सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के एक सौ छठवें अध्याय से एक सौ दसवें अध्याय तक (From the 106 chapter to the 110 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ छःवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म के द्वारा पराजित पाण्डव सेना का पलायन और भीष्म को मारने के लिये उद्यत हुए श्रीकृष्ण को अर्जुन का रोकना”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! तब आपके ताऊ देवव्रत कुपित हो रणभूमि में अपने तीखे एवं श्रेष्ठ सायकों द्वारा सेना सहित कुन्तीकुमारों को सब ओर से घायल करने लगे। उन्होंने भीमसेन को बारह, सात्यकि को नौ, नकुल को तीन और सहदेव को सात बाणों से घायल करके राजा युधिष्ठिर की दोनों भुजाओं और छाती में बारह बाण मारे। तदनन्तर धृष्टद्युम्न को भी अपने बाणों द्वारा बींध कर महाबली भीष्म ने सिंह के समान गर्जना की। तब नकुल ने बारह, सात्यकि ने तीन, धृष्टद्युम्न ने सत्तर, भीमसेन ने सात तथा युधिष्ठिर ने बारह बाण मारकर पितामह भीष्म को घायल कर दिया। द्रोणाचार्य ने यमदण्ड के समान भयंकर एवं तीखे पाँच-पाँच बाणों द्वारा सात्यकि और भीमसेन से प्रत्येक को घायल किया। पहले सात्यकि को चोट पहुँचाकर फिर भीमसेन पर गहरा आघात किया। तब उन दोनों ने भी अंकुशों से महान गजराज के समान सीधे जाने वाले तीन-तीन बाणों द्वारा ब्राह्मणप्रवर द्रोणाचार्य को घायल करके तुरंत बदला चुकाया। सौवीर, कितव, प्राच्य, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, अभीषाह, शूरसेन, शिवि और वसाति देश के योद्धा शत्रुओं के तीखे बाणों से पीड़ित होने पर भी संग्रामभूमि में भीष्म को छोड़कर नहीं भागे।

     इसी प्रकार विभिन्न देशों से आये हुए अन्य भूपाल भी हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये पाण्डवों पर आक्रमण करने लगे। राजन! पाण्डवों ने भी पितामह भीष्म को घेर लिया। चारों ओर से रथसमूहों द्वारा घिरे हुए अपराजित वीर भीष्म गहन वन में लगायी गई आग के समान शत्रुओं को दग्ध करते हुए प्रज्वलित हो उठे। रथ ही उनके लिये अग्निशाला के समान था, धनुष ज्वालाओं के समान प्रकाशित होता था, खड्ग, शक्ति और गदा आदि अस्त्र-शस्त्र समिधा का काम कर रहे थे। बाण चिनगारियों के समान थे। इस प्रकार भीष्मरूपी अग्नि वहाँ क्षत्रिय शिरोमणियों को दग्ध करने लगी। उन्होंने स्वर्णभूषित गृध्र-पंखयुक्त तेज बाणों तथा कर्णी, नालीक और नाराचों द्वारा पाण्डवों की सेना को आच्छादित कर दिया। तीखे बाणों से ध्वजों को काट डाला और रथियों को भी मार गिराया। ध्वजाएँ काटकर उन्होंने रथ समूहों को मुण्डित तालवनों के समान कर दिया।

      राजन! युद्धस्थल में समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाबाहु भीष्म ने बहुत से रथों, हाथियों ओर घोड़ों को मनुष्यों से रहित कर दिया। उनके धनुष की प्रत्यंचा की टंकार ध्वनि वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। भारत! उसे सुनकर समस्त प्राणी काँप उठते थे। भरतश्रेष्ठ! आपके ताऊ भीष्म के बाण कभी खाली नहीं जाते थे। राजन! भीष्म के धनुष से छूटे हुए बाण कवचों में नहीं अटकते थे (उन्हें छिन्न-भिन्न करके भीतर घुस जाते थे)। महाराज! हमने समरांगण में ऐसे बहुत से रथ देखे, जिनके रथी और सारथि तो मार दिये गये थे; परंतु वेगशाली घोड़ों से जुते हुए होने के कारण वे इधर-उधर खींचकर ले जाये जा रहे थे। चेदि, काशि और करूष देश के चौदह हजार विख्यात महारथी थे। वे उच्च कुल में उत्पन्न होकर पाण्डवों के लिये अपना शरीर निछावर कर चुके थे। उनमें से कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने वाला नहीं था। उन सबकी ध्वजाएँ सोने की बनी हुई थी। मुँह बाये हुए काल के समान भीष्म जी के सामने पहुँचकर वे सब के सब महारथी युद्धरूपी समुद्र में डूब गये। भीष्म जी ने घोड़े, रथ, और हाथियों सहित उन सबको परलोक का पथिक बना दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

      भरतनन्दन! महाराज! हमने वहाँ सैकड़ों और हजारों ऐसे रथ देखे, जिनके धुरे आदि सामान टूट गये थे और पहियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। माननीय प्रजानाथ! वरूथोंसहित टूटे हुए रथ, मारे गये रथी, कटे हुए बाण, कवच, पट्टिश, गदा, भिन्दिपाल, तीखे सायक, छिन्न-भिन्न हुए अनुकर्ष, उपासंग, पहिये, कटी हुई बाँह, धनुष, खड्ग, कुण्डलों सहित मस्तक, तलत्राण, अंगलित्राण, गिराये गये ध्वज और अनेक टुकड़ों में कटकर गिरे हुए चाप- इन सबके द्वारा वहाँ की पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी। राजन! जिनके सवार मार दिये गये थे, ऐसे हाथी और घोड़े सैकड़ों और हजारों की संख्या में निष्प्राण होकर पड़े थे। पाण्डव वीर बहुत प्रयत्न करने पर भी भीष्म के बाणों से पीड़ित होकर भागते हुए अपने महारथियों को रोक नहीं पा रहे थे। महाराज! महेन्द्र के समान पराक्रमी भीष्म जी के द्वारा मारी जाती हुई उस विशाल सेना में भगदड़ मच गयी थीं। दो आदमी भी एक साथ नहीं भागते थे। पाण्डवों की सेना अचेत सी होकर हाहाकार कर रही थी। उसके रथ, हाथी और घोड़े बाणों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। ध्वजाएँ कटकर धराशायी हो गयी थी। उस भीषण मारकाट में दैव से प्रेरित होकर पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को और मित्र ने प्यारे मित्र को मार डाला।

      पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर दूसरे सैनिक कवच उताकर केश बिखेरे हुए सब और भागते दिखायी देते थे। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सारी सेना (सिंह से डरी हुई) गौओं के समुदाय की भाँति घबराहट में पड़ गयी थीं। रथ के कूबर उलट-पलट हो गये थे और समस्त सैनिक आर्तनाद कर रहे थे। उस सेना में भगदड़ पड़ी देख यादवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उत्तम रथ को रोककर कुन्तीकुमार अर्जुन से कहा- 'पार्थ! तुम्हें जिस अवसर की अभिलाषा और प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँचा। पुरुषसिंह! यदि तुम मोह से मोहित नहीं हो रहे हो तो इन भीष्म पर प्रहार करो। वीर! तात! पूर्वकाल में विराट नगर के भीतर जब सम्पूर्ण राजा एकत्र हुए थे, उनके सामने और संजय के समीप जो तुमने यह कहा था कि मैं युद्ध में, जो मेरा सामना करने आयेंगे, दुर्योधन के उन भीष्म, द्रोण आदि सम्पूर्ण सैनिकों को सगे सम्बधियों सहित मार डालूँगा।

     शत्रुदमन कुन्तीनन्दन! अपने उस कथन को सत्य कर दिखाओ। तुम क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके सारी चिन्ताएँ छोड़कर युद्ध करो।' भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने मुँह नीचे किये तिरछी दृष्टि से देखते हुए अनिच्छुक की भाँति उनसे इस प्रकार कहा- 'प्रभो! अवध्य महापुरुषों का वध करके नरक से भी बढ़कर निन्दनीय राज्य प्राप्त करूँ अथवा वनवास में रहकर कष्ट भोगूँ- इन दोनों में कौन मेरे लिये पुण्यदायक होगा। अच्छा, जहाँ भीष्म हैं, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइये। आज मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। कुरुकुल के वृद्ध पितामह दुर्धर्ष वीर भीष्म को मार गिराऊँगा।' राजन! तब भगवान श्रीकृष्ण ने चाँदी के समान श्वेत वर्ण वाले घोड़ों को उसी ओर हाँका, जहाँ अंशुमाली सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य भीष्म युद्ध कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद)

   महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुन को भीष्म के साथ युद्ध करने के लिये उद्यत देख युधिष्ठिर की वह भागती हुई विशाल सेना पुनः लौट आयी। तब बार-बार सिंहनाद करते हुए कुरुश्रेष्ठ भीष्म ने धनंजय के रथ पर शीघ्र ही बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भारत! एक ही क्षण में बाणों की उस भारी वर्षा के कारण सारथि और घोड़ोंसहित उनका वह रथ ऐसा अदृश्य हो गया कि उसका कुछ पता ही नहीं चलता था। भगवान श्रीकृष्ण बिना किसी घबराहट के धैर्य धारण कर भीष्म के सायकों से क्षत-विक्षत हुए उन घोड़ों को शीघ्रतापूर्वक हाँक रहे थे। तब कुन्तीकुमार ने मेघ के समान गंभीर घोष करने वाले अपने दिव्य धनुष को हाथ में लेकर तीखे बाणों द्वारा भीष्म के धनुष को काट गिराया।

     धनुष कट जाने पर आपके ताऊ कुरुकुल रत्न भीष्म ने पुनः दूसरा धनुष हाथ में ले पलक मारते मारते उसके ऊपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। तदनन्तर मेघों के समान गम्भीर नाद करने वाले उस धनुष को उन्होंने दोनों हाथों से खींचा। इतने ही कुपित हुए अर्जुन ने उनके उस धनुष को भी काट दिया। शत्रुदमन नरेश! उस समय शान्तनुकमार गंगानन्दन भीष्म ने धनुर्धरों में श्रेष्ठ कुन्तीपुत्र अर्जुन की उस फुर्ती के लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और इस प्रकार कहा- 

