सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्यु का पराक्रम और धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध”

    संजय कहते है ;- माननीय राजन! जब भीष्म और अर्जुन के मध्य द्वैरथ युद्ध हो रहा वहीं दूसरी ओर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, शल्य, चित्रसेन तथा शल के पुत्र ने सुभद्राकुमार अभिमन्यु को आगे बढ़ने से रोका। जैसे सिंह का बच्चा पांच हाथियों से भिड़ा हुआ हो, उसी प्रकार सुभद्राकुमार अभिमन्यु उन अत्यन्त तेजस्वी पांच पुरुषसिंहों से अकेला ही युद्ध कर रहा था। यह बात वहाँ सब लोगों ने प्रत्यक्ष देखी। लक्ष्य वेधने, शौर्य प्रकट करने, पराक्रम दिखाने, अस्त्रज्ञान प्रदर्शित करने तथा हाथों की फुर्ती में कोई भी अभिमन्यु की समानता न कर सका। अपने शत्रुसूदन पुत्र अभिमन्यु को युद्ध में इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक पराक्रम प्रकट करते देख कुन्तीपुत्र अर्जुन ने सिंह के समान गर्जना की।

     प्रजानाथ! राजेन्द्र, आपके पौत्र अभिमन्यु को कौरव सेना को पीड़ा देते देख आपके ही सैनिकों ने सब ओर से घेर लिया। अपने शत्रुओं को दीन बना देने वाले सुभद्राकुमार ने दैन्यरहित होकर अपने तेज और बल से कौरव सेना पर धावा किया। समरभूमि में शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए अभिमन्यु का विशाल धनुष अस्त्रलाघव के पथ पर स्थित हो सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। उसने अश्वत्थामा को एक और शल्य को पांच बाणों से घायल करके शल के ध्वज को आठ बाणों से काट दिया। फिर भूरिश्रवा की चलायी हुई स्वर्णदण्ड विभूषित सर्प सृदश महाशक्ति को तीखे बाण से छिन्न-भिन्न कर डाला। शल्य समरभूमि में बड़े वेगशाली बाणों का प्रहार कर रहे थे; किंतु अर्जुनपुत्र अभिमन्यु ने तीव्र वेग वाले भल्ल से उनके धनुष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और उनकी प्रगति को रोककर पार्थकुमार ने चारों घोड़ों को मार डाला। भूरिश्रवा, शल्य, अश्वत्थामा तथा सांयमनि (सोमदत्तपुत्र) शल- के सब लोग अत्यन्त क्रोध में भरे हुए थे, तथापि अभिमन्यु के बाहुबल की वृद्धि रोक न सके।

      राजेन्द्र! तब आपके पुत्र दुर्योधन से प्रेरित होकर त्रिगर्तों तथा केकयों सहित मद्र देश के पच्चीस हजार योद्धाओं ने शत्रुवध की इच्छा रखने वाले पुत्रसहित किरीटधारी अर्जुन को घेर लिया। वे सब-के-सब धनुर्वेद के प्रधानज्ञाता और युद्ध-स्थल में शत्रुओं के लिये अजेय थे। शत्रुदमन नरेश! पिता-पुत्र महारथी अर्जुन और अभिमन्यु को शत्रुओं द्वारा घिरे हुए देख पांचाल-राजकुमार सेनापति धृष्टद्युम्न कई हजार हाथियों और रथों तथा सैकड़ों हजारों घुड़सवारों एवं पैदलों से घिरकर अपनी विशालवाहिनी को आगे बढ़ाते तथा क्रोधपूर्वक धनुष की टंकार करते हुए मद्रों और केकयों की सेना पर चढ़ आये। सृदृढ़ धनुष धारण करने वाले यशस्वी धृष्टद्युम्न से सुरक्षित हुई वह सेना युद्ध के लिये उद्यत हो बड़ी शोभा पाने लगी, उसके रथी, हाथीसवार और घुड़सवार सभी रोषावेश में भरे हुए थे। पांचालवंश की वृद्धि करने वाले धृष्टद्युम्न ने अर्जुन के सामने जाते हुए कृपाचार्य को उनके गले की हँसली पर तीन बाण मारे। तत्‍पश्‍चात दस बाणों से मद्रदेशीय दस योद्धाओं को मार कर तुरंत ही एक भल्ल के द्वारा कृतवर्मा के पृष्ठरक्षक को मार डाला। इसके बाद शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्डव सेनापति ने निर्मल धार वाले नाराच से महामना पौरव के पुत्र दमन को भी मार डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद)

        तब शल के पुत्र ने तीस बाणों से रणदुर्भद धृष्टद्युम्न को और दस बाणों द्वारा उसके सारथि को घायल कर दिया। इस प्रकार अत्यन्त घायल होकर अपने मुँह के दोनों कोनों को चाटते हुए महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न ने अत्यन्त तीखे भल्ल शल के पुत्र का धनुष काट दिया। राजन! तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने शीघ्र ही पच्चीस बाणों से शलपुत्र को घायल कर दिया तथा उसके घोड़ों एवं दोनों पृष्ठरक्षकों को भी मृत्यु के मुख में डाल दिया। भरतश्रेष्ठ! जिसके घोड़े मार दिये गये थे, उसी रथ पर खड़े हुए शल के पुत्र ने महामना धृष्टद्युम्न के पुत्र को देखा। तब पुरुषश्रेष्ठ शलपुत्र तुरंत ही एक अत्यन्त भयंकर लोहे की बनी हुई बड़ी तलवार हाथ में लेकर पैदल ही रथ पर बैठे हुए पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न की ओर चला। उस युद्ध में पाण्‍डवों तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने मतवाले गजराज के समान पराक्रमी और सूर्य के समान दीप्तिमान शलपुत्र को आते देखा। वह महान वेगशाली जलप्रवाह, आकाश से गिरते हुए सर्प तथा काल की भेजी हुई मृत्यु के समान जान पड़ता था। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। वह विरोधभाव लेकर धावा कर रहा था। उसके हाथ में तीखी तलवार थी। उसने अपने अंगों में कवच धारण कर रखा था। वह बाण के वेग को लांघकर अत्यन्त निकट आ पहुँचा। उस दशा में पांचाल राजकुमार सेनापति धृष्टद्युम्न ने तुरन्त क्रोधपूर्वक गदा से आघात करके उसके मस्तक को विदीर्ण कर दिया।

       राजन! उसके मारे जाने पर शरीर से चमकीला कवच और हाथ से तलवार उसके गिरने के साथ ही वेगपूर्वक पृथ्वी पर गिरी। पांचालराज का भयानक पराक्रमी पुत्र महामना धृष्टद्युम्न गदा के अग्रभाग से शलपुत्र को मारकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। आर्य! उस महाधनुर्धर महारथी राजकुमार के मारे जाने पर आपकी सेना में महान हाहाकार मच गया। अपने पुत्रों को मारा गया देख संयमनकुमार शल ने कुपित होकर रणदुर्भद पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न पर बड़े वेग से धावा किया। युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले वे दोनों शूरवीर उस समरभूमि में एक दूसरे से भिड़ गये। कौरव और पाण्डव दोनों दक्षों के समस्त भूपाल उनका युद्ध देखने लगे। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले शल ने जैसे महावत किसी महान गजराज को अंकुशों से मारे, उसी प्रकार द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न को क्रोधपूर्वक तीन बाणों से घायल कर दिया। इसी प्रकार संग्राम शोभा पाने वाले शल्य ने भी क्रुद्ध होकर शूरवीर धृष्टद्युम्न की छाती पर प्रहार किया। फिर तो वहाँ भयंकर युद्ध छिड़ गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्मवधपर्व में चौथे दिन के युद्ध में शल-पुत्र के वध से सम्बन्ध रखने वाला इकसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध तथा भीमसेन के द्वारा गजसेना का संहार”

    धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मैं पुरुषार्थ की अपेक्षा भी दैव को प्रधान मानता हूं, जिससे मेरे पुत्र दुर्योधन की सेना पाण्‍डवों की सेना से पीड़ित हो रही है। तात! तुम प्रतिदिन मेरे ही सैनिक के मारे जाने की बात कहते हो और पाण्‍डवों को सदा व्यग्रता से रहित तथा हर्षोल्लास से परिपूर्ण बताते हो। संजय! आजकल मेरे पुत्र और सैनिक पुरुषार्थ से हीन हो रहे हैं और शत्रुओं ने उन्‍हें धराशायी किया और मार डाला है। प्रतिदिन वे शत्रुओं के हाथ से मारे ही जा रहे हैं। उनके सम्बन्ध में तुम सदा ऐसे ही समाचार देते हो। मेरे बेटे विजय के लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हों और लड़ते हों, तो भी पाण्डव ही विजयी होते और मेरे पुत्रों की ही पराजय होती है। तात! ऐसा जान पड़ता है कि मुझे दुर्योधन के कारण सदा अत्यन्त दुःसह एवं तीव्र दुख की बहुत-सी बातें सुननी पड़ेगी। संजय! मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता, जिससे पाण्डव हार जाय और मेरे पुत्रों को युद्ध में विजय प्राप्त हो।

      धृतराष्ट्र के इस प्रकार विलाप करने पर संजय ने कहा- राजन! उस युद्ध में मानव शरीरों का भारी संहार हुआ है। हाथी, घोडे़ और रथों का भी विनाश देखा गया है। वह सब आप स्थिर होकर सुनिये। यह आपके ही महान अन्याय का फल है। शल्य के बाणों से पीड़ित धृष्टद्युम्न अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्‍होंने लोहे के बने हुए नौ बाणों से मद्रराज शल्य को गहरी पीड़ा पहुँचायी। वहाँ हम लोगों ने धृष्टद्युम्न का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि उन्‍होंने संग्राम भूमि में शोभा पाने वाले राजा शल्य को तुरन्त ही आगे बढ़ने से रोक दिया। उस समय उन दोनों महारथियों में पराक्रम की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था। दो घड़ी तक दोनों में समान-सा युद्ध होता रहा। महाराज! तदनन्तर राजा शल्य ने युद्ध स्थल में शाण पर तीक्ष्ण किये हुए पीले रंग के भल्ल नामक बाण से धृष्टद्युम्न का धनुष काट दिया। इसके बाद जैसे बादल बरसात में पर्वत जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार उन्‍होंने धृष्टद्युम्न पर रणभूमि में बाणों की वर्षा करके उन्‍हें सब ओर से ढक दिया।

       तदनन्तर धृष्टद्युम्न के पीड़ित होने पर क्रोध से भरे हुए अभिमन्यु ने मद्रराज शल्य के रथ पर बड़े वेग से आक्रमण किया। मद्रराज के रथ के निकट पहुँचकर अत्यन्त क्रोध से भरे हुए अनन्त आत्मबल से सम्पन्न अर्जुनकुमार ने अपने पैने बाणों द्वारा ऋतायनपुत्र राजा शल्य को घायल कर दिया। राजन! तब आपके पुत्र रणभूमि में अभिमन्यु को बन्दी बनाने की इच्छा से तुरन्त वहाँ आये और मद्रराज शल्य के रथ को चारों ओर से घेरकर युद्ध के लिये खड़े हो गये। भारत! आपका भला हो। दुर्योधन, विर्कण, दुःशासन, विविंशति, दुर्मर्षण, दुःसह, चित्रसेन, दुर्मुख, सत्यव्रत तथा पुरूमित्र- ये आपके पुत्र मद्रराज के रथ की रक्षा करते हुए युद्धभुमि में डटे हुए थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

     आपके इन दस महारथी पुत्रों को क्रोध में भरे हुए भीमसेन, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव, पांचों भाई द्रौपदीकुमार और अभिमन्यु- इन दस ही महारथियों ने रोका। प्रजानाथ! ये सब लोग नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार कर रहे थे। राजन! ये सब एक-दूसरे के वध की इच्छा रखकर हर्ष और उत्साह के साथ क्षत्रियों का सामना करते थे। आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप ही इन सब योद्धाओं की आपस में भिड़न्त हुई थी। जिस समय ये दसों महारथी क्रोध में भरकर अत्यन्त भयंकर युद्ध में लगे हुए थे, उस समय आपकी और पाण्‍डवों की सेना के दूसरे रथी दर्शक होकर देखते थे। किंतु आपके और पाण्‍डवों के वे महारथी वीर एक-दूसरे पर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए गर्जते और युद्ध करते थे। उस समय उन सब में क्रोध भरा हुआ था। सभी एक दूसरे के वध की इच्छा रखते थे। सब में परस्पर लाग-डांट थी और सभी सबको कुचलने की चेष्टा करते थे।

       महाराज! वे सब आपस में कुटुम्बी-भाई-बन्धु थे, परन्तु परस्पर स्पर्धा रखने के कारण लड़ रहे थे। एक-दूसरे के प्रति अमर्ष में भरकर बड़े-बड़े अस्त्रों को प्रहार करते हुए आक्रमण प्रत्याक्रमण करते थे। दुर्योधन ने कुपित होकर उस महासंग्राम में अपने चार तीखे बाणों द्वारा तुरन्त ही धृष्टद्युम्न को बींध दिया। दुर्मर्षण ने बीस, चित्रसेन ने पांच, दुर्मुख ने नौ, दुःसह ने सात, विविंशति ने पांच तथा दुःशासन ने तीन बाणों से उन सबको बींध डाला। राजेन्द्र, तब शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए दुर्योधन आदि में से प्रत्येक को पच्चीस-पच्चीस बाणों से घायल कर दिया। भारत! अभिमन्यु ने समरभूमि में सत्यव्रत और पुरूमित्र को दस-दस बाणों से पीड़ित किया। माता को आनंदित करने वाले माद्रीकुमार नकुल और सहदेव ने अपने मामा शल्य को पैने बाणों से घायल कर दिया। यह अद्भुत-सी बात हुई थी। महाराज! तदनन्तर शल्य ने किये हुए प्रहार का बदला चुकाने की इच्छा रखने वाले रथियों में श्रेष्ठ अपने दोनों भानजों को अनेक बाणों से पीड़ित किया। उनके बाणों से आच्छादित होने पर भी नकुल-सहदेव विचलित नहीं हुए।

      तदनन्तर महाबली पाण्डुपुत्र भीमसेन ने दुर्योधन को देखकर झगडे़ का अंत कर डालने की इच्छा से गदा उठायी थी। गदा उठाये हुए महाबाहु भीमसेन शिखर से युक्त कैलास पर्वत के समान उपस्थित देख आपके सभी पुत्र भय के मारे भाग गये। तब दुर्योधन ने कुपित होकर मगधदेशीय दस हजार हाथियों की वेगशाली सेना को युद्ध के लिये प्रेरित किया। उस गजसेना के साथ मागध को आगे करके दुर्योधन ने भीमसेन पर आक्रमण किया। उस गजसेना को आते देख भीमसेन हाथ में गदा लेकर सिंह के समान गर्जना करते हुए रथ से उतर पड़े। लोहे की उस विशाल एवं भारी गदा को लेकर वे मुंह बाये हुए काल के समान उस गज सेना की ओर दौड़े। बलवान महाबाहु भीमसेन वज्रधारी इन्द्र के समान गदा से हाथियों का संहार करते हुए समरांगण में विचरने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद)

      मन और हृदय को कँपा देने वाली गर्जते हुए भीमसेन की उस भीषण गर्जना से सब हाथी एकत्र हो भय के मारे निश्चेष्ट एवं अचेत-से हो गये। तत्पश्चात् द्रौपदी के पांचों पुत्र, महारथी अभिमन्यु, नकुल-सहदेव तथा द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न- यह सब लोग भीमसेन के पृष्ट भाग की रक्षा करते हुए हाथियों पर उसी प्रकार दौड़-दौड़ कर बाण वर्षा करने लगे, जैसे बादल पर्वतों पर पानी की बूंदे बरसाते हैं। पाण्डव रथी क्षुर, क्षुरप्र, पीले रंग के भल्ल तथा तीखे अंजलिक नामक बाणों द्वारा तथा तीखे बाणों द्वारा हाथी सवार योद्धाओं के मस्तक काट-काटकर गिराने लगे। उनके शिरों, बाजुबन्दविभूषित भुजाओं और अंकुशों सहित हाथों के गिरने से ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश से ओले और पत्थरों की वर्षा हो रही हो। मस्तक कट जाने पर भी हाथियों की पीठ पर टिके हुए गजारोही योद्धाओं के धड़ पर्वत के शिखरों पर स्थित हुए शिखाहीन वृक्षों के समान दष्टिगोचर हो रहे थे। हम लोगों ने धृष्टद्युम्न के द्वारा मारे गये बहुत-से हाथियों को देखा, महामना द्रुपदकुमार की मार खाकर बहुत-से हाथी गिरे और गिराये जा रहे थे।

