सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के इकहत्तरवें अध्याय से पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 71 chapter to the 75 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म, अर्जुन, आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! अपने भाइयों तथा दूसरे राजाओं को भीष्म के साथ उलझा हुआ देख अस्त्र उठाये हुए अर्जुन ने भी गंगानन्दन भीष्म पर धावा किया। पाञ्चजन्य शंख और गाण्डीव धनुष का शब्द सुनकर तथा अर्जुन के ध्वज को देखकर हमारे सब सैनिकों के मन में भय समा गया। महाराज! अर्जुन का ध्वज सिंनपुच्छ के समान वानर की पूँछ से युक्त था। वह प्रज्वलित पर्वत-सा दिखायी देता था। वृक्षों में कहीं भी अटकता नहीं था। आकाश में उदित हुए धूमकेतु-सा दृष्टिकोचर होता था। वह अनेक रंगों से सुशोभित, विचित्र, दिव्य एवं वानरचिह्न से युक्त था। इस प्रकार हमने गाण्डीवधारी अर्जुन के उस ध्वज को उस समय देखा। उस महान् समर में हमारे पक्ष के योद्धाओं ने सुवर्णमय पीठ से युक्त गाण्डीव धनुष को आकाश के भीतर मेघों की घटा में चमकती हुई बिजली के समान देखा।

     अर्जुन आपकी सेना का संहार करते हुए इन्द्र के समान गर्जना कर रहे थे। इस समय हम लोगों ने उनके हस्ततलों का बड़ा भयंकर शब्द सुना। भयंकर अस्त्र वाले अर्जुन ने प्रचण्ड आँधी, बिजली तथा गर्जना से युक्त मेघ के समान सम्पूर्ण दिशाओं को अपनी बाण वर्षा से आप्लावित करते हुए गंगानन्दन भीष्म पर सब ओर से धावा किया। उस समय हम लोग उनके अस्त्रों से इतने मोहित हो गये थे कि हमें पूर्व और पश्चिम का भी पता नहीं चलता था। भरतश्रेष्ठ! आपके सभी योद्धा घबराकर यह सोचने लगे कि हम किस दिशा में जायें। उनके सारे वाहन थक गये थे। कितनों के घोडे़ मार डाले गये थे। उन सबका हार्दिक उत्साह नष्ट हो गया था। वे सब-के-सब एक दूसरे से सटकर आपके पुत्रों के साथ भीष्म जी की ही शरण में छिपने लगे। उस युद्ध स्थल में उन्हें केवल शान्तनुनन्दन भीष्म ही आर्त सैनिकों को शरण देने वाले प्रतीत हुए। वे सभी लोग ऐसे भयभीत हो गये कि रथी रथों से और घुड़सवार घोड़ों की पीठों से गिरने लगे तथा पैदल सैनिक भी पृथ्वी पर लोट-पोट हो गये। भारत! बिजली की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव का गम्भीर घोष सुनकर हमारे समस्त सैनिक भयभीत हो लुकने-छिपने लगे।

     तत्पश्चात् काम्बोजराज सुदक्षिण काम्बोजदेशीय विशाल एवं शीघ्रगामी घोड़ों पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये चले। उनके साथ गोपायन नाम वाले कई हजार गोपसैनिक थे। प्रजानाथ! समस्त कलिंगदेशीय प्रमुख वीरों से घिरे हुए कलिंगराज भी युद्ध के लिये आगे बढ़े। उनके साथ मद्र, सौवीर, गान्धार और त्रिगर्तदेशीय योद्धा भी मौजूद थे। इनके सिवा राजा जयद्रथ सम्पूर्ण राजाओं को साथ ले दुःशासन को आगे करके चला। उसके साथ भी अनेक जनपदों के लोगों की पैदल सेना मौजूद थी। इसके सिवा आपके पुत्र की आज्ञा से चैदरह हजार कच्छे घुड़सवार सुबलपुत्र शकुनि को घेरकर खड़े हुए। भरतश्रेष्ठ! फिर पृथक् पृथक् रथ और वाहन लिये आपके पक्ष के ये सब महारथी वीर समरागण में अर्जुन पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगे। इधर, चेदि और काशि देश के पैदल सैनिकों के तथा पाञ्चाल और संजय देश के रथियों सहित धृष्टद्युम्न आदि समस्त पाण्डवीर धर्मपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा से समरभूमि में आपके सैनिकों का संहार करने लगे। रथियों, हाथियों, घोड़ों और पैदलों के पैरों से उड़ी हुई धूलराशि ने मेघों की भारी घटा के समान आकाश में व्याप्त होकर उस युद्ध को भयंकर बना दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 19-43 का हिन्दी अनुवाद)

    भीष्म तोमर, नाराच और प्रास आदि धारण करने वाले हाथीसवार, घुड़सवार तथा रथारोही योद्धाओं की विशालवाहिनी के साथ किरीटधारी अर्जुन से भिड़ गये। फिर, अवन्तीनरेश काशिराज के साथ, सिन्धुराज जयद्रथ भीमसेन के साथ तथा पुत्रों और मन्त्रियों सहित अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर यशस्वी मद्रराज शल्य के साथ युद्ध करने लगे। प्रजानाथ! विकर्ण सहदेव के साथ और चित्रसेन शिखण्डी के साथ भिड़ गये। मत्स्यदेशीय योद्धाओं ने दुर्योधन और शकुनि का सामना किया। द्रुपद, चेकितान और महारथी सात्यकि -ये अश्वत्थामा सहित महामना द्रोण से भिड़ गये। कृपाचार्य और कृतवर्मा- इन दोनों ने धृष्टद्युम्न पर धावा किया। इस प्रकार अपने-अपने घोड़ों को आगे बढ़ाकर तथा हाथी एवं रथों को घुमाकर समस्त सैनिक सब ओर युद्ध करने लगे।