     भीष्म बोले ;- 'महाबाहो! कुन्तीकुमार! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, तुम्हें साधुवाद।' ऐसा कहकर भीष्म ने पुनः दूसरा सुन्दर धनुष लेकर समरांगण में अर्जुन के रथ की ओर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।

      भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों के हाँकने की कला में अपनी अद्भुत शक्ति दिखायी। वे भाँति-भाँति के पैंतरे दिखाते हुए भीष्म के बाणों को व्यर्थ करते जा रहे थे। युद्धस्थल में भगवान श्रीकृष्ण कुशलतापूर्वक सारथ्यकर्म करते दिखायी दिये। राजेन्द्र! भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर युद्ध में पार्थ के ऊपर बार बार बाणों की वर्षा करते रहे। यह अद्‌भुत सी बात थी। फिर शत्रुदमन अर्जुन ने भी क्रोध में भरकर युद्ध के लिये अपने सामने खड़े हुए भीष्म पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। वे दोनों रणदुर्जय वीर एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे। उस समय पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही भीष्म के बाणों से क्षत-विक्षत हो सींगों के आघात से घायल हुए दो रोष भरे साँड़ों के समान सुशोभित हो रहे थे। तत्पश्चात भीष्म ने भी रणक्षेत्र में अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपने बाणों द्वारा बलपूर्वक अर्जुन के मस्तक पर आघात किया। उसके बाद वे बार बार सिंह के समान गर्जना करने लगे।

      भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहे हैं। वे भीष्म के प्रति कोमलता दिखा रहे हैं और उधर भीष्म युद्ध में सेना के मध्यभाग में खड़े हो निरन्तर बाणों की वर्षा करते हुए दोपहर के सूर्य के समान तप रहे हैं। पाण्डव सेना के चुने हुए उत्तमोत्तम वीरों को मार रहे हैं और युधिष्ठिर की सेना में प्रलयकाल सा दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। तब शत्रुवीरों का नाश करने वाले महाबाहु माधव को यह सहन नहीं हुआ। आर्य! वे योगेश्वर भगवान वासुदेव चाँदी के समान सफेद रंग वाले अर्जुन के घोड़ों को छोड़कर उस विशाल रथ से कूद पड़े और केवल भुआओं का ही आयुध लिये हाथों में चाबुक उठाये बार बार सिहंनाद करते हुए बलवान एवं तेजस्वी श्रीहरि भीष्म की ओर बड़े वेग से दौड़े। सम्पूर्ण जगत के स्वामी, अमित तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण क्रोध से लाल आँखें करके भीष्म को मार डालने की इच्छा लेकर पैरों की धमक से वसुधा को विदीर्ण सी कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-75 का हिन्दी अनुवाद)

      भगवान श्रीकृष्ण उस महायुद्ध मे आपके पुत्रों और सैनिकों की चेतना को मानो अपना ग्रास बनाये ले रहे थे। महाराज! उस मारकाट में माधव को समीप आकर भीष्म के वध के लिये उद्यत हुआ देख उस समय उन वासुदेव के भय से चारों और यह महान कोलाहल सुनायी देने लगा कि भीष्म मारे गये, भीष्म मारे गये। रेशमी पीताम्बर धारण किये इन्द्रनीलमणि के समान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण भीष्म की और दौड़ते समय ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो विद्युन्माला से अलंकृत श्याममेघ जा रहा है। यादव शिरोमणि बार-बार गर्जना करते हुए भीष्म के ऊपर उसी प्रकार वेग से धावा कर रहे थे, जैसे सिंह गजराज पर और गोयूथ का स्वामी साँड़ पर आक्रमण करता है। उस महासमर में कमलनयन श्रीकृष्ण को आते देख भीष्म उस रणक्षेत्र में तनिक भी भयभीत न होकर अपने विशाल धनुष को खींचने लगे। साथ ही व्यग्रताशून्य मन से भगवान गोविन्द को सम्बोधित करके बोले- 'आइये, आइये, कमलनयन! देवदेव! आपको नमस्कार है। सात्वतशिरोमणि! इस महासमर में आज मुझे मार गिराइये। देव! निष्पाप श्रीकृष्ण! आपके द्वारा संग्राम में मारे जाने पर भी संसार में सब ओर मेरा परम कल्याण ही होगा। गोविन्द! आज इस युद्ध में मैं तीनों लोकों द्वारा सम्मानित हो गया। अनघ! मैं आपका दास हूँ। आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझ पर प्रहार कीजिये।'

    इधर महाबाहु अर्जुन श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से उन्हें पकड़कर काबू में कर लिया। अर्जुन के द्वारा पकड़े जाने पर भी कमलनयन पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण उन्हें लिये दिये ही वेगपूर्वक आगे बढ़ने लगे। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने बलपूर्वक भगवान के चरणों को पकड़ लिया और इस प्रकार दसवें कदम तक जाते जाते वे किसी प्रकार हृषीकेश को रोकने में सफल हो सके। उस समय श्रीकृष्ण के नेत्र क्रोध से व्याप्त हो रहे थे और वे फुफकारते हुए सर्प के समान लम्बी साँस खींच रहे थे। उनके सखा अर्जुन आर्तभाव से प्रेमपूर्वक बोले- 'महाबाहो! लौटिये, अपनी प्रतिज्ञा को झूठी न कीजिये। केशव! आपने पहले जो यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा उस वचन की रक्षा कीजिये। अन्यथा माधव! लोग आपको मिथ्यावादी कहेंगे। केशव! यह सारा भार मुझ पर है। मैं अपने अस्त्र शस्त्र, सत्य और सुकृत की शपथ खाकर कहता हूँ कि पितामह भीष्म का वध करूँगा। शत्रुसूदन! मैं सब शत्रुओं का अन्त कर डालूंगा। देखिये, आज ही मैं पूर्ण चन्द्रमा के समान दुर्जय वीर महारथी भीष्म को उनके अन्तिम समय मे इच्छानुसार मार गिराता हूँ।' महामना अर्जुन का यह वचन सुनकर उनके पराक्रम को जानते हुए भगवान श्रीकृष्ण मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न हुए और ऊपर से कुछ भी न बोलकर पुनः क्रोधपूर्वक ही रथ पर जा बैठे।

     पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन को रथ पर बैठे देख शान्तनुनन्दन भीष्म ने पुनः उन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेघ दो पर्वतों पर जल की धारा गिरा रहा हो। राजन! आपके ताऊ देवव्रत उसी प्रकार पाण्डव योद्धाओं के प्राण लेने लगे, जैसे ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा सबके तेज हर लेते है। महाराज! जैसे पाण्डवों ने युद्ध में कौरव सेनाओं को खदेड़ा था, उसी प्रकार आपके ताऊ भीष्म ने भी पाण्डव सेनाओं को मार भगाया। घायल होकर भागे हुए सैनिक उत्साहशून्य और अचेत हो रहे थे। वे रणक्षेत्र में अनुपम वीर भीष्म जी की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सके, ठीक उसी तरह, जैसे दोपहर में अपने तेज से तपते हुए सूर्य की ओर कोई भी देख नहीं पाता। महाराज! भीष्म के द्वारा मारे जाते हुए सैकड़ों और हजारों पाण्डव सैनिक समर में अलौकिक पराक्रम प्रकट करने वाले भीष्म को भय से पीड़ित होकर देख रहे थे।

      भारत! भागती हुई पाण्डव सेनाएँ कीचड़ में फँसी हुई गायों की भाँति किसी को अपना रक्षक नहीं पाती थीं। समरभूमि में बलवान भीष्म ने उन दुर्बल सैनिकों को चीटियों की भाँति मसल डाला। भारत! महारथी भीष्म अविचलभाव से खड़े होकर बाणों की वर्षा करते और पाण्डव पक्षीय नरेशों को संताप देते थे। बाणरूपी किरणावलियों से सुशोभित और सूर्य की भाँति तपते हुए भीष्म की ओर वे देख भी नहीं पाते थे। भीष्म पाण्डव सेना को जब इस प्रकार रौंद रहे थे, उसी समय सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य अस्तांचल को चले गये। उस समय परिश्रम से थकी हुई समस्त सेनाओं के मन में यही इच्छा हो रही थी कि अब युद्ध बंद हो जाये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व नवें दिन के युद्ध की समाप्तिविषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“नवें दिन के युद्ध की समाप्ति, रात में पाण्डवों की गुप्त मन्त्रणा तथा श्रीकृष्णसहित पाण्डवों का भीष्म से मिलकर उनके वध का उपाय जानना”

     संजय कहते है ;- राजन! कौरवों और पाण्डवों के युद्ध करते समय ही सूर्यदेव अस्तांचल को चले गये और भयंकर संध्याकाल आ गया। फिर हम लोगों ने युद्ध नहीं देखा। भरतनन्दन! तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर ने देखा कि संध्या हो गयी। भीष्म के द्वारा गहरी चोट खाकर मेरी सेना ने भय से व्याकुल हो हथियार डाल दिया है। किसी में लड़ने का उत्साह नहीं रह गया है। सारी सेना बाणों से क्षत विक्षत हो अत्यन्त पीड़ित हो गयी है। कितने ही सैनिक युद्ध से विमुख हो भागने लग गये हैं। उधर महारथी भीष्म क्रोध में भरकर युद्धस्थल में सबको पीड़ा दे रहे हैं। सोमकवंशी महारथी पराजित होकर अपना उतसाह खो बैठे हैं और घोररूप भयानक प्रदोषकाल आ पहुँचा है। इन सब बातों पर विचार करके राजा युधिष्ठिर ने सेना को युद्ध से लौटा लेना ही ठीक समझा।

