सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the 46 chapter to the 50 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-पाण्डव सेना का घमासान युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- भरतवंशी नरेश! उस रणभूमि में जहां-वहाँ लाखों सैनिकों का मर्यादाशून्य युद्ध चल रहा था। वह सब आपको बता रहा हूं, सुनिये। न पुत्र पिता को पहचानता था, न पिता अपने ओर से पुत्र को। न भाई, भाई को जानता था, न मामा अपने भानजे को। न भानजे ने मामा को पहचाना, न मित्र ने मित्र को। उस समय पाण्डव-योद्धा कौरव-सैनिकों के साथ इस प्रकार युद्ध करते थे, मानो उनमें किसी ग्रह आदि का आवेश हो गया हो। कुछ नरश्रेष्ठ वीर अपने रथों द्वारा शत्रुपक्ष की रथसेना पर टूट पड़े। भरतश्रेष्ठ! कितने ही रथों के जुएं विपक्षी रथों के जूओं से ही टकराकर टूट गये। रथों के ईषादण्ड और कूबर भी सामने आये हुए रथों के ईषादण्ड और कूबरों से भिड़कर टूक-टूक हो गये। एक दूसरे को मार डालने की इच्छा रखने वाले कितने ही रथ दूसरे रथों से आमने-सामने भिड़कर एक पग भी इधर-उधर चल न सके। गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले विशालकाय गजराज कुपित हो दूसरे हाथियों से टक्कर लेते हुए अपने दांतों के आघात से एक दूसरे को नाना प्रकार से विदीर्ण करने लगे।

     महाराज! कितने ही हाथी तोरण और प्रताकाओं सहित वेगशाली महाकाय एवं श्रेष्ठ गजराजों से भिड़कर उनके दांतों के आघात से अत्यन्त पीड़ित हो आतुर भाव से चिग्घाड़ रहे थे। जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिली थी तथा जिनका मद अभी प्रकट नहीं हुआ था, वे हाथी तोत्र और अंकुशों की चोट खाकर सम्मुख खडे़ हुए मदस्त्रावी गजराजों के सामने जाकर युद्ध के लिये डट गये। कुछ महान गजराज मदस्त्रावी हाथियों से टक्कर लेकर क्रौंच पक्षी की भाँति चीत्कार करते हुए सब दिशाओं में भाग गये। अच्छी तरह शिक्षा पाये हुए कितने ही हाथी तथा श्रेष्ठ गज, जिनके गण्डस्थल से मद चू रहा था, ऋष्टि, तोमर और नाराचों से विद्ध होकर मर्म विदीर्ण हो जाने के कारण चिंग्घाड़ते और प्राणशून्य हो धरती पर गिर पड़ते थे। कितने ही भयानक चीत्कार करते हुए सब दिशाओं में भाग जाते थे।

    महाराज! हाथियों के पैरों की रक्षा करने वाले योद्धा, जिनके वक्षःस्थल विस्तृत एवं विशाल थे, अत्यंत क्रोध में भरकर इधर-उधर दौड़ रहे थे और हाथों में लिये हुए ऋष्टि, धनुष, चमकीले फरसे, गदा, मूसल, भिन्दिपाल, तोमर, लोहे की परिघ तथा तेज धार वाले उज्ज्वल सग आदि आयुधों द्वारा एक दूसरे के वध के लिये उत्सुक दिखायी दे रहे थे। परस्पर धावा करने वाले शूरवीरों के चमकीले खग मनुष्यों के रक्त से रंगे हुए देखे जाते थे। वीरों की भुजाओं से घुमाकर चलाये हुए खड्ग जब दूसरों के मर्म पर आघात करते थे, उस सम उनका भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। उस युद्धस्थल में गदा और मूसल के आघात से कितने ही मनुष्यों के अंग-भंग हो गये थे, कितने ही अच्छी श्रेणी के तलवारों से छिन्न-भिन्न हो रहे थे और कितनों को हाथियों ने कुचल दिया था। इस प्रकार असंख्य मनुष्यों के समुदाय अधमरे-से होकर एक दूसरे को पुकार रहे थे। भारत! उसके वे भयंकर आर्तनाद प्रेतों के कोलाहल के समान श्रवणगोचर हो रहे थे। चँवर और कलंगी से सुशोभित हंस-तुल्य सफेद एवं महान् वेगशाली घोड़ों पर बैठे हुए कितने ही घुड़सवार एक दूसरे पर धावा कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

     उसके द्वारा चलाये गये सुवर्णभूषित निर्मल और तेज धार वाले शीघ्रगामी महाप्रास (भाले) सर्पों के समान गिर रहे थे। कितने ही वीर घुड़सवार शीघ्रगामी अश्वों द्वारा धावा करके बड़े-बड़े रथों पर कुछ पड़ते और रथियों के मस्तक काट लेते थे। इसी प्रकार एक-एक रथी झुकी हुई गांठ वाले भल्ल नामक बाणों द्वारा निशाने पर आये हुए बहुत से घुड़सवारों का संहार कर डालता था। नूतन मेघों के समान शोभा पाने वाले स्वर्णभूषित मतवाले हाथी बहुत-से-घोड़ों को सूंडों से झटककर पैरों से ही रौद डालते थे। कितने ही हाथी प्रासों की चोट खाकर कुम्भस्थल और पाश्वभागों के विदीर्ण हो जाने पर अत्यंत आतुर हो घोर चिग्घाड़ मचा रहे थे। बहुत से बड़े-बड़े हाथी कितने ही घुड़सवारों सहित घोड़ों को पैरों से कुचलकर सहसा भयंकर युद्ध में फेंक देते थे। कितने ही हाथी अपने दांतों के अग्रभाग से घुड़सवारों सहित घोड़ों को उछाल कर ध्वजों सहित रथसमूहों को पैरो तले रौंदते हुए रणभूमि में विचर रहे थे।

    वहाँ कितने ही महान् गज अत्यन्त मदोन्मत्त तथा पुरुष होने के कारण सूंडों और पैरों से घोड़ों और घुड़सवारों का संहार कर डालते थे। युद्ध में घुड़सवारों और गजारोहियों के चलाये हुए निर्मल, तीक्ष्ण तथा सर्पों के समान भयंकर शीघ्रगामी बाण हाथियों के ललाटों, अन्यान्य अंगों तथा पसलियों पर चोट करते थे। वीरों की भुजाओं से चलायी हुई निर्मल शक्तियां, मनुष्यों और घोड़ों काया तथा लोहमय कवचों को भी विदीर्ण करके धरती पर गिर जाती थी। प्रजानाथ! वहाँ गिरते समय वे भयंकर शक्तियां बड़ीभारी उल्काओं के समान प्रतीत होती थी। जो चमकीली तलवार पहले चितकवरे अथवा साधारण व्याघ्र-चमकी बनी हुई म्यानों में बंद रहती थी, उन्हें उन म्यानों से निकालकर उनके द्वारा वीरपुरुष रणभूमि में विपक्षियों का वध कर रहे थे। कितने ही योद्धा ढाल, तलवार तथा फरसों से निर्भय होकर शत्रु के सम्मुख जाने, क्रोधपूर्वक दांतों से ओठ दबाकर आक्रमण करने तथा बायीं पसली पर चोट करके उसे विदीर्ण करने आदि के पैंतरे दिखाते हुए शत्रुओं पर टूट पड़ते थे। प्रत्येक शब्द की ओर गमन करने वाले कितने ही हाथी घोड़ों सहित रथों को अपनी सूंडों से खींचकर उन्हें लिये-दिये सम्पूर्ण दिखाओं में दौड़ रहे थे। कुछ मनुष्य बाणों से विदीर्ण होकर पड़े थे, कितने ही फरसों से छिन्न-भिन्न हो रहे थे, कितनों को हाथियों ने मसल डाला था, कितने ही घोड़ों की टाप से कुचल गये थे, कितनों के शरीर रथ के पहियों से कट गये थे और कितने ही कुबरों से काट डाले गये थे।

     राजन्! रणभूमि में जहाँ-तहाँ गिर हुए अगणित मनुष्य अपने कुटुम्बीजनों को पुकार रहे थे। कुछ बेटों को, कुछ पिता को, कुछ भाई-बन्धुओं को, कुछ मामा-भानजों को और कुछ लोग दूसरों-दूसरों के नाम ले-लेकर विलाप कर रहे थे। भारत! बहुतों की आंतें बाहर निकलकर बिखर गयी थी, जांघें टूट गयी थी, कितनो की बांहें कट गयी थी, बहुतों की पसलियां फट गयी थी और कितने ही घायल अवस्था में प्यास से पीड़ित हो जीवन के लोभ से रोते दिखाई देते थे। राजन्! कुछ लोग धरती पर अधमरे पड़े थे। उनमें जीवन की शक्ति बहुत थोड़ी रह गयी थी और वे पिपासा से पीड़ित हो युद्धभूमि में ही जल की खोज कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

        भरतनन्दन! लहुलुहान होकर कष्ट पाते हुए वे समस्त घायल सैनिक अपनी और आपके पुत्रों की अत्यन्त निन्दा करते थे। माननीय महाराज दूसरे शूरवीर क्षत्रिय आपस में वैर बांधे हुए उस घायल अवस्था में भी न हथियार छोड़ते थे और न क्रन्द्रन ही करते थे। वे बार-बार उत्साहित होकर एक दूसरे को डांट बताते और क्रोधपूर्वक होठों को दांत से दबाकर भौंहे टेढ़ी करके परस्पर दृष्टिपात करते थे। धैर्य और दृढ़तापूर्वक धारण किये रहने वाले दूसरे महाबली वीर बाणों से आघात से पीड़ित हो क्लेश सहन करते हुए भी मौन ही रहते थे- अपनी वेदना प्रकाशित नहीं करते थे।

