सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छियासीवें अध्याय से नब्बेवें अध्याय तक (From the 86 chapter to the 90 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्‍म और युधिष्ठिर का युद्ध, धृष्टद्युम्न और सात्यकि के साथ विन्द और अनुविन्द का संग्राम, द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्त”

   संजय कहते हैं ;- राजन! रथहीन हुए अपने यशस्वी भाई चित्रसेन के पास जाकर आपके पुत्र विकर्ण ने उसे अपने रथ पर चढा़ लिया। जब इस प्रकार भयंकर और घमासान युद्ध होने लगा, उसी समय शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने तुरंत ही राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। यह देख सृंजयवीर रथ, हाथी और घोड़ों सहित कांप उठे। उन्होंने युधिष्ठिर को मौत के मुख में पड़ा हुआ ही समझा। कुरुनन्दन राजा युधिष्ठिर भी नकुल और सहदेव के साथ महाधनुर्धर पुरुषसिंह शान्तनुनन्दन भीष्‍म का सामना करने के लिये आगे बढे़। जैसे मेघ सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में हजारों बाणों की वर्षा करते हुए पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर ने भीष्‍म को आच्छादित कर दिया। आर्य! उनके द्वारा अच्छी तरह चलाये हुए सैंकड़ों और हजारों बाणों के समूह को गंगानन्दन भीष्‍म ने ग्रहण कर लिया। आर्य! इसी प्रकार भीष्‍म के चलाये हुए बाण समूह भी आकाश में पक्षियों के झुंड़ के समान दिखायी देने लगे।

     शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने युद्धस्थल में आधे निमेष में ही पृथक-पृथक बाणों का जाल-सा बिछाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को अदृश्‍य कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर ने कुरुवंशी महात्मा भीष्‍म पर विषधर सर्प के समान नाराच का प्रहार किया। राजन! परंतु महारथी भीष्‍म ने युधिष्ठिर के धनुष से छूटे हुए उस नाराच को अपने पास पहुँचने से पहले ही समरभू‍मि में एक क्षुरप्र द्वारा काट गिराया। इस प्रकार रणभूमि में काल के समान भयंकर उस नाराच को काटकर भीष्‍म ने कौरव राज युधिष्ठिर के सुवर्णाभूषणों से युक्त घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ में खडे़ हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्‍म पर शक्ति चलायी। कालपाश के समान तीखी एवं भयंकर उस शक्ति को सहसा अपनी ओर आती देख भीष्‍म ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा उसे रणभूमि में काट गिराया। तदनन्तर जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथ को त्याग कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही महामना नकुल के रथ पर आरूढ़ हो गये। उस समय रणक्षेत्र में नकुल और सहदेव को पाकर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्‍म ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें बाणों से आच्छादित कर दिया।

      संजय कहते हैं ;- महाराज! नकुल और सहदेव को भीष्‍म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित देख युधिष्ठिर अपने मन में भीष्‍म के वध की इच्छा लेकर गहन विचार करने लगे। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने वशवर्ती नरेशों तथा सुहृद्गणों को यह आदेश दिया कि सब लोग मिलकर शान्तनुनन्दन भीष्‍म को मार डालो। तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर समस्त राजाओं ने विशाल रथसमूह के द्वारा पितामह भीष्‍म को चारों ओर से घेर लिया। राजन! सब ओर से घिरे हुए आपके ताऊ देवव्रत सब महारथियों को धराशायी करते हुए अपने धनुष के द्वारा क्रीड़ा करने लगे। जैसे सिंह का बच्चा वन के भीतर मृगों के झुंड में घुसकर खेल कर रहा हो, उसी प्रकार कुन्तीकुमारों ने युद्ध में विचरते हुए कुरुवंशी भीष्‍म को वहाँ देखा। महाराज! वे रणभूमि में वीरों को डांटते और बाणों के द्वारा उन्हें त्रास देते थे। जैसे मृगों के समूह सिंह को देखकर डर जाते हैं, उसी प्रकार सब राजा भीष्‍म को देखकर भयभीत हो गये। जैसे वायु की सहायता से घास-फूस को जलाने की इच्छा वाली अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती हैं, उसी प्रकार भरतवंश के सिंह भीष्‍म के स्वरूप को रणक्षेत्र में क्षत्रियों ने अत्यन्त तेजस्वी देखा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

    भीष्म उस युद्धस्थल में रथियों के मस्तक काट-काटकर उसी प्रकार गिराने लगे, जैसे कोई कुशल मनुष्य ताड़ के वृक्षों से पके हुए फलों को गिरा रहा हो। महाराज! भूतल पर पटापट गिरते हुए मस्तकों का आकाश से पृ‍थ्वी पर पड़ने वाले पत्थरों के समान भयंकर शब्द हो रहा था। उस भयानक तुमुल युद्ध के होते समय सभी सेनाओं का आपस में भारी संघर्ष हो गया। उन सबका व्यूह भंग हो जाने पर भी सम्पूर्ण क्षत्रिय परस्पर एक-एक को ललकराते हुए युद्ध के लिये डटे ही रहे। शिखण्डी भरतवंश के पितामह भीष्म के पास पहुँचकर उनकी ओर बड़े वेग से दौड़ा और बोला,

    शिखण्डी बोला ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह'। किंतु भीष्म ने शिखण्डी के स्त्रीत्व का चिन्तन करके युद्ध में उसकी अवहेलना कर दी और सृंजयवंशी क्षत्रियों पर क्रोधपूर्वक आक्रमण किया। तब सृंजयगण उस महायुद्ध में हर्ष और उत्साह से भरे हुए भीष्म को देखकर शंखध्वनि के साथ नाना प्रकार से सिंहनाद करने लगे।

    प्रभो! जब सूर्य पश्चिम दिशा में ढलने लगे, उस समय युद्ध का रूप और भी भयंकर हो गया। रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गये। पाञ्चालराजकुमार धृष्टद्युम्न तथा महारथी सात्यकि ये दोनों शक्ति और तोमरों की वर्षा से कौरव सेना को अत्यन्त पीड़ा देने लगे। राजन! उन दोनों ने युद्ध में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा आपके सैनिकों का संहार करना आरम्भ किया। भरतश्रेष्ठ! उनके द्वारा समर में मारे, जाते हुए आपके सैनिक युद्ध-विषयक श्रेष्ठ बुद्धि का सहारा लेकर ही संग्राम छोड़कर भाग नहीं रहे थे। आपके योद्धा भी रणक्षेत्र में पूर्ण उत्साह के साथ शत्रुओं का संहार करते थे। राजन! महामना धृष्टद्युम्न समरांगण में जब आपके योद्धाओं का वध कर रहे थे, उस समय उन महामनस्वी वीरों का आर्तक्रन्दन बड़े जोर से सुनायी देता था।