      महान बल और पराक्रम से सम्पन्न भीष्म को हम किस प्रकार जीत सकेंगे, यही सोचते हुए राजा युधिष्ठिर ने अपने शिविर में जाने का विचार किया। इसके बाद महाराज युधिष्ठिर ने अपनी सेना को पीछे लौटा दिया। इसी प्रकार अपनी सेना भी उस समय युद्धस्थल से शिविर की ओर लौट चली। कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार संग्राम में क्षत-विक्षत हुए वे सब महारथी सेना को लौटाकर शिविर में विश्राम करने लगे। पाण्डव भीष्म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उन्हें समरांगण में भीष्म के पराक्रम का चिन्तन करके तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी। भारत भीष्म भी समरभूमि में सृंजयों तथा पाण्डवों को जीतकर आपके पुत्रों द्वारा प्रशंसित और अभिवन्दित हो अत्यन्त हर्ष में हुए कौरवों के साथ शिविर में गये।

      तत्पश्चात सम्पूर्ण भूतों को मोहमयी निद्रा में डालने वाली रात्री आ गयी उस भंयकर रात्री के आरम्भ काल में वृष्णिवंशियों सहित दुर्धर्ष सृंजय और पाण्डव गुप्त मन्त्रणा के लिए एक साथ बैठे। उस समय वे समस्त महाबली वीर समयानुसार अपनी भलाई के प्रश्न पर स्वस्थचित्त से विचार करने लगे। वे सभी लोग मन्त्रणा कर के किसी निश्चय पर पहुँच जाने में कुशल थे। उनमें यह विचार होने लगा कि हम भीष्म को कैसे मार सकेंगे और किस प्रकार इस पृथ्वी पर विजय प्राप्त करेंगे। नरेश्वर! उस समय राजा युधिष्ठिर ने दीर्घकाल तक गुप्त मन्त्रणा करने के पश्चात् वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखकर यह बात कही,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- 'श्रीकृष्ण! देखिए, भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्म हमारी सेना का उसी प्रकार विनाश कर रहे हैं, जैसे हाथी सरकंडों के जंगलों को रौंद डालते हैं।

      माधव! इनके द्वारा जब हमारी सेनाएँ मारी जा रही हैं, उस अवस्था में इन दुर्धर्ष वीर भीष्म के साथ हम लोग कैसे युद्ध करगे। यहाँ जिस प्रकार हमारा भला हो, वह उपाय कीजिए। माधव! आप ही हमारे आश्रय हैं। हम दूसरे किसी का सहारा नहीं लेते। हमें भीष्म जी के साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता हैं। इधर महावीर भीष्म युद्ध स्थल में हमारी सेना का संहार करते चले जा रहे हैं। ये प्रज्वलित अग्नि समान बाणों की लपटों से हमारी सेना में सबको चाटते (भस्म करते) जा रहे हैं, हम लोग इन महात्मा की ओर देख भी नहीं पा रहे हैं। जैसे महानाग तक्षक अपने प्रचण्ड विष के कारण भयंकर प्रतीत होता है, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए प्रतापी भीष्म युद्धस्थल में जब हाथ में धनुष लेकर पैने बाणों की वर्षा करने लगते है, उस समय अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रों के कारण बड़े भयानक जान पड़ता है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)

      'समरभूमि में क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण अथवा गदाधारी कुबेर को भी जीता जा सकता है; परंतु इस महासमर में कुपित भीष्म को पराजित करना असम्भव है। श्रीकृष्ण! ऐसी स्थिति में मैं अपनी बुद्धि की दुर्बलता के कारण युद्धस्थल में भीष्म को सामने देखकर शोक के समुद्र में डूबा जा रहा हूँ। दुर्धर्ष वीर श्रीकृष्ण! अब मैं वन को चला जाऊँगा। मेरे लिये वन में जाना ही कल्याणकारी होगा। मुझे युद्ध अच्छा नहीं लग रहा है; क्योंकि उसमें भीष्म सदा ही हमारे सैनिकों का विनाश करते आ रहे हैं। जैसे पतंग प्रज्वलित आग की ओर दौड़ा जाकर एक मात्र मृत्यु को ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार हमने भी भीष्म पर आक्रमण करके मृत्यु का ही वरण किया है।

     वार्ष्णेय! राज्य के लिये पराक्रम करके मैं क्षीण होता जा रहा हूँ। मेरे शूरवीर भाई बाणों की मार से अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं। मधुसूदन! मेरे लिये भ्रातृ स्नेहवश ये भाई राज्य से वचिंत हुए और वन में भी गये। मेरे ही कारण कृष्णा को भरी सभा में अपमान का कष्ट भोगना पड़ा। इस समय मैं जीवन को ही बहुत मानता हूँ। आज तो जीवन भी दुर्लभ हो रहा है। अब से जीवन के जितने दिन शेष हैं, उनके द्वारा मैं उत्तम धर्म का आचरण करूँगा। केशव! यदि भाईयों सहित मुझ पर आपका अनुग्रह है तो मुझे स्वधर्म के अनुकूल कोई हितकारक सलाह दीजिए।'

     करुणा से प्रेरित होकर कहे हुए युधिष्ठिर ये विस्तृत वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सान्त्वना देते हुए कहा,

      श्री कृष्ण ने कहा ;- 'धर्मपुत्र! सत्यप्रतिज्ञ कुन्तीकुमार! विषाद न किजिए, आपके भाई बड़े ही शुरवीर, दुर्जय तथा शत्रुओं का सहांर करने समर्थ हैं। अर्जुन और भीमसेन वायु तथा अग्नि के समान तेजस्वी हैं। माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी पराक्रम में दो इन्द्रों के समान हैं। पाण्डुनन्दन! महाराज! आप सौहार्दवश मुझे भी आज्ञा दीजिए। मैं भीष्म के साथ यु़द्ध करूँगा। भला आपकी आज्ञा मिल जाने पर मैं इस महासमर में क्या नहीं कर सकता। यदि अर्जुन भीष्म को मारना नहीं चाहते हैं तो मैं युद्ध में पुरुषप्रवर भीष्म को ललकार कर धृतराष्ट्रपुत्रों के देखते-देखते मार डालूँगा। पाण्डुनन्दन! यदि भीष्म के मारे जाने पर ही आपको अपनी विजय दिखायी दे रही है तो मैं एकमात्र रथ की सहायता से आज कुरुकुल वृ़द्ध पितामाह भीष्म को मार डालूँगा।

     राजन! कल युद्ध में इन्द्र के समान मेरा पराक्रम देखियेगा। मैं बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रहार करने वाले भीष्म को रथ से मार गिराऊँगा। जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु है, इसमें संदेह नहीं है। जो आपके सुहृद् हैं, वे मेरे हैं और जो मेरे सुहृद् हैं, वे आपके ही हैं। राजन! आपके भाई अर्जुन मेरे सखा, सम्बन्धी और शिष्य हैं। मैं अर्जुन के लिये अपना मांस भी काटकर दे दूंगा। ये पुरुषसिंह अर्जुन भी मेरे लिये अपने प्राणों तक का परित्याग कर सकते हैं। तात! हम लोगों में यह प्रतिज्ञा हो चुकी है कि हम एक दूसरे को संकट से उबारेंगे। राजेन्द्र! आप मुझे युद्ध के काम में नियुक्त कीजिये। मैं आपका योद्धा बनूँगा। युद्ध के पहले उपप्लव्य नगर में सब लोगों के सामने अर्जुन जो यह प्रतिज्ञा की थी मैं गंगानन्दन भीष्म का वध करूँगा, बुद्धिमान पार्थ के उस वचन का पालन करना मेरे लिये आवश्यक है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद)

      'अर्जुन ने जिस बात के लिये प्रतिज्ञा की हो, उनकी पूर्ति करना मेरा कर्तव्य है, इसमें संशय नहीं है अथवा रणक्षेत्र में अर्जुन के लिये यह बहुत थोड़ा भार है। वे शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्म को युद्ध में अवश्य मार डालेंगे। कुन्तीपुत्र अर्जुन उद्यत हो जायें तो युद्ध में असम्भव को भी संभव कर सकते हैं। नरेश्वर! दैत्यों और दानवों सहित सम्पूर्ण देवताओं को भी अर्जुन युद्ध में मार सकते हैं; फिर भीष्म को मारना कौन बड़ी बात है। महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म तो हमारे विपरीत पक्ष का आश्रय लेने वाले और बलहीन हैं। इनके जीवन के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं।'

      युधिष्ठिर ने कहा ;- महाबाहो! माधव! आप जैैसा कहते हैं, ठीक ऐसी ही बात है। ये समस्त कौरव आपका वेग धारण करने में समर्थ नहीं हैं। पुरुषसिंह! जिसके पक्ष में आप खड़े हैं, वह मैं यह सब अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण कर लूँगा। विजयी वीरों में श्रेष्ठ गोविन्द! आपको अपना रक्षक पाकर मैं युद्ध में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं को भी जीत सकता हूँ, फिर महारथी भीष्म पर विजय पाना कौन बड़ी बात है। माधव! परन्तु मैं अपनी गुरुत्ता का प्रभाव डालकर आपको असत्यवादी नहीं बना सकता। आप युद्ध किये बिना ही पूर्वोक्त सहायता करते रहिये। मेरी भीष्म जी के साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि ‘मैं युद्ध में तुम्हारे हित के लिये सलाह दे सकता हूँ, परन्तु तुम्हारी ओर से किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधन के लिये ही करूँगा।' प्रभो! यह बिल्कुल सच्ची बात है। अतः माधव! भीष्म जी मुझे राज्य और मन्त्र ( हितकर सलाह ) दोनोें देंगे। इसलिये मधुसूदन! हम सब लोग पुनः आपके साथ देवव्रत भीष्म केे पास उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछने चलें। वृष्णिनन्दन! हम सब लोग शीघ्र ही एक साथ कुरुवंशी नरश्रेष्ठ भीष्म के पास चलें और उनसे सलाह लें। जनार्दन! पूछने पर वे हमें सत्य और हितकर बात बतायेंगे।

