सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र की चिन्ता”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! इस प्रकार हमारी सेना अनेक गुणों से सम्पन्न है। अनेक अंगों से युक्त और अनेक प्रकार से संगठित है तथा शास्त्रीय विधि से उसकी व्यूहरचना की गयी है। अत: वह अमोघ (विजय पाने में विफल न होने वाली) है। हमारी यह सेना हम लोगों पर सदा प्रसन्न और अनरक्त रहने वाली है। हमारे प्रति सर्वदा विनीतभाव रखती आयी है। यह किसी भी व्यसन में नहीं फँसी है। पूर्वकाल में इसका पराक्रम देखा जा चुका है। इसमें न कोई अत्यन्त बूढ़ा है, न बालक है, न अत्यन्त दुबला है और न अत्यन्त मोटा ही है। इसमें शीघ्र कार्य करने वाले, प्रायः ऊँचे कद के लोग हैं। इस सेना का प्रत्येक सैनिक सारवान् योद्धा और नीरोग है। यहाँ सबने कवच एवं अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखा है। अनेक प्रकार के बहुसंख्यक शस्त्रों का संग्रह किया गया है। यहाँ का एक-एक योद्धा खड्ग युद्ध, मल्ल युद्ध और गला युद्ध में कुशल है। ये सैनिक प्राप्त, ऋष्टि, तोमर, लोहमय परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, कम्पन, चाय तथा कणप आदि दूसरों पर चलाने योग्य विचित्र अस्त्रों का युद्ध में प्रयोग करने की कला में कुशल तथा मुष्टियुद्ध में भी सब प्रकार से समर्थ है।
हमारी इस सेना को धनुर्वेद का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त है। इसके सैनिकों ने व्यायाम (अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास) में भी अधिक परिश्रम किया है। ये शस्त्रग्रहण से सम्बन्ध रखने वाली सभी विद्याओं में पारंगत हैं। ये हाथी, घोड़े आदि सवारियों पर चढ़ने, उतरने, आगे बढ़ने, बीच में ही कूद पड़ने, अच्छी तरह प्रहार करने, चढ़ाई करने और पीछे हटने में भी प्रवीण हैं। हाथी, घोड़े, रथ आदि की सवारियों द्वारा रणयात्रा करने में इस सेना की अनेक प्रकार परीक्षा की जा चुकी है। परीक्षा करके प्रत्येक सैनिक को उसकी योग्यता के अनुकूल यथोचित वेतन दे दिया गया है। इनमें से किसी को मित्रों की गोष्ठी से लाकर, सामान्य उपकार करके, भाई-बन्धु होने के कारण, सौहार्दवश अथवा बलप्रयोग करके सेना में सम्मलित नहीं किया गया है। जो कुलीन नहीं हैं, ऐसे लोगों का भी इस सेना में संग्रह नहीं हुआ है। हमारी सेना में जो लोग हैं, वे सब समृद्धिशाली और श्रेष्ठ हैं। उनके सगे-सम्बन्धी, भाई-बन्धु भी संतुष्ट है। इन सब पर हमारी ओर से विशेष उपकारक किया गया है। ये सभी यशस्वी और मनस्वी हैं।
तात! जिनके कार्य और व्यवहार को कई बार देखा गया है, ऐसे मुख्य-मुख्य स्वजनों द्वारा, जो लोकपाल के समान पराक्रमी हैं, इस सेना का पालन-पोषण होता है। यह सम्पूर्ण जगत में विख्यात है। जो अपनी वीरता के लिये भूमण्डल में विख्यात तथा लोक में सम्मानित हैं, ऐसे बहुत से क्षत्रिय अपनी इच्छा से ही सेना और सेवकों के साथ हमारे पास आये हैं, उनके द्वारा यह कौरव सेना सुरक्षित है। हमारी यह सेना महासागर के समान सब और से परिपूर्ण है। इसमें बिना पंख के ही पक्षियों के समान तीव्र गति से चलने वाले रथ और हाथी इस प्रकार आकर मिलते हैं, जैसे समुद्र में सब ओर से नदियाँ आकर गिरती हैं। नाना प्रकार के योद्धा ही इस सैन्य सागर के जल हैं, वाहन ही उसमें उठती हुई छोटी-बड़ी तरंगें हैं। इसमें क्षेपणी, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्राप्त आदि अस्त्र-शस्त्र जल-जन्तुओं के समान भरे पड़े हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद)
ध्वज और आभूषणों से भरी हुई यह सेना रत्नजटित पताकाओं से व्याप्त है। दौड़ते हुए घोड़ों से जो इस सेना का चंचल होना है, वही वायु वेग से इस समुद्र का कम्पन है। सागरसदृश यह विशाल सेना देखने में अपार है और निरन्तर गर्जन करती रहती है। द्रोणाचार्य, भीष्म, कृतवर्मा, कृपाचार्य, दुःशासन, जयद्रथ, भगदत्त, विकर्ण, अश्वत्थामा, शकुनि तथा बाल्हिक आदि प्रमुख वीरों तथा अन्य शक्तिशाली महामनस्वी लोगों द्वारा मेरी सेना सदा सुरक्षित रहती है। ऐसी सेना भी यदि संग्राम में मारी गयी तो इसमें हम लोगों का पुरातन प्रारब्ध ही कारण है।
संजय! इस भूतल पर इतनी बड़ी सेना का जमाव मनुष्यों ने कभी नहीं देखा होगा अथवा प्राचीन महाभाग ऋषियों ने भी नहीं देखा होगा। इतना बड़ा सैन्य समुदाय शस्त्र सम्पत्ति से संयुक्त होने पर भी यदि संग्राम में विनष्ट हो रहा है, तो इसमें भाग्य के सिवा और क्या कारण हो सकता है। संजय! यह सब कुछ मुझे विपरीत जान पड़ता है कि ऐसा भयंकर सैन्यसमूह भी वहाँ युद्ध में पाण्डवों से पार नहीं पा सका। संजय! निश्चय ही पाण्डवों के लिये देवता आकर मेरी सेना के साथ युद्ध करते हैं, तभी तो वह प्रतिदिन मारी जा रही है। विदुर ने नित्य ही हित और लाभ की बातें बतायीं, परंतु मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन ने नहीं माना।
तात! मैं समझता हूँ, महात्मा विदुर सर्वज्ञ है। इसीलिये पहले ही उनकी बुद्धि में ये सब बातें आ गयी थीं। आज जो कुछ प्राप्त हुआ है, यह पहले ही उनकी दृष्टि में आ गया था। संजय! अथवा यह सब प्रकार से ऐसा ही होने वाला था। विधाता ने जो पहले से रच रखा है, वह उसी रूप में होता है, उसे कोई बदल नहीं सकता।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में धृतराष्ट्र को चिन्ताविषयक छिहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम”
