सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“तीसरे दिन कौरव-पाण्डवों की व्यूह-रचना तथा युद्ध का आरम्भ”

    संजय ने कहा ;- भारत! जब रात बीती और प्रभात हुआ, तक शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी सेनाओं को युद्धभूमि में चलने का आदेश दिया। उस समय कुरुकुल के पितामह शान्तनुकुमार भीष्म ने आपके पुत्रों को विजय दिलाने की इच्छा से महान गरुड़ व्यूह की रचना की। स्वयं आपके ताऊ भीष्म उस व्यूह के अग्रभाग में चोंच के स्थान पर खड़े हुए। आचार्य द्रोण और यदुवंशी कृतवर्मा दोनों नेत्रों के स्थान पर स्थित हुए। यशस्वी वीर अश्वत्थामा और कृपाचार्य शिरोभाग में खड़े हुए। इनके साथ त्रिगर्त, केकय और वाटधान भी युद्धभूमि में उपस्थित थे। आर्य! भूरिश्रवा, शल, शल्य और भगदत्त- ये जयद्रथ के साथ ग्रीवाभाग में खडे़ किये गये। इन्हीं के साथ मद्र, सिंधु, सौवीर तथा पंचनद देश के योद्धा भी थे। अपने सहोदर भाइयों और अनुचरों के साथ राजा दुर्योधन पृष्ठभाग में स्थित हुआ। महाराज! अवन्ति देश के राजकुमार विन्द और अनुबिन्द तथा कम्बोज, शक एवं शूरसेन के योद्धा उस महाव्यूह पुच्छ भाग में खड़े हुए। मगध और कलिंग देश के योद्धा दासेरकगणों के साथ कवच धारण करके व्यूह के दायें पंख के स्थान में स्थित हुए। कारूष, विकुंज, मुण्ड और कुण्डीवृष आदि योद्धा राजा बृहद्बल के साथ बायें पंख के स्थान में खड़े हुए।

     संजय कहते हैं ;- राजन! शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने कौरव-सेना की वह व्यूहरचना देखकर युद्ध भूमि में उसका सामना करने के लिए धृष्टद्युम्न को साथ लेकर अपनी सेना का अत्यन्त भयंकर अर्धचन्द्राकार व्यूह बनाया। उसके दक्षिण शिखर पर भीमसेन सुशोभित हुए। उनके साथ नाना प्रकार के शस्त्र समुदायों से सम्पन्न विभिन्न देशों के नरेश भी थे। भीमसेन के पीछे ही राजा विराट और महारथी द्रुपद खड़े हुए। उनके बाद नील आयुधधारी सैनिकों के साथ राजा नील और नील के बाद महाबली धृष्टकेतु खड़े हुए। भारत! धृष्‍टकेतु के साथ चेदि, काशी, करूष और पौरव आदि देशों के सैनिक भी थे। धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा पाञ्चाल और प्रभद्रकगण उस विशाल सेना के मध्य भाग में युद्ध के लिये खड़े हुए। हाथियों की सेना से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर भी वहीं थे। राजन! तदनन्तर सात्यकि और द्रौपदी के पाँचों पुत्र खड़े हुए। इनके बाद शूरवीर अभिमन्यु और अभिमन्यु के बाद इरावान थे।

     नरेश्वर! इरावान के बाद भीमसेनपुत्र घटोत्कच तथा महारथी कैकय खडे़ हुए। तत्पश्चात् मनुष्यों में श्रेष्ठ अर्जुन उस व्यूह के बायें पार्श्‍व या शिखर के स्थान मे खड़े हुए, जिनके रक्षक सम्पूर्ण जगत का पालन करने वाले साक्षात भगवान श्रीकृष्ण हैं। इस प्रकार पाण्डवों ने आपके पुत्रों तथा उनके पक्ष में आये हुए अन्यान्य भूपालों के वध के लिए इस महाव्यूह की रचना की। तदनन्तर एक दूसरे पर प्रहार करते हुए आपके और शत्रु पक्ष के सैनिकों का घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जिसमें रथ-से-रथ और हाथी-से-हाथी भिड़ गये थे। प्रजानाथ! जहाँ-तहाँ सब ओर घोड़ों और रथों के समुदाय एक-दूसरे पर टूटते और प्रहार करते दिखायी दे रहे थे। भारत! दौड़ते तथा पृथक-पृथक प्रहार करते हुए रथ समूहों का शब्द दुन्दुभियों की ध्वनि से मिलकर और भी भयंकर हो गया। आपके और पाण्डवों के घमासान युद्ध में परस्पर आघात-प्रत्याघात करने वाले करने वाले नरवीरों का भयानक शब्द आकाश में व्याप्त हो रहा था।

(इस प्रकार श्री महाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में तीसरे दिन के युद्ध में परस्पर व्यूहरचना विषयक छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध”

     संजय कहते हैं ;- भारत! आपकी और पाण्डवों की पूर्वोक्त रूप से व्यूह रचना सम्पन्न हो जाने पर अर्जुन ने आपके रथियों की सेना का संहार आरम्भ किया। वे अतिरथी वीर थे। उन्होंने अपने बाणों द्वारा युद्ध-स्थल में रथयूथपतियों को विदीर्ण करके यमलोक भेज दिया। युगान्त में काल के समान उस युद्ध में कुन्‍तीकुमार अर्जुन के द्वारा आपके सैनिकों का भयंकर विनाश हो रहा था, तो भी वे यत्नपूर्वक पाण्डवों के साथ युद्ध करते रहे। वे उज्ज्वल यश प्राप्त करना चाहते थे। अतः यह निश्‍चय करके कि अब मृत्यु ही हमें युद्ध से निवृत कर सकती है, एकाग्रचित्त होकर युद्ध में डटे रहे। राजन! उन्‍होंने युद्ध में ऐसी तत्परता दिखायी कि बार-बार पाण्डव-सेना को तितर-बितर कर दिया। तदनन्तर क्षत-विक्षत होकर भागते और पुनः लौटकर सामना करते हुए पाण्डवों तथा कौरवों के सैनिकों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। भूतल से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य देव आच्छादित हो गये। दिशा और प्रदिशा का कुछ भी पता नहीं चलता था। वैसी दशा में वहाँ युद्ध करने वाले लोग कैसे किसी पर प्रहार करें।

     प्रजानाथ! उस रणक्षेत्र में अनुमान से, संकेतों से तथा नाम और गोत्रों के उच्‍चारण से अपने या पराये पक्ष का निश्चय करके जहाँ-तहाँ युद्ध हो रहा था। सत्यप्रतिज्ञ भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित होने के कारण कौरव सेना का व्यूह किसी प्रकार भंग न हो सका। इसी तरह सव्यसाची अर्जुन और भीम से सुरक्षित पाण्डवों के महाव्यूह का भी भेदन न हो सका। वहाँ सेना के अग्रभाग से भी निकलकर (व्यूह छोड़कर) वीर सैनिक युद्ध करते थे। राजन! दोनों सेनाओं के रथ और हाथी परस्पर भिड़ गये। उस महासमर में घुड़सवार घुड़सवारों को चमकीली ऋष्टियों और प्रासों द्वारा मार गिराते थे। वह संग्राम अत्यन्त भयानक हो रहा था। उसमें रथी रथियों के सामने जाकर उन्हें स्वर्णभूषित बाणों से मार गिराते थे। आपके और पाण्डव पक्ष के हाथी सवार अपने से भिड़े हुए विपक्षी हाथी सवारों को सब ओर से नाराच, बाण और तोमरों की मार से धराशायी कर देते थे। कोई योद्धा रणक्षेत्र में उछलकर बड़े-बड़े हाथियों पर चढ़ जाता और विपक्षी योद्धा के केशों को पकड़कर उसका सिर काट लेता था।

