सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-सेना की व्यूह रचना तथा दोनों दलों में शंख ध्वनि और सिंहनाद”
संजय कहते हैं ;- महाराज! उस अत्यन्त भयंकर अभेद्य क्रौंचव्यूह को अमिततेजस्वी अर्जुन के द्वारा सुरक्षित देखकर आपका पुत्र दुर्योधन आचार्य द्रोण, कृप, शल्य, भूरिश्रवा, विकर्ण, अश्वत्थामा और दुःशासन आदि सब भाईयों तथा वीरो! आप सब लोग नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार में कुशल तथा युद्ध की कला में निपूर्ण हैं। आप सभी महारथी हैं। आपमें से प्रत्येक योद्धा रणक्षेत्र में सेनासहित पांडवों का वध करने में समर्थ है। फिर सब लोग मिलकर उन्हें परास्त कर दें, इसके लिये तो कहना ही क्या है। भीष्म पितामह के द्वारा सुरक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है, परन्तु भीमसेन के द्वारा सुरक्षित इन पांडवों की यह सेना जीतने में सुगम है; अतः मेरी राय है कि संस्थान, शूरसेन, वेत्रिक, कुकुर, आरोचक, त्रिगर्त, मद्रक तथा यवन आदि देशों के लोग शत्रुंजय, दुःशासन, वीर विकर्ण, नन्द, उपनन्द, चित्रसेन तथा पारिभद्र के वीरों के साथ जाकर अपनी सेना को आगे रखते हुए भीष्म की ही रक्षा करेंं।
संजय कहते हैं ;- महाराज! दुर्योधन की यह बात सुनकर द्रोण आदि सभी महारथियों एवं राजाओं ने उस समय ‘तथास्तु’ कहकर उनकी बात मान ली। आर्य! तदनन्तर भीष्म, द्रोण तथा आपके पुत्रों ने मिलकर अपनी सेना का महान व्यूह बताया, जो पांडव-सैनिकों को बाधा पहुँचाने में समर्थ था। तदनन्तर बहुत बड़ी सेना द्वारा सब ओर से घिरे हुए भीष्म देवराज इन्द्र की भाँति विशालवाहिनी साथ लिये आगे-आगे चले। उनके पीछे प्रतापी वीर महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने युद्ध के लिये प्रस्थान किया। महाराज! उस समय कुन्तल, दशार्ण, मागध, विदर्भ, मेकल तथा कर्मप्रावरण आदि देशों के सैनिकों के साथ गान्धार, सिन्धु, सौवीर, शिवि तथा वसाति देशों के वीर क्षत्रिय युद्ध में शोभा पाने वाले भीष्म की रक्षा करने लगे। शकुनि ने अपनी सेना साथ लेकर द्रोणाचार्य को रक्षा में योग दिया। तत्पश्चात् अपने भाईयों सहित राजा दुर्योधन अत्यन्त हर्ष में भरकर अश्वातक, विकर्ण, अम्बष्ठ, कौसल, दरद, शक, क्षुद्रक तथा मालव आदि देशों के योद्धाओं के साथ सुबलपुत्र शकुनि की सेना का संरक्षण करने लगा।
भूरिश्रवा, शल, शल्य, आदरणीय राजा भगदत्त तथा अवंती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द उस सारी सेना के वामभाव की रक्षा कर रहे थे। सोमदत्तपुत्र भूरि, त्रिगर्तराज सुशर्मा, काम्बोजराज सुदक्षिण, श्रतायु तथा अच्युतायु -ये दक्षिणभाग में स्थित होकर उस सेना की रक्षा कर रहे थे। अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा अपनी विशाल सेना के साथ कौरव सेना के पृष्ठभाग में खड़े होकर उसका संरक्षण करते थे। केतुमान, वसुदान, काशिराज के पुत्र अभियू तथा अन्य अनेक देशों के नरेश सेना पृष्ठ के पोषक थे। भारत! तदनन्तर आपकी सेना के समस्त सैनिक हर्ष से उल्लसित हो प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाने और सिंहनाद करने लगे। उनका हर्षनाद सुनकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह प्रतापी भीष्म जोर-जोर से सिंहनाद करके अपना शंख बजाया। तदनन्तर शंख, भेरी, नाना प्रकार के पणव और आनक आदि अन्य बाजे सहसा बज उठे और उन सबका सम्मिलित शब्द सब ओर गूंज उठा।
तत्पश्चात श्वेत घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ पर बैठे भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने स्वर्णभूषित श्रेष्ठ शंखों को बजाने लगे। हृषीकेश ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त तथा भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महान शंख बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय तथा नकुल-सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाया। काशिराज, शैव्य, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, महारथी सात्यकि, पांचालवीर, महाधुनर्धर द्रौपदी के पांचों पुत्र- ये सभी बड़े-बड़े शंखों को बजाने और सिंहनाद करने लगे। वहाँ उन वीरों द्वारा प्रकट किया हुआ वह महान तुमुल घोष पृथ्वी और आकाश को निनादित करने लगा। महाराज! इस प्रकार ये हर्ष में भरे हुए कौरव-पांडव एक दूसरे को संताप देते हुए पुनः युद्ध के लिये रणक्षेत्र में जा पहुँचे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में कौरव-व्युहरचनाविषयक इक्यावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और अर्जुन का युद्ध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! इस प्रकार मेरे और पाण्डवों के सैनिकों की व्यूह रचना हो जाने पर उन श्रेष्ठ योद्धाओं ने किस प्रकार युद्ध प्रारम्भ किया?
संजय ने कहा ;- राजन्! आपके पुत्रों ने पाण्डवों के साथ जिस प्रकार युद्ध किया, वह बताता हूं, सुनिये। जब सब सेनाओं की व्यूह रचना हो गयी, तब समस्त सेना एक होकर एक अपार महासागर के समान प्रतीत होने लगी। उसमें सब ओर रथ आदि में आबद्ध सुन्दर ध्वजा फहराती दिखायी देती थी उसे देखकर सैनिकों के बीच में खड़ा हुआ आपका पुत्र दुर्योधन आपके सभी योद्धाओं से इस प्रकार बोला- ‘कवचधारी वीरो! युद्ध आरम्भ करो’।
तब उन सबने मन को कठोर बनाकर प्राणों का मोह छोड़कर ऊची ध्वजाएं फहराते हुए पाण्डवों पर आक्रमण किया। फिर तो आपके और पाण्डवों के सैनिकों में रोमांचकारी घमासान युद्ध होने लगा। उसमें उभय पक्ष के रथ और हाथी एक दूसरे से गुँथ गये थे। रथियों के छोडे़ हुए सुवर्णमय पंखयुक्त तेजस्वी बाण कही भी कुण्ठित न होकर हाथियों और घोड़ों पर पड़ने लगे। इस प्रकार युद्ध आरम्भ हो जाने पर भयंकर पराक्रमी एवं कुरूकुल के प्रभावशाली वृद्ध पितामह महाबाहु भीष्म धनुष उठाये कवच बांधे सहासा आगे बढ़े और अभिमन्यु, भीमसेन, महारथी सात्यकि, कैकय, विराट एवं द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न इन सब नरवीरों पर और चेदि तथा मत्स्यदेशीय योद्धाओं पर बाणों की वर्षा करने लगे। वीरों के इस संघर्ष में सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और सभी सैनिकों का आपस में महान सम्मिश्रण हो गया। घुड़सवार, ध्वजा धारण करने वाले सैनिक तथा उत्तम घोडे़ मारे गये। पाण्डवों की रथसेना पलायन करने लगी।