      इसी समय मगधदेशीय भूपाल ने युद्धस्थल में अभिमन्यु के रथ की ओर ऐरावत के समान एक विशाल हाथी को प्रेरित किया। मगधनरेश के उस विशाल गज को आते देख शूरवीरों का नाश करने वाले वीर सुभद्राकुमार ने उसे एक ही बाण में मार डाला। फिर शत्रु-नगरी पर विजय पाने वाले अर्जुनपुत्र अभिमन्यु ने मरने पर भी हाथों को न छोड़ने वाले मगधराज का मस्तक रजतमय पंख वाले भल्ल के द्वारा काट गिराया। उधर पाण्डुनन्दन भीमसेन ने भी गजसेना में घुसकर पर्वतों को विदीर्ण करने वाले देवेन्द्र के समान हाथियों को रौंदते हुए समरांगण में विचरने लगे। महाराज! उस युद्धस्थल में हमने वज्र मारे हुए पर्वतों की भाँति भीमसेन ने एक ही प्रहार से दन्तार हाथियों को भी मरते देखा था। किन्ही के दांत टूट गये, किन्ही की सूंड कट गयी, कितनो की जांघें टूट गयी, किन्हीं की पीठ टूट गयी और कितने ही पर्वतों के समान विशालकाय गजराज मारे गये, कुछ चिंग्घाड़ रहे थे, कुछ कष्ट में कराह रहे थे, कुछ युद्धभूमि से विमुख होकर भागने लगे थे और कुछ भय से व्याकुल होकर मल-मूत्र कह रहे थे। इन सबको मैंने अपनी आंखों से देखा था।

     भीमसेन के मार्गों में उनके द्वारा मारे गये पर्वतोपम हाथी पड़े दिखायी दिये। राजन! अन्य बहुत-से हाथियों को मैंने मुंह से फेन फेंकते देखा था। कितने ही विशालकाय हाथी खून उगल रहे थे और उनके कुम्भस्थल फट गये थे। बहुत-से व्याकुल होकर इस भूतल पर पर्वतों के समान पड़े थे। भीमसेन का सारा शरीर मेदा तथा रक्त से लिप्त हो रहा था। वे वसा और मज्जा से नहा गये थे और हाथ में गदा लिये दण्डपाणि यमराज के समान उस युद्धभूमि में विचर रहे थे। हाथियों के खून से भीगी हुई गदा धारण किये भीमसेन पिनाकधारी भगवान रुद्र के समान घोर एवं भयंकर दिखायी देते थे। क्रोध में भरे हुए भीमसेन हाथियों को मथे डालते थे। अतः वे उनके द्वारा अत्यन्त क्लेश पाकर आपकी सेना को कुचलते हुए सहसा युद्धस्थल से भाग चले।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 58-65 का हिन्दी अनुवाद)

      जैसे देवता वज्रधारी इन्द्र की रक्षा करते है, उसी प्रकार सुभद्राकुमार आदि पाण्डव योद्धा युद्ध में तत्पर हुए महा-धनुर्धर वीर भीमसेन की सब और से रक्षा करते थे। खून में सनी तथा हाथियों के रक्त से भीगी हुई गदा लिये रौद्ररूपधारी भीमसेन यमराज के समान दिखायी देते थे।

     भारत! भीमसेन गदा लेकर सम्पूर्ण दिशाओं में व्यायाम सा कर रहे थे। समरभूमि में भीम को हम लोगों ने ताण्डव-नृत्य करते हुए भगवान् शंकर के समान देखा। महाराज! भीमसेन की भारी और भयंकर गदा सबका संहार करने वाली है।

     हमे तो वह यमदण्ड के समान दिखायी देती थी। प्रहार करने पर उससे इन्द्र वज्र की गड़गड़ाहट के समान आवाज होती थी। रक्त से भीगी तथा केश और भज्जा से मिली हुई हमने प्रलयकाल में क्रोध से भरकर समस्त पशुओं (जीवों) का संहार करने वाले रुद्रदेव के पिनाक के समान समझा था। जैसे चरवाहा पशुओं के झुंड को डंडे से हांकता है, उसी प्रकार भीमसेन हाथियों के समूहों को अपनी गदा से हांक रहे थे।

     महाराज! चारों और से गदा और बाणों की मार पड़ने पर आपकी सेना के समस्त हाथी अपने सैनिकों को कुचलते हुए भाग रहे थे। जैसे आंधी बादलों को छिन्न-भिन्न करके उड़ा देती है, उसी प्रकार भीमसेन उस भयंकर युद्ध में हथियारों की सेना को नष्ट करके श्मशानभूमि में त्रिशूलधारी भगवान् शंकर के समान खड़े थे।

(इस प्रकार महाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व के चौथे दिन भीमसेन का युद्धविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“युद्धस्थल प्रचण्ड पराक्रमकारी भीमसेन का भीष्म के साथ युद्ध तथा सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! हाथियों की उस सेना के मारे जाने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने समस्त सैनिकों की आज्ञा दी कि सब मिलकर भीमसेन को मार डालो। तदनन्तर आपके पुत्र की आज्ञा से समस्त सेनाएं भैरव गर्जना करती हुई भीमसेन पर टूट पड़ीं। सेना का वह अनन्त वेग देवताओं के लिये भी दुःसह था। पूर्णिमा को बढ़े हुए समुद्र के समान अपार जान पड़ता था। वह सैन्य-समुद्र रथ, हाथी और घोड़ों से भरा हुआ था। शंख और दुन्दुभियों को ध्वनि से कोलाहलपूर्ण हो रहा था। उनमें रथ और पैदलों की संख्या नहीं बतायी जा सकती थी तथा उस सेना में सब ओर धूल व्याप्त हो रही थी। दूसरे महासागर के समान उस अक्षोभ्य सैन्य-समुद्र को युद्ध में भीमसेन ने तटप्रदेश की भाँति रोक दिया।

      राजन! उस समय संग्राम-भूमि में हम लोगों ने महामना पाण्डुनन्दन भीमसेन का अत्यन्त आश्चर्यमय अतिमानुष कर्म देखा था। घोड़े, हाथी तथा रथरहित जितने भी भूपाल वहाँ आगे बढ़ रहे थे, उन सबको केवल गदा की सहायता से भीमसेन ने बिना किसी घबराहट के रोक दिया। रथियों में श्रेष्ठ भीमसेन उस सारे सैन्य समूह को गदा द्वारा रोककर उस भयंकर युद्ध में मेरु पर्वत के समान अविचल भाव से खडे़ थे। उस महान भयंकर तथा अत्यन्त दारुण भय के समय महाबली भीमसेन को उनके भाई, पुत्र, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पांचों पुत्र, अभिमन्यु और अपराजित वीर शिखण्डी- ये कोई भी छोड़कर नहीं गये।