      बहुत-से वीर युद्धस्थल में हाथियों के दांतों के अग्रभाग से अपना हृदय विदीर्ण हो जाने के कारण सब ओर लंबी साँस खींचते हुए मुख से रक्त वमन कर रहे थे। कोई रणविशारद वीर हाथी के दांतों पर खड़ा होकर युद्ध कर रहा था। इतने ही में गजशिक्षा और अस्त्र विद्या के ज्ञाता किसी विपक्षी योद्धा ने उसके ऊपर शक्ति चला दी। उस शक्ति के आघात से वक्षःस्थल विदीर्ण हो जाने के कारण वह मरणोन्मुख वीर वहीं कांपने लगा। हर्ष और उल्लास में भरकर एक दूसरे का अपराध करने वाले पैदल समूह विपक्ष के पैदल सैनिकों को भिन्दिपाल और फरसों से मार-मारकर रणभूमि में गिरा रहे थे। राजन! उस समरभूमि में कोई रथी किसी गजयूथपति से भिड़ जाता और सवार तथा हाथी दोनों को मार गिराता था। उसी प्रकार गजारोही भी रथियों में श्रेष्ठ वीर का वध कर देता था। भरतश्रेष्ठ! उस संग्राम में घुड़सवार रथी को तथा रथी घुड़सवार को प्रास द्वारा मारकर धराशायी कर देता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

      दोनों ही सेनाओं में पैदल वीर रथी को और रथी योद्धा पैदल सैनिक को अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रों द्वारा रणभूमि में मार गिराता था। हाथी सवार घुड़सवारों को और घुड़सवार हाथी सवारों को युद्धस्थल में गिरा देते थे। ये घटनाएं आश्चर्यजनक-सी प्रतीत होती थीं। उस रणक्षेत्र में जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ गजारोहियों द्वारा गिराये हुए पैदल और पैदलों द्वारा गिराये हुए हाथी सवार दृष्टिगोचर हो रहे थे। घुड़सवारों द्वारा पैदलों के समूह और पैदलों द्वारा घुड़सवारों के समूह सैकड़ों और हजारों की संख्या में गिराये जाते हुए दिखायी देते थे।

     भरतश्रेष्ठ! वहाँ इधर-उधर गिरे हुए ध्वज, धनुष, तोमर, प्रास, गदा, परिघ, कम्पन, शक्ति, विचित्र कवच, कणप, अंकुश, चमचमाते हुए खड्ग, सुवर्णमय पांख वाले बाण, शूल, गद्दी और बहुमूल्य कम्बलों द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि भाँति-भाँति के पुष्पहारों से चित्रित हुई-सी जान पड़ती थी। उस महासमर में मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों की लाशें पड़ी हुई थीं। मांस और रक्त की कीचड़ जम गयी थी। वहाँ की भूमि में जाना असम्भव हो गया था।

     जनेश्वर! रणभूमि में बहे हुए रक्त से सिंचकर धरती की धूल बैठ गयी और सारी दिशाएं साफ हो गयीं। भारत! उस समय जगत के विनाश को सूचित करने वाले असंख्य कबन्ध चारों ओर उठने लगे। उस अत्यन्त दारुण और महाभयंकर युद्ध में रथी योद्धा चारों ओर दौड़ते दिखायी देते थे। तदनन्तर भीष्म, द्रोण, सिन्धुराज जयद्रथ, पुरूमित्र, जय, भेज, शल्य और शकुनि- ये सिंहतुल्य पराक्रमी रणदुर्जय वीर पाण्डवों की सेना को बार-बार भंग करने लगे। भरतनन्दन! इसी प्रकार भीमसेन, राक्षस घटोत्कच, सात्यकि, चेकितान तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र- ये सब मिलकर जैसे देवता दानवों को खदेड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त राजाओं सहित आपके पुत्रों और सैनिकों को रणभूमि में भगाने लगे। संग्रामभूमि में एक-दूसरे को मारते हुए श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर रक्तरंजित हो भयानक रूपधारी दानवों के समान सुशोभित होने लगे। दोनों सेनाओं के वीर शत्रुओं को जीतकर आकाश में फैले हुए विशाल ग्रहों के समान दिखायी देते थे।

     तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन सहस्रों रथियों के साथ पाण्डववंशी राक्षस घटोत्कच के साथ युद्ध करने के लिए वहाँ आया। इसी प्रकार विशाल सेना के साथ समस्त पाण्डव भी युद्ध के लिये तैयार खडे़ हुए शत्रुदमन द्रोणाचार्य और भीष्म से भिड़ने के लिये आगे बढे़। क्रोध में भरे हुए किरीटधारी अर्जुन सब ओर खड़े हुए श्रेष्ठ राजाओं का सामना करने के लिए चले। अभिमन्यु और सात्यकि ने शकुनि की सेना पर आक्रमण किया। इस प्रकार युद्ध में विजय चाहने वाले आपके और पाण्‍डवों के सैनिकों में पुन: रोमान्चकारी संग्राम छिड़ गया।

(इस प्रकार श्री महाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में युद्ध संबंधी तीसरे दिन का घमासान युद्ध विषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डव-वीरों का पराक्रम, कौरव-सेना में भगदड़ तथा दुर्योधन और भीष्म का संवाद”

      संजय ने कहा ;- राजन! तदनन्तर वे समस्त भूपाल समरभूमि में अर्जुन को देखते ही कुपित हो उठे और उन्होंने अनेक सहस्र रथियों के साथ उन्हें सब ओर से घेर लिया। भरतनन्दन! उन राजाओं ने रथसमूह द्वारा अर्जुन को सब ओर से वेष्टित करके उनके ऊपर अनेक सहस्र बाणों की वर्षा आरम्भ की। वे क्रोध में भरकर युद्ध में अर्जुन के रथ पर चमचमाती हुई शक्ति, दुःसह गदा, परिघ, प्रास, फरसे, मुद्गर और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। शलभों की श्रेणी के समान अस्त्र-शस्त्रों की उस वर्षा को अर्जुन ने स्वर्णभूषित बाणों द्वारा सब ओर से रोक दिया। राजेन्द्र! अर्जुन की वह अलौकिक फुर्ती देख देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षस साधु-साधु (वाह-वाह) कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे। उधर विशाल सेना से घिरे हुए सात्यकि और अभिमन्यु ने समर भूमि में सुबल के पुत्रों सहित गान्धार देशीय शूरवीरों पर आक्रमण किया। वहाँ जाते ही क्रोध में भरे हुए सुबलपुत्रों ने युद्धस्थल में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा सात्यकि के श्रेष्ठ रथ को रोषपूर्वक तिल-तिल करके काट डाला।

     तब शत्रुओं को संताप देने वाल सात्यकि उस समय छिड़े हुए भयंकर संग्राम में अपने टूटे हुए रथ को त्यागकर तुरन्त ही अभिमन्यु के रथ पर जा बैठे। फिर एक ही रथ पर बैठे हुए वे दोनों वीर झुकी हुई गांठ वाले पैने बाणों से तुरंत ही सुबलपुत्र शकुनि की सेना का संहार करने लगे। इसी प्रकार एक ओर से आकर युद्ध के लिये सदा उद्यत रहने वाले द्रोणाचार्य और भीष्म ने कंकड़ पक्षी के पंखों से युक्त तीखे बाणों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर की सेना का विनाश आरम्भ कर दिया। तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तथा माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव ने समस्त सेनाओं के देखते-देखते द्रोणाचार्य की सेना पर धावा किया। जैसे पूर्वकाल में अत्यन्त भयंकर देवासुर-संग्राम हुआ था, उसी प्रकार वहाँ अत्यन्त भयानक रोमांचकारी युद्ध होने लगा। दूसरी ओर भीमसेन और घटोत्कच ने महान पराक्रम का परिचय देते हुए दुर्योधन की विशालवाहिनी को खदेड़ना आरम्भ किया।

     उस समय दुर्योधन ने सामने आकर उन दोनों को रोक दिया। भारत! वहाँ हमने हिडिम्बापुत्र घटोत्कच का अद्भुत पराक्रम देखा। वह रणक्षेत्र में पिता से भी बढ़कर पुरुषार्थ प्रकट करते हुए युद्ध कर रहा था। क्रोध में भरे हुए पाण्डुनन्दन भीमसेन ने हंसते हुए से एक बाण मारकर अमर्षशील दुर्योधन की छाती छेद डाली। तब उस बाण के गहरे आघात से पीड़ित हो राजा दुर्योधन रथ की बैठक में बैठ गया और उसे मूर्छा आ गयी। राजन! उसे संज्ञाशून्य जानकर उसका सारथी बड़ी उतावरी के साथ उसे रणभूमि से बाहर ले गया। फिर तो उसकी सेना में भगदड़ मच गयी। तब चारों ओर भागती हुई उस कौरव सेना पर तीखे बाणों का प्रहार करते हुए भीमसेन उसे पीछे से खदेड़ने लगे। दूसरी ओर से रथियों में श्रेष्ठ द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न तथा धर्मपुत्र युधिष्ठिर शत्रुसेना का विनाश करने वाले तीखे बाणों द्वारा द्रोणाचार्य और भीष्म के देखते-देखते कौरव सेना को पीड़ित करते हुए उसका पीछा करने लगे। महाराज! उस युद्ध स्थल में आपके पुत्र की भागती हुई सेना को महारथी द्रोण और भीष्म भी रोक न सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद)