     आपके सैनिकों का वह घोर आर्तनाद सुनकर अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द धृष्टद्युम्न का सामना करने के लिये उपस्थित हुए। उन दोनों महारथियों ने बड़ी उतावली के साथ धृष्टद्युम्न के घोड़ों को मारकर उन्हें भी अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया। तब महाबली धृष्टद्युम्न तुरंत ही अपने रथ से कूदकर महामना सात्यकि के रथ पर शीघ्रतापूर्वक चढ़ गये। तदनन्तर विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं को तपाने वाले और क्रोध में भरे हुए विन्द-अनुविन्द पर आक्रमण किया। आर्य! इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन भी सम्पूर्ण उद्योग से समरभूमि में विन्द और अनुविन्द की रक्षा के लिये उन्हें सब ओर से घेरकर खड़ा हो गया। क्षत्रियशिरोमणि अर्जुन भी अत्यन्त कुपित होकर क्षत्रियों के साथ संग्रामभूमि में उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों के साथ करते हैं।

     आपके पुत्र का प्रिय करने वाले द्रोणाचार्य भी युद्ध में कुपित होकर समस्त पाञ्चालों का विनाश करने लगे, मानो आग रूई के ढेर को जला रही हो। प्रजानाथ! आपके दुर्योधन आदि पुत्र रणक्षेत्र में भीष्म को घेरकर पाण्डवों के साथ युद्ध करने लगे। भारत! तदनन्तर जब सूर्यदेव पर संध्या की लाली छाने लगी, तब राजा दुर्योधन ने आपके सभी योद्धाओं से कहा- जल्दी करो। फिर तो वे सब योद्धा वेग से युद्ध करते हुए दुष्कर पराक्रम प्रकट करने लगे। उसी समय सूर्य अस्तांचल को चले गये और उनका प्रकाश लुप्त हो गया। इस प्रकार संध्या होते-होते क्षणभर में रक्त के प्रवाह से परिपूर्ण भयानक नदी बह चली और उसके तट पर गीदड़ों की भीड़ जमा हो गयी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 44-57 का हिन्दी अनुवाद)

     भैरव रव फैलाने वाली अमंगलमयी सियारिनों तथा भूतगणों से व्याप्त होकर वह युद्ध का मैदान अत्यन्त भयानक हो गया। चारों ओर राक्षस, पिशाच तथा अन्य मासाहारी जन्तु सैकड़ों और हजारों की संख्या में दिखायी देने लगे। तदनन्तर अर्जुन राजा दुर्योधन के पीछे चलने वाले सुशर्मा आदि को सेना में पराजित करके अपने शिबिर को चले गये तथा सेना से घिरे हुए कुरुकुलनन्दन राजा युधिष्ठिर भी दोनों भाई नकुल-सहदेव के साथ रात में अपने शिबिर में पधारे।

     राजेन्द्र! तब भीमसेन भी दुर्योधन आदि रथियों को युद्ध में जीतकर शिबिर को लौट गये। राजा दुर्योधन भी महायुद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्म को घेरकर तुरंत ही अपने शिबिर को लौट गया। द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, शल्य तथा यदुवंशी कृतवर्मा- ये सारी सेना को घेरकर अपने शिबिर की ओर चल दिये। राजन! इसी प्रकार सात्यकि और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न भी युद्ध में अपने योद्धाओं को घेरकर शिबिर की ओर प्रस्थित हुए। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! इस प्रकार रात के समय आपके योद्धा पाण्डवों के सा‍थ अपने-अपने शिबिर में लौट आये। महाराज! तत्पश्चात् पाण्डव तथा कौरव अपने शिबिर में जाकर आपस में एक-दूसरे की प्रशंसा करते हुए विश्राम करने लगे।

     तदनन्तर उभय पक्ष के शूरवीर ने सब ओर सैनिक गुल्मों को नियुक्त करके विधि‍पूर्वक अपने-अपने शिबिरों की रक्षा की व्यवस्था की। फिर अपने शरीर से बाणों को निकालकर भाँति-भाँति के जल से स्नान करके स्वस्तिवाचन कराने के अनन्तर बन्दीजनों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए वे सभी यशस्वी वीर गति और वाद्यों के शब्दों से क्रीड़ा-विनोद करने लगे। दो घड़ी तक वहाँ का सब कुछ स्वर्ग सदृश जान पड़ा। उस समय वहाँ महारथियों ने युद्ध की कोई बातचीत नहीं की। नरेश्वर! जिनमें हाथी और घोड़ों की अधि‍कता थी, उन दोनों पक्षों की सेनाओं में सब लोग परिश्रम से चूर-चूर हो रहे थे। रात के समय जब दोनों सेनाएं सो गयीं, उस समय वे देखने योग्य हो गयीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में सातवें दिन के युद्ध का विरामविषयक छियासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

सतासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“आठवें दिन व्यूहबद्ध कौरव-पाण्डनव-सेनाओं की रणयात्रा और उनका परस्पर घमासान युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन्! नरेश्वर! कौरव और पाण्डव निद्रा सुख का अनुभव करके वह रात बिताकर पुन: युद्ध के लिये निकले। महाराज! वे दोनों सेनाएं जब युद्ध के लिये शिबिर से बाहर निकलने लगी, उस समय संग्रामभूमि में महासागर की गर्जना के समान महान् घोष होने लगा। नरेश्वर! तत्पश्चात् राजा दुर्योधन, चित्रसेन, विविंशति, रथियों में श्रेष्ठ भीष्म तथा द्रोणाचार्य- ये सब संगठित एवं सावधान होकर पाण्डवों से युद्ध करने के लिये कवच बांधकर कौरवों के विशाल सैन्य की व्यूह-रचना करने लगे। प्रजानाथ! आपके ताऊ भीष्म ने समुद्र के समान विशाल एवं भयंकर महाव्यूह का निर्माण किया, जिसमें हाथी, घोडे़ आदि वाहन उत्ताल तरंगों के समान प्रतीत होते थे। शान्तनुनन्दन भीष्म सम्पूर्ण सेनाओं के आगे-आगे चले। उनके साथ मालवा, दक्षिण प्रान्त तथा अवन्ती देश के योद्धा थे। उनके पीछे पुलिन्द, पारद, क्षुद्रक तथा मालवदेशीय वीरों के साथ प्रतापी द्रोणाचार्य थे।

     प्रजानाथ! द्रोण के पीछे मागध, कलिंग और पिशाच सैनिकों के साथ प्रतापी राजा भगदत्त जा रहे थे, जो बड़े सावधान थे। प्राग्ज्योतिषपुर नरेश के पीछे कोसल देश के राजा बृहद्बल थे, जो मेकल, कुरुविन्द तथा त्रिपुरा के सैनिकों के साथ थे। बृहद्वल के बाद शूरवीर त्रिगर्त थे, जो प्रस्थला के अधिपति थे। उनके साथ बहुत-से काम्बोज और सहस्रों यवन योद्धा थें। भारत! त्रिगर्त के पीछे वेगशाली वीर अश्वत्थामा चल रहे थे, जो अपने सिंहनाद से समस्त धरातल को निनादित कर रहे थे। अश्वत्थामा के पीछे सम्पूर्ण सेना तथा भाइयों से घिरा हुआ राजा दुर्योधन चल रहा था। दुर्योधन के पीछे शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य चल रहे थे। इस प्रकार यह सागर के समान महाव्यूह युद्ध के लिये प्रस्थान कर रहा था। प्रभो! उस सेना में बहुत-सी पताकाएं और श्वेतच्छत्र शोभा पा रहे थे। विचित्र रंग के बहुमूल्य बाजूबन्द और धनुष सुशोभित होते थे।

