सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के एक सौ सोलहवें अध्याय से एक सौ उन्नीसवें अध्याय तक (From the 116 chapter to the 119 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ सौलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-पाण्डव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन तथा भीष्म का पराक्रम”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! भीष्म जी को पराजित करने के लिए पराक्रमी अभिमन्यु ने विशाल सेनासहित आये हुए आपके पुत्र के साथ युद्ध आरम्भ किया। दुर्योधन ने रणक्षेत्र में झुकी हुई गांठ वाले नौ बाणों से अभिमन्यु की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। फिर कुपित होकर उसने उन्हें तीन बाण और मारे। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अभिमन्यु ने रणक्षेत्र में दुर्योधन के रथ पर एक भयंकर शक्ति चलायी, जो मृत्यु की बहिन-सी प्रतीत होती थी। प्रजानाथ! उस भयंकर शक्ति का सहसा अपनी ओर आती देख आपके महारथी पुत्र दुर्योधन ने एक क्षुरप्र के द्वारा उसके दो टुकड़े कर डाले। उस शक्ति को गिरी हुई देख अत्यन्त क्रोध में भरे हुए अर्जुनकुमार ने दुर्योधन की छाती तथा भुजाओं में चोट पहुँचायी। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर भरतकुल के महारथी वीर अभिमन्यु ने पुनः दुर्योधन की छाती में दस भयानक बाण मारे। भरतनन्दन! उन दोनों का वह भयंकर युद्ध विचित्र और सम्पूर्ण इन्द्रियों को प्रसन्न करने वाला था। समस्त भूपाल उस युद्ध की प्रशंसा करते थे। भीष्म के वध और अर्जुन की विजय के लिये उस युद्ध के मैदान में सुभद्राकुमार अभिमन्यु और कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन ये दोनों वीर युद्ध कर रहे थे।

      दूसरी ओर शत्रुओं को संताप देने वाले ब्राह्मण शिरोमणि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने कुपित हो युद्ध में अत्यन्त वेगशाली सात्यकि को लक्ष्य करके उनकी छाती में एक नाराच से प्रहार किया। भारत! तब अनन्त आत्मबल से सम्पन्‍न सात्यकि ने भी गुरुपुत्र अश्वत्थामा के सम्पूर्ण मर्मस्थानों में नौ कंकपत्रयुक्त बाण मारे। अश्वत्थामा ने समरभूमि में सात्यकि को पहले नौ बाणों से घायल करके फिर तुरंत ही तीस बाणों द्वारा उनकी भुजाओं तथा छाती में गहरी चोट पहुँचायी। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अत्यन्त घायल होकर महायशस्वी महाधनुर्धर सात्यकि ने तीन बाणों से उसे घायल कर दिया। महारथी पौरव ने युद्ध में महाधनुर्धर धृष्टकेतु को बाणों द्वारा आच्छादित करके उन्हें बारम्‍बार घायल किया। उसी प्रकार महारथी महाबाहु धृष्टकेतु ने युद्ध स्थल में तीस पैने बाणों द्वारा पौरवों को भी तुरंत ही घायल कर दिया। तब महारथी पौरव ने धृष्टकेतु के धनुष को काटकर बड़े जोर से सिंहनाद किया और उसे तीखे बाणों से बींध डाला। महाराज! धृष्टकेतु ने दूसरा धनुष लेकर तिहत्तर तीखे शिलीमुख बाणों द्वारा पौरव को गहरी चोट पहुँचायी। वे दोनों महाधनुर्धर, महाबली और महारथी वीर एक दूसरे को युद्ध में भारी बाण वर्षा द्वारा घायल कर रहे थे।

      भारत! दोनों ने एक दूसरे का धनुष काटकर घोड़ों को भी मार डाला और रथहीन हो दोनों ही एक दूसरे पर कुपित हो परस्पर खंग युद्ध के लिये आमने-सामने आये। उनके हाथों में सौ-सौ चन्द्र और तारका के चिह्नों से युक्त ऋषभ के चर्म की बनी हुई ढालें और चमकीले खंग शोभा पाते थे। राजन्! जैसे महान वन में एक सिंहनी के लिए दो सिंह लड़ते हों, उसी प्रकार चमकीले खंग लेकर धृष्टकेतु और पौरव दोनों विजय के लिये प्रयत्नशील हो एक दूसरे पर टूट पड़े। वे आगे बढ़ने और पीछे हटने आदि विचित्र पैंतरे दिखाते एवं एक दूसरे को ललकारते हुए रणभूमि में विचरते थे। पौरव ने अपने महान खंग से धृष्टकेतु की कनपटी पर क्रोधपूर्वक प्रहार किया और कहा,

पौरव ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

     तब चेदिराज धृष्टकेतु ने भी समर में पुरुष रत्न पौरव के गले की हंसली पर तीखी धार वाले महान खंग से गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर उस महायुद्ध में परस्पर भिड़कर एक दूसरे के वेगपूर्वक किये हुए आघात से अत्यन्त घायल हो पृथ्वी पर गिर पड़े। तब आपके पुत्र जयत्सेन ने पौरव को अपने रथ पर बिठा लिया औैर उस रथ के द्वारा ही वह उसे समरांगण से बाहर हटा ले गया। इसी प्रकार प्रतापी एवं पराक्रमी माद्रीकुमार सहदेव कुपित हो धृष्टकेतु को अपने रथ पर चढ़ाकर समरभूमि से बाहर हटा ले गये। चित्रसेन ने पाण्डव दल के सुशर्मा नामक राजा को लोहे के बने हुए बहुत से बाणों द्वारा उन्हें पीड़ित कर दिया। प्रजानाथ! तब सुशर्मा ने रणभूमि में कुपित होकर आपके पुत्र चित्रसेन को दस-दस तीखे बाणों द्वारा दो बार घायल किया। राजन! चित्रसेन ने कुपित हो झुकी हुई गांठ वाले तीस बाणों से रणक्षेत्र में सुशर्मा को गहरी चोट पहुँचायी। महाराज्! उसने समर में भीष्म के यश और सम्मान दोनों को बढ़ाया।

      राजन! भीष्मजी के साथ युद्ध करने में अर्जुन की सहायता के लिये पराक्रम करने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने राजकुमार बृहद्बल के साथ युद्ध किया। कोसलनरेश ने लोहे के बने हुए पांच बाणों से अर्जुनकुमार को घायल करके पुन: झुकी हुई गांठ वाले बीस बाणों द्वारा उन्हें क्षत-विक्षत कर दिया। तब सुभद्राकुमार ने कोसल नरेश को लोहे के आठ बाणों से बींध डाला तो भी संग्राम में उसे विचलित न कर सका। इसके बाद उसने फिर अनेक बाणों द्वारा बृहद्बल को घायल कर दिया। तदनन्तर अर्जुनकुमार ने कोसल नरेश का धनुष भी काट दिया और कंकपत्रयुक्त तीस सायकों द्वारा उन पर गहरा प्रहार किया। तब राजकुमार बृहद्बल ने दूसरा धनुष लेकर समर भूमि में कुपित हो अर्जुनकुमार अभिमन्यु को बहुतेरे बाणों द्वारा बींध डाला।

      परंतप! महाराज! इस प्रकार समरांगण में क्रोधपूर्वक विचित्र युद्ध करने वाले उन दोनों वीरों में भीष्म के लिये बड़ा भारी युद्ध हुआ, मानो देवासुर संग्राम में राजा बलि और इन्द्र में द्वन्द्व युद्ध हो रहा हो। तथा जैसे वज्रधारी इन्द्र बड़े-बड़े पर्वतों को विदीर्ण कर डालते हैं, इसी प्रकार भीमसेन हाथियों की सेना के साथ युद्ध करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। भीमसेन के द्वारा मारे जाते हुए वे पर्वत सरीखे बहुसंख्यक गजराज (अपने चीत्कार से) इस पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए एक साथ ही धराशायी हो जाते थे। कटे हुए कोयले की राशि के समान काले और गिरिराज के समान ऊँचे शरीर वाले वे हाथी पृथ्वी पर गिरकर इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतों के समान शोभा पाते थे। महाधनुर्धर युधिष्ठिर ने विशाल सेना से सुरक्षित मद्रराज शल्य को उस युद्ध में सामने पाकर बाणों द्वारा अत्यन्त पीड़ित कर दिया। भीष्म की रक्षा के लिये पराक्रम करने वाले मद्रराज शल्य ने भी युद्ध में कुपित हो महारथी धर्मराज युधिष्ठिर को पीड़ित किया। सिन्धुराज जयद्रथ ने झुकी हुई गांठ वाले नौ तीखे सायकों द्वारा राजा विराट को घायल करके पुनः उन्हें तीस बाण मारे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-64 का हिन्दी अनुवाद)

