त्र लिये उसकी ओर दौडे़। वे भाँति-भाँति की गर्जना करते हुए बिजली सहित मेघों के समान शोभा पाते थे। बाण, शक्ति, ऋष्टि, नाराच, भिन्दिपाल, शूल, मुद्गर, फरसों, पर्वत शिखर तथा वृक्षों का प्रहार करके वे गजारोहियों तथा विशाल गजों का वध करने लगे। महाराज! निशाचरों द्वारा मारे जाने वाले गजराजों को हमने देखा था। उनके कुम्भस्थल फट गये थे, शरीर रक्तहीन हो गये और उनके भिन्न-भिन्न अंग छिन्न-भिन्न हो गये थे।
महाराज! इस प्रकार गजारोहियों के भग्न एवं नष्ट हो जाने पर दुर्योधन ने अमर्ष के वशीभूत हो अपने जीवन का मोह छोड़कर उन राक्षसों पर धावा किया। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! महाधनुर्धर दुर्योधन ने राक्षसों पर तीखे बाणों का प्रहार किया और उनमें से प्रधान-प्रधान राक्षसों को मार डाला। भरतश्रेष्ठ! क्रोध मे भरे हुए आपके महाबली पुत्र दुर्योधन ने वेगवान, महारौद्र, विद्युज्जिह्व और प्रमाथी- इन चार राक्षसों को चार बाणों से मार डाला। तत्पश्चात् अमेय आत्मबल से सम्पन्न भरतश्रेष्ठ दुर्योधन ने उस निशाचर सेना के ऊपर दुर्धष बाणों की वर्षा आरम्भ की। आर्य! आपके पुत्र का वह महान कर्म देखकर भीमसेन का महाबली पुत्र घटोत्कच क्रोध से जल उठा। उसने इन्द्र के वज्र के समान कान्तिमान विशाल धनुष को खींचकर शत्रुदमन दुर्योधन पर बड़े वेग से धावा किया। महाराज! कालप्रेरित मृत्यु के समान उस घटोत्कच को आते देख आपका पुत्र दुर्योधन तनिक भी व्यथित नहीं हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 24-31 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर क्रूर घटोत्कच क्रोध से लाल आँखें करके दुर्योधन से बोला,
घटोत्कच बोला ;- 'ओ दुष्ट! आज मैं अपने उन पितरों और माता के ऋण से उऋण हो जाऊँगा, जिन्हें तूने दीर्घकाल तक वन में रहने के लिए विवश कर दिया था। तू बड़ा क्रूर है। दुर्बुद्धि नरेश! तूने जो पाण्डवों को द्यूत में छलपूर्वक हराया था और जो एक ही वस्त्र धारण करने वाली द्रुपदकुमारी कृष्णा को रजस्वला-अवस्था में सभा के भीतर ले जाकर नाना प्रकार के क्लेश दिये थे तथा तेरा ही प्रिय करने की इच्छा वाले दुरात्मा सिन्धुराज ने मेरे पितरों की अवहेलना करके आश्रम में रहने वाली द्रौपदी का अपहरण किया था। कुलाधम! यदि तू युद्ध छोड़कर भाग नहीं जाएगा तो इन अपमानों का और अन्य सब अत्याचारों का भी आज मैं बदला चुका लूँगा।'
ऐसा कहकर हिडिम्बाकुमार ने दाँतों से ओठ चबाते और जीभ से मुँह के कोनों को चाटते हुए अपने विशाल धनुष को खींचकर दुर्योधन पर बाणों की बड़ी भारी वृद्धि की। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा ऋतु में मेघ पर्वत के शिखर पर जल की धाराएँ गिराता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में घटोत्कच-युद्धविषयक इक्यानबेबाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
बियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि प्रमुख वीरों के साथ भयंकर युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन्! दानवों के लिये भी दुःसह उस बाण वर्षा को राजाधिराज दुर्योधन ने युद्ध में उसी प्रकार धारण किया, जैसे महान गजराज जल की वर्षा को अपने ऊपर धारण करता है। भरतश्रेष्ठ! उस समय क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान लंबी साँस खींचता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन जीवन रक्षा को लेकर भारी संशय में पड़ गया। उसने अत्यन्त तीखे पच्चीस नाराच छोड़े। महाराज! वे सब सहसा उसे राक्षसराज घटोत्कच पर जाकर गिरे, मानो गन्धमादन पर्वत पर क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प कहीं से आ पड़े हो। उन बाणों से घायल होकर वह राक्षस कुम्भस्थल से मद की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति अपने शरीर से रक्त की धारा प्रवाहित करने लगा। उसने राजा दुर्योधन का विनाश करने के लिये दृढ़ निश्चय कर लिया।
तत्पश्चात् उसने पर्वतों को भी विदीर्ण कर डालने वाली प्रज्वलित उल्का एवं वज्र के समान प्रकाशित होने वाली एक महाशक्ति हाथ में ली। महाबाहु घटोत्कच आपके पुत्र को मार डालने की इच्छा से वह शक्ति ऊपर को उठा रहा था। उसे उठी हुई देख वंग देश के राजाओं ने बड़ी उतावाली के साथ अपने पर्वताकार गजराज को उस राक्षस की ओर बढ़ाया। वे वंग नरेश उस शीघ्रगामी महाबली गजराज पर आरूढ़ हो युद्ध के मैदान में उसी मार्ग पर चले, जहाँ दुर्योधन का रथ खड़ा था। उन्होंने अपने हाथी के द्वारा आपके पुत्र का मार्ग रोक दिया। महाराज! बुद्धिमान वंग नरेश के द्वारा दुर्योधन के रथ का मार्ग रुका हुआ देख घटोत्कच के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने उस उठायी हुई महाशक्ति को उस हाथी पर ही चला दिया। राजन्! घटोत्कच की भुजाओं से छूटी हुई उस शक्ति के आघात से हाथी का कुम्भस्थल फट गया और उससे रक्त का स्त्रोत बहने लगा। फिर वह तत्काल ही भूमि पर गिरा और मर गया। हाथी के गिरते समय बलवान वंगनरेश उसकी पीठ से वेगपूर्वक कूदकर धरती पर आ गये। उस श्रेष्ठ गजराज को गिरा हुआ देख सारी कौरव सेना भाग खड़ी हुई।
