सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन”
भीष्म जी कहते हैं ;- दुर्योधन! तब लोकेश्वरों के भी ईश्वर दिव्यरूपधारी श्रीभगवान् ने स्नेहमधुर गम्भीर वाणी में ब्रह्मा जी से इस प्रकार कहा,
भगवान ने कहा ;- ‘तात! तुम्हारे मन में जैसी इच्छा है, वह सब मुझे योग बल से ज्ञात हो गयी है। उसके अनुसार ही सब कार्य होगा।’- ऐसा कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। तब देवता, ऋषि और गन्धर्व सभी बड़े विस्मय में पड़े। उन सबने अत्यन्त उत्सुक होकर पितामह ब्रह्माजी-से कहा,
देवगण बोले ;- ‘प्रभो! आपने विनयपूर्वक प्रणाम करके श्रेष्ठ वचनों द्वारा जिनकी स्तुति की है, ये कोन थे? हम उनके विषय में सुनना चाहते हैं’। उनके इस प्रकार पूछने पर भगवान् ब्रह्मा ने उन समस्त देवताओं, ब्रह्मर्षियों और गन्धर्वों से मधुर वाणी में कहा-
ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘श्रेष्ठ देवताओं! जो परम तत्त्व हैं, भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों जिनके उत्कृष्ट स्वरूप हैं तथा जो इन सबसे विलक्षण हैं, जिन्हें सम्पूर्ण भूतों की आत्मा और सर्वशक्तिमान् प्रभु कहा गया हैं, जो परम ब्रह्म और परम पद के नाम से विख्यात हैं, उन्हीं परमात्मा ने मुझे दर्शन देकर मुझसे प्रसन्न हो बातचीत की है। मैंने उन जगदीश्वर से सम्पूर्ण जगत पर कृपा करने के लिये जो प्रार्थना की है कि प्रभो! आप वासुदेव नाम से विख्यात होकर कुछ काल तक मनुष्यलोक में रहें और असुरों के वध के लिये इस भूतल पर अवतीर्ण हों। जो-जो दैत्य, दानव तथा राक्षस संग्रामभूमि में मारे गये थे, वे मनुष्यलोक में उत्पन्न हुए हैं और अत्यन्त बलवान् होकर जगत् के लिये भयंकर बन बैठे हैं। उन सबका वध करने के लिये सबको वश में करने वाले भगवान् नारायण नर के साथ मनुष्ययोनि में अवतीर्ण होकर भूतल पर विचरेंगे।
ऋषियों में श्रेष्ठ जो पुरातन महर्षि अमित तेजस्वी नर और नारायण हैं, वे एक साथ मानवलोक में अवतीर्ण होंगे। युद्धभूमि में यदि वे विजय के लिये यत्नशील हों तो सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते। मूढ़ मनुष्य उन नर-नारायण ऋषि को नहीं जान सकेंगे। सम्पूर्ण जगत् का स्वामी मैं ब्रह्मा उन भगवान् का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। तुम सब लोगों को उन सर्वलोक-महेश्वर भगवान् वासुदेव की आराधना करनी चाहिये। सुरश्रेष्ठगगण! शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले उन महापराक्रमी भगवान् वासुदेव का ‘ये मनुष्य हैं’ ऐसा समझकर अनादर नहीं करना चाहिये।