     महाराज! सेनापति विराट ने भी सिन्धुराज जयद्रथ की छाती में तीस तीखे बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उस संग्राम में मत्स्यराज और सिन्धुराज दोनों के ही धनुष और खंग विचित्र थे। वे दोनों ही विचित्र रूप धारण करके बड़ी शोभा पा रहे थे। द्रोणाचार्य ने उस महासमर में पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न से भिड़कर झुकी हुई गांठ वाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा बड़ा भारी युद्ध किया। महाराज! तत्पश्चात द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न के विशाल धनुष को काटकर पचास बाणों द्वारा उन्हें बींध डाला। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले धृष्टद्युम्न ने दूसरा धनुष लेकर रणभूमि में द्रोणाचार्य के देखते-देखते उनके ऊपर बहुत से बाण चलाये। तदनन्तर महारथी द्रोण ने अपने बाणों के आघात से धृष्टद्युम्न के सारे बाणों को काट दिया और द्रुपदपुत्र पर पांच बाण चलाये। महाराज! तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले धृष्टद्युम्न ने कुपित हो द्रोणाचार्य पर गदा चलायी, जो रणभूमि में यमदण्ड के समान भयंकर थी। उस स्वर्णपत्रविभूषित गदा को सहसा अपनी ओर आती देख द्रोणाचार्य ने युद्ध स्थल में पचासों बाण मारकर उसे दूर गिरा दिया।

     राजन! द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए उन बाणों द्वारा नाना प्रकार से छिन्न-भिन्न हुई वह गदा चूर-चूर होकर पृथ्वी पर बिखर गयी। अपनी गदा को निष्फल हुई देख शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न ने द्रोण के ऊपर पूर्णतः लोहे की बनी हुई सुन्दर शक्ति चलायी। भरत! द्रोणाचार्य ने युद्ध स्थल में नौ बाण मारकर उस शक्ति के टुकडे़-टुकडे़ कर दिये और महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न को भी उस रणक्षेत्र में बहुत पीड़ित किया। महाराज! इस प्रकार द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में भीष्म के लिये यह घोररूप एवं भयानक महायुद्ध हुआ। अर्जुन ने गंगानन्दन भीष्म के निकट पहुँच कर उन्हें तीखे बाणों द्वारा पीड़ित करते हुए बड़ी सावधानी के साथ उन पर चढ़ाई की। ठीक वैसे ही, जैसे वन में कोई मतवाला हाथी किसी मदोन्मत्त गजराज पर आक्रमण कर रहा हो। तब प्रतापी एवं महाबली राजा भगदत्त ने मदान्ध गजराज पर आरूढ़ हो अर्जुन के ऊपर धावा किया उस हाथी के कुम्भस्थल में तीन जगह से मद की धारा चू रही थी।

      देवराज इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान उस गजराज को सहसा आते देख अर्जुन ने बड़ा यत्न करके उसका सामना किया। तब हाथी पर बैठे हुए प्रतापी राजा भगदत्त ने युद्ध में बाणों की वर्षा करके अर्जुन को आगे बढ़ने से रोक दिया। अर्जुन ने भी अपने सामने आते हुए उस हाथी को चांदी के समान चमकीले लोहमय तीखे बाणों द्वारा उस महासमर में बींध डाला। महाराज! कुन्तीकुमार अर्जुन शिखण्डी को बार-बार यह प्रेरणा देते और कहते थे कि तुम भीष्म की ओर बढ़ो और इन्हें मार डालो। पाण्डु के ज्येष्ठ भ्राता महाराज! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश भगदत्त पाण्डुनन्दन अर्जुन को छोड़कर तुरंत ही द्रुपद के रथ की ओर चल दिये। महाराज! तब अर्जुन ने शिखण्डी को आगे करके बड़े वेग से भीष्म पर धावा किया। फिर तो भारी युद्ध छिड़ गया। तदनन्तर युद्ध में आपके शूरवीर सैनिक कोलाहल करते और ललकारते हुए वेगशाली पाण्डुकुमार अर्जुन की ओर दौड़ पड़े। वह एक अदभुत सी बात थी। जनेश्‍वर! जैसे आकाश में फैले हुए बादलों को हवा छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन ने उस अवसर पर आपके पुत्रों की विविध सेनाओं को विनष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 65-80 का हिन्दी अनुवाद)

    उसी समय शिखण्डी ने भरतकुल के पितामह भीष्म के सामने पहुँचकर स्वस्थचित्त से अनेक बाणों द्वारा तुरंत ही उन्हें आच्छादित कर दिया। वे अग्नि के समान प्रज्वलित हो समर भूमि में क्षत्रियों को दग्ध कर रहे थे। रथ ही अग्निशाला थी, धनुष लपट के समान प्रतीत होता था, खंग, शक्ति और गदाएं ईधन का काम दे रहीं थीं, बाणों का समुदाय ही उस अग्नि की महाज्वाला थी। जैसे प्रज्वलित अग्नि वायु का सहारा पाकर घास-फूंस के जंगल में विचरती है, इसी प्रकार दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हुए भीष्म जी भी शत्रु सेना में प्रज्वलित हो रहे थे। भीष्म ने युद्ध में अर्जुन का अनुसरण करने वाले सोमकवंशियों को भी बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। साथ ही उन महारथी वीर ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सेना को भी आगे बढ़ने से रोक दिया। झुकी हुई गांठ वाले, सुवर्ण पंखयुक्त तीखे बाणों द्वारा शत्रुओं को मारकर भीष्म उस महायुद्ध में सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं को भी शब्दायमान करने लगे।

     राजन! रथियों को गिराकर और सवारों सहित घोड़ों को मारकर उन्होंने रथों के समुदाय को मुण्डित ताड़वन के समान कर दिया। नरेश्‍वर! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म ने उस समरांगण में रथों, हाथियों और घोड़ों को मनुष्यों से शून्य कर दिया। राजन! वज्र की गड़गड़ाहट के समान उनके धनुष की प्रत्यन्चा की टंकार ध्वनि सुनकर सब ओर के सैनिक कांपने लगे। मनुजेश्‍वर! आपके ताऊ द्वारा चलाये हुए बाण कभी भी खाली नहीं जाते थे। भीष्म के धनुष से छूटे हुए सायक मनुष्यों के शरीरों में नहीं अटकते थे। प्रजानाथ! हमने तेज घोड़ों से जुते हुए बहुत से ऐसे रथ देखे, जिनमें कोई मनुष्‍य नहीं था और वे रथ वायु के समान शीघ्र गति से इधर-उधर खींचकर ले जाये जा रहे थे। वहाँ चेदि, काशि और करूष देशों के चौदह हजार महारथी मौजूद थे, जिनकी बड़ी ख्याति थी, जो कुलीन होने के साथ ही पाण्‍डवों के लिये प्राणों का परित्याग करने को उद्यत थे।

     वे युद्ध से पीठ न दिखाने वाले, शौर्य सम्पन्न तथा सुवर्णमय ध्वज धारण करने वाले थे। वे सब के सब युद्ध में मुंह फैलाये हुए काल के समान भीष्‍म के पास पहुँचकर घोड़े, रथ और हाथियों सहित परलोक पथिक हो गये। राजन! उस समय सोमकों में एक भी महारथी ऐसा नहीं था, युद्धभूमि में भीष्म के पास पहुँचकर अपने मन में जीवन रक्षा की आशा रखता हो। उस समय लोगों ने भीष्म का अदभुत पराक्रम देखकर यह मान लिया कि युद्ध के मैदान में जितने योद्धा उपस्थित हैं, वे सब यमराज के लोक में गये हुए के ही समान हैं। उस समय श्रीकृष्ण जिनके सारथी थे और श्वेत घोडे़ जिनके रथ में जुते हुए थे, उन पाण्डुनन्दन वीर अर्जुन को तथा अमित तेजस्‍वी पांचालराज पुत्र शिखण्‍डी को छोड़कर दूसरा कोई महारथी ऐसा नहीं था, जो समरांगण में भीष्म के सामने जाने का साहस करता।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में संकुरुयुद्धविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध, दुःशासन का पराक्रम तथा अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्‍छित होना”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! शिखण्डी ने रणक्षेत्र में पुरुष रत्न भीष्म के सामने पहुँचकर उनकी छाती में दस तीखे भल्ल नामक बाण मारे। भारत! गंगानन्दन भीष्म ने क्रोध से प्रज्वलित हुई दृष्टि एवं कनखियों से शिखण्डी की ओर इस प्रकार देखा, मानो वे उसे भस्म कर डालेंगे। राजन! किंतु उसके स्त्रीत्व का विचार करके भीष्म जी ने युद्ध स्थल में उस पर कोई आघात नहीं किया। इस बात को सब लोगों ने देखा, पर शिखण्डी इस बात को नहीं समझा सका। महाराज! उस समय अर्जुन ने शिखण्डी से कहा,