     राजन्! आपके सैनिकों का वह महाव्यूह देखकर महारथी युधिष्ठिर ने तुरंत ही सेनापति धृष्टद्युम्न से कहा,

दुर्योधन ने कहा ;- ‘महाधनुर्धर द्रुपदकुमार! देखो, शत्रुसेना का व्यूह सागर के समान बनाया गया हैं। तुम भी उसके मुकाबिले में शीघ्र ही अपनी सेना का व्यूह बना लो’। महाराज! तदनन्तर क्रूर स्वभाव वाले धृष्टद्युम्न ने अत्यन्त दारुण श्रङ्गाटक (सिंघाडे़) के आकार वाला व्यूह बनाया, जो शत्रु के व्यूह का विनाश करने वाला था। उसके दोनों श्रृङगों के स्थान में भीमसेन और महारथी सात्यकि कई हजार रथियों, घुड़सवारों और पैदलों के साथ मौजूद थे। भीमसेन और सात्यकि के बीच में यानि उस व्यूह के अग्रभाग में नरश्रेष्ठ श्वेेतवाहन अर्जुन खडे़ हुए, जिनके सारथि साक्षात भगवान श्रीकृष्ण थे। मध्य भाग में राजा युधिष्ठिर तथा माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव थे। इनके बाद सेना सहित अनेक महाधनुर्धर नरेश खडे़ थे, जो व्यूहशास्त्र के पूर्ण विद्वान् थे। उन्होंने इस व्यूह को प्रत्येक अंग और उपांग से परिपूर्ण किया था। इस व्यूह के पिछले भाग में अभिमन्यु, महारथी विराट, हर्ष में भरे हुए द्रौपदी के पांचों पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच विद्यमान थे। भरतनन्दन! इस प्रकार अपनी सेना के इस महाव्यूह का निर्माण करके युद्ध की कामना और विजय की अभिलाषा रखने वाले शूरवीर पाण्डव समर भूमि में खडे़ थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 23-40 का हिन्दी अनुवाद)

       उस समय रणभेरियां बज रही थीं। उनके निर्मल शब्दों से मिली हुई शंख-ध्वनियों तथा गर्जन से, ताल ठोंकने और उच्च स्वर से पुकारने आदि के शब्दों से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठी थीं। तदनन्तर समस्त शूरवीर समरभूमि में पहुँचकर परस्पर एक-दूसरे को एकटक नेत्रों से देखने लगे। नरेन्द्र! पहले उन योद्धाओं ने एक-दूसरे के नाम ले-लेकर पुकार-पुकारकर युद्ध के लिये परस्पर आक्रमण किया। तत्पश्चात् आपके और पाण्डवों के सैनिक एक-दूसरे पर अस्त्रों द्वारा आघात-प्रत्याघात करने लगे। उस समय उनमें अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध होने लगा। भारत! उस समय युद्ध में तीखे नाराच नामक बाण इस प्रकार पड़ते थे, मानो मुख फैलाये हुए भयंकर नाग झुंड-के-झुंड गिर रहे हों। राजन्! तेल की धोयी चमचमाती हुई तीखी शक्तियां बादलों से गिरने वाली कान्तिमती बिजलियों के समान सब ओर गिर रहीं थीं। सुवर्णभूषित निर्मल लोहपत्र से जड़ी हुई सुन्दर गदाएं पर्वत-शिखरों के समान वहाँ गिरती दिखायी देती थीं।

     भारत! स्वच्छ आकाश के सदृश खङ्ग और सौ चन्द्राकार चिह्नों से विभूषित ॠषभचर्म की विचित्र ढालें दृष्टिगोचर हो रही थीं। राजन्! रणभूमि में गिरायी जाती हुई वे सब-की-सब तलवारें और ढालें बड़ी शोभा पा रहीं थीं। नरेश्वर! दोनों पक्षों की सेनाएं समरभू‍मि में एक-दूसरे से जूझ रही थीं। उस समय परस्पर युद्ध के लिये उद्यत हुई देवसेना और दैत्यसेना के समान उनकी शोभा हो रही थी। वे कौरव-पाण्डव सैनिक सब ओर समराङ्गण में एक-दूसरे पर धावा करने लगे। रथी अपने रथों को तुरंत ही उस महायुद्ध में दौड़कर ले आये। श्रेष्ठ नरेश रथ के जुओं से जुए भिड़ाकर युद्ध करने लगे। भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण दिशाओं मे परस्पर जूझते हुए दन्तार हाथियों के दांतों के आपस में टकराने से उनमें धूम सहित अग्नि प्रकट हो जाती थी। कितने ही हाथी सवार प्रासों से घायल होकर पर्वत-शिखर से गिरने वाले वृक्षों के समान सब ओर हाथियों की पीठों से गिरते दिखायी देते थे। बधनखों एवं प्रासों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर पैदल सैनिक एक दूसरे पर प्रहार करते हुए विचित्र रूपधारी दिखायी देते थे।

      इस प्रकार कौरव तथा पाण्डव सैनिक रणक्षेत्र में एक-दूसरे से भिड़कर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्रों द्वारा विपक्षियों को यमलोक पहुँचाने लगे। इतने ही में शान्तनुनन्दन भीष्म अपने रथ की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को गुंजाते और धनुष की टंकार से लोगों को मूर्च्छित करते हुए समरभूमि में पाण्डव सैनिकों पर चढ़ आये। उस समय धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव महारथी भी भयंकर नाद करते हुए युद्ध के लिये संनद्ध होकर उनका सामना करने को दौडे़। भरतनन्दन! फिर तो आपके और पाण्डवों के योद्धाओं में परस्पर घमासान युद्ध छिड़ गया। पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी एक-दूसरे से गुंथ गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में आठवें दिन के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला सतासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

अठ्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाsशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म का पराक्रम, भीमसेन के द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध तथा दुर्योधन और भीष्म की युद्धविषयक बातचीत”

     संजय कहते हैं ;- राजन्! जैसे तपते हुए सूर्य की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार जब भीष्म उस समर में कुपित हो सब ओर अपना प्रताप प्रकट करने लगे, उस समय पाण्डव सैनिक उनकी ओर देख न सके। तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा से समस्त सेनाएं गंगानन्दन भीष्म पर टूट पड़ीं, जो अपने तीखे बाणों से पाण्डव सेना का मर्दन कर रहे थे। युद्ध की स्पृहा रखने वाले भीष्म अपने बाणों के द्वारा सोमक, सृंजय और पाञ्चाल महाधनुर्धरों को रणभूमि में गिराने लगे। भीष्म के द्वारा घायल किये जाते हुए वे सोमक (सृंजय) और पाञ्चाल भी मृत्यु का भय छोड़कर तुरंत भीष्म पर ही टूट पड़े। राजन्! वीर शान्तनुनन्दन भीष्म उस युद्ध के मैदान में सहसा उन रथियों की भुजाओं और मस्तकों को काट-काटकर गिराने लगे। आपके ताऊ देवव्रत ने बहुत-से रथियों को रथहीन कर दिया। घोड़ों से घुड़सवारों के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे।