    श्रीकृष्ण! वे जैसा कहेंगे, युद्ध में वैसा ही करूँगा। दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले भीष्म जी हमारे लिये विजय और सलाह के भी दाता हो सकते हैं। बाल्यावस्था में जब हम पितृहीन हो गये थे, उस समय उन्होंने ही हमारा पालन पोषण किया था। माधव! यद्यपि वे हमारे पिता के भी पिता और प्रिय हैं, तो भी उन बूढ़े पितामह भीष्म को भी मैं मारना चाहता हूँ। क्षत्रिय की इस जीविका को धिक्कार है।        संजय कहते है ;- महाराज! तब भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुनन्दन युधिष्ठिर से कहा,,

श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'महामते राजेन्द्र! आपका कथन मुझे ठीक जान पड़ता है। देवव्रत भीष्म पुण्यात्मा पुरुष हैं। वे दृष्टिपात मात्र से सबको दग्ध कर सकते हैं; अतः गंगानन्दन भीष्म से उनके वध का उपाय पूछने के लिये आप अवश्य उनके पास चलें। विशेषतः आपके पूछने पर वे अवश्य सच्ची बात बतायेंगे। अतः हम सब लोग मिलकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म से अभीष्ट प्रश्न पूछने के लिये साथ साथ वहाँ चलें और भारत! चलकर उनसे हितकारक मन्त्रणा पूछें। वे आपको ऐसी मन्त्रणा देेंगे, जिससे हम लोग शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 56-72 का हिन्दी अनुवाद)

       वे वीर पांडव इस प्रकार सलाह करके सब एक साथ मिलकर अपने पिता पाण्डु के भी पितृतुल्य भीष्म पितामह के पास गये; उनके साथ पराक्रमी भगवान वासुदेव भी थे। उन सबने अस्त्र-शस्त्र और कवच रख दिये थे। वे भीष्म के शिविर की ओर गये और उसके भीतर प्रवेश करके उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। महाराज! पाण्डवों ने भरत श्रेष्ठ भीष्म की पूजा करते हुए उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और उन्हीं की शरण ली। उस समय कुरुकुल के पितामह महाबाहु भीष्म ने उन सब लोगों से कहा,

पितामह भीष्म ने कहा ;- ‘वृष्णिनन्दन! आपका स्वागत है। धनंजय! तुम्हारा भी स्वागत है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन और नकुल-सहदेव सबका स्वागत है। आज मैं तुम सब लोगों की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला कौन-सा कार्य करूँ। पुत्रो! यु़द्ध के अतिरिक्त जो चाहे, माँग लो, संकोच न करो। तुम्हारी माँग अत्यन्त दुष्कर हो तो भी मैं उसे सब प्रकार से पूर्ण करूँगा।'

      गंगानन्दन भीष्म जब बारंबार इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक कह रहे थे, उस समय राजा युधिष्ठिर ने दीन हृदय से प्रेमपूर्वक यह बात कही,

      युधिष्ठिर बोले ;- 'सर्वज्ञ! यु़द्ध में हमारी जीत कैसे हो? हम किस प्रकार राज्य प्राप्त करें? प्रभो! हमारी प्रजा का जीवन संकट में न पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है? कृपया यह सब मुझे बताइये। आप स्वयं ही हमें अपने वध का उपाय बताइये। वीर! समरभूमि में हम लोग आपका वेग कैसे सह सकते हैं? कुरुकुल के वृद्ध पितामह! आपमें कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) नहीं दृष्टिगोचर होता है। आप युद्ध में सदा मण्डलाकार धनुष के साथ ही परिलक्षित होते हैं। महाबाहो! आप रथ पर दूसरे सूर्य के समान विराजमान होकर कब बाण हाथ में लेते हैं, कब धनुष पर रखते हैं और कब उसकी डोरी को खींचते हैं, यह सब हम लोग नहीं देख पाते हैं। शत्रुवीरों का नाश करने वाले भरतश्रेष्ठ! आप रथ, अश्व, पैदल मनुष्य और हाथियों का भी संहार करने वाले है। कौन पुरुष आपको जीतने का साहस कर सकता है। आपने युद्धस्थल में बाणों की वर्षा करके भारी संहार मचा रखा है। रणक्षेत्र में मेरी विशाल सेना आपके द्वारा नष्ट हो चुकी है।

       पितामह! हम लोग युद्ध में जिस प्रकार आपको जीत सकें, जिस प्रकार हमें विपुल राज्य की प्राप्ति हो सके और जिस प्रकार मेरी सेना भी सकुशल रह सके, वह उपाय मुझे बताइये।' तब पाण्डु के पितृतुल्य शान्तनुकुमार भीष्म जी ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा- 'कुन्तीकुमार! मेरे जीतेजी युद्ध में किसी प्रकार तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। सर्वज्ञ! मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ। पाण्डवों! यदि युद्ध के द्वारा मैं किसी प्रकार जीत लिया जाऊँ, तभी तुम लोग रणक्षेत्र में विजयी हो सकोगे। यदि युद्ध में विजय चाहते हो तो मुझ पर शीघ्र ही (घातक) प्रहार करो। कुन्तीकुमारो! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम सुखपूर्वक मेरे ऊपर प्रहार करो। मैं तुम्हारे लिये यह पुण्य की बात मानता हूँ कि तुम्हें मेरे इस प्रभाव का ज्ञान हो गया कि मेरे मारे जाने पर सारी कौरव सेना मरी हुई ही हो जायगी; अतः ऐसा ही करो (मुझे मार डालो)।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 73-91 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर ने कहा ;- पितामह! हम लोग युद्ध में दण्डधारी यमराज की भाँति क्रोध में भरे हुए आपको जिस प्रकार जीत सकें, वैसा उपाय हमें आप ही बताइये। वज्रधारी इन्द्र, वरुण और यम इन सबको जीता जा सकता है; परंतु आपको तो समरभूमि में इन्द्र आदि देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। 

     भीष्म ने कहा ;- 'महाबाहो! पाण्डुनन्दन! तुम जैसा कहते हो, यह सत्य है। जब तक मेरे हाथ में अस्त्र होगा, जब तक मैं श्रेष्ठ धनुष लेकर युद्ध के लिये सावधान एवं प्रयत्नशील रहूँगा, तब तक इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी रणक्षेत्र में मुझे जीत नहीं सकते। जब मैं अस्त्र-शस्त्र डाल दूँ, उस अवस्था में ये महारथी मुझे मार सकते हैं। जिसने शस्त्र नीचे डाल दिया हो, जो गिर पड़ा हो, जो कवच और ध्वज से शून्य हो गया हो, जो भयभीत होकर भागता हो, अथवा मैं तुम्हारा हूँ, ऐसा कह रहा हो, जो स्त्री हो, स्त्रियों जैसा नाम रखता हो, विकल हो, जो अपने पिता का इकलौता पुत्र हो, अथवा जो नीच जाति का हो, ऐसे मनुष्य के साथ युद्ध करना मुझे अच्छा नहीं लगता है। राजेन्द्र! मेरे पहले से सोचे हुए इस संकल्प को सुनो, जिसकी ध्वजा में कोई अमंगलसूचक चिह्न हो, ऐसे पुरुष को देखकर मैं कभी उसके साथ युद्ध नहीं कर सकता।

      राजन! तुम्हारी सेना में जो यह द्रुपदपुत्र महारथी शिखण्डी है, वह समरभूमि में अमर्षशील, शौर्यसम्पन्न तथा युद्धविजयी है। वह पहले स्त्री था, फिर पुरुषभाव को प्राप्त हुआ है। ये सारी बातें जैसे हुई हैं, वह सब तुम लोग भी जानते हो। शूरवीर अर्जुन समरांगण में कवच धारण करके शिखण्डी को आगे रखकर मुझ पर तीखे बाणों द्वारा आक्रमण करें। शिखण्डी की ध्वजा अमांगलिक चिह्न से युक्त है तथा विशेषतः वह पहले स्त्री रहा है; इसलिये मैं हाथ में बाण लिये रहने पर भी किसी प्रकार उसके ऊपर प्रहार नहीं करना चाहता। भरतश्रेष्ठ! इसी अवसर का लाभ लेकर पाण्डुपुत्र अर्जुन मुझे चारों ओर से शीघ्रतापूर्वक बाणों द्वारा मार डालने का प्रयत्न करें। मैं महाभाग भगवान श्रीकृष्ण अथवा पाण्डुपुत्र धनंजय के सिवा दूसरे किसी को जगत में ऐसा नहीं देखता, जो युद्ध के लिये उद्यत होने पर मुझे मार सके। इसलिये यह अर्जुन श्रेष्ठ धनुष तथा दूसरे अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध में सावधानी के साथ प्रयत्नशील हो और उपर्युक्त लक्षणों से युक्त किसी पुरुष को अथवा शिखण्डी को मेरे सामने खड़ा करके स्वयं बाणों द्वारा मुझे मार गिरावे। इसी प्रकार तुम्हारी, निश्चित रूप से विजय हो सकती है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर! तुम मेरे ऊपर जैसे मैंने बतायी है, वैसी ही नीति का प्रयोग करो। ऐसा करके ही तुम रणक्षेत्र में आये हुए सम्पूर्ण धृतराष्ट्रपुत्रों एवं उनके सैनिकों को मार सकते हो।'

      संजय कहते हैं ;- राजन! यह सब जानकर कुन्ती के सभी पुत्र कुरुकुल के वृद्ध पितामह महात्मा भीष्म को प्रणाम करके अपने शिविर की ओर चले गये। गंगानन्दन भीष्म परलोक की दीक्षा ले चुके थे। उन्होंने जब पूर्वोक्त बात बतायी, तब अर्जुन दुःख से संतप्त एवं लज्जित होकर श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले,