संजय कहते हैं ;- राजन्! आपने अपने ही दोष से यह संकट प्राप्त किया है। भरश्रेष्ठ! जिन धर्म और अधर्म के सम्मिश्रण से उत्पन्न दोषों को आप देखते थे, उन्हें दुर्योधन नहीं देख सका था। प्रजानाथ! आपके अपराध से ही पहले द्यूतक्रीड़ा की घटना घटी थी। तथा आपके ही दोष से आज पाण्डवों के साथ युद्ध आरम्भ हुआ। आपने स्वयं ही जो पाप किया है, उनका फल आज आप ही भोग रहे हैं। राजन्! इहलोक अथवा परलोक में अपने किये हुए कर्म का फल अपने आपको ही भोगना पड़ता है, अतः आपको जैसे का तैसा प्राप्त हुआ है। राजन्! नरेश्वर! इस महान् संकट को पाकर भी स्थिरतापूर्वक युद्ध का यथावत् वृतान्त जैसा मैं बता रहा हूँ सुनिये। वीर भीमसेन तीखे बाणों से आपकी विशाल सेना को विदीर्ण करके दुर्योधन के सभी भाइयों पर आक्रमण किया।
दुःशासन, दुर्विष, दुःसह, दुर्मद, जय, जयत्सेन, विकर्ण, चित्रसेन, सुदर्शन , चारुचि, सुवर्मा, दुष्कर्ण तथा कर्ण- ये तथा और भी बहुत से आपके जो महारथी पुत्र समीप खड़े थे, उन्हें कुपित देखकर महारथी भीमसेन ने समरभूमि में भीष्म के द्वारा सुरक्षित विशाल कौरव से नाम में प्रवेश किया। भीमसेन को सेना के भीतर प्रविष्ट हुआ देख उन सब नरेशों ने आपस में कहा कि हम लोग इन्हें जीवित ही पकड़ कर बंदी बना लें। ऐसा निश्चय करके उन सब भाइयों ने कुन्तीकुमार भीमसेन को घेर लिया, मानो प्रजा के संहारकाल में सूर्य देव को बड़े-बड़े क्रूर ग्रहों ने घेर रखा हो। कौरव सेना के भीतर पहुँच जाने पर पाण्डुनन्दन भीमसेन को तनिक भी भय नहीं हुआ, जैसे देवासुरसंग्राम में दानवों की सेना में घुसने पर देवराज इन्द्र को भय का स्पर्श नहीं होता है। प्रभो! तदनन्तर एकमात्र भीमसेन को उन पर तीव्र बाणों की वर्षा करते हुए सैकड़ों-हजारों रथियों ने युद्ध के लिये उद्यत होकर सब ओर से घेर लिया। शूरवीर भीमसेन आपके पुत्रों की तनिक भी परवा न करते हुए हाथी, घोड़े, एवं रथ पर बैठकर युद्ध करने वाले कौरवों के मुख्य-मुख्य योद्धाओं को समरभूमि में मारने लगे।
राजन! उन्हें कैद करने की इच्छा वाले क्षत्रियों के उस निश्चय को जानकर महामना भीमसेन ने उन सबके वध का विचार कर लिया। तदनन्तर पाण्डुनन्दन भीमसेन हाथ में गदा ले रथ को त्याग कर उस विशाल सेना में घूमकर उस महासागरतुल्य सैन्यसमुदाय का विनाश करने लगे। भीमसेन की गदा के आघात से बड़े-बड़े विशालकाय गजराजों के कुम्भस्थल फट गये, पृष्ठभाग विदीर्ण हो गये तथा उनका एक-एक अंग छिन्न-भिन्न हो गया और उसी अवस्था में वे सवारों सहित धराशायी हो गये, मानो पर्वत ढह गये हों। भारत! उन्होंने उस रणक्षेत्र में सैकड़ों रथों को उनके सवारों सहित तिल-तिल करके तोड़ डाला। घोड़ों व घुड़सवारों तथा पैदलों की भी धज्जियाँ उड़ा दीं। राजन! उस युद्ध में हम लोगों ने भीमसेन का अद्भुत पराक्रम देखा, जैसे प्रलयकाल में यमराज हाथ में दण्ड लिये समस्त प्रजा का संहार करते हैं, उसी प्रकार वे अकेले आपके बहुसंख्यक योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। भीमसेन के कौरव सेना में प्रवेश करने पर द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न भी द्रोणाचार्य को छोड़कर बड़े वेग से उस स्थान पर गये, जहाँ शकुनि युद्ध कर रहा था। वहाँ आपकी विशाल सेना को आगे बढ़ने से रोककर नरश्रेष्ठ धृष्टद्युम्न युद्धस्थल में भीमसेन के सूने रथ के पास जा पहुँचे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! भीमसेन के सारथि विशोक को समरभूमि में अकेला खड़ा देख धृष्टद्युम्न मन ही मन बहुत दुखी और अचेत हो गये। वे लंबी साँस खींचते और आँसू बहाते हुए गद्गदकण्ठ से पूछने लगे। विशोक! मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारे भीमसेन कहाँ हैं। इतना कहते-कहते वे बहुत दुखी हो गये। तब विशोक ने हाथ जोड़कर धृष्टद्युम्न से कहा- 'प्रभो! पराक्रमी और बलवान् पाण्डुनन्दन मुझे यहीं खड़ा करके कौरवों के इस सैन्यसागर में घुस गये हैं। जाते समय पुरुषसिंह भीमसेन ने मुझसे प्रेमपूर्वक यह बात कही कि- सूत! तुम दो घड़ी तक इन घोड़ों को रोककर यहीं मेरी प्रतीक्षा करो। जब तक कि ये जो लोग मेरा वध करने के लिये उद्यत हैं, इन्हें अभी मार न डालूँ। तदनन्तर गदा हाथ में लिये महाबली भीमसेन को धावा करते देख समस्त सैनिकों के रोंगटे खड़े हो गये। राजन! उस भयंकर एवं तुमुल युद्ध में भीमसेन ने इस महाव्यूह का भेदन करके इसके भीतर प्रवेश किया था।'
विशोक की यह बात सुनकर महाबली द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने उस समरागंण में उनके सारथि से इस प्रकार कहा- ‘सारथे! युद्धस्थल में भीमसेन को छोड़कर और पाण्डवों से स्नेह तोड़कर अब मेरे जीवन से कोई प्रयोजन नहीं है। भीम एकमात्र युद्ध के पथ पर गये हैं और मैं भी युद्धस्थल में उपस्थित हूँ। ऐसी दशा में यदि भीमसेन के बिना ही लौट जाऊँ तो क्षत्रिय समाज मुझे क्या कहेगा। जो अपने सहायकों को छोड़कर स्वयं कुशलपूर्वक घर को लौट आता है, उसका इन्द्र आदि देवता अनिष्ट करते हैं। महाबली भीम मेरे सखा और सम्बन्धी हैं। वे हम लोगों के भक्त हैं और मैं भी उन शत्रुसूदन भीम का भक्त हूँ। अतः मैं भी वहीं जाऊँगा जहाँ भीमसेन गये हैं। देखो जैसे इन्द्र दानवों का संहार करते हैं, उसी प्रकार मैं भी शत्रुसेना का विनाश कर रहा हूँ।'