ये भगवान् ही परम गुह्य हैं। ये ही परम पद हैं। ये ही परम ब्रह्म हैं। ये ही परम यश हैं और ये ही अक्षर, अव्यक्त एवं सनातन तेज हैं। ये ही पुरुष नाम से कहे जाते हैं, किंतु इनका वास्तविक रूप जाना नहीं जा सकता। ये ही विश्वस्पष्टा ब्रह्माजी के द्वारा परम सुख, परम तेज और परम सत्य कहे गये हैं। इसलिये ‘ये मनुष्य हैं’, ऐसा समझकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं तथा संसार के मनुष्यों को अमित पराक्रमी भगवान् वासुदेव की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी इन भगवान् वासुदेव को केवल मनुष्य कहता है, वह मूर्ख है। भगवान् की अवहेलना करने के कारण उसे नराधम कहा गया है। भगवान् वासुदेव साक्षात् परमात्मा हैं और योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण उन्होंने मानव-शरीर में प्रवेश किया है। जो उनकी अवहेलना करता है, उसे ज्ञानी पुरुष तमोगुणी बताते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
‘जो चराचर स्वरूप श्रीवत्स-चिह्नभूषित उत्तम कान्ति से सम्पन्न भगवान् पद्मनाभ को नहीं जानता, उसे विद्वान् पुरुष तमोगुणी कहते हैं। जो किरीट और कौस्तुभमणि धारण करने वाले तथा मित्रों (भक्तजनों) को अभय देने वाले हैं, उन परमात्मा की अवहेलना करने वाला मनुष्य घोर नरक में डूबता हैं। सुरश्रेष्ठगण! इस प्रकार सात्त्विक वस्तु को समझकर सब लोगों को लोकश्वरों के भी ईश्वर भगवान् वासुदेव को नमस्कार करना चाहिये’।
भीष्म जी कहते हैं ;- दुर्योधन! देवताओं तथा ऋषियों से ऐसा कहकर पूर्वकाल में सर्वभूतात्मा भगवान् ब्रह्मा ने उन सबको विदा कर दिया। फिर वे अपने लोक को चले गये। तत्पश्चात् ब्रह्मा जी की कही हुई उस परमार्थ-चर्चा को सुनकर देवता, गन्धर्व, मुनि और अप्सराएं- ये सभी प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोक में चले गये। तात! एक समय शुद्ध अन्त:करण वाले महर्षियों का एक समाज जुटा हुआ था, जिसमें वे पुरातन भगवान् वासुदेव की माहात्म्य-कथा कह रहे थे। उन्हीं के मुंह से मैंने ये सब बातें सुनी हैं। भरतश्रेष्ठ! इसके सिवा जमदग्निनन्दन परशुराम, बुद्धिमान् मार्कण्डेय, व्यास तथा नारद से भी मैंने यह बात सुनी हैं।
भरतकुलभूषण! इस विषय को सुन और समझकर मैं वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण को अविनाशी प्रभु परमात्मा लोकेश्वरेश्वर और सर्वशक्तिमान् नारायण जानता हुं। सम्पूर्ण जगत् के पिता ब्रह्मा जिनके पुत्र हैं, वे भगवान् वासुदेव मनुष्यों के लिये आराधनीय तथा पूजनीय कैसे नहीं हैं? तात! वेदों के पांरगत विद्वान् महर्षियों ने तथा मैंने तुम को मना किया था कि तुम धनुर्धर भगवान् वासुदेव के साथ विरोध न करो, पाण्डवों के साथ लोहा न लो; परंतु मोहवश तुमने इन बातों का कोई मूल्य नहीं समझा। मैं समझता हूं, तुम कोई क्रूर राक्षस हो; क्योंकि राक्षसों के ही समान तुम्हारी बुद्धि सदा तमोगुण से आच्छन्न रहती हैं। तुम भगवान् गोविन्द तथा पाण्डुनन्दन धनंजय से द्वेष करते हो। वे दोनों ही नर और नारायण देव हैं। तुम्हारें सिवा दूसरा कौन मनुष्य उनसे द्वेष कर सकता हैं?