तब नरश्रेष्ठ अर्जुन ने महारथी भीष्म को देखकर भगवान श्रीकृष्ण से कुपित होकर कहा,
अर्जुन ने कहा ;- वार्ष्णेय! जहाँ पितामह भीष्म हैं, वहाँ चलिये। अन्यथा ये भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर निश्चय ही मेरी सारी सेना का विनाश कर डालेंगे क्योंकि इस समय ये दुर्योधन के हित में तत्पर है। जनार्दन! सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले भीष्म के द्वारा सुरक्षित हो ये द्रोण, कृप, शल्य, विकर्ण तथा दुर्योधन आदि समस्त धृतराष्ट्रपुत्र मिलकर पांचाल योद्धाओं का संहार कर डालेंगे। अतः सेना की रक्षा के लिये मै भीष्म का वध कर डालूंगा।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- धनंजय! सावधान हो जाओ। अभी तुम्हे भीष्म के रथ के समीप पहुँचाये देता हूँ।
जनेश्वर! ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने उस विश्वविख्यात रथ को भीष्म जी के रथ के निकट पहुँचा दिया। उस रथ पर बहुत-सी पताकाएं फहरा रही थी। उसमें बकपंक्ति के समान श्वेत वर्ण वाले चार घोडे़ जुते हुए थे। उसके अत्यन्त ऊंचे ध्वज के ऊपर एक वानर भयंकर गर्जना करता था। उस रथ के पहियों की घरघराहट मेघ की गर्जना के समान गम्भीर थी तथा वह रथ अनन्त तेज (कांति) से सम्पन्न था। उस विशाल रथ पर आरूढ़ हो पाण्डुनन्दन अर्जुन, जो सबको शरण देने वाले और सुहृदों का आनंद बढ़ाने वाले थे, कौरवसेना एवं शूरसेन देशीय योद्धा का वध करते हुए शीघ्रतापूर्वक भीष्म के पास गये। महाराज! कुरुकुल के पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कर्ण के सिवा दूसरा कौन ऐसा रथी है, जो गाण्डीवधारी अर्जुन का सामना कर सके।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-49 का हिन्दी अनुवाद)
नरेश्वर! तदनन्तर सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी भीष्म ने अर्जुन पर सतहत्तर बाण चलाये, द्रोण ने पच्चीस, कृपाचार्य ने पचास, दुर्योधन ने चौसठ, शल्य ने नौ, जयद्रथ ने नौ, शकुनि ने पांच तथा विकर्ण ने दस भल्ल नाम बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन को बींध डाला। इन समस्त तीखे बाणों द्वारा चारों और से विद्ध होने पर भी महाधनुर्धर महाबाहु अर्जुन तनिक भी व्यथित नहीं हुए। ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी पर्वत को बाणों से बींध दिया हो। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात अमेय आत्मबल से सम्पन्न, किरीटधारी पुरुषसिंह अर्जुन ने भीष्म को पच्चीस, कृपाचार्य को नौ, द्रोण को साठ, विकर्ण को तीन, शल्य को तीन, तथा राजा दुर्योधन को पांच बाणों से घायल कर दिया। उस समय सात्यकि, विराट, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पांचों पुत्र अभिमन्यु- इन सब ने अर्जुन को उनकी रक्षा के लिये चारों और से घेर लिया।
तदनन्तर गंगानन्दन भीष्म का प्रिय करने में लगे हुए महाधनुर्धर द्रोणाचार्य पर सोमकों सहित धृष्टद्युम्न ने आक्रमण किया। राजन्! तब रथियों में श्रेष्ठ भीष्म ने पाण्डुनंदन अर्जुन को अस्सी पैने बाण मारकर बींध डाला। यह देखकर आपके सैनिक हर्ष से कोलाहल करने लगे। उन समस्त कौरवों का हर्षनाद सुनकर प्रतापी पुरुषसिंह अर्जुन ने उनकी सेना के भीतर प्रवेश किया। राजन! उन महारथियों के भीतर पहुँचकर अर्जुन उन सबको अपने बाणों का निशाना बनाकर धनुष से खेल करने लगे। तब प्रजा पालक राजा दुर्योधन अर्जुन के द्वारा अपनी सेना को पीड़ित हुई देख भीष्म से कहा- तात! ये पाण्डु बलवान पुत्र अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ आकर समस्त सैन्यों के प्रयत्नशील होने पर भी हम लोगों का मूलोच्छेद कर रहे है। गंगानन्दन! आपके तथा रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य के जीते-जी हमारे सैनिक मारे जा रहे है।
राजन! दुर्योधन के ऐसा कहने पर आपके पितृ-तुल्य भीष्म ‘क्षत्रिय-धर्म को धिक्कार है’ ऐसा कहकर अर्जुन के रथ की और चले। महाराज! उन दोनों के रथों में श्वेत घोडे़ जुते हुए थे। आर्य! उन्हे एक दूसरे से भिड़े हुए देख सब राजा जोर-जोर से सिंहनाद करने और शंख फूँकने लगे। आर्य! उस समय अश्वत्थामा, दुर्योधन और आपके पुत्र विकर्ण-ये सभी समरांगण में भीष्म को घेरकर युद्ध के लिये खड़े थे। इसी प्रकार समस्त पाण्डव भी अर्जुन को सब ओर से घेरकर महायुद्ध के लिये वहाँ डटे हुए थे, अतः उनमें भारी युद्ध छिड़ गया। गंगानन्दन भीष्म ने उस रणक्षेत्र में नौ बाणों से अर्जुन को गहरी चोट पहुँचायी। तब अर्जुन ने भी उन्हें दस मर्म भेदी बाणों द्वारा बींध डाला।
तदनन्तर युद्ध की श्लाघा रखने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अच्छी तरह छोडे़ हुए एक हजार बाणों द्वारा भीष्म को सब ओर से रोक दिया। माननीय महाराज! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म ने अर्जुन के इस बाणसमूह का अपने बाणसमूह से निवारण कर दिया। वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष में भरकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे। दोनों ही दोनों के किये हुए प्रहार का प्रतीकार करते हुए समान भाव से युद्ध करने लगे। भीष्म के धनुष से छूटे हुए सायकों के समुह अर्जुन के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर बिखरे दिखायी देने लगे। इसी प्रकार अर्जुन के छोडे़ हुए बाणसमूह गंगानन्दन भीष्म के बाणों से छिन्न-भिन्न हो पृथ्वी पर सब ओर पड़े हुए थे। अर्जुन ने पच्चीस तीखे बाणों से मारकर भीष्म को पीड़ित कर दिया। फिर भीष्म ने भी समरभूमि में अपने तीक्ष्ण सायकों द्वारा अर्जुन को बींध दिया। वे दोनों शत्रुओं का दमन करने वाले तथा अत्यन्त बलवान थे। अतः एक दूसरे के घोड़ों, ध्वजाओं, रथ के ईषा-दण्ड तथा पहियों को बाणों से बींधकर खेल-सा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 50-72 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तदनन्तर प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ भीष्म ने कुपित होकर तीन बाणों से भगवान श्रीकृष्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन्! भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए उन बाणों से विद्ध होकर भगवान मधुसूदन रणभूमि में रक्तरंजित हो खिले हुए पलाश के वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। श्रीकृष्ण को घायल हुआ देख अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने तीखे सायकों द्वारा कुरुकुल वृद्ध भीष्म के सारथि को विदीर्ण कर डाला। इस प्रकार वे दोनों वीर एक दूसरे के वध के लिये पूरा प्रयत्न कर रहे थे तथापि वे युद्धभूमि में परस्पर अभिसंधान (घातक प्रहार) करने में सफल न हो सके। वे दोनों अपने सारथि की शक्ति तथा शीघ्रकारिता के कारण नाना प्रकार के विचित्र मण्डल, आगे बढ़ने और पीछे हटने आदि पैंतरे दिखाने लगे।