भारत! ऐसा कहकर वीरवर धृष्टद्युम्न भीमसेन के बनाये हुए मार्गों से कौरव सेना के भीतर गये। उन मार्गों पर गदा के मारे हुए हाथी पड़े थे। उस समय कुछ दूर जाकर धृष्टद्युम्न ने शत्रुसेना को दग्ध करते हुए भीमसेन को देखा। जैसे आँधी वृक्षों को बलपूर्वक तोड़ देती या उखाड़ डालती है, उसी प्रकार भीमसेन भी रणभूमि में शत्रुओं का संहार कर रहे थे। समरागंण में भीमसेन के मारे हुए रथी, घुड़सवार, पैदल और सवारों सहित हाथी बड़े जोर से आर्तनाद कर रहे थे। आर्य! विचित्र कीर्ति से युद्ध करने वाले विद्वान् भीमसेन के द्वारा मारी जाती हुई आपकी सेना में हाहाकार मच गया। शत्रुओं का संताप देने वाले नरेश! तदनन्तर अस्त्रों के ज्ञाता समस्त कौरव-सैनिक भीमसेन को सब ओर से घेरकर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए बिना किसी भय के उन पर चढ़ आये।
विश्व के विख्यात वीर बलवान् द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने देखा- शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन भीमसेन पर सब ओर से धावा हो रहा है। अत्यन्त संगठित हुई भयंकर सेना ने उन पर आक्रमण किया है। यह देखकर धृष्टद्युम्न भीमसेन को आश्वासन देते हुए उनके पास गये। उनका प्रत्येक अंग बाणों से क्षत-विक्षत हो रहा था। वे पैदल ही क्रोधरूपी विष उगल रहे थे और गदा हाथ में लिये प्रलयकाल के यमराज के समान जान पड़ते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 39-55 का हिन्दी अनुवाद)
महामना धृष्टद्युम्न ने तुरंत ही उन्हें अपने रथ पर बिठा लिया और उनके शरीर में धँसे हुए बाणों को निकाल दिया। शत्रुओं के बीच में ही भीमसेन को हृदय से लगाकर उन्हें पूर्णतः सान्त्वना दी। वह महान् संघर्ष आरम्भ होने पर आपका पुत्र दुर्योधन भाइयों के पास आकर बोला- 'यह दुरात्मा द्रुपदपुत्र आकर भीमसेन से मिल गया है। हम सब लोग बहुत बड़ी सेना के साथ इस पर आक्रमण करें, जिससे हमारा और तुम्हारा यह शत्रु हम लोगों की इस सेना को हानि पहुँचाने का विचार न कर सके।' दुर्योधन का यह कथन सुनकर आपके सभी वीर पुत्र, जो धृष्टद्युम्न का आगमन नहीं सह सके थे, बड़े भाई की आशा से प्रेरित हो प्रलयकाल के भयंकर केतुओं की भाँति हाथ में आयुध लिये धृष्टद्युम्न के वध के लिये उन पर टूट पड़े। उन्होंने अपने हाथों में धनुष बाण ले रखे थे और वे रथ के पहियों की घरघराहट के साथ-साथ धनुष की प्रत्यन्चा को भी कँपाते हुए उसकी टंकार फैला रहे थे।
जैसे मेघ पर्वत पर जल की बूँदें बरसाते हैं, उसी प्रकार वे द्रुपदपुत्र पर बाणों की वृष्टि करने लगे। परंतु विचित्र युद्ध करने वाले धृष्टद्युम्न उस समरागंण में अपने पैने बाणों द्वारा उन सबको अत्यन्त घायल करके स्वयं तनिक भी व्यथित नहीं हुए। युद्ध में सामने खड़े हुए आपके वीर पुत्रों को आगे बढ़ते और प्रचण्ड होते देख नवयुवक महारथी द्रुपदकुमार ने उनके वध के लिये भयंकर मोहनास्त्र का प्रयोग किया। राजन्! जैसे युद्ध में देवराज इन्द्र दैत्यों पर कुपित होते हैं, उसी प्रकार आपके पुत्रों पर धृष्टद्युम्न का क्रोध बहुत बढ़ा हुआ था। उसके मोहनास्त्र के प्रयोग से अपनी चेतना और धैर्य खोकर आपके नरवीर पुत्र रणभूमि में मोहित हो गये। आपके पुत्रों को मोह से युक्त एवं मरे हुए के समान अचेत हुआ देख समस्त कौरव-सैनिक हाथी, घोड़े तथा रथसहित सब ओर भाग चले। इसी समय दूसरी ओर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने द्रुपद के साथ जाकर उनको तीन भयंकर बाणों द्वारा बींध डाला।
राजन! तब रणभूमि में द्रोण के द्वारा अत्यन्त घायल हो राजा द्रुपद पहले के वैर का स्मरण करते हुए वहाँ से दूर हट गये। द्रुपद को जीतकर प्रतापी द्रोणाचार्य ने अपना शंख बजाया। उस शंखनाद को सुनकर समस्त सोमक क्षत्रिय अत्यन्त भयभीत हो गये। तदनन्तर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तेजस्वी द्रोणाचार्य ने सुना कि आपके पुत्र रणभूमि में मोहनास्त्र से मोहित होकर पड़े हैं। महाराज! यह सुनते ही महाधनुर्धर प्रतापी भारद्वाज-नन्दन द्रोणाचार्य तुरंत उस युद्धस्थल से चलकर वहाँ आ पहुँचे। आकर उन महारथी ने देखा कि धृष्टद्युम्न और भीमसेन उस महायुद्ध में विचर रहे हैं और आपके पुत्र मोहाविष्ट होकर पड़े हुए हैं। तब उन्होंने प्रज्ञास्त्र लेकर उसके द्वारा मोहनास्त्र का नाश कर दिया। इससे आपके महारथी पुत्रों में पुनः चेतनाशक्ति लौट आयी। वे समरभूमि में पुनः युद्ध के लिये भीमसेन और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न की ओर चले। तब राजा युधिष्ठिर ने अपने सैनिकों को बुलाकर कहा- तुम लोग पूरी शक्ति लगाकर युद्धस्थल में भीमसेन और धृष्टद्युम्न के पथ का अनुसरण करो। अभिमन्यु आदि बारह वीर महारथी कवच आदि से सुसज्जित हो भीमसेन और धृष्टद्युम्न का समाचार प्राप्त करें। मेरा मन उनके विषय में निश्चिन्त नहीं हो रहा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 56-75 