    अर्जुन ने कहा ;- 'वीर! तुम झटपट आगे बढ़ो और इन पितामह भीष्म का वध कर डालो। वीर! उस विषय में बार-बार विचारने या संदेह निवारण के लिये कुछ कहने की आवश्‍यकता नहीं है। तुम महारथी भीष्म को शीघ्र मार डालो। युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो समरभूमि में भीष्म का सामना कर सके। पुरुषसिंह! मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ।'

     भरतश्रेष्ठ! अर्जुन के ऐसा कहने पर शिखण्डी तुरंत ही पितामह भीष्म पर नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करने लगा। परंतु आपके पितृतुल्य देवव्रत ने उन बाणों की कुछ भी परवाह न करके समर में कुपित हुए अर्जुन को अपने बाणों द्वारा रोक दिया। आर्य! इसी प्रकार महारथी भीष्म ने पाण्डवों की उस सारी सेना को (जो उनके सामने मौजूद थी) अपने तीखें बाणों द्वारा मारकर परलोक भेज दिया। राजन! फिर विशाल सेना से घिरे हुए पाण्डवों ने अपने बाणों द्वारा भीष्म को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे बादल सूर्यदेव को आच्छादित कर देते हैं। भरतभूषण! उस रणक्षेत्र में सब ओर से घिरे हुए भीष्म वन में प्रज्वलित हुए दावानल के समान शूरवीरों को दग्ध करने लगे। उस समय वहाँ हमने आपके पुत्र दुःशासन अद्भुत पराक्रम देखा। एक तो वह अर्जुन के साथ युद्ध कर रहा था और दूसरे पितामह भीष्म की रक्षा में भी तत्पर था। राजन! युद्ध में आपके धनुर्धर महामनस्वी पुत्र दुःशासन के उस पराक्रम से सब लोग बड़े संतुष्ट हुए। वह समर भूमि में अकेला ही अर्जुन सहित समस्त कुन्तीकुमारों से युद्ध कर रहा था। किन्‍तु वहाँ पाण्डव उस प्रचण्ड पराक्रमी दुःशासन को रोक नहीं पाते थे।

     दुःशासन ने वहाँ युद्ध के मैदान में कितने ही रथियों को रथहीन कर दिया। उसके तीखे बाणों से विदीर्ण होकर बहुत से महाधनुर्धर घुड़सवार और महाबली गजारोही पृथ्वी पर गिर पड़े उसके बाणों से आतुर होकर बहुत से दन्तार हाथी भी चारों दिशाओं में भागने लगे। जैसे आग ईधन पाकर दहकती हुई लपटों के साथ प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार पाण्डव सेना को दग्ध करता हुआ आपका पुत्र दुःशासन अपने तेज से प्रज्वलित हो रहा था। कृष्णसारथी श्वेतवाहन महेन्द्रकुमार अर्जुन को छोड़कर दूसरा कोई भी पाण्डव महारथी भरतकुल के उस महाबली वीर को जीतने या उसके सामने जाने का साहस किसी प्रकार न कर सका। राजन! विजयी अर्जुन ने समर भूमि में दुःशासन को जीतकर समस्त सेनाओं के देखते-देखते भीष्म पर ही आक्रमण किया। भीष्म की भुजाओं के आश्रय में रहने वाला आपका मदोन्मत्त पुत्र दुःशासन पराजित होने पर भी बार-बार सुस्ता कर बड़े वेग से युद्ध करता था। राजन! अर्जुन उस रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)

      महाराज! उस समय रणक्षेत्र में शिखण्डी वज्र के समान स्पर्श वाले तथा सर्पविष के समान भयंकर बाणों द्वारा पितामह भीष्म को घायल करने लगा। परंतु जनेश्वर! उसके चलाये हुए वे बाण आपके ताऊ के शरीर में कोई घाव या वेदना नहीं उत्पन्न कर पाते थे। गंगानन्दन भीष्म उस समय मुस्कराते हुए उन बाणों की चोट सह रहे थे। जैसे गर्मी से कष्ट पाने वाला मनुष्य अपने ऊपर जल की धारा ग्रहण करता है, उसी प्रकार गंगानन्दन भीष्म शिखण्डी की बाण धारा को ग्रहण कर रहे थे। महाराज! उस युद्ध स्थल में समस्त क्षत्रियों ने देखा, भयंकर रूपधारी भीष्म महामना पाण्डवों की सेनाओं को दग्ध कर रहे थे। आर्य! उस समय आपके पुत्र ने अपने समस्त सैनिकों से कहा- ‘वीरों! तुम लोग समरभूमि में अर्जुन पर चारों ओर से धावा करो। धर्मज्ञ भीष्म समरागंण में तुम सब लोगों की रक्षा करेंगे। अतः तुम लोग महान! भय का परित्याग करके पाण्डवों के साथ युद्ध करो। सुवर्णमय तालचिह्न से युक्त विशाल ध्वज से सुशोभित होने वाले भीष्म जी हम सबकी रक्षा करते हुए युद्ध के मैदान में खड़े हैं।

      हम सभी धृतराष्ट्रपुत्रों के ये लिये ही कल्याणकारी आश्रय और कवच हैं। यदि सम्पूर्ण देवता भी एकत्र हो युद्ध के लिये उद्योग करें तो वे भी भीष्म का सामना करने में समर्थ नहीं हो सकते, फिर कुन्ती के महाबली पुत्र तो मरणधर्मा मनुष्य ही हैं। वे उन महात्मा भीष्म का सामना क्या कर सकते हैं? अतः योद्धाओ! युद्धभूमि में अर्जुन को सामने पाकर पीछे न भागो। मैं स्वयं समरागंण में प्रयत्नपूर्वक आज पाण्डुकुमार अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। तुम सब नरेश सब ओर से सावधान होकर मेरे साथ रहो।' राजन! आपके धनुर्धर पुत्र की ये जोशभरी बातें सुनकर वे सभी महाबली और शक्तिशाली योद्धारोष में भर गये। ये विदेह, कलिंग, दासेरक, निषाद (जाति), सौवीर, बाह्लीक, दरद, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, अभीषाह, शूरसेन, शिबि, वसाति, शाल्व, शक, त्रिगर्त, अम्बष्ठ (जाति) और केकय देशों के नरेशगण उस महायुद्ध में कुन्तीकुमार अर्जुन पर उसी प्रकार धावा करने लगे, जैसे पतंग प्रज्वलित आग पर टूटे पड़ते हैं।

      राजेन्द्र! उस रणक्षेत्र में कुन्तीकुमार अर्जुन अप्रतिम तेजस्वी वीर थे और पूर्वोक्तल नरेश उनके सामने पतंगों के समान दौडे़ चले आ रहे थे। महाराज! महाबली धनंजय ने दिव्यास्त्रों का चिन्तन करके उनका धनुष पर संधान किया और उन महावेगशाली अस्त्रों द्वारा सेना सहित इन समस्त महारथियों को जलाकर भस्म कर डाला। जैसे आग पतंगों को जलाती है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपने बाणों के प्रताप से उन सबको दग्ध कर दिया। सुद्रढ़ धनुष धारण करने वाले अर्जुन जब सहस्रों बाणों की सृष्टि करने लगे, उस समय उनका गाण्डीव धनुष आकाश में प्रज्वलित-सा दिखायी देने लगा। महाराज! वे सब नरेश बाणों से पीड़ित हो गये थे। उनके विशाल ध्वज छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये थे। वे सब राजा एक साथ मिलकर भी कपिध्वज अर्जुन के सामने छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये थे। वे सब राजा एक साथ मिलकर भी कपिध्वज अर्जुन के सामने टिक न सके। किरीटधारी अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो रथी अपने ध्वजों के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़े, घुड़सवार घोड़ों के साथ ही धराशायी हो गये और हाथियों सहित हाथी सवार भी ढह गये। अर्जुन की भुजाओं से छूटे हुए बाणों से एवं अनेक भागों में विभक्त होकर चारों ओर भागती हुई राजाओं की सेनाओं से वहाँ की सारी पृथ्वी व्याप्त हो रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-64 का हिन्दी अनुवाद)