राजन! दोनों ही एक दूसरे के प्रहारों में छिद्र ढूढ़ने के लिये सर्तक थे। वे बारंबार छिद्रोन्वेषण के मार्ग में स्थित हो छिद्र देखने के लिये संलग्न रहते थे। वे दोनों महारथी सिंहनाद से मिला हुआ शंखनाद करते और धनुष की टंकार फैलाते रहते थे। उनकी शंखध्वनि तथा रथ के पहियों की घरघराहट से पृथ्वी सहसा विदीर्ण-सी होकर कांपने और आर्तनाद करने लगी। भरतश्रेष्ठ! वे दोनों वीर बलवान्, युद्ध में दुर्जय तथा एक दूसरे के अनुरूप थे। अत: ढूढ़ने पर भी कोई उनमें से किसी का अन्तर न देख सका। उस समय कौरवों ने भीष्म को तालध्वज आदि चिह्न मात्र से ही पहचाना। इसी प्रकार पाण्डुपुत्रों ने भी कपिध्वज आदि चिह्न मात्र से ही पार्थ की पहचान की। भारत! उस संग्राम में उन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों के वैसे पराक्रम को देखकर सम्पूर्ण प्राणी बड़े विस्मय में पड़ गये। भरतनन्दन! जैसे कोई धर्मनिष्ठ पुरुष में कहीं कोई पाप नहीं देख पाता, उसी प्रकार कोई भी रणक्षेत्र में उन दोनों योद्धाओं का छिद्र नहीं देख पाता था। दोनों ही संग्रामभूमि में एक दूसरे के बाणसमूहों से आच्छादित होकर अदृश्य हो जाते और उन्हे छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही प्रकाश में आ जाते थे।
वहाँ आये हुए देवता, गन्धर्व, चारण और महर्षिगण उन दोनों का पराक्रम देखकर आपस में कहने लगे कि ये दोनों महारथी वीर रोषावेश में भरे हुए है; अतः ये देवता, असुर और गन्धर्वों सहित सम्पूर्ण लोकों के द्वारा भी किसी प्रकार जीते नहीं जा सकते। वह अत्यन्त अद्भुत युद्ध यह सम्पूर्ण लोकों के लिये आश्चर्यजनक घटना है। भविष्य में ऐसे युद्ध होने की किसी प्रकार की सम्भावना नहीं है। बुद्धिमान पार्थ रणभूमि में भविष्य को कदापि जीत नहीं सकते क्योंकि वे समरभूमि में रथ, घोडे़ ओर धनुषसहित उपस्थित हो बाणों को बीज की भाँति बो रहे है। इसी प्रकार भीष्म भी युद्ध में देवताओं के लिये भी दुर्जय, गाण्डीवधारी पाण्डुपुत्र अर्जुन को जीतने में समर्थ नहीं हो सकते। यदि ये दोनों लड़ते रहे तो जब तक यह संसार स्थित है, तब तक इन दोनों का यह युद्ध समानरूप से ही चलता रहेगा। प्रजानाथ! इस प्रकार रणभूमि में भीष्म और अर्जुन की स्तुति प्रशंसा से युक्त बहुत सी बातें इधर-उधर लोगों के मुँह से निकलती और सुनायी देती थी।
संजय कहते हैं ;- भारत! उस समय वहाँ उन दोनों वीरों के पराक्रम करते समय युद्धस्थल में आपके और पाण्डवपक्ष के योद्धा भी एक दूसरे को मार रहे थे। तीखी धार वाले खड्गों, चमचमाते हुए फरसों, अन्य अनेक प्रकार के बाणों तथा भाँति-भाँति शस्त्रों से दोनों सेनाओं के शूरवीर एक दूसरे को मारते थे। राजन्! यहाँ एक और इस प्रकार भयानक तथा अत्यन्त दारुण युद्ध चल रहा था, वही दूसरी और द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में भयंकर मुठभेड़ हो रही थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व भीष्म और अर्जुन का युद्ध विषयक बावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का युद्ध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! महाधनुर्धर द्रोणाचार्य तथा द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ये दोनों वीर किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक आपस में युद्ध कर रहे हैं, वह सब वृत्तान्त मुझसे कहो। मैं तो पुरुषार्थ से अधिक प्रबल भाग्यों को ही मानता हूँ। और इसी पर विश्वास करता हूं, जिसके अनुसार शान्तनुनन्दन भीष्म युद्ध में पाण्डुपुत्र अर्जुन से पार न पा सके। संजय! भीष्म रणक्षेत्र में कुपित हो जाये तो वे चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण लोकों को मार सकते हैं। फिर वे अपने पराक्रम द्वारा युद्ध में पाण्डुकुमार अर्जुन से क्यों न पार पा सके।
संजय ने कहा ;- राजन्! पाण्डवों को तो इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं जीत सकते। अब आप इस अत्यन्त भयंकर युद्ध का वृत्तान्त स्थिर होकर सुनिये। द्रोणाचार्य ने अपने तीखे बाणों से धृष्टद्युम्न को घायल कर दिया और उसके सारथि को भल्ल के द्वारा मारकर रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। आर्य! क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने चार उत्तम सायकों से धृष्टद्युम्न के चारों घोड़ों को भी बहुत पीड़ा दी। तब धृष्टद्युम्न ने हंसकर नब्बे पैने बाणों से द्रोणाचार्य को घायल कर दिया और कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘खडे़ रहो, खडे़ रहो’। तदनन्तर अमेय आत्मबल से सम्पन्न प्रतापी द्रोणाचार्य ने पुनः अमर्षशील धृष्टद्युम्न को अपने बाणों से ढक दिया। तत्पश्चात् धृष्टद्युम्न का अन्त कर डालने की इच्छा से द्वितीय कालदण्ड के समान एक भयंकर बाण हाथ में लिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था।
भरतनन्दन! युद्ध में द्रोणाचार्य के द्वारा उस बाण का संधान होता देख सम्पूर्ण पाण्डव सेना में महान् हाहाकार मच गया। उस समय मैंने वहाँ धृष्टद्युम्न का अद्भुत पराक्रम देखा। वह वीर समरांगण में अकेला ही पर्वत के समान अविचल भाव से खड़ा रहा। अपने लिये मृत्यु बनकर आते हुए उस भयंकर तेजस्वी बाण को देखकर धृष्टद्युम्न ने तत्काल ही उसे काट गिराया और द्रोणाचार्य पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। धृष्टद्युम्न के द्वारा किये हुए उस अत्यन्त दुष्कर कर्म को देखकर पाण्डव सहित समस्त पांचाल वीर हर्ष से कोलाहल कर उठे। तदनन्तर द्रोणाचार्य की मृत्यु चाहने वाले पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न ने उसके ऊपर सुवर्ण और वैदूर्यमणि से भूषित अत्यन्त वेगशालिनी शक्ति चलायी। उस सुवर्णभूषित शक्ति को सहसा आती देख द्रोणाचार्य ने समरभूमि मैं हँसते-हँसते उसके तीन टुकडे़ कर दिये।