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर की ऐसी आज्ञा पाकर पराक्रमपूर्वक युद्ध करने वाले वे पुरुषमानी समस्त शूरवीर ‘बहुत अच्छा' कहकर दोपहर होते-होते वहाँ से चल दिये। अभिमन्यु को आगे करके विशाल सेना से घिरे हुए पाँच केकयराजकुमार, द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी धृष्टकेतु ये शत्रुओं का दमन करने वाले शूरवीर सूची मुख नामक समर व्यूह बनाकर आपके पुत्रों की उस सेना को रणक्षेत्र में विदीर्ण करने लगे। जनेश्वर! आपकी सेना भीमसेन के भय से व्याकुल और धृष्टद्युम्न के बाणों से मोहित हो रही थी। अतः आक्रमण करने वाले अभिमन्यु आदि महाधनुर्धर वीरों को वह रोकने में समर्थ न हो सकी। मद और मूर्छा के वशीभूत हुई मतवाली स्त्री की भाँति वह मार्ग में चुपचाप खड़ी रही। सुवर्णनिर्मित ध्वजाओं से सुशोभित होने वाले वे महाधनुर्धरकुलीन योद्धा धृष्टद्युम्न और भीमसेन की रक्षा के लिये बड़े वेग से दौडे़। वे दोनों महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न और भीमसेन भी अभिमन्यु आदि वीरों को सहायता के लिये आते देख हर्ष और उत्साह में भर गये और आपकी सेना का विनाश करने लगे।
भारत! पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने धनुर्वेद में कुशल और समस्त विद्याओं के पारंगत विद्वान अपने गुरु द्रोणाचार्य को सहसा वहाँ आये देख आपके पुत्रों के वध की इच्छा छोड़ दी। फिर भीमसेन को केकय के रथ पर बिठाकर क्रोध में भरे हुए धृष्टद्युम्न ने अस्त्रविद्या के पारगामी विद्वान् द्रोणाचार्य पर धावा किया। तब शत्रुओं का नाश करने वाले प्रतापी द्रोणाचार्य ने कुपित होकर अपनी ओर आने वाले धृष्टद्युम्न के धनुष को एक बाण से तुरंत काट दिया। उसके बाद दुर्योधन के हित के लिये स्वामी के अन्न का विचार करते हुए धृष्टद्युम्न पर और भी सैकड़ों बाण चलाये। तत्पश्चात् शत्रुवीरों का हनन करने वाले धृष्टद्युम्न को दूसरा धनुष लेकर पत्थर पर रगड़कर तेज किये हुए सोने की पाँख वाले बीस बाणों से द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। तब शत्रुसूदन द्रोण ने पुनः धृष्टद्युम्न का धनुष काट दिया और चार उत्तम सायकों द्वारा उनके चारों घोड़ों को तुरंत ही भयानक यमलोक को भेज दिया।
भारत! फिर एक भल्ल के द्वारा उनके सारथि को भी मृत्यु के हवाले कर दिया। घोड़ों और सारथि के मारे जाने पर महारथी महाबाहु धृष्टद्युम्न तुरंत उस रथ से कूद पड़े और अभिमन्यु के विशाल रथ पर आरूढ़ हो गये। तदनन्तर भीमसेन और धृष्टद्युम्न के देखते-देखते रथ, हाथी और घुड़सवारों सहित सारी पाण्डव सेना काँपने लगी। अमित तेजस्वी आचार्य द्रोण के द्वारा अपनी सेना का व्यूह भंग हुआ देख वे सम्पूर्ण महारथी प्रयत्न करने पर भी उसे रोकने में सफल न हो सके। द्रोणाचार्य के पैने बाणों से पीड़ित हुई वह सेना विक्षुब्ध महासागर के समान वही चक्कर काटने लगी। द्रोणाचार्य को अत्यन्त कुपित होकर शत्रुसेना पर टूटते और पाण्डव-सेना को भागते देख आपके सैनिकों को बड़ा हर्ष हुआ। भारत! आपके सभी योद्धा सब ओर से द्रोणाचार्य को साधुवाद देने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में संकुल युद्ध में द्रोणपराक्रम विषयक सतहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर (मोहनास्त्रजनित) मोह से जगने पर राजा दुर्योधन ने युद्धभूमि से पीछे न हटने वाले भीमसेन को पुनः बाणों की वर्षा से रोक दिया। फिर आपके सभी महारथी पुत्र समरभूमि में एकत्र होकर पूर्ण प्रयत्नपूर्वक भीमसेन के साथ युद्ध करने लगे। महाबाहु भीमसेन भी समरभूमि में पुनः अपने रथ पर सवार हो उधर ही चल दिये, जिस मार्ग से आपका पुत्र दुर्योधन गया था। उन्होंने युद्धस्थल में मृत्यु की प्राप्ति कराने वाले महान् वेगशाली सुदृढ़ धनुष को लेकर उस पर प्रत्यन्चा चढ़ायी और अनेक बाणों द्वारा आपके पुत्र को घायल कर दिया। तब राजा दुर्योधन ने महाबली भीमसेन के मर्मस्थलों में अत्यन्त तीखे नाराच से गहरी चोट पहुँचायी। आपके धनुर्धर पुत्र के द्वारा चलाये हुए बाण से अत्यन्त पीड़ित हो महाधनुर्धर भीमसेन ने क्रोध से लाल आँखें करके वेगपूर्वक धनुष को खींचा और तीन बाणों से दुर्योधन की दोनों भुजाओं तथा छाती में चोट पहुँचायी। उन बाणों द्वारा राजा दुर्योधन तीन शिखरों से युक्त गिरिराज की भाँति शोभा पाने लगा।
क्रोध में भरे हुए इन दोनों वीरों को समरभूमि में एक-दूसरे पर प्रहार करते देख दुर्योधन के सभी शूरवीर छोटे भाई प्राणों का मोह छोड़कर भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन को जीवित पकड़ने के विषय में की हुई पहली सलाह को याद करके एक दृढ़ निश्चय पर पहुँकर उन्हें पकड़ने का उद्योग करने लगे। महाराज! उन्हें युद्ध में आक्रमण करते देख जैसे हाथी अपने विपक्षी हाथियों की ओर दौड़ता है, उसी प्रकार महाबली भीमसेन उनकी अगवानी के लिये आगे बढ़े। नरेश्वर! महायशस्वी और तेजस्वी भीमसेन अत्यन्त क्रोध में भरे हुए थे। उन्होंने आपके पुत्र चित्रसेन पर एक नाराच के द्वारा प्रहार किया। भारत! इसी प्रकार रणभूमि में सोने की पाँख वाले अत्यन्त तीखे और बहुसंख्यक बाणों द्वारा उन्होंने आपके अन्य पुत्रों को भी पीड़ित किया।