    महाराज! कुछ वीर पुरुष अपना रथ मग्न हो जाने के कारण युद्ध में पृथ्वी पर गिरकर दूसरे का रथ मांग रहे थे, इतने ही में बड़े-बड़े़ हाथियों के पैरों से वे कुचल गये। उस समय उनके रक्तरंजित शरीर फूले हुए पलाश के समान शोभा पा रहे थे। उन सेनाओं में अनेकानेक भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे। बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला उस महाभयानक संग्राम में पिता ने पुत्रों को, पुत्र ने पिता को, भानजे ने मामा को, मामा ने भानजे को, मित्र ने मित्रों को तथा सगे-संबंधी ने अपने सगे सम्बन्धी को मार डाला।

    इस प्रकार उस मर्यादाशून्य भयानक संग्राम में कौरवों का पाण्डवों के साथ घोर युद्ध हो रहा था। इतने ही मैं सेनापति भीष्म के पास पहुँचकर पाण्डवों की सारी सेना कांपने लगी। भरतश्रेष्ठ! महाबाहु भीष्म अपने विशाल रथ पर बैठकर चांदी के बने हुए पांच तारों से युक्त तालांकिंत ध्वज के द्वारा मेरु के शिखर पर स्थित हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में दोनों सेनाओं का घमासान युद्धविषयक छियालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

सैतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध, शल्य के द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्‍वेत का पराक्रम”

   संजय कहते हैं ;- राजन्! उस अत्यन्त भयंकर दिन का पूर्वभाग जब प्रायः व्यतीत हो गया, तब बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाले उस भयानक संग्राम में आपके पुत्र की आज्ञा से दुर्मुख, कृतवर्मा, शल्य और विविंशति वहाँ आकर भीष्म की रक्षा करने लगे। इन पांच अतिरथी वीरों के सुरक्षित हो भरतभूषण महारथी भीष्म जी ने पाण्डवों की सेनाओं में प्रवेश किया। भारत! चेदि, काशि, करूष तथा पांचाललोक में विचरते हुए भीष्म का तालचिह्नित चंचल पताकाओं वाला रथ अनेक-सा दिखायी देने लगा। वे युद्ध झुकी हुई गांठ वाले अत्यन्त वेगशाली भल्लों द्वारा शत्रुओं के मस्तक, रथ, जुआ तथा ध्वज काट-काट कर गिराने लगे।

    भरतश्रेष्ठ! वे रथ के भागों पर नृत्य-सा कर रहे थे। उनके बाणों से मर्मस्थानों में खाये हुए हाथी अत्यन्त आर्तनाद करने लगे। यह देख अभिमन्यु अत्यन्त कुपित हो पिंगल वर्ण के श्रेष्ठ घोड़ों से जुते हुए रथ पर बैठकर भीष्म के रथ की और दोडे़ आये। उनका वह रथ कर्णिकार के चिह्न युक्त स्वर्ण निर्मित विचित्र ध्वज से सुशाभित था। उन्होंने भीष्म पर तथा उनकी रक्षा लिये आये हुए उन श्रेष्ठ रथियों पर भी आक्रमण किया। वीर अभिमन्यु तीखे बाण से उस ताल चिह्नित ध्वज को छेद डाला और भीष्म तथा उनके अनुगामी रथियों के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। उन्होंने एक बाण से कृतवर्मा को और पांच शीघ्रगामी बाणों से शल्य को बेंध कर तीखी धार वाले नौ बाणों से पितामह भीष्म को भी चोट पहुँचायी।

    तत्पश्चात् धनुष को अच्छी तरह खींचकर पूरे मनोयोग से चलाते हुए एक बाण के द्वारा उनके सुर्वणभूषित ध्वज को भी छेद डाला। इसके बाद झुकी हुई गांठ वाले तथा सब प्रकार के आवरणों का भेदन करने वाले एक भल्ल के द्वारा दुर्मुख के सारथी का मस्तक धड़ से अलग कर दिया। साथ ही कृपाचार्य के स्वर्णभूषित धनुष को भी तेज धार वाले भाले से काट गिराया फिर सब और घूमकर नृत्य-सा करते हुए महारथी अभिमन्यु ने अत्यन्त कुपित हो तीखी नोक वाले बाणों से भीष्म की रक्षा करने वाले उन महारथियों को भी घायल कर दिया। अभिमन्यु के हाथों की यह फुर्ती देखकर देवताओं को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। अर्जुनकुमार के इस लक्ष्य-वैध की सफलता से प्रभावित हो भीष्म आदि सभी रथियों ने उन्हे साक्षात् अर्जुन के समान शक्तिशाली समझा। अभिमन्यु का धनुष गाण्डीव के समान टंकार ध्वनि प्रकट करने वाला, हाथों की फुर्ती दिखाने का उपयुक्त स्थान और खीचें जाने पर अलातचक्र के समान मण्डलाकार प्रकाशित होने वाला था। वह वहाँ सम्पूर्ण दिशाओं में घूम रहा था।

     अर्जुनकुमार अभिमन्यु को पाकर शत्रुवीरों का हनन करने वाले भीष्म ने समरभूमि में नौ शीघ्रगामी महावेगवान् बाणों द्वारा तुरन्त ही उन्हें वेध दिया। साथ ही उस महातेजस्वी वीर के ध्वज को भी तीन बाणों से काट गिराया इतना ही नहीं, नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालने करने वाले भीष्म ने तीन बाणों से अभिमन्यु के सारथी को भी मार डाला। आर्य! इसी प्रकार कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा शल्‍य उस मैनाक पर्वत की भाँति स्थिर हुए अर्जुनकुमार को बाणविद्ध करके भी कम्पित न कर सके। दुर्योधन के उन महारथियों से घिर जाने पर भी शूरवीर अर्जुनकुमार उन पांचों रथियों पर बाण वर्षा करता रहा। इस प्रकार अपने बाणों की वर्षा से उन सबके महान् अस्त्रों का निवारण करके बलवान् अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने भीष्म पर सायकों का प्रहार करते हुए बड़े जोर का सिंहनाद किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! उस समय समरभूमि प्रत्यन्तपूर्वक अपने बाणों द्वारा भीष्म को पीड़ा देते हुए अभिमन्यु की भुजाओं का महान् बल प्रत्यक्ष देखा गया। तब भीष्म ने भी उस पराक्रमी वीरपथ बाणों का प्रहार किया परन्तु अभिमन्यु ने रणभूमि में भीष्म के धनुष से छूटे हुए समस्त बाणों को काट डाला। अभिमन्यु के बाण अमोध थे। उस वीर ने समरांगण में नौ बाणों द्वारा भीष्म के ध्वज को काट गिराया। यह देख सब लोग उच्च स्वर में कोलाहल कर उठे। भरतनन्दन! वह रजतनिर्मित, स्वर्णभूषित अत्यन्त ऊंचा ताल-चिह्न से युक्त भीष्म का ध्वज सुभद्राकुमार के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भरतश्रेष्ठ! अभिमन्यु के बाणों से कटकर गिरे हुए उस ध्वज को देखकर भीमसेन ने सुभद्राकुमार का हर्ष बढ़ाते हुए उच्चस्वर से गर्जना की। तब महाबली भीष्मसेन ने उस अत्यन्त भयंकर संग्राम में बहुत-से महान् दिव्यास्त्र प्रकट किये। तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न प्रपितामह भीष्मसेन सुभद्राकुमार पर हजारों बाणों की वर्षा की। वह एक अद्भुत-सी घटना प्रतीत हुई। राजन्! तब पुत्र सहित विराट, द्रुपदकुमार धृष्टद्यम्न, भीमसेन, पांचों भाई केकय-राजकुमार तथा सात्यकि-ये पाण्डव-पक्ष के महान् धनुंधर दस महारथी अभिमन्यु रक्षा के लिये रथों द्वारा तुरन्त वहाँ दौडे़ आये।

    शान्तनुनन्दन भीष्म ने रणभूमि में वेगपूर्वक आक्रमण करने वाले उन दसों महारथियों में से धृष्टद्युम्न को तीन और सात्यकि को नौ बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। फिर धनुष को पूरी तरह से खींचकर छोड़े हुए एक पंखयुक्त तीखे बाण से भीमसेन की ध्वजा काट डाली। नरश्रेष्ठ! भीमसेन का वह सुवर्णमय सुन्दर ध्वज सिंह के चिह्न से युक्त था वह भीष्म के द्वारा काट दिये जाने पर रथ से नीचे गिर पड़ा। तब भीमसेन उन रणक्षेत्र में शान्तनुनन्दन भीष्‍म को तीन बाणों से घायल करके कृपाचार्य को एक और कृतवर्मा को आठ बाणों से बेध दिया। इसी समय जिसने अपनी सूंड को मोड़कर मुख में रख लिया था, उस दन्तार हाथी पर आरूढ़ हो विराटकुमार उत्तर ने मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य पर धावा किया। वह गजराज बड़े वेग से शल्य के रथ की ओर झपटा। उस समय शल्य ने अपने बाणों द्वारा उसके अप्रतिम वेग को रोक दिया। इससे वह गजेन्द्र शल्य पर अत्यन्त कुपित हो उठा और अपना एक पैर रथ के जुए पर रखकर उसे अच्छी वहन करने वाले चारों विशाल घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ पर बैठे हुए मद्रराज शल्य ने लोहे की बनी हुई एक शक्ति चलायी, जो सर्प के समान भयंकर और राजकुमार उत्तर का अन्त करने वाली थी। उस शक्ति ने उनके कवच को काट दिया। उसकी चोट से उन पर अत्यन्त मोह छा गया। उनके हाथ से अंकुश और तोमर छूटकर गिर गये और वे भी अचेत होकर हाथी की पीठ से पृथ्वी पर गिर पड़े।