     प्रजानाथ! बिना बादल के ही दुःसह बिजलियाँ चमकने लगीं, सम्पूर्ण दिशाएँ धूल से भर गयीं और भयंकर वज्र पात की-सी आवाज के साथ बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरने लगीं। बड़े जोर की आँधी उठ गयी। धूल की वर्षा होने लगी। सेना के द्वारा उड़ायी हुई धूल से आकाश में सूर्यदेव छिप गये। उस समय समस्त प्राणियों पर बड़ा भारी मोह छा गया, क्योंकि वे धूल से तो दबे ही थे, अस्त्रों के समुदाय से भी पीड़ित हो रहे थे। वीरों की भुजाओं से छूटकर सब प्रकार के आवरणों (कवच आदि) का भेदन करने वाले बाणसमूहों के भयानक आघात सब ओर हो रहे थे।

     भरतश्रेष्ठ! उत्तम भुजाओं द्वारा ऊपर उठाये हुए नक्षत्रों के समान निर्मल एवं चमकीले अस्त्र आकाश में प्रकाश फैला रहे थे। भरतभूषण! सोने की जाली से ढकी और ऋषभचर्म की बनी हुई विचित्र ढालें सम्पूर्ण दिशाओं में गिर रही थीं। सूर्य के समान चमकीले खड्गों से सब ओर काटकर गिराये जाने वाले शरीर और मस्तक सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिगोचर हो रहे थे। कितने ही महारथियों के रथों के पहिये, धुरे और भीतर की बैठकें टूट-फूटकर नष्ट हो गयीं, बड़ी-बड़ी ध्वजाएँ खण्डित होकर गिर गयीं, घोडे़ मार दिये गये और वे महारथी स्वयं भी मारे जाकर धरती पर जहाँ-तहाँ गिर पड़े। उस युद्धस्थल में कितने ही घोड़े अस्त्र-शस्त्रों के आघात से घायल होकर अपने रथियों के मारे जाने के बाद भी रथ खींचते हुए भागते और गिर पड़ते थे। भारत! कितने ही उत्तम घोड़ों के शरीर बाणों से आहत होकर क्षत-विक्षत हो गये थे, तो भी रथ के साथ रस्सी में बँधे हुए थे, इसलिये रथ के जूओं को इधर-उधर खींचते रहते थे।

     राजन्! कितने ही रथारोही युद्धस्थल में एक ही महाबली गजराज के द्वारा घोड़ों और सारथियों सहित कुचले हुए दिखायी पड़ते थे। समस्त सेनाओं में भीषण मार-काट मची हुई थी और बहुत-से हाथी गन्धयुक्त गजराज के मद की गन्ध सूँघकर उसी के भ्रम से निर्बल हाथी को भी मार गिराने के लिये पकड़ लेते थे। तोमरों सहित प्राणशून्य होकर गिरे हुए महावतों और नाराचों की मार से मरकर गिरने वाले हाथियों से वह रणभूमि आच्छादित हो गयी थी। सैन्यसमूहों के उस भीषण संघर्ष में आगे बढ़ाये हुए बड़े-बड़े हाथियों से टकराकर युद्ध में कितने ही छोटे-छोटे हाथी अंग-भंग हो जाने के कारण सवारों और ध्वजों सहित गिर जाते थे।

     महाराज! उस युद्ध में कितने ही हाथियों के द्वारा विशाल सर्पराज समान सूँड़ों से खींचकर फेके हुए रथों के ध्वज और कूबर चूर-चूर होकर गिरते देखे जाते थे। कितने ही दन्तार हाथी रथसमूहों को तोड़-फोड़कर उनमें बैठे हुए रथियों को उनके केश पकड़कर खींच लेते और वृक्ष की शाखा की भाँति उन्हें घुमाकर धरती पर दे मारते थे। इस प्रकार उस युद्ध में उन रथियों की धज्जियाँ उड़ जाती थीं। कितने ही बड़े-बड़े गजराज रथसमूहों में घुसकर युद्ध में उलझे हुए रथों को पकड़ लेते और सब प्रकार के शब्दों का अनुसरण करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में उन रथों को खींचे फिरते थे। इस प्रकार रथों से रथियों को खींचने वाले उन हाथियों का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो वे तालाब में वहाँ उगे हुए कमलों का समूह खींच रहे हों। इस तरह सवारों, पैदलों और ध्वजों सहित महारथियों के शरीरों से वह विशाल युद्धस्थल पट गया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवधपर्व में संकुलयुद्धविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! मत्स्यनरेश विराट के साथ मिलकर शिखण्डी ने अत्यन्त दुर्जय महाधनुर्धर भीष्म पर शीघ्रतापूर्वक चढ़ाई की। उस समय अर्जुन ने उस रणभूमि में महाधनुर्धर एवं महाबली द्रोण, कृपाचार्य, विकर्ण तथा अन्यान्य बहुत से शूरवीर नरेशों को अपने बाणों द्वारा पीड़ा पहुँचायी। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार मंत्री और बन्धुओं सहित महाधनुर्धर सिंधुराज जयद्रथ पर, पूर्व और दक्षिण के भूमिपालों पर तथा आपके अमर्षशील पुत्र महाधनुर्धर दुर्योधन एवं दुःसह पर भीमसेन ने आक्रमण किया। सहदेव ने शकुनि और महारथी उलूक- इन दोनों दुर्जय महाधनुर्धर पिता-पुत्रों पर धावा किया।