यह सब देखकर दुर्योधन के मन में बड़ी व्यथा हुई। वह घटोत्कच के पराक्रम दृष्टिपात करके उसका सामना करने में असमर्थ हो गया। क्षत्रिय धर्म तथा अपने अभिमान को सामने रखकर पलायन का अवसर प्राप्त होने पर भी राजा दुर्योधन पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़ा रहा। तत्पश्चात उसने प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीखे बाण को धनुष पर रखकर उसे अत्यन्त क्रोधपूर्वक उस घोर निशाचर पर छोड़ दिया। इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित होने वाले उस बाण को अपनी ओर आता देख महामना राक्षस घटोत्कच ने अपनी फुर्ती के कारण अपने आपको उससे बचा लिया। इसके बाद क्रोध से आँखें लाल करके वह पुनः भयंकर गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक मेघ की गर्जना होती है, वैसी ही गर्जना करके उसने कौरव सेना को दहला दिया। उस भयानक राक्षस की वह घोर गर्जना सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने द्रोणाचार्य के पास जाकर इस प्रकार कहा- 'आचार्य! यह राक्षस के मुख से निकली हुई घोर गर्जना सुनायी दे रही है, उससे अनुमान होता है कि अवश्य ही हिडिम्बा का पुत्र घटोत्कच राजा दुर्योधन के साथ जूझ रहा है।'
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 20-43 का हिन्दी अनुवाद)
इसे कोई भी प्राणी संग्राम में जीत नहीं सकता, अतः आपका कल्याण हो, वहाँ जाइये और राजा दुर्योधन की रक्षा कीजिये। जान पड़ता है महाभाग दुर्योधन उस महाकाय राक्षस के आक्रमण का शिकार हो रहा है। शत्रुओं को संताप देने वाले वीरों! आपके तथा हम सब लोगों के लिये यही सर्वोत्तम कृत्य है। भीष्म की यह बात सुनकर सब महारथी उत्तम वेग का आश्रय ले बड़ी उतावली के साथ उस स्थान पर गये, जहाँ कुरुराज दुर्योधन मौजूद था। द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, जयद्रथ, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य, अवन्ती का राजकुमार, बृहद्बल, अश्वत्थामा, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति तथा उनके अनुयायी अनेक सहस्र रथी- ये सब लोग राक्षस के द्वारा आक्रान्त हुए आपके पुत्र दुर्योधन की रक्षा करने के लिए गये। उन महारथियों से पालित होकर वह सेना अजेय हो गई।
युद्ध में आततायी दुर्योधन को आते देख राक्षस शिरोमणि महाबाहु घटोत्कच मैनाक पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़ा रहा। उसके जाति-बन्धु हाथों में शूल, मुद्गर आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उसे सब ओर से घेरे हुए थे और उसने एक विशाल धनुष ले रखा था। तदनन्तर राक्षस शिरोमणि घटोत्कच तथा दुर्योधन की सेना में रोमान्चकारी एवं भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! रणभूमि में सब ओर बाँसों के दग्ध होने के समान धनुषों की टंकार का भयंकर शब्द सुनायी देने लगा। राजन्! देहधारियों के कवचों पर पड़ने वाले अस्त्रों का ऐसा शब्द होता था, मानो पर्वत विदीर्ण हो रहे हों। प्रजानाथ! वीरों की भुजाओं से छोड़े गये तोमर जब आकाश में आते, उस समय उनका स्वरूप तीव्रगति से उड़ने वाले सर्पों के समान जान पड़ता था। तदन्तर महाबाहु राक्षसराज घटोत्कच ने अत्यन्त क्रुद्ध हो भैरव गर्जना करते हुए अपने विशाल धनुष को खींचकर अर्धचन्द्राकार बाण से द्रोणाचार्य के धनुष को काट डाला।
फिर एक भल्ल के द्वारा सोमदत्त के ध्वज को खण्डित करके सिंहनाथ किया। तत्पश्चात् तीन बाणों से बाह्लीक की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। एक बाण से कृपाचार्य और तीन से चित्रसेन को भी बींध डाला। इसके बाद उसने धनुष को पूर्णरूप में खींचकर उस पर उत्तम रीति से बाणों का संधान करके विकर्ण के गले की हँसली में गहरी चोट पहुँचायी। इससे विकर्ण अपने रथ से पिछले भाग में व्याकुल होकर बैठ गया, उसका सारा शरीर रक्त से नहा उठा था। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् अमेय आत्मबल से सम्पन्न घटोत्कच ने क्रुद्ध होकर भूरिश्रवा पर पंद्रह नाराच चलाये। वे नाराच उसके कवच को छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही धरती में समा गये। साथ ही घटोत्कच ने विविंशति और अश्वत्थामा के सारथियों पर गहरा आघात किया। वे दोनों घोड़ों की बागडोर छोड़कर रथ की बैठक में गिर पड़े। महाराज! उसने एक अर्धचन्द्राकार बाण से सिन्धुराज जयद्रथ की वाराहचिह्न युक्त सुवर्णभूषित ध्वजा काट डाली और दूसरे बाण से उसके धनुष के दो टुकडे़ कर दिये। इसके बाद क्रोध से लाल आँखें करके घटोत्कच ने चार नाराचों द्वारा महामना अवन्ती नरेश के चारों घोड़ों को मार डाला।
