सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“सातवें दिन के युद्ध में कौरव-पाण्डव-सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर आपके पुत्र को चिन्ता में निमग्न देख भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने उससे पुनः हर्ष बढ़ाने वाली बात कही,
भीष्म जी ने कहा ;- ‘राजन्! मैं, द्रोणाचार्य, शल्य, यदुवंशी कृतवर्मा, अश्वत्थामा, विकर्ण, भगदत्त, सुबलपुत्र शकुनि, अवन्ति देश के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, बाहिकदेशीय वीरों के साथ राजा बाह्लीक, बलवान् त्रिगर्तराज, अत्यन्त दुर्जय मगध-राज, कोसलनरेश बृहद्बल, चित्रसेन, विविंशति तथा विशाल ध्वजाओं वाले परम सुन्दर कई हजार रथ, घुड़सवारों से युक्त देशीय घोड़े, गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मदोन्मत्त गजराज और भाँति-भाँति के आयुध एवं ध्वज धारण करने वाले विभिन्न देशों के शूरवीर पैदल सैनिक तुम्हारे लिये युद्ध करने को उद्यत है। ये तथा और भी बहुत से ऐसे सैनिक हैं, जिन्होंने तुम्हारे लिये अपना जीवन निछावर कर दिया है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये सब मिलकर युद्धस्थल में देवताओं को भी जीतने में समर्थ हैं। राजन! मुझे सदा तुम्हारे हित की बात अवश्य कहनी चाहिये, इसीलिये कहता हूँ- पाण्डवों को इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी जीत नहीं सकते। राजेन्द्र! एक तो वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, दूसरे साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं, (अतः उन्हें जीतना असम्भव है तथापि) मैं सर्वथा तुम्हारे वचन का पालन करूँगा। पाण्डवों को मैं युद्ध में जीतूँगा अथवा पाण्डव ही मुझे परास्त कर देंगे।’
ऐसा कहकर भीष्म जी ने दुर्योधन को विशल्यकरणी नामक शुभ एवं शक्तिशालिनी औषधि प्रदान की। उस समय उसके प्रभाव से दुर्योधन के शरीर में धँसे हुए बाण आसानी से निकल गये और वह आघातजनित घाव तथा उसकी पीड़ा से मुक्त हो गया। तदनन्तर निर्मल प्रभात की बेला में व्यूनविशारद नरश्रेष्ठ बलवान् भीष्म ने अपनी सेना के द्वारा स्वयं ही मण्डल नामक व्यूह का निर्माण किया, जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। वह व्यूह हाथी और पैदल आदि मुख्य-मुख्य योद्धाओं से भरा हुआ था। कई सहस्र रथों ने उसे सब ओर से घेर रखा था। वह व्यूह ऋष्टि और तोमर धारण करने वाले अश्वारोहियों के महान् समुदायों से भरा था। एक-एक हाथी के पीछे सात-सात रथ, एक-एक रथ के साथ सात-सात घुड़सवार, प्रत्येक घुड़सवार के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर के साथ दस-दस ढाल-तलवार लिये रहने वाले वीर खड़े थे।
महाराज! इस प्रकार महारथियों के द्वारा व्यूहबद्ध होकर आपकी सेना महायुद्ध के लिये खड़ी थी और भीष्म युद्धस्थल में उसकी रक्षा करते थे। उसमें दस हजार घोड़े, उतने ही हाथी और दस हजार रथ तथा आपके चित्रसेन आदि शूरवीर पुत्र कवच धारण करके पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे। उन वीरों से भीष्म सुरक्षित थे और भीष्म से उन शूरवीरों की रक्षा हो रही थी। वहाँ बहुत से महाबली नरेश कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार दिखायी देते थे। शोभासम्पन्न राजा दुर्योधन भी युद्धस्थल में कवच बाँधकर रथ पर आरूढ़ हो ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपनी दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो रहे हों। भारत! तदनन्तर आपके पुत्रों का महान् सिंहनाद सुनायी देने लगा, साथ ही रथों और वाद्यों का गम्भीर घोष गूँज उठा। भीष्म ने युद्धस्थल में कौरव सैनिकों का पश्चिमाभिमुख व्यूह बनाया था। वह मण्डल नामक महाव्यूह दुर्भेद्य होने के साथ ही शत्रुओं का संहार करने वाला था। राजन्! उस रणभूमि में सब ओर उस व्यूह की बड़ी शोभा हो रही थी। वह शत्रुओं के लिये सर्वथा दुर्गम था। कौरवों के परम दुर्जय मण्डलव्यूह को देखकर राजा युधिष्ठिर ने स्वयं अपनी सेना के लिये वज्रव्यूह का निर्माण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 23-46 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार सेनाओं की व्यूह रचना हो जाने पर यथास्थान खडे़ हुए रथी और घुड़सवार आदि सब सैनिक सिंहनाद करने लगे। तत्पश्चात् प्रहार करने में कुशल सभी शूरवीर एक दूसरे का व्यूह तोड़ने और परस्पर युद्ध करने की इच्छा से सेनासहित आगे बढ़े। द्रोणाचार्य ने विराट पर और अश्वत्थामा ने शिखण्डी पर धावा किया। स्वयं राजा दुर्योधन ने द्रुपद पर चढ़ाई की। नकुल और सहदेव ने अपने मामा मद्रराज शल्य पर धावा किया। अवन्ती के विन्द और अनुविन्द ने इरावान पर आक्रमण किया। समस्त नरेशों ने संग्राम भूमि में अर्जुन के साथ युद्ध किया। भीमसेन ने युद्ध में विचरते हुए कृतवर्मा को आगे बढ़ने से रोका। राजन्! शक्तिशाली अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने संग्रामभूमि में आपके तीन पुत्र चित्रसेन, विकर्ण तथा दुर्मर्षण के साथ युद्ध आरम्भ किया।
महाधनुर्धर भगदत्त ने राक्षसप्रवर घटोत्कच पर बड़े वेग से आक्रमण किया, मानो एक मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथी पर टूट पड़ा हो। राजन्! उस समय राक्षस अलम्बुष ने युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले सेनासहित सात्यकि पर क्रोधपूर्वक धावा किया। भूरिश्रवा ने रणभूमि में प्रयत्नपूर्वक धृष्टकेतु के साथ युद्ध छेड़ दिया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने राजा श्रुतायु पर धावा किया। चेकितान ने समर में कृपाचार्य के ही साथ युद्ध छेड़ दिया। शेष योद्धा प्रयत्नपूर्वक महारथी भीष्म का ही सामना करने लगे। तदनन्तर उन राजसमूहों ने कुन्तीपुत्र धनंजय को सब ओर से घेर लिया। उन सबके हाथों में शक्ति, तोमर, नाराच, गदा और परिघ आदि आयुध शोभा पा रहे थे।