      इसी समय शल्य हाथ में तलवार लेकर अपने श्रेष्ठ रथ से कूद पड़े और उसी के द्वारा उस गजराज की विशाल सूंड को उन्होंने काट गिराया। सैकड़ों बाणों से उसके मर्म विद्ध हो गये थे और उसकी सूंड भी काट डाली गयी। इससे भयंकर आर्तनाद करके वह गजराज भूमि पर गिरा और मर गया। नरेश्वर! वह पराक्रम करके मद्रराज शल्य तुरंत ही कृतवर्मा के तेजस्वी रथ पर चढ़ गये। अपने भाई उत्तर को मारा गया और शल्य को कृतवर्मा के साथ रथ पर बैठा हुआ देख विराटपुत्र श्वेत क्रोध से जल उठे, मानो अग्नि में घी की आहुति पड़ गयी हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 44-67 का हिन्दी अनुवाद)

     उस बलवान वीर ने इन्द्रधनुष के समान अपने विशाल शरासन को कानों तक खींचकर मद्रराज शल्य को मार डालने की इच्छा से उन पर धावा किया। वह विशाल रथ-सेना के द्वारा सब ओर से घिरकर बाणों की वर्षा करता हुआ शल्य के रथ पर चढ़ गया। मतवाले हाथी के समान पराक्रम प्रकट करने वाले श्वेत को धावा करते देख आपके सात रथियों ने मौत के दांतों में फँसे हुए मद्रराज शल्य को बचाने की इच्छा रखकर उन्हें चारों ओर से घेर लिया। राजन्! उन रथियों के नाम से है- कोसलनरेश बृहद्बल, मगधदेशीय जयत्सेन, शल्य के प्रतापी पुत्र रुक्मरथ, अवन्ति के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण तथा बृहत्क्षत्र के पुत्र सिंधुराज जयद्रथ।

     इन महामना वीरों के फैलाये हुए अनेक रूपरंग के विचित्र धनुष बादलों में बिजलियों के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन सबने श्वेत के मस्तक पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो ग्रीष्म ऋतु के अन्त में वायु द्वारा उठाये हुए मेघ पर्वत पर जल बरसा रहे हो। उस समय महान् धनुर्धर सेनापति श्वेत ने कुपित होकर तेज किये हुए भल्ल नामक सात बाणों द्वारा उन सातों रथियों के धनुष काटकर उनके टुकडे़-टुकडे़ कर दिये। भारत! वे सातों धनुष कट जाने पर ही दृष्टि में आये। तदनन्तर उन सबने आधे निमेष में ही दूसरे धनुष ले लिये और श्वेत के ऊपर एक ही साथ सात बाण चलाये। तब अमेय आत्मबल से युक्त महाबाहु श्वेत ने पुनः शीघ्रगामी सात भल्ल मारकर उन धनुर्धरों के धनुष काट दिये। अपने विशाल धनुषों के कट जाने पर उन सातों महारथियों ने बड़ी उतावली के साथ रथ-शक्तियां उठा ली और भयंकर गर्जना की।

     भरतश्रेष्ठ! वे सातों शक्तियां प्रज्वलित हो देवराज इन्द्र के वज्र की भाँति भयंकर शब्द करती हुई श्वेत के रथ की ओर एक साथ चली। परंतु श्वेत उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता थे। उन्होंने सात भल्ल मारकर अपने निकट आने से पहले ही उन शक्तियों के टुकडे़-टुकडे़ कर दिये। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् श्वेत ने सबकी काया को विदीर्ण कर देने वाले एक बाण को लेकर उसे रुक्मरथ की ओर चलाया। वज्र से भी अधिक प्रभावशाली वह महान् बाण रुक्त-रथ के शरीर पर जा गिरा। राजन्! उस बाण से अत्यन्त घायल होकर रुक्मरथ अपने रथ के पिछले भाग पर बैठ गया और अत्यन्त मूर्च्छित हो गया। उसे अचेत और अनमना देख सारथी तनिक भी घबराहट में न पड़कर अत्यंत उतावली के साथ सबके देखते-देखते रणभूमि में दूर हटा ले गया। तब महाबाहु श्वेत ने दूसरे स्वर्णभूषित छः बाण लेकर उन छहों रथियों के ध्वज के अग्रभाग काट गिराये।

      परंतप! फिर उसके घोड़ों और सारथियों को विदीर्ण करके उनके शरीर में भी बहुत-से बाण जड़ दिये। इसके बाद श्वेत ने शल्य के रथ पर धावा किया। भारत! तब सेनापति श्वेत को शीघ्रतापूर्वक शल्य के रथ की ओर जाते देख आपकी सेनाओं में हाहाकार मच गया। तब आपके महाबली पुत्र दुर्योधन ने भीष्मजी को आगे करके सम्पूर्ण सेना के साथ श्वेत के रथ पर चढ़ाई की और मृत्यु के मुख में पहुँचे हुए मद्रराज शल्य को छुड़ा लिया। तदनन्तर आपके और पाण्डवों के सैनिक में अत्यन्त भयंकर रोमांचकारी युद्ध होने लगा। रथ से रथ और हाथी से हाथी गुंथ गये। पाण्डव पक्ष की ओर से सुभद्राकुमार अभिमन्यु, भीमसेन, महारथी सात्यकि, कैकय-राजकुमार, राजा विराट तथा द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न- ये पुरुषसिंह और चेदि एवं मत्स्यदेश के क्षत्रिय युद्ध कर रहे थे कुरुकुल के वृद्ध पुरुष पितामह भीष्म ने इन सब पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व श्वेतयुद्धविषयक सैतालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“श्वेत का महाभयंकर पराक्रम और भीष्म के द्वारा उसका वध”

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जब शल्य ने उत्तरकुमार का वध कर दिया और उसके बाद जब महान् धनुर्धर श्वेत अपना रथ शल्य के रथ के समीप लेकर पहुँचे तब कौरवों तथा पाण्डवों ने क्या किया? अथवा शान्तनुनन्दन भीष्म ने कौन-सा पुरुषार्थ किया? मेरे पूछने के अनुसार ये सब बाते मुझसे कहो।

    संजय कहते हैं ;- राजन्! पाण्डव पक्ष के लाखों क्षत्रिय शिरोमणी महारथी विराट सेनापति शूरवीर श्वेत को आगे करके आपके पुत्र दुर्योधन को अपना बल दिखाते हुए शिखण्डी को सामने रखकर भीष्म के सुवर्णभूषित रथ पर चढ़ आये। भारत! वे महारथी श्वेत की रक्षा करना चाहते थे इसलिये उसे मारने की इच्छा वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म पर उन्होंने धावा किया। उस समय बड़ाभयंकर युद्ध छिड़ गया। आपके और पाण्डवों के सैनिकों में जो महान् संहारकारी युद्ध जिस प्रकार हुआ, उसका उसी रूप में आप से वर्णन करता हूँ।

     उस युद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्म ने बहुत से रथों की बैठकों को रथियों से शून्य कर दिया। वहाँ उन्होंने अत्यन्त अद्भुत कार्य किया। अपने बाणों द्वारा बहुत-से श्रेष्ठ रथियों को बहुत पीड़ा दी। वे सूर्य के समान तेजस्वी थे। उन्होंने अपने सायकों द्वारा सूर्यदेव को भी आच्छादित कर दिया। जैसे सूर्य उदित होकर अन्धकारों को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार वे सब ओर समरभूमि शत्रुसेनाओं का संहार कर रहे थे। राजन्! उनके द्वारा चलाये हुए महान् वेग और बल से सम्पन्न तथा क्षत्रियों का विनाश करने वाले लाखों बाणों ने रणभूमि में सैकड़ों श्रेष्ठ वीरों के मस्तक काट गिराये। उन बाणों ने वज्र के मारे हुए पर्वतों की भाँति कांटेदार कवचों से सुसज्ज्ति हाथियों को भी धराशायी कर दिया। प्रजानाथ! उस समय रथ रथों से सटे हुए दिखायी देते थे। कितने ही घोडे़ अपने सहित रथ को लिये हुए दूर भागे जा रहे थे और उस पर मरा हुआ नवयुवक वीर रथी धनुष के साथ ही लटक रहा था।