    महाराज। आपके पुत्र द्वारा ठगे गये महारथी राजा युधिष्ठिर ने संग्राम में गजसेना पर आक्रमण किया। माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल युद्ध में बड़े-बड़े शूरवीरों को रुलाने वाले थे। उन्होंने त्रिगर्तों की सेना के साथ युद्ध ठाना। सात्यकि, चेकितान और महारथी अभिमन्यु ने समरभूमि में कुपित होकर शालवों तथा केकयों पर धावा किया। धृष्टकेतु, राक्षस घटोत्कच और नकुलपुत्र श्रेष्ठ रथी शतानीक- इन अत्यन्त दुर्जय वीरों ने समरांग में आपकी रथ सेना पर आक्रमण किया। राजन्! अनन्त आत्मबल से सम्पन्न पाण्डव-सेनापति महाबली धृष्टद्युम्न ने संग्राम भूमि में भयंकर कर्म करने वाले द्रोणाचार्य से लोहा लिया।

     इस प्रकार ये आपके महाधनुर्धर शूरवीर योद्धा पाण्डवों के साथ समरभूमि में युद्ध करने लगे। सूर्य देव दिन के मध्यभाग में आ गये। आकाश तपने लगा। परंतु उस समय भी कौरव तथा पाण्डव एक-दूसरे को मार रहे थे। जिन पर ध्वजा और पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनका एक-एक अवयव सुवर्णभूषित हो विचित्रशोभा धारण करता था तथा जिन पर व्याघ्र के चर्म का आवरण पड़ा हुआ था, ऐसे अनेक रथ उस समरांण में विचरते हुए शोभा पा रहे थे। समर में एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर विजय पाने की इच्छा वाले शूरवीर सिंह के समान गर्जना कर रहे थे और उनका वह तुमुल नाद सब ओर गूँज रहा था। राजन्! हमने वहाँ अत्यन्त भयंकर और अद्भुत संग्राम देखा, जिसे रणवीर सृजयों ने कौरवों के साथ किया था।

    शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! वहाँ चारों ओर इतने बाण छोड़े गये थे कि उनसे आच्छादित हो जाने के कारण हम आकाश, सूर्य, दिशा तथा विदिशाओं को भी नहीं देख पाते थे। चमकती हुई धारवाली शक्तियाँ, चलाये जाते हुए तोमरों और पानीदार तलवारों की प्रभा नील कमल के समान सुशोभित हो रही थीं। वे तथा विचित्र कवचों और आभूषणों के प्रभासमूह आकाश, दिशा एवं कोणों को अपने तेज से प्रकाशित कर रहे थे।

     राजन्! चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले राजाओं के शरीरों से वह समरांण यत्र-तत्र सर्वत्र शोभा पा रहा था। राजन्! रथों के समूह और नरश्रेष्ठ नरेशगण युद्ध में आते हुए उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, जैसे आकाश में ग्रह-नक्षत्र सुशोभित होते हैं। रथियों में श्रेष्ठ भीष्म ने कुपित होकर सब सेनाओं के देखते-देखते महाबली भीमसेन को रोक दिया। उस समय पत्थर पर रगड़कर तेज किये हुए, सुवर्णमय पंख से युक्त और तेल के धोये तीखे बाण भीष्म के हाथों से छूटकर समरभूमि में भीमसेन को चोट पहुँचाने लगे। भारत! तब महाबली भीमसेन ने क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर महावेगशालिनी शक्ति भीष्म पर छोड़ी। उसमें सोने का डंडा लगा हुआ था। उसको सह लेना बहुत ही कठिन था। उसे सहसा आते देख भीष्म ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा युद्ध भूमि में काट गिराया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! तदनन्तर एक तीखे और पानीदार भल्ल से उन्होंने भीमसेन के धनुष के दो टुकड़े कर दिये। महाबली भीमसेन ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा धनुष ले बहुत से बाणों द्वारा युद्धस्थल में शान्तनुनन्दन भीष्म को अत्यन्त पीड़ा दी।

     जनेश्वर! तत्पश्चात् उस युद्ध में सात्यकि ने शीघ्र ही आपके ताऊ भीष्म के पास पहुँचर धनुष को कानों तक खींचकर चलाये हुए बहुत से तीखे एवं तेज सायकों द्वारा उन्हें बहुत पीड़ा दी। तब भीष्म ने अत्यन्त भयंकर तीक्ष्ण बाण का संधान करके सात्यकि के रथ से उनके सारथि को मार गिराया। राजन् रथ सारथि के मारे जाने पर सात्यकि के घोड़े वहाँ से भाग चले। मन और वायु के समान वेग वाले वे घोड़े जिधर राह मिली, उधर ही दौड़ने लगे। इससे सारी सेना में कोलाहल मच गया। महात्मा पाण्डवों के दल में हाहाकार होने लगा। अरे! दौड़ो, पकड़ो, घोड़ों को रोको भागो। सात्यकि के रथ की ओर इस तरह का शब्द गूँजने लगा।