राजेन्द्र! तदनन्तर धनुष को पूर्णरूप में खींचकर छोड़े गये पानीदार तीखे बाण से उसने राजकुमार बृहद्बल को विदीर्ण कर दिया। उस बाण से वह गहराई तक बिंध गया और व्यथित होकर रथ के पिछले भाग में जा बैठा। इधर राक्षसराज घटोत्कच अत्यन्त क्रोध से आविष्ट हो रथ पर बैठा रहा। महाराज! रथ पर बैठे-ही-बैठे उसने विषधर सर्पों के समान अत्यन्त तीखे बाण चलाये। उन बाणों ने युद्ध विशारद राजा शल्य को पूर्ण रूप से घायल कर दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में घटोत्कच युद्धविषयक बानेबवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“घटोत्कच की रक्षा के लिए आये हुए भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध और उनका पलायन”
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! जब घटोत्कच दुर्योधन और अन्य कौरव वीरों के साथ युद्ध कर रहा था, तो उसने युद्धस्थल में आपके समस्त योद्धाओं को संग्राम से विमुख करके दुर्योधन को मार डालने की इच्छा रखकर उसकी ओर दौड़ा। उसे राजा दुर्योधन की ओर बड़े वेग से आते देख आपके रणदुर्मद पुत्र और सैनिक मार डालने की इच्छा से उसकी ओर दौड़े। उन सभी महारथियों ने चार-चार हाथ में धनुष खींचते हुए और सिंहों के समुदाय की भाँति गर्जना करते हुए उस एक मात्र योद्धा घटोत्कच पर धावा किया। जैसे शरद ऋतु में बादल पर्वत के शिखर पर जल की धाराएँ गिराते हैं, उसी प्रकार उन सब कौरव वीरों में चारों ओर से घटोत्कच पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। उस समय उन बाणों के गहरे आघात से वह अंकुश की मार खाये हुए हाथी की भाँति व्यथित हो उठा और तुरंत ही गरुड़ के समान आकाश में सब ओर उड़ने लगा। आकाश में स्थित होकर शरद ऋतु के बादल की भाँति वह अपने भयंकर स्वर से अन्तरिक्ष, दिशाओं तथा विदिशाओं को गुँजाता हुआ जोर-जोर से गर्जना करने लगा।
भरतश्रेष्ठ! राक्षस घटोत्कच की उस गर्जना को सुनकर राजा युधिष्ठिर ने शत्रुदमन भीमसेन से इस प्रकार कहा- 'राक्षस घटोत्कच कौरव महारथियों से निश्चय ही युद्ध कर रहा है। भैरवनाद करते हुए उस राक्षस का जैसा शब्द सुनायी देता है, उससे यहीं जान पड़ता है। मैं उस राक्षस शिरोमणि पर बहुत बड़ा भार देख रहा हूँ। उधर पितामह भीष्म भी अत्यन्त क्रोध में भरकर पांचालों को मार डालने के लिए उद्यत है। उनकी रक्षा के लिए अर्जुन शत्रुओं से युद्ध करते हैं। महाबाहो! अपने ऊपर दो कार्य उपस्थित है, ऐसा जानकर तुम जाओ और अत्यन्त संशय में पड़े हुए हिडिम्बाकुमार की रक्षा करो।' भाई की यह आज्ञा मानकर भीमसेन सिंहनाद से सम्पूर्ण नरेशों को भयभीत करते हुए बड़ी उतावली के साथ वहाँ से चल दिये। राजन्! जैसे पूर्णिमा को समुद्र बड़े वेग से बढ़ता है, उसी प्रकार भीमसेन अत्यन्त वेग से आगे बढ़े। उनके पीछे सत्यधृति, रंगदुर्मद सौचित्ति, श्रेणिमान, वसुदान, काशिराज के पुत्र अभिभू, अभिमन्यु आदि योद्धा, द्रौपदी के पाँच महारथी पुत्र, पराक्रमी क्षत्रदेव, क्षत्रधर्मा, अनूपदेश के राजा नील, जिन्हें अपने बल का पूरा भरोसा था- इन सब वीरों ने विशाल रथ सेना के साथ हिडिम्बाकुमार घटोत्कच को सब ओर से घेर लिया।
सदा उन्मत्त रहने वाले, प्रहार कुशल छः हजार गजराजों के साथ आकर उपर्युक्त वीरों ने एक साथ ही राक्षसराज घटोत्कच की रक्षा की। वे महान सिंहनाद, रथ के पहियों की घरघराहट और घोड़ों की टाप पड़ने से होने वाले महान शब्द के द्वारा वसुधा को कम्पित कर रहे थे। उन सबके आने से जो कोलाइल हुआ, उसे सुनकर भीमसेन के भय से उद्विग्न हुए आपके सैनिकों का मुख उदास हो गया। महाराज! उस समय रक्षकों द्वारा सब ओर से घिरे हुए घटोत्कच को छोड़कर संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले आपके तथा शत्रुपक्ष के महामनस्वी योद्धाओं में भारी युद्ध छिड़ गया। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को छोड़ते और एक-दूसरे की ओर दौड़ते हुए उभय पक्ष के महारथी भीष्म युद्ध करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)
धीरे-धीरे अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो भीरू मनुष्यों को डराने वाला था। घुड़सवार हाथी सवारों के और पैदल रथियों के साथ भिड़ गये। राजन्! वे समरांगण मे एक दूसरे को ललकारते हुए जूझ रहे थे। उस समय उस भीषण संघर्ष से सहसा बड़े जोर की धूल उठी, जो हाथी, घोड़े और पैदलों के पैरों तथा रथ के पहियों के धक्के से उठायी गयी थी। महाराज! काले और लाल रंग की उस दुःसह धूल ने समस्त रणभूमि को ढक दिया। उस समय अपने और शत्रु पक्ष के योद्धा एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। उस मर्यादा शून्य रोमान्चकारी जनसंहार में पिता पुत्र को और पुत्र पिता को नहीं पहचान पाता था। भरतश्रेष्ठ! शस्त्रों के आघात और मनुष्यों की गर्जना का महान् शब्द भूत-प्रेतों की गर्जना के समान जान पड़ता था। हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के रक्त और आँतों की एक भयंकर नदी बह चली, जिसमें केश सेवार और घास के समान जान पड़ते थे। मनुष्यों के शरीर से रणभूमि में कटकर गिरते हुए मस्तकों का महान पत्थरों की वर्षा के समान जान पड़ता था। बिना सिर के मनुष्यों, कटे हुए अंगों वाले हाथियों तथा छिन्न-भिन्न शरीर वाले घोड़ों से वहाँ की सारी भूमि पट गयी थी। नाना प्रकार के शस्त्रों को चलाते और एक दूसरे की ओर दौड़ते हुए महारथी सर्वथा युद्ध के लिये उद्यत थे।