     महाराज! उस समय अर्जुन ने आपकी सेना को भगाकर दुःशासन पर बहुत से सायकों का प्रहार किया। वे समस्त लोह मुखबाण आपके पुत्र दुःशासन को विदीर्ण करके उसी प्रकार धरती में समा गये जैसे सर्प बांबी में प्रवेश करते हैं। तत्पश्चात शक्तिशाली अर्जुन ने दुःशासन के घोड़ों तथा सारथी को भी मार गिराया और विविंशति को भी बीस बाणों से मारकर उसे रथहीन कर दिया। इसके बाद पुन: झुकी हुई गांठ वाले पांच बाणों द्वारा उसे अत्यन्त घायल कर दिया। तदनन्तर श्वेतवाहन कुन्तीकुमार अर्जुन ने कृपाचार्य, विकर्ण तथा शल्य को भी लोहे के बने हुए बहुत से बाणों द्वारा रथहीन कर दिया। माननीय नरेश! इस प्रकार रथहीन हुए वे सब महारथी कृपाचार्य, शल्य, विकर्ण, दुःशासन तथा विविंशति अर्जुन से परास्त हो उस समर भूमि में इधर-उधर भाग गये।

    भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार दसवें दिन के पूर्वाह्ण काल में उन महारथियों को पराजित करके कुन्तीकुमार अर्जुन रणभूमि में धूमरहित अग्नि के समान प्रकाशित होने लगे। महाराज! इसी प्रकार अंशुमाली सूर्य के समान अन्यान्य राजाओं को भी वे अपने बाणों की वर्षा से संतप्त करने लगे और भारत! उन सब महारथियों को बाण वर्षा द्वारा विमुख करके अर्जुन ने संग्राम भूमि में कौरव-पाण्डवों की सेनाओं के बीच रक्त की बहुत बड़ी नदी बहा दी। रथियों द्वारा बहुत-से हाथी तथा रथ समूह नष्ट कर दिये गये। हाथियों ने कितने ही रथ चौपट कर दिये और पैदल सिपाहियों ने सवारों सहित बहुत से घोड़े मार गिराये। हाथी, घोडे़ तथा रथों पर बैठकर युद्ध करने वाले सैनिकों के शरीर और मस्तक बीच-बीच से कटकर सब दिशाओं में गिर रहे थे। राजन! वहाँ गिरे और गिराये जाते हुए कुण्डल और अंगदधारी महारथी राजकुमारों के मृत शरीरों से सारी युद्ध भूमि आच्छादित हो रही थी। उनमें से कितने ही रथों के पहियों से कट गये थे और कितनों ही को हाथियों ने अपनी सूंडों से पकड़कर धरती पर दे मारा था एवं कितने ही पैदल सैनिक तथा अपने अश्वों सहित घुड़सवार योद्धा वहाँ से भाग गये थे। वहाँ सब ओर हाथी तथा रथ योद्धा धराशायी हो रहे थे। पहिये, जूएं और ध्वजों के छिन्न-भिन्न हो जाने से बहुसंख्यक रथ धरती पर बिखरे पड़े थे।

      हाथी, घोडे़ तथा रथियों के समुदाय के रक्त से ढकी और भीगी हुई वह सारी युद्ध भूमि शरद ऋतु की संध्या के लाल बादलों के समान शोभा पा रही थी। कुत्ते, कौए, गीद्ध, भेड़िये तथा गीदड़ आदि विकराल पशु-पक्षी वहाँ अपना आहार पाकर हर्षनाद करने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं में अनेक प्रकार की वायु प्रवाहित हो रही थी। सब ओर राक्षस और भूतगण गरजते दिखायी देते थे। सोने के हार बिखरे पड़े थे, बहुसंख्यक पताकाएं सहसा वायु से प्रेरित होकर फहराती दिखायी देती थी। सहस्रों सफेद छत्र इधर-उधर गिरे थे, ध्वजों सहित सैकड़ों और हजारों महारथी सब ओर बिखरे दिखायी देते थे। बाणों की वेदना से आतुर हो पताकाओं सहित बड़े-बड़े हाथी चारों दिशाओं में चक्कर काट रहे थे। नरेन्द्र! गदा, शक्ति और धनुष धारण किये हुए बहुत-से क्षत्रिय सब ओर पृथ्वी पर पड़े दृष्टिगोचर हो रहे थे। महाराज! तदनन्तर भीष्म ने दिव्य अस्त्र प्रकट करते हुए वहाँ समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते कुन्तीकुमार अर्जुन पर धावा किया। उस समय कवचधारी शिखण्डी ने युद्ध के लिये आगे बढ़ते हुए भीष्म पर आक्रमण किया। शिखण्डी को सामने देख भीष्म ने अपने अग्नि के समान तेजस्वी उस दिव्यास्त्र को समेट लिया। राजन! इसी बीच में मध्यम पाण्डव श्वेतवाहन अर्जुन तुरंत ही पितामह भीष्म को मूर्च्छित करके आपकी सेना का संहार करने लगे।

(इस प्रकार श्री महाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में संकुलयुद्ध विषयक एक सौ सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म का अद्भुत पराक्रम करते हुए पांडव सेना का भीषण संहार”

   संजय कहते हैं ;- भरतनन्दन! दोनों पक्ष की सेनाओं को समान रूप से व्यूहबंद करके खड़ा किया गया था। अधिकांश सैनिक उस व्यूह में ही स्थित थे। वे सब के सब युद्ध में पीठ न दिखाने वाले तथा ब्रह्मलोक को ही अपना परम लक्ष्य मानकर युद्ध में तत्पर रहने वाले थे। परंतु उस घमासान युद्ध में (सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और युद्ध के निश्‍चित नियमों का उल्लघंन होने लगा) सेना, सेना के साथ योग्यतानुसार नहीं लड़ती थी, न रथी रथियों के साथ युद्ध करते थे, न पैदल पैदलों के साथ। घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और हाथी सवार हाथी सवारों के साथ नहीं लड़ते थे। भरतवंशी महाराज! सब लोग उन्मत्त से होकर वहाँ योग्यता का विचार किये बिना सबके साथ युद्ध करते थे। उन दोनों सेनाओं में अत्यन्त भयंकर घोलमेल हो गया। इसी तरह मनुष्य और हाथियों के समूह सब ओर बिखर गये थे। उस महाभयंकर युद्ध में किसी की कोई विशेष पहचान नहीं रह गयी थी। भरत! तदनन्तर शल्य, कृपाचार्य, चित्रसेन, दुःशासन और विकर्ण- ये कौरववीर चमचमाते हुए रथों पर बैठकर पाण्डवों पर चढ़ आये और रणक्षेत्र में उनकी सेना को कंपाने लगे।

    राजन! जैसे वायु के थपेड़े खाकर नौका जल में चक्कर काटने लगती है, उसी प्रकार उन मामनस्वी वीरों द्वारा समरागंण में मारी जाती हुई पांडव सेना बहुधा इधर-उधर भटक रही थी। जैसे शिशिरकाल गोओं के मर्म स्थानों का उच्छेद करने लगता है, उसी प्रकार भीष्म पाण्डवों मर्मस्थानों को विदीर्ण करने लगे। इसी प्रकार महात्मा अर्जुन ने आपकी सेना के नूतन मेघ के समान काले रंगवाले बहुत से हाथी मार गिराये। अर्जुन के द्वारा बहुत से पैदलों के यूथपति मिट्टी में मिलते दिखायी दे रहे थे। नाराचों और बाणों से पीड़ित हुए सहस्रों महान गज घोर आर्तनाद करके पृथ्वी पर गिर रहे थे। मारे गये महामनस्वी वीरों के आमरणभूषित शरीरों और कुण्डल मण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई वह रणभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। महाराज! बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाले उस महायुद्ध में जब एक ओर भीष्म ओर दूसरी ओर पाण्डुनन्दन धनंजय पराक्रम प्रकट कर रहे थे।

     उस समय पितामह भीष्म को महान पराक्रम में प्रवृत देख आपके सभी पुत्र सेनाओं के साथ स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बनाकर युद्ध में मृत्यु चाहते हुए पाण्डवों पर चढ़ आये। राजन! नरेश्वर! शूरवीर पाण्डव भी पुत्रों सहित आपके दिये हुए नाना प्रकार के अनेक क्लेशों का स्मरण करके युद्ध में भय छोड़कर ब्रह्मलोक आने के लिये उत्सुक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके सैनिकों और पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय समर भूमि में पाण्डव सेनापति महारथी धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना से कहा,

    धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘सोमको! तुम सृंजय वीरों को साथ लेकर गंगानन्दन भीष्म पर टूट पड़ो।’ सेनापति की यह बात सुनकर सोमक और सृंजय वीर बाणों की भारी वर्षा से घायल होने पर भी गंगानन्दन भीष्म की ओर दौड़े। राजन! तब आपके पितृतुल्य शान्तनुनन्दन भीष्म बाणों की मार खाकर अमर्ष में भर गये और सृंजयों के साथ युद्ध करने लगे। तात! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान परशुराम जी ने उन यशस्वी भीष्म को शत्रु सेना का विनाश करने वाली जो अस्त्र शिक्षा प्रदान की थी, उसका आश्रय लेकर पाण्डव पक्षीय शत्रुसेना का संहार करते हुए कुरुकुल के वृद्ध पितामह एवं शत्रुवीरों का नाश करने वाले भीष्म नित्य प्रति दस हजार मुख्य योद्धाओं का वध करते आ रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतश्रेष्ठ! उस दसवें दिन के आने पर एकमात्र भीष्म ने युद्ध में मत्स्य और पांचाल देश की सेनाओं के अगणित हाथी, घोड़ों को मारकर सात महारथियों का वध कर डाला। प्रजानाथ! फिर पांच हजार रथियों का वध करके आपके पितृतुल्य भीष्म ने अपने अस्त्र शिक्षाबल से उस महायुद्ध में चौदह हजार पैदल सिपाहियों, एक हजार हाथियों और दस हजार घोड़ों का संहार कर डाला। तदनन्तर समस्त भूमिपालों की सेना का उच्छेद करके राजा विराट के प्रिय भाई शतानीक को मार गिराया। महाराज! शतानीक को रणक्षेत्र में मारकर प्रतापी भीष्म ने भल्ल नामक बाणों द्वारा एक हजार नरेशों को धराशायी कर दिया।   उस रणक्षेत्र में समस्त योद्धा भीष्म के भय से उद्विग्न हो अर्जुन को पुकारने लगे। पाण्डव पक्ष के जो कोई नरेश अर्जुन के साथ गये थे, वे भीष्म के सामने पहुँचते ही यमलोक के पथिक हो गये। इस प्रकार भीष्म ने दसों दिशाओं में सब ओर अपने बाणों का जाल-सा बिछा दिया और कुन्तीकुमारों की सेना को परास्त करके वे सेना के प्रमुख भाग में स्थित हो गये। दसवें दिन यह महान पराक्रम करके हाथ में धनुष लिये वे दोनों सेनाओं के बीच में खडे़ हो गये। राजन! जैसे ग्रीष्म ऋतु में आकाश के मध्य भाग में पहुँचे हुए दोपहर के तपते हुए सूर्य की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उस समय कोई राजा भीष्म की ओर आंख उठाकर देखेने का भी साहस न कर सके।

     भारत! जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र ने संग्राम भूमि में दैत्यों की सेना को संतप्त किया था, उसी प्रकार भीष्‍म जी पाण्डव योद्धाओं को संताप दे रहे थे। उन्हें इस प्रकार पराक्रम करते हुए देख मधु दैत्य को मारने वाले देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘अर्जुन! ये शान्तनुनन्दन भीष्म दोनों सेनाओं के बीच में खड़े हैं। यदि तुम बलपूर्वक इन्हें मार सको तो तुम्हारी विजय हो जायेगी। जहाँ ये इस सेना का संहार कर रहे हैं, वहीं पहुँचकर इन्हें बलपूर्वक स्तम्भित कर दो (जिससे ये आगे या पीछे किसी ओर हट न सके)। विभो! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो भीष्म के बाणों की चोट सह सके। राजन! इस प्रकार भगवान से प्रेरित होकर कपिध्वज अर्जुन ने उसी क्षण अपने बाणों द्वारा ध्वज, रथ और घोड़ों सहित भीष्म को आच्छादित कर दिया। कुरुश्रेष्ठ वीरों में प्रधान भीष्म ने भी अपने बाण समूहों द्वारा अर्जुन के चलाये हुए बाण समुदाय के टुकड़े-टुकड़े कर दिये।

    तत्‍पश्चात उत्तम गांठ और तीखी धार वाले वज्रतुल्य बाणों द्वारा वे पुनः पाण्डव महारथियों का शीघ्रतापूर्वक वध करने लगे। इसी समय पांचालराज द्रुपद, पराक्रमी धृष्टकेतु, पाण्डुनन्दन भीमसेन, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, नकुल-सहदेव, चेकितान, पांच केकय राजकुमार, महाबाहु सात्यकि, सुभद्राकुमार अभिमन्यु, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, शिखण्डी, पराक्रमी कुन्तिभोज, सुशर्मा तथा विराट- ये और दूसरे भी बहुत से महाबली पाण्डव सैनिक भीष्म के बाणों से पीड़ित हो शोक के समुद्र में डूब रहे थे, परंतु अर्जुन ने उन सबका उद्धार कर दिया। तब शिखण्डी अपने उत्तम अस्त्र-शस्त्रों को लेकर बड़े वेग से भीष्म की ही ओर दौड़ा। उस समय किरीटधारी अर्जुन उसकी रक्षा कर रहे थे। तत्‍पश्‍चात युद्ध विभाग के अच्छे ज्ञाता और किसी से भी परास्त न होने वाले अर्जुन ने भीष्म के पीछे चलने वाले समस्त योद्धाओं को मारकर स्वयं भी भीष्‍म पर ही धावा किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 45-54 का हिन्दी अनुवाद)

   इनके साथ सात्यकि, चेकितान, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद, माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव ने भी युद्ध में भीष्म पर ही आक्रमण किया। ये सब-के-सब सुद्रढ़ धनुष धारण करने वाले अर्जुन से सुरक्षित थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र और अभिमन्यु भी महान अस्त्र-शस्त्र लिये उस समरांगण में भीष्म की ही ओर दौड़े। ये सभी वीर सुद्रढ़ धनुष धारण करने वाले और युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले थे। इन्होंने शत्रुओं के बाणों को नष्ट करने वाले सायकों द्वारा भीष्म को बारम्‍बार पीड़ित किया।

   परंतु उदारचेता भीष्म उन श्रेष्ठ राजाओं के छोड़ते हुए समस्त बाण समूहों का नाश करके पाण्डवों की विशाल सेना में घुस गये। वहाँ पितामह भीष्म खेल-सा करते हुए अपने बाणों द्वारा पाण्डव सैनिकों के अस्त्र-शस्त्रों का विनाश करने लगे। परंतु शिखण्डी के स्त्रीत्व का स्मरण करके वे बारम्‍बार मुसकराकर रह जाते थे, उन पर बाण नहीं चलाते थे। महारथी भीष्म ने द्रुपद की सेना के सात रथियों को मार डाला।

     तब एकमात्र भीष्म पर धावा करने वाले मत्स्य, पांचाल और चेदिदेश के योद्धाओं का महान कोलाहल क्षणभर में वहाँ गूंज उठा। परंतप! जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार उन वीरों ने पैदल, घुड़सवार तथा रथियों के समुदाय से एवं बहुसंख्यक बाणों द्वारा भीष्म को आच्छादित कर दिया। उस समय गंगानन्दन भीष्म अकेले युद्ध के मैदान में शत्रुओं को अत्यन्त संतप्त कर रहे थे। तदनन्तर भीष्म तथा उन योद्धाओं में देवासुर-संग्राम के समान भयंकर युद्ध होने लगा। इसी बीच में किरीटधारी अर्जुन शिखण्डी को आगे करके भीष्म के समीप जा पहुँचे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के अन्तर्गत भीष्मपर्व में भीष्मपराक्रम विषयक एक सौ अठारहवां अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव पक्ष के प्रमुख महारथियों द्वारा सुरक्षित होने पर भी अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना, शरशय्या पर स्थित भीष्म के समीप हंसरूपधारी ऋषियों का आगमन एवं उनके कथन से भीष्म का उत्तरायण की प्रतीक्षा करते हुए प्राण धारण करना”

    बसंजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार शिखण्डी को आगे करके सभी पाण्डवों ने समर भूमि में भीष्म को सब ओर से घेरकर बींधना आरम्भ किया। समस्त सृंजय वीर एक साथ संगठित हो भयंकर शतघ्नी, परिघ, फरसे, मुद्गर, मूसल, प्रास, गोफन, स्वर्णमय पंख वाले बाण, शक्ति, तोमर, कम्पन, नाराच, वत्सदन्त और भुशुण्डी आदि अस्त्र-शस्त्रों द्वारा रणभूमि में भीष्म को सब ओर से पीड़ा देने लगे। उस समय बहुसंख्यक योद्धाओं के द्वारा अनेक प्रकार के अस्त्रों से पीड़ित होने के कारण भीष्म का कवच छिन्न-भिन्न हो गया। उनके मर्मस्थान विदीर्ण होने लगे, तो भी उनके मन में व्यथा नहीं हुई। वे शत्रुओं के लिये प्रलयकाल की अग्नि के समान अद्भुत तेज से प्रज्वलित हो उठे।