      तत्पश्चात पूर्णतः फौलाद की बनी हुई विशाल एवं भारी गदा हाथ में लेकर भीमसेन दण्डपाणि यमराज की भाँति आपके सैनिकों पर टूट पड़े। फिर वे प्रभावशाली बलवान पाण्डुनन्दन रथियों और घोड़ों समूह को नष्ट करके अपनी भुजाओं के वेग से रथों के समुदाय को खींचते और नष्ट करते हुए प्रलयकाल के यमराज की भाँति संग्रामभूमि में विचरने लगे। पाण्डुनन्दन भीम अपने महान वेग से रथसमूहों को खींचकर नष्ट कर देते और शीघ्र ही सारी सेना को उसी प्रकार रौंद डालते थे, जैसे हाथी नरकुल पौधों को। महाबाहु भीमसेन रथों से रथियों को, हाथियों से हाथी सवारों को, घोड़ों की पीठों के घुड़सवारों को और पृथ्वी पर पैदलों को मसलते हुए गदा से आपके पुत्र की सेना के सब लोगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते थे, जैसे हवा अपने वेग से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है। हाथियों और घोड़ों को मार गिराने वाली उनकी वह गदा भी मज्जा, वसा, मांस तथा रक्त में सनकर बड़ी भयानक दिखायी देती थी। जहां-जहाँ मरकर गिरे हुए मनुष्य, हाथी और घोड़ों से वह सारी रणभूमि मृत्यु के निवास स्थान-सी होती थी। भीमसेन की उस संहारकारिणी भयंकर गदा को लोगों ने प्रलयकाल में पशुओं (जीवों) का संहार करने वाले रुद्र के पिनाक और यमदण्ड के समान भयंकर देखा। उसकी आवाज इन्द्र के वज्र के समान थी। अपनी गदा को घुमाते हुए महामना कुन्तीकुमार भीमसेन का रूप युगान्त-काल के यमराज के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)

     उस विशाल सेना को बारंबार भगाने वाले भीमसेन को मौत के समान सामने आते देख समस्त योद्धाओं का मन उदास हो गया था। भारत! भीमसेन गदा उठाकर जिस-जिस ओर देखते थे, उधर-उधर से सारी सेनाओं में दरार पड़ जाती थी। अपने बल से सेना को विदीर्ण करने वाले भीमसेन सम्पूर्ण सैनिकों को अपना ग्रास बनाने के लिये मुंह बाये हुए काल के समान जान पड़ते थे।

    उस समय बड़ी भारी गदा उठाये हुए भयंकर पराक्रमी भीमसेन को देखकर भीष्म जी सहसा वहाँ पहुँचे। वे सूर्य समान तेजस्वी तथा पहियों के गम्भीर घोष से युक्त विशाल रथ पर आरूढ़ हो बरसते हुए मेघ के समान बाणों की वर्षा से सबको आच्छादित करते हुए वहाँ आये थे। मुंह फैलाये हुए यमराज के समान भीष्म जी को आते देख महाबाहु भीमसेन अमर्ष में भरकर उनका सामना करने के लिये आगे बढ़े।

     उसी समय शिनिवंश के प्रमुख वीर सत्यप्रतिज्ञ सात्यकि अपने सुदृढ़ धनुष से शत्रुओं का संहार करते और आपके पुत्र की सेना को कँपाते हुए पितामह भीष्म पर चढ़ आये। भारत! चांदी के सामन श्वेत घोड़ों द्वारा जाते और सुन्दर पंखयुक्त तीखे बाणों की वर्षा करते हुए सात्यकि को उस समय आपके समस्त सैनिकगण रोक न सके। केवल अलम्बुष नामक राक्षस ने उस समय उन्‍हें दस बाणों से घायल किया। तब शिनि के पौत्र ने भी उस राक्षस को चार बाणों से बींधकर बदला चुकाया और रथ के द्वारा भीष्म पर धावा किया।

     वृष्णि वंश के श्रेष्ठ पुरुष सात्यकि आकर शत्रुओं के बीच में विचर रहे हैं और युद्धस्थल में कौरव सेना के मुख्य-मुख्य वीरों को भगाते हुए बारंबार गर्जना कर रहे हैं; यह सुनकर आपके योद्धा उन पर उसी प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, जैसे मेघ पर्वत पर जल की धाराएं गिराते है, इतने पर भी वे दोपहर के तपते हुए सूर्य की भाँति उन्‍हें रोक न सके। राजन! उस समय वहाँ सोमदत्त-पुत्र भूरिश्रवा को छोड़कर दूसरा कोई योद्धा नहीं था, जो विषादग्रस्त न हुआ हो। भारत! सोमदत्तकुमार महामना भूरिश्रवा ने अपने रथियों को विवश होकर भागते देख धनुष ले युद्ध करने की इच्छा से सात्यकि पर चढ़ाई की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व अन्‍तर्गत भीष्मवधपर्व में सात्यकि भूरिश्रवा-समागमविषयक तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम, कौरवों की पराजय और चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति”

    संजय कहते हैं ;- राजन्! सात्यकि और भूरिश्रवा के बीच घमासान युद्ध हो रहा था, तब भूरिश्रवा ने अत्यन्त क्रुद होकर सात्यकि को नौ बाणों से उसी प्रकार बींध डाला, जैसे महान् गजराज को अंकुशाओं द्वारा पीड़ित किया जाता है। तब अमेय आत्मबल सम्पन्न सात्यकि ने भी झुकी हुई गांठ वाले बाणों से सब लोगों के देखते देखते कुरुवंशी भूरिश्रवा को रोक दिया। यह देख भाईयों सहित राजा दुर्योधन ने युद्ध के लिये उघत होकर भूरिश्रवा को चारों और से घेरकर उनकी रक्षा में तत्पर हो गये। उधर महान् तेजस्वी समस्त पाण्डव भी युद्ध में वेगपूर्वक आगे बढ़ने वाले सात्यकि को सब और से घेरकर समरभूमि में डट गये।

     भारत! क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने गदा उठाकर आपके दुर्योधन आदि सब पुत्र को अकेले ही रोक दिया। तब क्रोध और असमर्ष में भरे हुए आपके पुत्र नन्दक ने कई हजार रथियों के साथ आकर विशाल शिला पर तेज किये हुए कंकपत्रयुक्त छः बाणों से महाबली भीमसेन को बींध डाला। कुपित हुए दुर्योधन ने भी महारथी भीमसेन को उस युद्ध में उनकी छाती को लक्ष्य करके नौ तीखे बाण मारे। तब महाबली महाबाहु भीमसेन अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो गये और सारथि विशोक से इस प्रकार बोले-

   भीमसेन बोले ;- ‘ये महारथी शूरवीर धृतराष्ट्रपुत्र अत्यन्त कुपित हो युद्ध में मुझे ही मारने के लिये उद्यत हो यहाँ आये हैं। सूत! मेरे मन में बहुत वर्षों से जिसका चिन्तन हो रहा था, वह मनोरथरूपी वृक्ष आज सफल होना चाहता है; क्योंकि इस समय यहाँ मैं दुर्योधन के भाईयों को एकत्रित देख रहा हूँ। विशोक! जहाँ रथ के पहियों से ऊपर उड़ी हुई धूल बाणसमूहों के साथ अंतरिक्ष और दिगन्त में फेल रही है, वही स्वयं राजा दुर्योधन कवच आदि से सुसज्जित होकर युद्ध के लिये खड़ा है। उसके कुलीन और मदोन्मत्त भाई भी वही कवच बांध कर खडे़ हैं। आज तुम्हारे देखते देखते मैं इन सब का विनाश करूंगा, इसमें संशय नहीं है। अतः सारथे! तुम सावधान होकर संग्राम में मेरे घोड़ों को काबू में रखो।'

      राजन्! ऐसा कहकर कुन्तीकुमार भीम ने स्वर्णभूषित दस तीखे बाणों द्वारा आपके पुत्र दुर्योधन को बींध डाला और नन्द की छाती में भी तीन बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। यह देख दुर्योधन साठ बाणों से महाबली भीमसेन को घायल करके अन्य तीन पैने बाणों से सारथि विशोक को भी घायल कर दिया। राजन्! इसके बाद दुर्योधन ने युद्धस्थल में तीन तीखे भल्लों द्वारा हँसते हुए-से भीम के तेजस्वी धनुष को भी बीच से काट दिया। आपके धनुर्धर पुत्र द्वारा समरांगण में अपने सारथि विशोक को तीखे बाणों के आघात से पीड़ित होता देख भीमसेन सह न सके। उन्‍होंने कुपित होकर अपना दिव्य धनुष हाथ मे लिया। महाराज! भरतश्रेष्ठ! फिर आपके पुत्र के वध के लिये अत्यन्त कुपित होकर उन्‍होंने पंखयुक्त क्षुरप्र का संधान किया और उसके द्वारा राजा दुर्योधन के उत्तम धनुष को काट डाला। राजन्! धनुष कटने पर आपका पुत्र क्रोध से मूर्च्छित हो उठा। उसने उस कटे हुए धनुष को फेंककर तुरन्त ही उससे अधिक वेगशाली दूसरा धनुष ले लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 22-44 का हिन्दी अनुवाद)