घुड़सवारों द्वारा प्रेरित हुए घोड़े घोड़ों से भिड़कर आपस में टक्कर लेकर प्राणशून्य हो रणक्षेत्र में गिर पड़ते थे। मनुष्य मनुष्यों पर आक्रमण करके अत्यन्त क्रोध से लाल आँखें किये छाती से छाती भिड़ाकर एक दूसरे को मारने लगे। महावतों के द्वारा आगे बढ़ाये हुए हाथी विपक्षी हाथियों से टक्कर लेकर युद्धस्थल मे अपने दाँतों के अग्रभाग से हाथियों पर ही चोट करते थे। उस समय उनके मस्तक से रक्त की धारा बहने लगती थी। परस्पर भिड़े हुए वे हाथी पताकाओं से अलंकृत होने के कारण विद्युत सहित मेघों के समान दिखायी देते थे। कितने ही हाथी दाँतों के अग्रभाग से विदीर्ण हो रहे थे। कितनों के कुम्भस्थल तोमरों की मार से फट गये थे और वे गर्जते हुए बादलों के समान चीत्कार करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। किन्हीं की सूँड़ों के दो टुकडे़ हो गये थे, किन्ही के सभी अंग छिन्न-भिन्न हो गये थे, ऐसे हाथी पंख कटे पर्वतों के समान उस भयानक युद्ध में धड़ाधड़ गिर रहे थे।
बहुत से श्रेष्ठ हाथी हाथियों के आघात से ही अपना पार्श्व भाग विदीर्ण हो जाने के कारण उसी प्रकार प्रचुर मात्रा में अपना रक्त बहा रहे थे, जैसे पर्वत गेरू आदि धातुओं से मिश्रित झरने बहाते हों। कुछ हाथी नाराचों से घायल किये गये थे, कितनों के शरीरों में तोमर धँसे हुए थे और वे सबके सब घोर चीत्कार करते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे। उस समय वे श्रृंगहीन पर्वतों के समान जान पड़ते थे। कितने ही मदान्ध गजराज क्रोध में भरे होने के कारण काबू में नहीं आते थे। उन्होंने रणभूमि में सैकड़ों रथों, घोड़ों और पैदल सिपाहियों को पैरों तले रौंद डाला। इसी प्रकार घुड़सवारों द्वारा प्राप्त और तोमरों की मार से घायल किये हुए घोड़े सम्पूर्ण दिशाओं को व्याकुल करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। कितने ही कुलीन रथी अपने शरीर को निछावर करके भारी से भारी शक्ति लगाकर विपक्षी रथियों के साथ निर्भय की भाँति महान पराक्रम प्रकट कर रहे थे। राजन्! युद्ध में शोभा पाने वाले वीर स्वर्ग अथवा यश पाने की इच्छा रखकर स्वयंवर की भाँति उस युद्ध में एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। इस प्रकार चलने वाले उस रोमान्चकारी संग्राम में दुर्योधन की विशाल सेना प्रायः युद्ध से विमुख होकर भाग गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में संकुल युद्धविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन और भीमसेन का एवं अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध तथा घटोत्कच की माया से मोहित होकर कौरव सेना का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन्! जब भीम और पाण्डव शूरवीरों का कौरवों के साथ युद्ध हो रहा था, उस युद्ध में अपनी अधिकांश सेना को मारी गयी देखकर राजा दुर्योधन को बहुत क्रोध आया और उसने स्वयं भीमसेन पर धावा किया। उसने इन्द्र के वज्र की भाँति भयानक टंकार करने वाले विशाल धनुष को हाथ में लेकर पाण्डुनन्दन भीमसेन पर बाणों की भारी वर्षा आरम्भ की। इतना ही नहीं, उसने कुपित होकर पंखयुक्त अत्यन्त तीखे अर्धचन्द्राकार बाण का प्रयोग करके भीमसेन के धनुष को काट दिया। फिर उसी को उपयुक्त अवसर समझ कर महारथी दुर्योधन ने बड़ी उतावली के साथ एक तीखे बाण का संधान किया, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाला था। महाराज! उस बाण के द्वारा दुर्योधन ने भीमसेन की छाती पर गहरी चोट पहुँचायी। उससे अत्यन्त घायल होकर तेजस्वी भीमसेन व्यथित हो उठे और मुँह के दोनों कोनों को चाटते हुए उन्होंने अपने सुवर्णभूषित ध्वज का सहारा ले लिया।
भीमसेन को इस प्रकार व्यथितचित्त देखकर घटोत्कच जलाने की इच्छा वाले अग्निदेव की भाँति क्रोध से प्रज्वलित हो उठा। साथ ही अभिमन्यु आदि पाण्डव महारथी भी बड़े वेग से राजा दुर्योधन को ललकारते हुए उसकी ओर दौड़े। क्रोध में भरे हुए इन समस्त योद्धाओं को वेगपूर्वक धावा करते देख द्रोणाचार्य ने आपके महारथियों से कहा- 'वीरो! तुम्हारा कल्याण हो। शीघ्र जाओ और संकट के समुद्र में डूबकर महान प्राणसंशय में पड़े हुए राजा दुर्योधन की रक्षा करो। ये महानधनुर्धर पाण्डव महारथी कुपित हो भीमसेन को आगे करके दुर्योधन पर धावा कर रहे हैं और विजय का दृढ़ संकल्प ले नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए भैरव गर्जना करते तथा भूमिपालों को त्रास पहुँचाते हैं।' आचार्य का यह वचन सुनकर भूरिश्रवा आदि आपके प्रमुख योद्धाओं ने पाण्डव सेना पर आक्रमण किया। कृपाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य, अश्वत्थामा, विविंशति, चित्रसेन, विकर्ण, सिंधुराज जयद्रथ, बृहद्बल तथा अवन्ती के राजकुमार महाधर्नुधर विन्द और अनुविन्द- इन सबने दुर्योधन को उसकी रक्षा के लिए सब ओर से घेर लिया। वे बीस कदम आगे बढ़कर प्रहार करने लगे, फिर तो पाण्डव तथा कौरव योद्धा एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से युद्ध करने लगे।