     धनुष और बाण ही धधकती हुई आग थे। अस्त्रों का प्रसार ही वायु का सहारा था। रथों के पहियों की घरघराहट उस आग की आंच थी। बड़े-बड़े अस्त्रों का प्राकट्य अंगार के समान था। विचित्र चाप ही उस आग की प्रचण्ड ज्वालाओं के समान था। बड़े-बड़े वीर ही ईधन के समान उसमें गिरकर भस्म हो रहे थे। पितामह भीष्म एक ही क्षण में रथ की पंक्ति तोड़कर घेरे से बाहर निकल आते और पुनः राजाओं की सेना के मध्य भाग में प्रवेश करके वहाँ विचरते दिखायी देते थे। प्रजानाथ! तत्‍पश्चात द्रुपद तथा धृष्टकेतु की कुछ भी परवाह नहीं करके वे पाण्डव सेना के भीतर घुस आये। फिर भयंकर शब्द करने वाले, महान वेगशाली, मर्मस्थानों और कवचों को भी विदीर्ण कर देने वाले, तीखे एवं उत्तम बाणों द्वारा उन्होंने सात्यकि, भीमसेन, पाण्डुपुत्र अर्जुन, विराट, द्रुपद तथा उनके पुत्र धृष्टद्युम्न- इन छः महारथियों को अत्यन्त घायल कर दिया।

      तब उन महारथी वीरों ने भीष्म के उन तीखें बाणों का निवारण करके पुनः दस-दस बाणों द्वारा भीष्म को बलपूर्वक पीड़ित किया। महारथी शिखण्डी ने जिन महान बाणों का प्रयोग किया था, वे सब सुवर्णमय पंख से युक्त और शिला पर रगड़कर तेज किये गये थे, तो भी भीष्म जी के शरीर में घाव या पीड़ा नहीं उत्पन्न कर सके। तब किरीटधारी अर्जुन ने कुपित हो शिखण्डी को आगे किये हुये ही भीष्म पर धावा किया और उनके धनुष को काट डाला। भीष्म के धनुष का काटा जाना कौरव महारथियों को सहन नहीं हुआ। द्रोण, कृतवर्मा, सिन्धुराज जयद्रथ, भूरिश्रवा, शल, शल्य और भगदत्त- ये सात महारथि अत्यन्त क्रुद्ध हो किरीटधारी अर्जुन की ओर दौड़े तथा अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन को अत्यन्त क्रोधपूर्वक बाणों से आच्छादित करने लगे। अर्जुन के प्रति आक्रमण करते हुए उन वीरों का सिहंनाद उसी प्रकार सुनायी पड़ा, जैसे प्रलयकाल में अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ने वाले समुद्रों की भीषण गर्जना सुनायी पड़ती है। अर्जुन के रथ के समीप ‘मार डालो, ले आओ, पकड़ लो, बींध डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो’ इस प्रकार भयंकर शब्द गूंजने लगा। भरतश्रेष्ठ! उस भयानक शब्द को सुनकर पाण्डव महारथी अर्जुन की रक्षा के लिये दौड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

     सात्यकि, भीमसेन, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद, राक्षस घटोत्कच और अभिमन्यु- ये सात वीर क्रोध से मूर्च्छित हो तुरंत ही विचित्र धनुष धारण किये वहाँ दौड़े आये। भरतभूषण! उनका वह भयंकर युद्ध देवासुर संग्राम के समान रोंगटे खड़े कर देने वाला था। भीष्‍म जी का धनुष कट गया था। उसी अवस्था में अर्जुन से सुरक्षित शिखण्डी ने दस बाणों से उनके सारथी को भी घायल कर दिया। तत्‍पश्‍चात एक बाण से ध्वज को काट गिराया। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले गंगानन्दन भीष्‍म ने दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर तीखे बाणों से अर्जुन का घायल करना आरम्भ किया। यह देख अर्जुन ने उस धनुष को भी तीन पैने बाणों द्वारा काट डाला। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए शत्रुसंतापी, सव्यसाची पाण्डुनन्दन अर्जुन जो-जो धनुष भीष्‍म लेते, उसी-उसी को काट डालते थे। धनुष कट जाने पर क्रोधपूर्वक अपने मुंह के दोनों कोनों को चाटते हुए भीष्‍म ने बलपूर्वक एक शक्ति हाथ में ली, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाली थी।

     भरतश्रेष्ठ! फिर उसे क्रोधपूर्वक उन्होंने अर्जुन के रथ की ओर चला दिया। प्रज्वलित व्रज के समान उस शक्ति को आती देख पाण्डवों को आनन्दित करने वाले अर्जुन ने अपने हाथ में भल्ल नामक पांच तीखे बाण लिये और कुपित हो उन पांच बाणों द्वारा भीष्म की भुजाओं से प्रेरित हुई उस शक्ति के पांच टुकड़े कर दिये क्रोध में भरे हुए अर्जुन द्वारा काटी हुई वह शक्ति मेघों के समूह से निर्मुक्त होकर गिरी हुई बिजली के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी। अपनी उस शक्ति को छिन्न-भिन्न देख भीष्म जी क्रोध में निमग्न हो गये और शत्रुनगर विजयी उन वीर शिरोमणि रण क्षेत्र में अपनी बुद्धि के द्वारा इस प्रकार विचार किया- ‘यदि महाबली भगवान श्रीकृष्ण उन पाण्डवों की रक्षा न करते तो मैं इन सबको केवल एक धनुष के ही द्वारा मार सकता था। भगवान सम्पूर्ण लोकों के लिये अजेय हैं। ऐसा मेरा विश्‍वास है। इस समय मैं दो कारणों का आश्रय लेकर पाण्डवों से युद्ध नहीं करूंगा। एक तो ये पाण्‍डु की संतान होने के कारण मेरे लिये अबध्य हैं और दूसरे मेरे सामने शिखण्डी आ गया है, जो पहले स्त्री था। पूर्वकाल में जब मैंने माता सत्यवती का विवाह पिताजी के साथ कराया था, उस समय मेरे पिता ने संतुष्ट होकर मुझे दो वर दिये थे। जब तुम्हारी इच्छा होगी, तभी तुम मरोगे तथा युद्ध में कोई भी तुम्हें मार न सकेगा। ऐसी दशा में मुझे स्वेच्छा से ही मृत्यु स्वीकार कर लेनी चाहिए। मैं समझता हूँ कि अब उसका अवसर आ गया है।’

    अमित तेजस्वी भीष्म के इस निश्‍चय को जानकर आकाश में खड़े हुए ऋषियों और वसुओं ने उनसे इस प्रकार कहा,

     ऋषिगण ने कहा ;- ‘तात! तुमने जो निश्‍चय किया है, वह हम लोगों को भी बहुत प्रिय है। महाराज! अब तुम वही करो। युद्ध की ओर से अपनी चित्तवृति हटा लो।' यह बात समाप्त होते ही जल की बूंदों के साथ सुखद, शीतल, सुगन्धित एवं मन के अनुकूल वायु चलने लगी। आर्य! देवताओं की दुन्दुभियां जोर-जोर से बज उठीं। भीष्म के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी। राजन! उस समय उपर्युक्त बातें कहने वाले ऋषियों का शब्द महाबाहु भीष्म तथा मुझको छोड़कर और कोई नहीं सुन सका। मुझे तो महर्षि व्यास के प्रभाव से ही वह बात सुनायी पड़ी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)

    प्रजानाथ! सम्पूर्ण लोकों के प्रिय भीष्म रथ से गिरना चाहते हैं, यह जानकर उस समय सम्पूर्ण देवताओं को भी महान आश्‍चर्य हुआ। देवताओं की वह बात सुनकर महातपस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म समस्त आवरणों का भेदन करने वाले तीखे बाणों द्वारा विदीर्ण होने पर भी अर्जुन को जीतने का प्रयत्न न कर सके। महाराज! उस समय शिखण्डी ने कुपित होकर भरतवंशियों के पितामह भीष्म जी की छाती में नौ पैने बाण मारे। नरेश्‍वर! युद्ध में शिखण्डी के द्वारा आहत होकर भी कुरुवंशियों के पितामह भीष्म उसी प्रकार कम्पित नहीं हुए, जैसे भूकम्प होने पर भी पर्वत नहीं हिलता। तदनन्तर अर्जुन ने हंसकर गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए गंगानन्दन भीष्म को पच्चीस बाण मारे। तत्‍पश्‍चात पुनः उन्होंने अत्यन्त कुपित हो शीघ्रतापूर्वक सौ बाणों द्वारा भीष्म के सम्पूर्ण अंगों और सभी मर्म स्थानों में आघात किया। इसी प्रकार दूसरे लोगों ने भी सहस्रों बाणों द्वारा भीष्म जी को घायल किया। तब महारथी भीष्म ने भी तुरंत ही अपने बाणों द्वारा उन सबको बींध डाला। सत्य पराक्रमी भीष्म युद्ध स्थल में अन्य सब राजाओं द्वारा छोड़े हुए बाणों का झुकी हुई गांठ वाले अपने बाणों द्वारा तुरंत ही निवारण कर देते थे।