     महामना भीष्म और द्रोण के रोकने पर भी उनके सामने ही वह सेना भागती ही चली जा रही थी। उधर सहस्रों रथी जब इधर-उधर भाग रहे थे, उसी समय एक रथ पर बैठे हुए अभिमन्यु और सात्यकि सुबलपुत्र की सेना का संग्राम भूमि में सब ओर से संहार करने लगे। उस अवसर पर (एक रथ में बैठे हुए) सात्यकि और अभिमन्यु उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, जैसे अमावस्या तिथि को आकाश में सूर्य और चन्द्रमा एक ही स्थान में सुशोभित होते हैं। प्रजानाथ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अर्जुन आपकी सेना पर उसी प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, जैसे बादल पानी की धारा बरसाता है। तब पार्थ के बाणों से संग्राम-भूमि में पीड़ित हुई कौरव-सेना विषाद और भय से कांपती हुई इधर-उधर भाग चली। उन योद्धाओं को भागते देख दुर्योधन का हित चाहने वाले महारथी भीष्म और द्रोण क्रोधपूर्वक उन्हें रोकने लगे।

      प्रजानाथ! इसी बीच में राजा दुर्योधन की मूर्छा दूर हो गयी और उसने आश्वस्त होकर चारों ओर भागती हुई सेना को पुनः लौटाया। भारत! आपका पुत्र दुर्योधन जहाँ-तहाँ जिस-जिसकी ओर दृष्टिपात करता, वहीं-वहीं से ऐसे योद्धा भी लौट आते थे जो क्षत्रियों में महारथी थे। राजन! उन सबको लौटते देख दूसरे लोग भी एक दूसरे की स्पर्धा तथा लज्जा के कारण ठहर गये। महाराज! पुनः लौटते हुए उन योद्धाओं का महान वेग चन्द्रोदय के समय बढ़ते हुए महासागर के समान जान पड़ता था।

     राजन! अपनी सेना को लौटा हुआ देख राजा दुर्योधन तुरंत ही शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर बोला,

     दुर्योधन बोला ;- ‘पितामह भरतनन्दन! मैं आपसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। कुरुनन्दन! आपके, अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य के और महाधनुर्धर कृपाचार्य के पुत्रों और सुहृदोंसहित जीते-जी जो मेरी सेना भाग रही है, इसे मैं आप लोगों के योग्य नहीं मानता हूँ। मैं किसी तरह यह नहीं मान सकता कि पाण्डव संग्राम में आपके, द्रोणाचार्य के, कृपाचार्य के और अश्वत्थामा के समान बलवान हैं। वीर पितामह! निश्चय ही पाण्डव आपके कृपापात्र हैं, तभी तो मेरी सेना का वध हो रहा है और आप चुपचाप इसकी दुर्दशा को सहते चले जा रहे हैं। महाराज! यदि पाण्डवों पर दया ही करनी थी तो आप युद्ध आरम्भ होने के पहले ही मुझे यह बता देते कि मैं संग्राम भूमि में पाण्डुपुत्रों से, धृष्टद्युम्न से और सात्यकि से भी युद्ध नहीं करूँगा। उस अवस्था में आपका, आचार्य का तथा कृपाचार्य का वचन सुनकर मैं कर्ण के साथ उसी समय अपने कर्तव्य का निश्चय कर लेता। यदि युद्ध में आप दोनों को मेरा परित्याग करना उचित नहीं जान पड़ता हो तो द्रोणाचार्य और आप दोनों श्रेष्ठ पुरुष अपने योग्य पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये'।

     यह सुनकर भीष्म बारम्‍बार हंसकर क्रोध से आँखें तरेरते हुए आपके पुत्र से बोले,

    भीष्म बोले ;- 'राजन! मैंने तुमसे अनेक बार यह सत्य और हित की बात बतायी है कि युद्ध में पाण्डवों को इन्द्र आदि देवता भी जीत नहीं सकते। नृपश्रेष्ठ! तो भी मुझ वृद्ध के द्वारा जो कुछ किया जा सकता है, उसे आज यथा शक्ति करुँगा। तुम इस समय अपने भाइयों सहित देखो। आज मैं अकेला ही सबके देखते-देखते सेना और बंधुओं सहित समस्त पांडवों को आगे बढ़ने से रोक दुँगा'। जनेश्वर! भीष्म के ऐसा कहने पर आपके पुत्र जोर-जोर से शंख बजाने और डंका पीटने लगे। राजन! उनका वह महान शंखनाद सुनकर पांडव वीर शंख बजाने तथा नगारे और ढोल पीटने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व के तृतीय युद्धदिवस में भीष्म और दुर्योधन संवादविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म का पराक्रम, श्रीकृष्ण का भीष्म को मारने के लिये उद्यत होना, अर्जुन की प्रतिज्ञा और उनके द्वारा कौरव सेना की पराजय, तृतीय दिवस के युद्ध की समाप्त”

   धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! उस भयंकर युद्ध में जब भीष्म ने मेरे विशेष दुखी हुए पुत्र के क्रोध दिलाने पर प्रतिज्ञा कर ली, तब उन्‍होंने उस युद्धस्थल में पाण्डवों के प्रति क्या किया? तथा पांचाल योद्धाओं ने पितामह भीष्म के प्रति क्या किया?

    संजय ने कहा ;- भारत! उस दिन जब पूर्वाह्नकाल का अधिक भाग व्यतीत हो गया, सूर्यदेव पश्चिम दिशा में जाकर स्थित हुए और विजय को प्राप्त हुए महामना पाण्डव खुशी मनाने लगे, उस समय सब धर्मों के विशेषज्ञ आपके ताऊ भीष्म जी ने वेगशाली अस्त्रों द्वारा पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। उनके साथ विशाल सेना चली और आपके पुत्र सब ओर से उनकी रक्षा करने लगे। भारत! तदनन्तर आपके अन्याय से हम लोगों का पाण्डवों के साथ रोमांचकारी भयंकर संग्राम होने लगा। उस समय वहाँ धनुषों की टंकार तथा हथेलियों के आघात से पर्वतों के विदीर्ण होने के समान बड़े जोर से शब्द होता था। उस समय ‘खडे़ रहो, खडा हूं’ इसे बींध डालो, लौटो, स्थिर भाव से रहो, हां-हां स्थिर भाव से ही हूं, तुम प्रहार करो’ ऐसे शब्द सब और सुनायी पड़ते थे। जब सोने के कवचों, किरीटों और ध्वजों पर योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्र टकराते, तब उनसे पर्वतों पर गिरकर टकराने वाली शिलाओं के समान भयानक शब्द होता था। सैनिकों के सैंकड़ों हजारों मस्तक तथा स्वर्णभूषित भुजाएं कट-कटकर पृथ्वी पर गिरने और तड़पने लगी।

    कितने ही पुरुषशिरोमणि वीरों के मस्तक तो कट गये, परन्तु उनके धड़ पूर्ववत धनुष-बाण एवं अन्य आयुध लिये खडे़ ही रह गये। रणक्षेत्र में बड़े वेग से रक्त की नदी बह चली, जो देखने में बड़ी भयानक थी। हाथियों के शरीर उनके भीतर शिलाखण्डों के समान जान पड़ते थे। खून और मांस कीचड़ के समान प्रतीत होते थे। बड़े-बड़े हाथी, घोड़े और मनुष्य के शरीर से ही वह नहीं निकली थी और परलोकरूपी समुद्र की ओर प्रवाहित हो रही थी। वह रक्त-मांस की नदी गीधों और गीदड़ों को आनंद प्रदान करने वाली थी। भारत! नरेश्रष्ठ! पाण्डवों और आपके पुत्रों का उस दिन जैसा भयानक युद्ध हुआ, वैसा न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है। वहाँ युद्धस्थल में गिराये हुए योद्धाओं तथा पर्वत के श्याम शिखरों के समान पड़े हुए हाथियों से अवरुद्ध हो जाने के कारण रथों के आने-जाने के लिये रास्ता नहीं रह गया था।