तत्पश्चात् अर्जुन ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘माधव! युद्धस्थल में दुर्योधन की इन सेनाओं को देखिये, व्यूह के विद्वान् महात्मा गंगानन्दन ने इनका व्यूह रचा है। माधव! युद्ध की इच्छा से कवच बाँधकर आये हुए इन शूरवीरों पर दृष्टिपात कीजिये। केशव! यह देखिये, यह भाइयों सहित त्रिगर्तराज खड़ा है। जनार्दन! यदुश्रेष्ठ! ये जो रणक्षेत्र में मुझसे युद्ध करना चाहते हैं, मैं इन सबको आज आपके देखते-देखते नष्ट कर दूँगा’। ऐसा कहकर कुन्तीनन्दन अर्जुन ने अपने धनुष की प्रत्यन्चा पर हाथ फेरा और विपक्षी नरेशों पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। जैसे बादल वर्षा ऋतु में जल की धाराओं से तालाब को भरते हैं, उसी प्रकार वे महाधनुर्धर नरेश भी बाणों की वृष्टि से अर्जुन को भरपूर करने लगे। प्रजानाथ! उस महायुद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों से आच्छादित देख आपकी सेना में बड़े जोर से कोलाहल होने लगा।
श्रीकृष्ण और अर्जुन को उस अवस्था में देखकर देवताओं, देवर्षियों, गन्धर्वों और नागों को महान् आश्चर्य हुआ। राजन्! तब अर्जुन ने कुपित होकर इन्द्रास्त्र का प्रयोग किया। उस समय हम लोगों ने अर्जुन का अद्भुत पराक्रम देखा। उन्होंने अपने बाण समूह द्वारा शत्रुओं की की हुई बाण वर्षा को रोक दिया।
संजय कहते हैं ;- महाराज! उस समय वहाँ कोई भी योद्धा ऐसा नहीं रह गया था, जो उनके बाणों से क्षत-विक्षत न हो गया हो। आर्य! कुन्तीकुमार अर्जुन ने उन सहस्रों राजाओं के घोड़ों तथा हाथियों में से किन्हीं को दो-दो और किन्हीं को तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। अर्जुन की मार खाकर वे सब के सब शान्तनुनन्दन भीष्म की शरण में गये। उस समय अगाध विपत्ति-समुद्र में डूबते हुए सैनिकों के लिये भीष्म जहाज बन गये। महाराज! पाण्डवों के आक्रमण करने पर आपकी सेना का व्यूह भंग हो गया। वह सेना प्रचण्ड वायु के वेग से समुद्र की भाँति विक्षुब्ध हो उठी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में सातवें दिन का युद्ध विषयक इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़, द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध, विराट-पुत्र शंख का वध, शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध, सात्यकि के द्वारा अलम्बुष की पराजय, धृष्टद्युम्न के द्वारा दुर्योधन की हार तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार संग्राम आरम्भ होने पर महामना पाण्डुनन्दन अर्जुन से पराजित हो सुशर्मा युद्धभूमि से दूर हो गया और अन्यान्य वीर भी भाग खड़े हुए। आपकी समुद्र जैसी विशालवाहिनी में तुरंत ही हलचल मच गयी। उस समय गंगानन्दन भीष्म ने शीघ्रतापूर्वक अर्जुन पर आक्रमण किया। राजा दुर्योधन ने रणभूमि में अर्जुन का पराक्रम देखकर बड़ी उतावली के साथ निकट जा उन समस्त नरेशों से कहा। उन नरेशों के सम्मुख सारी सेना के बीच में शूरवीर महाबली सुशर्मा को अत्यन्त हर्ष प्रदान करता हुआ-सा दुर्योधन यों बोला,
दुर्योधन बोला ;- ‘वीरो! ये शान्तनुनन्दन कुरुश्रेष्ठ भीष्म अपना जीवन निछावर करके सम्पूर्ण हृदय से अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहते हैं। सारी सेना के साथ युद्ध के लिये यात्रा करते हुए मेरे वीर पितामह भरतनन्दन भीष्म की आप सब लोग प्रयत्नपूर्वक रक्षा करें’।
महाराज! ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजाओं की वे सम्पूर्ण सेनाएँ पितामह भीष्म के पास गयीं। तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म युद्धभूमि में सहसा अर्जुन के सामने गये। भरतवंशी भीष्म को आते देख महाबली अर्जुन उनके पास जा पहुँचे। वे जिस रथ पर आरूढ़ होकर आये थे, वह अत्यन्त शोभायमान था। उसमें श्वेत वर्ण के विशाल घोड़े जुते हुए थे। उस पर भयंकर वानर से उपलक्षित ध्वजा फहरा रही थी और उसके पहियों से मेघ के समान गम्भीर शब्द हो रहा था। किरीटधारी अर्जुन को युद्ध में समीप आते देख भय के मारे समस्त सैनिकों के मुँह से भयानक हाहाकार प्रकट होने लगा। हाथ में बागडोर लिये मध्याह्नकाल के दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण को युद्धभूमि में उपस्थित देख कोई भी योद्धा उन्हें भर आँख देख भी न सके। इसी प्रकार श्वेत घोड़े तथा श्वेत धनुष वाले शान्तनुनन्दन भीष्म को श्वेत ग्रह के समान उदित देख पाण्डव सैनिक उनसे आँख न मिला सके।
महामना त्रिगर्तों ने अपने भाइयों, पुत्रों तथा अन्य महारथियों के साथ उपस्थित होकर भीष्म को सब ओर से घेर रखा था। दूसरी ओर द्रोणाचार्य ने मत्स्यराज विराट को युद्ध में एक बाण से बींध डाला तथा एक बाण से उनका ध्वज और एक से धनुष काट डाला। सेनापति विराट ने वह कटा हुआ धनुष फेंककर वेगपूर्वक दूसरे सुदृढ़ धनुष को हाथ में लिया, जो भार सहन करने में समर्थ था। उन्होंने उसके द्वारा प्रज्वलित सर्पों की भाँति विषैले नागों की सी आकृति वाले बाण छोड़कर तीन से द्रोणाचार्य को और चार बाणों से उनके घोड़ों को बींध डाला। फिर एक बाण से ध्वज को, पाँच बाणों से सारथि को और एक से धनुष को बींध डाला। इससे द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध हुआ। भरतश्रेष्ठ! फिर द्रोण ने झुकी हुई गाँठ वाले आठ बाणों द्वारा विराट के घोड़ों को और एक बाण से सारथि को मार डाला। सारथि और घोड़ों के मारे जाने पर रथियों में श्रेष्ठ विराट अपने रथ से तुरंत कूद पड़े और पुत्र के रथ पर आरूढ़ हो गये। जनेश्वर! उन दोनों पिता-पुत्रों ने एक ही रथ पर बैठकर महान बाण वर्षा के द्वारा द्रोणाचार्य को बलपूर्वक आगे बढ़ने से रोक दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