     इसी बीच में शान्तनुनन्दन भीष्म ने पाण्डव सेना का उसी प्रकार विनाश आरम्भ किया, जैसे देवराज इन्द्र आसुरी सेना का संहार करते हैं। भीष्म के द्वारा पीड़ित हुए पाञ्चाल और सोमक युद्ध का दृढ़ निश्चय लेकर भीष्म की ही ओर दौड़े। धृष्टद्युम्न आदि समस्त पाण्डव योद्धा आपके पुत्र की सेना को जीतने की इच्छा से युद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्म पर ही चढ़ आये। राजन्! इसी प्रकार भीष्म, द्रोण आदि कौरव योद्धा भी बड़े वेग से पाण्डव सेना पर टूट पड़े फिर तो दोनों दलों में भयंकर युद्ध होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍म के अन्‍तर्गत भीष्‍मवध पर्व में पांचवे दिन के युद्ध से संबंध रखने वाला बहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“विराट-भीष्म, अश्वतथामा-अर्जुन, दुर्योधन-भीमसेन तथा अभिमन्यु और लक्ष्‍मण के द्वन्‍द्वयुद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन्! महारथी राजा विराट ने तीन बाण मारकर महारथी भीष्म को पीड़ित किया और तीन ही बाणों से उनके घोड़ों को भी घायल कर दिया। तब महा धनुर्धर महाबली तथा शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले शान्तनुनन्दन भीष्म ने सोने के पंख वाले दस बाण मारकर विराट को भी घायल कर दिया। भयंकर धनुष धारण करने वाले महारथी अश्वत्थामा ने अपने हाथ की दृढ़ता का परिचय देते हुए गाण्डीवधारी अर्जुन की छाती में छः बाणों से प्रकार किया। तब शत्रुवीरों का नाश करने वाले शत्रुसूदन अर्जुन ने अश्वत्थामा का धनुष काट दिया और उसे तीन तीखे बाणों द्वारा अत्यन्त घायल कर दिया। राजन्! युद्ध में अर्जुन के द्वारा अपने धनुष का काटा जाना अश्वत्थामा को सहन नहीं हुआ। उस वेगशाली वीर ने क्रोध से मूर्च्छित होकर तुरंत ही दूसरा धनुष लम्बे पैने बाणों द्वारा अर्जुन को और सत्तर श्रेष्ठ सायकों द्वारा श्रीकृष्ण को घायल कर दिया।

     तब श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने क्रोध से लाल आँखें करके बारंबार गरम-गरम लंबी साँस खींचकर सोच-विचार करने के पश्चात् धनुष को बायें हाथ से दबाया। फिर उन शत्रुसूदन गाण्डीवधारी पार्थ ने कुपित हो झुकी हुई गाँठ वाले कुछ भयंकर बाण हाथ में लिये, जो जीवन का अन्त कर देने वाले थे। बलवानों में श्रेष्ठ अर्जुन ने उन बाणों द्वारा तुरंत ही समरागंण में अश्वत्थामा को घायल किया। वे बाण उसका कवच फाड़कर उस युद्ध स्थल से उसके शरीर का रक्त पीने लगे, किन्तु गाण्डीवधारी अर्जुन के द्वारा विदीर्ण किये जाने पर भी अश्वत्थामा व्यथित नहीं हुआ। राजन्! द्रोणकुमार तनिक भी विहल हुए बिना ही पूर्ववत्‌ समरभूमि में बाणों की वर्षा करता रहा और अपने महान्‌ व्रत की रक्षा की इच्छा से समरांगण में डटा रहा। अश्वत्थामा युद्ध भूमि में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों का सामना करता रहा, उसके इस महान्‌कर्म की श्रेष्ठ कौरवों ने बड़ी प्रशंसा की।

     भारत! अर्जुन ने भी अत्यन्त हर्ष में भरकर रणभूमि में सम्पूर्ण भूतों के सुनते हुए अश्वत्थामा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वह द्रोणाचार्य से उपसंहार सहित सुदुर्लभ अस्त्र-समुदाय की शिक्षा पाकर निर्भय हो सदा ही पाण्डव-सैनिकों के साथ युद्ध करता था। शत्रुओं को संताप देने वाले रथियों में श्रेष्ठवीर अर्जुन ने यह सोचकर कि अश्वत्थामा मेरे आचार्य का पुत्र है, द्रोण का लाड़ला बेटा है तथा ब्राह्मण होने के कारण भी विशेष रूप से मेरे लिये माननीय है; आचार्य पुत्र पर कृपा की। तदनन्तर श्वेत घोड़ों वाले कुन्ती कुमार पराक्रमी अर्जुन ने अश्वत्थामा को वहीं युद्ध स्थल में छोड़कर बड़ी उतावली के साथ आपके दूसरे सैनिकों का संहार करते हुए उनके साथ युद्ध आरम्भ किया। दुर्योधन ने शान चढ़ाकर तेज किये हुए गृध्र पंख युक्त अथवा सुवर्ण मय पंख वाले दस बाण मारकर महाधनुर्धर भीमसेन को बड़ी चोट पहुँचायी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