    माननीय महाराज! इधर-उधर बिखरे हुए विचित्र कवचों तथा शिरस्त्राणों (लोहे के टोपों) से वह रणभूमि शरद्ऋतु में तारिकाओं से विभूषित आकाश की भाँति शोभा पाने लगी। कुछ वीर बाणों से विदीर्ण होकर आंतों में उठने वाली पीड़ा से अत्यन्त कष्ट पाने पर भी समरभूमि में निर्भय तथा दर्पयुक्त भाव से शत्रुओं की ओर दौड़ रहे थे। कितने ही योद्धा रणभूमि में गिरकर इस प्रकार आर्त-भाव से स्वजनों को पुकार रहे थे- ‘तात! भ्रातः! सखे! बन्धों! मेरे मित्र! मेरे मामा! मुझे छोड़कर न जाओ’।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

    दूसरे सैनिक यों चिल्ला रहे थे- ‘अरे आओ, मेरे पास आओ, क्यों डरे हुए हो? कहाँ जाओगे? मैं संग्राम में डटा हुआ हूँ। तुम भय न करो’। वहाँ शान्तनुनन्दन भीष्म अपने धनुष को मण्डलाकार करके विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं प्रज्वलित बाणों की निरन्तर वर्षा कर रहे थे। भरतश्रेष्ठ! उत्तम व्रत का पालन करने वाले भीष्म सम्पूर्ण दिशाओं को बाणों से व्याप्त करते हुए पाण्डव-पक्षीय रथियों को अपना नाम सुना-सुनाकर मारने लगे। राजन! उस समय भीष्म अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए रथ की बैठक पर नृत्य-सा कर रहे थे। घूमते हुए अलात-चक्र की भाँति वे यत्र-तत्र सर्वत्र दिखायी देने लगे। युद्ध में शूरवीर भीष्म यद्यपि अकेले थे, तथापि सृंजयों सहित पाण्‍डवों को वे अपनी फुर्ती के कारण कई लाख व्यक्तियों के समान दिखाई दिये। लोगों को ऐसा मालूम हो रहा था कि ऋणक्षेत्र में भीष्म जी ने माया से अपने को अनेक रूपों में प्रकट कर लिया है। जिन लोगों ने उन्हें पूर्व दिशा में देखा था, उन्हीं लोगों को आंख फिरते ही वे पश्चिम में दिखायी देते। प्रभो! बहुतों ने उन्‍हें उत्तर दिशा में देखकर तत्काल ही दक्षिण दिशा में भी देखा। इस प्रकार समरभूमि में शूरवीर गंगानन्दन भीष्म सब ओर दिखायी दे रहे थे। पाण्‍डवों में से कोई भी उन्‍हें देख नहीं पाता था। सब लोग भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए बहुसंख्य बाणों को ही देखते थे।

      उस समय रणक्षेत्र में अद्भुत कर्म करते हुए आपके ताऊ भीष्म अमानुषरूप विचरते तथा पाण्डव सेना का संहार करते थे। वहाँ अनेक प्रकार से मनुष्य उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार की बातें कर रहे थे। युद्ध में मनुष्‍यों, हाथियों और घोड़ों के शरीरों पर चलाया हुआ भीष्म को कोई भी बाण व्यर्थ नहीं होता। एक तो उनके पास बाण बहुत थे और दूसरे कि वह बड़ी फुर्ती से चलाते थे। भीष्म कंकपत्र से युक्त बहुसंख्यक तीखे बाणों को युद्ध में बिखेर रहे थे। वे एक पंखयुक्त सीधे बाण से लोहे की झुल से युक्त हाथी को भी विदीर्ण कर डालते थे। जैसे इन्द्र महान पर्वत को अपने वज्र से विदीर्ण कर देते हैं।

    आपके ताऊ भीष्म अच्छी तरह से छोडे़ हुए एक ही नाराच के द्वारा एक जगह बैठे हुए दो-तीन हाथी-सवारों को कवच धारण किये होने पर भी छेद डालते थे। जो कोई भी योद्धा नरश्रेष्ठ भीम के सम्मुख आ जाता, वह मुझे एक ही मुहुर्त में खड़ा दिखायी देकर उसी क्षण धरती पर लोटता दिखायी देता था। इस प्रकार अतुल पराक्रमी भीष्म के द्वारा मारी जाती हुई धर्मराज युधिष्ठिर की एक विशालवाहिनी सहस्रों भागों में बिखर गयी। उनकी बाण-वर्षा से संतप्त हो पाण्‍डवों की वह महती सेना श्रीकृष्ण, अर्जुन और शिखण्डी के देखते-देखते कांपने लगी। वे सब वीर वहाँ मौजूद होते हुए भी भीष्म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होकर भागते हुए अपने महारथियों को रोकने में समर्थ न हो सके। महाराज! महेन्द्र के समान पराक्रमी भीष्म की मार खाकर वह विशाल सेना इस प्रकार तितर-बितर हुई कि उसके दो-दो सैनिक भी एक साथ नहीं भाग सकते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद)

     मनुष्य, हाथी और घोडे़ सभी बाणों से छिद गये थे। रथ के ध्वज और कुबर टूटकर गिर चुके थे। इस प्रकार पाण्‍डवों की सेना अचेत-सी होकर हाहाकार कर रही थी। इस युद्ध में दैव के वशीभूत होकर पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को और मित्र ने प्रिय मित्र को मार डाला। भारत! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के बहुत-से सैनिक कवच खोलकर बाल बिखेरे इधर-उधर दौड़ते दिखायी देते थे। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की वह सेना व्याकुल होकर भटकती हुई गौओं के समूह की भाँति आर्तस्वर से हाहाकार करती हुई देखी गयी। कितने ही रथयूथपति भी किंकर्तव्यविमुढ़ होकर घूम रहे थे। अपनी सेना में इस प्रकार भगदड़ मची हुई देख यदुकुलनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अपने उत्तम रथ को खड़ा करके कुन्तीपुत्र अर्जुन से कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पुरुषसिंह! जिसकी तुम दीर्घकाल से अभिलाषा करते थे, वही यह अवसर प्राप्त हुआ है। यदि तुम मोह से किंकर्तव्यविमुढ़ नहीं हो गये हो तो पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करो। वीर! जो पहले राजाओं की मण्डली में तुमने जो यह कहा था कि जो मेरे साथ संग्राम भूमि में उतरकर युद्ध करेंगे, दुर्योधन के उन भीष्म, द्रोण, आदि समस्त सैनिकों में सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंगा। शत्रुसूदन कुन्तीनन्दन! अपनी उस बात को सत्य कर दिखाओ। अर्जुन! देखो, तुम्हारी सेना इधर उधर भाग रही है। समरभूमि में मुंह बाये हुए काल के समान भीष्म को देखकर युधिष्ठिर सेना में भागते हुए उन राजाओं की ओर दृष्टिगत करो। ये सिंह से डरे हुए क्षुद्र मृगों की भाँति भय से आतुर होकर पलायन कर रहे है’।

    वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन्‍हें इस प्रकार उत्तर दिया,

     अर्जुन ने कहा ;- ‘इन घोड़ों को हांककर वहीं ले चलिये; जहाँ भीष्म मौजूद हैं। इस सेनारूपी समुद्र में प्रवेश कीजिये। आज मैं कुरुकुल के वृद्ध पितामह दुर्धर्ष वीर भीष्म को रथ से नीचे गिरा दूँगा। 

      संजय कहते हैं ;- राजन! तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के चांदी के समान सफेद घोड़ों को उसी दिशा की ओर हांका, जिस ओर भीष्म का रथ विद्यमान था। सूर्य की भाँति उस रथ की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन था। उस समय महाबाहु अर्जुन को समरभूमि में भीष्म से लोहा लेने के लिये उद्यत देख युधिष्ठिर की वह विशाल सेना पुनः लौट आयी।

     कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर भीष्म सिंह से समान बारंबार गर्जना करते हुए अर्जुन के रथ पर शीघ्रतापूर्वक बाणों की वर्षा करने लगे। उस महान बाण वर्षा से एक ही क्षण में घोडे़ और सारथि सहित आच्छादित होकर अर्जुन का रथ किसी की दृष्टि में नहीं आता था। परंतु शक्तिशाली भगवान श्रीकृष्ण तनिक भी घबराहट में न पड़कर धैर्य का सहारा ले उन घोड़ों को हांकते रहे। यद्यपि भीष्म के बाण उन अश्वों के सभी अंगों में धँसे हुए थे। तब अर्जुन ने मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले दिव्य धनुष को हाथ में लेकर तीन बाणों से भीष्म के धनुष को काट गिराया। धनुष कट जाने पर आपके ताऊ कुरुनन्दन भीष्म ने पलक मारते-मारते पुनः विशाल धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 56-73 का हिन्दी अनुवाद)