तब द्रोणाचार्य ने कुपित होकर युद्धभूमि में विषधर सर्प के समान एक भयंकर बाण शंख पर शीघ्रतापूर्वक चलाया। वह बाण शंख की छाती छेदकर रणभूमि में उसका रक्त पीकर धरती में समा गया। उसके श्रेष्ठ पंख लहू में भीगकर लाल हो रहे थे। द्रोणाचार्य के बाणों से घायल होकर शंख पिता के पास ही धनुष-बाण छोड़कर तुरंत ही रणभूमि में गिर पड़ा। अपने पुत्र को मारा गया देख मुँह बाये हुए काल के समान भयंकर द्रोणाचार्य को समरभूमि में छोड़कर विराट भय के मारे भाग गये। तब द्रोणाचार्य ने संग्रामभूमि में तुरंत ही पाण्डवों की विशालवाहिनी को विदीर्ण करना आरम्भ किया। सैकड़ों हजारों योद्धा धराशायी हो गये।
महाराज! दूसरी ओर शिखण्डी ने युद्धभूमि में अश्वत्थामा के पास पहुँचकर तीन शीघ्रगामी नाराचों द्वारा उसके भौंहों के मध्यभाग में आघात किया। रथियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा ललाट में लगे हुए उन तीनों बाणों के द्वारा तीन ऊँचे सुवर्णमय शिखरों से युक्त मेरु पर्वत के समान शोभा पाने लगा। राजन! तदनन्तर क्रोध में भरे अश्वत्थामा ने आधे निमेष में बहुत से बाणों द्वारा शिखण्डी के ध्वज, सारथि, घोड़ों और आयुधों को रणभूमि में काट गिराया। रथियों में श्रेष्ठ शत्रुसंतापी शिखण्डी घोड़ों के मारे जाने पर उस रथ से कूद पड़ा और बहुत तीखी एवं चमकीली तलवार और ढाल हाथ में लेकर कुपित हुए श्येन पक्षी की भाँति सब ओर विचरने लगा। महाराज! तलवार लेकर युद्ध में विचरते हुए शिखण्डी का थोड़ा-सा भी छिद्र अश्वत्थामा को नहीं दिखायी दिया। यह एक अद्भुत-सी बात हुई।
भरतश्रेष्ठ! तब परम क्रोधी अश्वत्थामा ने समरभूमि में शिखण्डी पर कई हजार बाणों की वर्षा की। बलवानों में श्रेष्ठ शिखण्डी ने समरभूमि में होने वाली उस अत्यन्त भयंकर बाण वर्षा को तीखी धार वाली तलवार से काट डाला। तब अश्वत्थामा ने सौ चन्द्राकार चिह्नों से सुशोभित शिखण्डी की परम सुन्दर ढाल और चमकीली तलवार को युद्धस्थल में टूक-टूक कर दिया। राजन! तत्पश्चात पंखयुक्त तीखे बाणों द्वारा शिखण्डी को भी बहुत घायल कर दिया। अश्वत्थामा द्वारा सायकों की मार से खण्डित किये हुए उस खड्ग को शिखण्डी ने घुमाकर तुरंत ही उसके ऊपर चला दिया। वह खड्ग प्रज्वलित सर्प सा प्रकाशित हो उठा। अपने ऊपर आते हुए प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी उस खड्ग को अश्वत्थामा ने युद्ध में अपना हस्त-लाघव दिखाते हुए सहसा काट डाला। तत्पश्चात बहुत से लोहमय बाणों द्वारा उसने शिखण्डी को भी घायल कर दिया।
राजन! अश्वत्थामा के तीखे बाणों से अत्यन्त घायल होकर शिखण्डी तुरंत ही महामना सात्यकि के रथ पर चढ़ गया। इधर बलवानों में श्रेष्ठ सात्यकि ने भी अत्यन्त कुपित होकर अपने तीखे बाणों द्वारा संग्रामभूमि में क्रूर राक्षस अलम्बुष को बींध डाला। भारत! तब राक्षसराज अलम्बुष ने रणक्षेत्र में अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा सात्यकि के धनुष को काट दिया और अनेक सायकों का प्रहार करके उन्हें भी घायल कर दिया। तत्पश्चात उसने राक्षसी माया फैलाकर उनके ऊपर बाणों की वर्षा आरम्भ की। उस समय हमने सात्यकि का अद्भुत पराक्रम देखा। भारत! वे समरभूमि में तीखे बाणों से पीड़ित होने पर भी घबराये नहीं। उन यशस्वी यदुकुलरत्न सात्यकि ने अर्जुन से जिसकी शिक्षा प्राप्त की थी, उस ऐन्द्रास्त्र का प्रयोग किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय उस दिव्यास्त्र ने उस राक्षसी माया को तत्काल भस्म करके अलम्बुष के ऊपर सब ओर से दूसरे-दूसरे बाणों की उसी प्रकार वर्षा आरम्भ की, जैसे वर्षा ऋतु में मेघ पर्वत पर जल की धाराएँ गिराता है। परमयशस्वी मधुवंशी सात्यकि के द्वारा इस प्रकार पीड़ित होने पर वह राक्षस भय से युद्धस्थल में उन्हें छोड़कर भाग गया। जिसे इन्द्र भी युद्ध में हरा नहीं सकते थे, उसी राक्षसराज अलम्बुष को आपके योद्धाओं के देखते-देखते परास्त करके सात्यकि सिंहनाद करने लगे। तत्पश्चात सत्यपराक्रमी सात्यकि ने अपने बहुसंख्यक तीखे बाणों द्वारा आपके अन्य योद्धाओं को भी मारना आरम्भ किया। उस समय उनके भय से पीड़ित हो वे सब योद्धा भागने लगे।
महाराज! इसी समय द्रुपद के बलवान पुत्र धृष्टद्युम्न ने आपके पुत्र राजा दुर्योधन को रणक्षेत्र में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से आच्छादित कर दिया। भरतनन्दन! राजेन्द्र! जनेश्वर! धृष्टद्युम्न के बाणों से आच्छादित होने पर भी आपे पुत्र दुर्योधन के मन में व्यथा नहीं हुई। उसने युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न को तुरंत ही नब्बे बाणों से घायल कर दिया। यह एक अद्भुत सी बात थी। आर्य! तब महाबली पाण्डव सेनापति ने भी कुपित होकर दुर्योधन के धनुष को काट दिया और शीघ्रतापूर्वक उसके चारों घोड़ों को भी मार डाला। तत्पश्चात् अत्यन्त तीखे सात बाणों द्वारा तुरंत ही दुर्योधन को घायल कर दिया। घोड़े मारे जाने पर बलवान महाबाहु दुर्योधन अपने रथ से कूद पड़ा और तलवार उठाकर धृष्टद्युम्न की ओर पैदल ही दौड़ा। उस समय महाबली शकुनि ने, जो राजा को बहुत चाहता था, निकट आकर सम्पूर्ण जगत के अधिपति दुर्योधन को अपने रथ पर चढ़ा लिया। तब शत्रुवीरों का हनन करने वाले धृष्टद्युम्न ने राजा दुर्योधन को पराजित करके आपकी सेना का उसी प्रकार विनाश आरम्भ किया, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों का विनाश करते हैं।