महाराज! तत्पश्चात् अपनी सेनाओं को सब प्रकार से समरभूमि में स्थापित करके भीमसेन के पदचिह्नों पर चलने वाले उन अभिमन्यु आदि बारह महारथियों ने, जिन्हें धर्मराज युधिष्ठिर ने भेजा था, आपके महाबली पुत्रों पर धावा किया। वे सब-के-सब रथ पर बैठे हुए शूरवीर, सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी, महाधनुर्धर, उत्तम शोभा से प्रकाशमान, सुवर्णमय मुकुट से जगमग प्रतीत होने वाले और अत्यन्त कान्तिमान थे। उस महासमर में उन्हें आते देखकर आपके महाबली पुत्र भीमसेन को छोड़कर वहाँ से दूर हट गये। परंतु वे जीवित लौट गये, यह बात भीमसेन से नहीं सही गयी। उन्होंने पुनः आपके उन सब पुत्रों का पीछा करके उन्हें अपने बाणों से पीड़ित कर दिया।
इधर, उस समरभूमि में अभिमन्यु को भीमसेन तथा धृष्टद्युम्न से मिला हुआ देख आपकी सेना के दुर्योधन आदि महारथी हाथों में धनुष लिये अत्यन्त वेगशाली अश्वों द्वारा वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वे बारह पाण्डव पक्षीय महारथी विद्यमान थे। महाराज! भरतनन्दन! तब अपरान्हकाल में आपके और पाण्डव पक्ष के अत्यन्त बलवान् योद्धाओं में बड़ा भारी युद्ध आरम्भ हुआ। अभिमन्यु ने उस महायुद्ध में विकर्ण के घोड़ों को मारकर स्वयं विकर्ण को भी पच्चीस बाणों से घायल कर दिया। भरतवंशी नरेश! घोड़ों के मारे जाने पर महारथी विकर्ण अपना रथ छोड़कर चित्रसेन के रथ पर जा बैठा।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद)
भरतनन्दन! अभिमन्यु ने एक रथ पर बैठे हुए उन दोनों वंशवर्धक भ्राताओं को अपने बाणों के जाल से आच्छादित कर दिया। चित्रसेन और विकर्ण ने भी लोहे के पाँच बाणों से अभिमन्यु को बींध डाला। उस आघात से अर्जुनकुमार अभिमन्यु विचलित नहीं हुआ। मेरु पर्वत की भाँति अडिग खड़ा रहा।
आर्य! राजेन्द्र! दुःशासन ने अकेले ही समरभूमि में पाँच केकय राजकुमारों के साथ युद्ध किया। वह एक अद्भुत सी बात हुई। प्रजानाथ! युद्ध में कुपित हुए द्रौपदी के पाँच पुत्रों ने विषधर सर्प के समान आकार वाले भयंकर बाणों द्वारा आपके पुत्र दुर्योधन को आगे बढ़ने से रोक दिया। राजन! तब आपके दुर्धर्ष पुत्र ने भी तीखे सायकों द्वारा रणभूमि में द्रौपदी के पाँचों पुत्रों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया। फिर उनके द्वारा भी अत्यन्त घायल किये जाने पर आपका पुत्र रक्त से नहा उठा और गेरू आदि धातुओं से मिश्रित झरनों के जल से युक्त पर्वत की भाँति शोभा पाने लगा। राजन्! तदनन्तर बलवान् भीष्म भी संग्रामभूमि में पाण्डव सेना को उसी प्रकार खदेड़ने लगे, जैसे चरवाहा पशुओं को हाँकता है।
प्रजानाथ! तदनन्तर शत्रुओं का संहार करते हुए अर्जुन के गाण्डीव धनुष का घोष सेना के दक्षिण भाग से प्रकट हुआ। भारत! वहाँ समर में कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं में चारों ओर कबन्ध उठने लगे। वह सेना एक समुद्र के समान थी। रक्त ही वहाँ जल के समान था। बाणों की भँवर उठती थी। हाथी द्वीप के समान जान पड़ते थे और घोड़े तरंग की शोभा धारण करते थे। रथरूपी नौकाओं के द्वारा नरश्रेष्ठ वीर उस सैन्यसागर को पार करते थे। वहाँ सैकड़ों और हजारों नरश्रेष्ठ धरती पर पड़े दिखायी देते थे। उनमें से कितनों के हाथ कट गये थे, कितने ही कवचहीन हो रहे थे और बहुतों के शरीर छिन्न-भिन्न हो गये थे। भरतश्रेष्ठ! मरकर गिरे हुए मतवाले हाथी खून से लथपथ हो रहे थे। उनसे ढकी हुई वहाँ की भूमि पर्वतों से व्याप्त सी जान पड़ती थी।
संजय कहते हैं ;- भारत! हमने वहाँ आपके और पाण्डवों के सैनिकों का अद्भुत उत्साह देखा। वहाँ ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो युद्ध न चाहता हो। इस प्रकार महान् यश की अभिलाषा रखते और युद्ध में विजय चाहते हुए आपके वीर सैनिक पाण्डवों के साथ युद्ध करते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में संकुल युद्ध विषयक अठहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय, अभिमन्यु और द्रौपदीपुत्रों का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर जब सूर्यदेव पर संध्या की लाली छाने लगी, उस समय संग्राम के लिये उत्साह रखने वाले राजा दुर्योधन ने भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उन पर धावा किया। अपने पक्के बैरी नरवीर दुर्योधन को आते देख भीमसेन का क्रोध बहुत बढ़ गया और वे उससे यह वचन बोले,
भीमसेन बोले ;- 'दुर्योधन! मैं बहुत वर्षों से जिसकी अभिलाषा और प्रतीक्षा कर रहा था, वही यह अवसर आज प्राप्त हुआ है। यदि तू युद्ध छोड़कर भाग नहीं जायेगा तो आज तुझे अवश्य मार डालूँगा। माता कुन्ती को जो क्लेश उठाना पड़ा है, हमने वनवास का जो कष्ट भोगा है और सभा में द्रौपदी को जो अपमान का दुःख सहन करना पड़ा है, उन सबका बदला आज मैं तेरे मारे जाने पर चुका लूँगा। गान्धारीपुत्र! पूर्वकाल में डाह रखकर तू जो हम पाण्डवों का तिरस्कार करता आया है, उसी पाप के फलस्वरूप यह संकट तेरे ऊपर आया है। तू आँख खोलकर देख ले। पहले कर्ण और शकुनि के बहकावे में आकर पाण्डवों को कुछ भी न गिनते हुए जो तूने इच्छानुसार मनमाना बर्ताव किया है, भगवान श्रीकृष्ण संधि के लिये प्रार्थना करने आये थे, परंतु तूने मोहवश जो उनका भी तिरस्कार किया और बड़े हर्ष में भरकर उलूक के द्वारा जो तूने यह संदेश दिया था कि तुम मुझे और मेरे भाइयों को मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो, उसके अनुसार तुझे भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियों सहित अवश्य मार डालूँगा। पहले तूने जो-जो पाप किये हैं, उन सबका बदला चुकाकर बराबर कर दूँगा।'