    फिर मेघ के समान गम्भीर शब्द करने वाले उस धनुष को दोनों हाथों से खींचा। इतने ही में कुपित हुए अर्जुन ने उनके उस धनुष को भी काट डाला। अर्जुन की इस फुर्ती को देखकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने बड़ी प्रशंसा की और कहा- ‘महाबाहु कुन्तीकुमार! तुम्हें साधुवाद! पाण्डुनन्दन! धन्यवाद बेटा तुम्हारी इस फुर्ती से में बहुत प्रसन्न हूँ। धनंजय! यह महान कर्म तुम्हारे ही योग्य है तुम मेरे साथ युद्ध करो’। इस प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन की प्रशंसा करके फिर दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर वीर भीष्म ने युद्धस्थल में उनके रथ की ओर बाण बरसाना आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों को हांकने की कला में अपने उत्तम बल का परिचय दिया। वे भीष्म के बाणों को व्यर्थ करते हुए बड़ी फुर्ती के साथ रथ को मण्डलाकार चलाने लगे।

      भारत! तथापि भीष्म ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्पूर्ण अंगों में अपने पैने बाणों से गहरे आघात किये। भीष्म के बाणों से क्षत-विक्षत हो वे नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन क्रोध में भरे हुए उन दो सांडों के समान सुशोभित हुए, जिनके सम्पूर्ण शरीर में सीगों के आघात से बहुत से घाव हो गये थे। तत्पश्चात रोषावेश में भरे हुए भीष्म ने सैकड़ों- हजारों बाणों की वर्षा करके युद्धभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन की सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित एवं अवरुद्ध कर दिया। इतना ही नहीं, रोष भरे हुए भीष्म ने जोर-जोर से हँसकर अपने तीखे बाणों से बारंबार पीड़ित करते हुए वृष्णि-कुलभूषण श्रीकृष्ण को कम्पित-सा कर दिया है।

     तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्ण ने उस समरांगण में भीष्म का पराक्रम देखकर यह विचार किया कि अर्जुन तो कोमलतापूर्वक युद्ध कर रहा है और भीष्म युद्धस्थल में निरन्तर बाणों की वर्षा कर रहे हैं। ये दोनों सेनाओं के बीच में आकर तपते हुए सूर्य की भाँति सुशोभित होते और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के अच्छे-अच्छे सैनिकों को चुन-चुनकर मार रहे हैं। युधिष्ठिर की सेना में भीष्म ने प्रलय काल का-सा दृश्य उपस्थित कर दिया है। यह सब देख और सोचकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण सहन न कर सके। उन्‍होंने मन ही-मन विचार किया कि युधिष्ठिर की सेना का अस्तित्व मिटना चाहता है। भीष्म रणभूमि में एक ही दिन में सम्पूर्ण देवताओं और दानवों का नाश कर सकते हैं। फिर सेना और सेवकों सहित पाण्‍डवों को युद्ध में परास्त करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?


महात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की यह विशाल सेना भागी जा रही है और ये कौरव लोग रणक्षेत्र में सोमकों को शीघ्रतापूर्वक भागते देख पितामह का हर्ष बढ़ाते हुए उन्‍हें खदेड़ रहे हैं; अतः आज पाण्‍डवों के लिये कवच धारण किया हुआ मैं स्वयं ही भीष्म को मार डालता हूँ। महामना पाण्‍डवों के इस भारी भार को मैं ही दूर करुंगा। अर्जुन इस युद्ध में तीखे बाणों की मार खाकर भी भीष्म के प्रति गौरवबुद्धि रखने के कारण अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार चिंतन करते समय अत्यन्त कुपित हुए पितामह भीष्म ने अर्जुन के रथ पर पुनः बहुत से बाण चलाये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 74-87 का हिन्दी अनुवाद)

    उन बाणों की अत्यधिकता के कारण उनसे सम्पूर्ण दिशाएं आच्छादित हो गयी। न आकाश दिखायी देता था, न दिशाएं; न तो भूमि दिखायी देती थी और न मरीचिमाली भगवान भास्कर का भी दर्शन होता था। उस समय धूमयुक्त भयंकर हवा चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाएं क्षुब्ध हो उठी। तब द्रोण, विकर्ण, जयद्रथ, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, कृपाचार्य, श्रुतायु, राजा अम्बष्ठपति, विन्द, अनुविन्द, सुदक्षिण, पुर्वीय नरेशगण, सौवीरदेशीय क्षत्रियगण, वसाति, क्षुद्रक और मालवगण- ये सभी शान्तनुनन्दन भीष्म की आज्ञा के अनुसार चलते हुए तुरन्त ही किरीटधारी अर्जुन का सामना करने के लिये निकट चले आये। सात्यकि ने दूर से देखा, किरीटधारी अर्जुन घोडे़, पैदल तथा रथियों सहित कई लाख सैनिकों से घिर गये हैं, गजराज यूथपतियों ने भी उन्‍हें सब ओर से घेर रखा है।

      तत्‍पश्‍चात पैदल, हाथी, घोडे़ और रथों द्वारा चारों ओर से आक्रान्त हुए शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन को देखकर शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि तुरंत वहाँ आ पहुँचे। महाधनुर्धर शिनिवीर सात्यकि ने सहसा उन सेनाओं के समीप पहुँचकर अर्जुन की उसी प्रकार सहायता की, जैसे भगवान विष्णु, वृत्रविनाशक इन्द्र की सहायता करते हैं। युधिष्ठिर की सेना के हाथी, घोड़े, रथ और ध्वजाओं के समूह तितर-बितर हो गये थे। भीष्म ने उनके सम्पूर्ण योद्धाओें को भयभीत कर दिया था।

     इस प्रकार युधिष्ठिर के सैनिकों को भागते देख शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि ने उनसे कहा,

    सात्यकि ने कहा ;- ‘क्षत्रियों! कहाँ जा रहे हो? प्राचीन महापुरुषों द्वारा यह श्रेष्ठ क्षत्रियों का धर्म नहीं बताया गया है। वीरों! अपनी प्रतिज्ञा न छोड़ो, अपने वीर धर्म का पालन करो’। इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण ने उन श्रेष्ठ राजाओं को सब और भागते देखा और इस बात पर भी लक्ष्य किया कि अर्जुन जो कोमलता के साथ युद्ध कर रहा है और भीष्म इस संग्राम में अधिकाधिक प्रचण्ड होते जा रहे हैं। यह सब देख कर सम्पूर्ण यदुकुल का भरण-पोषण करने वाले महात्मा भगवान श्रीकृष्ण सहन न कर सके। उन्‍होंने समस्त कौरवों को सब ओर से आक्रमण करते देख यशस्वी वीर सात्यकि की प्रशंसा करते हुए कहा-

     ‘शिनिवंश के प्रमुख वीर! सात्वतरत्न! जो भाग रहे हैं, वे भाग जायँ। जो खडे़ हैं, वे भी चले जायँ। मैं इन लोगों का भरोसा नहीं करता, तुम देखो में अभी संग्राम भूमि में सहायक गणों के साथ भीष्म और द्रोणाचार्य को रथ से मार गिराता हूँ। सात्वत वीर! आज कौरव सेना का कोई भी रथी क्रोध में भरे हुए मुझ कृष्ण के हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। मै अपना भयंकर चक्र लेकर महान व्रतधारी भीष्म के प्राण हर लूंगा। सात्यके! सहायकगणों सहित भीष्म और द्रोण- इन दोनों वीर महारथियों को युद्ध में मारकर मैं अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव को प्रसन्न करुंगा। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा उनके पक्ष में आये हुए सभी श्रेष्ठ नरेशों को मारकर मैं प्रसन्नतापूर्वक आज अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर को राज्य से सम्पन्न कर दूंगा'।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 88-98 का हिन्दी अनुवाद)