     महारथी शिखण्डी ने रणक्षेत्र में जिनका प्रयोग किया था, वे शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखयुक्त बाण भीष्म जी के शरीर में कोई घाव या पीड़ा नहीं उत्पन्न कर सके। तत्‍पश्‍चात क्रोध में भरे हुए अर्जुन शिखण्डी को आगे रखकर पुनः भीष्म की ही ओर बढ़े। उन्होंने भीष्म जी के धनुष को काट डाला। तदनन्तर नौ बाणों से उन्हें घायल करके एक बाण से उनके ध्वज को भी काट डाला। फिर दस बाणों द्वारा उनके सारथी को कम्पित कर दिया। तब गंगानन्दन भीष्म ने दूसरा अत्यन्त प्रबल धनुष हाथ में लिया, परंतु अर्जुन ने तीन तीखे भल्लों द्वारा मार कर उसे भी तीन जगह से खण्डित कर दिया। उस महायुद्ध में भीष्म जो-जो धनुष हाथ में लेते थे कुन्तीकुमार अर्जुन उसे आधे निमेष में काट डालते थे। इस प्रकार उन्होंने रणक्षेत्र में उनके बहुत से धनुष खण्डित कर दिये। तब शान्तनुनन्दन भीष्म ने अर्जुन पर हाथ उठाना बंद कर दिया। फिर भी अर्जुन ने उन्हें पच्चीस बाण मारे।

     इस प्रकार अत्यन्त घायल होने पर महाधनुर्धर भीष्म ने दुःशासन से कहा,

भीष्मपितामह ने कहा ;- ‘ये पाण्डव महारथी अर्जुन युद्ध में क्रुद्ध होकर अनेक सहस्र बाणों द्वारा मुझे घायल कर चुके हैं। इन्हें वज्रधारी इन्द्र भी युद्ध में जीत नहीं सकते। इसी प्रकार समस्त देवता, दानव तथा राक्षस वीर एक साथ आ जायें तो मुझे भी वे युद्ध में परास्त नहीं कर सकते, फिर दूसरे मानव महारथियों की तो बात ही क्या है।' इस प्रकार दुःशासन और भीष्म में जब बातचीत हो रही थी, उसी समय अर्जुन ने अपने तीखे बाणों द्वारा युद्ध स्थल में शिखण्डी को आगे करके भीष्म को क्षत-विक्षत कर दिया। तब वे पुनः दुःशासन से मुस्‍कराते हुए से बोले,

भीष्म जी बोले ;- ‘गाण्डीवधारी अर्जुन ने युद्ध स्थल में ऐसे बाण छोड़े हैं, जिनका स्पर्श वज्र और विद्युत के समान असह्य है। उनके तीखे बाणों से मैं अत्यन्त घायल हो गया हूँ। ये अविच्छिन्‍न रूप से छूने वाले समस्त बाण शिखण्डी के नहीं हो सकते। क्योंकि ये मेरे सुद्रढ़ कवच को छेदकर मर्मस्थानों में आघात कर रहे थे, ये बाण मेरे शरीर पर मुसल के समान चोट करते हैं। इनका स्पर्श वज्र और यमदण्ड के समान असह्य है। इनका वेग वज्र के समान होने के कारण निवारण करना कठिन है। ये शिखण्डी के बाण कदापि नहीं हो सकते।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 61-83 का हिन्दी अनुवाद)

‘ये मेरे प्राणों में व्यथा उत्पन्न कर देते हैं। अहितकारी यमदूतों के समान मेरे प्राणों का विनाश सा कर रहे हैं। ये शिखण्डी के बाण कदापि नहीं हो सकते। इनका स्पर्श गदा और परिघ की चोट के समान प्रतीत होता है, ये क्रोध में भरे हुए प्रचण्ड विष वाले सर्पों के समान डस लेते हैं। ये शिखण्डी के बाण नहीं हैं। ये बाण मेरे मर्म स्थानों में प्रवेश कर रहे हैं, अतः शिखण्डी के नहीं हैं। ये अर्जुन के बाण हैं। ये शिखण्डी के बाण नहीं हैं। जैसे केंकड़ी के बच्चे अपनी माता का उदर विदीर्ण करके बाहर निकलते हैं, उसी प्रकार ये बाण मेरे सम्पूर्ण अंगों को छेदे डालते हैं। गाण्डीवधारी वीर कपिध्वज अर्जुन को छोड़कर अन्य सभी नरेश अपने प्रहारों द्वारा मुझे इतनी पीड़ा नहीं दे सकते।'

     भारत! ऐसा कहते हुए शान्तनुनन्दन भीष्म ने पाण्डवों की ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें भस्म कर डालेंगे। फिर उन्होंने अर्जुन पर एक शक्ति चलायी, परंतु अर्जुन ने तीन बाणों द्वारा उनकी उस शक्ति को तीन जगह से काट गिराया। भरतनन्दन! समस्त कौरवों वीरों के देखते-देखते गंगानन्दन भीष्म ने मृत्यु अथवा विजय इन दोनों में से किसी एक का वरण करने के लिये अपने हाथ में सुवर्णभूषित ढाल और तलवार ले ली। परंतु वे अभी अपने रथ से उतर भी नहीं पाये थे कि अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा उनकी ढाल के सौ टुकडे़ कर दिये, यह एक अद्भुत सी बात हुई।

    इसी समय राजा युधिष्ठिर ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी,

युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘वीरो! गंगानन्दन भीष्म पर आक्रमण करो। उनकी ओर से तुम्हारे मन में तनिक भी भय नहीं होना चाहिये।' तदनन्तर वे पाण्डव सैनिक सब ओर से तोमर, प्रास, बाणसमुदाय, पट्टिश, खंग, तीखें नाराच, वत्सदन्त तथा भल्लों का प्रहार करते हुए एकमात्र भीष्म की ओर दौड़े। तदनन्तर पाण्डवों की सेना में घोर सिंहनाद हुआ। इसी प्रकार भीष्म की विजय चाहने वाले आपके पुत्र भी उस समय गर्जना करने लगे। आपके सैनिक एकमात्र भीष्म की रक्षा और सिंहनाद करने लगे। वहाँ आपके योद्धाओं का शत्रुओं के साथ भयंकर युद्ध हुआ। राजेन्द! दसवें दिन भीष्म और अर्जुन के संघर्ष में दो घड़ी तक ऐसा दृश्य दिखायी दिया, मानो समुद्र में गंगा जी के गिरते समय उनके जल में भारी भंवर उठ रही हों। उस समय एक दूसरे को मारने वाले युद्ध परायण सैनिकों के रक्त से रंजित हो वहाँ की सारी पृथ्वी भयानक हो गयी थी। यहाँ ऊंची और नीची भूमि का भी कुछ ज्ञान नहीं हो पाता था, दसवें दिन के उस युद्ध में अपने मर्मस्थानों के विदीर्ण होते रहने पर भी भीष्म जी दस हजार योद्धाओं को मारकर वहाँ खड़े हुए थे।

     उस समय सेना के अग्रभाग में खड़े हुए धनुर्धर अर्जुन ने कौरव सेना के भीतर प्रवेश करके आपके सैनिकों को खदेड़ना आरम्भ किया। पाण्डवों तथा अन्य राजाओं ने वज्र के समान बाणों द्वारा आपकी सेनाओं को बलपूर्वक पीड़ित किया। वहाँ हमने पाण्डवों का यह अदभुत पराक्रम देखा कि उन्होंने अपने बाणों की वर्षा से भीष्म का अनुगमन करने वाले समस्त योद्धाओं को मार भगाया। राजन! उस समय श्‍वेतवाहन कुन्तीपुत्र धनंजय से डरकर उनके तीखे अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित हो हम सभी लोग रणभूमि से भागने लगे थे। सौवीर, कितव, प्राच्य, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, अभीषाह, शूरसेन, शिबि, वसाति, शाल्वाश्रय, त्रिगर्त, अम्बष्ठ और केकय- इन सभी देशों के ये सारे महामनस्वी वीर बाणों से घायल और घावों से पीड़ित होने पर भी अर्जुन के साथ युद्ध करने वाले भीष्म को संग्राम में छोड़ न सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 84-97 का हिन्दी अनुवाद)