    इससे भीमसेन अत्यन्त क्रोध से जल उठे। उन्होंने एक विचित्र धनुष हाथ में लिया, जो अत्यन्त सुदृढ़ और शत्रुओं के प्राण लेने में समर्थ था। उसके ऊपर उन्होंने दस तीखे बाण रखे; फिर धनुष को कान तक खींचकर वे बाण छोड़ दिये। उन सीधे जाने वाले वेगवान् एवं तीक्ष्ण बाणों द्वारा भीम ने बिना किसी व्यग्रता के तुरंत ही कुरुराज दुर्योधन की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। दुर्योधन की छाती पर एक मणि शोभा पाती थी, जो सुवर्णमय सूत्र में पिरोयी हुई थी। वह भीमसेन के बाणों से आच्छादित होकर वैसे ही शोभा पाने लगी, जैसे आकाश में ग्रहों से घिरे हुए सूर्य सुशोभित होते हैं। भीमसेन के बाणों से पीड़ित होकर आपका तेजस्वी पुत्र उनके द्वारा किये गये आघात को उसी प्रकार नहीं सह सका, जैसे मतवाला हाथी ताल की आवाज नहीं सहन करता है। महाराज! तदनन्तर पत्थर पर रगड़ कर तेज किये हुए स्वर्ण पंख युक्त बाणों द्वारा क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने भीमसेन को बींध डाला और पाण्डव सेना को भयभीत करने लगा। उस समरागंण में परस्पर युद्ध करके अत्यन्त क्षत-विक्षत हुए आपके दोनों महाबली पुत्र दुर्योधन और भीमसेन देवताओं के समान शोभा पाने लगे।

     शत्रुवीरों का नाश करने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने नरश्रेष्ठ चित्रसेन को दस और पुरुमित्र को सात बाणों से बींध डाला। युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी वीर अभिमन्यु ने सत्यव्रत को सत्तर बाणों से घायल करके रणांगण में नृत्य सा करते हुए हम सब लोगों को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। तब चित्रसेन ने दस, सत्यव्रत ने नौ और पुरुमित्र ने सात बाणों से मारकर अभिमन्यु को घायल कर दिया। उन दोनों के द्वारा घायल होकर अपने शरीर से रक्त बहाते हुए अभिमन्यु ने चित्रसेन के शत्रु निवारक महान् एवं विचित्र धनुष को काट डाला। साथ ही चित्रसेन के कवच को विदीर्ण करके उसकी छाती में भी एक बाण मारा। तदनन्तर आपके वीर एवं महारथी राजकुमार युद्ध में एकत्र हो क्रोध में भरकर अभिमन्यु को तीखे बाणों से बेधने लगे; परंतु उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता अभिमन्यु ने अपने पैने बाणों द्वारा उन सबको घायल कर दिया। जैसे वन में लगी हुई प्रचण्ड आग तृण समूह को अनायास ही जलाकर भस्म कर डालती है, उसी प्रकार अभिमन्यु उस समरांगण में कौरव सेना को दग्ध कर रहा था। उसके इस महान्‌ कर्म को देखकर आपके पुत्रों ने उसे सब ओर से घेर लिया।

    महाराज! आपकी सेना का संहार करता हुआ सुभद्राकुमार अभिमन्यु ग्रीष्म-ऋतु में प्रज्वलित हुई प्रचण्ड अग्नि से भी बढ़कर शोभा पा रहा था। प्रजानाथ! उस का यह पराक्रम देखकर आपका पौत्र लक्ष्मण तुरंत ही युद्ध में सुभद्राकुमार का सामना करने के लिये आ पहुँचा। तब क्रोध में भरे हुए अभिमन्यु ने उत्तम लक्षणों से युक्त लक्ष्मण को छः और उसके सारथि को तीन तीखे बाणों से बींध डाला। राजन्! इसी प्रकार लक्ष्मण ने भी सुभद्राकुमार को अपने तीखे बाणों से घायल कर दिया। महाराज! वह अद्भुत सी बात हुई।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

    यह देख महाबली सुभद्राकुमार ने लक्ष्मण के चारों घोड़ों और सारथि को मारकर तीखे बाणों द्वारा उस पर भी आक्रमण किया। शत्रुवीरों का नाश करने वाले लक्ष्मण ने उस अश्वहीन रथ पर खड़े-खड़े ही क्रोध में भरकर अभिमन्यु के रथ की ओर एक शक्ति चलायी। उस भयंकर एवं दुर्जय सर्पिणी के समान शक्ति को सहसा अपनी ओर आते देख अभिमन्यु ने तीखे बाणों द्वारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।

     तब कृपाचार्य सब सैनिकों के देखते-देखते लक्ष्मण को अपने रथ पर बिठाकर युद्ध भूमि में वहाँ से अन्यत्र हटा ले गये। तदनन्तर उस महाभयंकर संघर्ष में सब योद्धा विपक्षी को मारने की इच्छा रखकर एक-दूसरे का वध करने के लिये परस्पर टूट पड़े। आपके और पाण्डव पक्ष के महाधनुर्धर महारथी वीर समरागंण में प्राणों की आहुति देते हुए एक दूसरे को मार रहे थे। कवच और रथ से रहित हो धनुष कट जाने पर अपने बाल खोले हुए कितने ही सृंजय वीर कौरवों के साथ केवल भुजाओं द्वारा मल्ल युद्ध कर रहे थे। तब महाबली महाबाहु भीष्म अत्यन्त कुपित हो अपने दिव्यास्त्रों द्वारा महामना पाण्डवों की सेना का संहार करने लगे। उस समय वहाँ मारे और गिराये गये हाथी, घोड़े, मनुष्य, रथी और सवारों द्वारा सारी पृथ्वी अच्छादित हो गयी थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्‍मवध पर्व में द्वन्‍द्वयुद्ध विषयक तिहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

चौहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्‍यकि और भूरिश्रवा का युद्ध, भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध, अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध का उपसंहार”