जनेश्वर! अपनी शक्ति को नष्ट हुई देख प्रतापी धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य पर पुनः बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। तब महातेजस्वी द्रोण ने उस बाण-वर्षा का निवारण करके द्रुपदपुत्र के धनुष को बीच से ही काट डाला। धनुष कट जाने पर महायशस्वी बलवान वीर धृष्टद्युम्न ने समरभूमि में द्रोणाचार्य पर एक लोहे की बनी हुई एक भारी गदा चलायी। द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक छोड़ी हुई वह गदा बड़े जोर से चली पर वहाँ हम लोगों ने उस समय द्रोणाचार्य का अद्भुत पराक्रम देखा। उन्होंने बड़ी फुर्ती से उस स्वर्णभूमि गदा को व्यर्थ कर दिया। इस प्रकार उस गदा को निष्फल करके द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न पर सुवर्णमय पंखों से युक्त अत्यन्त तीक्ष्ण पानीदार और भयंकर ‘भल्ल’ नामक बाण चलाये। वे बाण धृष्टद्युम्न का कवच छेदकर रणक्षेत्र में उनका रक्त पीने लगा। तब महातेजस्वी धृष्टद्युम्न ने दूसरा धनुष लेकर युद्ध में पराक्रमपूर्वक पांच बाण मारकर द्रोणाचार्य को क्षत-विक्षत कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! उस समय वे दोनों नरश्रेष्ठ लहुलुहान होकर वसंत ऋतु में खिले हुए दो पलाश वृ़क्षों की भाँति अत्यन्त शोभा पाने लगे। राजन्! तब उस सेना के अग्रभाग में खड़े हो अमर्ष में भरे हुए द्रोणाचार्य ने पराक्रम प्रकट करते हुए पुनः धृष्टद्युम्न का धनुष काट दिया। तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न द्रोणाचार्य ने जिसका धनुष कट गया था, उन धृष्टद्युम्न पर झुकी हुई गांठ वाले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेघ किसी पर्वत पर जल की बूंदे बरसा रहा हो। साथ ही उन्होंने भल्ल मारकर धृष्टद्युम्न के सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया और चार तीखे बाणों से उन चारों घोड़ों को भी मार गिराया। फिर वे समरांगण में जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने दूसरा बाण मारकर उनके हाथ में स्थित दूसरे धनुष को भी काट डाला। इस प्रकार धनुष कट जाने और घोडे़ और सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए धृष्टद्युम्न हाथ में गदा लेकर उतरने लगे।
भारत! इतने ही में अपने महान पौरूष का परिचय देते हुए द्रोणाचार्य ने तुरन्त ही बाण मारकर रथ से उतरते-उतरते ही उनकी गदा को भी गिरा दिया। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। तब सुन्दर बांहों वाले बलवान वीर धृष्टद्युम्न ने चन्द्राकार सौ फुल्लियों से सुशोभित तेजस्वी और विस्मृत ढाल तथा दिव्य एवं विशाल खग हाथ में लेकर द्रोण का वध करने की इच्छा से उनके ऊपर वेगपूर्वक आक्रमण किया। ठीक उसी तरह, जैसे मांस चाहने वाला सिंह वन में किसी मतवाले हाथी पर धावा करता है। भारत! उस समय हमने वहाँ द्रोणाचार्य का अद्भुत हस्त-लाघव, अस्त्र-प्रयोग, बाहुबल तथा पुरुषार्थ देखा। उन्होंने अपने बाणों की वर्षा से द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न को सहसा आगे बढ़ने से रोक दिया। अतः वे बलवान होने पर भी युद्ध में द्रोणाचार्य के पास तक न पहुँच सके।
द्रोणाचार्य से रोके गये महारथी धृष्टद्युम्न सिद्ध हस्त वीर पुरुष की भाँति अपनी ढाल से ही उनके बाण-समूहों का निवारण करने लगे। तब बलवान् वीर महाबाहु भीम सहसा समर में महामना धृष्टद्युम्न की सहायता करने के लिये आ पहुँचे। राजन्! उन्होंने सात पैर बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को घायल कर दिया और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न को तुरन्त ही अपने रथ पर चढ़ा लिया। महाराज! तब दुर्योधन ने विशाल सेना से युक्त भानुमान को द्रोणाचार्य की रक्षा के कार्य में नियुक्त किया। जनेश्वर! उस समय आपके पुत्र की आज्ञा के कलिंगदेशीय वीरों की वह विशाल सेना तुरन्त ही भीमसेन के सम्मुख आ पहुँची। तब रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी धृष्टद्युम्न को छोड़कर युद्ध स्थल में विराट और द्रुपद इन दोनों वृद्ध नरेशों को आगे बढ़ने से रोकने लगे। इधर धृष्टद्युम्न भी उस समरांगण में धर्मराज युधिष्ठिर के पास चले गये। तत्पश्चात् समरभूमि में कलिंगदेशीय योद्धाओं और महामनस्वी भीमसेन का अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। जो सम्पूर्ण जगत् का विनाश करने वाला घोर स्वरूप एवं महान् भयदायक था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में धृष्टद्युम्न और द्रोण का युद्धविषयक तिरपनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध, भीमसेन के द्वारा शुक्रदेव, भानुमान और केतुमान का वध तथा उनके बहुत से सैनिकों का संहार”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! दुर्योधन की आज्ञा पाकर सेनापति कलिंगराज ने अद्भुत पराक्रमी महाबली भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया? वीरवर भीमसेन जब गदा हाथ में लेकर विचरते हैं, तब गण्डधारी यमराज के समान जान पड़ते है। उस के साथ समरागंण में सेनासहित कलिंगराज ने किस प्रकार युद्ध किया?
संजय ने कहा ;- राजेन्द्र! आपके पुत्र का उपर्युक्त आदेश पाकर अपनी विशाल सेना से सुरक्षित हो महाबली कलिंगराज भीमसेन के रथ के पास गया। भारत! रथ, घोडे़, हाथी और पैदलों से भरी हुई कलिंगों की उस विशालवाहिनी को हाथों में बड़े-बड़े आयुध लिये आती देख चेदि देशीय सैनिकों के साथ भीमसेन ने उसे बाणों द्वारा पीड़ित करना आरम्भ किया। साथ ही युद्ध के लिये आते हुए निषादराज पुत्र केतुमान को भी चोट पहुँचायी। तब राजा केतुमान के साथ क्रोध में भरा हुआ श्रुतायु भी रणक्षेत्र में भीमसेन के सामने आया। उस समय चेदि देशीय सैनिकों की सेनाएं व्यूहबद्ध होकर खड़ी थी।
नरेश्वर! कलिंगों के कई सहस्र रथ और दस हजार हाथियों एवं निषादों के साथ केतुमान उस ऋणस्थल में भीमसेन को सब ओर से रोकने लगा। तब भीमसेन ने पदचिह्नों पर चलने वाले चेदि, मत्स्य तथा करूषदेश के क्षत्रियों ने समरभूमि में निषादों एवं उनके राजाओं पर आक्रमण किया। फिर तो दोनों दलों में अत्यन्त घोर और भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! उस समय एक-दूसरों को मार डालने की इच्छा रखकर सब योद्धा अपने और पराये की पहचान नहीं कर पाते थे। शत्रु के साथ भीमसेन का वह युद्ध सहसा उसी प्रकार अत्यंत भयंकर हो चला, जैसे विशाल दैत्य सेना के साथ देवराज इन्द्र का युद्ध हुआ करता था। भरतनन्दन! संग्रामभूमि में युद्ध करती हुई उस कलिंग सेना का महान् कोलाहल समुद्र की गर्जना के समान जान पड़ता था।