ऐसा कहकर भीमसेन ने अपने भयंकर धनुष को बारंबार घुमाकर उसे बलपूर्वक खींचा और वज्र के समान तेजस्वी भयंकर बाणों को उसके ऊपर रखा। वे सीधे जाने वाले बाण वज्र तथा प्रज्वलित आग की लपटों के समान जान पड़ते थे। उनकी संख्या छब्बीस थी। कुपित हुए भीमसेन ने उन सबको शीघ्रतापूर्वक दुर्योधन पर छोड़ दिया। तत्पश्चात् भीमसेन ने दो बाणों से दुर्योधन का धनुष काट दिया, दो से उसके सारथि को पीड़ित किया और चार बाणों से उसके वेगशाली घोड़ों को यमलोक भेज दिया। नरश्रेष्ठ! फिर शत्रुमर्दन भीम ने धनुष को अच्छी तरह खींचकर छोडे़ हुए दो बाणों द्वारा समरभूमि में राजा दुर्योधन के छत्र को काट दिया।
इसके बाद अपनी प्रभा से प्रकाशित होने वाले उसके उत्तम ध्वज को छः बाणों से खण्डित कर दिया। आपके पुत्र के देखते-देखते उस ध्वज को काटकर भीमसेन उच्च स्वर से सिंहनाद करने लगे। दुर्योधन के नाना रत्नविभूषित रथ से वह शोभाशाली ध्वज सहसा कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो मेघों की घटा से भूमि पर बिजली गिरी हो। कुरुराज दुर्योधन के उस सूर्य के समान प्रज्वलित नाग चिह्नित मणिमय सुन्दर ध्वज को कटकर गिरते समय समस्त राजाओं ने देखा। इसके बाद महारथी भीम ने मुसकराते हुए से रणभूमि में वीरवर दुर्योधन को दस बाणों से उसी तरह घायल किया, जैसे महावत अंकुशों से महान् गजराज को पीड़ा देता है। तदनन्तर रथियों में श्रेष्ठ सिन्धुराज महारथी जयद्रथ ने कुछ सत्पुरुषों के साथ आकर दुर्योधन के पृष्ठभाग की रक्षा का कार्य सँभाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! इसी प्रकार रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने अमर्ष में भरे हुए अमित तेजस्वी कुरुवंशी दुर्योधन को अपने रथ पर चढ़ा लिया। नरेश्वर! भीमसेन ने उस युद्ध में दुर्योधन को बहुत घायल कर दिया था। अतः उस समय वह व्यथा से व्याकुल होकर रथ के पिछले भाग में जा बैठा। तत्पश्चात् जयद्रथ ने भीमसेन को जीतने की इच्छा रखकर कई हजार रथों के द्वारा उन्हें घेर लिया और उनकी सम्पूर्ण दिशाओं को अवरुद्ध कर दिया। महाराज! इसी समय धृष्टकेतु, पराक्रमी अभिमन्यु, पाँच केकय राजकुमार तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र आपके पुत्रों साथ युद्ध करने लगे।
उस युद्ध में चित्रसेन, सुचित्र, चित्रांग, चित्रदर्शन, चारुचित्र, सुचारु, नन्द और उपनन्द- इन आठ यशस्वी सुकुमार एवं महाधनुर्धर वीरों ने अभिमन्यु के रथ को चारों ओर से घेर लिया। उस समय महामना अभिमन्यु ने तुरंत ही झुकी हुई गाँठ वाले पाँच-पाँच तीखे बाणों द्वारा प्रत्येक को बींध डाला। वे सभी बाण विचित्र धनुष द्वारा छोड़े गये थे और सब के सब वज्र एवं मृत्यु के तुल्य भयंकर थे। उन बाणों के आघात को आपके पुत्र सहन न कर सके। उन सबने मिलकर रथियों में श्रेष्ठ सुभद्राकुमार अभिमन्यु पर तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ की, मानो बादल मेरूगिरि पर जल की वर्षा कर रहे हों। महाराज! अभिमन्यु अस्त्रविद्या का ज्ञाता और युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाला है। उसने समरभूमि में बाणों से पीड़ित होने पर भी आपके सैनिकों में कँपकँपी उत्पन्न कर दी। ठीक उसी तरह, जैसे देवासुर-संग्राम में वज्रधारी इन्द्र ने बड़े-बड़े असुरों को भय से पीड़ित कर दिया था।
भारत! तदनन्तर रथियों में श्रेष्ठ पराक्रमी अभिमन्यु ने विकर्ण के ऊपर सर्प के समान आकार वाले चौदह भयंकर भल्ल चलाये और उने द्वारा विकर्ण के रथ से ध्वज, सारथि और घोड़ों को मार गिराया। उस समय वह युद्ध में नृत्य सा कर रहा था। तत्पश्चात् उस महाबली वीर ने अत्यन्त कुपित हो शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए अप्रतिहत धार वाले दूसरे पानीदार बाण विकर्ण पर चलाये। उन बाणों के पुच्छभाग में मोर के पंख लगे हुए थे। वे विकर्ण के शरीर को विदीर्ण करके भीतर घुस गये और वहाँ से भी निकलकर प्रज्वलित सर्पों की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। उन बाणों के पुच्छ और अग्रभाग सुनहरे थे। वे विकर्ण के रूधिर में भीगे हुए बाण पृथ्वी पर रक्त वमन करते हुए से दृष्टिगोचर हो रहे थे। विकर्ण को क्षत-विक्षत हुआ देख उसके दूसरे भाइयों ने समरभूमि में अभिमन्यु आदि रथियों पर धावा किया। वे सब-के-सब युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले थे। उन्होंने दूसरे-दूसरे रथियों पर भी, जो अभिमन्यु की ही भाँति सूर्य के समान तेजस्वी थे, आक्रमण किया। फिर वे सब लोग अत्यन्त क्रोध में भरकर एक दूसरे को अपने बाणों द्वारा घायल करने लगे।