     तदनन्तर एकमात्र भीष्म को पाण्डव पक्षीय बहुत-से योजनाओं ने चारों ओर से घेर लिया और समस्त कौरवों को सब ओर से खदेड़कर उनके ऊपर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। राजन! उस समय भीष्म के रथ के समीप ‘मार गिराओ, पकड़ लो, युद्ध करो, टुकडे़-टुकड़े कर डालो’ इत्यादि भयंकर शब्द गूंज रहे थे। महाराज! समर में भीष्म सैकड़ों और हजारों वीरों का वध करके स्वयं इस स्थिति में पहुँच गये थे कि उनके शरीर में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं रह गया था, जो बाणों से बिद्ध नहीं हुआ हो। इस प्रकार आपके ताऊ भीष्म युद्ध स्थल में अर्जुन के तीखे बाणों से अत्यंत विद्ध हो गये थे- उनका शरीर छिदकर छलनी हो रहा था। वे उसी अवस्था में, जबकि दिन थोड़ा ही शेष था, आपके पुत्रों के देखते-देखते पूर्व दिशा की ओर मस्तक किये रथ से नीचे गिर पड़े।

     संजय कहते हैं ;- भारत! अर्जुन द्वारा भीष्म को रथ से गिरते हुए देखकर आकाश में खड़े हुए देवताओं तथा भूतलवर्ती राजाओं में बड़े जोर से हाहाकार मच गया। महाराज! महात्‍मा पितामह भीष्म को रथ से ऐसे नीचे गिरते देखकर हम सब लोगों के हृदय भी उनके साथ ही गिर पड़े। वे महाबाहु भीष्म सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ थे। वे कटी हुई इन्द्र की ध्वजा के समान पृथ्वी को शब्दायमान करते हुए गिर पड़े। उनके सारे अंगों में सब ओर बाण बिंधे हुए थे। इसलिये गिरने पर भी उनका धरती से स्पर्श नहीं हुआ। रथ से गिरकर बाण शय्या पर सोये हुए पुरुष प्रवर महाधनुर्धर भीष्म के भीतर दिव्यभाव का आवेश हुआ। आकाश से मेघ वर्षा करने लगा, धरती कांपने लगी, गिरते-गिरते उन्होंने देखा, अभी सूर्य दखिक्षायन में हैं (यह मृत्यु के लिये उत्तम समय नहीं है)। भारत! समय का विचार करके वीरवर भीष्म ने अपने होश हवाश को ठीक रखा।

      उस समय आकाश में सब ओर से यह दिव्य वाणी सुनायी दी। महात्मा गंगानन्दन भीष्म सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी तथा काल पर भी प्रभुत्व रखने वाले थे। इन्होंने दक्षिणायन में मृत्यु क्यों स्वीकार की? उनकी वह बात सुनकर गंगानन्दन भीष्म ने कहा,

    भीष्म पितामह ने कहा ;- ‘मैं अभी जीवित हूँ।’ कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म पृथ्वी पर गिरकर भी उत्तरायण की प्रतीक्षा करते हुए अपने प्राणों को रोके हुए हैं। उनके इस अभिप्राय को जानकर हिमालयनन्दिनी गंगा देवी ने महर्षियों को हंसरूप से वहाँ भेजा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 98-122 का हिन्दी अनुवाद)

      वे मानस सरोवर में निवास करने वाले हंसरूपधारी महर्षि एक साथ उड़ते हुए बड़ी उतावली के साथ कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म को दर्शन करने के लिये उस स्थान पर आये, जो वे नरश्रेष्ठ बाणशय्या पर सो रहे थे। उन हंसरूपधारी ऋषियों ने वहाँ पहुँचकर कुरुकुलधुरन्धर वीर भीष्म को बाण शय्या पर सोये हुए देखा। उन भरतश्रेष्ठ महात्मा गंगानन्दन भीष्म का दर्शन करके ऋषियों ने उनकी प्रदक्षिणा की। फिर दक्षिणायनयुक्त सूर्य के संबंध में परस्पर सलाह करके वे मनीषी मुनि इस प्रकार बोले,

   मनीषी मुनी बोले ;- ‘भीष्म जी महात्मा होकर दक्षिणायन में कैसे अपनी मृत्यु स्वीकार करेंगे’। ऐसा कहकर वे हंसगण दक्षिण दिशा की ओर चले गये। भारत! हंसों के जाते समय उन्हें देखकर परम बुद्धिमान भीष्म ने कुछ चिन्तन करके उनसे कहा,

भीष्म जी ने कहा ;- ‘मैं सूर्य के दक्षिणायन रहते किसी प्रकार यहाँ से प्रस्थान नहीं करूंगा। यह मेरे मन का निश्चित विचार है। हंसो! सूर्य के उत्तरायण होने पर ही मैं उस लोक की यात्रा करूंगा, जो मेरा पुरातन स्थान है। यह मैं आप लोगों से सच्ची बात कह रहा हूँ। मैं उत्तरायण की प्रतीक्षा में अपने प्राणों को धारण किये रहूंगा, क्योंकि मैं जब इच्छा करूं, तभी अपने प्राणों को छोडूं, यह शक्ति मुझे प्राप्त है। अतः उत्तरायण में मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा से मैं अपने प्राणों को धारण करूंगा। मेरे महात्मा पिता ने मुझे जो वर दिया था कि तुम्हें अपनी इच्छा होने पर ही मृत्यु प्राप्त होगी, उनका यह वरदान सफल हो। मैं प्राण त्याग का नियत समय आने तक अवश्य इन प्राणों को रोक रखूंगा।' उस समय उन हंसों से ऐसा कहकर ये बाण शय्या पर पूर्ववत सोये रहे।

      इस प्रकार कुरुकुल शिरोमणि महापराक्रमी भीष्म के गिर जाने पर पाण्डव और सृंजय हर्ष से सिंहनाद करने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन महान शक्तिशाली भरतवंशियों के पितामह भीष्म के मारे जाने पर आपके पुत्रों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। उस समय कौरवों पर बड़ा भयंकर मोह छा गया। कृपाचार्य और दुर्योधन आदि सब लोग सिसक-सिसककर रोने लगे। वे सब लोग विषाद के कारण दीर्घकाल तक ऐसी अवस्था में पड़े रहे, मानो उनकी सारी इन्द्रियां नष्ट हो गयी हों। महाराज! वे भारी चिन्ता में डूब गये। युद्ध में उनका मन नहीं लगता था। वे पाण्डवों पर धावा न कर सके, मानो किसी महान ग्रह ने उन्हें पकड़ लिया हो। राजन! महातेजस्वी शान्तनुपुत्र भीष्म अबध्य थे, तो भी मारे गये। इससे सहसा सब लोगों ने यही अनुमान किया कि कुरुराज दुर्योधन का विनाश भी अवश्यम्भावी है। सव्यसाची अर्जुन ने हम सब लोगों पर विजय पायी। उनके तीखें बाणों से हम लोग क्षत-विक्षत हो रहे थे और हमारे प्रमुख वीर उनके हाथों मारे गये थे। उस अवस्था में हमें अपना कर्तव्य नहीं सूझता था।

      परिघ के समान मोटी भुजाओं वाले शूरवीर पाण्डवों ने इहलोक में विजय पाकर परलोक में भी उत्तम गति निश्चित कर ली। वे सब के सब बड़े-बड़े शंख बजाने लगे। जनेश्वर! पाञ्चालों और सोमकों के तो हर्ष की सीमा न रही। सहस्रों रणवाद्य बजने लगे। उस समय महाबली भीमसेन जोर-जोर से ताल ठोकने और सिंह के समान दहाड़ने लगे। शक्तिशाली गगानंदन भीष्म के मारे जाने पर सब ओर दोनों सेनाओं के सब वीर अपने अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर भारी चिंतन में निमग्न हो गये। कुछ फूट-फूटकर रोने-चिल्लाने लगे, कुछ इधर-उधर भागने लगे और कुछ वीर मोह को प्राप्त (मूर्च्छित) हो गये। कुछ लोग क्षात्र धर्म की निंदा कर रहे थे और कुछ भीष्म जी की प्रशंसा कर रहे थे। ऋषियों और पितरों ने महान् व्रतधारी भीष्म की बड़ी प्रशंसा की। भरतवंश के पूर्वजनों ने भी भीष्म जी की बड़ी बड़ाई की। परम पराक्रमी एव बुद्धिमान् शांतनुनंदन भीष्म महान् उपनिषदों के सारभूत योग का आश्रय ले प्रणव का जप करते हुए उत्तरायण काल की प्रतीक्षा में बाण शय्या पर सोये रहे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म जी के रथ से गिरने से संबंध रखने वाला एक सौ उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ)

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