       फिर उसके ऊपर काल और मृत्यु के समान तेजस्वी भयंकर बाण रखा और कुपित हो उसके द्वारा भीमसेन की छाती में गहरा आघात किया। उस बाण से अत्यन्त घायल हो भीमसेन ने व्यर्था के मारे रथ की बैठक में बैठ गये। वहाँ बैठते ही उन्‍हें मूर्छा आ गयी। भीमसेन को प्रहार से पीड़ित हुआ देख अभिमन्यु आदि महाधनुर्धर पाण्डव महारथी यह सहन न कर सके। फिर तो सब लोगों ने आपके पुत्र के मस्तक पर निर्भर होकर तेजस्वी शस्त्रों की भयंकर वर्षा आरम्भ कर दी। तत्पश्चात् होश में आने पर महाबली भीमसेन ने दुर्योधन को पहले तीन बाणों से बींधकर फिर पांच बाणों से घायल कर दिया। फिर महाधनुर्धर पाण्डुपुत्र भीम ने सुवर्णमय पंख से युक्त पचीस बाणों द्वारा राजा शल्य को बींध दिया। उन बाणों से घायल होकर वे रणभूमि से भाग गये।

      राजन्! तब आपके चौदह पुत्रों ने भीमसेन पर धावा किया। उनके नाम ये है- सेनापति सुषेण, जलसंघ, सुलोचन, उग्र, भीमरथ, भीम, वीरबाहु, अलोलुप, दुर्मुख, दुष्प्रधर्ष, विवित्सु विकट और सम- ये सब क्रोध से लाल आंखें करके बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए भीमसेन पर टूट पड़े और एक साथ होकर उन्‍हें अत्यन्त घायल करने लगे। महाबली महाबाहु वीर भीमसेन आपके पुत्रों को देखकर पशुओं के बीच में खडे़ हुए भेड़िये के समान अपने मुंह के दोनों कोनों को चाटते हुए गरुड़ के समान बड़े वेग से उनके सामने गये। वहाँ पहुँचकर पाण्डुकुमार ने क्षुरप्र नामक बाण से सेनापति का सिर काट दिया।

      तत्पश्चात् प्रसन्नचित्त हो उन महाबाहु ने हँसते-हंसते जलसंघ को तीन बाणों से विदीर्ण करके यमलोक पहुँचा दिया। तदनन्तर सुषेण को मारकर मौत के घर भेज दिया और उग्र के कुण्डलमण्डित चन्द्रोपम मस्तक को एक भल्ल के द्वारा शिरस्त्राणसहित काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इसके बाद पाण्डुनन्दन वीरवर भीमसेन समरभूमि में घोडे़, ध्वज और सारथि सहित वीरवाहु को सत्तर बाणों से मारकर परलोक पहुँचा दिया। राजन्! तत्पश्चात् भीमसेन हंसते हुए से आपके दो पुत्र भीम और भीमरथ को भी, जो युद्ध में उन्मत होकर लड़ने वाले थे, यमलोक भेज दिया। इसके बाद उस महासमर में भीमसेन ने सम्पूर्ण सेनाओं के देखते-देखते क्षुरप्र से मारकर सुलोचन को भी यमलोक का अतिथि बना दिया। राजन्! आपके जो अन्य शेष पुत्र वहाँ मौजूद थे, वे भीमसेन का पराक्रम देखकर उनके भय से पीड़ित हो उन महात्मा पाण्डुकुमार के बाण की मार खाते हुए सम्पूर्ण दिशा में भाग गये।

        तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म ने महारथियों से कहा- ये भयंकर धनुर्धर भीमसेन युद्ध में क्रुद्व होकर सामने आये हुए श्रेष्ठ, ज्येष्ठ एवं शूर महारथी धृतराष्ट्रपुत्रों को मार गिराते हैं। अतः तुम सब लोग मिलकर उन्‍हें शीघ्र काबू में करो। उनके ऐसा कहने पर दुर्योधन के सभी सैनिक कुपित हो महाबली भीमसेन की और दौड़े। प्रजानाथ! राजा भगदत्त गजराज पर आरूढ़ हो सहसा उस स्थान आ पहुँचे, जहाँ भीमसेन खडे़ थे। युद्ध में आते ही उन्‍होंने अपने बाणों से भीमसेन को अदृश्य कर दिया, मानो सूर्य बादलों में ढक गया हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 45-64 का हिन्दी अनुवाद)

       उस समय अभिमन्यु आदि महारथी भीम का इस प्रकार बाणों से आच्छादित हो जाना सहन न कर सके। वे अपने बाहुबल का आश्रय ले युद्ध में भगदत्त पर सब और से बाणों की वर्षा करते हुए उन्‍हें रोकने लगे। उन्‍होंने अपने बाणों की वृष्टि से भगदत्त के हाथी को भी सब और से छेद डाला। राजन्! जो नाना प्रकार के चिह्न धारण करने वाले और अत्यन्त तेजस्वी थे, उन समस्त महारथियों द्वारा की हुई अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा से बहुत ही घायल होकर प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त का वह हाथी मस्तक पर रक्त से रंजित हो रणक्षेत्र में देखने ही योग्य हो रहा था, मानो सूर्य की अरुण किरणों से व्याप्त रँगा महामेघ हो। भगदत्त से प्रेरित होकर काल के भेजे हुए यमराज की भाँति वह मदस्त्रावी गजराज दूने वेग का आश्रय ले अपने पैरों की धमक से इस पृथ्वी को कँपाता उन सब की और दौड़ा। उसके उस विशाल रूप को देखकर सब महारथी अपने लिये असहार मानते हुए हतोत्साह हो गये। महाराज! तत्पश्चात् राजा भगदत्त ने कुपित होकर झुकी हुई गांठ वाले बाण से भीमसेन की छाती पर गहरी चोट पहुँचायी। राजा भगदत्त से इस प्रकार अत्यन्त घायल किये गये महाधनुर्धर महारथी भीमसेन ने मूर्छा से व्याप्त हो ध्वज का डंडा थाम लिया। उन सब महारथियों को भयभीत और भीमसेन को मूर्च्छित हुआ देख प्रतापी भगदत्त ने बड़े जोर से सिंहनाद किया।

     राजन्! तदनन्तर भीम को वैसी अवस्था में देखकर भयंकर राक्षस घटोत्कच अत्यन्त कुपित हो वही अदृश्य हो गया। फिर उसने कायरों का भय बढ़ाने वाली अत्यन्त दारुण माया प्रकट की। वह आधे निषेध में ही भयंकर रूप धारण करके दृष्टिगोचर हुआ। घटोत्कच अपनी ही माया द्वारा निर्मित कैलास पर्वत के समान श्वेत वर्ण वाले ऐरावत हाथी पर बैठकर वज्रधारी इन्द्र के समान वहाँ आया था। उनके पीछे अंजन, वामन और उत्तम कांति से युक्त महापध- ये तीन दिग्गज और थे, जिन पर उनके साथी राक्षस सवार थे। राजन् वे सभी विशालकाय दिग्गज तीन स्थानों से बहुत मद बहा रहे थे और तेज, वीर्य एवं बल से महाबली और महापराक्रमी थे। शत्रुओं को संताप देने वाले घटोत्कच ने अपने हाथी को गजारूढ़ राजा भगदत्त की और बढ़ाया। वह उन्‍हें हाथी सहित मार डालना चाहता था। महाबली राक्षसों द्वारा प्रेरित अन्यान्य दिग्गज भी जिनके चार चार दांत थे, अत्यन्त कुपित हो चारों दिशाओं में टूट पड़े। वे सब-के-सब भगदत्त के हाथी को अपने दांतों से पीड़ा देने लगे। वह बाणों से बहुत घायल हो चुका था; अतः इन हाथियों द्वारा पीड़ित होने पर वेदना से व्याकुल हो बड़े जोर-जोर से चीत्कार करने लगा। उसकी आवाज इन्द्र के वज्र के गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। भयंकर आवाज के साथ अत्यन्त घोर शब्द करने वाले हाथी ने उस चीत्कार को सुनकर भीष्म ने द्रोणाचार्य तथा राजा दुर्योधन से कहा,