     महाराज! हमने देखा, भीष्म के अस्त्र से मूर्च्छित हो बहुत-से पर्वताकार गजराज रणभूमि में पड़े हैं और उनके पास कोई मनुष्य नहीं है। प्रजानाथ! उस समय वहाँ रथियों में श्रेष्ठ महाबली भीमसेन के सिवा पाण्डव पक्ष का कोई भी वीर भीष्म के सामने नहीं ठहर सका। वे ही युद्ध में भीष्म का सामना करते हुए उन पर अपने बाणों का प्रहार कर रहे थे। भीष्म और भीमसेन में युद्ध होते समय सम्पूर्ण सेनाओं में भयंकर कोलाहल मच गया और पाण्डव हर्ष में भरकर जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। जिस समय युद्ध में वह जनसंहार हो रहा था, उसी समय राजा दुर्योधन अपने भाइयों से घिरा हुआ वहाँ आ पहुँचा और भीष्म की रक्षा करने लगा। इसी समय रथियों में श्रेष्ठ भीमसेन ने भीष्म के सारथि को मार डाला। फिर तो उनके घोडे़ उस रथ को लेकर रणभूमि में चारों ओर दौड़ लगाने लगे।

     राजेन्द्र! भयंकर पराक्रमी भीमसेन युद्ध में सब ओर विचरने लगे। उस समय आपके पुत्र सुनाभ ने भीमसेन पर धावा किया और उन्हें सात तीखे बाणों से बींध डाला। भारत! तब भीमसेन ने भी अत्यन्त कुपित होकर झुकी हुई गांठ वाले क्षुरप्र नामक बाण से शीघ्र ही सुनाभ का सिर काट दिया। उस तीखे क्षुरप्र से मारा जाकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! आपके उस महारथी पुत्र के मारे जाने पर उसके सात रणवीर भाई, जो वहीं मौजूद थे, भीमसेन का यह अपराध सहन न कर सके। आदित्यकेतु, बह्वाशी, कुण्डधार, महोदर, अपराजित, पण्डितक और अत्यन्त दुर्जय वीर विशालाक्ष- ये सातों शत्रुमर्दन भाई विचित्र वेशभूषा से सुसज्जित हो विचित्र कवच और ध्वज धारण किये संग्रामभूमि में युद्ध की इच्छा से पाण्डुपुत्र भीमसेन पर टूट पड़े। जैसे वृत्रविनाशक इन्द्र ने नमुचि नामक दैत्य पर प्रहार किया था, उसी प्रकार महोदर ने समरभूमि में अपने वज्र सरीखे नौ बाणों से भीमसेन को घायल कर दिया। महाराज! आदित्यकेतु ने सत्तर, बह्वाशी ने पांच, कुण्डसधार ने नब्बे, विशालाक्ष ने पांच और अपराजित ने महा‍रथी महाबली भीमसेन को पराजित करने के लिये उन्हें बहुत-से बाणों द्वारा पीड़ित किया। पण्डितक ने उस युद्ध में तीन बाणों से भीमसेन को घायल कर दिया। तब भीम उस रणक्षेत्र में शत्रुओं द्वारा किये हुए प्रहार को सहन न कर सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद)

     उन शत्रुसूदन वीर ने बायें हाथ से धनुष को अच्छी तरह दबाकर झुकी हुई गांठ वाले बाण से समरभूमि में आपके पुत्र अपराजित का सुन्दर नासिका से युक्त मस्तक काट डाला। भीमसेन से पराजित हुए अपराजित मस्तक धरती पर जा गिरा। तत्पश्चात् भीमसेन ने एक दूसरे भल्ल के द्वारा सब लोगों के देखते-देखते महारथी कुण्डधार को यमराज के लोक में भेज दिया। भरतनन्दन! तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न भीम ने समर में पुन: एक बाण का संधान करके उसे पण्डितक की ओर चलाया। जैसे कालप्रेरित सर्प किसी मनुष्य को शीघ्र ही डंसकर लापता हो जाता है, उसी प्रकार वह बाण पण्डितक की हत्या करके धरती में समा गया। उसके बाद उदार हृदय वाले भीम ने अपने पूर्व क्लेशों का स्मरण करके तीन बाणों द्वारा विशालाक्ष के मस्तक को काटकर धरती पर गिरा दिया।

     राजन्! तत्पश्चात् उन्होंने महाधनुर्धर महोदर की छाती में एक नाराच से प्रहार किया। उससे मारा जाकर वह युद्ध में धरती पर गिर पड़ा। भारत! तदनन्तर भीम ने रणक्षेत्र में एक बाण से आदित्यकेतु की ध्वजा काटकर अत्यन्त तीखे भल्ल के द्वारा उसका मस्तक भी काट दिया। इसके बाद क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने झुकी हुई गांठ वाले बाण से मारकर बह्वाशी को यमलोक भेज दिया। संजय कहते हैं- प्रजानाथ! तब आपके दूसरे पुत्र भीमसेन के द्वारा सभा में की हुई उस प्रतिज्ञा को सत्य मानकर वहाँ से भाग खडे़ हुए। भाइयों के मरने से राजा दुर्योधन को बड़ा कष्ट हुआ। अत: उसने आपके समस्त सैनिकों को आज्ञा दी कि इस भीमसेन को युद्ध में मार डालो। प्रजानाथ! इस प्रकार ये आपके महाधनुर्धर पुत्र अपने भाइयों को मारा गया देख उन बातों की याद करने लगे, जिन्हें महाज्ञानी विदुर ने कहा था। वे सोचने लगे-दिव्यदर्शी विदुर ने हमारे कुशल एवं हित के लिये जो बात कही थी, वह आज सिर पर आ गयी।

    जनेश्वर! आपने अपने पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण लोभ और मोह के वशीभूत हो, विदुर ने पहले जो सत्य एवं हित की महत्त्वपूर्ण बात बतायी थीं, उस पर आपने ध्यान नहीं दिया। उनके कथानुसार ही बलवान् पाण्डुपुत्र महाबाहु भी आपके पुत्रों के वध का कारण बनते जा रहे हैं और उसी प्रकार वे कौरवों का सर्वनाश कर रहे हैं। उस समय राजा दुर्योधन युद्धभूमि में भीष्म के पास जाकर महान दु:ख से व्याप्त एवं अत्यन्त शोकमग्न होकर विलाप करने लगे। पितामह! भीमसेन ने युद्ध में मेरे शूरवीर बन्धुओं को मार डाला और दूसरे भी समस्त सैनिक विजय के लिये पूर्ण प्रयत्न करते हुए भी असफल हो उनके हाथ से मारे जा रहे हैं। आप मध्यस्थ बने रहने के कारण सदा हम लोगों की उपेक्षा करते हैं। मैं बड़े बुरे मार्ग पर चढ़ आया। मेरे इस दुर्भाग्य को देखिये। यह क्रूरतापूर्ण वचन सुनकर आपके ताऊ भीष्म अपने नेत्रों से आँसू बहाते हुए वहाँ दुर्योधन से इस प्रकार बोले।