राजन्! उस समय सब योद्धाओं ने छिन्न-भिन्न होकर परस्पर एक दूसरे को खिंचते हुए वहाँ की सारी भूमि को अपनी रक्तरंजित लाशों से पाट दिया। वह भूमि खरगोश के रक्त की भाँति लाल दिखायी देने लगी। परम दुर्जय शूर सैनिक विपक्षी को मार डालने की अभिलाषा लेकर अपने और पराये को भी जान नहीं पाते थे। बहुधा अपने ही पक्ष के सैनिक अपने ही योद्धाओं को मारने के लिये पकड़ लेते थे। राजन्! इस प्रकार वहाँ बहुसंख्य कलिंगों और निषादों के साथ अल्पसंख्य चेदिदेशीय सैनिकों का बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। महाबली चेदि सैनिक यथाशक्ति पुरुषार्थ प्रकट करके भीमसेन को छोड़कर भाग चले।
चेदिदेशीय सैनिक के पलायन कर जाने पर समस्त कलिंग भीमसेन के निकट जा पहुँचे; तो भी महाबली पाण्डुनन्दन भीमसेन अपने बाहुबल का भरोसा करके पीछे नहीं हटे और न रथ की बैठक से तनिक भी विचलित हुए। वे कलिंगों की सेना पर अपने तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। महाधनुर्धर कलिंगराज और उसका महारथी पुत्र शुक्रदेव दोनों मिलकर पाण्डुनन्दन भीमसेन पर बाणों का प्रहार करने लगे। तब महाबाहु भीम ने अपने बाहुबल का आश्रय लेकर सुन्दर धनुष की टंकार फैलाते हुए कलिंगराज से युद्ध आरम्भ कर दिया। शुक्रदेव ने समरभूमि में बहुत से सायकों की वर्षा करते हुए उन सायकों द्वारा भीमसेन के घोड़ों को मार डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
शत्रुदमन भीमसेन को वहाँ रथहीन हुआ देख शक्रदेव तीखे बाणों की वर्षा करता हुआ उनकी और दौड़ा। राजन्! जैसे गर्मी के अन्त में बादल पानी की बूंदें बरसाता है, उसी प्रकार महाबली शक्रदेव भीमसेन के ऊपर बाणों की वृष्टि करने लगा। जिसके घोडे़ मारे गये थे, उसी रथ पर खड़े हुए महाबली भीमसेन ने शक्रदेव को लक्ष्य करके सम्पूर्णतः लोह के सारतत्त्व की बनी हुई अपनी गदा चलायी। राजन्! उस गदा की चोट खाकर कलिंगराजकुमार प्राणशून्य हो अपने सारथि और ध्वज के साथ ही रथ से नीचे पृथ्वी पर गिर पड़ा।
अपने पुत्र को मारा गया देख कलिंगराज ने कई हजार रथों के द्वारा भीमसेन की सम्पूर्ण दिशाओं को रोक दिया। नरश्रेष्ठ! तब भीमसेन ने अत्यन्त वेगशाली एवं भारी और विशाल गदा को वहीं छोड़कर अत्यन्त भयंकर कर्म करने की इच्छा से तलवार खींच ली तथा ऋषभ के चमडे़ की बनी हुई अनुपम ढाल हाथ में ले ली। राजन्! उस ढाल में सुवर्णमय नक्षत्र और अर्धचन्द्र के आकाश की फुलियां जड़ी हुई थी। इधर क्रोध में भरे हुए कलिंगराज ने धनुष की प्रत्यंचा को रगड़कर सर्प के समान विषैला एक भयंकर बाण हाथ में लिया और भीमसेन के वध की इच्छा से उन पर चलाया। राजन्! भीमसेन अपने विशाल खड्ग से उसके वेगपूर्वक चलाये हुए तीखे बाण के दो टुकडे़ कर दिये और कलिंगों की सेना को भयभीत करके हुए हर्ष में भरकर बड़े जोर से सिंहनाद किया।
तब कलिंगराज ने रणक्षेत्र में अत्यन्त कुपित हो भीमसेन पर तुरन्त ही चौदह तोमरों का प्रहार किया, जिन्हें सान पर चढ़ाकर तेज किया गया था। राजन्! वे तोमर अभी भीमसेन तक पहुँच ही नहीं पाये थे कि उन महाबाहु पाण्डुकुमार ने बिना किसी घबराहट के अपनी अच्छी तलवार से सहसा उन्हें आकाश में ही काट डाला। इस प्रकार पुरुषश्रेष्ठ भीमसेन ने रणक्षेत्र में उन चौदह तोमरों को काटकर भानुमान पर धावा किया। यह देख भानुमान ने अपने बाणों की वर्षा से भीमसेन को आच्छादित करके आकाश को प्रतिध्वनित करते हुए बड़े जोर से गर्जना की। भीमसेन उस महासमर में भानुमान की वह गर्जना न सह सके। उन्होंने और भी अधिक जोर से सिंह के दहाड़ना आरम्भ किया। उनकी उस गर्जना से कलिंगों की वह विशालवाहिनी संत्रस्त हो उठी।
भरतश्रेष्ठ! उस सेना के सैनिकों ने भीमसेन को युद्ध में मनुष्य नहीं, कोई देवता समझा। आर्य! तदनन्तर महाबाहु भीमसेन जोर जोर से गर्जना करके हाथ में तलवार लिये वेगपूर्वक उछलकर गजराज के दांतों के सहारे उसके मस्तक पर चढ़ गये। इतने ही में कलिंगराजकुमार ने उनके ऊपर शक्ति चलायी किंतु भीष्मसेन ने उनके दो टुकड़े कर दिये और अपने विशाल खंग से भानुमान के शरीर को बीच से काट डाला। इस प्रकार गजारूढ़ होकर युद्ध करने वाले कलिंग राजकुमार को मारकर शत्रुदमन भीमसेन ने भार सहने में समर्थ अपनी भारी तलवार को उस हाथी के कंधे पर भी मारा। कंधा कट जाने से वह गजयुथपति चिंग्घाड़ता हुआ समुद्र वेग से भग्न होकर गिरने वाले शिखरयुक्त पर्वत के समान धराशायी हो गया।
भारत! फिर कवचधारी, खगपाणि, उदारचित्त, भरतवंशी भीमसेन, उस हाथी से सहसा कूद कर धरती पर खडे़ हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)
फिर दोनों ओर घूम-घूमकर हाथियों को गिराते हुए वे अनेक मार्गों से विचरण करने लगे। उस समय घूमते हुए अलातचक्र की भाँति वे सब ओर दिखायी देते थे। प्रचण्डबल वाले महान् शक्तिशाली भीमसेन शत्रुओं के समूह में घुसकर उसके शरीर और मस्तक काटते हुए बाज पक्षी की तरह रणभूमि में विचरने लगे। उस रण-क्षेत्र में गजारूढ़ होकर युद्ध करने वाले योद्धाओं के मस्तकों को अपनी तीखी धार वाली तलवार से काटते हुए वे अकेले ही क्रोध में भर कर पैदल विचरते और शत्रुओं के भय को बढ़ाते थे। उन्होंने प्रलयकालीन यमराज के समान भयंकर रूप धारण करके उन सबको भय से मोहित कर दिया था। वे मूढ़ सैनिक गर्जना करते हुए उन्हीं के पास दौडे़ चले आते (और मारे जाते) थे। भीमसेन हाथ में तलवार लिये उस महान् संग्राम में बड़े वेग से विचरण करते थे। शत्रुओं का मर्दन करने वाले बलवान भीम युद्ध में रथरोहियों के रथों के ईषादण्ड और जुए काटकर उन रथियों का भी संहार कर डालते थे। उस समय पाण्डुनन्दन भीमसेन अनेक मार्गों पर विचरते हुए दिखायी देते थे। उन्होंने खंग युद्ध के भ्रान्त, अविद्ध, उद्धान्त, आप्लुत, प्रसत, प्लुत, सम्पात तथा समुदीर्ण आदि बहुत से पैंतरे दिखाये।