     भीष्म बोले ;- 'ये महाधनुर्धर राजा भगदत्त युद्ध में दुरात्मा घटोत्कच के साथ जूझ रहे है और संकट में पड़ गये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 65-86 का हिन्दी अनुवाद)

       'देखो, हर्ष में भरे हुए पाण्डवों का महान सिंहनाद सुनायी पड़ता है और भगदत्त के डरे हुए हाथी के रोने की ध्वनि भी बड़े जोर-जोर से कानों मे आ रही है। तुम सब लोगों का कल्याण हो। हम राजा भगदत्त की रक्षा करने के लिये वहाँ चले; अन्यथा अरक्षित होने पर वे समर-भूमि में शीघ्र ही प्राण त्याग देंगे। महापराक्रमी वीरो! जल्दी करो। विलम्ब से क्या लाभ? हमें जल्दी चलना चाहिये; क्योंकि वह संग्राम अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी है। राजा भगदत्त कुलीन, शूरवीर, हमारे भक्त और सेनापति है। अतः अच्युत! हमें उनकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये।'

       भीष्म का यह वचन सुनकर सभी महारथी द्रोणाचार्य और भीष्म को आगे करके भगदत्त की रक्षा के लिये बड़े वेग से उस स्थान पर गये, जहाँ भगदत्त थे। उन्‍हें जाते देख युधिष्ठिर आदि पाण्‍डवों तथा पांचालों ने भी शत्रुओं का पीछा किया। उन सेनाओं को आते देख प्रतापी राक्षसराज घटोत्कच ने बड़े जोर से सिंहनाद किया, मानो वज्र फट पड़ा हो। घटोत्कच की वह गर्जना सुनकर तथा जूझते हुए हाथियों को देखकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने पुनः द्रोणाचार्य से कहा,

      भीष्म ने कहा ;-- 'मुझे इस समय दुरात्मा घटोत्कच के साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह बल और पराक्रम से सम्पन्न है और इस समय उसे प्रबल सहायक भी मिल गये हैं। ऐसी दशा में साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी उसे युद्ध में पराजित नहीं कर सकते। यह प्रहार करने में कुशल तथा भेदने में सफल है। इधर हम लोगों के वाहन थक गये हैं। पाण्‍डवों और पांचालों के द्वारा दिनभर क्षत-विक्षत होते रहे हैं। इसलिये विजय से सुशोभित होने वाले पाण्‍डवों के साथ इस समय युद्ध करना मुझे पंसद नहीं आता। आज युद्ध का विराम घोषित कर दिया जाये। कल सबेरे हम लोग शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे।' पितामह भीष्म की यह बात सुनकर कौरवोंं ने उपायपूर्वक युद्ध से हट जाना स्वीकार कर लिया; क्योंकि उस समय वे घटोत्कच के भय से पीड़ित थे।

        भारत! कौरवों के निवृत हो जाने पर विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डव बारबांर सिंहनाद करने और शंख बजाने लगे। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उस दिन दिनभर घटोत्कच को आगे करके कौरवों और पाण्‍डवों का युद्ध चलता रहा। राजन्! तदनन्तर निशा के प्रारम्भकाल में पाण्‍डवों से पराजित होकर कौरव लज्जित हो अपने शिविर को गये। महारथी पाण्‍डवों के शरीर भी युद्ध में बाणों से क्षत-विक्षत हो गये थे, तथापित वे प्रसन्नचित्त होकर अपने शिविर को लौटे। महाराज! भीमसेन और घटोत्कच को आगे करके परस्पर एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए पाण्डव सैनिक बड़ी प्रसन्नता के साथ नाना प्रकार के सिंहनाद करते हुए गये। उनकी उस गर्जना के साथ विविध वाद्यों की ध्वनि तथा शंखों के शब्द भी मिले हुए थे। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रेष्ठ नरेश! महात्मा पाण्डव गर्जते, पृथ्वी को कँपाते और आपके मर्मस्थानों पर वोट पहुँचाते हुए निशाकाल में शिविर को ही लौट गये।

      अपने भाईयों के मारे जाने से राजा दुर्योधन अत्यन्त दीन हो रहा था। वह नेत्रों के आंसू बहाता हुआ शोक से व्याकुल हो दो घड़ी तक भारी चिंता में पड़ा रहा। वह शिविर की यथायोग्य सारी आवश्यक व्यवस्था करके भाईयों के मारे जाने से दुखी एवं शोकसंतप्त हो चिंता में डूब गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्मवध पर्व में चौथे दिन का युद्धविराम विषयक चौसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र-संजय-संवाद के प्रसंग में दुर्योधन के द्वारा पाण्‍डवों की विजय का कारण पूछने पर भीष्‍म का ब्रह्मा जी के द्वारा की हुई भगवत्-स्‍तुति का कथन”

      धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! पाण्‍डवों का देवताओं के लिये भी दुष्‍कर पराक्रम सुनकर मुझे बड़ा भारी भय और विस्‍मय हो रहा है। सूत संजय! अपने पुत्रों की सब प्रकार से पराजय का हाल सुनकर मेरी चिंता बढ़ती ही जा रही है। सोचता हूँ कैसे उनकी विजय होगी। संजय! निश्चय ही विदुर के वाक्‍य मेरे हृदय को जलाकर भस्‍म कर डालेंगे, क्‍योंकि उन्‍होंने जैसा कहा था, दैवयोग से वह सब वैसा ही होता दिखायी देता है। पाण्‍डवों की सेनाओं में ऐसे-ऐसे प्रहार कुशल योद्धा हैं, जो शस्‍त्रविद्या के ज्ञाता एवं योद्धाओं में श्रेष्‍ठ भीष्‍म आदि समस्‍त महारथियों के साथ भी युद्ध कर लेते हैं। तात! महाबली महात्‍मा पाण्‍डव किस कारण से अवध्‍य हैं? किसने उन्‍हें वर दिया है अथवा कौन-सा ज्ञान वे जानते हैं? जिससे आकाश के तारों के समान वे नष्‍ट नहीं हो रहे हैं। मैं पाण्‍डवों के द्वारा बांरबार अपनी सेना के मारे जाने की बात सुनकर सहन नहीं कर पाता हूँ। दैववश मेरे ही ऊपर अत्‍यंत भयंकर दण्‍ड पड़ रहा है।

      संजय! क्‍यों पाण्‍डव अवध्‍य हैं और क्‍यों मेरे पुत्र मारे जा रहे हैं? यह सब यथार्थरूप से मुझे बताओ। जैसे अपनी भुजाओं से तैरने वाला मनुष्‍य महासागर का पार नहीं पा सकता, उसी प्रकार मैं इस दु:ख का अंत किसी प्रकार नहीं देखता हूँ। निश्चय ही मेरे पुत्रों पर अत्‍यंत भयंकर संकट प्राप्‍त हो गया है। मेरा विश्‍वास है कि भीमसेन मेरे सभी पुत्रों को मार डालेंगे, इसमें संशय नहीं है। मैं ऐसे किसी वीर को नहीं देखता, जो रणक्षेत्र में मेरे पुत्रों की रक्षा कर सके। संजय! अवश्‍य ही मेरे पुत्रों के विनाश की घड़ी आ पहुँची है। अत: सूत! मैं तुमसे शक्ति और कारण के विषय में जो विशेष प्रदान कर रहा हूं, वह सब यथार्थरूप से बताओ। युद्ध में अपने सैनिकों को विमुख हुआ देख दुर्योधन ने क्‍या किया? भीष्‍म, द्रोण, कृपाचार्य, शकुनि, जयद्रथ, महाधनुर्धर अश्‍वत्‍थामा और महाबली विकर्ण ने भी क्‍या किया? महाप्राज्ञ संजय! मेरे पुत्रों के विमुख होने पर उन महामना महारथियों ने उस समय क्‍या निश्चय किया?