    तात! मैंने, द्रोणाचार्य ने, विदुर ने तथा यशस्विनी गान्धारी देवी ने भी पहले ही यह सब बात कह दी थी, परंतु तुमने इस पर ध्यान नहीं दिया। शत्रुसूदन! मैंने पहले ही यह निश्चय प्रकट कर दिया था कि तुम्हे मुझे या द्रोणाचार्य को युद्ध में किसी प्रकार भी नहीं लगाना चाहिये (क्योंकि हम लोगों का कौरवों तथा पाण्डवों के प्रति समान स्नेह है)। मैं तुमसे यह सत्य कहता हूँ कि भीमसेन धृतराष्ट्र के पुत्रों में से जिस-जिस को युद्ध में (अपने सामने आया हुआ) देख लेंगे, उसे प्रतिदिन के संग्राम में अवश्य मार डालेंगे। अतः राजन्! तुम स्थिर होकर युद्ध के विषय में अपना दृढ़ निश्चय बना लो और स्वर्ग को ही अन्तिम आश्रय मानकर रणभूमि में पाण्डवों के साथ युद्ध करो। भारत! इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी पाण्डवों को जीत नहीं सकते। अतः युद्ध के लिये पहले अपनी बुद्धि को स्थिर कर लो। उसके बाद युद्ध करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में सुनाम आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों का वधविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

नवासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)    

“कौरव-पाण्डव-सेनाका घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार”

      धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! एकमात्र भीमसेन के द्वारा युद्ध में मेरे बहुत से पुत्रों को मारा गया देख भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य ने क्या किया? मेरे पुत्र प्रतिदिन नष्ट होते जा रहे हैं। सूत! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि हम लोग सर्वथा अत्यन्त दुर्भाग्य के मारे हुए हैं। दुर्भाग्य के अधीन होने के कारण ही मेरे पुत्र हारते जा रहे हैं, विजयी नहीं हो रहे हैं। जहाँ भीष्म, द्रोण, महामना कृपाचार्य, वीरवर भूरिश्रवा, भगदत्त, अश्वत्थामा तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अन्य शूरवीरों के बीच में रहकर भी मेरे पुत्र प्रतिदिन संग्राम में मारे जाते है, वहाँ दुर्भाग्य के सिवा और क्या कारण हो सकता है? मूर्ख दुर्योधन ने पहले मेरी कही हुई बातों पर ध्यान नहीं दिया। तात! मैंने, भीष्म ने, विदुर ने तथा गान्धारी ने भी सदा हित की इच्छा से दुर्बुद्धि दुर्योधन को बार-बार मना किया परंतु मोहवश पूर्वकाल में हमारी यह बातें उसके समझ में नहीं आयी। उसी का यह फल अब प्राप्त हुआ है, जिससे भीमसेन समरांगण में कुपित होकर मेरे मूर्ख पुत्रों को प्रतिदिन यमलोक भेज रहा है।

     संजय ने कहा ;- प्रभो! उस समय आपने जो विदुर जी के कहे हुए उत्तम एवं हितकारक वचन को नहीं सुना (सुनकर भी उस पर ध्यान नहीं दिया), उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा था कि आप अपने पुत्रों को जूआ खेलने से रोकिये। पाण्डवों से द्रोह न कीजिये। आपका हित चाहने वाले अन्यान्‍य सुहृदों ने भी आपसे वे ही बातें कही थीं; परंतु जैसे मरणासन्न पुरुष को हितकारक औषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार आप उन हितकर वचनों को सुनना भी नहीं चाहते थे। अतः श्रेष्ठ विदुर ने जैसा बताया था, वैसा ही परिणाम आपके सामने आया है। विदुर, द्रोण, भीष्म तथा अन्य हितैषियों के हितकर वचनों को न मानने के कारण इन कौरवों का विनाश हो रहा है। प्रजापालक नरेश! यह सब तो पहले से ही प्राप्त है। अब आप जिस प्रकार युद्ध हुआ, उसका यथावत् समाचार सुनिये।

     राजन्! उस दिन दोपहर होते-होते बड़ा भंयकर संग्राम होने लगा, जो सम्पूर्ण जगत के योद्धाओं का विनाश करने वाला था। वह सब मैं कह रहा हूँ सुनिये। तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर के आदेश से क्रोध में भरी हुई उनकी सारी सेनाएँ भीष्म पर ही टूट पडी। वे भीष्म को मार डालना चाहती थीं। महाराज! धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा महारथी सात्यकि इन सबने अपनी सेनाओं के साथ भीष्म पर ही आक्रमण कर दिया। राजा विराट और सम्पूर्ण सोमकों सहित द्रुपद ने संग्राम में महारथी भीष्म पर ही चढ़ाई की। नरेश्वर! केकय, धृष्टकेतु और कवचधारी कुन्तिभोज इन सबने अपनी सेनाओं के साथ भीष्म पर ही धावा किया। अर्जुन, द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी चेकितान ये दुर्योधन के भेजे हुए समस्त राजाओं पर चढ़ आये। शूरवीर अभिमन्यु, महारथी घटोत्कच तथा क्रोध में भरे हुए भीमसेन- इन सबने कौरवों पर धावा किया। राजन्! पाण्डवों ने तीन दलों में विभक्त होकर कौरवों का वध आरम्भ किया। इसी प्रकार कौरव भी रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने लगे। द्रोणाचार्य ने श्रेष्ठ रथी सोमकों और सृंजयों को यमलोक भेजने के लिए क्रोधपूर्वक उनके ऊपर धावा बोल दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 23-40 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! धनुर्धर द्रोणाचार्य के द्वारा समरभूमि में मारे जाते हुआ महामना सृंजयों का महान आर्तनाद सुनायी देने लगा द्रोणाचार्य के मारे हुए बहुत से क्षत्रिय रणभूमि में व्याधि ग्रस्त मुनष्यों की भाँति छटपटाते हुए दिखायी देते थे। भरतनन्दन! भूख से पीड़ित मनुष्यों की भाँति कूजते, क्रन्दन करते और गरजते हुए योद्धाओं का शब्द निरन्तर सुनायी देता था। इसी प्रकार महाबली भीमसेन क्रोध में भरे हुए दूसरे काल के समान कौरव सैनिकों का घोर संहार करने लगे। उस महायुद्ध में परस्पर मार-काट करने वाले सैनिकों की रक्तराशि को प्रवाहित करने वाली एक भयंकर नदी बह चली।

     महाराज! कौरवों और पाण्डवों का वह घोर महासंग्राम यमलोक की वृद्धि करने वाला था। तब युद्ध में विशेष वेगशाली भीमसेन ने कुपित हो हाथियों की सेना में प्रवेश कर उन्हें काल के गाल में भेजना आरम्भ किया। भारत! वहाँ भीम के नाराचों से पीड़ित हाथी गिरते, चिग्घाड़ते, बैठ जाते अथवा सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर लगाने लगते थे। आर्य! सूँड़ तथा दूसरे-दूसरे अंगों के कट जाने से हाथी भयभीत हो क्रोच्च पक्षी की भाँति चीत्कार करते और धराशायी हो जाते थे। नकुल और सहदेव ने घुड़सवारों की सेना पर आक्रमण किया। राजन्! उन घोड़ों ने सोने की कलँगी तथा सोने के ही अन्य आभूषण धारण किये थे। वे सब सैकड़ों और सहस्रों की संख्या में मरकर गिरते दिखायी देते थे। राजन्! वहाँ गिरते हुए घोड़ों की लाशों से सारी पृथ्वी पट गयी। किन्ही की जीभ निकल आयी थी, कोई लंबी साँस खींच रहे थे, कोई धीरे-धीरे अव्यक्त शब्द करते और कितनों के प्राण निकल गये थे।