अर्जुन ने कहा ;- 'माधव! कुरुकुल के वृद्ध गुरुजन विशुद्ध बुद्धि, मतिमान पितामह भीष्म से मैं रणक्षेत्र में कैसे युद्ध करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 92-107 का हिन्दी अनुवाद)

      वासुदेव! बचपन में खेलते समय मैंने अपने धूलि-धूसर शरीर से उन महामनस्वी महात्मा को सदा दूषित किया है। गदाग्रज! कहते हैं, मैं बचपन में अपने पिता महात्मा पाण्डु के भी पितृतुल्य भीष्म जी की गोद में चढ़कर जब उन्हें तात कहकर पुकारता था, उस समय उस बाल्यावस्था में ही वे मुझसे इस प्रकार कहते थे,,- भरतनन्दन! मैं तुम्हारा तात नहीं, तुम्हारे पिता का तात हूँ। वे ही वृद्ध पितामह मेरे द्वारा मरने योग्य कैसे हो सकते हैं। भले ही वे मेरी सेना का नाश कर डाले, मेरी विजय हो या मृत्यु; परंतु मैं उन महात्मा भीष्म के साथ युद्ध नहीं करूँगा; अथवा श्रीकृष्ण! आप कैसा ठीक समझते है। श्रीकृष्ण! अपने सनातन धर्म को जानने वाला मेरे जैसा पुरुष हथियार डालकर बैठे हुए अपने बूढ़े पितामह पर प्रहार कैसे करेगा। भगवान श्रीकृष्ण बोले- विजयी कुन्तीकुमार! तुम क्षत्रिय धर्म में स्थित हो। युद्ध में तुम पहले भीष्म के वध की प्रतिज्ञा करके अब उन्हें कैसे नहीं मारोगे? पार्थ! तुम युद्धदुर्मद क्षत्रिय प्रवर भीष्म को रथ से मार गिराओ।

      रणक्षेत्र में गंगानन्दन भीष्म को मारे बिना तुम्हारी विजय नहीं होगी। इस बात को देवताओं ने पहले से ही देख रखा है। भीष्म इसी प्रकार यमलोक को जाएंगे। पार्थ! जिसे देवताओं ने देखा है, वह उसी प्रकार होगा। उसे कोई बदल नहीं सकता। दुर्धर्ष वीर भीष्म मुँह फैलाये हुए काल के समान प्रतीत होते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई, भले ही वह साक्षात वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, उनके साथ युद्ध नहीं कर सकता। अर्जुन! तुम स्थिर होकर भीष्म को मारो और मेरी यह बात सुनो, जिसे पूर्वकाल में महाबुद्धिमान बृहस्पति जी ने देवराज इन्द्र को बताया था। कोई बड़े से बड़े गुरुजन, वृद्ध और सर्वगुण सम्पन्न पुरुष ही क्यों नहीं हो, यदि शस्त्र उठाकर अपना वध करने के लिये जा रहे हो तो उस आततायी को अवश्य मार डालना चाहिये। धनंजय! यह क्षत्रियों का निश्चित सनातन धर्म है। उन्हें किसी के प्रति दोषदृष्टि न रखकर सदा युद्ध प्रजाओं की रक्षा और यज्ञ करते रहने चाहिये।

     अर्जुन ने कहा ;- श्रीकृष्ण! शिखण्डी निश्चय ही भीष्म की मृत्यु का कारण होगा; क्योंकि भीष्म उस पांचाल राजकुमार को देखते ही सदा युद्ध से निवृत हो जाते है। अतः हम सब लोग उनके सामने शिखण्डी को खड़ा करके शस्त्रप्रहार रूप उपाय द्वारा गंगानन्दन भीष्म को मार गिरायेंगे, यही मेरा विचार है। मैं बाणों द्वारा अन्य महाधनुर्धरों को रोकूँगा। शिखण्डी भी योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म के साथ ही युद्ध करे। कुरुकुल के प्रधान वीर भीष्म का यह निश्चय है कि मैं शिखण्डी को नहीं मारूँगा क्योंकि वह पहले कन्या रूप में उत्पन्न होकर पीछे पुरुष हुआ है। अर्जुन का भीष्म के वध से सम्बंध रखने वाला यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण सहित समस्त पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। उस समय हर्षातिरेक के कारण उनके शरीर में रोमांन्च हो आया। ऐसा निश्चय करके श्रीकृष्णसहित पाण्डव मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट हो महात्मा भीष्म से बिदा लेकर चले गये और उन पुरुषशिरोमणियों ने अपनी अपनी शय्याओं का आश्रय लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व नवें दिन के युद्ध के समाप्त होने के पश्चात परस्पर गुप्तमन्त्रणा विषय एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“दसवें दिन उभय पक्ष की सेना का रण के लिये प्रस्थान तथा भीष्म और शिखण्डी का समागम एवं अर्जुन का शिखण्डी को भीष्म का वध करने के लिये उत्साहित करना”

      धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! शिखण्डी ने युद्ध में गंगानन्दन भीष्म पर किस प्रकार आक्रमण किया और भीष्म भी पाण्डवों पर किस प्रकार चढ़ाई की? यह सब मुझे बताओ। 

    संजय ने कहा ;- राजन! तदनन्तर सूर्योदय होने पर रणभेरियाँ बज उठी, मृदंग और ढोल पीटे जाने लगे, दही के समान श्वेतवर्ण वाले शंख सब ओर बजाये जाने लगे। उस समय समस्त पाण्डव शिखण्डी को आगे करके युद्ध के लिये शिविर से बाहर निकले। महाराज! प्रजानाथ! उस दिन शिखण्डी समस्त शत्रुओं का संहार करने वाले व्यूह का निर्माण करके स्वयं सब सेना के सामने खड़ा हुआ। उस समय भीमसेन और अर्जुन शिखण्डी के रथ के पहियों के रक्षक बन गये। द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने उसके पृष्ठभाग की रक्षा का कार्य सँभाला। सात्यकि और चेकितान भी उन्हीं के साथ थे। पांचाल वीरों से सुरक्षित महारथी धृष्टद्युम्न उन सबके पीछे रहकर सबकी रक्षा करते रहे।

       भरतश्रेष्ठ! तदन्तर राजा युधिष्ठिर नकुल-सहदेव के साथ अपने सिंहानाद से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए युद्ध के लिये चले। उनके पीछे अपनी सेना के साथ राजा विराट चलने लगे। महाबाहो! विराट के पीछे द्रुपद ने धावा किया। भारत! इसके बाद पाँचों भाई केकय तथा पराक्रमी धृष्टकेतु- ये पाण्डव सेना के जघनभाग की रक्षा करने लगे। इस प्रकार पाण्डवों ने अपनी विशाल सेना के व्यूह का निर्माण करके संग्राम में अपने जीवन का मोह छोड़कर आपकी सेना पर धावा किया। राजन! इसी प्रकार कौरवों ने भी महारथी भीष्म को सब सेनाओं के आगे करके पाण्डवों पर चढ़ाई की। दुर्धर्ष वीर शान्तनुनन्दन भीष्म आपके महाबली पुत्रों से सुरक्षित हो पाण्डवों की सेना की ओर बढे़। उनके पीछे महाधनुर्धर द्रोणाचार्य और महाबली अश्वत्थामा चले। इन दोनों के पीछे हाथियों की विशाल सेना घिरे हुए राजा भगदत्त चले। कृपाचार्य और कृतवर्मा ने भगदत्त का अनुसरण किया। तत्पश्चात बलवान काम्बोजराज सुदक्षिण, मगधदेशीय जयत्सेन तथा सुबलपुत्र बृहद्बल चले। भारत! इसी प्रकार सुशर्मा आदि अन्य महाधनुर्धर राजाओं ने आपकी सेना के जघनभाग की रक्षा का कार्य सँभाला। शान्तनुनन्दन भीष्म युद्ध में प्रतिदिन असुर, पिशाच तथा राक्षस व्यूहों का निर्माण किया करते थे। भारत! (उस दिन भी व्यूह-रचना के बाद) आपके और पाण्डवों की सेना में युद्ध आरम्भ हुआ। राजन! परस्पर घातक प्रहार करने वाले उन वीरों का युद्ध यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला था।

     अर्जुन आदि कुन्तीकुमारों ने शिखण्डी को आगे करके युद्ध में नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ भीष्म पर चढ़ाई की। भारत! वहाँ भीमसेन के द्वारा बाणों से ताड़ित हुए आपके सैनिक खून से लथपथ होकर परलोकगामी होने लगे। नकुल, सहदेव और महारथी सात्यकि ने आपकी सेना पर धावा करके उसे बलपूर्वक पीड़ित किया। भरतश्रेष्ठ! आपके सैनिक समरभूमि में मारे जाने लगे। वे पाण्डवों की विषाल सेना को रोक न सके। उन महारथी वीरों द्वारा सब ओर से मारी और खदेड़ी जाती हुई आपकी सेना सब दिशाओं में भाग खड़ी हुई। भरतश्रेष्ठ! पाण्डवों और सृंजयों के तीखे बाणों से घायल होने वाले आपके सैनिकों को कोई रक्षक नहीं मिलता था। धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! कुन्तीकुमारों के द्वारा अपनी सेना को पीड़ित हुई देख युद्ध में क्रुद्ध हुए पराक्रमी भीष्म ने क्या किया? यह मुझे बताओ। अनघ! शत्रुओं को संताप देने वाले वीरवर भीष्म ने युद्धस्थल में सोमकों का संहार करते हुए उस समय पाण्डवों पर किस प्रकार आक्रमण किया? वह सब भी मुझे बताओ।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 26-50 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय ने कहा ;- महाराज! पाण्डव तथा सृंजयों द्वारा आपके पुत्र की सेना के पीड़ित होने पर आपके ताऊ भीष्म ने जो कुछ किया था, वह सब आपको बता रहा हूँ। पाण्डु के बड़े भैया! शूरवीर पाण्डव मन में हर्ष और उत्साह भरकर आपके पु़त्र की सेना का संहार करते हुए आगे बढे़। नरेन्द्र! उस समय मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों के उस विनाश को रणक्षेत्र में शत्रुओं द्वारा किये जाने वाले अपनी सेना के संहार को भीष्म जी नहीं सह सके। वे महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर भीष्म अपने जीवन का मोह छोड़कर पाण्डवों, पांचालों तथा सृंजयों पर तीखे नाराच, वत्सदन्त और अमांगलिक आदि बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! वे अस्त्र-शस्त्र लेकर पाण्डव पक्ष के पाँच श्रेष्ठ महारथियों का रणक्षेत्र में बाणों द्वारा यत्नपूर्वक निवारण करने लगे।