     संजय ने कहा ;- महाराज! सावधान होकर सुनिये और सुनकर स्‍वयं ही पाण्‍डवों की शक्ति और अपनी पराजय के कारण के विषय में निश्चय कीजिये। पाण्‍डवों में न कोई मन्‍त्र- का प्रभाव है और न कोई वैसी माया ही वे करते हैं। राजन्! पाण्‍डव लोग युद्ध में किसी विभीषिका का का प्रदर्शन नहीं करते। अर्थात् किसी भी प्रकार से भयभीत नहीं होते। वे न्‍यायपूर्वक युद्ध करते हैं। शक्तिशाली तो वे हैं ही। भारत! कुंती के पुत्र जीवन-निर्वाह आदि के सभी कार्य सदा धर्मपूर्वक ही आरम्‍भ करते हैं। कारण कि वे जगत् में अपना महान् यश फैलाना चाहते हैं। वे युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं। धर्मबल से सम्‍पन्‍न होने के कारण ही वे महाबली और उत्तम समृद्धि से युक्‍त हैं। जहाँ धर्म होता है, उसी पक्ष की विजय होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाषष्टितम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

      महाराज! धर्म के ही कारण कुंती के पुत्र युद्ध में अवध्‍य और विजयी हो रहे हैं। इधर आपके दुरात्‍मा पुत्र सदा पापों में ही तत्‍पर रहते हैं। निर्दय होने के साथ ही निकृष्‍ट कर्म में लगे रहते हैं। इसीलिये युद्ध स्‍थल में उन्‍हें हानि उठानी पड़ती है। जनेश्वर! आपके पुत्रों ने नीच मनुष्‍यों की भाँति पाण्‍डवों-के प्रति बहुत-से क्रूरतापूर्ण बर्ताव तथा छल-कपट किये हैं, परंतु आपके पुत्रों का वह सारा अपराध भुलाकर पाण्‍डव सदा उन दोषों पर पर्दा ही डालते आये हैं। पाण्‍डु के बड़े भाई महाराज! इस पर भी आपके पुत्र इन पाण्‍डवों को अधिक आदर नहीं देते हैं। जनेश्वर! निरंतर किये जाने वाले उसी पाप-कर्म का इस समय यह अत्‍यंत भयंकर फल प्राप्‍त हुआ है।

      महाराज! आप सुहृदों के मना करने पर भी जो ध्‍यान नहीं देते हैं, इससे अब स्‍वयं ही पुत्रों और सुहृदों सहित अपनी अनीति का फल भोगिये। विदुर, भीष्‍म तथा महात्‍मा द्रोण ने और मैंने भी बारंबार आपको मना किया है; किंतु आप कभी समझ नहीं पाते थे। जैसे मरणासन्‍न मनुष्‍य हितकारी औषध को भी फैंक देते हैं, उसी प्रकार आपने हम लोगों के कहे हुए लाभकारी और हितकर वचनों को भी ठुकरा दिया। एवं अब अपने पुत्रों की बात में आकर यह मान रहे हैं कि हमने पाण्‍डवों को जीत लिया। भरतश्रेष्‍ठ! आप पाण्‍डवों की विजय और अपनी पराजय-का जो कारण पूछते हैं, उसके विषय में यथार्थ बातें सुनिये। शत्रुदमन! मैंने जैसा सुन रखा है, वह आपको बताऊंगा।

       दुर्योधन ने यही बात पितामह भीष्‍म से पूछी थी। महाराज! युद्ध में अपने समस्‍त महारथी भाइयों को पराजित हुआ देख आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधन का हृदय शोक से मोहित हो गया। उसने रात में महाज्ञानी पितामह भीष्‍म के पास विनयपूर्वक जाकर जो कुछ पूछा था, वह बताता हूं, मुझसे सुनिये। दुर्योधन ने पूछा- 'पितामह! आप, द्रोणाचार्य, शल्‍य, कृपाचार्य, अश्वत्‍थामा, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, कम्‍बोज-राज सुदक्षिण, भूरिश्रवा, विकर्ण तथा पराक्रमी भगदत्त-ये सब महारथी कहे जाते हैं। सभी कुलीन और युद्ध में मेरे लिये अपना शरीर निछावर करने को तैयार हैं। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि आप सब लोग मिल जायं तो तीनों लोकों पर भी विजय पाने में समर्थ हो सकते हैं, परंतु पाण्‍डवों के पराक्रम के सामने आप सब लोग टिक नहीं पाते हैं। इसका क्‍या कारण है? इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदे‍ह है; अत: मेरे प्रश्‍न के अनुसार आप उसका उत्तर दीजिये। किसका आश्रय लेकर ये कुंती के पुत्र क्षण-क्षण में हम लोगों पर विजय पा रहे हैं।'

     भीष्‍म जी ने कहा ;- 'कुरुनंदन! नरेश्‍वर! मेरी बात सुनो। इस विषय में जो यथार्थ बात है, उसे बताता हूँ। मैंने अनेक बार पहले भी तुमसे ये बातें कहीं है, परंतु तुमने उन्‍हें माना नहीं है। भरतश्रेष्‍ठ! तुम पाण्‍डवों के साथ संधि कर लो। प्रभो! इसी में मैं तुम्‍हारा और भूमण्‍डल का कल्‍याण समझता हूँ। राजन्! तुम अपने सभी शत्रुओं को संताप और बंधु-बांधवों को आनन्‍द प्रदान करते हुए भाइयों के साथ मिलकर सुखी रहो और इस पृथ्‍वी का राज्‍य भोगो।'

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाषष्टितम अध्याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)

      तात! इस तरह की बातें मैंने पहले पुकार-पुकारकर कही हैं, परंतु तुमने उन सबको अनसुनी कर दिया है। तुम जो पाण्‍डवों का अपमान करते आये हो, आज उसी का यह फल प्राप्‍त हुआ है। महाबाहो! प्रभो! अनायास ही महान् कर्म करने वाले पाण्‍डवों के अवध्‍य होने में जो हेतु है, उसे बताता हूं, सुनो। लोक में ऐसा कोई प्राणी न हुआ है, न है और न होगा, जो शांर्ग धनुष धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्‍ण के द्वारा सुरक्षित इन सब पाण्‍डवों पर विजय पा सके तथा देवता, असुर और मनुष्‍यों में ऐसा भी कोई नहीं है, जो उन भगवान् श्रीहरि को यथार्थ रूप से जान सके। तात धर्मज्ञ! पवित्र अंत:करण वाले मुनियों ने मुझसे जो पुराण प्रतिपादित यथार्थ बातें कही हैं, उन्‍हें बताता हूं, सुनो।

      पहले की बात है, समस्‍त देवता और महर्षि गन्धमादन पर्वत पर आकर पितामह ब्रह्मा जी के पास बैठे। उस समय उनके बीच में बैठे हुए प्रजापति ब्रह्मा ने आकाश में खड़ा हुआ एक श्रेष्‍ठ विमान देखा, जो अपने तेज से प्रज्‍वलित हो रहा था। अपने मन को संयम में रखने वाले ब्रह्मा जी ने ध्‍यान से यथार्थ बात जानकर हाथ जोड़ लिये और प्रसन्‍नचित्त होकर उन परम पुरुष परमेश्‍वर को नमस्‍कार किया। ऋषि तथा देवता ब्रह्मा जी को खडे़ (और हाथ जोड़े) हुए देख स्‍वयं भी उस परम अद्भुत तेज का दर्शन करते हुए हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्‍ठ, परम धर्मज्ञ, जगत्‌स्रष्ठा ब्रह्माजी ने उन तेजोमय परम पुरुष का यथावत् पूजन करके उनकी स्‍तुति की।