     नरश्रेष्ठ! इस प्रकार विभिन्न रूपधारी घोड़ों से आच्छादित होने के कारण इस पृथ्वी की अद्भुत शोभा हो रही थी। भारत! प्रजानाथ! जहाँ-जहाँ अर्जुन के द्वारा युद्ध में मारे गये राजाओं से भरी हुई वह रणभूमि बड़ी भयानक जान पड़ती थी। राजन्! टूटे हुए रथ, कटे हुए ध्वज, छिन्न-भिन्न हुए बड़े-बडे़ आयुध, चवँर, व्यजन, अत्यन्त प्रकाशमान छत्र, सोने के हार, केयूर, कुण्डलमण्डित मस्तक, गिरे हुए शिरोभूषण (पगड़ी आदि), पताका, सुन्दर अनुकर्ष, जोत और बागडोर आदि से आच्छादित हुई वह संग्राम भूमि ऐसी जान पड़ती थी, मानो वसन्त ऋतु में उस पर भाँति-भाँति के फूल गिरे हुए हो। भारत! शान्तनुनन्दन भीष्म, रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा- इनके कुपित होने से पाण्डव सैनिकों का भी इस प्रकार यह संहार हुआ था। साथ ही पाण्डवों के कुपित होने से आपके योद्धाओं का भी ऐसा ही विकट विनाश हुआ था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध में आठवें दिन के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“इरावान के द्वारा शकुनि के भाइयों का तथा राक्षस अलम्‍बुष के द्वारा इरावान का वध”

      संजय कहते है ;- राजन्! जिस समय बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय सुबलपुत्र श्रीमान शकुनि ने पाण्डवों पर आक्रमण किया। नरेश्वर! इसी प्रकार शत्रुवीरों का विनाश करने वाले सात्वतवंशी कृतवर्मा ने उस संग्राम में पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। तत्पश्चात् काम्बोज देश के अच्छे घोडे़, दरियाई घोड़े, मही, सिन्धु, वनायु, आरट्ट तथा पर्वतीय प्रान्तों में होने वाले सुन्दर घोडे़- इन सबकी बहुत बड़ी सेना द्वारा सब ओर से घिरा हुआ शत्रुओं को संताप देने वाला पाण्डुनन्दन अर्जुन का बलवान पुत्र इरावान हर्ष में भरकर रणभूमि में कौरवों की उस सेना पर चढ़ आया। उसके साथ तित्तिर प्रदेश केशीघ्रगामी घोडे़ भी मौजदू थे, जो वायु के समान वेगशाली थे। वे सबके सब सोने के आभूषणों से विभूषित थे। उनके शरीरों में कवच बँधे हुए थे और उन्हें सुन्दर साज-बाज से सजाया गया था। वे सभी घोड़े अच्छी जाति के तथा वायु के तुल्य शीघ्रगामी थे। अर्जुन का पराक्रमी पुत्र श्रीमान इरावान नागराज कौरव्य की पु़त्री के गर्भ से बुद्धिमान अर्जुन द्वारा उत्पन्न किया गया था।

     नागराज की वह पुत्री संतानहीन थी। उसके मनोनीत पति को गरुड़ ने मार डाला था, जिससे वह अत्यन्तदीन एवं दयनीय हो रही थी। ऐरावतवंशी कौरव्य नाग ने उसे अर्जुन को अर्पित किया और अर्जुन ने काम के अधीन हुई उस नाग कन्या को भार्या रूप में ग्रहण किया था। इस प्रकार अर्जुन पुत्र उत्पन्न हुआ था। वह सदा मातृकुल में रहा। वह नागलोक में ही माता द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया और सब प्रकार से वहीं उसकी रक्षा की गयी थी। उस बालक के किसी दुरात्मा वयोवृद्ध सम्बन्धी ने अर्जुन के प्रति द्वेष होने के कारण इनके उस पुत्र को त्याग दिया था। इरावान भी रूपवान, बलवान, गुणवान और सत्य पराक्रमी था, बड़े होने पर जब उसने सुना कि मेरे पिता अर्जुन इस समय इन्द्रलोक में गये हुए है, तब वह शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचा।

     उस सत्यपराक्रमी महाबाहु वीर ने अपने पिता के पास पहुँचकर शान्तभाव से उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक हाथ जोड़ महामना अर्जुन के समक्ष अपना परिचय देते हुए बोला,

  इरावान बोला ;- प्रभो! आपका कल्याण हो। मैं आपका ही पुत्र इरावान हूँ। उसकी माता के साथ अर्जुन का जो समागम हुआ था, वह सब उसने निवेदन किया। पाण्डुनन्दन अर्जुन को वह वृत्तान्त यथार्थरूप से स्मरण हो आया। गुणों में अपने ही समान उस पुत्र को हृदय से लगाकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे देवराज इंद्र के भवन में ले गये। नरेश्वर! भरतनन्दन! उन दिनों देवलोक में अर्जुन ने प्रेमपूर्वक अपने महाबाहु पुत्र को अपना सब कार्य बताते हुए कहा- शक्तिशाली पुत्र! युद्ध के अवसर पर तुम हम लोगों को सहायता देना। तब बहुत अच्छा कहकर इरावान चला गया और अब युद्ध के अवसर पर यहाँ आया है। नरेश्वर! इरावान के साथ इच्छानुसार रूप-रंग और वेग वाले बहुत से घोड़े मौजूद थे। वे सब के सब सोने के शिरोभूषण धारण करने वाले तथा मन के समान वेगशाली थे। उनके रंग अनेक प्रकार के थे। राजन्! वे घोड़े महासागर में उड़ने वाले हंसों के समान सहसा उछले और आपके मन के समान वेगशाली अश्वों के समुदाय में पहुँचकर छाती से छाती तथा नासिका से एक दूसरे की नासिका पर चोट करने लगे। वे सहसा वेगपूर्वक टकराकर पृथ्वी पर गिरते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)

      वे अश्वों के समुदाय परस्पर टकराकर जब गिरते थे, उस समय गरुड़ के वेगपूर्वक उतरने के समान भयंकर शब्द सुनायी देता था। राजन्! इसी प्रकार आपके और पाण्डवों के घुड़सवार युद्ध में एक दूसरे से भिड़कर आपस में भयंकर मार-काट करते थे। इस प्रकार अत्यन्त भयानक घमासान युद्ध छिड़ जाने पर दोनों पक्षों के अश्वसमूह चारों और नष्ट हो गये। शूरवीर योद्धाओं के पास बाण समाप्त हो गये। उनके घोडे़ मारे गये थे। वे परिश्रम से पीड़ित हो परस्पर घात प्रतिघात करते हुए विनष्ट हो गये। भारत! इस प्रकार जब घुड़सवारों की सेना नष्ट हो गयी और उसका अल्पभाग ही अवशिष्ट रह गया; उस अवस्था में शकुनि के शूरवीर भाई युद्ध के मुहाने पर निकले। जिनका स्‍पर्श वायु वेग के समान दुःसह था, जो वेग में वायु की समानता करते थे, ऐसे बल सम्पन्न नयी अवस्था वाले उत्तम घोड़ों पर सवार हो गज, गवाक्ष, वृषभ, चर्मवान, आर्जव और शुक ये छः बलवान वीर अपनी विशाल सेना से बाहर निकले। यद्यपि शकुनि ने उन्हें मना किया अन्याय महाबली योद्धाओं ने भी उन्हें रोका, तथापि वे युद्धकुशल, महाबली रौद्र रूपधारी क्षत्रिय कवच आदि से सुसज्जित हो युद्ध के लिये निकल पड़े।