   संजय कहते हैं ;- ऐसा कहकर महानुभाव श्रीकृष्ण ने अपने पुरातन एवं तीक्ष्ण आयुध सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। उनके चिन्तन करने मात्र से ही वह स्वयं उनके हाथ के अग्रभाव में प्रस्तुत हो गया। उस चक्र की नाभि बड़ी सुन्दर थी। उसका प्रकाश सूर्य के समान और प्रभाव वज्र के तुल्य था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वसुदेवनन्दन महात्मा भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर हाथ में उस चक्र को घुमाते हुए रथ से कूद पड़े और जिस प्रकार सिंह बढ़े हुए घमंड वाले मदान्ध एवं उन्मत्त गजराज को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर झपटे, उसी प्रकार वे भी अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को कँपाते हुए युद्धस्थल में भीष्म की ओर बड़े वेग से दौड़े। देवराज इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण समस्त शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते थे। वे उन सेना के मध्यभाग में कुपित होकर जिस समय भीष्म की और झपटे, उस समय उनके श्याम विग्रह पर लटककर हवा के वेग से फहराता हुआ पीताम्बर छोर उन्‍हें ऐसी शोभा दे रहा था, मानो आकाश में बिजली से आवेष्टित हुआ श्याम मेघ सुशोभित हो रहो हो। श्रीकृष्ण की सुन्दर भुजारूपी विशाल नाल से सुशोभित वह सुदर्शनचक्र कमल के समान शोभा पा रहा था, मानो भगवान नारायण के नाभि से प्रकट हुआ प्रातःकालीन सूर्य के समान कान्ति वाला आदि कमल प्रकाशित हो रहा था।

      श्रीकृष्ण के क्रोधरूपी सूर्योदय से वह कमल विकसित हुआ था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वे ही मानो उनके सुन्दर दल थे। भगवान के श्रीविग्रहरूपी महान सरोवर में ही वह बढ़ा हुआ था और नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण की बाहुरूपी नाल उसकी शोभा बढ़ा रही थी। महेन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण कुपित हो हाथ में चक्र उठाये बड़े जोर से गरज रहे थे। उन्‍हें इस रूप में देखकर कौरवों के संहार का विचार करके सभी प्राणी हाहाकार करने लगे। वे जगद्गुरु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हाथ में चक्र ले मानो सम्पूर्ण जगत का संहार करने के लिये उद्यत थे और समस्त प्राणियों को जलाकर भस्म कर डालने के लिये उठी हुई प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। भगवान को चक्र लिये अपनी ओर वेगपूर्वक आते देख शान्तनुनन्दन भीष्म उस समय तनिक भी भय तथा घबराहट अनुभव न करते हुए दोनों हाथों से गाण्डीव धनुष के समान गम्भीर घोष करने वाले अपने महान धनुष को खींचने लगे। उस समय युद्ध स्थल में भीष्म के चित्त में तनिक भी मोह नहीं था।

     वे अनन्त पुरुषार्थशाली भगवान श्रीकृष्ण का आह्वान करते हुए बोले,

    भीष्म बोले ;- ‘आईये, आईये, देवेश्वर! जगन्निवास! आपको नमस्कार है। हाथ में चक्र लिये आये हुए माधव! सबको शरण देने वाले लोकनाथ! आज युद्धभूमि में बलपूर्वक इस उत्तम रथ से मुझे मार गिराइये। श्रीकृष्ण! आज आपके हाथ से यदि मैं मारा जाऊँगा तो इहलोक और परलोक में भी मेरा कल्याण होगा। अन्धक और वृष्णिकुल की रक्षा करने वाले वीर! आपके इस आक्रमण से तीनों लोकों मे मेरा गौरव बढ़ गया’।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितमअध्याय के श्लोक 99-111 का हिन्दी अनुवाद)

      मोटी, लम्बी और उत्तम भुजाओं वाले यदुकुल के श्रेष्ठ वीर भगवान श्रीकृष्ण को आगे बढ़ते देख अर्जुन भी बड़ी उतावली के साथ रथ से कूदकर उनके पीछे दौडे़ और निकट जाकर भगवान की दोनों बाहें पकड़ लीं। अर्जुन की भुजाएं भी मोटी और विशाल थीं। आदिदेव आत्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण बहुत रोष में भरे हुए थे। वे अर्जुन के पकड़ने पर भी रुक न सके। जैसे आंधी किसी वृक्ष को खींचे लिये चली जाये, उसी प्रकार वे भगवान विष्णु अर्जुन को लिये हुए भी बड़े वेग से आगे बढ़ने लगे। राजन्! तब किरीटधारी अर्जुन ने भीष्म के निकट बड़े वेग से जाते हुए श्रीहरि के चरणों को बलपूर्वक पकड़ लिया और किसी प्रकार दसवें कदम पर पहुँचते-पहुँचते उन्‍हें रोका। जब श्रीकृष्ण खडे़ हो गये, तब सुवर्ण का विचित्र हार पहने हुए अर्जुन ने अत्‍यंत प्रसन्न हो उनके चरणों में प्रणाम करके कहा- ‘केशव! आप अपना क्रोध रोकिये। प्रभो! आप ही पाण्‍डवों के परम आश्रय हैं। केशव! अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कर्तव्य का पालन करुंगा, उसका त्याग कभी नहीं करुंगा, यह बात मैं अपने पुत्रों और भाईयों की शपथ खाकर कहता हूँ। उपेन्द्र! आपकी आज्ञा मिलने पर मैं समस्त कौरवों का अंत कर डालूंगा।'

      अर्जुन की यह प्रतिज्ञा और कर्तव्य-पालन का यह निश्चय सुनकर भगवान श्रीकृष्ण का मन प्रसन्न हो गया। वे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन का प्रिय करने के लिये उद्यत हो पुनः चक्र लिये रथ पर जा बैठे। शत्रुओं का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण पुनः घोड़ों की बागडोर सँभाली और पांचजन्य शंख लेकर उनकी ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित कर दिया। उस समय उनके कण्ठ का हार, भुजाओं के बाजूबन्द और कानों के कुण्डल हिलने लगे थे। उनके कमल के समान सुन्दर नेत्रों पर सेना से उठी हुई धूल बिखरी थी। उनकी दन्तावली शुद्ध एवं स्वच्छ थी और उन्‍होंने अपने हाथ में शंख ले रखा था। उस अवस्था में श्रीकृष्ण को देखकर कौरव पक्ष के प्रमुख वीर कोलाहल कर उठे। तत्‍पश्‍चात कौरवों के सम्पूर्ण सैन्यदलों में मृदंग, भेरी, पणव तथा दुन्दुभि की ध्वनि होने लगी। रथ के पहियों की घरघराहट सुनायी देने लगी। वे सभी शब्द वीरों के सिंहनाद से मिलकर अत्यन्त उग्र प्रतीत हो रहे थे। अर्जुन के गाण्डीव धनुष का गम्भीर घोष मेघ की गर्जना के समान आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया तथा उनके धनुष से छूटे हुए निर्मल एवं स्वच्छ बाण सम्पूर्ण दिशाओं में बरसने लगे।

     संजय कहते हैं ;- महाराज! उस समय कौरवराज दुर्योधन हाथ में धनुष-बाण लिये बड़े वेग से अर्जुन के सामने आया, मानो घास-फूँस जलाने के लिये प्रज्वलित आग बढ़ती चली जा रही हो। भीष्म और भूरिश्रवा ने भी दुर्योधन का साथ दिया। तदनन्तर भूरिश्रवा ने सोने के पंख से युक्त सात भल्ल अर्जुन पर चलाये। दुर्योधन ने भयंकर वेगशाली तोमर का प्रहार किया। शल्य ने गदा और शान्तनुनन्दन भीष्म ने शक्ति चलायी। अर्जुन ने सात बाणों से भूरिश्रवा के छोड़े हुए सातों भल्लों को काटकर तीखे छुरे से दुर्योधन की भुजाओं से मुक्त हुए उस तोमर को भी नष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 112-126 का हिन्दी अनुवाद)