राजन्! इसलिये तुम्हें यह बता रहा हूँ कि ये भगवान् श्रीकृष्ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोकस्वरूप, नित्य शासक, धरणीधर एवं अविचल हैं। ये चराचरगुरु भगवान् श्रीहरि तीनों लोकों को धारण करते हैं। ये ही योद्धा हैं, ये ही विजय हैं और ये ही विजयी हैं। सबके कारणभूत परमेश्वर भी ये ही हैं। राजन्! ये श्रीहरि सर्वस्वरूप और तम एवं राग से रहित हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहाँ धर्म हैं और जहाँ धर्म हैं, वहीं विजय हैं। उनके माहात्म्य-योग से तथा आत्मस्वरूपयोग से समस्त पाण्डव सुरक्षित हैं। राजन्! इसीलिये इनकी विजय होगी। वे पाण्डवों को सदा कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करते हैं, युद्ध में बल देते हैं ओर भय से नित्य उनकी रक्षा करते हैं।
भारत! जिनके विषय में तुम मुझसे पूछ रहे हो, वे सनातन देवता सर्वगुह्यमय कल्याणस्वरूप परमात्मा ही ‘वासुदेव’ नाम से जानने योग्य हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुभ लक्षण सम्पन्न शूद्र- ये सभी नित्य तत्पर होकर अपने कर्मों द्वारा इन्हीं की सेवा पूजा करते हैं। द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आदि में संकर्षण ने श्रीकृष्णोपासना की विधि का आश्रय ले इन्हीं की महिमा का गान किया हैं। ये ही श्रीकृष्ण नाम से विख्यात होकर इस लोक की रक्षा करते हैं। ये भगवान् वासुदेव ही युग-युग में देवलोक, मृत्युलोक तथा समुद्र से घिरी हुई द्वारिका नगरी का निर्माण करते हैं और ये ही बारंबार मनुष्यलोक में अवतार ग्रहण करते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में विश्वोपाख्यानविषयक छाछठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान श्री कृष्ण की महिमा”
दुर्योधन ने पूछा ;- पितामह! वासुदेव श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण लोकों में महान् बताया जाता है, अतः मैं उनकी उत्पत्ति और स्थिति के विषय में जानना चाहता हूँ।
भीष्म जी ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण वास्तव में महान् है। वे सम्पूर्ण देवताओं के भी देवता हैं। कमलनयन श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। मार्कण्डेय जी भगवान गोविन्द के विषय में अत्यन्त सत्य बातें कहते हैं। वे भगवान ही सर्वभूतमय है और वे ही सबके आत्मस्वरूप महात्मा पुरुषोत्तम है। सृष्टि आरम्भ में इन्हीं परमात्मा ने जल, वायु और तेज इन तीन भूतों तथा सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि की थी। सम्पूर्ण लोकों के ईश्वर इन भगवान श्री हरि ने पृथ्वी देवी की सृष्टि करके जल में शयन किया। वे महात्मा पुरुषोत्त सर्वतेजोमय देवता योग शक्ति से उस जल में सोयें। उन अच्युत ने अपने मुख से अग्नि की, प्राण से वायु की तथा मन से सरस्वती देवी और वेदों की रचना की।
इन्होंने ने ही सर्ग के आरम्भ में सम्पूर्ण लोकों तथा ऋषियों सहित देवताओं की रचना की थी। ये ही प्रलय के अधिष्ठान और मृत्युस्वरूप है। प्रजा की उत्पत्ति और विनाश इन्हीं से होते हैं। ये धर्मश, वरदाता, सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले तथा धर्मस्वरूप है। ये ही कर्ता, कार्य, आदिदेव तथा स्वयं सर्व-समर्थ है। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की सृष्टि भी पूर्वकाल में इन्हीं के द्वारा हुई हैं। इन जनार्दन ने ही दोनों संध्याओं, दसों दिशाओं, आकाश तथा नियमों की रचना की हैं। महात्मा अविनाशी प्रभु गोविन्द ने ही ऋषियों तथा तपस्या की रचना की है। जगत्स्रष्टा प्रजापति को भी उन्होंने ही उत्पन्न किया है। उन पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण ने पहले सम्पूर्ण भूतों के अग्रज संकर्षण को प्रकट किया, उनसे सनातन देवाधिदेव नारायण का प्रादुर्भाव हुआ। नारायण की नाभि से कमल प्रकट हुआ।
सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति के स्थानभूत उस कमल से पितामह ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए और ब्रह्मा जी से ये सारी प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। जो सम्पूर्ण भूतों को तथा पर्वतों सहित इस पृथ्वी को धारण करते है, जिन्हें विश्वरूपी अनन्तदेव तथा शेष कहा गया है, उन्हें भी उन परमात्मा ने ही उत्पन्न किया है। ब्राह्मण लोग ध्यान योग के द्वारा इन्हीं परम तेजस्वी वासुदेव का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जलशायी नारायण की कान के मैल से महान असुर मधु का प्राकट्य हुआ था। वह मधु बड़े ही उग्र स्वभाव का तथा क्रूर कर्मा था। उसने ब्रह्मा जी का समादर करते हुए अत्यन्त भयंकर बुद्धि का आश्रय लिया था। इसलिये ब्रह्मा जी का समादर करते हुए भगवान पुरुषोत्तम ने मधु को मार डाला था। तात! मधु का वध करने के कारण ही देवता, दानव, मनुष्य तथा ऋषिगण श्रीजनार्दन को मधुसूदन कहते हैं। वे ही भगवान समय-समय पर वराह, नृसिंह और वामन के रूप में प्रकट हुए हैं। ये श्रीहरि ही समस्त प्राणियों के पिता और माता है। इन कमलनयन भगवान से बढ़कर दूसरा कोई तत्त्व न हुआ है, न ही होगा।
राजन्! इन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों, दोनों भुजाओं से क्षत्रियों, जंघा से वैश्यों और चरणों से शूद्रों को उत्पन्न किया है। जो मनुष्य तपस्या में तत्पर हो सयंम-नियम का पालन करते हुए अमावास्या और पूर्णिमा को समस्त देहधारियों के आश्रय, ब्रह्म एवं योगस्वरूप् भगवान केशव की आराधना करता है, वह परम पद को प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! सम्पूर्ण लोकों के पितामह भगवान श्रीकृष्ण परम तेज है। मुनिजन इन्हें हृषीकेश कहते हैं। इस प्रकार इन भगवान गोविन्द को तुम आचार्य, पिता और गुरु समझो। भगवान श्रीकृष्ण जिनके ऊपर प्रसन्न हो जाये, वह अक्षय लोकों पर विजय पा जाता है। जो मनुष्य भय के समय इन भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेता है और सर्वदा इस स्तुति का पाठ करता है, वह सुखी एवं कल्याण का भागी होता है। जो मानव भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेते हैं, वे कभी मोह में नहीं पड़ते। जनार्दन महान् भय में निमग्न भगवान उन मनुष्यों की सदा रक्षा करते हैं। भरतवंशी नरेश! इस बात को अच्छी तरह समझकर राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण हृदय से योगों के स्वामी, सर्वसमर्थ, जगदीश्वर एवं महात्मा भगवान केशव की शरण ली है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में विश्वोपाख्या विषयक सरसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महत्ता”
भीष्म जी कहते हैं ;- महाराज! दुर्योधन! पूर्वकाल में इस भूतल पर ब्रह्मर्षियों तथा देवताओं ने इनका जो ब्रह्मभूत स्तोत्र कहा हैं, उसे तुम मुझसे सुनो। प्रभो! आप साध्यगण और देवताओं के भी स्वामी एवं देव देवेश्वर है। आप सम्पूर्ण जगत् के हृदय के भावों को जानने वाले है। आपके विषय में नारदजी ने ऐसा कहा है। मार्कण्डेय जी ने आपको भूत, भविष्य और वर्तमान स्वरूप बताया है। वे आपको यज्ञों का यज्ञ और तपस्याओं का भी सारभूत तप बताया करते हैं। भगवान भृगु ने आपको देवताओं का भी देवता कहा है। विष्णो! आपका रूप अत्यन्त पुरातन और उत्कृष्ट है। प्रभो! आप वसुओं के वासुदेव तथा इन्द्र को स्वर्ग के राज्य पर स्थापित करने वाले हैं।