     महाबाहो! उस समय उन युद्धदुर्मद गान्धारदेशीय वीरों ने विजय अथवा स्वर्ग की अभिलाषा लेकर विशाल सेना के साथ पाण्डव-वाहिनी के परम दुर्जयव्यूह का भेदन करके हर्ष और उत्साह से परिपूर्ण हो उसके भीतर प्रवेश किया। तब उन्हें सेना के भीतर प्रविष्ट हुआ देख पराक्रमी इरावान ने भी समरभूमि में भयंकर अस्त्र-शस्त्र वाले अपने विचित्र योद्धाओं से कहा- 'वीरों! तुम सब लोग संग्राम में ऐसी नीति बना लो, जिससे दुर्योधन के ये समस्त योद्धा अपने सेवकों और सवारियों सहित मार डाले जाये। तब बहुत अच्छा ऐसा कहकर इरावान के समस्त सैनिकों ने उन छहों वीरों के सैन्य समूह को, जो समरांगण में दूसरों के लिये दुर्जय था, मार डाला। अपनी सेना को समरभूमि में शत्रु की सेना द्वारा मार गिरायी गई देख सुबल के सभी पुत्र इसे सह न सके। उन्होंने इरावान पर धावा करके उसे सब ओर से घेर लिया। वे छहों शूर तीखे प्रासों से मारते और एक दूसरे को बढ़ावा देते हुए इरावान पर टूट पड़े तथा उसे अत्यन्त व्याकुल करने लगे। उन महामनस्वी वीरों के तीखे प्रासो से क्षत-विक्षत होकर इरावान बहते हुए रक्त से नहा उठा। अंगों से घायल हुए हाथी के समान व्याकुल हो गया।

       राजन्! वह अकेला था और उस पर प्रहार करने वालों की संख्या बहुत थी। वह आगे-पीछे और अगल-बगल में अत्यन्त घायल हो गया था; तो भी धैर्य के कारण व्यथित नहीं हुआ। अब इरावान को भी बड़ा क्रोध हुआ। शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले उस वीर ने समर में तीखे बाणों द्वारा बींधकर उन सबको मूर्च्छित कर दिया। शत्रुओं का दमन करने वाले इरावान अपने शरीर से वेगपूर्वक प्रासों को निकालकर उन्हीं के द्वारा रणभूमि में सुबल पुत्रों पर प्रहार किया। तत्पश्चात् तीखी तलवार और ढाल निकालकर इरावान ने युद्ध में सुबल पुत्रों को मार डालने की इच्छा से तुरंत उनके ऊपर पैदल ही धावा किया। तदनन्तर सुबलपुत्रों में प्राण शक्ति पुनः लौट आयी। अतः वे सब के सब सचेत होने पर पुनः क्रोध में भर गये और इरावान पर दौड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)

    इरावान भी बल के अभिमान में उन्‍मत्‍त हो अपने हाथों की फुर्ती दिखाता हुआ खड़ग के द्वारा उन समस्त सुबल पुत्रों का सामना करने लगा। वह अकेला बड़ी फुर्ती से पैतरे बदल रहा था और वे सभी सुबल पुत्र शीघ्रगामी घोड़ाद्वारा विचर रहे थे, तो भी वे अपने में उसकी अपेक्षा कोई विशेषता न ला सके। तदनन्तर इरावान को भूमि पर स्थित देख वे सभी सुबल पुत्र युद्ध में उसे पुनः भलीभाँति घेरकर बन्दी बनाने की तैयारी करने लगे। तब शत्रुसूदन इरावान ने निकट आने पर कभी दाहिने और कभी बायें हाथ से तलवार घुमाकर उसके द्वारा शत्रुओं के अंगों को छिन्न-भिन्न कर दिया। उन सबके आयुधों और भूषणभूषित भुजाओं को भी उसने काट डाला। इस प्रकार अंग-अंग कट जाने से वे प्राणशून्य हो मरकर धरती पर गिर पड़े। महाराज! वृषभ बहुत घायल हो गया था तो भी वीरों का उच्छेद करने वाले उस महाभयंकर संग्राम से उसने अपने आपको किसी प्रकार मुक्त कर लिया। उन सबको मार गिराया देख दुर्योधन भयभीत हो उठा और वह अत्यन्त क्रोध में भरकर दीखने वाले राक्षस ऋष्यश्रुंग पुत्र (अलम्बुष) के पास दौड़ा गया। वह राक्षस शत्रुओं का दमन करने में समर्थ, मायावी और महान धनुर्धर था। पूर्वकाल में किये गये वकासुर वध के कारण वह भीमसेन का वैरी बन बैठा था।

   उसके पास जाकर दुर्योधन ने कहा ;- 'वीर! देखो, अर्जुन का यह बलवान पुत्र बड़ा मायावी है। इसने मेरा अप्रिय करने के लिए मेरी सेना का संहार कर डाला है। तात! तुम इच्छानुसार चलने वाले तथा मायामय अस्त्रों के प्रयोग में कुशल हो। कुन्तीकुमार भीम ने तुम्हारे साथ वैर भी किया है। अतः तुम युद्ध में इस इरावान को अवश्य मार डालों। ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर वह भयानक दिखायी देने वाला राक्षस सिंहनाद करके जहाँ नवयुवक अर्जुनकुमार इरावान था, उस स्थान पर गया। उसके साथ निर्मल प्राप्त नामक अस्त्र से युद्ध करने वाले संग्राम कुशल तथा प्रहार करने में समर्थ वीरों से युक्त बहुत सी सेनाएँ थीं। उसके सभी सैनिक सवारियों पर बैठ हुए थे। उन सबसे घिरा हुआ वह समरभूमि में महाबली इरावान को मार डालने की इच्छा से युद्ध स्थल में गया। महाराज! मरने से बचे हुए दो हजार उत्तम घोड़े उसके साथ थे। शत्रुओं का नाश करने वाला पराक्रमी इरावान भी क्रोध में भरा हुआ था। उसने उसे मारने की इच्छा रखने वाले उस राक्षस का बड़ी उतावली के साथ निवारण किया। इरावान् को आते देख उस महाबली राक्षस ने शीघ्रतापूर्वक माया का प्रयोग आरम्भ किया। उसने मायामय दो हजार घोडे़ उत्पन्न किये, जिन पर शूल और पट्टिश धारण करने वाले भयंकर राक्षस सवार थे। वे दो हजार प्रहार कुशल योद्धा क्रोध में भरे हुए आकर इरावान के सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार दोनों ओर के योद्धाओं ने परस्पर प्रहार करके शीघ्र ही एक दूसरे को यमलोक पहुँचा दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 59-79 का हिन्दी अनुवाद)