दुर्मुख ने श्रुतकर्मा को सात शीघ्रगामी बाणों द्वारा बींधकर एक से उसका ध्वज काट डाला और सात बाणों से उसके सारथि को घायल कर दिया। उसके घोड़े वायु के समान वेगशाली तथा सोने की जाली से आच्छादित थे। दुर्मुख ने उन घोड़ों को छः बाणों से मार डाला और सारथि को भी रथ से नीचे गिरा दिया। महारथी श्रुतकर्मा घोड़ों के मारे जाने पर भी उस रथ पर खड़ा रहा और अत्यन्त क्रोध में भरकर उसने दुर्मुख पर प्रज्वलित उल्का के समान एक शक्ति चलायी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद)
वह शक्ति अपने तेज से उद्दीप्त हो रही थी। उसने यशस्वी दुर्मुख के चमकीले कवच को फाड़ डाला। फिर वह धरती को चीरती हुई उसमें समा गयी। महारथी सुतसोम ने अपने भाई श्रुतकर्मा को युद्ध में रथहीन हुआ देख समस्त सैनिकों के देखते-देखते उसे अपने रथ पर चढ़ा लिया। राजन! इसी प्रकार वीरवर श्रुतकीर्ति ने युद्धभूमि में आपके यशस्वी पुत्र जयत्सेन को मार डालने की इच्छा से उस पर आक्रमण किया। भारत! श्रुतकीर्ति जब बड़े जोर-जोर से खींचकर अपने विशाल धनुष की गम्भीर टंकार फैला रहा था, उसी समय रणभूमि में आपके पुत्र जयत्सेन ने हँसते हुए से एक तीखे क्षुरप्र द्वारा तुरंत उसका धनुष काट दिया। अपने भाई का धनुष कटा हुआ देख तेजस्वी शतानीक बारंबार सिंह के समान शतानीक ने संग्रामभूमि में अपने धनुष को जोर से खींचकर शीघ्रतापूर्वक दस बाण मारकर जयत्सेन को घायल कर दिया। फिर उसने मदवर्षी गजराज के समान बड़े जोर से गर्जना की।
तत्पश्चात् समस्त आवरणों का भेदन करने में समर्थ दूसरे तीक्ष्ण बाण द्वारा शतानीक ने जयत्सेन के वक्ष-स्थल में गहरी चोट पहुँचायी। उसके इस प्रकार करने पर अपने भाई के पास खड़ा हुआ दुष्कर्ण क्रोध से व्याकुल हो उठा। उसने समरभूमि में नकुल के पुत्र शतानीक का धनुष काट दिया। तब महाबली शतानीक ने भार सहन करने में समर्थ दूसरा अत्यन्त उत्तम धनुष लेकर उस पर भयंकर बाणों का अनुसंधान किया। फिर भाई के सामने ही दुष्कर्ण से ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ ऐसा कहकर उसके ऊपर प्रज्वलित सर्पों के समान तीखे बाणों का प्रहार किया। आर्य! तदनन्तर एक बाण से उसके धनुष को काट दिया, दो से उसके सारथि को क्षत-विक्षत कर दिया और सात बाणों से उस युद्धस्थल में स्वयं दुष्कर्ण को भी तुरंत घायल कर दिया। दुष्कर्ण के घोड़े मन और वायु के समान वेगशाली थे। उनका रंग चितकबरा था। शतानीक ने बारह तीखे बाणों से उन सब घोड़ों को भी तुरंत मार डाला। तत्पश्चात् लक्ष्य को शीघ्र मार गिराने वाले एक दूसरे भल्ल नामक बाण का उत्तम रीति से प्रयोग करके क्रोध में भरे हुए शतानीक ने दुष्कर्ण के हृदय में अत्यन्त गहरा आघात किया। इससे दुष्कर्ण वज्राहत वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा।
राजन्! दुष्कर्ण को आघात से पीड़ित देख पाँच महारथियों ने शतानीक को मार डालने की इच्छा से उसे सब ओर से घेर लिया। उनके बाणसमूहों से यशस्वी शतानीक को आच्छादित होते देख क्रोध में भरे हुए पाँच भाई केकयराजकुमारों ने उन पाँचों महारथियों पर धावा किया। महाराज! उन्हें आते देख आपके महारथी पुत्र उनका सामना करने के लिये आगे बढे़, जैसे हाथी दूसरे हाथियों से भिड़ने के लिये आगे बढ़ते हैं। नरेश्वर! दुर्मुख, दुर्जय, युवा वीर दुर्मर्षण, शत्रुंजय तथा शत्रुसह -ये सब के सब यशस्वी वीर क्रोध में भरकर पाँचों भाई केकयों का सामना करने के लिये एक साथ आगे बढ़े। उनके रथ नगरों के समान प्रतीत होते थे। उनमें मन के समान वेगशाली घोड़े जुते हुए थे। नाना प्रकार के रूप रंगवाली और विचित्र पताकाएँ उन्हें अलंकृत कर रही थीं। ऐसे रथों पर आरूढ़ सुन्दर धनुष धारण किये विचित्र कवच और ध्वजों से सुशोभित उन वीरों ने शत्रु की सेना में उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे सिंह एक वन से दूसरे वन में प्रवेश करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनाशीतितमअध्याय के श्लोक 59-64 का हिन्दी अनुवाद)
फिर तो एक दूसरे पर प्रहार करते हुए उन सभी महारथियों में अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध होने लगा। रथों से रथ और हाथियों से हाथी भिड़ गये।
संजय कहते हैं ;- राजन! एक दूसरे पर प्रहार करने वाले उन महारथियों का वह युद्ध यमलोक की वृद्धि करने वाला था। सूर्यास्त के दो घड़ी बाद तक उन सब लोगों ने बड़ा भयंकर युद्ध किया। उसमें सहस्रों रथी और घुड़सवार प्राणशून्य होकर बिखर गये। तब शान्तनुनन्दन भीष्म ने कुपित होकर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उन महामना वीरों की सेना का विनाश कर डाला, पाञ्चालों की सेना की कितनी ही टुकडि़यों को अपने बाणों द्वारा यमलोक पहुँचा दिया।
नरेश्वर! महाधनुर्धर भीष्म इस प्रकार पाण्डव सेना का संहार करके अपनी समस्त सेनाओं को युद्ध से लौटाकर अपने शिविर को चले गये। इसी प्रकार धृष्टद्युम्न और भीमसेन- इन दोनों वीरों ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कौरव सेनाओं का विनाश कर डाला। धर्मराज युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न और भीमसेन दोनों से मिलकर उनका मस्तक सूँघा और बड़े हर्ष के साथ अपने शिविर को प्रस्थान किया। अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण भी कौरव सेना को बाणों द्वारा मारकर तथा रणभूमि से भगाकर शिविर को ही चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व के छठे दिन के युद्ध में सेना के शिविर के लिए लौटने से संबंध रखने वाला उन्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन तथा सातवें दिन के युद्ध के लिये कौरव सेना का प्रस्थान”