       उन्होंने बल और क्रोध से चलाये हुए नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा द्वारा समरांगण में उन पाँचों महारथियों को मार डाला और कुपित होकर असंख्य हाथी-घोड़ों का भी संहार कर डाला। राजन! पुरुषश्रेष्ठ भीष्म ने कितने ही रथियों को रथों से, घुड़सवारों को घोड़ों की पीठों से, शत्रुओं पर विजय पाने वाले हाथी सवारों को हाथियों से तथा सामने आये हुए पैदल सिपाहियों को भी मार गिराया। समरभूमि में फुर्ती दिखाने वाले एकमात्र महारथी भीष्म पर समस्त पाण्डवों ने उसी प्रकार धावा किया, जैसे असुर वज्रधारी इन्द्र पर आक्रमण करते हैं। भीष्म इन्द्र के वज्र के समान दुःसह स्पर्श वाले पैने बाणों की वर्षा कर रहे थे और सम्पूर्ण दिशाओं में भयंकर स्वरूप धारण किये दिखायी देते थे। संग्रामभूमि में युद्ध करते हुए भीष्म का इन्द्रधनुष के समान विशाल धनुष सदा मण्डलाकार ही दिखायी देता था। प्रजानाथ! रणक्षेत्र में आपके पुत्र पितामह के उस कर्म को देखकर अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उस समय कुन्ती के पुत्र खिन्नचित होकर रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए आपके ताऊ शूरवीर भीष्म की ओर उसी प्रकार देखने लगे, जैसे देवता विप्रचित्ति नामक दानव को देखते है। वे मुँह फैलाये हुए काल के समान भीष्म को रोक न सके। दसवाँ दिन आने पर भीष्म जैसे दावाग्नि वन को जला देती है, उसी प्रकार शिखण्डी की रथ सेना को तीखे बाणों की आग में भस्म करने लगे।

       तब शिखण्डी ने तीन बाणों से भीष्म की छाती में प्रहार किया। उस समय वे कालप्रेरित मृत्यु तथा क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान जान पड़ते थे। शिखण्डी के द्वारा अत्यन्त घायल हो भीष्म उसकी ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो बिना इच्छा के हँसते हुए इस प्रकार बोले- 'अरे, तू इच्छानुसार प्रहार कर या न कर! मैं तेरे साथ किसी तरह युद्ध नहीं करूँगा। विधाता ने जिस रूप में तुझे उत्पन्न किया था, तू वही शिखण्डीनी है। उनकी यह बात सुनकर शिखण्डी क्रोध से मूर्च्छित-सा हो गया और अपने मुँह के कोनों को चाटता हुआ भीष्म से इस प्रकार बोला। क्षत्रियों का विनाश करने वाले महाबाहु भीष्म! मैं भी आपको जानता हूँ। मैंने सुना है कि आपने जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ युद्ध किया था। आपका यह दिव्य प्रभाव बहुत बार मेरे सुनने में आया है। आपके उस प्रभाव को जानकर भी मैं आज आपके साथ युद्ध करूंगा।

      नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! आज पाण्डवों का और अपना भी प्रिय करने के लिये रणक्षेत्र में खूब डटकर आपका सामना करूंगा। मैं आपके सामने सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज आपको निश्चय ही मार डालूँगा। मेरी यह बात सुनकर आपको जो कुछ करना हो, वह कीजिये। युद्धविजयी भीष्म जी! आप मुझ पर इच्छानुसार प्रहार कीजिये या न कीजिये; परंतु आज आप मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेंगे। अब इस संसार को अच्छी तरह देख लीजिये।' संजय कहते है- राजन! ऐसा कहकर शिखण्डी ने जिन्हें पहले वचनरूपी बाणों से पीड़ित किया था, उन्हीं भीष्म को झुकी हुई गाँठ वाले पाँच सायकों द्वारा घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चाधिकशततम अध्याय के श्लोक 51-60 का हिन्दी अनुवाद)

      उसके उस कथन को सुनकर महारथी सव्यसाची अर्जुन ने यह सोचकर कि यही इसके उत्साह बढ़ाने का अवसर है, शिखण्डी से इस प्रकार कहा,

अर्जुन ने कहा ;- वीर! मैं बाणों द्वारा शत्रुओं को भगाता हुआ सदा तुम्हारा साथ दूँगा। अत: तुम भयंकर पराक्रमी भीष्म पर रोषपूर्वक आक्रमण करो। महाबाहो! युद्ध में महाबली भीष्म तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते, इसलिये आज यत्नपूर्वक इनके ऊपर धावा करो। आर्य! यदि समरभूमि में भीष्म को मारे बिना लौट जाओगे तो मेरे सहित तुम इस लोक में उपहास के पात्र बन जाओगे। वीर! इस महायुद्ध में जैसे भी हम लोग हंसी के पात्र न बने, वैसा प्रयत्न करो। रणक्षेत्र में पितामह भीष्म को अवश्य मार डालो।

      महाबली वीर! इस युद्ध में मैं सब रथियों को रोककर सदा तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा। तुम पितामह को मारने का कार्य सिद्ध कर लो। मैं द्रोणाचार्य, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, कृपाचार्य, दुर्योधन, चित्रसेन, विकर्ण, सिन्धुराज जयद्रथ, अवन्ती के राजकुमार विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, शूरवीर भगदत्त, महाबली मगधराज, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, राक्षस अलम्बुष तथा त्रिगर्तराज सुशर्मा को रणक्षेत्र में सब महारथियों के साथ उसी प्रकार रोके रखूँगा, जैसे तटभूमि समुद्र को आगे बढ़ने नहीं देती है। युद्ध में एक साथ लगे हुए समस्त महाबली कौरवों को भी मैं युद्धस्थल में आगे बढ़ने से रोक दूँगा। तुम पितामह भीष्म का वध का कार्य सिद्ध करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म और शिखण्डी का समागमविषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म और दुर्योधन का संवाद तथा भीष्म के द्वारा लाखों सैनिकों का संहार”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! पांचालराजकुमार शिखण्डी ने समरभूमि में कुपित होकर नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले धर्मात्मा पितामह गंगानन्दन भीष्म पर किस प्रकार धावा किया? पाण्डवों की सेना के किन-किन वीर महारथियों ने अस्त्र-शस्त्र लेकर विजय की अभिलाषा से उस शीघ्रता के समय अपनी शीघ्रकारिता परिचय देते हुए श्खिण्डी का संरक्षण किया? महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने दसवें दिन पाण्डवों तथा सृंजयों के साथ किस प्रकार युद्ध किया? रणक्षेत्र में शिखण्डी ने भीष्म पर आक्रमण किया, यह मुझसे सहन नहीं हो रहा है। कहीं उनका रथ तो नहीं टूट गया था अथवा बाणों का प्रहार करते-करते उनके धनुष के टुकड़े-टुकड़े तो नहीं हो गये थे?

    संजय ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! संग्राम में युद्ध करते समय भीष्म के न तो धनुष के ही टुकड़े-टुकड़े हुए थे और न उनका रथ ही टुटा हुआ था। वे समरभूमि में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा शत्रुओं का संहार करते जा रहे थे। राजन! आपके कई लाख महारथी, हाथी और घोड़े सुसज्जित हो पितामह भीष्म को आगे करके युद्ध के लिये बढ़ रहे थे। कुरुनन्दन! युद्धविजयी भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रणक्षेत्र में कुन्तीकुमारों का निरन्तर संहार कर रहे थे। बाणों द्वारा शत्रुओं को मारते हुए युद्धपरायण महाधनुर्धर भीष्म को पाण्डवों सहित सारे पाञ्चाल योद्धा भी आगे बढ़ने से रोक न सके। दसवें दिन शत्रु की सेना पर भीष्म के द्वारा सैकड़ों और हजारों पैन बाणों की वर्षा की जाने लगी पंरतु पाण्डव इसे रोक न सके। पाण्डु के ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र! पाशधारी यमराज के समान महाधनुर्धर भीष्म को युद्ध में जीतने के लिए पाण्डव कभी समर्थ न हो सके। महाराज! तदन्तर किसी से परास्त न होने वाले और बायें हाथ से भी बाण चलाने में समर्थ धनंजय अर्जुन समस्त रथियों को भयभीत करते हुए उनके निकट आये। वे कुन्तीकुमार सिंह के समान उच्च स्वर से गर्जना करते हुए बारंबार अपने धनुष की डोर खींचने और बाणसमूहों की वर्षा करते हुए रणक्षेत्र में काल के समान विचरते थे। राजन! भरतश्रेष्ठ! जैसे सिंह के शब्द से अत्यन्त भयभीत होकर मृग भाग जाते हैं, उसी प्रकार अर्जुन के सिंहनाद से संत्रस्त हुए आपके सैनिक महान भय के कारण भागने लगे।

      पाण्डुनन्दन अर्जुन को जीतने और आपकी सेना को पीड़ित होती देख दुर्योधन अत्यन्त पीड़ित होकर भीष्म से बोला,