महारथी कृतवर्मा ने रण में भीमसेन को अपने बाणों से बहुत पीड़ित किया और महामेघ जैसे सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार उसने भीमसेन को आच्छादित कर दिया। तब शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन ने युद्ध में हँसकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कृतवर्मा पर अनेकों सायकों का प्रहार किया। महाराज! उन सायकों से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी अतिरथी एवं सत्यकोविद सात्वतवंशी कृतवर्मा विचलित नहीं हुआ। उसने भीमसेन को पुनः तीखे बाणों से पीड़ित किया। फिर महारथी भीमसेन ने उनके चारों घोड़ों को मारकर ध्वजसहित सुसज्जित सारथि को भी काट गिराया। तत्पश्चात् शत्रुवीरों का हनन करने वाले भीमसेन ने अनेक प्रकार के बाणों से कृतवर्मा के सारे शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया। उसके घोड़े मारे जा चुके थे। उस समय भीमसेन के बाणों से उसका सारा शरीर छिन्न-भिन्न सा दिखायी देता था। महाराज! तब घोड़ों के मारे जाने पर कृतवर्मा आपके पुत्र के देखते-देखते तुरंत ही आपके शाले वृषक के रथ पर सवार हो गया। इधर भीमसेन भी अत्यन्त कुपित होकर आपकी सेना पर टूट पड़े और दण्डपाणि यमराज की भाँति उसका संहार करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में द्वरथयुद्ध विषयक बयासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“इरावान् के द्वारा विन्द और अनुविन्द की पराजय, भगदत्त से घटोत्कच का हारना तथा मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मैंने तुम्हारे मुख से अभी तक पाण्डवों के मेरे पुत्रों के साथ जो बहुत से विचित्र द्वैरथ युद्ध हुए हैं, उनका वर्णन सुना। परंतु सूत। तुमने अभी तक मेरे पक्ष में घटित हुई कोई हर्ष की बात नहीं कही है, उल्टे पाण्डवों को प्रतिदिन हर्ष से पूर्ण और अभग्न (अपराजित) बताते हो। मेरे पुत्रों को तेज और बल से हीन, खिन्नचित्त और युद्ध में पराजित बताते हो। संजय! यह सब प्रारब्ध का ही खेल है, इसमें संशय नहीं है।
संजय बोले ;- पुरुषश्रेष्ठ! आपके पुत्र भी पूरी शक्ति से पुरुषार्थ दिखाते हुए अपने बल और उत्साह के अनुसार युद्ध में सफलता प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। परंतप! नरेश! जैसे देवनदी गंगा जी का जल स्वादिष्ट होकर भी महासागर के संयोग से उसी के गुण का सम्मिश्रण हो जाने के कारण खारा हो जाता हैं, उसी प्रकार आपके पुत्रों का पुरुषार्थ युद्ध में वीर पाण्डवों तक पहुँचकर व्यर्थ हो जाता हैं। कुरुश्रेष्ठ! कौरव यथाशक्ति प्रयत्न करते और दुष्कर कर्म कर दिखाते हैं। अत: उनके ऊपर आपको दोषारोपण नहीं करना चाहिये। प्रजानाथ! पुत्र सहित आपके अपराध से ही यह भूमण्डल का घोर एवं महान संहार हो रहा है, जो यमलोक की वृद्धि करने वाला है। नरेश्वर! अपने ही अपराध से जो संकट प्राप्त हुआ है, उसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। आपके अपराध के कारण राजा लोग भी इस भूतल में सर्वथा अपने जीवन की रक्षा नहीं कर पाते हैं। वसुधा के नरेश युद्ध में पुण्यात्माओं के लोकों की इच्छा करते हुए शत्रु की सेना में घुसकर युद्ध करते हैं और सदा स्वर्ग को ही परम लक्ष्य मानते हैं। महाराज! उस दिन पूर्वाह्नकाल में बड़ा भारी जनसंहार हुआ था। आप एकचित होकर देवासुर-संग्राम के समान उस भयंकर युद्ध का वृतान्त सुनिये।
अवन्ती के महाबली महाधनुर्धर और विशाल सेना से युक्त राजकुमार विन्द और अनुविन्द, जो युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले हैं, अर्जुनपुत्र इरावान को सामने देखकर उसी से भिड़ गये। उन तीनों वीरों का युद्ध अत्यन्त रोमाञ्चकारी हुआ। इरावान ने कुपित होकर देवताओं के समान रूपवान दोनों भाई विन्द और अनुविन्द को झुकी हुई गांठ वाले तीखे बाणों से तुरंत घायल कर दिया। वे भी समरांगण में विचित्र युद्ध करने वाले थे। अत: उन्होंने भी इरावान को बींध डाला। नरेश्वर! दोनों ही पक्ष वाले अपने शत्रु का नाश करने के लिये प्रयत्नशील थे। दोनों ही एक-दूसरे के अस्त्रों का निवारण करने की इच्छा रखते थे। अत: युद्ध करते समय उनमें कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। राजन! उस समय इरावान ने अपने चार बाणों द्वारा अनुविन्द के चारों घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया। आर्य! राजन! तदनन्तर दो तीखे भल्लों द्वारा उन्होंने युद्ध-स्थल में उसके धनुष और ध्वज काट डाले। यह अद्भुत-सी बात हुई। तत्पश्चात अनुविन्द अपना रथ त्यागकर विन्द के रथ पर जा बैठा और भार वहन करने में समर्थ दूसरा परम उत्तम धनुष लेकर युद्ध के लिये डट गया। रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों आवन्त्य वीर रणभूमि में एक ही रथ पर बैठकर बड़ी शीघ्रता के साथ महामना इरावान पर बाणों की वर्षा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
उन दोनों के छोडे़ हुए महान वेगशाली सुवर्णभूषित बाणों ने सूर्य के पथ पर पहुँचकर आकाश को आच्छादित कर दिया। तब इरावान ने भी रणक्षेत्र में क्रुद्ध होकर उन दोनों महारथी बन्धुओं पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी और उनके सारथि को मार गिराया। सारथि के प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर जाने के पश्चात उस रथ के घोडे़ घबराकर भागने लगे और इस प्रकार वह रथ सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ने लगा। महाराज! इरावान नागराज-कन्या उलूपी का पुत्र था। उसने विन्द और अनुविन्द को जीतकर अपने पुरुषार्थ का परिचय देते हुए तुरंत ही आपकी सेना का संहार आरम्भ कर दिया। युद्धक्षेत्र में इरावान से पीड़ित होकर आपकी विशाल सेना विषपान किये हुए मनुष्य की भाँति नाना प्रकार से उद्वेग प्रकट करने लगी।
दूसरी ओर राक्षसराज महाबली घटोत्कच ने सूर्य के समान तेजस्वी एवं ध्वजयुक्त रथ के द्वारा भगदत्त पर आक्रमण किया। जैसे पूर्वकाल में तारकामय-संग्राम के अवसर पर वज्रधारी इन्द्र ऐरावत नामक हाथी पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिये गये थे, उसी प्रकार इस महायुद्ध में प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी राजा भगदत्त एक गजराज पर चढ़कर आये थे। वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए देवताओं, गन्धर्वों तथा ऋषियों की भी समझमें यह नहीं आया कि घटोत्कच और भगदत्त में पराक्रम की दृष्टि से क्या अन्तर है। जैसे देवराज इन्द्र ने दानवों को भयभीत किया था, उसी प्रकार भगदत्त ने पाण्डव-सैनिकों को भयभीत करके भगाना आरम्भ किया।