   संजय कहते हैं ;- राजन्। महाबाहु सात्यकि युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले थे। उन्होंने युद्ध में भार सहन करने में समर्थ और गरम उत्तम धनुष को बलपूर्वक सींचकर विषधर सर्प के समान भयानक पंखयुक्त बाण छोड़े। बाणों को छोड़ते समय सात्यकि ने अपने उस प्रगाढ़, शीघ्रकारों और विचित्र हस्त लाघव का परिचय दिया, जिसे उन्होंने पूर्वकाल में अपने सखा अर्जुन से सीखा था। जब वे धनुष को खींचते, दूसरे-दूसरे बाण छोड़ते, फिर नये-नये बाण हाथ में लेते धनुष पर रखते उन्हें शत्रुओं पर चलाते और उनका संहार करते थे, उस समय वर्षा करने वाले मेघ के समान उनका स्वरूप अत्यन्त अद्भुत दिखायी देता था। भारत! उस समय उन्हें युद्ध में बढ़ते देख राजा दुर्योधन ने उनका सामना करने के लिये दस हजार रथियों की सेना भेजी। परंतु श्रेष्ठ धनुर्धर सत्यपराक्रमी शक्तिशाली सात्यकि ने उन समस्त धनुर्धर योद्धाओं को अपने दिव्यास्त्र के द्वारा मार डाला।

     यह भयंकर कर्म करके फिर धनुष लिये वीर सात्यकि ने युद्धस्थल में भूरिश्रवा पर आक्रमण किया। सात्यकि ने आपकी सेना को मार गिराया है, यह देखकर कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाला भूरिश्रवा अत्यन्त कुपित हो उनकी ओर दौड़ा। उसका विशाल धनुष इन्द्र के धनुष के समान बहुरंगा था। महाराज! उसे खींचकर भूरिश्रवा ने अपने हस्त-लाघव का परिचय देते हुए वज्र के समान दुःसह और विषैले सर्पों के तुल्य भयंकर सहस्रों बाण छोड़े। उन बाणों का स्पर्श मृत्यु के तुल्य था। राजन्! उस समय सात्यकि के साथ आये हुए सैनिक उन सायकों का वेग न सह सके। नरेश्वर! युद्धभूमि में वे रण-दुर्मद सात्यकि को वहीं छोड़कर सब ओर भाग निकले।

     सात्यकि के दस महाबलवान् पुत्र थे। उनके कवच, आयुध और ध्वज सभी विचित्र थे। वे सब-के-सब महारथी कहे जाते थे। वे युद्धस्थल में यूपचिह्नित ध्वज वाले महारथी भूरिश्रवा को देखकर उसके पास गये और अत्यन्त क्रोधपूर्वक उससे इस प्रकार बोले,

    सात्यकि के पुत्र बोले ;- 'महाबली कौरव पुत्र! आओ, इस संग्राम भूमि में हम सब लोगों के साथ अथवा पृथक्-पृथक् एक एक के साथ युद्ध करो। या तो तुम युद्ध में हमें पराजित करके यश प्राप्त करो अथवा हम तुम्हें परास्त करके पिता की प्रसन्न्ता बढ़ायेंगे'। तब उन शूरवीरों के ऐसा कहने पर अपने पराक्रम की श्लाघा करने वाला महाबली नरश्रेष्ठ भूरिश्रवा उन्हें युद्ध के लिये उपस्थित देख उनसे इस प्रकार बोला,

     भूरिश्रवा बोला ;- 'वीरो! यदि तुम्हारा ऐसा विचार है तो तुम लोगों ने यह बड़ी अच्छी बात कही है। तुम सब लोग एक साथ सावधान होकर यत्नपूर्वक युद्ध करो। मैं इस रणभूमि में तुम सब लोगों को मार गिराऊँगा'। भूरिश्रवा के ऐसा कहने पर शीघ्रता करने वाले उन महाधनुर्धर वीरों ने बड़ी भारी बाण-वर्षा करते हुए शत्रुदमन भूरिश्रवा पर आक्रमण किया।

    संजय कहते हैं ;- महाराज! अपरान्हकाल में उस समरागंण में एकत्र हुए बहुत से वीरों के साथ एक वीर का भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। नरेश्वर! जैसे मेघ वर्षाकाल में मेरुपर्वत पर जल की बूँदें बरसाते हैं, उसी प्रकार उन सबने मिलकर रथियों में श्रेष्ठ एकमात्र भूरिश्रवा पर बाणों की वर्षा आरम्भ की। उनके छोड़े हुए यमदण्ड और वज्र के समान प्रकाशित होने वाले भयंकर बाणों को अपने पास पहुँचने से पहले ही महारथी भूरिश्रवा ने बिना किसी घबराहट के शीघ्रतापूर्वक काट गिराया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःसप्ततितम अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)

     वहाँ हम सबने सोमदत्त पुत्र भूरिश्रवा का अद्भुत पराक्रम देखा। वह अकेला होने पर भी बहुत से वीरों के साथ निर्भीक सा युद्ध करता रहा। राजन्! उन सब महारथियों ने वह बाणों की वर्षा, करके महाबाहु भूरिश्रवा को चारों ओर से घेरकर उसे मार डालने की तैयारी की। भरत-वंशी नरेश! उस समय क्रोध में भरे हुए भूरिश्रवा ने उन महारथियों के साथ युद्ध करते हुए ही समर भूमि में उनके धनुष काट डाले। भरतश्रेष्ठ! इनके धनुष कट जाने पर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से भूरिश्रवा ने उनके मस्तक भी समरभूमि में काट गिराये। राजन्! वे दसों वीर वज्र के मारे हुए वृक्षों की भाँति रणभूमि में मरकर गिर पड़े। उन महाबली पुत्रों को संग्राम में मारा गया देख वीरवर सात्यकि ने गर्जना करते हुए वहाँ भूरिश्रवा पर आक्रमण किया।