     राजन्! वे प्रचण्ड घोडे़ उस रथ को लिये-दिये यत्र-तत्र घूम रहे थे। कमर में तलवार और पीठ पर तरकस बांधे हुए सैकड़ों आहत वीर मस्तक कट जाने के कारण पृथ्वी पर गिरकर वीरोचित शय्याओं पर शयन कर रहे थे। एक दूसरे पर धावा करने वाले कितने ही सैनिक गिर पड़ते और फिर उठकर खडे़ हो जाते थे। खडे़ होकर वे दौड़ते और परस्पर द्वन्द्वयुद्ध करने लगते थे और फिर आपस के प्रहारों से पीडित हो रहे थे और स्वयं भी अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए विभिन्न भागों से इधर-उधर भाग-दौड़ रहे थे। मतवाले हाथी उन घोड़ों के पीछे पड़े थे, जिनके सवार मारे गये थे। इसी प्रकार रथोंसहित रथी चारों और भूतल पर पड़ी हुई लाशों को रौंदते हुए विचरण करते थे। कितने ही वीर दूसरों के बाणों से मारे जाकर रथ से गिर पड़ते थे। कहीं सारथी के मारे जाने पर रथ साधारण काष्ठ की भाँति ऊंचे से नीचे गिर पड़ता था। उस संग्राम में इतनी धूल उड़ी कि कुछ सूझ नहीं पड़ता था। केवल धनुष की टंकार से ही यह जाना जाता था कि प्रतिद्वन्द्वी युद्ध कर रहा है। कितने ही योद्धा दूसरे योद्धाओं के शरीर स्पर्श करके ही यह समझ पाते थे कि वह शत्रु दल का है। राजन्! कुछ लोग धनुष की टंकार और सेना का कोलाहल सुनकर ही यह समझ पाते थे कि कोई बाणों द्वारा युद्ध कर रहा है। योद्धा एक दूसरे के प्रति जो वीरोचित गर्जना करते थे, वह भी उस समय अच्छी तरह सुनायी नहीं देती थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

      कानों का परदा फाड़ने वाले डंके की आवाज से सारी रणभूमि गूंज उठी थी। अतः वहाँ अपने पुरुषार्थ को प्रकट करने वाले किसी योद्धा की बात मुझे नही सुनायी देती थी। वे लोग जो आपस में नाम-गोत्र आदि का परिचय देते थे, उसे भी मैं नहीं सुन पाता था। युद्ध में भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए बाणों से समस्त योद्धा पीड़ित हो रहे थे। उन बाणों ने परस्पर सभी वीरों के हृदय कँपा दिये थे। वह युद्ध अत्यन्त भयंकर, रोमांचकारी तथा सबका व्याकुल कर देने वाला था। उसमें कोई पिता अपने पुत्र को भी पहचान नहीं पाता था। भीष्म के बाणों से पहिये टूट गये, जूआ कट गया और एकमात्र बचा हुआ रथ का घोड़ा भी मारा गया। उस दशा में रथ पर बैठा हुआ सारथी सहित वीर रथी भी उनके बाणों से आहत होकर स्वर्ग सिधारा। इस प्रकार उस समरांगण में रथहीन हुए सभी वीर भिन्न-भिन्न मार्गों से सब और दौड़ते दिखाई देते थे। किसी का हाथी मारा गया, किसी का मस्तक कट गया, किसी के मर्मस्थान विदीर्ण हो गये और किसी का घोड़ा ही नष्ट हो गया। जब भीष्म जी शत्रुओं का संहार कर रहे थे, उस समय (उनके सम्मुख आया हुआ) कोई भी ऐसा विपक्षी नहीं बचा, जो घायल न हुआ हो।

     इसी प्रकार उस महायुद्ध में श्वेत भी कौरवों का संहार कर रहे थे। उन्होंने सैकड़ों श्रेष्ठ रथी राजकुमारों का संहार कर डाला। भरतश्रेष्ठ! श्वेत ने अपने बाणों द्वारा बहुत-से रथियों के मस्तक काट डाले। उन्होंने सब ओर बाण मारकर कितने ही योद्धाओं के धनुष और बाजुबंद सहित भुजाएं काट डाली। रथ के ईषादण्ड, रथ-चक्र, तूणीर और जुए भी छिन्न-भिन्न कर दिये। राजन्! बहुमूल्य छत्र और पताकाएं भी उनके बाणों से खण्डित हो गयी। भरतनन्दन! श्वेत ने अश्वों, रथों और मनुष्यों के समुदाय का तो वध किया ही सैकड़ों हाथी भी मार गिराये। कुरुनन्दन! हम लोग भी श्वेत के भय से महारथी भीष्म को अकेला छोड़कर भाग खडे़ हुए। इसीलिये इस समय जीवित रहकर महाराज का दर्शन कर रहे हैं। हम सभी कौरव श्वेत का बाण जहाँ तक पहुँच पाता था, उतनी दूरी को लांघकर युद्धभूमि में खडे़ हो दर्शक की भाँति शान्तनुनन्दन भीष्म को देख रहे थे।

       उस महान् संग्राम में हम लोगों के लिये कातरता का समय आ गया था, तो भी अकेले परश्रेष्ठ भीष्म ही दीनता से रहित हो मेरूपर्वत की भाँति अविचलभाव से खडे़ रहे थे। जैसे सर्दी के अन्त में सूर्यदेव धरती का जल सोखने लगते हैं, उसी प्रकार भीष्म समस्त सैनिकों के प्राणों का अपहरण-सा कर रहे थे। किरणों से सुशोभित सूर्यदेव की भाँति भीष्म बाणरूपी रश्मियों से शोभा पाते हुए वहाँ खडे़ थे। जैसे वज्रपाणि इन्द्र असुरों की संहार करते हैं, उसी प्रकार महाधनुर्धर भीष्म उस रणक्षेत्र में शत्रुओं का विनाश करते हुए बारंबार बाणसमूहों की वर्षा कर रहे थे। महाबली भीष्म जी अपने झुंड से बिछुडे़ हुए हाथी की भाँति आपकी सेना से विलग होकर उस रणभूमि में अत्यन्त भयंकर हो रहे थे उनकी मार खाकर सम्पूर्ण शत्रु उन्हें छोड़कर भाग गये।

      परंतप! श्वेत को पूर्वोक्तरूप से कौरव-सेना का संहार करते देख एकमात्र भीष्म ही उत्साहित और प्रफुल हो पाण्डवों को शोक में डालते हुए जीवन का मोह और भय छोड़कर उस महासमर में दुर्योधन के प्रिय कार्य में जुट गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-61 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन्! भीष्म जी ने पाण्डवों के बहुत-से सैनिक को मार गिराया। आपके पिता देवव्रत ने जब देखा कि सेनापति श्वेत हमारी सेना पर प्रहार कर रहे हैं, तब वे तुरन्त उनका सामना करने के लिये गये। श्वेत ने अपने असंख्य बाणों का जाल सा बिछाकर भीष्म को ढक दिया। तब भीष्म ने भी श्वेत पर बाणसमूहों की वर्षा की। वे दोनों वीर गर्जते हुए दो सांडों, मद से उन्मत्त हुए दो गजराजों तथा क्रोध में भरे हुए दो सिंहों की भाँति एक दूसरे पर चोट करने लगे। तदनन्तर वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ भीष्म और श्वेत अपने अस्त्रों द्वारा विपक्षी के अस्त्रों का निवारण करके एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से युद्ध करने लगे। यदि श्वेत पाण्डव-सेना की रक्षा न करते तो भीष्म जी अत्यन्त क्रुद्ध होकर एक ही दिन में उसे भस्म कर डालते।

       तदनन्तर पितामह भीष्म को श्वेत के द्वारा युद्ध से विमुख किया हुआ देख समस्त पाण्डवों को बड़ा हर्ष हुआ परन्तु आपके पुत्र दुर्योधन का मन उदास हो गया। तब दुर्योधन कुपित हो समस्त राजाओं तथा सेना के साथ उस युद्धभूमि में पाण्डव सेना पर आक्रमण किया। दुर्मुख, कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा राजा शल्य आपके पुत्र की आज्ञा से आकर भीष्म की रक्षा करने लगे। दुर्योधन आदि सब राजाओं के द्वारा पाण्डव सेना को युद्ध में मारी जाती देख श्वेत ने गंगापुत्र भीष्म को छोड़कर आपके पुत्र की सेना पर उसी प्रकार वेगपूर्वक विनाश आरम्भ किया, जैसे आंधी अपनी शक्ति से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है।

       राजन्! विराटपुत्र श्वेत उस समय क्रोध से मूर्च्छित हो रहे थे। वे आपकी सेना को दूर भगाकर फिर सहसा वही आ पहुँचे, जहाँ भीष्म खडे़ थे। महाराज! वे दोनों महाबली महामना वीर बाणों से उदीप्त हो एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से समीप आकर वृत्रासुर और इन्द्र के समान युद्ध करने लगे। श्वेत ने धनुष खीचंकर सात बाणों द्वारा भीष्म को बेध डाला। तब पराक्रमी भीष्म ने श्वेत के उस पराक्रम को स्वयं पराक्रम करके वेगपूर्वक रोक दिया मानो किसी मतवाले हाथी ने दूसरे मतवाले हाथी को रोक दिया हो। तदनन्तर श्वेत ने पुनः झुकी हुई गांठ वाले पच्चीस बाणों से शान्तनुनन्दन भीष्म को बींध डाला। वह एक अद्भुत सी घटना हुई। तब शान्तनुनन्दन भीष्म ने भी दस बाण मारकर बदला चुकाया। उनके द्वारा घायल किये जाने पर भी बलवान श्वेत विचलित नहीं हुआ। वह पर्वत की भाँति अविचलभाव से खड़ा रहा।