भारत! भगदत्त के द्वारा खदेडे़ हुए पाण्डव-सैनिक सम्पूर्ण दिशाओं में भागते हुए अपनी सेनाओं में भी कहीं कोई रक्षक नहीं पाते थे। भरतनन्दन! उस समय वहाँ हम लोगों ने केवल भीमपुत्र घटोत्कच को ही रथ पर स्थिर भाव से बैठा देखा। शेष महारथी खिन्नचित्त होकर वहीं से भाग रहे थे। भारत! जब पाण्डवों की सेनाएं पुन: युद्धभूमि में लौट आयीं, तब उस युद्धक्षेत्र में आपकी सेना के भीतर घोर हाहाकार होने लगा। राजन! उस समय उस महायुद्ध में घटोत्कच ने अपने बाणों द्वारा भगदत्त को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल मेरु पर्वत को ढक लेता है। राक्षस घटोत्कच के धनुष से छूटे हुए उन सभी बाणों को नष्ट करके राजा भगदत्त ने रणक्षेत्र में तुरंत ही घटोत्कच के सभी मर्मस्थानों पर प्रहार किया। झुकी हुई गांठ वाले बहुत-से बाणों द्वारा आहत होकर भी विदीर्ण किये जाने वाले पर्वत की भाँति राक्षस राज घटोत्कच व्यथित एवं विचलित नहीं हुआ।
प्राग्ज्योतिषपुर नरेश ने कुपित हो उस राक्षस पर चौदह तोमर चलाये, परंतु उसने समरभूमि में उन सबको काट दिया। उन तोमरों को तीखे बाणों से काटकर महाबाहु घटोत्कच ने कंकपत्रयुक्त सत्तर बाणों द्वारा भगदत्त को भी घायल कर दिया। भारत! तब राजा प्राग्ज्योतिष (भगदत्त) ने हंसते हुए-से उस युद्ध में अपने सायकों द्वारा घटोत्कच के चारों घोड़ों को मार गिराया। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ पर खडे़ हुए प्रतापी राक्षसराज घटोत्कच ने भगदत्त के हाथी पर बड़े वेग से शक्ति का प्रहार किया। उस शक्ति में सोने का डंडा लगा हुआ था। वह अत्यन्त वेगशालिनी थी। उसे सहसा आती देख राजा भगदत्त ने उसके तीन टुकडे़ कर डाले। फिर वह पृथ्वी पर बिखर गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 40-57 का हिन्दी अनुवाद)
अपनी शक्ति को कटी हुई देखकर हिडिम्बाकुमार घटोत्कच भगदत्त के भय से उसी प्रकार भाग गया, जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र के साथ युद्ध करते समय दैत्यराज नमुचि रणभूमि से भागा था। राजन! घटोत्कच अपने पौरूष के लिये विख्यात, पराक्रमी, शूरवीर था। वरुण और यमराज भी उस वीर को समरभूमि में परास्त नहीं कर सकते थे। उसी को वहाँ रणक्षेत्र-में जीतकर भगदत्त का वह हाथी समरांगण में पाण्डव सेना का उसी प्रकार मर्दन करने लगा, जैसे वनैला हाथी सरोवर में कमलिनी को रौंदता हुआ विचरता है।
दूसरी ओर मद्रराज शल्य युद्ध में अपने भानजे नकुल और सहदेव से उलझे हुए थे। उन्होंने पाण्डुकुल को आनन्दित करने वाले भानजों को अपने बाण समूहों से आच्छादित कर दिया। सहदेव ने समरभूमि में अपने मामा को युद्ध में आसक्त देखकर जैसे बादल सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार उन्हें अपने बाण समूहों से आच्छादित करके आगे बढ़ने से रोक दिया। उनके बाण समूहों से आच्छादित होकर भी शल्य अत्यन्त प्रसन्न ही हुए। माता के नाते नकुल और सहदेव के मन में भी उनके प्रति प्रेम का भाव था। आर्य! तब महारथी शल्य ने समरभूमि में हंसकर एक बाण से नकुल के ध्वज को और दूसरे से उनके धनुष को भी काट दिया। भारत! धनुष कट जाने पर उन्हें बाणों से आच्छादित-से करते हुए युद्धस्थल में उनके सारथियों को भी मार गिराया।
राजन! फिर उन्होंने उस युद्ध में चार उत्तम सायकों द्वारा नकुल के चारों घोड़ों को यमराज के घर भेज दिया। घोड़ों के मारे जाने पर महारथी नकुल उस रथ से तुरंत ही कूदकर अपने यशस्वी भाई सहदेव के ही रथ पर जा बैठे। तदनंतर एक ही रथ पर बैठे हुए उन दोनों शूरवीरों ने क्षणभर में अपने सुदृढ़ धनुष को खींचकर रणभूमि में मद्रराज के रथ को तुरंत ही आच्छादित कर दिया। अपने भानजों के चलाये हुए झुकी हुई गांठ वाले बहु-संख्यक बाणों से आच्छादित होने पर भी नरश्रेष्ठ शल्य पर्वत की भाँति अडिगभाव से खड़े रहे; कम्पित या विचलित नहीं हुए। उन्होंने हंसते हुए-से उस शस्त्रवर्षा को भी नष्ट कर दिया। भारत! तब पराक्रमी सहदेव ने कुपित होकर एक बाण हाथ में लिया और उसे मद्रराज को लक्षण करके चला दिया। उनके द्वारा चलाया हुआ वह बाण गरुड़ और वायु के समान वेगशाली था। वह मद्रराज को विदीर्ण करके पृथ्वी पर जा गिरा।
महाराज! उसके गहरे आघात से पीड़ित एवं व्यथित होकर महारथी शल्य रथ के पिछले भाग में जा बैठे और मूर्च्छित हो गये। युद्धस्थल में नकुल और सहदेव द्वारा पीड़ित होकर उन्हें अचेत हो रथ पर गिरा हुआ देख सारथि रथ द्वारा रणभूमि से बाहर हटा ले गया। मद्रराज के रथ को युद्ध से विमुख हुआ देख आपके सभी पुत्र मन-ही-मन दुखी हो सोचने लगे- शायद अब मद्रराज का जीवन शेष नहीं है। महारथी माद्रीपुत्र युद्ध में अपने मामा को परास्त करके प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाने और सिंहनाद करने लगे। प्रजानाथ! जैसे इन्द्रदेव और उपेन्द्रदेव दैत्यों की सेना को मार भगाते हैं, उसी प्रकार नकुल-सहदेव हर्ष में भरकर आपकी सेना को खदेड़ने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मपर्व में द्वन्द्वयुद्धविषयक तिरासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर से राजा श्रुतायु का पराजित होना, युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्च्छित होना, भूरिश्रवा से धृष्टकेतु का और अभिमन्यु से चित्रसेन आदि का पराजित होना एवं सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ”
संजय कहते हैं ;- महाराज! जब सूर्यदेव दिन के मध्यभाग में आ गये, तब राजा युधिष्ठिर ने श्रुतायु को देखकर उसकी ओर अपने घोड़ों को बढा़या। उस समय झुकी हुई गांठ वाले नौ तीखे सायकों द्वारा शत्रुदमन श्रुतायु को घायल करते हुए राजा युधिष्ठिर ने उस पर धावा किया। तब महाधनुर्धर राजा श्रुतायु ने युद्ध में धर्मपुत्र युधिष्ठिर के चलाये हुए बाणों का निवारण करके उन कुन्तीकुमार को सात बाण मारे। संग्राम में वे बाण महात्मा युधिष्ठिर के शरीर में उनके प्राणों को ढूँढते हुए-से कवच छेदकर घुस गये और उनका रक्त पीने लगे। महामना श्रुतायु के बाणों से घायल होने पर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने रणक्षेत्र में बराहकर्ण नामक एक बाण चलाकर राजा श्रुतायु की छाती में चोट पहुँचायी। तत्पश्चात रथियों में श्रेष्ठा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने भल्ल नामक दूसरे बाण से महामना श्रुतायु के ध्वज को काटकर तुरंत ही रथ से पृथ्वी पर गिरा दिया।