     वे दोनों महाबली समरागंण में अपने रथ के द्वारा दूसरे के रथ को पीड़ा देने लगे। उन्होंने आपस में एक दूसरे के रथ और घोड़ों को नष्ट कर दिया। इस प्रकार रथहीन हुए वे दोनों महारथी उछलते-कूदते हुए एक-दूसरे का सामना करने लगे। वे दोनों पुरुषसिंह हाथ में बड़ी-बड़ी तलवारें और सुन्दर ढालें लिये युद्ध के लिये उद्यत होकर बड़ी शोभा पा रहे थे। वे तलवारों की मार से एक दूसरे को अत्यन्त घायल करने लगे। खड्ग के आघात से पीड़ित हो दोनों ही पृथ्वी पर रक्त बहाने लगे। उनके सारे अंग रक्तरंजित हो रहे थे। अतः वे रणदुर्जय महापराक्रमी वीर खिले हुए दो पलाश-वृक्षों की भाँति अत्यन्त सुशोभित होने लगे। राजन्! तदनन्तर उत्तम ख‌ड्ग धारण करने वाले सात्यकि के पास पहुँचकर भीमसेन ने उस समय तुरंत उन्हें अपने रथ पर बिठा लिया। महाराज! इसी प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन ने भी युद्धस्थल में समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते भूरिश्रवा को तुरंत अपने रथ पर चढ़ा लिया।

     भरतश्रेष्ठ! उस समय क्रोध में भरे हुए पाण्डव उस युद्ध में महारथी भीष्म के साथ युद्ध करने लगे। जब सूर्य अस्ताचल के पास पहुँचकर लाल होने लगे, उस समय अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ बाण-वर्षा करके पच्चीस हजार महारथियों को मार डाला। वे सब-के-सब दुर्योधन की आज्ञा से अर्जुन का संहार करने के लिये आये थे। परंतु वे उस समय आग में गिरे हुए पतंगों की भाँति उनके पास आते ही नष्ट हो गये। तदनन्तर धनुर्विद्या में प्रवीण मत्स्य और केकय देश के वीर अभिमन्यु आदि पुत्रों से युक्त महारथी अर्जुन को घेरकर कौरवों से युद्ध के लिये खड़े हो गये।

      इसी समय सूर्य अस्ताचल को चले गये। तब आपके समस्त सैनिकों पर मोह छा गया। महाराज! तब आपके ताऊ देवव्रत ने संध्या के समय अपनी सेना को पीछे हटा लिया। उनके वाहन बहुत थक गये थे। पाण्डवों और कौरवों के पारस्परिक संघर्ष में दोनों ही सेनाएँ अत्यन्त उद्विग्न हो उठी थीं। अतः वे अपनी-अपनी छावनी को चली गयीं। भारत! तदनन्तर सृंजयों सहित पाण्डव और कौरव अपने शिविर में जाकर वहाँ विधिपूर्वक विश्राम करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्‍मवध पर्व में पांचवें दिवस के युद्ध की समाप्ति विषयक चौहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“छठे दिन के युद्ध का आरम्भ, पाण्डव तथा कौरव सेना का क्रमशः मकरव्यूह एवं क्रौञ्चव्यूह बनाकर युद्ध में प्रवृत्त होना”


     संजय कहते हैं ;- राजन्! रात को विश्राम करने के अनन्तर जब वह रात बीत गयी, तब कौरव और पाण्डव पुनः युद्ध के लिये साथ-साथ निकले। भारत! उस समय वहाँ आपके और पाण्डव पक्ष के सैनिकों में बड़ा कोलाहल मचा। कुछ लोग श्रेष्ठ रथों को जोत करे थे, कुछ लोग हाथियों को सुसज्जित करते थे, कहीं पैदल सैनिक और घोड़े कवच बाँधकर साज-बाज धारण कर तैयार किये जा रहे थे। शंखों और दुन्दुभियों की ध्वनि बड़े जोर-जोर से हो रही थी। इन सबका सम्मिलित शब्द सब ओर गूँज उठा था।

तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न से कहा,

   युधिष्ठिर ने कहा ;- 'महाबाहो। तुम शत्रुनाशक मकरव्यूह की रचना करो। महाराज! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ महारथी धृष्टद्युम्न ने अपने समस्त रथियों को मकरव्यूह बनाने के लिये आज्ञा दे दी। उसके मस्तक के स्थान पर राजा द्रुपद तथा पाण्डुपुत्र अर्जुन खड़े हुए। महारथी नकुल और सहदेव नेत्रों के स्थान में स्थित हुए। महाराज! महाबली भीमसेन उसके मुख की जगह खड़े हुए। सुभद्राकुमार अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँच पुत्र, राक्षस घटोत्कच, सात्यकि और धर्मराज युधिष्ठिर- ये उस मकरव्यूह के ग्रीवाभाग में स्थित हुए। नरेश्वर! सेनापति विराट विशाल सेना से घिरकर धृष्टद्युम्न के साथ उस व्यूह के पृष्ठ भाग में खड़े हुए। पाँच भाई केकयराजकुमार उनके वामपार्श्व में खड़े थे। नरश्रेष्ठ धृष्टकेतु और पराक्रमी चेकितान-ये व्यूह के दाहिने भाग में स्थित होकर उसकी रक्षा करते थे। महाराज! उसके दोनों पैरों की जगह महारथी श्रीमान् कुन्तिभोज और विशाल सेना सहित शतानीक खड़े थे। सोमकों से घिरा हुआ महाधनुर्धर शिखण्डी और बलवान् इरावान- ये दोनों उस मकरव्यूह के पुच्छभाग में खड़े थे।