कौरव महारथियों से पूर्वोक्त बात कहने के पश्चात् महाबाहु भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य ने अपने विशाल धनुष को खींचकर भीमसेन को छब्बीस बाण मारे। साथ ही उन महाबाहु ने उनके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो वर्षा ऋतु में मेघ पर्वत शिखर पर जल धारा गिरा रहा हो। तब महाबली महाधनुर्धर भीमसेन ने भी बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य की बायीं पसली में दस बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया। भरतनन्दन! उन बाणों से उन्हें गहरा आघात लगा। वे वयोवृद्ध तो थे ही, सहसा व्यथित एवं अचेत होकर रथ के पिछले भाग में जा बैठे। आचार्य द्रोण को व्यथा से पीड़ित देख स्वयं राजा दुर्योधन और अश्वत्थामा दोनों अत्यन्त कुपित हो भीमसेन पर टूट पड़े। प्रलयकालीन यमराज के समान भयंकर उन दोनों महारथियों को आक्रमण करते देख महाबाहु भीमसेन ने तुरंत ही गदा हाथ में ले ली और वे रथ से कूदकर पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
उन्होंने हाथ में जो भारी गदा उठायी थी, वह रणभूमि में यमदण्ड के समान भयानक जान पड़ती थी। श्रृंगधारी कैलास पर्वत के समान ऊपर गदा उठाये हुए भीमसेन को देखकर दुर्योधन और अश्वत्थामा ने एक साथ उन पर धावा किया। बलवानों में श्रेष्ठ उन दोनों वीरों को एक साथ शीघ्रतापूर्वक आते देख भीमसेन भी उतावले होकर बड़े वेग से उनकी ओर बढ़े। क्रोध में भरकर भयंकर दिखायी देने वाले भीमसेन को देखकर कौरव महारथी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर दौड़े। द्रोणाचार्य आदि सभी योद्धा भीमसेन के वध की इच्छा से उनकी छाती पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगे। वे सब एक साथ होकर चारों ओर से पाण्डुकुमार भीमसेन को पीड़ा देने लगे।
महारथी भीमसेन को पीड़ित और उनके प्राणों को संकट में पड़ा देख अभिमन्यु आदि पाण्डव महारथी अपने दुरस्त्यज प्राणों का मोह छोड़कर उनकी रक्षा के लिए दौड़े चले आये। अनूप देश का राजा नील भीमसेन का प्रिय सखा था। उसकी अंगकान्ति श्याम मेघ के समान सुन्दर थी। उसने अत्यन्त कुपित होकर अश्वत्थामा पर आक्रमण कर दिया। वह महाधनुर्धर वीर प्रतिदिन द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के साथ स्पर्धा रखता था। महाराज! उसने अपने विशाल धनुष को खींचकर एक पंखयुक्त बाण से अश्वत्थामा को उसी प्रकार घायल कर दिया, जैसे इन्द्र ने पूर्वकाल में देवताओं के लिए भयंकर प्रिचित्ति नामक दुर्धर्ष दानव को घायल किया था, उस दानव ने अपने क्रोध एवं तेज से तीनों लोकों को भयभीत कर रखा था। नील के छोड़े हुए उस पंखयुक्त बाण से विदीर्ण होकर अश्वत्थामा के शरीर से रक्त का प्रवाह बह चला। इससे अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ। तदनन्तर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा ने इन्द्र के वज्र की भाँति भयंकर टंकार करने वाले अपने विचित्र धनुष को खींचकर नील को मार डालने का विचार किया।
तत्पश्चात् उसने लोहार के माँजे हुए सात चमकीले भल्लों को धनुष पर रखकर चलाया। उनमें से चार के द्वारा उसने नील के चारों घोड़ों को और पाँचवें से सारथियों को मार डाला। छठे से ध्वज को काट गिराया और सातवें भल्ल से नील की छाती में प्रहार किया। उस बाण से अधिक घायल हो जाने के कारण वह व्यथित हो रथ के पिछले भाग में बैठ गये। नील मेघसमूह के समान श्याम वर्ण वाले राजा नील को अचेत सा हुआ देख अपने भाई बन्धुओं से घिरा हुआ घटोत्कच अत्यन्त कुपित हो युद्ध में शोभा पाने वाले अश्वत्थामा की ओर बड़े वेग से दौड़ा। उसके साथ ही दूसरे-दूसरे रणदुर्मद राक्षसों ने भी उस पर धावा किया। देखने में अत्यन्त भयंकर राक्षस घटोत्कच को धावा करते देख तेजस्वी अश्वत्थामा ने बड़ी उतावली के साथ उस पर आक्रमण किया। उसने कुपित हो उन भयंकर राक्षसों को मारना आरम्भ किया, जो घटोत्कच के आगे खड़े होकर क्रोधपूर्वक युद्ध कर रहे थे। अश्वत्थामा के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा घायल हो उन राक्षसों को भगाते देख विशालयकाय भीमसेनकुमार घटोत्कच कुपित हो उठा। तत्पश्चात् उस मायावी राक्षसराज ने समरांगण में अश्वत्थामा को मोहित करते हुए अत्यन्त दारुण घोर माया प्रकट की।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद)
तब उस माया से डरकर आपके सभी सैनिक युद्ध से विमुख हो गये। उन्होंने एक दूसरे को तथा द्रोण, दुर्योधन, शल्य और अश्वत्थामा को भी इस प्रकार देखा- सब के सब छिन्न-भिन्न हो पृथ्वी पर गिरकर छटपटा रहे हैं और खून से लथपथ होकर दयनीय दशा को पहुँच गये हैं। कौरवों में जो महान धनुर्धर एवं प्रधान वीर है, प्रायः वे सभी रथी विध्वंस को प्राप्त हो गये हैं। सब राजा मार गिराये गये है तथा हजारों घोड़े और घुड़सवार टुकडे़-टुकडे़ होकर पड़े हैं। यह सब देखकर आपकी सेना शिविर की और भाग चली।