राजन! ध्वज को गिरा हुआ देख राजा श्रुतायु ने अपने सात तीखे बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को घायल कर दिया। यह देख धर्मपुत्र युधिष्ठिर प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूतों को जला डालने की इच्छा वाले अग्निदेव के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठे। महाराज! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को कुपित देख देवता, गन्धर्व और राक्षस व्यथित हो उठे तथा सारा जगत भी भय से व्याकुल हो गया। उस समय समस्त प्राणियों के मन में यह विचार उठा कि आज निश्चय ही ये राजा युधिष्ठिर कुपित होकर तीनों लोकों को भस्म कर डालेंगे। नरेश्वर! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के कुपित होने पर उस समय सम्पूर्ण लोकों की शान्ति के लिये देवता तथा ऋषिलोग श्रेष्ठ स्वस्तिवाचन करने लगे। उन्होंने क्रोध से व्याप्त हो मुख के दोनों कोनों को चाहते हुए अपने शरीर को प्रलयकाल के सूर्य के समान अत्यन्त भयंकर बना लिया।
प्रजानाथ! भरतनन्दन! उस समय आपकी सारी सेनाएं वहाँ अपने जीवन से निराश हो गयीं। परंतु महायशस्वी युधिष्ठिर ने धैर्यपूर्वक अपने क्रोध को दबा दिया और श्रुतायु के विशाल धनुष को, जहाँ उसे मुट्ठी से पकड़ा जाता है, उसी जगह से काट दिया। राजन! धनुष कट जाने पर महाबली राजा युधिष्ठिर ने श्रुतायु की छाती में नाराच से प्रहार किया। फिर उन्होंने समस्त सेनाओं के देखते-देखते रणक्षेत्र में महामना श्रुतायु के घोड़ों को तुरंत मार डाला और उनके सारथि को भी शीघ्र ही मौत के मुख में डाल दिया। रथ के घोडे़ मारे गये, यह देखकर तथा युद्ध में राजा युधिष्ठिर के पुरुषार्थ का भी अवलोकन करके श्रुतायु उस समय बड़े वेग से रथ छोड़कर भाग गया। राजन! संग्राम में धर्मपुत्र युधिष्ठिर द्वारा महाधनुर्धर श्रुतायु के पराजित होने पर दुर्योधन की सारी सेना पीठ दिखाकर भागने लगी। महाराज! ऐसा पराक्रम करके धर्मपुत्र युधिष्ठिर मुंह फैलाये काल के समान आपकी सेना का संहार करने लगे। उधर वृष्णिवंशी चेकितान ने रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य को सब सेनाओं के देखते-देखते अपने सायकों से आच्छादित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने युद्ध में उन सब बाणों को काटकर सावधानी के साथ युद्ध करने वाले चेकितान को पंख वाले बाणों से बींध डाला। आर्य! फिर दूसरे भल्ल से उसका धनुष काट दिया और अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए समर में उसके सारथि को भी मार गिराया। राजन! तदनन्तर चेकितान के चारों घोड़ों और दोनों पृष्ठ रक्षकों को भी कृपाचार्य ने मार डाला। तब सात्वतवंशी चेकितान ने रथ से कूदकर तुरंत ही गदा हाथ में ले ली। गदाधारियों में श्रेष्ठ चेकितान ने उस वीरघातिनी गदा से कृपाचार्य के घोड़ों को मारकर उनके सारथि को भी धराशायी कर दिया। तब कृपाचार्य ने भूमि पर ही खडे़ होकर चेकितान को सोलह बाण मारे। वे बाण चेकितान को छेदकर धरती में समा गये। तब क्रोध में भरे हुए चेकितान ने कृपाचार्य के वध की इच्छा से उन पर पुन: वैसे ही गदा का प्रहार किया, जैसे इन्द्र वृत्रासुर पर प्रहार करते हैं। उस निर्मल एवं लोहे की बनी हुई विशाल गदा को अपने ऊपर आती देख कृपाचार्य ने अनेक सहस्र बाणों द्वारा दूर गिरा दिया।
भारत! तब चेकितान ने क्रोधपूर्वक तलवार खींच ली और बड़ी फुर्ती के साथ कृपाचार्य पर धावा किया। राजन! यह देख कृपाचार्य ने भी धनुष फेंककर तलवार हाथ में ले ली और पूरी सावधानी के साथ वे बड़े वेग से चेकितान की ओर दौडे़। वे दोनों ही बलवान थे। दोनों ने ही उत्तम खड्ग धारण कर रखे थे। अत: अपनी उन अत्यन्त तीखी तलवारों से वे एक-दूसरे को काटने लगे। तलवार की गहरी चोट से घायल होकर वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ सम्पूर्ण भूतों की निवासभूत पृथ्वी पर गिर पड़े। उनके सारे अंगों में मूर्छा व्याप्त हो रही थी। दोनों ही अधिक परिश्रम के कारण अचेत हो गये थे। उस समय युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाला करकर्ष चेकितान को वैसी अवस्था-में पड़ा देख सौहार्द के नाते बड़े वेग से दौड़ा और सम्पूर्ण सेना के देखते-देखते उसने उन्हें अपने रथ पर चढ़ा लिया। प्रजानाथ! इसी प्रकार आपके साले शूरवीर शकुनि ने रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य को शीघ्र ही अपने रथ पर बैठा लिया।
राजन्! दूसरी ओर महाबली धृष्टकेतु ने क्रोध में भरकर नब्बे बाणों से शीघ्रतापूर्वक भूरिश्रवा की छाती में चोट पहुँचायी। महाराज! छाती में धंसे हुए उन बाणों से भूरिश्रवा उसी प्रकार शोभा पाने लगा, जैसे दोपहर के समय सूर्य अपनी किरणों द्वारा अधिक प्रकाशित होता है। तब भूरिश्रवा ने समरभूमि में उत्तम सायकों द्वारा महारथी धृष्टकेतु के घोड़ों और सारथि को मारकर उन्हें रथहीन कर दिया। भूरिश्रवा ने धृष्टकेतु को घोड़ों और सारथि के मारे जाने से रथहीन हुआ देख युद्धस्थल में बाणों की बड़ी भारी वर्षा करके ढक दिया। आर्य! तत्पश्चात महामना धृष्टकेतु उस रथ को छोड़कर शतानीक की सवारी पर जा बैठे।