पाण्डुनन्दन महामना भीमसेन श्रेष्ठ खड्ग की चोट से कितने ही हाथियों के अंग छिन्न-भिन्न हो उनके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये और वे चिग्घाड़ते हुए प्राणशून्य होकर धरती पर गिर पड़े। भरतनन्दन! कुछ गजराजों के दांत और सूंड के अग्रभाग कट गये, कुम्भस्थल फट गये और सवार मारे गये। उस अवस्था में उन्होंने इधर-उधर भागकर अपनी ही सेनाओं को कुचल डाला और अन्त में जोर-जोर से चिग्घाड़ते हुए वे पृथ्वी पर गिरे और मर गये। राजन्! हम लोगों ने वहाँ देखा, बहुत से तोमर और महावतों के मस्तक कटकर गिरे, हाथियों की पीठों पर बिछी हुई विचित्र-विचित्र झूलें पड़ी हुई हैं। हाथियों को कसने के उपयोग में आने वाली स्वर्णभूषित चमकीली रस्सियां गिरी हुई हैं, हाथी और घोड़ों के गले के आभूषण, शक्ति, पताका, कणप (अस्त्रविशेष), तरकस, विचित्र यन्त्र, धनुष, चमकीले भिन्दिपाल, तोत्र, अंकुश, भाँति-भाँति घंटे तथा स्वर्णजटित खंग, मुष्टि- ये सब वस्तुएं हाथी सवारोंसहित गिरी हुई हैं और गिरती जा रही हैं। कहीं कटे हुए हाथियों के शरीर के ऊर्ध्व भाग पड़े थे, कहीं अधोभाग पड़े थे। कहीं कटी हुई सूंडे पड़ी थीं और कही मारे गये हाथियों की लोथें पड़ी थीं। उनसे आच्छादित हुई वह समरभूमि ढहे हुए पर्वतों से ढकी-सी जान पड़ती थी।
भारत! इस प्रकार महाबली भीमसेन ने कितने ही बड़े-बड़े गजराजों को नष्ट करके दूसरे प्राणियों का भी विनाश आरम्भ किया। उन्होंने युद्धस्थल में बहुत से प्रमुख अश्वारोहियों को मार गिराया। इस प्रकार भीमसेन और कलिंग सैनिकों का वह युद्ध अत्यन्त घोर रूप धारण करता गया। उस महासमर में घोड़ों की लगाम, जोत, सुवर्णमण्डित चमकीली रस्सियां, पीठ पर कसी जाने वाली गद्दियां (जीन), प्रास, बहुमूल्य ऋष्टियां, कवच, ढाल तथा भाँति-भाँति के विचित्र आस्तरण इधर-उधर बिखरे दिखायी देने लगे। भीमसेन ने बहुत-से प्रासों, विचित्र यंत्रों और चमकीले शस्त्रों से वहाँ की भूमि को पाट दिया, जिससे वह चितकबरे पुष्पों से आच्छादित-सी प्रतीत होने लगी। महाबली पाण्डुनन्दन भीम उछलकर कितने ही रथियों के पास पहुँच जाते और उन्हें पकड़कर ध्वजों सहित तलवार से काट गिराते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 63-85 का हिन्दी अनुवाद)
वे बार-बार उछलते, सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ते और युद्ध के विचित्र पैंतरे दिखाते हुए रणभूमि में विचरते थे। यशस्वी भीमसेन का यह पराक्रम देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य होता था। उन्होंने कितने ही योद्धाओं को पैरों से कुचलकर मार डाला, कितनों को ऊपर उछाल कर पटक दिया, कितनों को तलवार से काट दिया, दूसरे कितने ही योद्धाओं को अपनी भीषण गर्जना से डरा दिया और कितनों को अपने महान् वेग से पृथ्वी पर दे मारा। दूसरे बहुत से योद्धा इन्हें देखते ही भय के मारे निष्प्राण हो गये। इस प्रकार मारी जाने पर भी वेगशाली कलिंग वीरों की उस विशालवाहिनी ने रणक्षेत्र में भीष्म की रक्षा के लिये उन्हें चारों और से घेरकर पुनः भीमसेन पर धावा किया।
भरतश्रेष्ठ! कलिंग सेना के अग्रभाग में राजा श्रुतायु को देखकर भीमसेन उनका सामना करने के लिये आगे बढ़े। उन्हें आते देख अमेय आत्मबल से सम्पन्न कलिंगराज श्रतायु ने भीमसेन की छाती में दो बाण मारे। कलिंगराज के बाणों से आहत हो भीमसेन अंकुश की मार खाये हुए हाथी के समान क्रोध से जल उठे, मानो घी की आहुति पाकर आग प्रज्वलित हो उठी हो। इसी समय भीमसेन के सारथि अशोक ने एक सुवर्णभूषित रथ लेकर उसे भीम के पास पहुँचा कर उन्हें भी रथ से सम्पन्न कर दिया। शत्रुसुदन कुन्तीकुमार भीम तुरन्त ही उस रथ पर आरूढ़ हो कलिंगराज की ओर दौड़े और बोले- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। तब बलवान् श्रुतायु ने कुपित हो अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए बहुत से पैने बाण भीमसेन पर चलाये।
महाराज! महामना कलिंगराज के द्वारा श्रेष्ठ धनुष से छोड़े हुए नौ तीखे बाणों से घायल हो भीमसेन डंडे की चोट खाये हुए सर्प की भाँति अत्यंत कुपित हो उठे। बलवानों में श्रेष्ठ कुन्तीपुत्र भीम ने क्रुद्ध हो अपने सुदृढ़ धनुष को बलपूर्वक खींचकर लोहे के सात बाणों द्वारा कलिंगराज श्रुतायु को घायल कर दिया। तत्पश्चात् दो क्षुर नामक बाणों से कलिंगराज के चक्ररक्षक महाबली सत्यदेव तथा सत्य को यमलोक पहुँचा दिया। इसके बाद अमेय आत्मबल से सम्पन्न भीम ने तीन तीखे नाराचों द्वारा रणक्षेत्र में केतुमान को मारकर उसे यमलोक भेज दिया। तब कलिंगदेशीय समस्त क्षत्रियों ने कई हजार सैनिकों के साथ आकर युद्ध के लिये उद्यत हो अमर्षशील भीमसेन को आगे बढ़ने से रोक दिया।
राजन्! उस समय कलिंग-योद्धा भीमसेन पर शक्ति, गदा, खंग, तोमर, ऋष्टि तथा फरसों की वर्षा करने लगे। वहाँ होती हुई उस भयंकर बाण-वर्षा को रोककर महाबली भीमसेन हाथ में गदा ले बड़े वेग से कलिंग-सेना में कूद पड़े। उस सेना में घुसकर शत्रुमर्दन भीम ने पहले सात सौ वीरों को यमलोक पहुँचाया। फिर दो हजार कलिंगों को मृत्युलोक में भेज दिया। यह अद्भुत-सी घटना थी। इस प्रकार भीमसेन ने महारथी भीष्म की ओर देखते हुए कलिंगों की सेना को बार बार समर-भूमि में शीघ्रतापूर्वक विदीर्ण किया। उस रणभूमि में पाण्डुनन्दन भीम के द्वारा सवारों के मार दिये जाने पर बहुत-से मतवाले हाथी वायु के थपेडे़ खाये हुए बादलों के समान कौरव सेना में इधर-उधर भागते तथा अपने ही सैनिक को कुचलते हुए बाणों की व्यर्था से व्याकुल हो चीत्कार करने लगे। तदनन्तर महाबली महाबाहु भीमसेन ने खड्ग हाथ में लिये हुए अत्यन्त प्रसन्न हो खडे़ जोर से शंख बजाने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 86-106 का हिन्दी अनुवाद)
परंतप! उस शंखनाद के द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण कलिंगों के हृदय में कम्पन मचा दिया और उन सब पर बड़ा भारी मोह छा गया। राजन्! उस समरांगण में गजराज के समान अनेक मार्गों-पर विचरते और इधर-उधर दौड़ते हुए भीमसेन के भय से समस्त सैनिक और वाहन थर-थर कांपने लगे। उनके बार-बार उछलने से सब पर मोह छा गया। जैसे महान् तालाब किसी ग्राह के द्वारा मथित होने पर क्षुब्ध हो उठता है, उसी प्रकार वह सारी सेना भीमसेन के द्वारा बेरोक-टोक मथित होने पर भय से संत्रस्त हो कांपने लगी। अद्भुतकर्मा भीमसेन के द्वारा भयभीत कर दिये जाने पर कलिंग देश के समस्त योद्धा जब दल बनाकर भागने और भाग-भागकर पुनः लौटने लगे, तब पाण्डव-सेनापति द्रुपद-कुमार धृष्टद्युम्न ने अपने समस्त सैनिकों से कहा- ‘वीरो! (उत्साह के साथ) युद्ध करो’।