देव! आप देवताओं के भी देवता हैं। महर्षि द्वैपायन आपके विषय में ऐसा ही कहते हैं। प्रथम प्रजासृष्टि के समय आपको ही दक्ष प्रजापति कहा गया है। आप ही सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा हैं- इस प्रकार अंगिरा मुनि आपके विषय में कहते हैं। अव्यक्त (प्रधान) आपके शरीर से उत्पन्न हुआ है, व्यक्त महत्त्वत्त्व आदि कार्यवर्ग आपके मन में स्थित है तथा सम्पूर्ण देवता भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा असित और देवल का कथन है। आपके मस्तक से द्युलोक और भुजाओं से भूलोक व्याप्त हैं। तीनों लोक आपके उदर में स्थित हैं। आप ही सनातन पुरुष हैं। तपस्या से शुद्ध अन्तःकरण वाले महात्मा पुरुष आपको ऐसा ही जानते हैं। आत्मसाक्षात्कार से तृप्त हुए ज्ञानी महर्षियों की दृष्टि में आप सबसे श्रेष्ठ हैं।
मधुसूदन! जो सम्पूर्ण धर्मों में प्रधान और संग्राम से कभी पीछे हटने वाले नहीं है, उन उदार राजर्षियों के परम आश्रय भी आप ही हैं। इस प्रकार सनत्कुमार आदि योगवेत्ता पापापहारी आप भगवान पुरुषोत्तम की सदा ही स्तुति और पूजा करते हैं। तात दुर्योधन! इस तरह विस्तार और संक्षेप से मैंने तुम्हें भगवान केशव की यथार्थ महिमा बतायी है। अब तुम अत्यन्त प्रसन्न होकर उनका भजन करो।
संजय कहते है ;- महाराज! भीष्म जी के मुख से यह पवित्र आख्यान सुनकर तुम्हारे पुत्र ने भगवान श्रीकृष्ण तथा महारथी पाण्डवों को बहुत महत्त्वशाली समझा। राजन्! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्मजी ने पुनः दुर्योधन से कहा,
भीष्म जी ने कहा ;- 'नरेश्वर! तुमने महात्मा केशव तथा नरस्वरूप् अर्जुन का यथार्थ माहात्म्य, जिसके विषय में तुम मुझसे पूछ रहे थे, मुझसे अच्छी तरह सुन लिया। ऋषि नर और नारायण जिस उद्देश्य से मनुष्यों में अवतीर्ण हुए हैं, वे दोनों अपराजित वीर जिस प्रकार युद्ध में अवध्य हैं तथा समस्त पाण्डव भी जिस प्रकार समरभूमि में किसी के लिये भी वध्य नहीं हैं, वह सब विषय तुमने अच्छी तरह सुन लिया। राजेन्द्र! भगवान श्रीकृष्ण यशस्वी पाण्डवों पर बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिये मैं कहता हूँ कि पाण्डवों के साथ तुम्हारी संधि हो जाय। वे तुम्हारे बलवान् भाई हैं। तुम अपने मन को वश में रखते हुए उनके साथ मिलकर पृथ्वी का राज्य भोगो। भगवान नर-नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) की अवहेलना करके तुम नष्ट हो जाओगे।' प्रजानाथ! ऐसा कहकर आपके ताऊ भीष्म जी चुप हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने राजा दुर्योधन को विदा किया और स्वयं शयन करने चले गये। भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन भी महात्मा भीष्म को प्रणाम करके अपने शिविर में चला आया और अपनी शुभ्र शय्या पर सो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में विश्वोपाख्यान विषयक अड़सठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरवोंद्वारा मकरव्यूह तथा पाण्डवोंद्वारा श्येनव्यूहका निर्माण एवं पाँचवें दिनके युद्धका आरम्भ”
संजय कहते हैं ;- महाराज! भीष्म द्वारा कृष्ण की महिमा का वर्णन सुनने के बाद दुर्योधन भीष्म को प्रणाम करके अपने शिविर में चला गया और अपनी शुभ्र शय्या पर सो गया। वह रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने आकर युद्ध के लिए डट गयी। सबने एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रोध में कुमन्त्रणा के फलस्वरूप् आपके पुत्र और पाण्डव एक दूसरे को देखकर कुपित हो सब-के-सब अपने सहायकों के साथ आकर सेना की व्यूह-रचना करके हर्ष और उत्साह में भरकर परस्पर प्रहार करने को उद्यत हो गये। राजन्! भीष्म सेना का मकरव्यूह बनाकर सब ओर से उसकी रक्षा करने लगे। इसी प्रकार पाण्डवों ने भी अपने व्यूह की रक्षा की। स्वयं अजातशत्रु युधिष्ठिर ने धौम्य मुनि की आज्ञा से श्येन व्यूह की रचना करके शत्रुओं के हृदय में कँपकँपी पैदा की दी।