     दुर्योधन बोला ;-- 'तात! ये श्वेत घोड़ों वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन, जिनके सारथि श्रीकृष्ण हैं, मेरे सारे सैनिकों को उसी प्रकार दग्ध करते हैं, जैसे दावानल वन को। योद्धाओं में श्रेष्ठ गंगानन्दन! देखिये, मेरी सेनाएँ सब ओर भाग रही हैं और अर्जुन युद्धस्थल में खड़े हो उन्हें खदेड़ रहे हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले पितामह! जैसे चरवाहा जंगल में पशुओं को हाँकता है, उसी प्रकार मेरी यह सेना अर्जुन के द्वारा हाँकी जा रही है। धनंजय के बाणों से आहत हो व्यूह भंग करके इधर-उधर भागने वाली मेरी सेना को ये दुर्धर्ष वीर भीमसेन भी पीछे से खदेड़ रहे हैं। सात्यकि, चेकितान, पाण्डु और माद्री के पुत्र नकुल सहदेव और पराक्रमी अभिमन्यु भी मेरी सेना को भगा रहे हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

       'धृष्टद्युम्न तथा शूरवीर राक्षस घटोत्कच ने भी सहसा इस महासमर में आकर मेरी सेना को मार भगाया है। भारत! इन सब महारथियों द्वारा मारी जाती हुई अपनी सेना को मैं युद्ध में ठहराने के लिये आपके सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं देखता। देवतुल्य पराक्रमी पुरुषसिंह! केवल आप ही उसकी रक्षा में समर्थ हैं। अतः हम पीड़ितों के लिये आप शीघ्र ही आश्रयदाता होइये।' 

      संजय कहते हैं ;- महाराज! दुर्योधन के ऐसा कहने पर आपके ताऊ शान्तनुनन्दन देवव्रत ने दो घड़ी तक कुछ चिन्तन करने के पश्चात अपना एक निश्चय करके आपके पुत्र दुर्योधन को सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा-

     भीष्म ने कहा ;-  'प्रजानाथ दुर्योधन! सुस्थिर होकर इधर ध्यान दो। महाबली नरेश! पूर्वकाल में मैंने तुम्हारे लिये यह प्रतिज्ञा की थी कि दस हजार महामनस्वी क्षत्रियों का वध करके ही मुझे संग्रामभूमि से हटना होगा और यह मेरा दैनिक कर्म होगा। भरतश्रेष्ठ! जैसा मैंने कहा था, वैसा अब तक करता आया हूँ। महाबली वीर! आज भी मैं महान कर्म करूँगा। या तो आज मैं ही मरा जाकर रणभूमि में सो जाऊँगा या पाण्डवों का ही संहार करूँगा। पुरुषसिंह! नरेश! तुम स्वामी हो, मुझ पर तुम्हारे अन्न का ऋण है; आज युद्ध के मुहाने पर मारा जाकर मैं तुम्हारे उस ऋण को उतार दूँगा।'

       भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर दुर्धर्ष वीर भीष्म ने क्षत्रियों पर अपने बाणों की वर्षा करते हुए पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। सेना के मध्य भाग में स्थित हुए विषधर सर्प के समान कुपित भीष्म को पाण्डव सैनिक रोकने लगे। किंतु राजन! कुरुनन्दन! दसवें दिन भीष्म ने अपनी शक्ति का परिचय देते हुए लाखों पाण्डव सैनिकों का संहार कर डाला। जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा धरती का जल सोख लेते हैं, उसी प्रकार भीष्म जी ने पाञ्चालों में जो श्रेष्ठ महारथी राजकुमार थे, उन सबके तेज हर लिये।

       महाराज! सवारों सहित दस हजार वेगशाली हाथियों, उतने ही घोड़ों और घुड़सवारों तथा दो लाख पैदल सैनिकों को नरश्रेष्ठ भीष्म ने रणभूमि में धूमरहित अग्नि की भाँति फूँक डाला। उत्तरायण का आश्रय लेकर तपते हुए सूर्य की भाँति प्रतापी भीष्म की ओर पाण्डवों में से कोई देखने में समर्थ न हो सके। महाधनुर्धर भीष्म के बाणों से पीड़ित हो अत्यन्त क्रोध में भरे हुए पाण्डव तथा सृंजय महारथी भीष्म के वध के लिये उन पर टूट पड़े। बहुत-से योद्धाओं के साथ अकेले युद्ध करते हुए शान्तनुनन्दन भीष्म उस समय बाणों से आच्छादित हो मेघों के समूह से आवृत हुए महान पर्वत मेरु की भाँति शोभा पा रहे थे। राजन! आपके पुत्रों ने विशाल सेना के साथ आकर गंगानन्दन भीष्म को सब ओर से घेर लिया। तत्पश्चात वहाँ विकट युद्ध होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में भीष्म-दुर्योधन-संवाद विषयक एक सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

एक सौ दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखण्डी का भीष्म पर आक्रमण और दोनों सेनाओं के प्रमुख वीरों का परस्पर युद्ध तथा दुःशासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध”

    संजय कहते है ;- राजन्! रणभूमि में भीष्म का पराक्रम देखकर अर्जुन ने शिखण्डी से कहा,

   अर्जुन ने कहा ;- वीर! तुम पितामह का सामना करने के लिये आगे बढ़ो। आज भीष्म जी से तुम्हें किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। मैं स्वयं अपने पैने बाणों द्वारा इनको उत्तम रथ से मार गिराऊँगा। भरतश्रेष्ठ! जब अर्जुन ने शिखण्डी से ऐसा कहा, तब उसने पार्थ के उस कथन को सुनकर गंगानन्दन भीष्म पर धावा किया। राजन्! पार्थ का वह भाषण सुनकर धृष्टद्युम्न तथा सुभद्राकुमार महारथी अभिमन्यु- ये दोनों वीर हर्ष और उत्साह में भरकर भीष्म की ओर दौड़े। दोनों वृद्ध नरेश विराट और द्रुपद तथा कवचधारी कुन्तिभोज भी आपके पुत्र के देखते-देखते गंगानन्दन भीष्म पर टूट पड़े।

     प्रजानाथ! नकुल, सहदेव, पराक्रमी धर्मराज युधिष्ठिर तथा दूसरे समस्त सैनिक अर्जुन का उपर्युक्त वचन सुनकर भीष्म जी की ओर बढ़ने लगे। इस प्रकार एकत्र हुए पाण्डव महारथियों पर आपके पुत्रों ने भी जिस प्रकार अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार आक्रमण किया, वह सब बताता हूँ, सुनिये। महाराज! चित्रसेन ने भीष्म के पास पहुँचने की इच्छा से रण में जाते हुए चेकितान का सामना किया, मानो बाघ का बच्चा बैल का सामना कर रहा हो। राजन्! कृतवर्मा ने भीष्म जी के निकट पहुँचकर युद्ध के लिये उतावलीपूर्वक प्रयत्न करने वाले धृष्टद्युम्न को रोका।

       महाराज! भीमसेन भी अत्यन्त क्रोध में भरकर गंगानन्दन भीष्म का वध करना चाहते थे; परंतु सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा ने तुरंत आकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। इसी प्रकार शूरवीर, नकुल बहुत से सायकों की वर्षा कर रहे थे, परंतु भीष्म के जीवन की रक्षा चाहने वाले विकर्ण ने उन्हें रोक दिया। राजन्! युद्धस्थल में भीष्म के रथ की ओर जाते हुए सहदेव को कुपित हुए शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने रोक दिया। भीष्म की मृत्यु चाहने वाले क्रूरकर्मा राक्षस महाबली भीमसेनकुमार घटोत्कच पर बलवान दुर्मुख ने आक्रमण किया। पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये भीष्म का वध चाहने वाले सात्यकि को युद्ध के लिये जाते देख आपके पुत्र दुर्योधन ने रोका। महाराज! भीष्म के रथ की ओर अग्रसर होने वाले अभिमन्यु को काम्बोराज सुदक्षिण ने रोका। भारत! एक साथ आये हुए शत्रुमर्दन बूढ़े नरेश विराट और द्रुपद को क्रोध में भरे हुए अश्वत्थामा ने रोक दिया। भीष्म के वध की अभिलाषा रखने वाले ज्येष्ठ पाण्डव धर्मपुत्र युधिष्ठिर को युद्ध में द्रोणाचार्य ने यत्नपूर्वक रोका।

       महाराज! दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए वेगशाली वीर अर्जुन युद्ध में शिखण्डी को आगे करके भीष्म को मारना चाहते थे। उस समय महाधनुर्धर दुःशासन ने युद्ध के मैदान में आकर उन्हें रोका। राजन्! इसी प्रकार आपके अन्य योद्धाओं ने भीष्म के सम्मुख गये हुए पाण्डव महारथियों को युद्ध में आगे बढने से रोक दिया। धृष्टद्युम्न अपने सैनिकों से बार बार पुकार पुकारकर कहने लगे- वीरों! तुम सब लोग उत्साहित होकर एकमात्र महाबली भीष्म पर आक्रमण करो। ये कुरुकुल को आनन्दित करने वाले अर्जुन रणक्षेत्र में भीष्म पर चढ़ाई करते हैं। तुम भी उन पर टूट पडों। डरो मत। भीष्म तुम लोगों को नहीं पा सकेंगे। इन्द्र भी समरांगण में अर्जुन के साथ युद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते; फिर ये धैर्य और शक्ति से शून्य भीष्म रणक्षेत्र में उनका सामना कैसे कर सकते है? अब इनका जीवन थोड़ा ही शेष रहा है। सेनापति का यह वचन सुनकर पाण्डव महारथी अत्यन्त हर्ष में भरकर गंगानन्दन भीष्म के रथ पर टूट पड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-44 का हिन्दी अनुवाद)

      यु़द्ध में प्रलयकालीन जल प्रवाह के समान आते हुए उन वीरों को आपकी सेना के श्रेष्ठ पुरुषों ने हर्ष और उत्साह में भरकर रोका। महाराज! महारथी दुःशासन ने भय छोड़कर भीष्म की जीवन-रक्षा के लिये धनंजय पर धावा किया। इसी प्रकार शूरवीर महारथी पाण्डवों ने युद्ध मेंं गंगानंदन [भीष्म] के रथ की ओर खड़े हुए आपके पुत्रों पर आक्रमण किया। प्रजानाथ! वहाँ हमने सबसे अद्धभुत और विचित्र बात यह देखी कि अर्जुन दुःशासन के रथ के पास पहुँचकर वहाँ से आगे न बढ़ सके। जैसे तट की भूमि विक्षुब्ध जलराशि वाले महासागर को रोके रहती है, उसी प्रकार आपके पुत्र ने क्रोध मेंं भरे हुए अर्जुन को रोक दिया था।

     भारत! वे दोनों रथियों मेंं श्रेष्ठ और दुर्जय वीर थे। दोनों ही कान्ति और दीप्ति मेंं चन्द्रमा और सूर्य के समान जान पड़ते थे और भारत! दुःशासन तथा अर्जुन दोनों वीर वृत्रासुर एवं इन्द्र के समान तेजस्वी थे। वे दोनों क्रोध में भरकर एक-दूसरे के वध की अभिलाषा रखते थे। उस महायुद्ध मेंं वे उसी प्रकार एक-दूसरे से भिड़े हुए थे, जैसे पूर्वकाल मेंं मयासुर और इन्द्र आपस मेंं लड़ते थे। महाराज! दुःशासन ने तीन बाणोंं द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन को और बीस बाणोंं से वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को युद्ध मेंं घायल किया। भगवान श्रीकृष्ण को बाणों से पीड़ित हुआ देख अर्जुन का क्रोध उमड़ आया और उन्होंने दुःशासन को युद्ध में सौ नाराचों से घायल कर दिया। वे नाराच रणक्षेत्र में दुःशासन का कवच विदीर्ण करके उसका रक्त पीने लगे, मानो प्यासे सर्प तालाब में घुस गये हो।

     महाराज! महारथी दुःशासन ने भय छोड़कर भीष्म की जीवन-रक्षा के लिये धनंजय पर धावा किया। इसी प्रकार शूरवीर महारथी पाण्डवों ने युद्ध मेंं गंगानंदन भीष्म के रथ की ओर खड़े हुए आपके पुत्रो पर आक्रमण किया। प्रजानाथ! वहाँ हमने सबसे अद्धभुत और विचित्र बात यह देखी कि अर्जुन दुःशासन के रथ के पास पहुँचकर वहाँ से आगे न बढ़ सके। जैसे तट की भूमि विक्षुब्ध जलराशि वाले महासागर को रोके रहती है, उसी प्रकार आपके पुत्र ने क्रोध मेंं भरे हुए अर्जुन को रोक दिया था।

“अर्जुन और दु:शासन के बीच घोर युद्ध”

      भारत! वे दोनो रथियो मेंं श्रेष्ठ और दुर्जय वीर थे। दोनों ही कान्ति और दीप्ति मेंं चन्द्रमा और सूर्य के समान जान पड़ते थे और भारत! दुःशासन तथा अर्जुन दोनो वीर वृत्रासुर एवं इन्द्र के समान तेजस्वी थे। वे दोनों क्रोंध में भरकर एक-दूसरे के वध की अभिलाषा रखते थे। उस महायुद्ध मेंं वे उसी प्रकार एक-दूसरे से भिड़े हुए थे, जैसे पूर्वकाल मेंं मयासुर और इन्द्र आपस मेंं लड़ते थे। महाराज! दुःशासन ने तीन बाणोंं द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन को और बीस बाणोंं से वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को युद्ध मेंं घायल किया। भगवान श्रीकृष्ण को बाणों से पीड़ित हुआ देख अर्जुन का क्रोध उमड़ आया और उन्होंने दुःशासन को युद्ध में सौ नाराचों से घायल कर दिया। वे नाराच रणक्षेत्र में दुःशासन का कवच विदीर्ण करके उसका रक्त पीने लगे, मानो प्यासे सर्प तालाब में घुस गये हो। भरतश्रेष्ठ! तब दुःशासन ने कुपित होकर अर्जुन के ललाट मेंं झुकी हुई गाँठ वाले तीन पंखयुक्त बाण मारे। ललाट में लगे हुए उन बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन युद्ध में उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसेे मेरुपर्वत अपने तीन अत्यंत ऊँचे शिखरो से सुषोभित होता है। आपके धनुर्धर पुत्र द्वारा युद्ध मेंं अधिक घायल किये जाने पर महाधनुर्धर अर्जुन खिले हुए पलाश वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। तदनंतर कुपित हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन दुःशासन को उसी प्रकार पीड़ा देने लगे, जैसे पूर्णिमा के दिन अत्यंत क्रोध मेंं भरा हुआ राहु पूर्ण चन्द्रमा को पीड़ा देता है। प्रजानाथ! बलवान् अर्जुन के द्वारा पीड़ित होने पर आपके पुत्र ने शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए कंकपत्र युक्त बाणों द्वारा समरभूमि मेंं उन कुन्तीकुमार को बींध ड़ाला। तब अर्जुन तीन बाणोंं से दुःशासन के रथ और धनुष को छिन्न-भिन्न करके आपके उस पुत्र को पैने बाणोंं द्वारा अच्छी तरह घायल किया। तब दुःशासन ने दूसरा धनुष ले भीष्म के सामने खड़े होकर अर्जुन की दोनों भुजाओं और छाती में पच्चीस बाण मारे।

      महाराज! तब शत्रुओ को संताप देने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो दुःशासन पर यमदण्ड़ के समान भयंकर बहुत से बाण चलायें। परन्तु आपके पुत्र ने अर्जुन के प्रयत्नशील होते हुए भी उन बाणों को अपने पास आने के पहले ही काट ड़ाला। वह एक अद्धभुत-सी बात थी। बाणोंं को काटने के पश्चात् आपके पुत्र ने कुन्तीकुमार अर्जुन को तीखे बाणों द्वारा बींध ड़ाला, तब रणक्षेत्र मेंं अर्जुन ने कुपित होकर अपने धनुष पर स्वर्णमय पंख से युक्त एवं शिला पर रगड़कर तेज किये हुए बाणों का संधान किया और उन्हें दुःशासन पर चलाया। महाराज! भरतनन्दन! जैसे हंस तालाब मेंं पहुँचकर उसके भीतर गोते लगाते हैं, उसी प्रकार वे बाण महामना दुःशासन के शरीर मेंं धँस गये।

     भरतश्रेष्ठ! तब दुःशासन ने कुपित होकर अर्जुन के ललाट मेंं झुकी हुई गाँठ वाले तीन पंखयुक्त बाण मारे। ललाट में लगे हुए उन बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन युद्ध में उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसेे मेरुपर्वत अपने तीन अत्यंत ऊँचे शिखरों से सुषोभित होता है। आपके धनुर्धर पुत्र द्वारा युद्ध मेंं अधिक घायल किये जाने पर महाधनुर्धर अर्जुन खिले हुए पलाश वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। तदनंतर कुपित हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन दुःशासन को उसी प्रकार पीड़ा देने लगे, जैसे पूर्णिमा के दिन अत्यंत क्रोध में भरा हुआ राहु पूर्ण चन्द्रमा को पीड़ा देता है। प्रजानाथ! बलवान् अर्जुन के द्वारा पीड़ित होने पर आपके पुत्र ने शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए कंकपत्र युक्त बाणों द्वारा समरभूमि मेंं उन कुन्तीकुमार को बींध डाला। तब अर्जुन तीन बाणोंं से दुःशासन के रथ और धनुष को छिन्न-भिन्न करके आपके उस पुत्र को पैने बाणोंं द्वारा अच्छी तरह घायल किया। तब दुःशासन ने दूसरा धनुष ले भीष्म के सामने खड़े होकर अर्जुन की दोनों भुजाओं और छाती में पच्चीस बाण मारे।

   महाराज! तब शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो दुःशासन पर यमदण्ड के समान भयंकर बहुत से बाण चलाये। परन्तु आपके पुत्र ने अर्जुन के प्रयत्नशील होते हुए भी उन बाणों को अपने पास आने के पहले ही काट डाला। वह एक अद्भुत-सी बात थी। बाणोंं को काटने के पश्चात् आपके पुत्र ने कुन्तीकुमार अर्जुन को तीखे बाणों द्वारा बींध डाला, तब रणक्षेत्र मेंं अर्जुन ने कुपित होकर अपने धनुष पर स्वर्णमय पंख से युक्त एवं शिला पर रगड़कर तेज किये हुए बाणों का संधान किया और उन्हें दुःशासन पर चलाया। महाराज! भरतनन्दन! जैसे हंस तालाब मेंं पहुँचकर उसके भीतर गोते लगाते हैं, उसी प्रकार वे बाण महामना दुःशासन के शरीर में धँस गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 45-48 का हिन्दी अनुवाद)

    इस प्रकार महामना पाण्डुनन्दन अर्जुन के द्वारा पीड़ित होकर आपका पुत्र दुःशासन युद्ध मेंं अर्जुन को छोड़कर तुरंत ही भीष्म के रथ पर जा बैठा। उस समय अगाध समुद्र में डूबते हुए दुःशासन के लिये भीष्म जी द्वीप हो गये।

    प्रजानाथ! तदनन्तर होष-हवाश ठीक होने पर आपके पराक्रमी एवं शूरवीर पुत्र दुःशासन ने पुनः अत्यन्त तीखे बाणोंं द्वारा कुंतीकुमार अर्जुन को रोका, मानो इन्द्र ने वृत्रासुर की गति को अवरुद्ध कर दिया हो। महाकाय दुःशासन ने अर्जुन को अपने बाणोंं से क्षत-विक्षत कर दिया, परन्तु वे तनिक भी व्यथित नहीं हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में अर्जुन और दुःशासन का युद्धविषयक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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