सेनापति की बात सुनकर शिखण्डी आदि महारथी प्रहारकुशल रथियों की सेनाओं के साथ भीमसेन का ही अनुसरण करने लगे। तत्पश्चात पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर मेघों की घटा के समान हाथियों की विशाल सेना साथ लिये पीछे से आकर उन सबकी सहायता करने लगे। इस प्रकार द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न अपनी सारी सेनाओं को युद्ध के लिये करके श्रेष्ठ पुरुषों के साथ भीमसेन के पृष्ठ भाग की रक्षा का कार्य हाथ में लिया। जगत् में पांचालराज धृष्टद्युम्न के लिये भीष्म और सात्यकि को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं था, जो प्राणों से भी बढ़कर हो। शत्रुवीरों का नाश करने वाले वैरिविनाशक द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न महाबाहु भीमसेन को कलिंगों की सेवा में विचरते देखा। राजन्! उन्हें देखते ही परंतप धृष्टद्युम्न के हृदय में हर्ष की सीमा न रही। वे बारंबार गर्जना करने लगे। उन्होंने समरांगण में शंख बजाया और सिंहनाद किया। कबूतर के समान रंगवाले घोडे़ जिनके रथ में जोते जाते हैं, उन धृष्टद्युम्न के सुवर्णभूषित रथ में कचनार वृक्ष के चिह्न से युक्त ध्वजा फहराती देख भीमसेन को बड़ा आश्वासन मिला।
कलिंगों ने भीमसेन पर धावा किया, यह देखकर अनन्त आत्मबल से सम्पन्न धृष्टद्युम्न भीमसेन की रक्षा के लिये युद्ध स्थल में उनके पास आ पहुँचे। उस समरभूमि में मनस्वी वीर धृष्टद्युम्न और भीमसेन ने सात्यकि को भी दूर से आते देखा, अतः वे अधिक उत्साह से सम्पन्न हो कलिंगों से युद्ध करने लगे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ पुरुषप्रवर सात्यकि ने बड़े वेग से वहाँ पहुँचकर भीमसेन और धृष्टद्युम्न के पृष्ठपोषण का कार्य सँभाला। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर भयंकर पराक्रम प्रकट करने के पश्चात् अपने रौद्र रूप का आश्रय ले कलिंगसेना की ओर दृष्टिपात किया। भीमसेन ने वहाँ एक भयंकर नदी प्रकट कर दी, जो कलिंग-सेना रूपी उद्रम स्थान से निकली थी। उसमें मांस और शोणित की ही कीच थी। वह नदी रक्त की ही धारा बहा रही थी। कलिंग और पाण्डव-सेना के बीच में बहने वाली उस रक्त की दुस्तर नदी को महाबली भीमसेन अपने पराक्रम से पार कर गये। राजन्! भीमसेन को उस रूप में देखकर आपके सैनिक पुकार-पुकारकर कहने लगे, यह साक्षात् काल ही भीमसेन के रूप में प्रकट होकर कलिंगों के साथ युद्ध कर रहा है। तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म रणभूमि में उस कोलाहल को सुनकर अपनी सेना को सब ओर से व्युहबद्ध करके तुरन्त ही भीमसेन के पास आये।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 107-124 का हिन्दी अनुवाद)
सात्यकि, भीमसेन तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने एक साथ ही धावा किया। उन सब लोगों ने रणक्षेत्र में गंगानन्दन भीष्म को वेगपूर्वक घेरकर तीन-तीन भयंकर बाणों द्वारा उन्हें यथाशक्ति से पीड़ा पहुँचायी। उस समय आपके पितृतुल्य भीष्म ने वहाँ युद्ध के लिये प्रयत्न करने वाले उन सभी महाधनुधर योद्धाओं को सीधे जाने वाले तीन-तीन बाणों से बींधकर बदला चुकाया। तदनन्तर सहस्रों बाणों की वर्षा करके उन तीनों महारथियों को रोककर सोने के साज-बाज धारण करने वाले भीमसेन के घोड़ों को भीष्म ने अपने बाणों से मार डाला। अश्वों के मारे जाने पर भी उसी रथ पर खड़े हुए प्रतापी भीमसेन ने भीष्म जी के रथ पर बडे़ वेग से शक्ति चलायी। वह शक्ति अभी पास तक पहुँची ही न थी कि आपके पितृतुल्य भीष्म ने समरभूमि में उसके तीन टुकडे़ कर डाले और वह भूतल पर बिखर गयी।
नरश्रेष्ठ! तब बलवान् भीमसेन पूर्णतः लोहे के सारतत्त्व (फौलाद) की बनी हुई भारी गदा हाथ में लेकर तुरन्त उस रथ से कूद पडे़। इधर सात्यकि ने भी भीमसेन का प्रिय करने की इच्छा से भीष्म के सारथि को तुरन्त ही अपने सायकों द्वारा मार गिराया। रथियों में श्रेष्ठ भीष्म सारथि के मारे जाने पर हवा में समान भागने वाले घोड़ों के द्वारा रणभूमि से बाहर कर दिये गये। राजन्! महान व्रतधारी भीष्म के रणभूमि से हट जाने पर घास-फूस के ढेर में लगी हुई आग के समान अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। भरतश्रेष्ठ! भीमसेन सम्पूर्ण कलिंगों का संहार करके सेना के मध्यभाग में ही खडे़ थे, परन्तु आपके सैनिकों में से कोई भी उनके पास जाने का साहस न कर सके। तत्पश्चात् रथियों में श्रेष्ठ धृष्टद्युम्न यशस्वी भीमसेन को अपने रथ पर चढ़ाकर सैनिकों के देखते-देखते अपने दल में ले गये।
भरतश्रेष्ठ! वहाँ पांचालों तथा मत्स्यदेशीय नरेशों से पूजित हो भीमसेन धृष्टद्युम्न और सात्यकि को भुजाओं में भरकर दोनों से प्रसन्नतापूर्वक मिले। उस समय सत्यपराक्रमी यदुकुलसिंह सात्यकि ने धृष्टद्युम्न के सामने ही भीमसेन का हर्ष बढ़ाते हुए उनसे इस प्रकार कहा- 'वीरवर! बड़े सौभाग्य की बात है कि कलिंगराज भानुमान , राजकुमार केतुमान, कलिंगवीर शक्रदेव तथा अन्य बहुसंख्यक कलिंग सैनिक आपके द्वारा युद्ध में मारे गये। आपने अकेले अपनी ही भुजाओं के बल और पराक्रम से कलिंगों के उस महान ब्यूह को रौंदकर मिट्टी में मिला दिया, जिसमें बहुत-से हाथी, घोड़े और रथ भरे हुए थे। उसके अधिकांश सैनिक संसार के महान पुरुषों में गिने जाने योग्य थे। अगणित धीर-वीर योद्धा उस महान् ब्यूह का सेवन करते थे'। शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश! ऐसा कहकर बड़ी भुजाओं वाले सात्यकि अपने रथ से कूदकर भीमसेन के रथ पर जा चढ़े और उनको हृदय से लगा लिया। तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए महारथी सात्यकि ने पुन: अपने रथ पर बैठकर भीमसेन का बल बढ़ाते हुए आपके सैनिकों का संहार आरम्भ किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें द्वितीय दिन के युद्धमें कलिंगराजका वधविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति”
संजय कहते हैं ;- भारत! उस दूसरे दिन जब पूर्वाह्न का अधिक भाग व्यतीत हो गया और बहुसंख्यक रथ, हाथी, घोडे़, पैदल और सवारों का महान संहार होने लगा। उस समय पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न अकेला ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शल्य तथा महामनस्वी कृपाचार्य इन तीनों महारथियों साथ युद्ध करने लगा। महाबली पांचाल राजकुमार ने दस शीघ्रगामी पैने बाण मारकर अश्वत्थामा के विश्वविख्यात घोड़ों को मार डाला। वाहनों के मारे जाने पर अश्वत्थामा तुरन्त ही शल्य के रथ पर चढ़ गया और वहीं से द्यृष्टद्युम्न पर बाणों की वर्षा करने लगा।
भरतनन्दन! धृष्टद्युम्न को अश्वत्थामा के साथ भिड़ा हुआ देख सुभद्रानन्दन अभिमन्यु भी पैने बाण बिखेरता हुआ तुरंत वहाँ आ पहुँचा। उस पुरुषरत्न अभिमन्यु ने शल्य को पच्चीस, कृपाचार्य को नौ और अश्वत्थामा को आठ बाणों से बींध डाला। तब अश्वत्थामा ने शीघ्र ही एक बाण से अभिमन्यु को घायल कर दिया। तत्पश्चात् शल्य ने दस और कृपाचार्य ने तीन पैने बाण उसे मारे। तदनन्तर आपके पौत्र लक्ष्मण ने सुभद्राकुमार अभिमन्यु को सामने खड़ा देख हर्ष और उत्साह में भरकर उस पर आक्रमण किया। फिर तो दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। राजन! शत्रु वीरों का संहार करने वाले दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण ने अत्यन्त कुपित हो समरभूमि में अनेक बाणों से अभिमन्यु को बींध डाला। वह एक अद्भुत-सी बात हुई। महाराज! भरतश्रेष्ठ! यह देख शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाला वीर अभिमन्यु कुपित हो उठा और अपने भाई लक्ष्मण को उसने पचास बाणों से घायल कर दिया।
राजन! तब लक्ष्मण ने भी पुनः एक बाण मारकर उसके धनुष को, जहाँ मुट्ठी रखी जाती है, वहीं से काट दिया। यह देख आपके सैनिक हर्ष से कोलाहल कर उठे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा विचित्र धनुष हाथ में लिया, जो अत्यन्त वेगशाली था। वे दोनों पुरुषरत्न वहाँ एक-दूसरे अस्त्रों का निवारण अथवा प्रतीकार करने की इच्छा रखकर युद्ध में संलग्न थे और पैने बाणों द्वारा एक-दूसरे को घायल कर कहे थे। तब प्रजाजनों का स्वामी राजा दुर्योधन अपने महारथी पुत्र को आपके पौत्र अभिमन्यु से पीड़ित देख वहाँ स्वयं जा पहुँचा। आपके पुत्र दुर्योधन के उधर लौटने पर कौरव पक्ष के सभी नरेशों ने विशाल रथ सेना के द्वारा अर्जुनकुमार अभिमन्यु को सब ओर से घेर लिया।
राजन! अभिमन्यु का पराक्रम भगवान श्रीकृष्ण के समान था। वह युद्ध में अत्यन्त दुर्जय उन शूरवीरों से घिर जाने पर भी व्यथित या चिन्तित नहीं हुआ। इसी समय अर्जुन सुभद्राकुमार को वहाँ युद्ध में संलग्न देख अपने पुत्र की रक्षा के लिए बड़े वेग से दौडे़ आये। यह देख भीष्म और द्रोण आदि सभी कौरव-पक्षीय नरेश रथ, हाथी और घोड़ों की सेनासहित एक साथ अर्जुन पर चढ़ आये। उस समय हाथी, घोडे़, रथ और पैदल सैनिकों द्वारा उड़ायी हुई धरती की तीव्र धूल सहसा सूर्य के रथ तक पहुँचकर सब ओर व्याप्त दिखायी देने लगी। इधर सहस्रों हाथी और सैकड़ों भूमिपाल अर्जुन के बाणों के पथ में आकर किसी प्रकार आगे न बढ़ सके। समस्त प्राणी आर्तनाद करने लगे और सम्पूर्ण दिशाओं में अन्धकार छा गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! उस समय कौरवों को अपने दुःसह एवं भयंकर अन्याय का परिणाम प्रत्यक्ष दिखायी देने लगा। किरीटधारी अर्जुन के शस्त्र समूहों से सब कुछ आच्छादित हो जाने के कारण आकाश, दिशा, पृथ्वी और सूर्य किसी का भी भान नहीं होता था। उस रणभूमि में कितने ही रथ टूट गये, बहुतेरे हाथी नष्ट हो गये, कितने ही रथियों के घोडे़ मार डाले गये और कितने ही रथ-यूथपतियों के रथ भागते दिखायी दिये। अन्यान्य बहुत-से रथी रथहीन होकर अंगदभूषित भुजाओं में आयुध धारण किये जहाँ-तहाँ चारों ओर दौड़ते देखे जाते थे। महाराज! अर्जुन के भय से घुड़सवार घोड़ों को और हाथी सवार हाथियों को छोड़कर सब ओर भग चले। वहाँ बहुत-से नरेश अर्जुन के सायकों से कटकर रथों, हाथियों और घोड़ों से गिरे और गिराये जाते हुए दृष्टिगोचर हो रहे थे।
प्रजानाथ! अर्जुन ने उस रणक्षेत्र में अत्यन्त भयंकर रूप धारण किया था। उन्होंने अपने उग्रबाणों द्वारा योद्धाओं की ऊपर उठी हुई भुजाओं को, जिनमें गदा, खड्ग, प्रास, तूणीर, धनुष-बाण, अंकुश और ध्वजा-पताका आदि शोभा पा रहे थे, काट गिराया। आर्य! भरतनन्दन! भूपाल! उस रणभूमि में गिरे हुए उद्दीप्त परिघ, मुद्गर, प्रास, भिन्दिपाल, खड्ग, फरसे, तीखे तोमर, सुवर्णमय कवच, ध्वज, ढाल, सोने के डंडों से विभूषित छत्र, व्यंजन, चाबुक, जोते, कोडे़ और अंकुश ढेर-के-ढेर बिखरे दिखायी देते थे। भारत! उस समय आपकी सेना में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो समर में शूरवीर अर्जुन का सामना करने के लिये किसी प्रकार आगे बढ़ सके। प्रजानाथ! उस युद्धभूमि में जो-जो वीर अर्जुन की ओर बढ़ता था, वही-वही उनके पैने बाणों द्वारा परलोक पहुँचा दिया जाता था।
संजय बोले ;- महाराज! आपके सब योद्धा सब ओर भागने लगे। यह देख अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रेष्ठ शंख बजाये। कौरव-सेना को इस प्रकार भागती देख समरभूमि में खड़े हुए आपके ताऊ भीष्म ने वीरवर आचार्य द्रोण से मुस्कराते हुए से कहा- ‘यह श्रीकृष्ण सहित बलवान वीर पाण्डुकुमार अर्जुन कौरव-सेना की वही दशा कर रहा है, जैसी उसे करनी चाहिये। यह किसी प्रकार भी समरभूमि में जीता नहीं जा सकता, क्योंकि इसका रूप इस समय प्रलयकाल के यमराज-सा दिखायी दे रहा है। यह विशाल सेना इस समय पीछे नहीं लौटायी जा सकती। देखिये, सारे सैनिक एक-दूसरे की देखा-देखी भागे जा रहे हैं। इधर ये भगवान सूर्य सम्पूर्ण जगत के नेत्रों की ज्योति सर्वथा समेटते हुए-से गिरिश्रेष्ठ अस्तांचल को जा पहुँचे हैं। अतः नरश्रेष्ठ! मैं इस समय समस्त सैनिकों को युद्ध से हटा लेना ही उचित समझता हूँ। हमारे सभी योद्धा थके-मांदे और डरे हुए हैं, अतः इस समय किसी तरह युद्ध नहीं कर सकेंगे।'
आचार्यप्रवर द्रोण से ऐसा कहकर महारथी भीष्म ने आपके समस्त सैनिकों को युद्धभूमि से लौटा लिया। तदनन्तर रथ, हाथी और घोड़ों सहित सोमक, पांचाल तथा पाण्डव वीर विजय पाकर बारंबार सिंहनाद करने लगे। वे सभी महारथी विजयसूचक वाद्यों की ध्वनि के साथ अत्यन्त हर्ष में भरकर नाचने लगे और अर्जुन को आगे करके शिविर की ओर चल दिये।
(इस प्रकार श्री महाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में द्वितीय युद्ध दिवस में सेना को लौटाने से संबंध रखने वाला पचपनवां अध्याय पूरा हुआ)
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