      तदनन्तर क्षत्रिय कुल को आनन्दित करने वाले विराटकुमार श्वेत ने युद्ध में कुपित हो धनुष को जोर जोर से खींचकर भीष्म पर पुनः बाणों द्वारा प्रहार किया। इसके बाद उन्होंने हंसकर अपने मुंह के दोनों कोनों को चाटते हुए नौ बाण मारकर भीष्म के धनुष के दस टुकडे़ कर दिये। फिर शिखाशून्य पंखयुक्त बाण का संधान करके उसके द्वारा महात्मा भीष्म के ताल चिह्नयुक्त ध्वज का ऊपरी भाग काट डाला। भीष्म के ध्वज को नीचे गिरा देख आपके पुत्रों ने उन्हे श्वेत के वश में पकड़कर मरा हुआ ही माना। महात्मा भीष्म के तालध्वज को पृथ्वी पर पड़ा देख पाण्डव हर्ष उल्लासित हो प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाने लगे। तब दुर्योधन ने क्रोधपूर्वक अपनी सेना को आदेश दिया। ‘वीरो! सावधान होकर सब और से भीष्म की रक्षा करते हुए उन्हें घेरकर खडे़ हो जाओ। कहीं ऐसा न हो कि ये हमारे देखते-देखते श्वेत के हाथों से मारे जायें। मैं तुम लोगों को सत्य कहता हूँ कि शान्तनुनन्दन भीष्म महान् शूरवीर हैं’।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 62-83 का हिन्दी अनुवाद)

      राजा दुर्योधन की यह बात सुनकर सब महारथी बड़ी उतावली के साथ वहाँ आये और चतुरंगिणी सेना द्वारा गंगा-नन्दन भीष्म की रक्षा करने लगे। भारत! बाह्लीक, कृतवर्मा, शल, शल्य, जलसंध, विकर्ण, चित्रसेन और विविंशति- इन सबने शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करते हुए चारों और से भीष्म जी को घेर लिया और श्वेत के ऊपर भयंकर शस्त्र वर्षा करने लगे। तब अपरिमित आत्मबल से सम्पन्न महारथी श्वेत ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए बड़ी उतावली के साथ क्रोधपूर्वक पैने बाणों द्वारा उन सबको रोक दिया। जैसे सिंह हाथियों के समूह को आगे बढ़ने से रोक देता है, उसी प्रकार उन सभी महारथियों को रोककर भारी बाणवर्षा के द्वारा श्वेत ने भीष्म का धनुष काट दिया।

       राजेन्द्र! तब शान्तनुनन्दन भीष्म ने दूसरा धनुष लेकर युद्धस्थल कंक पत्रयुक्त पैने बाणों द्वारा श्वेत को घायल कर दिया। राजन्! तब सेनापति श्वेत ने कुपित हो उस समरभूमि में बहुत-से लोहमय बाणों द्वारा सब लोगों के देखते-देखते भीष्म को क्षत-विक्षत कर दिया। श्वेत ने सम्पूर्ण विश्व के विख्यात वीर भीष्म को युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दिया, यह देखकर राजा दुर्योधन के मन में बड़ी व्यर्था हुई साथ ही आपकी सेना में सब लोगों पर महान भय छा गया। श्वेत ने वीरवर भीष्म को कुण्ठित कर दिया और उनका शरीर बाणों से क्षत-विक्षत हो गया है, यह देखकर सब लोग यह मानने लगे की भीष्म जी श्वेत के वश में पड़ गये और उन्हीं के हाथ से मारे जायेंगे। अब आपके पिता देवव्रत भीष्म अपने ध्वज को टूटकर गिरा हुआ और सेना को निवारित की हुई देखकर क्रोध के अधीन हो गये।

      महाराज! उन्होंने श्वेत पर बहुत-से बाणों की वर्षा की, परन्‍तु रथियों में श्रेष्ठ श्वेत ने रणक्षेत्र में उन सब सायकों का निवारण करके पुनः एक भल्ल के द्वारा आपके पिता भीष्म का धनुष काट दिया। राजन्! यह देख गंगानन्दन भीष्म ने क्रोध मूर्च्छित हो उस धनुष को फेंककर दूसरा अत्यन्त प्रबल एवं विशाल धनुष ले लिया और उसके ऊपर पत्थर पर रगड़ कर तेज किये हुए सात विशाल भल्लों का संघान किया। उनमें से चार भल्लों के द्वारा उन्होंने सेनापति श्वेत के चार घोड़ों को मार डाला, दो से उनका ध्वज काट दिया और अपनी फुर्ती का परिचय देते हुए सातवें भल्ल के द्वारा क्रोधपूर्वक उनके सारथी का सिर उड़ा दिया। घोडे़ और सारथी के मारे जाने पर महाबली श्वेत उस रथ से कूद पड़े और अमर्ष के वशीभूत होकर व्याकुल हो उठे। रथियों में श्रेष्ठ श्वेत का रथहीन हुआ देख पितामह भीष्म ने चारों और से पैने बाणसमूहों द्वारा उन्हें पीड़ा देनी प्रारम्भ की।

      उस समरभूमि में भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा पीड़ित होने पर श्वेत ने धनुष को रथ पर ही छोड़कर सुवर्णमयी शक्ति हाथ में ले ली। अत्यन्त अग्र, महाभयंकर, कालदण्ड के समान घोर और मृत्यु की जिह्वा-सी प्रतीत होने वाली उस शक्ति को श्वेत ने हाथ में उठाया और लंबी सांस लेते हुए रणक्षेत्र में शान्तनुपुत्र भीष्म से इस प्रकार कहा,

    श्वेत ने कहा ;- ‘भीष्म! इस समय साहसपूर्वक खडे़ रहो। मुझे देखो और पुरुष बनो’, ऐसा कहकर अमित आत्मबल से सम्पन्न महा-धनुर्धर और पराक्रमी वीर श्वेत ने भीष्म पर वह सर्प के समान भयंकर शक्ति चलायी। श्वेत पाण्डवों का हित और आपके पक्ष का अहित करने की इच्छा से पराक्रम दिखा रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 84-106 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! श्वेत के हाथ से छूटकर यमदण्ड के समान प्रकाशित होने वाली और केंचुल निकली हुई सर्पिणी-की भाँति अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाली उस शक्ति को देखकर आपके पुत्रों के दल में महान् हाहाकार मच गया। राजन्! वह शक्ति आकाश से बहुत बड़ी उल्का के समान सहसा गिरी। अन्तरिक्ष में ज्वालाओं से घिरी हुई-सी उस प्रज्वलित शक्ति को देखकर आपके पिता देवव्रत को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने आठ-नौ बाण मारकर उसके टुकडे़-टुकडे़ कर दिये। भरतश्रेष्ठ! उत्तम सुवर्ण की बनी हुई उस शक्ति को भीष्म के पैने बाणों से नष्ट हुए देख आपके पुत्र हर्ष के मारे जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। अपनी शक्ति को इस प्रकार विफल हुई देख विराटपुत्र श्वेत क्रोध से मूर्च्छित हो गये। काल ने उनकी विवेक शक्ति को नष्ट कर दिया था। उन्‍हें अपने कर्तव्य का मान न रहा। उन्होंने हर्ष से उत्साहित हो हँसते-हँसते भीष्म को मार डालने के लिये हाथ में गदा उठा ली। उस समय उनकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थी। वे हाथ में दण्ड लिये यमराज के समान जान पड़ते थे।

     जैसे महान् जल प्रवाह किसी पर्वत से टकराता हो, उसी प्रकार वे गदा लिये भीष्म की और दौड़े। प्रतापी भीष्म उसके वेग को अनिवार्य समझकर उस प्रहार से बचने के लिये सहसा पृथ्वी पर कूद पड़े। उधर श्वेत ने क्रोध से व्याप्त हो उस गदा को आकाश में घुमाकर भीष्म के रथ पर फेंक दिया, मानो कुबेर ने गदा का प्रहार किया हो। भीष्म को मार डालने के लिये चलायी हुई उस गदा के आघात से ध्वज, सारथी, घोडे़ं, जुआ और धुरा आदि के साथ वह सारा रथ चूर-चूर हो गया। रथियों में श्रेष्ठ भीष्म को रथहीन हुआ देख शल्य आदि उत्तम महारथी एक साथ दौडे़। तब दूसरे रथ पर बैठकर धनुष की टंकार करते हुए गंगानन्दन भीष्म उदास मन से हँसते हुए से धीरे-धीरे श्वेत की ओर चले। इसी बीच में भीष्म ने अपने हित से सम्बन्ध देखने वाली एक दिव्य एवं गम्भीर आकाशवाणी सुनी- ‘महाबाहु भीष्म! शीघ्र प्रयत्न करो। इस श्वेत पर विजय पाने के लिये ब्रह्मा जी ने यही समय निश्चित किया है’। देवदूत का कहा हुआ यह वचन सुनकर भीष्म जी का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने श्वेत के वध का विचार किया।

      रथियों में श्रेष्ठ श्वेत को रथहीन और पैदल देख उसकी रक्षा करने के लिये एक साथ बहुत-से महारथी दौड़े आये। उनके नाम इस प्रकार है- सात्यकि, भीमसेन, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, केकयराजकुमार, धृष्टकेतु तथा पराक्रमी अभिमन्यु। इन सबको आते देख अमेय शक्ति सम्पन्न भीष्म जी ने द्रोणाचार्य, शल्य तथा कृपाचार्य के साथ जाकर उनकी गति रोक दी, मानो किसी पर्वत ने जल के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया हो। समस्त महामना पाण्डवों के अवरुद्ध हो जाने पर श्वेत ने तलवार खिंचकर भीष्म का धनुष काट दिया। उस कटे हुए धनुष को फेंककर पितामह भीष्म ने देवदूत के कथन पर ध्यान देकर तुरन्त ही श्वेत के वध का निश्चय किया। तदनन्तर! आपके पिता महारथी देवव्रत ने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर वहाँ विचरण करते हुए ही क्षणभर में उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी। वह इन्द्रधनुष के समान प्रकाशित हो रहा था। भरतश्रेष्ठ! आपके पिता गंगानन्दन भीष्म ने परश्रेष्ठ भीमसेन आदि महारथियों से घिरे हुए सेनापति श्वेत को देखकर उन पर तुरंत धावा किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 107-121 का हिन्दी अनुवाद)