    इस प्रकार जब दोनों ओर की सेनाएँ मार डाली गयी, तब युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले वे दोनों वीर इरावान तथा अलम्बुष राक्षस ही युद्धभूमि में वृत्रासुर और इन्द्र के समान डटे रहे। रणदुर्मद राक्षस अलम्बुष को अपने ऊपर धावा करते देख महाबली इरावान भी क्रोध में भरकर उसके ऊपर टूट पड़ा। एक बार जब वह दुर्बुद्धि राक्षस बहुत निकट आ गया, तब इरावान ने अपने खंग से उसके देदीप्यमान धनुष और माथे को शीघ्र ही काट डाला। धनुष को कटा हुआ देख वह राक्षस क्रोध में भरे हुए इरावान को अपनी माया से मोहित-सा करता हुआ बड़े वेग से आकाश में उड़ गया। तब इरावान् भी आकाश में उछलकर उस राक्षस को अपनी मायाओं से मोहित करके उसके अंगों को सायकों द्वारा छिन्न-भिन्न करने लगा। वह कामरूपधारी श्रेष्ठ राक्षस सम्पूर्ण मर्मस्थानों को जानने वाला और दुर्जय था। वह बाणों से कटने पर भी पुनः ठीक हो जाता था।

     महाराज! वह नयी जवानी प्राप्त कर लेता था; क्योंकि राक्षसों में माया का बल स्वाभाविक होता है और वे इच्छानुसार रूप तथा अवस्था धारण कर लेते हैं। इस प्रकार उस राक्षस का जो जो अंग कटता, वह पुनः नये सिरे से उत्पन्न हो जाता था। इरावान भी अत्यन्त कुपित होकर उस महाबली राक्षस को बार बार तीखे फरसे से काटने लगा। बलवान इरावान् के फरसे से छिन्न-भिन्न हुआ वह वीर राक्षस घोर आर्तनाद करने लगा। उसका वह शब्द बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। फरसे से बार बार छिदने के कारण राक्षस के शरीर से बहुत सा रक्त बह गया। इससे राक्षस ऋृष्यश्रृंग के बलवान पुत्र अलम्बुष ने समरभूमि में अत्यन्त क्रोध और वेग प्रकट किया। उसने युद्धस्थल में अपने शत्रु को प्रबल हुआ देख अत्यन्त भयंकर एवं विशाल रूप धारण करके अर्जुन के वीर एवं यशस्वी पुत्र इरावान को कैद करने का प्रयत्न आरम्भ किया। युद्ध के मुहाने पर समस्त योद्धाओं के देखते-देखते वह इरावान को पकड़ना चाहता था। उस दुरात्मा राक्षस की वैसी माया देखकर क्रोध में भरे हुए इरावान ने भी माया का प्रयोग आरम्भ किया। संग्राम में पीठ न दिखाने वाला इरावान जब क्रोध में भरकर युद्ध कर रहा था, उसी समय उसके मातृकुल के नागों का समुदाय उसकी सहायता के लिये वहाँ आ पहुँचा।

     राजन्! रणभूमि में बहुतेरे नागों से घिरे हुए इरावान ने विशाल शरीर वाले शेषनाग की भाँति बहुत बड़ा रूप धारण कर लिया। तदनन्तर उसने बहुत से नागों द्वारा राक्षस को आच्छादित कर दिया। नागों द्वारा आच्छादित होने पर उस राक्षस राज ने कुछ सोच-विचार कर गरुड़ का रूप धारण कर लिया और समस्त नागों को भक्षण करना आरम्भ किया। जब उस राक्षस ने इरावान् के मातृकुल के सब नागों को भक्षण कर लिया, तब मोहित हुए इरावान् को तलवार से मार डाला। इरावान् के कमल और चन्द्रमा के समान कान्तिमान तथा कुण्डल एवं मुकुट से मण्डित मस्तक को काट कर राक्षस ने धरती पर गिरा दिया। इस प्रकार राक्षस द्वारा अर्जुन के वीर पुत्र इरावान के मारे जाने पर राज दुर्योधन सहित आपके सभी पुत्र शोक रहित हो गये। फिर तो उस भयंकर एवं महान संग्राम में दोनों सेनाओं का अत्यन्त भयंकर सम्मिश्रण हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 80-93 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन्! आपके और पाण्डवों के सैनिकों के उस संकुल युद्ध में दोनों पक्षों के मिले हुए हाथी, घोडे़ और पैदल दन्तार हाथियों द्वारा मारे गये। रथ, घोडे़ और हाथियों को पैदल योद्धाओं ने मार गिराया तथा बहुत से पैदल, रथियों के समूह और घुड़सवार रथी योद्धाओं के द्वारा मार डाले गये। अर्जुन को अपने औरस पुत्र इरावान के मारे जाने का पता नहीं लगा था। वे समरांगण में भीष्म की रक्षा करने वाले शूरवीर नरेशों का संहार कर रहे थे। राजन्! इसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक तथा सहस्रों सृंजय वीर समराग्नि में प्राणों की आहुति देते हुए एक दूसरे को मार रहे थे। कवच, रथ और धनुष के नष्ट हो जाने पर बाल बिखेरे हुए बहुतेरे योद्धा परस्पर भिड़कर भुजाओं द्वारा मल्लयुद्ध करने लगे।

     दूसरी ओर शत्रुओं को संताप देने वाले भीष्म समरांगण में अपने मर्मभेदी बाणों द्वारा पाण्डव सेना को कम्पित करते हुए उसके बड़े-बड़े रथियों को मार रहे थे। उन्होंने युधिष्ठिर की सेना के बहुत से पैदलों, सवारों सहित हाथियों, रथारोहियों और घुड़सवारों को मार डाला। भारत! हमने उस युद्ध में भीष्म का इन्द्र के समान अत्यन्त अद्भूत पराक्रम देखा था।

     भरतनन्दन! इसी प्रकार उस रणक्षेत्र में भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा धनुर्धर सात्यकि का भयानक युद्ध चल रहा था। द्रोणाचार्य का पराक्रम देखकर तो पाण्डवों के मन में भय समा गया। महाराज! वे युद्धस्थल में द्रोणाचार्य से पीड़ित होकर कहने लगे कि रणभूमि में अकेले द्रोणाचार्य ही समस्त सैनिकों को मार डालने की शक्ति रखते हैं। फिर जब ये भूमण्डल के सुविख्यात शूरवीर योद्धाओं के समुदायों से घिरे हुए हैं, तब तो इनकी विजय के लिये कहना ही क्या है? भरतश्रेष्ठ! उस भयंकर संग्राम में दोनों सेनाओं के शूरवीर एक दूसरे का उत्कर्ष नहीं सह सके। तात! आपके और पाण्डव पक्ष के महाबली धनुर्धर वीर भूतों से आविष्ट से होकर राक्षसों के समान बनकर क्रोधपूर्वक एक-दूसरे से जूझ रहे थे। बडे़-बड़े वीरों का विनाश करने वाले उस दैत्यों के तुल्य संग्राम में हमने किसी को ऐसा नहीं देखा, जो अपने प्राणों की रक्षा कर रहा हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध में इरावान् का वध विषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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