संजय कहते हैं ;- महाराज! आपस में एक दूसरे को चोट पहुँचाने वाले वे सभी शूरवीर खून से लथपथ हो अपने शिविरों को ही चले गये। यथायोग्य विश्राम करके एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए वे लोग पुनः युद्ध करने की इच्छा से तैयार दिखायी देने लगे। राजन! तदनन्तर आपके पुत्र दुर्योधन ने, जिसका शरीर बहते हुए रक्त से भीगा हुआ था, चिन्तामग्न होकर पितामह भीष्म के पास जाकर इस प्रकार पूछा- ‘दादा जी! हमारे सेनाएँ अत्यन्त भयंकर तथा रौद्ररूप धारण करने वाली हैं। उनकी व्यूह रचना भी अच्छे ढंग से की जाती है। इन सेनाओं में ध्वजों की संख्या बहुत अधिक है। तथापि शूरवीर पाण्डव महारथी उनमें प्रवेश करके तुरंत हमारे सैनिकों को विदीर्ण करते, मारते और पीड़ा देकर चले जाते हैं। वे युद्ध में सबको मोहित करके अपनी कीर्ति का विस्तार करते हैं। देखिये न, भीमसेन ने वज्र के समान दुर्भेद्य मकरव्यूह में प्रवेश करके मृत्युदण्ड के समान भयंकर बाणों द्वारा मुझे युद्ध स्थल में क्षत-विक्षत कर दिया है। राजन! भीमसेन को कुपित देखकर मैं भय से व्याकुल हो उठता हूँ। आज मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। सत्यप्रतिज्ञ पितामह! मैं आपकी कृपा से पाण्डवों को मारना और उन पर विजय पाना चाहता हूँ’।
दुर्योधन के ऐसा कहने पर और उसे क्रोध में भरा हुआ जानकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ मनस्वी महात्मा गंगानन्दन भीष्म ने जोर-जोर से हँसते हुए प्रसन्न मन से उसे इस प्रकार उत्तर दिया,
भिष्म जी बोले ;- ‘राजकुमार! मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर महान् प्रयत्न के साथ पाण्डवों की सेना में प्रवेश करके तुम्हें विजय और सुख देना चाहता हूँ। तुम्हारे लिये अपने आपको छिपाकर नहीं रखता हूँ। जो समरभूमि में पाण्डवों के सहायक हुए हैं, उनमें बहुत-से ये महारथी वीर अत्यन्त भयंकर, परम शौर्यसम्पन्न, शस्त्रविद्या के विद्वान् तथा यशस्वी हैं। इन्होंने थकावट को जीत लिया है और ये हम लोगों पर रोषरूपी विष उगल रहे हैं। ये बल-पराक्रम में प्रचण्ड और तुम्हारे साथ वैर बाँधे हुए हैं। इन्हें सहसा पराजित नहीं किया जा सकता है। राजन्! वीरवर! मैं सम्पूर्ण शरीर से अपने प्राणों की परवा छोड़कर पाण्डवों की सेना के साथ युद्ध करूँगा। महानुभाव! तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिये अब युद्ध में मुझे अपने जीवन की रक्षा भी अत्यन्त आवश्यक नहीं जान पड़ती है। मैं तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि के लिये देवताओं सहित समस्त भयंकर दैत्यों को भी दग्ध कर सकता हूँ, फिर शत्रुओं की सेना की तो बात ही क्या है। राजन! मैं उन पाण्डवों से भी युद्ध करूँगा और तुम्हारा सम्पूर्ण प्रिय कार्य सिद्ध करूँगा।’
उस समय भीष्म जी की यह बात सुनते ही दुर्योधन का मन प्रसन्न हो गया। तदनन्तर दुर्योधन ने हर्ष में भरकर सम्पूर्ण राजाओं तथा सारी सेनाओं से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘युद्ध के लिये निकलो। राजा दुर्योधन की आज्ञा पाकर सहस्रों हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथों से भरी हुई वे सारी सेनाएँ तुरंत रण के लिये प्रस्थित हुई। महाराज! आपकी वे विशाल सेनाएँ नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो अत्यन्त हर्ष एवं उत्साह में भरी हुई थीं। राजन्! घोड़े, हाथी और पैदलों से युक्त हो रणभूमि में खड़ी हुई उन सेनाओं की बड़ी शोभा होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 15-19 का हिन्दी अनुवाद)
आपकी सेनाओं के सेनापति अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता एवं नरवीर योद्धा थे। उनसे विधिपूर्वक अनुशासित हो रथसमूह, पैदल, हाथी और घोड़ों के समुदाय जब युद्धभूमि में जाने लगे, तब उनके पैरों से उठी हुई धूल सूर्य की किरणों को आच्छादित करके प्रातःकालिक सूर्य की प्रभा के समान कान्तिमयी प्रतीत होने लगी। रथों और हाथियों पर खड़ी की हुई पताकाएँ चारों ओर वायु की प्रेरणा से फहराती हुई बड़ी शोभा पा रही थीं।
राजन्! जैसे आकाश में बादलों के साथ बिजलियाँ चमक रही हों, उसी प्रकार उस समरागंण में चारों ओर अनेक रंगों के दन्तार हाथी झुंड के झुंड खडे़ हुए शोभा पा रहे थे। उनका संचालन सुन्दर ढंग से हो रहा था। जैसे आदि युग में देवताओं और दैत्यों के समूह द्वारा समुद्र के मथे जाते समय अत्यन्त घोर शब्द होता था, उसी प्रकार उस समय युद्धस्थल में अपने धनुषों की टंकार करने वाले राजाओं का अत्यन्त भयानक तुमुल शब्द प्रकट हो रहा था। महाराज! आपके पुत्रों की वह सेना भयंकर गजराजों से भरी थी। वह अनेक रूप-रंगों की दिखायी देती थी। उसका वेग बढ़ता ही जा रहा था। वह उस समय प्रलयकाल के मेघसमुदाय की भाँति शत्रु सेना का संहार करने में समर्थ प्रतीत होती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में भीष्म-दुर्योधन संवाद विषयक अस्सीवां अध्याय पूरा हुआ)
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