      तत्‍पश्चात् वीर अर्जुन ने शान्तनुनन्दन भीष्म की छोड़ी हुई बिजली के समान चमकीली और शोभामयी शक्ति को तथा मद्रराज शल्य की भुजाओं से मुक्त हुई गदा को भी दो बाणों से काट दिया। तदनन्तर अप्रमेय शक्तिशाली विचित्र गाण्डीव धनुष दोनों भुजाओं से बलपूर्वक खींचकर अर्जुन ने विधिपूर्वक अत्यन्त भयंकर महेन्द्र अस्त्र को प्रकट किया। वह अदभुत अस्त्र अंतरिक्ष में चमक उठा। फिर किरीटधारी महामना महाधनुर्धर अर्जुन ने उस उत्तम अस्त्र द्वारा निर्मल एवं अग्नि के समान प्रज्जलित बाणों का जाल-सा बिछाकर कौरवों के समस्त सैनिकों को आगे बढ़ने से रोक दिया। अर्जुन ने धनुष से छूटे हुए बाण शत्रुओं के रथ, ध्वजाग्र, धनुष और बाहु काटकर नरेशों, गजराजों तथा घोड़ों के शरीर में घुसने लगे। तदनन्तर तीखी धार वाले बाणों से युद्धस्थल में सम्‍पूर्ण दिशाओं और कोणों की आच्छादित करके किरीटधारी अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार से कौरवों के मन में भारी व्यर्था उत्पन्न कर दी।

     इस प्रकार उस अत्यन्त भयंकर युद्ध में शंख-ध्वनि, दुन्दुभि-ध्वनि तथा घोड़ों और रथ के पहियों के भयंकर शब्द गाण्डीव धनुष की टंकार के सामने दब गये। तब उस गाण्डीव के शब्द को पहचानकर राजा विराट आदि प्रमुख वीर और वीरवर पांचालराज द्रुपद- ये सभी उदारचित नरेश उस स्थान पर आ गये। जहां-जहाँ गाण्डीव धनुष की टंकार होती, वहां-वहाँ आप के सारे सैनिक मस्तक टेक देते थे। कोई भी उसके प्रतिकूल आक्रमण नहीं करता था। राजाओं के उस भयानक संग्राम में रथ, घोड़े और सारथि सहित बड़े-बड़े वीर मारे गये। सुन्दर सुनहरे रस्सों से कसे हुए, बड़ी-बड़ी पताकाओं वाले हाथी नाराचों की मार से पीड़ित हो शक्ति और चेतना खोकर सहसा धराशायी हो गये। कुन्तीकुमार अर्जुन के भयंकर वेग वाले तीखे एवं पंखयुक्त निर्मल भल्लों से गहरी चोट पड़ने पर कवच और शरीर दोनों के विदीर्ण हो जाने से कौरव सैनिक सहसा प्राणशून्य होकर गिर जाते थे। युद्ध के मुहाने पर जिनके यन्त्र कट गये और इन्द्रकील नष्ट हो गये थे, ऐसे बड़े-बड़े ध्वज छिन्न-भिन्न होकर गिरने लगे। अब संग्राम में अर्जुन के बाणों से घायल पैदलों के समूह, रथी, घोड़े आदि हाथी शीघ्र ही सत्त्वशून्‍य होकर अपने अंगों को पकडे़ हुए पृथ्वी पर गिरने लगे।

      राजन! उस महान ऐन्द्रास्त्र से समरभूमि में सभी सैनिकों के शरीर और कवच छिन्न-भिन्न हो गये। उस समय समरांगण में किरीटधारी अर्जुन ने अपने तीखे बाण समूहों द्वारा योद्धाओं के शरीर में लगे हुए आघात से निकलने वाले रक्त की एक भयंकर नदी बहा दी; जिसमें मनुष्‍यों के मेदे फेन के समान जान पड़ते थे। वह नदी बड़े वेग से बह रही थी। उसका प्रवाह पुष्ट था। मरे हुए हाथी, घोड़ों के शरीर तटों के समान प्रतीत होते थे। राजाओं के मज्जा और मांस कीचड़ के समान थे। बहुत-से राक्षस और भूतगण उनका सेवन करते थे। मुर्दों की खोपड़ियों के केश से वार का भ्रम उत्पन्न करते थे। सहस्रों शरीर उसमें जल-जन्तुओं के समान बह रहे थे। छिन्न-भिन्न होकर बिखरे हुए कवच लहरों के समान उसमें सर्वत्र व्याप्त थे। मनुष्‍यों, घोड़ों और हाथियों की कटी हुई हड्डियां छोटे-छोटे कंकड़ पत्थरों का काम दे रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 127-139 का हिन्दी अनुवाद)

      उसके दोनों किनारों पर कुत्ते, कौवे, भेड़िये, गीध, कंक, तरक्षु तथा अन्यान्य मासभक्षी जंतु निवास करते थे। उस भयानक नदी को लोगों ने महावैतरणी के समान देखा। अर्जुन के बाणसमूहों से उस नदी का प्राकट्य हुआ था। वह चर्बी, मज्जा, तथा रक्त बहाने के कारण बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। इस प्रकार कौरव सेना के प्रधान-प्रधान वीर अर्जुन के द्वारा मारे गये। यह देखकर चेदि, पांचाल, करूष और मत्‍स्‍यदेश के क्षत्रिय तथा कुन्ती के पुत्र- ये सभी नरवीर विजय पाने से निर्भय हो कौरव योद्धाओं को भयभीत करते हुए एक साथ सिंहनाद करने लगे। शत्रुओं को भय देने वाले किरीटधारी अर्जुन के द्वारा कौरव सेना के प्रमुख वीरों को मारे गये देख पाण्डव पक्ष के वीरों को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। गाण्डीवधारी अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण मृगों के यूथों को भयभीत करने वाले सिंह के समान कौरव सेनापतियों की सारी सेना को संत्रस्त करके अत्यन्त हर्ष से भरकर गर्जना करने लगे।

      इस प्रकार शस्त्रों के आघात से अत्यन्त क्षत-विक्षत अंगों वाले भीष्म, द्रोण, दुर्योधन, वाह्लीक तथा अन्य कौरव योद्धाओं ने सूर्य देव को अपनी किरणों को समेटते देख और उस भयंकर ऐन्द्रास्त्र को प्रलयकर अग्नि के समान सर्वत्र व्याप्त एवं असंहार हुआ जानकर सूर्य की लीला से युक्त संध्या एवं निशा के आरम्भ काल का अवलोकन कर सेना को युद्धभूमि से लौटा लिया। धनंजय भी शत्रुओं को जीतकर एवं लोक में सुयश और सुकीर्ति पाकर भाईयों तथा राजाओं के साथ सारा कार्य समाप्त करके निशा के आरम्भ में अपने शिविर को लौट गये। उस समय रात्रि के आरम्भ में कौरवों के दल में बड़ा भयंकर कोलाहल होने लगा। वे आपस में कहने लगे-

      ‘आज अर्जुन ने रणक्षेत्र में दस हजार रथियों का विनाश करके सात सौ हाथी मार डाले है। प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव सभी क्षत्रियगणों को मार गिराया। धनंजय ने जो महान पराक्रम किया है, उसे दूसरा कोई वीर नहीं कर सकता। श्रुतायु, राजा अम्बष्ठपति, दुर्मर्षण, चित्रसेन, द्रोण, कृप, जयद्रथ, बाल्हिक, भूरिश्रवा, शल्य और शल- ये तथा और भी सैकड़ों योद्धा क्रोध में भरे हुए लोकमहारथी, किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा रणभूमि में अपनी ही भुजाओं के पराक्रम से भीष्मसहित परास्त किये गये है’। भारत! उपर्युक्त बातें कहते हुए आपके समस्त सैनिक सहस्रों जलती हुई मसाले तथा प्रकाशमान दीपों के उजाले में अपने-अपने शिविर में गये। कौरव सेना के सम्पूर्ण सैनिकों पर अर्जुन का त्रास छा रहा था। इसी अवस्था में उस सेना ने रात में विश्राम किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में तीसरे दिन सेना के विश्राम के लिये लौटने से सम्बन्ध रखने वाला उनसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

साठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षष्ठितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“चौथे दिन-दोनों सेनाओं का व्यूहनिर्माण तथा भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ-युद्ध”