राजन! उस समय मैं और देवव्रत भीष्म भी पुकार-पुकार कर कह रहे थे- वीरों! युद्ध करो। भागों मत। रणभूमि में तुम जो कुछ देख रहे हो, वह घटोत्कच द्वारा छोड़ी हुई राक्षसी माया हैं। परंतु वे अचेत होने के कारण ठहर न सके। वे इतने डर गये थे कि हम दोनों की बातों पर विश्वास नहीं करते थे। उन्हें भागते देख विजयी पाण्डव घटोत्कच के साथ सिंहनाद करने लगे। चारों ओर शत्रु और दुन्दुभि आदि बाजे जोर-जोर से बजने लगे। इस प्रकार सूर्यास्त के समय दुरात्मा घटोत्कच से खदेड़ी गयी आपकी सारी सेना सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में आठवें दिन के युद्ध में घटोत्कच का युद्धविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के अनुरोध और भीष्म जी की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पाण्डव सेना के साथ घोर युद्ध”
संजय कहते हैं ;- महाराज! घटोत्कच की माया से डरकर कौरव सेना के पलायन हो जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाला राजा दुर्योधन अपनी पराजय को नहीं सह सका। उसने गंगानन्दन भीष्म के पास जाकर उन्हें विनीत भाव से प्रणाम करने के पश्चात सारा वृत्तान्त यथावत रूप से कह सुनाया। उस दुर्धर्ष वीर ने बार बार लम्बी साँस खींचकर घटोत्कच की विजय और अपनी पराजय की कथा सुनायी। राजन! फिर उसने कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- 'प्रभो! जैसे मेरे शत्रु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का आश्रय लेकर युद्ध करते है, उसी प्रकार मैंने केवल आपका सहारा लेकर पाण्डवों के साथ भयंकर युद्ध छेड़ा है। परंतप! मेरे साथ ही मेरी ये प्रसिद्ध ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आपकी आज्ञा के अधीन है। भरतश्रेष्ठ! ऐसा शक्तिशाली होने पर भी मुझे भीमसेन आदि पाण्डवों ने घटोत्कच का सहारा लेकर युद्ध में परास्त कर दिया है। महाभाग! जैसे आग सूखे पेड़ को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह अपमान मेरे अंग-अंग को दग्ध कर रहा है। शत्रुओं को संताप देने वाले पितामह! मैं आपकी कृपा से स्वयं ही उस नीच एवं दुर्धर्ष राक्षस को मारना चाहता हूँ। आपका सहारा लेकर उस पर विजयी होना चाहता हूँ। अतः आप मेरे इस मनोरथ को पूर्ण करें।
भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन का यह वचन सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने उससे इस प्रकार कहा,
भीष्म जी ने कहा ;- राजन! कुरुनन्दन! मैं तुमसे जो कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! तुम्हें जिस प्रकार बर्ताव करना चाहिये, वह सुनो। तात्! शत्रुदमन! तुम युद्ध में सदा अपनी रक्षा करो। अनघ! तुम्हें सदा धर्मराज युधिष्ठिर से ही संग्राम करना चाहिये। अर्जुन, नकुल, सहदेव अथवा भीमसेन के साथ भी तुम युद्ध कर सकते हो। राजधर्म को सामने रखकर यह बात कही गयी है। राजा राजा से ही युद्ध करता है। राजन्! तुम्हें दुरात्मा घटोत्कच के साथ कदापि युद्ध नहीं करना चाहिये। मैं, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, सात्वतवंशी, कृतवर्मा, शल्य, भूरिश्रवा, महारथी विकर्ण तथा दुःशासन आदि तुम्हारे अच्छे भ्राता- ये सब लोग तुम्हारे लिये उस महाबली राक्षस से युद्ध करेंगे।
यदि उस भयंकर राक्षसराज घटोत्कच पर तुम्हारा अधिक रोष है तो उस दुष्ट के साथ युद्ध करने के लिए राजा भगदत्त जाये, क्योंकि युद्ध में ये इन्द्र के समान पराक्रमी है।' इतना कहकर बोलने में कुशल भीष्म ने राजाधिराज दुर्योधन के सामने ही राजा भगदत्त से यह बात कही- 'महाराज! तुम रणदुर्मद घटोत्कच का सामना करने के लिये शीघ्र जाओ और समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते प्रयत्नपूर्वक उसे रणक्षेत्र में आगे बढ़ने से रोको। पूर्वकाल में इन्द्र ने जैसे तारकासुर की प्रगति रोक दी थी, उसी प्रकार तुम भी उस क्रूरकर्मी राक्षस को रोक दो। परंतप! तुम्हारे पास दिव्य अस्त्र है। तुममें पराक्रम भी महान है और पूर्वकाल में बहुत से देवताओं के साथ तुम्हारा युद्ध भी हो चुका है। नृपश्रेष्ठ! इस महायुद्ध में घटोत्कच का सामना करने वाले योद्धा केवल तुम्हीं हो। राजन्! तुम अपने ही बल से उत्कर्ष को प्राप्त होकर राक्षस शिरोमणि घटोत्कच को मार डालो।'
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)