      महाराज! इस प्रकार उस महान् मकरव्यूह की रचना करके पाण्डव कवच बाँधकर सूर्योदय के समय पुनः युद्ध के लिये तैयार हो गये। ऊँची-ऊँची ध्वजाओं, छत्रों तथा चमकीले और तीखे अस्त्र-शस्त्रों से युक्त हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों की चतुरगिंणी सेना के साथ पाण्डवों ने कौरवों पर शीघ्रतापूर्व आक्रमण किया। राजन्! तब आपके ताऊ देवव्रत ने पाण्डवों का वह व्यूह देखकर उसके मुकाबिले में अपनी सेना को महान् क्रौच्ञ व्यूह के रूप में संगठित किया। उसकी चोंच के स्थान में महाधनुर्धर द्रोणाचार्य सुशोभित हुए। नरेश्वर! अश्वत्थामा और कृपाचार्य नेत्रों के स्थान में खड़े हुए। काम्बोज और बाल्हिकदेश के उत्तम सैनिकों के साथ समस्त, धनुर्धरों में श्रेष्ठ नरप्रवर कृतवर्मा व्यूह के सिरोभाग में स्थित हुए।

     आर्य! महाराज! राजा शूरसेन तथा आपका पुत्र दुर्योधन- ये दोनों बहुत से राजाओं के साथ क्रौञ्चव्यूह के ग्रीवाभाग में स्थित हुए। नरश्रेष्ठ! मद्र, सौवीर और केकय योद्धाओं के साथ विशाल सेना से घिरे हुए प्राग्ज्योतिषपुर के राजा भगदत्त उस व्यूह के वक्षःस्थल में स्थित हुए। प्रस्थलाधिपति (त्रिगर्तराज ) सुशर्मा कवच धारण करके अपनी सेना के साथ व्यूह के वाम-पक्ष का आश्रय लेकर खड़े थे। भारत! तुषार, यवन, शक और चूचुपदेश के सैनिक व्यूह के दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर स्थित हुए। मारिष! श्रुतायु, शतायु तथा सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा ये परस्पर एक दूसरे की रक्षा करते हुए व्यूह के जघनप्रदेश में स्थित हुए। महाराज! तत्पश्चात् सूर्योदय-काल में पाण्डवों ने कौरवों के साथ युद्ध के लिये उनकी सेना पर आक्रमण किया, फिर तो बड़ा भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद)

      रथियों की ओर हाथी और हाथियों की ओर रथी बढ़े। घुड़सवारों पर रथारोही तथा रथारोहियों पर घुड़सवार चढ़ आये। राजन्! उस महायुद्ध में घुड़सवार योद्धा घुड़सवारों तथा रथियों पर भी चढ़ दौड़े। इसी प्रकार अश्वारोही हाथीसवारों तथा रथियों पर भी टूट पड़े। रथी और घुड़सवार दोनों ही पैदल सेनाओं आक्रमण करने लगे। राजन्! इस प्रकार अमर्ष में भरे हुए ये समस्त सैनिक एक दूसरे पर धावा करने लगे। भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा अन्य महारथियों से सुरक्षित हुई पाण्डव सेना नक्षत्रों से रात्रि की भाँति सुशोभित हो रही थी। इसी प्रकार भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, शल्य और दुर्योधन आदि से घिरी हुई आपकी सेना ग्रहों से आकाश की भाँति शोभा पा रही थी।

      पराक्रमी कुन्तीकुमार भीमसेन ने द्रोणाचार्य को देखकर वेगशाली अश्वों द्वारा द्रोण की सेना पर धावा किया। युद्ध की स्पृहा रखने वाले पराक्रमी द्रोणाचार्य ने रणभूमि में कुपित हो भीम के मर्मस्थानों को लोहे के नौ बाणों से घायल कर दिया। तब युद्ध में द्रोणाचार्य के द्वारा अत्यन्त आहत होकर भीमसेन ने उनके सारथि को यमलोक भेज दिया। तब प्रतापी द्रोणाचार्य स्वयं ही घोड़ों की बागडोर सँभालते हुए पाण्डव-सेना का उसी प्रकार संहुकर करने लगे, जैसे आग रुई के ढेर को भस्म कर डालती है। वे नरश्रेष्ठ संजय और केकय द्रोणाचार्य तथा भीष्म की मार खाकर रणभूमि से भागने लगे।

     इसी प्रकार भीम और अर्जुन के बाणों से क्षत-विक्षत हुई आपकी सेना मतवाली स्त्री की भाँति जहाँ-तहाँ मूर्च्छित होने लगी। भारत! बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाले उस युद्ध में दोनों सेनाओं के व्यूह टूट गये और आपके तथा पाण्डवों के सैनिकों का भयंकर सम्मिश्रण हो गया। 

     संजय कहते हैं ;- भरतनन्दन! हमने आपके पुत्रों का शत्रुओं के साथ अद्भुत पराक्रम देखा था। वे सब-के-सब एक पंक्ति में खड़े होकर युद्ध कर रहे थे। प्रजानाथ! महाबली कौरव तथा पाण्डव एक दूसरे के अस्त्र-शस्त्रों का निवारण करते हुए जूझ रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्‍मवधपर्व में छठे दिन के युद्ध का आरम्‍भ विषयक विषयक पचहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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