      संजय कहते हैं ;- भारत! तब रात बीती और प्रभाव हुआ, तब भरतवंशियों की सेना के अग्रभाग में स्थित हुए महामना भीष्म समग्रसेना से घिरकर शत्रुओं से युद्ध करने के लिये चले। उस समय उनके मन में शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध था। उसके साथ चारों और से द्रोण, दुर्योधन, बाल्हिक, दुर्मर्षण, चित्रसेन, अत्यन्त बलवान जयद्रथ तथा अन्य नरेश विशालवाहिनी को साथ लिये प्रस्थित हुए। राजन! इन महान, तेजस्वी, पराक्रमी और महारथी नरपतियों से घिरा हुआ राजा दुर्योधन देवताओं सहित वज्रपाणि इन्द्र के समान शोभा पा रहा था। इस सेना प्रमुख भाग में बड़े-बड़े गजराजों के कंधों पर लगी हुई लाल, पीली, काली और सफेद रंग की फहराती हुई विशाल पताकाएं शोभा पा रही थी। शान्तनुनन्दन भीष्म से रक्षित वह विशालवाहिनी बड़े-बड़े रथों, हाथियों और घोड़ों से ऐसी शोभा पा रही थी, मानो वर्षाकाल में मेघों की घटा से आच्छादित आकाश बिजली सहित बादलों से सुशोभित हो।
      तदनन्तर नदी के भयानक वेग की भाँति कौरवों की वह अत्यन्त भयंकर सेना शान्तनुनन्दन भीष्म से सुरक्षित हो रण के लिये अर्जुन की और सहसा चली। महामना कपिध्वज अर्जुन ने दूर से देखा कि कौरव सेना व्याल नामक व्यूह में आबद्ध होने के कारण अनेक प्रकार की दिखायी दे रही है। उसकी शक्ति छिपी हुई है। उसमें हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथियों के समूह से भरे हुए है। सेना का वह व्यूह महान मेघों की घटा के समान जान पड़ता है।
       तदनन्तर नरश्रेष्ठ महामना वीर अर्जुन समस्त शत्रुपक्षीय युवकों के वध का संकल्प लेकर श्वेत घोड़ों से जूते हुए ध्वज एवं आवरण से युक्त रथ पर आरूढ़ हो शत्रुसेना के सामने चले। जिसमें सब सामग्री सुन्दरता से सजाकर रखी गयी थी, अच्छी तरह बँधी होने के कारण जिसकी ईषा अत्यन्त मनोहर दिखायी देती है तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण जिसका संचालन करते है, उस वानर के चिह्न वाली ध्वजा से युक्त रथ को युद्धभूमि में उपस्थित देख आपके पुत्रों सहित समस्त कौरव सैनिक विषादमग्न हो गये। लोकविख्यात महारथी किरीटधारी अर्जुन अस्त्र-शस्त्र लेकर जिसे सुरक्षित रूप से अपने साथ ले आ रहे थे और जिसमें चार चार हजार मतवाले हाथी प्रत्येक दिशा में खडे़ किये गये थे, उस व्यूहराज को आपके सैनिकों ने देखा।
       कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने पहले दिन जैसा व्‍यूह बनाया था, वैसा ही वह भी था। वैसा व्‍यूह इस भूतल पर मनुष्‍यों की सेना में पहले कभी न तो देखा गया और न कभी सुना ही गया था। तदनन्तर सेनापति की आज्ञा के अनुसार यथोचित स्थान पर पहुँचकर पांचाल और चेदिदेश के प्रमुख वीर खडे़ हुए। फिर उस युद्धस्थल में प्रधान के आदेशानुसार सहस्रों रणभेरियां एक साथ बज उठी। सभी सेनाओं में शंखनाद, तुर्यनाद (वाघों की ध्वनि) तथा वीरो के सिंहनादसहित रथों की घरघराहट के शब्द होने लगे। फिर वीरों के द्वारा खींचे जाने वाले बाणसहित धनुष के महान टंकार-शब्द गूंज उठे। क्षणभर में भेरी और पणव आदि के शब्दों को महान शंखनादों ने दबा लिया तथा उस शंखध्वनि से व्याप्त हुए आकाश में (पृथ्वी से) उठी हुई धुलों का भयंकर एवं अदभुत जाल सा फैल गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षष्ठितम अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

      तदनन्तर महान प्रभावशाली वीर सूर्यदेव का प्रकाश देखकर सहसा शत्रुमण्डली पर टूट पड़े। रथी-रथी से भिड़कर सारथि, घोड़े, रथ और ध्वजसहित मरकर गिरने लगा। हाथी हाथी के आघात से और पैदल पैदल की चोट से धराशायी होने लगे। श्रेष्ठ घोड़ों के समूह पर उत्तम अश्वों के समुदाय आक्रमण-प्रत्याक्रमण करते थे। ये सवारों द्वारा किये हुए खड्ग और प्रासों के आघात से घायल होकर भयंकर और अदभुत दिखायी देते थे। स्वर्णमय तारागणों के चिह्नों से विभूषित सूर्य के समान चमकीले कवच फरसों, तलवारों और प्रासों की चोट से विदीर्ण होकर धरती पर गिर रहे थे। दन्तार हाथियों के दांतों और सूंडों के आघात से रथ चूर-चूर हो जाने के कारण कितने ही रथी सारथि सहित धरती पर गिर पड़ते थे। कितने ही श्रेष्ठ रथियों ने बड़े-बड़े़ हाथियों को अपने बाणों से मारकर धराशायी कर दिया। हाथियों के वेग से कुचलकर कितने ही घुड़सवार और पैदल युवक मारे गये। वे उनके दांतो और नीचे के अंग से कुचलकर हताहत हो रहे थे। सहसा उनकी आर्त चीत्कार सुनकर सभी मनुष्‍यों को बड़ा खेद होता था। उस मुहूर्त में जबकि घुड़सवारों और पैदल युवकों का विकट संहार हो रहा था तथा हाथी, घोड़े और रथ सभी अत्यन्त घबराहट में पड़े हुए थे, महारथियों से घिरे हुए भीष्म ने वानरचिह्न से युक्त ध्वज वाले अर्जुन को देखा।
      भीष्म का ध्वज चार ताल वृक्षों से चिह्नित और ऊँचा था। उनके रथ में अच्छे घोड़े जूते हुए थे, जिनके वेग से वह रथ अदभुत शक्तिशाली जान पड़ता था। उस पर आरुढ़ होकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने किरीटधारी अर्जुन पर धावा किया, जो बाण और अशनि आदि महान दिव्यास्त्रों की दिप्ति से उदीप्त हो रहे थे। राजन! इसी प्रकार इन्द्रतुल्य प्रभावशाली इन्द्रकुमार अर्जुन पर द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य, विविंशति, दुर्योधन तथा भूरिश्रवा ने भी आक्रमण किया। तदनन्तर सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता, सोने के विचित्र कवच धारण करने वाले शूरवीर अर्जुनपुत्र अभिमन्यु ने एक श्रेष्ठ रथ के द्वारा वेगपूर्वक वहाँ पहुँचकर उन समस्त कौरव महारथियों पर धावा किया। अर्जुनकुमार का पराक्रम दूसरों के लिये असंहार था। वह उन कौरव महारथियों के बड़े-बड़े अस्त्रों को नष्ट करके यज्ञ मण्डप में महान मन्त्रों द्वारा हविष्य की आहुति पाकर प्रज्वलित हुई ज्वालामालाओं से अलंकृत भगवान अग्निदेव के समान शोभा पाने लगा।
      तदनन्तर उदार शक्तिशाली भीष्म ने रणभूमि में तुरन्त ही शत्रुओं के रक्तरूपी जल एवं फेन से भरी नदी बहाकर सुभद्राकुमार अभिमन्यु को टालकर महारथी अर्जुन पर आक्रमण किया। तब किरीटधारी अर्जुन ने हंसकर अदभुत पराक्रम दिखाते हुए गाण्डीव धनुष से छोडे़ और शिला पर रगड़कर तेज किये हुए विपाठ नामक बाणों के समूह से शत्रुओं के बड़े-बड़े अस्त्रों के जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया। तत्‍पश्‍चात अप्रतिहत पराक्रम वाले महामना कपिध्वज अर्जुन ने सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ भीष्म पर तुरन्त ही निर्मल भल्लों तथा बाणसमूहों की वर्षा आरम्भ कर दी। इसी प्रकार आपके सैनिकों ने देखा कि आकाश में कपिध्वज अर्जुन के बिछाये हुए महान अस्त्रजाल को भीष्म जी ने अपने अस्त्रों के आघात से उसी प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे भगवान सूर्य अन्धकार राशि को नष्ट कर देते हैं। इस तरह सत्पुरुषों में श्रेष्ठ भीष्म और अर्जुन में धनुषों की भयंकर टंकार से युक्त, दैन्यरहित द्वैरथ-युद्ध होने लगा, जिसे कौरव और सृंजय वीरों तथा दूसरे लोगों ने भी देखा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म और अर्जुन के द्वैरथ-युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला साठवां अध्याय पूरा हुआ)

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