सेनापति भीष्म का यह वचन सुनकर राजा भगदत्त सिंहनाद करते हुए तुरंत ही शत्रुओं का सामना करने के लिये चल दिए। भारत! गर्जते हुए मेघ के समान राजा भगदत्त युद्ध के लिये प्रस्तान होते हैं और उन्हें धावा करते देख भीमसेन, अभिमन्यु, राक्षस घटोत्कच, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, सत्यधृति, क्षत्रदेव, चेदिराज धृष्टकेतु, वसुदान और दशार्णराज- ये सभी पाण्डवपक्षीय महारथी क्रोध में भरकर उनका सामना करने के लिये आये। भगदत्त ने भी सुप्रतीक नामक हाथी पर आरूढ़ होकर उन पर धावा किया। फिर तो पाण्डवों का भगदत्त के साथ घोर एवं भयानक युद्ध होने लगा, जो यमराज के राष्ट्र की वृद्धि करने वाला था। महाराज! रथियों द्वारा प्रयुक्त हुए भयंकर वेगशाली तेज बाण हाथियों और रथों पर गिरने लगे। जिनके मस्तक से मद की धारा बहती थी, ऐसे बड़े-बड़े गजराज गजारोहियों द्वारा प्रेरित हो एक दूसरे के पास पहुँचकर निर्भीक होकर परस्पर भिड़ जाते थे। उस महायुद्ध में रोषपूर्ण मदान्ध हाथी अपने दाँतों के अग्रभाग से अथवा दाँतरूपी मूसलों से परस्पर भिड़कर एक दूसरे को विदीर्ण करने लगे।
चामरभूषित अश्व प्रासधारी सवारों से संचालित हो तुरंत ही एक दूसरे पर टूट पड़ते थे। उस समय पैदल सिपाही पैदलों द्वारा ही शक्ति और तोमरों से घायल हो सैकड़ों और हजारों की संख्या में धराशायी हो रहे थे। राजन! रथी लोग रथों पर आरूढ़ हो कर्णी, नालीक और सायकों द्वारा समर में वीरों का वध करके सिंहनाद कर रहे थे। जब इस प्रकार रोंगटे खड़े कर देने वाला भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय महाधनुर्धर भगदत्त ने भीमसेन पर धावा किया। वे जिस हाथी पर आरूढ़ थे, उसके कुम्भस्थल से मद की सात धाराएँ गिर रही थी। वह सब ओर से जल के झरने बहाने वाले पर्वत के समान जान पड़ता था। निष्पाप नरेश! भगदत्त सुप्रतीक की पीठ पर बैठकर सहस्रों बाणों की वर्षा करने लगे, मानो देवराज इन्द्र ऐरावत पर आरूढ़ हो जल की धारा गिरा रहे हो। जैसे वर्षा ऋतु में बादल पर्वत के शिखर पर जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार राजा भगदत्त भीमसेन पर बाणों की वर्षा करते हुए उन्हें पीड़ित करने लगे।
तब महाधनुर्धर भीमसेन ने अत्यन्त कुपित हो अपने बाणों की बौछार से हाथी के पैरों की रक्षा करने वाले सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराया। उन सबको मारा गया देख प्रतापी भगदत्त ने कुपित हो उस गजराज को भीमसेन के रथ की ओर बढ़ाया। उनके द्वारा प्रेरित होकर वह गजराज धनुष की प्रत्यन्चा से छोड़े हुए बाण की भाँति शत्रुदमन भीमसेन की ओर बड़े वेग से दौड़ा। उस हाथी को आते देख भीमसेन आदि पाण्डव महारथी शीघ्रतापूर्वक उसके चारों और खड़े हो गये। आर्य! केकयराजकुमार, अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, शूरवीर दशार्णराज, क्षत्रदेव, चेदिराज धृष्टकेतु तथा चित्रकेतु- ये सभी महाबली वीर रोषावेष में भरकर अपने उत्तम दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन करते हुए उस एकमात्र हाथी को क्रोधपूर्वक चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। अनेक बाणों से घायल हुआ वह महान गज रक्तरंजित होकर गेरू आदि धातुओं से विचित्र दिखायी देने वाले गिरिराज के समान सुशोभित हुआ। तदनन्तर दशार्ण देश के राजा भी एक पर्वताकार हाथी पर आरूढ़ हो भगदत्त के हाथी की ओर बढ़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 44-64 का हिन्दी अनुवाद)
समरभूमि में अपनी ओर आते हुए उस हाथी को गजराज सुप्रतीक ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोके रहती है। महामना दशार्ण नरेश गजराज को रोका गया देख समस्त पाण्डव सैनिक भी साधु-साधु कहकर सुप्रतीक की प्रशंसा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश ने कुपित होकर दशार्णनरेश के हाथी को सामने से चौदह तोमर मारे। जैसे सर्प बाँबी में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार वे तोमर हाथी पर पड़े हुए सुवर्णभूषित श्रेष्ठ कवच को छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही उसके शरीर में घुस गये। भरतश्रेष्ठ! उन तोमरों से अत्यन्त घायल हो वह हाथी व्यथित हो उठा। उसका सारा मद उतर गया और वह बड़े वेग से पीछे की ओर लौट पड़ा। जैसे वायु अपनी शक्ति से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है, उसी प्रकार वह हाथी भयानक स्वर में चिंग्घाड़ता और अपनी ही सेना को रौंदता हुआ बड़े वेग से भाग चला।
उस हाथी के पराजित हो जाने पर भी पाण्डव महारथी उच्च स्वर से सिंहनाद करके युद्ध के लिये ही खड़े रहे। तत्पश्चात् पाण्डव सैनिक भीमसेन को आगे करके नाना प्रकार के बाणों तथा अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए भगदत्त पर टूट पड़े। राजन्! क्रोध में भरकर आक्रमण करने वाले, अमर्षशील उन पाण्डवों का वह घोर सिंहनाद सुनकर महाधनुर्धर भगदत्त ने अमर्षवश बिना किसी भय के अपने हाथी को उनकी ओर बढ़ाया। उस समय उनके अंकुशों और पैर के अँगूठों से प्रेरित हो वह गजराज युद्धस्थल में संवर्तक अग्नि की भाँति भयंकर हो उठा। उस हाथी ने अत्यन्त कुपित होकर रथ के समूहों, हाथियों, घुड़सवारों सहित घोड़ों तथा सैकड़ों-हजारों पैदल सिपाहियों को भी समरांगण में इधर-उधर दौड़ते हुए रौंद डाला। महाराज! उस हाथी के द्वारा आलोडित होकर पाण्डवों की वह विशाल सेना आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो गयी।