भारत! अग्नि चयन सम्बन्धी कर्मों में रहते हुए उन्हें श्येनव्यूह का विशेष परिचय था। आपके बुद्धिमान पुत्र की सेना का मकरनामक महाव्यूह निर्मित हुआ था। द्रोणाचार्य की अनुमति लेकर उसने स्वयं सारी सेनाओं द्वारा उस व्यूह की रचना की थी। फिर शान्तनुनन्दन भीष्म ने व्यूह की विधि के अनुसार निर्मित हुए उस महाव्यूह का स्वयं भी अनुसरण किया था। महाराज! रथियों में श्रेष्ठ आपके ताऊ भीष्म विशाल रथसेना से घिरे हुए युद्ध के लिए निकले। फिर यथाभाग खड़े हुए रथी, पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार सब एक दूसरे का अनुसरण करते हुए चल दिये।
शत्रुओं को युद्ध के लिये उद्यत हुए देख यशस्वी पाण्डव युद्ध में अजेय व्यूहराज श्येन के रूप में संगठित हो शोभा पाने लगे। उस व्यूह के मुख भाग में महाबली भीमसेन शोभा पा रहे थे। नेत्रों के स्थान में दुर्धर्ष वीर शिखण्डी तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न खड़े थे। शिरोभाग में सत्यपराक्रमी वीर सात्यकि और ग्रीवाभाग में गाण्डीव-धनुष की टंकार करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन खड़े हुए। पुत्रसहित श्रीमान महात्मा द्रुपद एक अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध में बायें पंख के स्थान में खडे़ थे। एक अक्षौहिणी सेना के अधिपति केकय दाहिने पंख में स्थित हुए। द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी सुभद्राकुमार अभिमन्यु- ये पृष्ठभाग में खड़े हुए। उत्तम पराक्रम से सम्पन्न स्वयं श्रीमान् वीर राजा युधिष्ठिर भी अपने दो भाई नकुल और सहदेव के साथ पृष्ठभाग में ही सुशोभित हुए। तदनन्तर भीमसेन ने रणक्षेत्र में प्रवेश करके मकरव्यूह के मुखभाग में खड़े हुए भीष्म को अपने सायकों से आच्छादित कर दिया।
भारत! तब उस महासमर में पाण्डवों की उस व्यूहबद्व सेना को मोहित करते हुए भीष्म ने उस पर बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। उस समय अपनी सेना को मोहित होती देख अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ युद्ध के मुहाने पर एक हजार बाणों की वर्षा करके भीष्म को घायल कर दिया। संग्राम में भीष्म के छोड़े हुए सम्पूर्ण अस्त्रों का निवारण करके हर्ष में भरी हुई अपनी सेना के साथ वे युद्ध के लिये उपस्थित हुए। तब बलवानों में श्रेष्ठ महारथी राजा दुर्योधन ने पहले जो अपनी सेना का घोर संहार हुआ था, उसको दृष्टि में रखते हुए और युद्ध में भाइयों के वध का स्मरण करते हुए भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- निष्पाप आचार्य! आप सदा ही मेरा हित चाहने वाले हैं। हम लोग आप तथा पितामह भीष्म की शरण लेकर देवताओं को भी समरभूमि में जीतने की अभिलाषा रखते हैं, इसमें सशंय नहीं है। फिर जो बल और पराक्रम में हीन है, उन पाण्डवों को जीतना कौन सी बड़ी बात है। आपका कल्याण हो। आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे पाण्डव मारे जायँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद)
आर्य! आपके पुत्र दुर्योधन के ऐसा कहने पर द्रोणाचार्य कुछ कुपित से हो उठे और लंबी सांस खीचते हुए राजा दुर्योधन से बोले।
द्रोणाचार्य ने कहा ;- तुम नादान हो- पाण्डवों का पराक्रम कैसा है, यह नहीं जानते। महाबली पाण्डवों को युद्ध में जीतना असम्भव है, तथापि मैं अपने बल और पराक्रम के अनुसार तुम्हारा कार्य कर सकता हूँ।