राजन! इसी समय चित्रसेन, विकर्ण तथा दुर्मर्षण- इन तीन रथियों ने सोने के कवच बांधकर सुभद्राकुमार अभिमन्यु पर धावा किया। नरेश्वर! तब उनके साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ, ठीक उसी तरह, जैसे शरीर का वात, पित्त और कफ- इन तीनों धातुओं के साथ युद्ध होता रहता हैं। राजन! उस महासमर में आपके पुत्रों को रथहीन करके पुरुषसिंह अभिमन्यु ने उस समय भीम की प्रतिज्ञा का स्मरण करके उनका वध नहीं किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर हाथी, घोड़ों और रथ पर यात्रा करने वाले करोड़ों राजाओं से घिरे हुए भीष्म, जो युद्ध में देवताओं के लिये भी दुर्जय थे, आपके पुत्रों को बचाने के लिये एकमात्र बालक महारथी अभिमन्यु को लक्ष्य करके तीव्र वेग से आगे बढे़। उनको उस ओर जाते देख श्वेतवाहन कुन्तीपुत्र अर्जुन ने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘हृषीकेश! जहाँ ये बहुत-से रथ जा रहे हैं, उधर ही अपने घोड़ों को हांकिये। माधव! ये अस्त्र-विद्या के विद्वान तथा रण-दुर्मद बहुसंख्यक शूरवीर जिस प्रकार हमारी सेना का विनाश न कर सकें, उसी तरह इस रथ को वहाँ ले चलिये’। अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन के इस प्रकार कहने पर वृष्णिकुलनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध में श्वेत घोड़ों से जुते हुए रथ को आगे बढा़या। आर्य! रणभूमि में क्रूद्ध हुए अर्जुन आपके सैनिकों की ओर जाने लगे, उस समय आपकी सेना में बडे़ जोर से हाहाकार होने लगा।
राजन! कुन्तीकुमार अर्जुन ने भीष्म की रक्षा करने वाले उन राजाओं के पास जाकर सुशर्मा से इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘वीर! मैं जानता हूं, तुम पाण्डवों के पूर्व वैरी और योद्धाओं में अत्यन्त उत्तम हो। तुम लोगों ने जो अन्याय किया है, उसका यह अत्यन्त भयंकर फल आज प्राप्त हुआ है, इसे देखो। आज मैं तुम्हें तुम्हारे पहले के मरे हुए पितामहों का दर्शन कराऊंगा’। ऐसा कहते हुए शत्रुघाती अर्जुन के पुरुष वचन को सुनकर भी रथयूथपति सुशर्मा उनसे भला या बुरा कुछ भी न बोला। अनेक राजाओं से घिरे हुए उस महारथी ने आपके पुत्रों को साथ ले युद्ध में वीर अर्जुन के सामने जाकर उन्हें आगे, पीछे ओर पार्श्व भाग- सब ओर से घेर लिया और जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार बाणों से अर्जुन को आच्छादित कर दिया। भारत! तत्पश्चात रणक्षेत्र में आपके पुत्रों और पाण्डवों में खून को पानी की तरह बहाने वाला महान संग्राम छिड़ गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मपर्व में सातवें दिन के युद्ध में सुशर्मा और अर्जुन की भिड़ंत से सम्बन्ध रखने वाला चौरासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का पराक्रम, पाण्डवों का भीष्म पर आक्रमण, युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ और भीम का पुरुषार्थ”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार शत्रुओं के बाणों से आहत होकर बलवान अर्जुन पैर से कुचले हुए सर्प की भाँति क्रोध से लंबी सांस खींचने लगे। उन्होंने बलपूर्वक पृथक-पृथक बाण मारकर युद्ध में सभी महारथियों के धनुष काट डाले। रणक्षेत्र में उन पराक्रमी नरेशों के धनुषों को क्षणभर में काटकर महामना अर्जुन ने उनका पूर्णत: संहार कर देने की इच्छा-से एक ही साथ सबको अपने बाणों से घायल कर दिया। राजन! इन्द्रपुत्र अर्जुन के द्वारा ताड़ित होकर वे सभी नरेश खून से लथपथ हो युद्धभूमि में गिर पड़े। उनके अंग छिन्न-भिन्न हो गये थे, मस्तक कटकर दूर जो गिरे थे, कवच और शरीर के टुकडे़-टुकडे़ हो गये थे और इस अवस्था में पहुँचकर उन्हें अपने प्राण खो देने पड़े थे। पार्थ के बल से अभिभूत होकर वे विचित्ररूपधारी राजकुमार एक साथ ही पृथ्वी पर गिरकर नष्ट हो गये। उन राजपुत्रों को युद्ध मे मारा गया देख त्रिगर्तराज सुशर्मा ने रथ के द्वारा अर्जुन पर आक्रमण किया। उन राजपुत्रों के रथों के जो दूसरे-दूसरे बत्तीस पृष्ठरक्षक थे, वे भी (सुशर्मा के साथ ही) अर्जुन पर टूट पड़े।
इसी प्रकार उन सबने अर्जुन को चारों ओर से घेरकर महान टंकारध्वनि करने वाले अपने धनुष खींचे और जैसे मेघ पर्वत पर जलराशि की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार अर्जुन पर बाण समूहों की वृष्टि करने लगे। उनके बाणसमूहों की वर्षा से पीड़ित होकर युद्धस्थल में अर्जुन के हृदय में बड़ा भारी रोष हुआ। उन्होंने रणक्षेत्र में तेल के धोये हुए साठ बाण मारकर उन पृष्ठरक्षकों का भी संहार कर दिया। इस प्रकार युद्धभूमि में उन सभी रथियों को जीतकर और कौरव-सेनाओं का समर में संहार करके प्रसन्नचित्त हुए यशस्वी विजयी अर्जुन ने भीष्म के वध के लिये शीघ्रता की। महामना अर्जुन के द्वारा अपने बन्धुसमूहों को मारा गया देख त्रिगर्तराज सुप्रसिद्ध नरपतियों को युद्ध के लिये आगे करके तुरंत ही अर्जुन का वध करने के लिये उनके सामने आया। अस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर अर्जुन पर आक्रमण होता देख शिखण्डी आदि महारथी उनके रथ की रक्षा करने के लिये तीखे अस्त्र-शस्त्र हाथ में लिये आगे बढे़।
इधर धनुर्धर अर्जुन भी त्रिगर्तराज के साथ उन नरवीरों को आते देख संग्रामभूमि में गाण्डीव धनुष से छोडे़ हुए तीखे बाणों द्वारा उन्हें नष्ट करके भीष्म जी के पास जाना चाहते थे, इतने ही में उन्होंने युद्धस्थल में राजा दुर्योधन और सिन्धुराज जयद्रथ आदि को देखा। दुर्योधन और जयद्रथ आदि योद्धा अर्जुन को रोकने के प्रयत्न में लगे थे; अत: उस समय अनन्त पराक्रमी एवं महातेजस्वी वीर अर्जुन ने दो घड़ी तक बलपूर्वक युद्ध करके उन सबको रोक दिया। तत्पश्चात् राजा दुर्योधन और जयद्रथ आदि नरेशों को वहीं छोड़कर भयंकर बल से सम्पन्न एवं मनस्वी अर्जुन हाथ में धनुष-बाण ले युद्धस्थल में गंगानन्दन भीष्म की ओर चल दिये। भीष्म भी अस्त्र-विद्या के विद्वान एवं उदार पाण्डव-रथियों को युद्धस्थल में अपने सामने देखते हुए भी उन सबको वहीं छोड़कर बड़े वेग से पुन: अर्जुन के पास आये। उस समय उत्कष्ट बलशाली अनन्तकीर्ति महात्मा युधिष्ठिर भी युद्ध में अपने भाग के रूप में प्राप्त हुए मद्रराज शल्य को छोड़कर नकुल, सहदेव और भीमसेन के साथ क्रोध-पूर्वक तुरंत वहाँ से चल दिये और युद्ध के लिये शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जा पहुँचे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)