बुद्धिमान भगदत्त के द्वारा अपनी सेना में भगदड़ पड़ी हुई देख घटोत्कच ने अत्यन्त कुपित होकर भगदत्त पर धावा किया। राजन्! उस समय वह अत्यन्त भयानक रूप बनाकर रोष से प्रज्वलित सा हो उठा। उसकी आकृति विकट एवं निष्ठुर दिखायी देती थी तथा मुख और नेत्र उज्ज्वल एवं प्रकाशित हो रहे थे। उस महाबली निशाचर ने हाथी को मार डालने की इच्छा से एक निर्मल त्रिशूल हाथ में लिया, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाला था। फिर सहसा उसे चला दिया। वह त्रिशूल चारों ओर से आग की चिनगारियों के समूह से घिरा हुआ था। उसे सहसा अपने ऊपर आते देख प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश भगदत्त ने अत्यन्त भयंकर तीक्ष्ण और सुन्दर एक अर्धचन्द्राकार बाण चलाया। उन वेगवान नरेश ने उक्त बाण के द्वारा उस महान त्रिशूल को काट डाला। वह सुवर्णभूषित त्रिशूल दो टुकड़ों में कटकर ऊपर की ओर उछला। उस समय वह इन्द्र के हाथ से छूटकर आकाश में गिरते हुए महान वज्र के समान सुशोभित हुआ। त्रिशूल को दो टुकड़ों में कटकर गिरा हुआ देख राजा भगदत्त ने आग की लपटों से वेष्टित तथा सुवर्णमय दण्ड से विभूषित एक महाशक्ति हाथ में ली और उसे राक्षस पर चला दिया। फिर वे बोले- 'खड़ा रह, खड़ा रह'।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 65-86 का हिन्दी अनुवाद)
आकाश में प्रकाशित होने वाली अग्नि (वज्र) के समान उस महाशक्ति को गिरती हुई देख राक्षस घटोत्कच ने उछलकर तुरंत ही उसे पकड़ लिया और सिंह के समान गर्जना की। भारत! फिर उसने तुरंत ही राजा भगदत्त के देखते-देखते उस शक्ति को घुटने पर रखकर तोड़ डाला। यह एक अद्भुत सी बात हुई। महाबली राक्षस के द्वारा किये गये इस महान कर्म को देखकर आकाश में खड़े हुए देवता, गन्धर्व और मुनि बड़े विस्मित हुए। महाराज! उस समय भीमसेन आदि पाण्डवों ने वाह-वाह करते हुए अपने सिंहनाद से पृथ्वी को गुँजा दिया। हर्ष में भरे हुए उन महामना वीरों का महान सिंहनाद सुनकर महाधनुर्धर एवं प्रतापी राजा भगदत्त न सह सके। उन्होंने इन्द्र के वज्र की भाँति प्रकाशित होने वाले अपने विशाल धनुष को खींचकर पाण्डव महारथियों को वेगपूर्वक डाँट बतायी। तत्पश्चात् अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले निर्मल और तीखे नाराचों का प्रहार करते हुए एक के द्वारा भीमसेन को घायल किया और नौ बाणों से राक्षस घटोत्कच को बींध डाला। फिर तीन बाणों से अभिमन्यु को और पाँच से केकय राजकुमारों को घायल किया।
तत्पश्चात् धनुष को अच्छी तरह खींचकर छोडे़ हुए झुकी हुई गाँठ वाले बाण के द्वारा उन्होंने युद्ध में क्षत्रदेव की दाहिनी बाँह काट डाली। उसके कटने के साथ ही सहसा उनका बाण सहित उत्तम धनुष पृथ्वी पर गिर पड़ा। इसके बाद भगदत्त ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को पाँच बाणों से घायल कर दिया और क्रोधपूर्वक भीमसेन के घोड़ों को मार डाला। फिर तीन बाणों से उनके सिंह चिह्नित ध्वज को काट दिया और अन्य तीन पंखयुक्त बाण मारकर उनके सारथि को भी विदीर्ण कर डाला। भरतश्रेष्ठ! भगदत्त के द्वारा युद्ध में अधिक घायल होकर भीमसेन का सारथी विशोक व्यथित हो उठा और रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठ गया। इस प्रकार रथहीन होने पर रथियों में श्रेष्ठ महाबाहु भीमसेन हाथ में गदा लेकर उस उत्तम रथ से वेगपूर्वक कूद पड़े। भारत! श्रृंगयुक्त पर्वत के समान उन्हें गदा उठाये आते देख आपके सैनिकों के मन में घोर भय समा गया।
महाराज! इसी समय श्रीकृष्ण जिनके सारथी है, वे पाण्डुनन्दन अर्जुन सब ओर से शत्रुओं का संहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वे दोनों पुरुषसिंह महाबली पिता-पुत्र भीमसेन और घटोत्कच भगदत्त के साथ युद्ध कर रहे थे। भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन अपने महारथी भाइयों को युद्ध करते देख स्वयं भी बाणों की वर्षा करते हुए तुरंत ही युद्ध में प्रवृत्त हो गये। तब महारथी राजा दुर्योधन ने बड़ी उतावली के साथ रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई अपनी सेना को शीघ्र ही युद्ध के लिये प्रेरित किया। कौरवों की उस विशालवाहिनी को आती देख श्वेत घोड़ों वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन सहसा बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े। भारत! भगदत्त ने भी समरभूमि में उस हाथी के द्वारा पाण्डव सेना को कुचलते हुए युधिष्ठिर पर धावा किया। आर्य! उस समय हथियार उठाये हुए पांचालों, पाण्डवों तथा केकयों के साथ भगदत्त का बड़ा भारी युद्ध हुआ। भीमसेन ने भी समरभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को इरावान के वध का यथावत वृत्तान्त अच्छी तरह सुना दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में भगदत्त का युद्धविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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