      उस समय सेनानायक भीम को सामने आते देख प्रतापी महारथी भीष्म ने उन्हें साठ बाणों से घायल कर दिया। उस समरभूमि में आपके पिता भरतश्रेष्ठ भीष्म ने झुकी हुई गांठ वाले तीन बाणों से अभिमन्यु को चोट पहुँचायी। भरतवंशियों के उन पितामह ने युद्धस्थल सौ बाणों से सात्यकि को, बीस सायकों द्वारा धृष्टद्युम्न को और पांच बाणों से केकयराजकुमार को क्षत-विक्षत कर दिया। उस प्रकार आपके पिता भीष्म ने अपने भयंकर बाणों द्वारा उन सम्पूर्ण महा-धनुर्धरों को जहाँ के तहां रोककर पुनः श्वेत पर ही आक्रमण किया।

      तदनन्तर महाबली भीष्म ने धनुष को खींचकर उसके ऊपर एक मृत्यु के समान भयंकर, भारी-से-भारी लक्ष्य को बेधने में समर्थ, उत्तम और दुःसह पंखयुक्त बाण रखा फिर उसे ब्रह्मास्त्र द्वारा अभिमंत्रित करके छोड़ दिया। उस समय देवताओं, गन्धर्वों, पिशाचों, नागों तथा राक्षसों ने भी देखा, वह बाण महान् वज्र के समान प्रज्वलित हो उठा और अमित बलशाली श्वेत के कवच तथा हृदय को भी छेदकर धरती में समा गया। जैसे डूबता हुआ सूर्य अपनी प्रभा को साथ लेकर शीघ्र ही अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वह बाण श्वेत के शरीर से उसके प्राण लेकर चला गया।

     भीष्म के द्वारा मारे गये नरश्रेष्ठ श्वेत युद्धस्थल में हमने देखा। वह टूटकर गिरे हुए पर्वत के समान जान पड़ता था। महाबली पाण्डव तथा उस दल के दूसरे क्षत्रिय श्वेत के लिये शोक में डूब गये। इधर आपके पुत्र समस्त कौरव हर्ष से उल्लसित हो उठे। राजन्! श्वेत को मारा गया देख आपका पुत्र दुःशासन बाजे-गाजे की भयंकर ध्वनि के साथ चारों और नाचने लगा। संग्रामभूमि में शोभा पाने वाले भीष्म जी के द्वारा महाधनुर्धर श्वेत के मारे जाने पर शिखण्डी आदि महाधनुर्धर रथी भय के मारे कांपने लगे।

     राजन्! तब सेनापति श्वेत के मारे जाने के कारण अर्जुन और श्रीकृष्ण धीरे-धीरे अपनी सेना को युद्धभूमि से पीछे हटा लिया। भारत! फिर आपकी और पाण्डवों की सेना भी उस समय युद्ध से विरक्त हो गयी। उस समय आपके और शत्रु पक्ष के सैनिक भी बारबार गर्जना कर रहे थे। उस द्वैरथ युद्ध में जो भयंकर संहार हुआ था, उसके लिये चिन्ता करते हुए शत्रुसंतापी पाण्डव महारथी उदास मन से शिविर में लौट आये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व श्वेतवधविषयक अड़तालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

उनचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“शंख का युद्ध, भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- तात! जब सेनापति श्वेत के शत्रुओं द्वारा युद्धस्थल में मारे जाने पर महान् धनुर्धर पांचालों और पाण्डवों ने क्या किया? संजय! सेनापति श्वेत युद्ध में मारे गये। उनकी रक्षा के लिये प्रयत्न करने पर भी शत्रुओं को पलायन करना पड़ा तथा अपने पक्ष की विजय हुई ये सब बातें सुनकर मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हो रही है। शत्रुओं के प्रतीकार का उपाय सोचते हुए मुझे अपने पक्ष के द्वारा की गयी अनीति का स्मरण करके भी लज्जा नहीं आती है। वे वृद्ध एवं वीर कुरुराज भीष्म हम पर सदा अनुराग रखते हैं (इस कारण ही उन्होंने श्वेत के साथ ऐसा व्यवहार किया होगा)। उस बुद्धिमान विराटपुत्र श्वेत ने अपने पिता के साथ वैर बांध रखा था, इस कारण पिता के द्वारा प्राप्त होने वाले उद्वेग एवं भय से श्वेत ने पहले ही पाण्डवों की शरण ले ली थी। पहले तो वह समस्त सेना का परित्याग करके (अकेला ही) दुर्ग में छिपा रहता था। फिर पाण्डवों के प्रताप से दुर्गम प्रदेश में रहकर निरन्तर शत्रुओं को बाधा पहचाते हुए सदाचार का पालन करने लगा। क्योंकि पूर्वकाल में अपने साथ विरोध करने वाले उन राजाओं के प्रति उसकी बुद्धि में दुर्भाव था पर संजय! आश्चर्य तो यह है कि ऐसा शूरवीर श्वेत, जो युधिष्ठिर का बड़ा भक्त था, मारा कैसे गया?

      मेरा पुत्र दुर्योधन क्षुद्र स्वभाव का है। वह कर्ण आदि का प्रिय तथा चंचल बुद्धि वाला है। मेरी दृष्टि में वह समस्त पुरुषों में अधम है (इसीलिये उनके मन में युद्ध के लिये आग्रह है)। संजय! मै, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा गान्धारी- इनमें से कोई भी युद्ध नहीं चाहता था। वृष्णिवंशी भगवान वासुदेव, पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा पुरुषरत्न नकुल-सहदेव भी युद्ध नहीं पसंद करते थे। मैंने, गान्धारी ने और विदुर ने तो सदा ही उसे मना किया है, जमदग्निपुत्र परशुराम ने तथा महात्मा व्यास जी ने भी उसे युद्ध से रोकने का प्रयत्न किया है तथापि, कर्ण, शकुनि, तथा दुःशासन के मत में आकर पापी दुर्योधन सदा युद्ध का ही निश्चय रखता आया है। उसने पाण्डवों को कभी कुछ नहीं समझा।

       संजय! मेरा तो विश्वास है कि दुर्योधन पर घोर संकट प्राप्त होने वाला है। श्वेत के मारे जाने और भीष्म की विजय होने से अत्यन्त क्रोध में भरे श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने युद्ध स्थल में क्या किया? तात! अर्जुन से मुझे अधिक भय बना रहता है और वह भय कभी शांत नहीं होता क्योंकि कुन्तीपुत्र अर्जुन शूरवीर तथा शीघ्रतापूर्वक अस्त्र संचालन करने वाला है। मै समझता हूँ कि वह अपने बाणों द्वारा शत्रुओं के शरीरों को मथ डालेगा। इन्द्रकुमार अर्जुन भगवान विष्णु के समान पराक्रमी और महेन्द्र के समान बलवान है। उसका क्रोध और संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। उसे देखकर तुम लोगों के मन में क्या विचार उठा था? अर्जुन वेदज्ञ, शौर्य सम्पन्न, अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, इन्द्रस्त्र का ज्ञाता, अमेय आत्मबल से सम्पन्न, वेगपूर्वक आक्रमण करने वाला और बड़े-बड़े संग्रामों में विजय पाने वाला है। वह ऐसे-ऐसे अस्त्रों का प्रयोग करता है, जिसका हल्का सा स्पर्श भी वज्र के समान कठोर है। महारथी अर्जुन अपने हाथ में सदा तलवार खींचे ही रहता है और उसका प्रहार करके विकट गर्जना करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)

       संजय! द्रुपद के परम बुद्धिमान पुत्र बलवान् धृष्टद्युम्न ने श्वेत के युद्ध में मारे जाने पर क्या किया? पहले भी कौरवों द्वारा पाण्डवों का अपराध हुआ है उससे तथा सेनापति के वध से महामना पाण्डवों के हृदय में आग-सी लग गयी होगी, यह मेरा विश्वास है। दुर्योधन के कारण पाण्डवों के मन में जो क्रोध है, उसका चिन्तन करके मुझे न तो दिन में शांति मिलती है, न रात्रि में ही। संजय! वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ, यह सब मुझे बताओ।

     संजय ने कहा ;- राजन्! स्थिर होकर सुनिये। इस युद्ध के होने में सबसे बड़ा अन्याय आपका ही है। इसका सारा दोष आपको दुर्योधन के माथे नहीं मढ़ना चाहिये। जैसे पानी की बाढ़ निकल जाने पर पुल बांधने का प्रयास किया जाय अथवा घर में आग लग जाने पर उसे बुझाने के लिये कुआं खोदने की चेष्टा की जाय, उसी प्रकार आपकी यह समझ है। उस भयंकर दिन के पूर्वभाव का अधिकांश व्यतीत हो जाने पर आपके और पाण्डवों के सैनिकों में पुनः युद्ध आरम्भ हुआ।