      प्रभो! आप सम्‍पूर्ण विश्व को आच्‍छादित करने वाले, विश्वरूप और विश्वस्‍वामी हैं। विश्व में सब ओर आपकी सेना है। यह विश्व आपका कार्य है। आप सबको अपने वश में रखने वाले हैं। इसीलिये आपको विश्‍वेश्वर और वासुदेव कहते हैं। आप योगस्‍वरूप देवता हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ। विश्वरूप महादेव! आपकी जय हो, लोकहित में लगे रहने वाले परमेश्वर! आपकी जय हो। सर्वत्र व्‍याप्‍त रहने वाले योगीश्वर! आपकी जय हो। योग के आदि और अंत! आपकी जय हो। आपकी नाभि से आदि कमल की उत्‍पत्ति हुई है, आपके नेत्र विशाल हैं, आप लोकेश्वरों के भी ईश्वर है; आपकी जय हो। भूत, भविष्‍य और वर्तमान के स्‍वामी! आपकी जय हो। आपका स्‍वरूप सौम्‍य है, मैं स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा आपका पुत्र हूँ। आप असंख्‍य गुणों के आधार और सबको शरण देने वाले हैं, आपकी जय हो। शार्ङ्ग-धनुष धारण करने वाले नारायण! आपकी महिमा का पार पाना बहुत ही कठिन है, आपकी जय हो।

      आप समस्‍त कल्‍याणमय गुणों से सम्‍पन्‍न, विश्वमूर्ति और निरामय हैं; आपकी जय हो। जगत् का अभीष्‍ट साधन करने-वाले महाबाहु विश्‍वेश्वर! आपकी जय हो। आप महान् शेषनाग और महावाराह-रूप धारण करने-वाले हैं, सबके आदि कारण हैं। हरिकेश! प्रभो! आपकी जय हो, आप पीताम्‍बरधारी, दिशाओं के स्‍वामी, विश्व के आधार, अप्रमेय और अविनाशी हैं। व्‍यक्‍त और अव्‍यक्‍त-सब आप ही का स्‍वरूप है, आपके रहने का स्‍थान असीम-अनंत है, आप इन्द्रियों के नियंता हैं। आपके सभी कर्म शुभ-ही-शुभ हैं। आपकी कोई इयत्ता नहीं हैं, आप आत्‍मस्‍वरूप के ज्ञाता, स्‍वभावत: गम्‍भीर और भक्‍तों की कामनाएं पूर्ण करने वाले हैं; आपकी जय हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाषष्टितम अध्याय के श्लोक 54-69 का हिन्दी अनुवाद)

      ब्रह्मन्! आप अनंत बोधस्‍वरूप हैं, नित्‍य हैं और सम्‍पूर्ण भूतों को उत्‍पन्‍न करने वाले हैं। आपको कुछ करना बाकी नहीं है, आपकी बुद्धि पवित्र है, आप धर्म का तत्त्व जानने वाले और विजयप्रदाता हैं। पूर्ण योगस्‍वरूप परमात्‍मन्! आपका स्‍वरूप गूढ होता हुआ भी स्‍पष्‍ट है। अब तक जो हो चुका है और जो हो रहा है, सब आपका ही रूप है। आप सम्‍पूर्ण भूतों के आदि कारण और लोकतत्त्व के स्‍वामी हैं। भूतभावन! आपकी जय हो। आप स्‍वयम्‍भू हैं, आपका सौभाग्‍य महान् है। आप इस कल्‍प का संहार करने वाले एवं विशुद्ध परब्रह्म हैं। ध्‍यान करने-से अंत:करण में आपका आविर्भाव होता है, आप जीवमात्र के प्रियतम परब्रह्म हैं, आपकी जय हो।

     आप स्‍वभावत: संसार की सृष्टि में प्रवृत्त रहते हैं, आप ही सम्‍पूर्ण कामनाओं के स्‍वामी परमेश्वर हैं। अमृत ही उत्‍पत्ति के स्‍थान, सत्‍यस्‍वरूप, मुक्‍तात्‍मा और विजय देने वाले आप ही हैं। देव! आप ही प्रजापतियों के भी पति, पद्मनाभ और महाबली हैं। आत्मा और महाभूत भी आप ही हैं। सत्त्व-स्‍वरूप परमेश्वर! सदा आपकी जय हो। पृथ्‍वी देवी आपके चरण हैं, दिशाएं बाहु हैं और द्युलोक मस्‍तक है। मैं ब्रह्मा आपका शरीर, देवता अंग-प्रत्‍यंग और चन्‍द्रमा तथा सूर्य नेत्र हैं। तप और सत्‍य आपका बल है तथा धर्म और कर्म आपका स्‍वरूप है। अग्नि आपका तेज, वायु सांस और जल पसीना है। अश्विनी कुमार आपके कान और सरस्‍वती देवी आप की जिह्वा है। वेद आपकी संस्‍कार निष्‍ठा हैं। यह जगत् सदा आप ही के आधार पर टिका हुआ है।

       योग-योगीश्वर! हम न तो आपकी संख्‍या जानते हैं, न परिणाम। आपके तेज, परा‍क्रम और बल का भी हमें पता नहीं है। हम यह भी नहीं जानते कि आपका आविर्भाव कैसे होता है। देव! हम तो आपकी उपासना में लगे रहते हैं। आपके नियमों का पालन करते हुए आपके ही शरण हैं। विष्‍णो! हम सदा आप परमेश्वर एवं महेश्वर का पूजन ही करते हैं। आपकी ही कृपा से हमने पृथ्‍वी पर ऋषि, देवता, गन्‍धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, पिशाच, मनुष्‍य, मृग, पक्षी तथा कीडे़-मकोडे़ आदि की सृष्टि की है। पद्मनाभ! विशाललोचन! दु:खहारी श्रीकृष्‍ण! आप ही सम्‍पूर्ण प्राणियों के आश्रय और नेता हैं, आप ही संसार के गुरु हैं। देवेश्वर! आपकी कृपादृष्टि होने से ही सब देवता सदा सुखी रहते हैं। देव! आपके ही प्रसाद से पृथ्‍वी सदा निर्भय रही है, इसलिये विशाललोचन! आप पुन: पृथ्‍वी पर यदुवंश में अवतार लेकर उसकी कीर्ति बढ़ाइये। प्रभो! धर्म की स्थापना, दैत्यों के वध और जगत् की रक्षा के लिये हमारी प्रार्थना अवश्‍य स्वीकार कीजिये। वासुदेव! आप ही पूर्णतम परमेश्‍वर हैं। आपका जो परम गुह्य यथार्थरूप है, उसी का यहाँ इस रूप में आपकी कृपा से ही गान किया गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाषष्टितम अध्याय के श्लोक 70-75 का हिन्दी अनुवाद)

      श्रीकृष्‍ण! आपने आत्मा द्वारा स्वयं अपने आपको ही संकर्षण देव के रूप में प्रकट करके अपने ही द्वारा आत्माजस्वरूप प्रद्युम्न की सृष्टि की है। प्रद्युम्न से आपने ही उन अनिरुद्ध को प्रकट किया है, जिन्हें ज्ञानीजन अविनाशी विष्‍णुरूप से जानते हैं। उन विष्‍णुरूप अनिरुद्ध ने ही मुझ लोकधाता ब्रह्मा की सृष्टि की है।

     प्रभो! इस प्रकार आपने ही मेरी सृष्टि की है। आपसे अभिन्न होने के कारण मैं भी वासुदेवमय हूँ। लोकेश्‍वर! इसलिये याचना करता हूँ कि आप अपने आपको स्वयं ही (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) इन चार रूपों में विभक्त करके मानव-शरीर ग्रहण कीजिये। वहाँ सब लोगों के सुख के लिये असुरों का वध करके धर्म और यश का विस्तार कीजिये। अन्त में अवतार का उद्देश्‍य पूर्ण करके आप पुन: अपने पारमार्थिक स्वरूप से संयुक्त हो जायंगे।

      अमित पराक्रमी परमेश्‍वर! संसार में महर्षि और देवगण एकाग्रचित्त हो उन-उन लीलानुसारी नामों द्वारा आपके परमात्मस्वरूप का गान करते रहते हैं। सुबाहो! आप वर दायक प्रभु का ही आश्रय लेकर समस्त प्राणिसमुदाय आप में ही स्थित हैं। ब्राह्मण लोग आपको आदि, मध्‍य और अन्त से रहित, किसी सीमा के सम्बन्ध से शू्न्य (असीम) तथा लोकमर्यादा की रक्षा के लिये सेतु स्वरूप बताते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत भीष्‍मवधपर्व में विश्वोपाख्‍यान विषयक पैंसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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