महारथियों में श्रेष्ठ समस्त पाण्डव संगठित होकर वहाँ आ पहुँचे थे तो भी उनसे समरांगण में विचित्र युद्ध करने वाले गंगापुत्र शान्तनुनन्दन महात्मा भीष्म को व्यथा नहीं हुई। तत्पश्चात सत्यप्रतिज्ञ अत्यन्त भयंकर शक्तिशाली और मनस्वी राजा जयद्रथ ने रण में सामने आकर अपने उत्तम धनुष द्वारा बलपूर्वक उन महारथियों के धनुष काट डाले। क्रोधरूपी विष उगलने वाले महामनस्वी दुर्योधन ने युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण पर युद्ध में कुपित हो अग्नि के समान तेजस्वी बाणों का प्रहार किया। प्रभो! जैसे क्रोध में भरे हुए दैत्यगण एकत्र हो देवताओं पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार कृपाचार्य, शल्य, शल तथा चित्रसेन से युद्धस्थल में अत्यन्त क्रोध में भरकर समस्त पाण्डवों को अपने बाणों से घायल कर दिया। शान्तनुनन्दन भीष्म ने जब शिखण्डी का धनुष काट दिया, तब समरांगण में अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर शिखण्डी की ओर देखकर कुपित हो उठे और उससे क्रोधपूर्वक उलाहना देते हुए इस प्रकार बोले-
युधिष्ठिर बोले ;- 'वीर! तुमने अपने पिता के सामने प्रतिज्ञापूर्वक मुझसे यह कहा था कि 'मैं महान व्रतधारी भीष्म को निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी बाणसमूहों द्वारा अवश्य मार डालूंगा, यह बात मैं सत्य कहता हूँ।’ ऐसी प्रतिज्ञा तुमने की थी; परंतु तुम इस प्रतिज्ञा को सफल नहीं करते हो। कारण कि युद्ध में देवव्रत भीष्म का वध नहीं कर रहे हो। झूठी प्रतिज्ञा करने वाला न बनो। अपने धर्म, कुल और यश की रक्षा करो। देखो! जैसे यमराज समयानुसार उपस्थित होकर क्षणभर में देहधारी का विनाश कर देते हैं, उसी प्रकार ये युद्ध में भयंकर वेगशाली भीष्म अत्यन्त प्रचण्ड वेग वाले बाण समूहों के द्वारा मेरी समस्त सेनाओं को कितना संताप दे रहे हैं। युद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्म ने तुम्हारा धनुष काटकर तुम्हें पराजित कर दिया; फिर भी तुम उनकी ओर से निरपेक्ष हो रहे हो। अपने सगे भाइयों को छोड़कर कहां जाओंगे?
यह कायदा तुम्हारे अनुरूप नहीं हैं। द्रुपदकुमार! अनन्त पराक्रमी भीष्म को तथा उनके डर से इस प्रकार हतोत्साह होकर भागती हुई मेरी इस सेना को देखकर निश्चय ही तुम डर गये हो; क्योंकि तुम्हारे मुख की कान्ति कुछ ऐसी ही अप्रसन्न दिखायी देती है। वीर! नरवीर अर्जुन कहीं महायुद्ध में फंसे हुए है। उनका इस समय पता नहीं है। ऐसे समय में तुम आज भूमण्डल के विख्यात वीर होकर भीष्म से भय कैसे कर रहे हो?' राजन! धर्मराज के इस वचन में प्रत्येक अक्षर रूखेपन से भरा हुआ था। उनके द्वारा उन्होंने कितनी ही मन के विपरीत बातें कहीं थी, तथापि उस वचन को सुनकर महामना शिखण्डी ने इसे अपने लिये आदेश माना और तुरंत ही भीष्म का वध करने के लिये सचेष्ट हो गया। शिखण्डी को बड़े वेग से आते और भीष्म पर धावा करते देख शल्य ने अत्यन्त दुर्जय एवं भयंकर अस्त्र से उसे रोक दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)
वह महाधनुर्धर वीर अपने बाणों द्वारा शल्य के अस्त्र का निवारण करता हुआ वहीं डटा रहा। फिर शिखण्डी ने शल्य के अस्त्र का प्रतिघात करने वाले अन्य भयंकर वारुणास्त्र को हाथ में लिया। आकाश में खडे़ हुए देवताओं तथा रणक्षेत्र मे आये हुए राजाओं ने देखा, शिखण्डी के दिव्यास्त्र से शल्य का अस्त्र विदीर्ण हो रहा है। राजन! महात्मा एवं वीर भीष्म युद्धस्थल में अजमीढ़ कुलनन्दन पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के विचित्र धनुष और ध्वज को काटकर गर्जना करने लगे। तब धनुष-बाण फेंककर भय से दबे हुए युधिष्ठिर को देखकर भीमसेन गदा लेकर युद्ध में पैदल ही राजा जयद्रथ पर टूट पड़े। इस प्रकार सहसा हाथ में गदा लिये भीमसेन को वेगपूर्वक आते देख जयद्रथ ने यमदण्ड के समान भयंकर पांच सौ तीखे बाणों द्वारा सब ओर से उन्हें घायल कर दिया। वेगशाली भीमसेन उसके बाणों की कोई परवा न करते हुए मन-ही-मन क्रोध से जल उठे। तत्पश्चात उन्होंने समरभूमि में सिन्धुराज के कबूतर के समान रंग वाले घोड़ों को मार ढाला। यह देखकर आपका अनुपम प्रभावशाली पुत्र देवराज सदृश दुर्योधन भीमसेन को मारने के लिये हथियार उठाये बड़ी उतावली के साथ रथ के द्वारा वहाँ आ पहुँचा। तब भीमसेन भी सहसा सिंहनाद करके गदा द्वारा गर्जन-तर्जन करते हुए जयद्रथ की ओर बढे़।
घोड़ों के मारे जाने पर जयद्रथ उस रथ को छोड़कर जहाँ शकुनि, सेवक वृन्द तथा छोटे भाइयों सहित कुरुराज दुर्योधन था, वहीं चला गया। भीमसेन को देखकर जयद्रथ का मन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। वह भय से पीड़ित हो रहा था। भीमसेन भी शकुनि और भाइयों सहित आपके पुत्र दुर्योधन को देखकर रोष में भर गये और सहसा गर्जना करके गदा द्वारा जयद्रथ को मार डालने की इच्छा से आगे बढे़। यमदण्ड के समान भयंकर उस गदा को उठी हुई देख समस्त कौरव आपके पुत्र को वहीं छोड़कर गदा के उग्र आघात से बचने के लिये चारों ओर भाग गये। भारत! मोह में डालने वाले उस अत्यन्त दारुण एवं भयंकर जनसंहार में उस महागदा को आती देख केवल चित्रसेन का चित्त किंकर्तव्य-विमूढ़ नहीं हुआ था। राजन! वह अपने रथ को छोड़कर हाथ में बहुत बड़ी ढाल और तलवार ले पर्वत के शिखर से सिंह की भाँति कूद पड़ा और पैदल ही विचरता हुआ युद्धस्थल के दूसरे प्रदेश में चला गया। वह गदा भी चित्रसेन के विचित्र रथ पर पहुँचकर उसे घोडे़ और सारथि सहित चूर-चूर करके आकाश में टूटकर पृथ्वी पर गिरने वाली जलती हुई विशाल उल्का के समान रणभूमि में जा गिरी। भारत! इस समय आपके समस्त सैनिक चित्रसेन का वह महान आश्चर्यमय कार्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए। वे सभी सब ओर से एक साथ आपके पुत्रों के शौर्य की प्रशंसा और गर्जना करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में सातवें दिन के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला पचासीवां अध्याय पूरा हुआ)
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