संजय कहते हैं ;- राजन् आपके पुत्र से ऐसा कहकर द्रोणाचार्य पाण्डवों की सेना का सामना करने के लिये गये। वे सात्यकि के देखते-देखते पाण्डव सेना को विदीर्ण करने लगे। भारत! उस समय सात्यकि ने आगे बढ़कर द्रोणाचार्य को रोका। फिर तो उन दोनों में अत्यंत भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया। प्रतापी द्रोणाचार्य ने युद्ध में कुपित होकर सात्यकि के गले की हंसली में हँसते हुए से पैने बाणों द्वारा प्रहार किया। राजन्! तब भीमसेन ने कुपित होकर शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य से सात्यकि की रक्षा करते हुए आचार्य को अपने बाणों से बींध डाला।
आर्य! तदनन्तर द्रोणाचार्य, भीष्म तथा शल्य तीनों ने कुपित होकर भीमसेन को युद्धस्थल में अपने बाणों से ढक दिया। महाराज! तब वहाँ क्रोध में भरे हुए अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों ने आयुध लेकर खड़े हुए उन सब कौरव महारथियों को तीखे बाणों से घायल कर दिया। उस समय कुपित होकर आक्रमण करते हुए महाबली द्रोणाचार्य और भीष्म का उस महासमर में सामना करने के लिए महाधनुर्धर शिखण्डी आगे बढ़ा। उस वीर ने मेघ के समान गंभीर घोष करने वाले अपने धुनष को बलपूर्वक खींचकर बड़ी शीघ्रता के साथ इतने बाणों की वर्षा की कि सूर्य भी आच्छादित हो गये। भरतकुल के पितामह भीष्म ने शिखण्डी के सामने पहुँचकर उसके स्त्रीत्व का बार-बार स्मरण करते हुए युद्ध बंद कर दिया।
महाराज! यह देखकर द्रोणाचार्य ने युद्ध में आपके पुत्र के कहने से भीष्म की रक्षा के लिए शिखण्डी की ओर दौड़े। शिखण्डी प्रलयकाल की प्रचण्ड अग्नि के समान शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोण का सामना पड़ने पर भयभीत हो युद्ध छोड़कर चल दिया। प्रजानाथ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन महान् यश पाने की इच्छा रखता हुआ अपनी विशाल सेना के साथ भीष्म के पास पहुँचकर उनकी रक्षा करने लगा। राजन् इसी प्रकार पाण्डव भी विजय प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय करके अर्जुन को आगे कर भीष्म पर ही टूट पड़े। उस युद्ध में विजय तथा अत्यन्त अद्भुत यश की अभिलाषा रखने वाले पाण्डवों का कौरवों के साथ उसी प्रकार भयंकर युद्ध हुआ, जैसे देवताओं का दानवों के साथ हुआ था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में पाँचवें दिवस के युद्ध का आरम्भविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध”
संजय कहते हैं ;- महाराज! कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण करने के बाद दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। अब आपके पुत्रों को भीमसेन के भय से छुड़ाने की इच्छा रखकर उस दिन शान्तनुनन्दन भीष्म ने बड़ा भयंकर युद्ध किया। पूर्वान्ह काल में कौरव-पाण्डव नरेशों का महाभयंकर युद्ध आरम्भ हुआ, जो बड़े-बड़े शूरवीरों का विनाश करने वाला था। उस अत्यन्त भयानक घमासान युद्ध में बड़ा भयंकर कोलाहल होने लगा, जिससे अनन्त आकाश गूँज उठा। चिंग्घाड़ते हुए बड़े-बड़े गजराजों, हिनहिनाते हुए घोड़ों तथा भेरी और शंख की ध्वनियों से भयंकर कोलाहल छा गया। जैसे बड़े-बड़े साँड़ गौशालाओं में गरजते हुए एक दूसरे से भिड़ जाते हैं, उसी प्रकार पराक्रमी और महाबली सैनिक विजय के लिये युद्ध की इच्छा रखकर गरजते हुए एक दूसरे के सामने आये।