      विराट के सेनापति श्वेत को मारा गया और राजा शल्य को कृतवर्मा के साथ रथ पर बैठा हुआ देख शंख क्रोध से जल उठा, मानो अग्नि में घी की आहुति पड़ गयी हो। उस बलवान वीर ने इन्द्रधनुष के समान अपने विशाल शरासन को कानों तक खींचकर मद्रराज शल्य को युद्ध में मार डालने की इच्छा से उन पर धावा किया। विशाल रथ सेना के द्वारा सब ओर से घिरकर बाणों की रक्षा करते हुए उसने शल्य के रथ पर आक्रमण किया। मतवाले हाथी के समान पराक्रम प्रकट करने वाले शंख को धावा करते देख आपके सात रथियों ने मौत के दांतों में फँसे हुए मद्रराज शल्य को बचाने की इच्छा रखकर उन्हें चारों और से घेर लिया। राजन्! उन रथियों के नाम ये हैं- कोसलनरेश बृहद्बल, मगधदेशीय जयत्सेन, शल्य के प्रतापी पुत्र रुक्मरथ, अवन्ति के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण तथा बृहत्क्षत्र के पुत्र सिंधुराज जयद्रथ।

      इन महामना वीरों के फैलाये हुए अनेक रूप-रंग के विचित्र धनुष बादलों में बिजलियों के समान दष्टिगोचर हो रहे थे। उन सब ने शंख के मस्तक पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो ग्रीष्म ऋतु के अन्त में वायु द्वारा उठाये हुए मेघ पर्वत पर जल बरसा रहे हों। उस समय महान् धनुर्धर सेनापति शंख ने कुपित होकर तेज किये हुए भल्ल नाम सात बाणों द्वारा उन सातों रथियों के धनुष काटकर गर्जना की। तदनन्तर महाबाहु भीष्म ने मेघ के समान गर्जना करके चार हाथ लंबा धनुष लेकर रणभूमि में शंख पर धावा किया। उस समय महाधनुर्धर महाबली भीष्म को युद्ध के लिये उद्यत देख पाण्डव सेना वायु के वेग से डगमग होने वाली नौका की भाँति काँपने लगी। यह देख अर्जुन तुरन्त ही शंख के आगे आ गये। उनके आगे आने का उद्देश्य यह था कि आज भीष्म के हाथ से शंख को बचाना चाहिये। फिर तो महान् युद्ध आरम्भ हुआ। उस समय रणक्षेत्र में जूझने वाले योद्धाओं का महान हाहाकार सब ओर फेल गया। तेज के साथ तेज टक्कर ले रहा है, यह कहते हुए सब लोग बड़े विस्मय में पड़ गये। भरतश्रेष्ठ! उस समय राजा शल्य ने हाथ में गदा लिये अपने विशाल रथ से उतर कर शंख के चारों घोड़ों को मार डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 40-53 का हिन्दी अनुवाद)

      घोडे़ मारे जाने पर शंख तुरन्त ही तलवार लेकर रथ से कूद पड़ा और अर्जुन के रथ पर चढ़कर उसने पुनः शांति की सांस ली। तत्पश्चात् भीष्म के रथ से शीघ्रतापूर्वक पंखयुक्त बाण पक्षी के समान उड़ने लगे, जिन्होंने पृथ्वी और आकाश सबको आच्छादित कर दिया। योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म पांचाल, मत्स्य, केकय तथा प्रभद्रक वीरों को अपने बाणों से मार मारकर गिराने लगे।

     राजन्! भीष्म ने समरभूमि में सव्यसाची अर्जुन को छोड़कर सेना से घिरे हुए पांचालराज द्रुपद पर धावा किया और और अपने प्रिय सम्बन्धी पर बहुत-से बाणों की वर्षा की। जैसे ग्रीष्म ऋतु में आग लगने से सारे वन दग्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार द्रुपद की सारी सेनाएं भीष्म के बाणों से दग्घ दिखायी देने लगीं। उस समय भीष्म रणभूमि में धूमरहित अग्नि के समान खडे़ थे। जैसे दुपहरी में अपने तेज से तपते हुए सूर्य की ओर देखना कठिन है, उसी प्रकार पाण्डव-सेना के सैनिक भीष्म की ओर दृष्टिपात करने में भी असमर्थ हो गये। पाण्डव योद्धा भय से पीड़ित हो सब ओर देखने लगे परन्तु सर्दी से पीड़ित हुई गौओं की भाँति उन्हें अपना कोई रक्षक नहीं मिला।

      राजन्! गंगानन्दन भीष्म के बाणों से पीड़ित हुई वह युधिष्ठिर की (श्वेत-परिधानविभूषित) सेना सिंह के द्वारा सतायी हुई सफेद गाय के समान प्रतीत होने लगी। भारत! पाण्डव-सेना के सैनिक बहुत-से मारे गये, बहुत से भाग गये, कितने रौंद डाले गये और कितने ही उत्साह-शून्य हो गये। इस प्रकार पाण्डव दल में बड़ा हाहाकार मच गया था। उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म अपने धनुष को खींचकर गोल बना देते और उसके द्वारा विषैले सर्पों की भाँति भयंकर प्रज्वलित अग्रभाग वाले बाणों की निरन्तर वर्षा करते थे।

       भारत! नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले भीष्म सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों से एक रास्ता बना देते और पाण्डव रथियों को चुन-चुनकर-उनके नाम ले-लेकर मारते थे। इस प्रकार सारी सेना मथित हो उठी, व्यूह भंग हो गया और सूर्य अस्ताचल को चले गये उस समय अंधेरे में कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। भरतश्रेष्ठ! इधर, उस महान् युद्ध में भीष्म का वेग अधिकाधिक प्रचण्ड होता जा रहा था, यह देख कुन्ती के पुत्रों ने अपनी सेनाओं को युद्धक्षेत्र से पीछे हटा लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में शंख का युद्ध तथा प्रथम दिन के युद्ध का उपसंहारविषयक उनचासवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर की चिंता, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आश्वासन, धृष्टद्युम्न का उत्साह तथा द्वितीय दिन के युद्ध के लिये क्रौचारूणव्यूह का निर्माण”

     संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! प्रथम दिन के युद्ध में जब पाण्डव सेना पीछे हटा दी गयी, भीष्म जी का युद्धविषयक उत्साह बढ़ता ही गया और दुर्योधन हर्षातिरेक से उल्लसित हो उठा, उस समय धर्मराज युधिष्ठिर अपने सभी भाईयों और सम्पूर्ण राजाओं के साथ तुरन्त भगवान श्रीकृष्ण के पास गये और अत्यन्त शोक से संतप्त हो भीष्म के ऐसे पराक्रम तथा अपनी पराजय की चिंता करते हुए भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले,

      युधिष्ठिर बोले ;- ‘श्रीकृष्ण! देखिये, महान् धनुर्धर और भयंकर भीष्म अपने बाणों द्वारा मेरी सेना को उसी प्रकार दग्ध कर रहे हैं, जैसे ग्रीष्म ऋतु में लगी हुई आग घास-फूंस को जलाकर भस्म कर डालती है। जैसे अग्निदेव प्रज्ज्वलित होकर हविष्य की आहुति ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार ये महामना भीष्म अपनी बाणरूपी जिह्वा से मेरी सेना को चाटते जा रहे हैं। हम लोग कैसे इनकी और देख सकेंगे-किस प्रकार इसका सामना कर सकेंगे? हाथों में धनुष लिये इन महाबली पुरुषसिंह भीष्म को देखकर और समरभूमि में इनके बाणों से आहत होकर मेरी सारी सेना भागने लगती है। क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण अथवा गदाधारी कुबेर भी कदाचित् युद्ध में जीते जा सकते हैं परन्तु महातेजस्वी, महाबली भीष्म को जीतना अशक्य है।

     केशव! ऐसी दशा में तो अपनी बुद्धि की दुर्बलता के कारण भीष्म से टक्कर लेकर भीष्मरूपी अगाध जलराशि में नाव के बिना डूबा जा रहा हूँ। वार्ष्णेय! अब मैं वन को चला जाऊंगा। वही जीवन बिताना मेरे लिये कल्याणकारी होगा। इन भूपालों को व्यर्थ ही भीष्मरूपी मृत्यु को सौंप देने में कोई भलाई नहीं है। श्रीकृष्ण! भीष्म महान् दिव्यास्त्रों के ज्ञाता हैं। वे मेरी सारी सेना का संहार कर डालेंगे। जैसे पतंगे मरने के लिये ही जलती आग में कूद पडते हैं, उसी प्रकार मेरे समस्त सैनिक अपने विनाश के लिये ही भीष्म के समीप जाते हैं। वार्ष्‍णेय! राज्य के लिये पराक्रम करके मैं सब प्रकार से क्षीण होता जा रहा हूँ। मेरे वीर भ्राता बाणों से पीड़ित होकर अत्यन्त कृश होते जा रहे थे। ये बन्धुजनोचित सौहार्द के कारण मेरे लिये राज्य और सुख से वंचित हो दुःख भोग रहे हैं। इस समय मैं इनके और अपने जीवन को ही बहुत अच्छा समझता हूँ क्योंकि अब जीवन भी दुर्लभ है। केशव! जीवन बच जाने पर मैं दुष्कर तपस्या करूंगा परन्‍तु रणक्षेत्र में इन मित्रों की व्यर्थ हत्या नहीं कराऊँगा।