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! उस समरभूमि में तीखे बाणों से गिराये जाने वाले मस्तकों की वर्षा होने लगी, मानो आकाश से पत्थरों की वृष्टि हो रही है। भरतवंशी नरेश, कुण्डल और पगड़ी धारण करने वाले तथा स्वर्णमय मुकुट आदि से उद्भासित होने वाले अगणित मस्तक कटकर धरती पर पड़े दिखायी देते थे। सारी पृथ्वी बाणों से छिन्न-भिन्न हुई लाशों, धनुष तथा हस्ताभरणों सहित कटी हुई दोनों भुजाओं से पट गयी थी। भूपाल! दो ही घड़ी में वहाँ की सारी वसुधा कवच से ढके हुए शरीरों, आभूषणों से विभूषित हाथों, चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखों, जिनके अन्तभाग में कुछ-कुछ लाली थी, ऐसे सुन्दर नेत्रों तथा हाथी, घोड़े और मनुष्यों के सम्पूर्ण अंगों से बिछ गयी थी। धूल के भयंकर बादल छा रहे थे। उनमें अस्त्र-शस्त्र रूपी विद्युत के प्रकाश देखे जाते थे। धनुष आदि आयुधों का जो गम्भीर घोष होता था, वह मेघ-गर्जना के समान प्रतीत होता था।
भारत! कौरवों और पाण्डवों का वह भयानक युद्ध बड़ा ही कटु और रक्त को पानी की तरह बहाने वाला था। उस महान् भयदायक, घोर, रोमांचकारी एवं तुमुल संग्राम में रणदुर्मद क्षत्रिय बाणों की वर्षा करने लगे। भरतश्रेष्ठ! बाणों की वर्षा से पीड़ित हुए आपके और पाण्डवों के हाथी उस युद्ध में चिग्घाड़ मचा रहे थे। क्रोधावेश में भरे हुए अमित तेजस्वी धीर-वीरों के धनुषों की टंकार से वहाँ कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता थी। चारों ओर केवल कबन्ध (बिना सिर के शरीर) खड़े थे। रक्त का प्रवाह पानी के समान बह रहा था। शत्रुओं का वध करने के लिये उद्यत हुए नरेशगण समर भूमि में चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। परिघ के समान मोटी भुजाओं वाले अमित तेजस्वी शूरवीर योद्धा बाण, शक्ति और गदाओं द्वारा रणक्षेत्र में एक दूसरे को मार रहे थे। जिनके सवार मारे गये थे, वे अंकुशरहित गजराज बाणविद्ध होकर वहाँ इधर-उधर चक्कर काट रहे थे। सवारों के मारे जाने से घोड़े भी शराघात से पीड़ित हो चारों ओर दौड़ लगा रहे थे।
भरतश्रेष्ठ! आपके और शत्रुपक्ष के कितने ही योद्धा बाणों के गहरे आघात से अत्यन्त पीड़ा हो उछल कर गिर पड़ते थे। भारत! भीष्म और भीम के उस संग्राम में मरे हुए वाहनों, कटे हुए मस्तकों, धनुषों, गदाओं, परिघों, हाथों, जाँघों, पैरों, आभूषणों तथा बाजूबन्द आदि के ढेर-के-ढेर दिखायी दे रहे थे। प्रजानाथ! उस युद्धस्थल में जहाँ-तहाँ घोड़ों, हाथियों तथा युद्ध से पीछे न हटने वाले रथों के समूह दृष्टिगोचर हो रहे थे। क्षत्रियगण गदा, खड्ग, प्रास तथा झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा एक दूसरे को मार रहे थे, क्योंकि उन सबका काल आ गया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 23-29 का हिन्दी अनुवाद)
कितने ही मल्लयुद्ध में कुशल वीर उस युद्धस्थल में लोहे के परिघों के समान मोटी भुजाओं से परस्पर भिड़कर अनेक प्रकार के दाँव-पेच दिखाते हुए लड़ रहे थे। प्रजानाथ! आपके वीर सैनिक पाण्डवों के साथ युद्ध करते समय मुक्कों, घुटनों और तमाचों से एक दूसरे पर चोट करते थे।
जनेश्वर! कुछ लोग पृथ्वी पर गिरे हुए थे, कुछ गिराये जा रहे थे और कितने ही गिरकर छठपटा रहे थे। इस प्रकार यत्र-तत्र भयंकर युद्ध चल रहा था। कितने ही रथी रथहीन होकर हाथ में सुदृढ़ तलवार लिये एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से परस्पर टूटे पड़ते थे। उस समय बहुसंख्यक कलिंगों से घिरे हुए राजा दुर्योधन ने युद्ध में भीष्म को आगे करके पाण्डवों पर आक्रमण किया।
इसी प्रकार क्रोध में भरे हुए समस्त पाण्डवों ने भी भीमसेन को घेरकर भीष्म पर धावा किया। फिर दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध होने लगा
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में संकुलयुद्धविषयक सत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
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