     महाबली भीष्म अपने दिव्य अस्त्रों द्वारा मेरे पक्ष के श्रेष्ठ एवं प्रहार कुशल कई सहस्र रथियों का निरन्तर संहार कर रहे हैं। माधव! शीघ्र बताइये, क्या करने से मेरा हित होगा? सव्यसाची अर्जुन को तो मैं इस युद्ध में मध्यस्थ (उदासीन) सा देख रहा हूँ। एकमात्र महाबाहु भीमसेन ही क्षत्रिय-धर्म का विचार करता हुआ केवल बाहुबल के भरोसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध कर रहा है। महामना भीमसेन उत्साहपूर्वक अपनी वीर घातिनी गदा के द्वारा रथ, घोडे़, मनुष्य और हाथियों पर अपना दुष्कर पराक्रम प्रकट कर रहा है। माननीय वीर श्रीकृष्ण! यदि इस तरह सरलतापूर्वक ही युद्ध किया जाय तो यह भीमसेन अकेला सौ वर्षों में भी शत्रु-सेना का विनाश नहीं कर सकता।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)

        ‘केवल आपका यह सखा अर्जुन ही दिव्यास्त्रों का ज्ञाता है, परन्तु यह भी महामना भीष्म और द्रोण के द्वारा दग्घ होते हुए हम लोगों की उपेक्षा कर रहा है। महामना भीष्म और द्रोण के दिव्यास्त्र बार-बार प्रयुक्त होकर सम्पूर्ण क्षत्रियों को भस्म कर डालेंगे। श्रीकृष्ण! भीष्म क्रोध में भरकर अपने पक्ष के समस्त राजाओं के साथ मिलकर निश्चय ही हम लोगों का विनाश कर देंगे। जैसा उनका पराक्रम है, उससे यही सूचित होता है। महाभाग योगेश्वर! आप ऐसे किसी महारथी को ढूंढ निकालिये, जो संग्रामभूमि में भीष्म को उसी प्रकार शांत कर दे, जैसे बादल दावानल को बुझा देता है। गोविन्द! आपकी कृपा से ही पाण्डव अपने शत्रुओं को मारकर स्वराज्य प्राप्त करके बन्धु-बान्धवों सहित सुखी होंगे’। ऐसा कहकर महामना युधिष्ठिर शोक से व्याकुलचित्त हो बहुत देर तक मन को अन्तर्मुख करके ध्यानमग्न बैठे रहे।

     युधिष्ठिर को शोक से आतुर और दुःख से व्यथितचित्त जानकर गोविन्द ने समस्त पाण्डवों का हर्ष बढ़ाते हुए कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘भरतश्रेष्ठ तुम शोक न करो। इस प्रकार शोक करना तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम्हारे शूरवीर भाई सम्पूर्ण लोकों में विख्यात धनुर्धर हैं। राजन्! मैं भी तुम्हारा प्रिय करने वाला ही हूँ। नृपश्रेष्ठ! महायशस्वी सात्यकि, विराट, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तथा सेनासहित ये सम्पूर्ण नरेश आपके कृपाप्रसाद की प्रतीक्षा करते हैं। महाराज! ये सब-के-सब आपके भक्त हैं। ये द्रुपदपुत्र महाबली धृष्टद्युम्न भी सदा आपका हित चाहते हैं और आपके प्रिय साधन में तत्पर होकर ही इन्होंने प्रधान सेनापति का गुरुतर भार ग्रहण किया है। महाबाहो! निश्चय ही इन समस्त राजाओं के देखते-देखते यह शिखण्डी भीष्म का वध कर डालेगा, इसमें तनिक भी संदेह नही है’।

       यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के सुनते ही उस सभा में महारथी धृष्टद्युम्न से कहा- ‘आदरणीय वीर धृष्टद्युम्न! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, इसे ध्यान देकर सुनो। मेरे कहे हुए वचनों को तुम्हें उल्लंघन नहीं करना चाहिये। तुम मेरे सेनापति हो, भगवान श्रीकृष्ण के समान पराक्रमी हो। पुरुषरत्न! पूर्वकाल में भगवान कार्तिकेय जिस प्रकार देवताओं के सेनापति हुए थे, उसी प्रकार तुम भी पाण्डवों के सेनानायक होओ’।

     युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर समस्त पाण्डव और महारथी भूपालगण सब-के-सब ‘साधु-साधु’ कहकर उनके इन वचनों की सराहना करने लगे। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर ने पुनः महाबली धृष्टद्युम्न से कहा- ‘पुरुषसिंह! तुम पराक्रम करके कौरवों का नाश करो। मारिष! नरश्रेष्ठ! मैं, भीमसेन, श्रीकृष्ण, माद्रीकुमार नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पांचों पुत्र तथा अन्य प्रधान-प्रधान भूपाल कवच धारण करके तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे’।

      तब धृष्टद्युम्न ने सबका हर्ष बढ़ाते हुए कहा- ‘पार्थ! मुझे भगवान शंकर ने पहले ही द्रोणाचार्य का काल बनाकर उत्पन्न किया है। पृथ्वीपते! आज समरांगण में मैं भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, शल्य तथा जयद्रथ- इन समस्त अभिमानी योद्धाओं का सामना करूंगा।' यह सुनकर युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले महान् धनुर्धर पाण्डवों ने उच्चस्वर में सिंहनाद किया तथा शत्रुसुदन नृपश्रेष्ठ द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के इस प्रकार युद्ध के लिये उद्यत होने पर कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने सेनापति द्रुपदकुमार से पुनः इस प्रकार कहा- ‘सेनापति! क्रौंचारुण नामक व्यूह समस्त शत्रुओं का संहार करने वाला है जिसे बृहस्पति ने देवासुर-संग्राम के अवसर पर इन्द्र को बताया था। शत्रुसेना का विनाश करने वाले उस क्रोचारूप व्यूह का तुम यथावत् रूप से निर्माण करो। आज समस्त राजा कौरवों के साथ उस अदृष्टपूर्व व्यूह को अपनी आंखों से देखे’।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे वज्रधारी इन्द्र भगवान विष्णु से कुछ कहते हों, उसी प्रकार नरदेव युधिष्ठिर पूर्वोक्‍त बात कहने पर व्यूह रचना में कुशल धृष्टद्युम्न ने बृहस्पति की बतायी हुई विधि से प्रातःकाल (सूर्योदय पूर्व) ही समस्त सेनाओं का व्यूह निर्माण किया उन्होंने सबसे आगे अर्जुन को खड़ा किय। उनका अद्भुत एवं मनोरम ध्वज सूर्य के पथ में (ऊँचे आकाश में) फहरा रहा था। इन्द्र के आदेश से साक्षात विश्वकर्मा ने उसका निर्माण किया था। इन्द्रधनुष के रंग की पताकाएं उस ध्वज की शोभा बढ़ाती थी। वह ध्वज आकाश में आकाशचारी पक्षी की भाँति बिना आधार के ही चलता था। वह दूसरे गन्धर्व नगर के समान जान पड़ता था। आर्य! रथ के मार्गों पर अर्जुन का वह ध्वज नृत्य करता-सा प्रतीत होता था उस रत्नयुक्त ध्वज से अर्जुन की और गाण्डीवधारी अर्जुन से उस ध्वज की बड़ी शोभा होती थी, ठीक उसी तरह जैसे मेरु पर्वत से सूर्य की और सूर्य से मेरु पर्वत की शोभा होती है।

     राजन्! अपनी विशाल सेना के साथ राजा द्रुपद उस व्यूह के सिर के स्थान पर थे। कुन्तिभोज और धृष्टकेतु यह दोनों नरेश नेत्रों के स्थान पर प्रतिष्ठित हुए। भरतश्रेष्ठ! दाशार्णक, दाशेरक समूहों के साथ प्रभद्रक, अनूपक और किरातगण गर्दन के स्थान में खडे़ किये गये। पटचर, पौण्ड्र, पौरव तथा निषादों के साथ स्वयं राजा युधिष्ठिर पृष्ठभाग में स्थित हुए। भीमसेन और धृष्टद्युम्न क्रोचपक्षी के दोनों पंखों के स्थान पर नियुक्त किये गये।

        राजन्! द्रौपदी के पुत्र, अभिमन्यु और महारथी सात्यकि के साथ पिशाच, दारद, पुण्ड्र, कुण्डीविष, मारूत, धेनुक, तरंग, परतगण, बाह्लीक, तित्तिर, चोल तथा पाण्ड्य- इन जनपदों के लोग दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर खडे़ हुए। अग्निवेश्य, हुण्ड, मालव, दानभारि, शबर, उद्रस, वत्स तथा नाकुल जनपदों के साथ दोनों भाई नकुल और सहदेव ने बायें पंख का आश्रय लिया। उस क्रौचपक्षी के पंखभाग में दस हजार, शिरोभाग में एक लाख, पृष्ठभाग में एक अर्बुद बीस हजार तथा ग्रीवा भाग में एक लाख सत्तर हजार रथ मौजूद थे। राजन्! पक्ष (पंख) कोटि (अग्रभाग), प्रपक्ष (पंख के भीतर के छोटे-छोटे पंख) तथा पक्षान्त-भागों में चलते-फिरते पर्वतों के समान हाथियों के झुंड चले। वे सब-के-सब सेनाओं से घिरे हुए थे। राजा विराट केकय राजकुमारों के साथ उस व्यूह के जघन (कटि के अग्रभाग) की रक्षा करते थे। काशिराज और शैव्य भी तीस हजार रथियों के साथ उसी की रक्षा में तत्पर थे। भारत! इस प्रकार पाण्डव क्रौचारूण नामक महाव्यूह की रचना करके सूर्योदय की प्रतिक्षा करते हुए युद्ध के लिये कवच आदि से सुसज्जित हो खडे़ हो गये। उनके हाथियों और रथों के ऊपर सूर्य के समान प्रकाशमान, निर्मल एवं महान् श्वेतच्छत्र शोभा पा रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में क्रौचव्यूहनिर्माण विषयक पचासवां अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें