सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के तैतालिसवें अध्याय से पैतालीसवें अध्याय तक (From the 43 chapter to the 45 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

तैतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“गीता का माहात्मय तथा युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य से अनुमति लेकर युद्ध के लिये तैयार होना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की क्या आवश्यकता है। गीता का ही अच्छी तरह से गान करना चाहिये; क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात मुखकमल से निकली हुई है। गीता सर्वशास्त्रमयी है। भगवान श्रीहरि सर्वदेवमय हैं। गंगा सर्वतीर्थमयी है और मनु (उनका धर्मशास्त्र) सर्व वेदमय हैं। गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द- इन ‘ग’ कारयुक्त चार नामों को हृदय में धारण कर लेने पर मनुष्य का फिर इस संसार में जन्म नहीं होता। इस गीता में छः सौ बीस श्लोक भगवान श्रीकृष्ण ने कहे हैं, सत्तावन श्लोक अर्जुन के कहे हुए हैं, सड़सठ श्लोक संजय ने कहे हैं और एक श्लोक धृतराष्ट्र का कहा हुआ है, यह गीता का मान बताया जाता है। भारतरूपी अमृतराशि के सर्वस्व सारभूत गीता का मन्थन करके उसका सार निकालकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मुख में (कानों द्वारा मन-बुद्धि में) डाल दिया है।

    संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर अर्जुन को गाण्डीव धनुष और बाण धारण किये देख पाण्डव महारथियों, सोमकों तथा उनके अनुगामी सैनिकों ने पुनः बड़े जोर से सिंहनाद किया। साथ ही उन सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक समुद्र से प्रकट होने वाले शंखों को बजाया। तदनन्तर भेरी, पेशी, क्रकच और नरसिंहे आदि बाजे सहसा बज उठे। इससे वहाँ महान शब्द गूंजने लगा। नरेश्वर! उस समय देवता, गन्धर्व, पितर, सिद्ध, चारण तथा महाभाग महर्षिगण देवराज इन्द्र को आगे करके उस भीषण मार-काट को देखने के लिये एक साथ वहाँ आये। राजन! तदनन्तर वीर राजा युधिष्ठिर ने समुद्र के समान उन दोनों सेनाओं को युद्ध के लिये उपस्थित और चंचल हुई देख कवच खोलकर अपने उत्तम आयुधों को नीचे डाल दिया और रथ से शीघ्र उतरकर वे पैदल ही हाथ जोडे़ पितामह भीष्म को लक्ष्य करके चल दिये।

    धर्मराज युधिष्ठिर मौन एवं पूर्वाभिमुख हो शत्रुसेना की और चले गये। कुन्तीपुत्र धनंजय उन्हें शत्रु-सेना की ओर जाते देख तुरन्त रथ से उतर पड़े और भाईयों सहित उनके पीछे-पीछे जाने लगे। भगवान श्रीकृष्ण भी उनके पीछे गये तथा उन्हीं में चित्त लगाये रहने वाले प्रधान-प्रधान राजा भी उत्सुक होकर उनके साथ गये।

   अर्जुन ने पूछा ;- राजन! आपने क्या निश्चय किया है कि हम लोगों को छोड़कर आप पूर्वाभिमुख हो पैदल ही शत्रुसेना की ओर चल दिये हैं।

   भीमसेन ने भी पूछा ;- महाराज! पृथ्वीराज! कवच और आयुध नीचे डालकर भाईयों को भी छोड़कर कवच आदि से सुसज्‍ज्‍ति हुई शत्रु-सेना में कहां जायेंगे? 

    नकुल ने पूछा ;- भारत! आप मेरे बड़े भाई हैं। आपके इस प्रकार शत्रु सेना की ओर चल देने पर भारी भय मेरे हृदय को पीड़ित कर रहा है। बताईये, आप कहां जायेंगे?

    सहदेव ने पूछा ;- नरेश्वर! इस रणक्षेत्र में जहाँ शत्रु सेना का समूह जुटा हुआ है और महान भय उपस्थित है, आप हमे छोड़कर शत्रुओं की ओर कहां जायेंगे?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

   संजय कहते है ;- राजन्! भाईयों के इस प्रकार कहने पर भी कुरुकुल को आनन्दित करने वाले राजा युधिष्ठिर उनसे कुछ नहीं बोले। चुपचाप चलते ही गये। तब परम बुद्धिमान महामना भगवान् वासुदेव ने उन चारों भाईयों से हंसते हुए से कहा,

  कृष्ण बोले ;- ‘इनका अभिप्राय मुझे ज्ञात हो गया है। ये राजा युधिष्ठिर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और शल्य- इन समस्त गुरुजनों से आज्ञा लेकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। सुना जाता है कि प्राचीन काल में जो गुरुजनों की अनुमति लिये बिना ही युद्ध करता था, वह निश्चय ही उन माननीय पुरुषों की दृष्टि में गिर जाता था। जो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार माननीय पुरुषों से आज्ञा लेकर युद्ध करता है, उसकी उस युद्ध में अवश्य विजय होती है ऐसा मेरा विश्वास है’।

   जब भगवान् श्रीकृष्ण ये बातें कह रहे थे, उस समय दुर्योधन की सेना की ओर आते हुए युधिष्ठिर को सब लोग अपलक नेत्रों से देख रहे थे। कहीं महान् हाहाकार हो रहा था और कहीं दूसरे लोग मुंह से एक शब्द भी नहीं बोलकर चुप हो गये थे। युधिष्ठिर को दूर से ही देखकर दुर्योधन के सैनिक आपस में इस प्रकार बातचीत करने लगे,

   सैनिक बोले ;- ‘यह युधिष्ठिर तो अपने कुल का जीता-जागता कलंक ही है। देखो, स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है कि वह राजा युधिष्ठिर भयभीत की भाँति भाईयों सहित भीष्म जी के निकट शरण मांगने के लिये आ रहा है।

    पाण्डुनन्दन धनंजय, वृकोदर भीम तथा नकुल-सहदेव जैसे सहायकों के रहते हुए युधिष्ठिर के मन में भय कैसे हो गया। निश्चय ही यह भूमण्डल में विख्यात क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न नहीं हुआ है। इसका मानसिक बल अत्यन्त अल्प है; इसीलिये युद्ध के अवसर पर इसका हृदय इतना भयभीत है’। तदनन्तर वे सब सैनिक कौरवों की प्रशंसा करने लगे और प्रसन्नचित्त हो हर्ष में भरकर अपने कपड़े हिलाने लगे। प्रजानाथ! आपके वे सब योद्धा भाईयों तथा श्रीकृष्ण सहित युधिष्ठिर की विशेष रूप से निंदा करते थे। सब लोग मन-ही-मन सोचने लगे कि वह राजा क्या कहेगा और भीष्म जी क्या उत्तर देंगे? युद्ध की श्लाघा रखने वाले भीमसेन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन भी क्या कहेंगे?

    राजन्! दोनों ही सेनाओं में युधिष्ठिर के विषय में महान् संशय उत्पन्न हो गया था। सब सोचते थे कि राजा युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं। बाण और शक्तियों से भरी हुई शत्रु की सेना में घुसकर भाईयों से घिरे हुए युधिष्ठिर तुरंत ही भीष्मजी के पास जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने दोनों हाथों से पितामह के चरणों को दबाया और युद्ध के लिये उपस्थित हुए उन शांतनुनन्दन भीष्म से इस प्रकार कहा। 

   युधिष्ठिर बोले ;- दुर्धर्ष वीर पितामह! मैं आपसे आज्ञा चाहता हूं, मुझे आपके साथ युद्ध करना है। तात! इसके लिये आप आज्ञा और आर्शीवाद प्रदान करें। 

   भीष्म जी बोले ;- पृथ्वीपते! भरतकुलनन्दन! महाराज! यदि उस युद्ध के समय तुम इस प्रकार मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हें पराजित होने के लिये शाप दे देता।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 39-55 का हिन्दी अनुवाद)

    पाण्डुनन्दन! पुत्र! अब मै प्रसन्न हूँ और तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम युद्ध करो और विजय पाओ। इसके सिवा और भी जो तुम्हारी अभिलाषा हो, वह इस युद्धभूमि में प्राप्त करो। पार्थ! वर मांगो! तुम मुझसे क्या चाहते हो? महाराज! ऐसी स्थिति में तुम्हारी पराजय नहीं होगी। महाराज! पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। कुरुनन्दन! इसीलिये आज मै तुम्हारे सामने नपुंसक के समान वचन बोलता हूँ। कौरव! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने धन के द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है; इसलिये (तुम्हारे पक्ष में होकर) उनके साथ युद्ध करने के अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो, यह बताओ।

    युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहो! आप सदा मेरा हित चाहते हुए मुझे अच्छी सलाह दें और दुर्योधन के लिये युद्ध करें। मैं सदा के लिये यही वर चाहता हूँ। 

    भीष्म बोले ;- राजन! कुरुनन्दन! मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूं? युद्ध तो मैं इच्छानुसार तुम्हारे शत्रु की ओर से ही करूंगा; अतः बताओ, तुम क्या कहना चाहते हो? 

    युधिष्ठिर बोले ;- पितामह! आप तो किसी से पराजित होने वाले हैं नहीं, फिर मैं आपको युद्ध में कैसे जीत सकूंगा? यदि आप मेरा कल्याण देखते और सोचते हैं तो मेरे हित की सलाह दीजिए।

    भीष्म ने कहा ;- कुन्तीनन्दन! मैं ऐसे किसी वीर को नहीं देखता, जो संग्रामभूमि में युद्ध करते समय मुझे पराजित कर सके। युद्धकाल में कोई पुरुष, साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो, मुझे परास्त नहीं कर सकता। 

    युधिष्ठिर बोले ;- पितामह! आपको नमस्कार है। इसलिये अब मैं आप से पूछता हूं, आप युद्ध में शत्रुओं द्वारा अपने मारे जाने का उपाय बताइये। 

   भीष्म बोले ;- बेटा! जो समरभूमि मुझे जीत ले, ऐसे किसी वीर को मैं नहीं देखता हूँ। अभी मेरा मृत्युकाल भी नहीं आया है; अतः अपने इस प्रश्न का उत्तर लेने के लिये फिर कभी आना।

    संजय बोले ;- कुरुनन्दन! तदनन्तर महाबाहु युधिष्ठिर ने भीष्म की आज्ञा को शिरोधार्य किया और पुनः उन्हें प्रणाम करते वे द्रोणाचार्य के रथ की ओर गये। सारी सेना देख रही थी और वे उसके बीच से होकर भाईयों सहित द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचे। वहाँ राजा ने उन्‍हें प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और उन दुर्जय वीर-शिरोमणि से अपने हित की बात पूछी,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन! मै सलाह पूछता हूं, किस प्रकार आपके साथ निरपराध एवं पापरहित होकर युद्ध करूंगा? विप्रवर! आपकी आज्ञा से मैं समस्त शत्रुओं को किस प्रकार जीतूं?

    द्रोणाचार्य बोले ;- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये शाप दे देता। निष्पाप युधिष्ठिर! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुमने मेरा बड़ा आदर किया। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, शत्रुओं से लड़ो और विजय प्राप्त करो। महाराज! मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूंगा। तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ क्या है? वर्तमान परिस्थिति में मैं तुम्हारी ओर से युद्ध तो कर नहीं सकता; उसे छोड़कर तुम बताओ, क्या चाहते हो?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 56-72 का हिन्दी अनुवाद)

    पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। इसीलिये आज नपुंसक की तरह तुमसे पूछता हूँ कि तुम युद्ध के सिवा और क्या चाहते हो? मै दुर्योधन के लिये युद्ध करुंगा; परन्तु जीत तुम्हारी ही चाहूंगा। 

    युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्मन! आप मेरी विजय चाहे और मेरे हित की सलाह देते रहें; युद्ध दुर्योधन की ओर से ही करें। यही वर मैंने आप से मांगा है। 

    द्रोणाचार्य ने कहा ;- राजन! तुम्हारी विजय तो निश्चित है; क्योंकि साक्षात भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे मंत्री हैं। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध में शत्रुओं को उनके प्राणों से विमुक्त कर दोगे। यहाँ धर्म है, यहाँ श्रीकृष्ण है और जहाँ श्रीकृष्ण है, वही विजय है। कुन्तीकुमार! जाओ, युद्ध करो। और भी पूछो, तुम्हें क्या बताऊँ।

    युधिष्ठिर बोले ;- द्विजश्रेष्ठ! मैं आपसे पूछता हूँ। आप मेरे मनोवांछित प्रश्नों को सुनिये। आप किसी से भी परास्त होने वाले नहीं हैं; फिर आपको मैं युद्ध में कैसे जीत सकुंगा? द्रोणाचार्य बोले- राजन! मैं जब तक समरभूमि मैं युद्ध करुंगा, तब तक तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। तुम अपने भाईयों सहित ऐसा प्रयत्न करो, जिससे शीघ्र मेरी मृत्यु हो जाये। 

   युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहु आचार्य! इसलिये अब आप अपने वध का उपाय मुझे बताईये। आपको नमस्कार है। मै आपके चरणों में प्रणाम करके यह प्रश्न कर रहा हूँ। 

    द्रोणाचार्य बोले ;- तात! जब मैं रथ पर बैठकर कुपित हो बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में संलग्न रहूँ उस समय जो मुझे मार सके, ऐसे किसी शत्रु को नहीं देख रहा हूँ। राजन! जब मैं हथियार डालकर अचेत-सा होकर आमरण अनशन के लिये बैठ जाऊँ, उस अवस्था को छोड़कर और किसी समय कोई मुझे कोई मुझे नहीं मार सकता। उसी अवस्था में कोई श्रेष्ठ योद्धा युद्ध में मुझे मार सकता है; यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। यदि मैं किसी विश्वसनीय पुरुष से युद्धभूमि में कोई अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन लूं तो हथियार नीचे डाल दूंगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ।

   संजय कहते हैं ;- महाराज! परम बुद्धिमान द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर उनका सम्मान करके राजा युधिष्ठिर कृपाचार्य के पास गये। उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने दुर्द्धर्ष वीर कृपाचार्य से कहा,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘निष्पाप गुरुदेव! मैं पापरहित रहकर आपके साथ युद्ध कर सकूं, इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका आदेश पाकर मैं समस्त शत्रुओं को संग्राम में जीत सकता हूँ। 

    कृपाचार्य बोले ;- महाराज! यदि युद्ध का निश्चर्य कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये तुम्हे शाप दे देता। पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। महाराज! मै निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे उन्‍हीं के लिये युद्ध करना है; अतः तुमसे नपुंसक की तरह पूछ रहा हूँ कि तुम युद्ध सम्बन्धी सहयोग को छोड़कर मुझसे क्या चाहते हो?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 73-88 का हिन्दी अनुवाद)

    युधिष्ठिर बोले ;- आचार्य! इसलिये अब मैं आपसे पूछता हूँ। आप मेरी बात सुनिये। इतना कहकर राजा युधिष्ठिर व्यथित और अचेत-से होकर उनसे कुछ भी न बोल सके। 

   संजय कहते हैं ;- पृथ्वीपते! कृपाचार्य यह समझ गये कि युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं; अतः उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा,

    कृपाचार्य ने कहा ;- ‘राजन! मै अवश्य हूँ। जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो। नरेश्वर! तुम्हारे इस आगमन से बड़ी प्रसन्नता हुई है; अतः सदा उठकर मैं तुम्हारी विजय के लिये शुभकामना करूंगा। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ।' महाराज! प्रजानाथ! कृपाचार्य की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी अनुमति ले जहाँ मद्रराज शल्य थे, उस ओर चले गये। दुर्जय वीर शल्य को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात राजा युधिष्ठिर ने उनसे अपने हित की बात कही,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘दुर्धर्ष वीर! मै पापरहित एवं निरपराध रहकर आपके साथ युद्ध करुंगा; इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। राजन! आपकी आज्ञा पाकर मैं समस्त शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता हूं’।

     शल्य बोले ;- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं युद्ध में तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हे शाप दे देता। अब मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया। तुम जो चाहते हो, वह पूर्ण हो। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो। वीर! तुम कुछ और बताओ, किस प्रकार तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा? मैं तुम्हें क्या दूं? महाराज! इस परिस्थिति में युद्ध विषयक सहयोग को छोड़कर तुम मुझसे और क्या चाहते हो? पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। कौरवों के द्वारा मैं अर्थ से बँधा हुआ हूँ। इसलिये मैं तुमसे नपुंसक की भाँति कह रहा हूँ। बताओ, तुम युद्धविषयक सहयोग के सिवा और क्या चाहते हो? मेरे भानजे! मैं तुम्हारा अभीष्ठ मनोरथ पूर्ण करूंगा।

    युधिष्ठिर बोले ;- महाराज! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ कि आप प्रतिदिन उत्तम हित की सलाह मुझे देते रहें। अपने इच्छानुसार युद्ध दूसरे के लिये करें। 

    शल्य बोले ;- नृपश्रेष्ठ! बताओ, इस विषय में मैं तुम्हारी क्या सहायता करूं? कौरवों द्वारा मैं अर्थ से बँधा हुआ हूं; अतः अपने इच्छानुसार युद्ध तो मैं तुम्हारे विपक्षी की ओर से ही करूंगा।

    युधिष्ठिर बोले ;- मामा जी! जब युद्ध के लिये उद्योग चल रहा था, उन दिनों आपने मुझे जो वर दिया था, वही वर आज भी मेरे लिये आवश्यक है। सूतपुत्र का अर्जुन के साथ युद्ध हो तो उस समय आपको उसका उत्साह नष्ट करना चाहिये। मामा जी! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि उस युद्ध में दुर्योधन आप- जैसे शूरवीर को सूतपुत्र के सारथी का कार्य करने के लिये अवश्य नियुक्त करेगा। 

  शल्य बोले ;- कुन्तीनन्दन! तुम्हारा यह अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारे वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। 

    संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार अपने मामा मद्रराज शल्य की अनुमति लेकर भाईयों से घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर उस विशाल सेना से बाहर निकल गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 89-109 का हिन्दी अनुवाद)

    इसी समय भगवान श्रीकृष्ण उस युद्ध में राधानन्दन कर्ण के पास गये। वहाँ जाकर उन गजाग्रज ने पाण्डवों के हित के लिये उससे इस प्रकार कहा, 

    श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘कर्ण! मैंने सुना है, तुम भीष्म से द्वेष होने के कारण युद्ध नहीं करोगे। राधानन्दन! ऐसी दशा में जब तक भीष्म मारे नहीं जाते हैं, तब तक हम लोगों का पक्ष ग्रहण कर लो। राधेय! जब भीष्म मारे जायें, उसके बाद तुम यदि ठीक समझो तो युद्ध में पुनः दुर्योधन की सहायता के लिये चले जाना’। 

   कर्ण बोला ;- केशव! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं दुर्योधन का हितैषी हूँ। उसके लिये अपने प्राणों को निछावर किये बैठा हूं; अतः मैं उसका अग्रिम कदापि नहीं करूंगा।

    संजय कहते हैं ;- भारत! कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण लौट आये और युधिष्ठिर आदि पाण्डवों से जा मिले। तदनन्तर ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खडे़ होकर पुकारा,

   युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘जो कोई वीर सहायता के लिए हमारे पक्ष में आना स्वीकार करे, उसे मैं भी स्वीकार करुंगा।' उस समय आपके पुत्र युयुत्सु ने पाण्डवों की ओर देखकर प्रसन्नचित्त हो धर्मराज कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा,

    युयुत्सु ने कहा ;- ‘महाराज! निष्पाप नरेश! यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आप लोगों के लिये युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्रों से युद्ध करुंगा। युधिष्ठिर बोले- युयुत्स! आओ, आओ। हम सब लोग मिलकर तुम्हारे इन मुर्ख भाईयों से युद्ध करेंगे। यह बात हम और भगवान श्रीकृष्ण सभी कह रहे हैं। महाबाहो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये युद्ध करो। राजा धृतराष्ट्र की वंशपरम्परा तथा पिण्डोदक-क्रिया तुम पर ही अवलम्बित दिखायी देती है। महातेजस्वी राजकुमार! हम तुम्हें अपनाते हैं। तुम भी हमे स्वीकार करो। अत्यन्त क्रोधी दुर्बुद्धि दुर्योधन अब इस संसार में जीवित नहीं रहेगा।

   संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर युयुत्सु युधिष्ठिर की बात को सच मानकर आपके सभी पुत्रों को त्याग कर डंका पीटता हुआ पाण्डवों की सेना में चला गया। वह दुर्योधन के पापकर्म की निन्दा करता हुआ युद्ध का निश्चय करके पाण्डवों के साथ उन्हीं की सेना में रहने लगा। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भाईयों सहित अत्यन्त प्रसन्न हो सोने का बना हुआ चमकीला कवच धारण किया। फिर वे सभी श्रेष्ठ पुरुष अपने-अपने रथ पर आरुढ़ हुए; इसके बाद उन्होंने पुनः शत्रुओं के मुकाबले में पहले की भाँति ही अपनी सेना की व्यूह-रचना की। उन श्रेष्ठ पुरुषों ने सैकड़ों दुन्दुभियां और नगाड़े बजाने तथा अनेक प्रकार से सिंह-गर्जनाएं की।

   पुरुषसिंह पाण्डवों को पुनः रथ पर बैठे देख धृष्टद्युम्न आदि राजा बड़े हुए। माननीय पुरुषों का सम्मान करने वाले पाण्डवों के उस गौरव को देखकर सब भूपाल उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। सब राजा महात्मा पाण्डवों के सौहार्द, कृपाभाव, समयो-चित कर्तव्य के पालन तथा कुटुम्बियों के प्रति परम दयाभाव की चर्चा करने लगे। यशस्वी पाण्डवों के लिये सब ओर से उनकी स्तुति प्रशंसा से भरी हुई ‘साधु-साधु’ की बातें निकलती थी। उन्हें ऐसी पवित्र वाणी सुनने को मिलती थी, जो मन और हृदय के हर्ष को बढ़ाने वाली थी। वहाँ जिन-जिन म्लेच्छों और आर्यों ने पाण्डवों का वह बर्ताव देखा तथा सुना, वे सब गद्गदकण्ठ होकर रोने लगे। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए सभी मनस्वी पुरुषों ने सैकड़ों और हजारों बड़ी-बड़ी भेरियों तथा गोदुग्ध के समान श्वेत शंखों को बजाया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्म आदि का समादरविषयक तैतालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

चौवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-पाण्डवों के प्रथम दिन के युद्ध का आरम्भ”

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! इस प्रकार जब मेरे पुत्रों और पाण्डवों ने अपनी-अपनी सेनाओं का व्यूह लगा लिया, तब वहाँ उनमें से पहले किन्होंने प्रहार किया, कौरवों ने या पाण्डवों ने?

    संजय ने कहा ;- राजन्! भाईयों सहित आपका पुत्र दुर्योधन भीष्म को आगे करके सेना सहित आगे बढ़ा। इसी प्रकार समस्त पाण्डव भी भीमसेन को आगे करके भीष्म से युद्ध करने की इच्छा रखकर प्रसन्न मन से आगे बढ़े। फिर तो दोनों सेनाओं में सिंहनाद, किलकारियों के शब्द, क्रकच, नरसिंह, भेरी, मृदंग और ढोल आदि बाघों की ध्वनि तथा घोड़ों और हाथियों के गर्जन के शब्द गूंजने लगे। पाण्डव सैनिक हम लोगों पर टूट पड़े और हम लोगों ने भी विकट गर्जना करते हुए उन पर धावा बोल दिया। इस प्रकार अत्यन्त घोर युद्ध होन लगा। भीषण मारकाट से युक्त उस महान संग्राम में आपके पुत्रों तथा पाण्डवों की विशाल सेनाएं प्रचण्ड वायु से विकम्पित हुए वनों की भाँति शंग और मृदंग के शब्दों से काँपने लगी।

    राजाओं, हाथियों, घोड़ों तथा रथों से भरी हुई उभय पक्ष की सेनाएं उस अमंगलमय मुहूर्त में जब एक दूसरे के सम्मुख और समीप आयी, उस समय वायु से उद्वेलित समुद्रों की भाँति उनका भयंकर कोलाहल सब ओर गूंजने लगा। उस रोमांचकारी भयंकर शब्द के प्रकट होते ही महाबाहु भीमसेन साँड की भाँति गर्जने लगे। भीमसेन की वह गर्जना शंख और दुन्दुभियों के गम्भीर घोष, गजराजों के चिंग्घाड़ने की आवाज तथा सैनिकों के सिंह-नाद को भी दबाकर सब ओर सुनायी देने लगी। उस सेनाओं में हजारों घोडे़ जोर-जोर से हिनहिना रहे थे परन्तु गर्जना करते हुए भीमसेन का शब्द उन सब शब्दों को दबाकर ऊपर उठ गया था। वे मेघ के समान गम्भीर स्वर में गर्जन-तर्जन कर रहे थे। उनका शब्द इन्द्र वज्र की गड़गड़ाहट के समान भयानक था। उस सिंहनाद को सुनकर आप के समस्त सैनिक संत्रस्त हो उठे थे। जैसे सिंह की आवाज सुनकर दूसरे वन्य पशु भयभीत हो जाते, उसी प्रकार वीर भीमसेन की गर्जना से भयभीत हो कौरव सेना के समस्त वाहन मलमूत्र करने लगे। महान् मेघ के समान अपने भयंकर रूप को प्रकट करते, गर्जते तथा आपके पुत्रों को डराते हुए भीमसेन कौरव-सेना पर चढ़ आये। महान् धनुर्धर भीमसेन को आते देख दुर्योधन के भाईयों (तथा अन्य वीरों) ने जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार बाण समूहों से उन्हें आच्छादित करते हुए सब ओर से घेर लिया।

    नरेश्वर! आपके पुत्र दुर्योधन, दुर्मुख, दुःशल, शल, अतिरथी, दुःशासन, दुर्मर्षण, विविशति, चित्रसेन, महारथी विकर्ण, पुरूमित्र, जय, भोज तथा पराक्रमी भूरिश्रवा- ये सभी वीर अपने बड़े-बड़े धनुषों को कँपाते हुए छूटने पर विषधर सर्प के समान प्रतीत होने वाले बाणों को हाथ में लेते हुए बिजलियों सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। ये सभी भूपाल पाण्डव-सेना के सम्मुख (भीमसेन को घेरकर) खडे़ हो गये। तदनन्तर द्रौपदी के पांचों पुत्र, महारथी अभिमन्यु, नकुल, सहदेव तथा द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न- ये सभी योद्धा वज्र के समान महान् वेगशाली तीक्ष्ण बाणों द्वारा पर्वत शिखरों की भाँति धृतराष्ट्रपुत्रों को पीड़ा देते हुए उन पर चढ़ आये।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-30 का हिन्दी अनुवाद)

     उस प्रथम संग्राम में जब भयानक धनुषों की टंकार तथा ताल ठोकने की आवाज हो रही थी, आपके तथा पाण्डवों के दल में भी कोई युद्ध से विमुख नहीं हुआ। भरतश्रेष्ठ! उस समय मैंने द्रोणाचार्य के उन शिष्यों की फुर्ती देखी। वे बड़ी तीव्र गति से बाण छोड़ते और लक्ष्यों को बींध डालते थे। वहाँ टंकार करते हुए धनुषों के शब्द कभी शांत नहीं होते थे। आकाश से नक्षत्रों के समान उन धनुषों से चमकीले बाण प्रकट हो रहे थे। भरतनन्दन! दूसरे सब राजा लोग उस कुटुम्बीजनों के भयंकर दर्शनीय संग्राम को दर्शक की भाँति देखने लगे।

    राजन्! बाल्यावस्था में वे सभी एक दूसरे का अपराध कर चुके थे। सबका स्मरण हो आने से वे सभी महारथी रोष में भर गये और एक दूसरे के प्रति स्पर्धा रखने के कारण युद्ध में विजयी होने के लिये विशेष परिश्रम करने लगे। हाथी, घोडे़ और रथों से भरी हुई कौरव-पाण्डवों की वे सेनाएं पट पर अंकित हुई चित्रमयी सेनाओं की भाँति उस रण-भूमि में विशेष शोभा पा रही थी। तदनन्तर आपके पुत्र दुर्योधन की आज्ञा से अन्य सब राजा भी हाथ में धनुष-बाण लिये सेनाओं सहित वहाँ आ पहुँचे।

    इसी प्रकार युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर सहस्रों नरेश गर्जना करते हुए आपके पुत्र की सेना पर टूट पड़े। उन दोनों सेनाओं का वह संघर्ष अत्यन्त दुःसह था। सेना की धूल से आच्छादित हो सूर्यदेव अदृश्य हो गये। कुछ लोग युद्ध करते, कुछ भागते और भागकर फिर लौट आते थे। इस बात में अपने और शत्रुपक्ष के सैनिकों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था। जिस समय वह अत्यंत भयानक तुमूल युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय आपके ताऊ भीष्म जी उन समस्त सेनाओं से ऊपर उठकर अपने तेज से प्रकाशित हो रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में युद्ध का आरम्भविषयक चौवालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

पैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्‍द्व युद्ध”

   संजय कहते है ;- प्रजानाथ! उस भयंकर दिन के प्रथम भाग में महाभयानक युद्ध होने लगा, जो राजाओं के शरीर का उच्छेद करने वाला था। कौरव और सृंजयवंशी वीर एक दूसरे को जीतने की इच्छा रखकर सिंहों के समान दहाड़ रहे थे। उनका यह सिंहनाद पृथ्वी और आकाश को प्रतिध्वनित कर रहा था। तल और शखों की ध्वनि के साथ सैनिकों का किलकिल शब्द गूँज उठा। एक दूसरे के प्रति गर्जना करने वाले शूरवीरों के सिंहनाद होने लगे। भरतश्रेष्ठ! तलत्राण के आघात से टकरायी हुई प्रत्यंचाओं के शब्द, पैदल सिपाहियों के पैरों की धमक, उच्च स्वर से होने वाली घोड़ों की हिनहिनाहट, हथियारों की झनझनाहट, एक दूसरे पर धावा करने वाले गजराजों के घण्टानाद- ये सब शब्द मिलकर ऐसी भयंकर आवाज प्रकट करने लगे, जो रोंगटे खडे़ कर देने वाली थी। उसी में रथों के पहियों की घरघराहट होने लगी, जो मेघों की विकट गर्जना के समान जान पड़ती थी। वे समस्त कौरव सैनिक अपने मन को कठोर बना प्राणों की बाजी लगाकर ऊँची ध्वजाएं फहराते हुए पाण्डवों पर धावा करने लगे।

    राजन्! तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म उस युद्धभूमि में कालदण्ड के समान भीषण धनुष लेकर अर्जुन की ओर दौडे़। उधर से महातेजस्वी अर्जुन भी अपना लोकविख्यात गाण्डीव धनुष लेकर युद्ध के मुहाने पर गंगानन्दन भीष्म की और दौडे़। वे दोनों कुरुकुल के सिंह थे और एक दूसरे को मार डालने की इच्छा रखते थे बलवान् भीष्म युद्ध में अर्जुन को घायल करके भी उन्हें विचलित न कर सके। राजन्! उसी प्रकार पाण्डुनन्दन अर्जुन भी भीष्म को युद्ध में हिला न सके। दूसरी और महाधुनर्धर सात्यकि ने कृतवर्मा पर धावा किया। उन दोनों में बड़ा भयंकर रोमांचकारी युद्ध हुआ। सात्यकि ने कृतवर्मा को और सात्यकि को भयंकर बाणों से घायल करते हुए एक दूसरे को बड़ी पीड़ा पहुँचायी। वे दोनों महाबली वीर और सर्वांग में बाणों से छिदे होने के कारण बसन्त ऋतु में खिले हुए दो पुष्पयुक्त पलाश वृक्षों के समान शोभा पा रहे थे।

    अभिमन्यु ने महान धनुर्धर बृहद्वल के पास युद्ध किया। प्रजानाथ! कोसलनरेश वृहद्वल ने उस युद्ध में अभिमन्यु के ध्वज को काट दिया और सारथी को मार गिराया। महाराज! अपने रथ के सारथी के मारे जाने पर सुभद्राकुमार अभिमन्यु कुपित हो उठे और उन्होंने बृहद्वल को नौ बाणों से घायल कर दिया। तत्पश्चात् शत्रुमर्दन अभिमन्यु अन्य दो तीखे बाणों से बृहद्वल के ध्वज को काट डाला फिर एक बाण से उनके पृष्ठ रक्षक को दूसरे से सारथी को मार डाला। फिर वे दोनों अत्यन्त कुपित हो तीखे सायकों द्वारा एक दूसरे को बेधने लगे।

    युद्ध में अभिमान प्रकट करने वाले, घमंडी और पहले वैरी आपके महारथी पुत्र दुर्योधन से भीमसेन युद्ध करने लगे। वे दोनों नरश्रेष्ठ महाबली वीर कुरुकुल के प्रधान व्यक्ति थे। उन्होंने समरांगण में एक दूसरे पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भारत! वे दोनों महामनस्वी अस्त्रविद्या विद्वान् तथा विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले थे। उन्‍हें देखकर समस्त प्राणियों को बड़ा विस्मय हुआ। दुःशासन ने आगे बढ़कर मर्म स्थानों को विदीर्ण करने वाले अपने बहुसंख्यक तीखे बाणों द्वारा महाबली नकुल को घायल कर दिया। भारत! तब माद्रीकुमार नकुल ने भी हँसते हुए-से तीखे बाण मारकर दुःशासन के धनुष-बाण और ध्वज को काट गिराया और पच्चीस बाण मार उसे घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 24-45 का हिन्दी अनुवाद)

    इसके बाद आपके दुर्धर्षपुत्र ने उस महायुद्ध में नकुल के घोड़ों को अपने सायकों द्वारा काट डाला और ध्वज को भी नीचे गिरा दिया। महाबली सहदेव उस महासमर में अपनी विजय के लिये बड़ा प्रयत्न कर रहे थे। उन्‍हें आपके पुत्र दुर्मुख ने धावा करके अपने बाणों की वर्षा से घायल कर दिया। तब वीरवर सहदेव ने उस महायुद्ध में अत्यन्त तीखे बाण से दुर्मुख के सारथी को मार गिराया। वे दोनों युद्ध दुर्मद वीर समरांगण में एक दूसरे से टक्कर लेकर पूर्वकृत अपराधों का बदला लेने की इच्छा रखते हुए भयंकर बाणों द्वारा एक दूसरे को भयभीत करने लगे। स्वयं राजा युधिष्ठिर ने मद्रराज शल्य पर आक्रमण किया। राजन्! मद्रराज ने युधिष्ठिर के धुनष के टुकडे़ कर दिये। तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा वेगयुक्त एवं प्रबलतर धनुष ले लिया और झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों द्वारा मद्रराज शल्य को ढक दिया। फिर क्रोध में भरकर कहा-‘खडे़ रहो, खडे़ रहो’।

    भरतनन्दन! एक ओर से धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। तब द्रोण ने अत्यन्त क्रुद्र होकर युद्ध में दूसरों के मारने के साधनभूत धृष्टद्युम्न के सुदृढ़ धनुष के तीन टुकडे़ कर डाले। तदनन्तर! उस रणक्षेत्र में उन्होंने द्वितीय कालदण्ड के समान अत्यन्त भयंकर बाण चलाया। वह बाण धृष्टद्युम्न के शरीर में धँस गया। तत्पश्चात् द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने दूसरा धनुष लेकर चौदह सायक चलाये और उस युद्धभूमि में द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। फिर तो वे दोनों एक दूसरे पर अत्यन्त कुपित हो भीषण संग्राम करने लगे। महाराज! वेगशाली शंख ने उस युद्ध में वेगवान वीर भूरिश्रवा पर धावा किया और कहा- ‘खडे़ रहो, खडे़ रहो’। वीर शंख ने रणभूमि में भूरिश्रवा की दाहिनी भुजा विदीर्ण कर डाली फिर भूरिश्रवा ने भी शंख के गले की हँसली पर बाण मारा। राजन्! उस समरभूमि में इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति उन दोनों अभिमानी वीरों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। प्रजानाथ! रणक्षेत्र में कुपित हुए बाह्लीक पर अपरिमित आत्मबल से सम्पन्न महारथी धृष्टकेतु ने क्रोधपूर्वक आक्रमण किया।

    राजन्! अमर्षशील बाह्लीक ने समरांगण में बहुत से बाणों द्वारा धृष्टकेतु को पीड़ा दी और सिंह के समान गर्जना की। तब चेदिराज धृष्टकेतु ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर जैसे मतवाला हाथी किसी मदोन्मत्त गजराज पर हमला करता है, उसी प्रकार तुरन्त ही नौ बाण मारकर उस युद्धभूमि में बाह्लीक को क्षत-विक्षत कर दिया। उस रणभूमि में दोनों वीर परस्पर कुपित हो रोष में भरे हुए मंगल और बुध की भाँति बार-बार गर्जते हुए युद्ध कर रहे थे। जैसे इन्द्र ने युद्ध में बल नाम दैत्य पर चढ़ाई की थी, उसी प्रकार क्रुरकर्मा घटोत्कच ने भयंकर कर्म करने वाले अलम्बुष नामक राक्षस पर आक्रमण किया। भरतनन्दन! क्रोध में भरे हुए घटोत्कच ने नब्बे तीखे बाणों द्वारा उस महाबली राक्षस अलम्बुष को विदीर्ण कर दिया। तब अलम्बुष ने भी महाबली भीमसेन पुत्र घटोत्कच को झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा समरांगण में बहुत प्रकार से घायल कर दिया। जैसे देवासुर-संग्राम में महाबली बलासुर और इन्द्र घायल हो गये थे, उसी प्रकार इस युद्ध में एक दूसरे के बाणों से क्षत विक्षत हो अलम्बुष और घटोत्कच अद्भुत शोभा धारण कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 46-68 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! बलवान शिखण्डी ने रणक्षेत्र में द्रोणपुत्र अश्वत्थामा पर धावा किया। तब अश्वत्थामा ने कुपित हो एक तीखे नाराच के द्वारा निकट आये हुए शिखण्डी को अत्यन्त घायल करके कम्पित कर दिया। महाराज! तब शिखण्डी ने भी पीले रंग के तेज धार वाले तीखे सायक से द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को गहरी चोट पहुँचायी तदनन्तर वे दोनों अनेक प्रकार के बाणों द्वारा एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। राजन्! संग्रामशुर भगवत्त पर सेनापति ने विराट ने बड़ी उतावली के साथ आक्रमण किया। फिर तो उन दोनों में युद्ध होने लगा। विराट ने अत्यन्त कुपित होकर भगदत्त पर अपने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेघ पर्वत पर जल की बूंदे बरसा रहा हो। तब जैसे बादल आगे हुए सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार भगदत्त ने समरभूमि में बाणों को वर्षा द्वारा पृथ्वीपति विराट को आच्छादित कर दिया। भरतनन्दन! केकयराज बृहत्क्षत्र पर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने आक्रमण किया और अपने बाणों की वर्षा द्वारा उन्हें ढक दिया। तब केकयराज ने भी क्रुद्ध होकर अपने सायकों की वर्षा से कृपाचार्य को आच्छादित कर दिया।

    भारत! वे दोनों वीर एक दूसरे के घोड़ों को मारकर धनुष के टुकडे़ करके रथहीन हो अमर्ष में भरकर खड्ग द्वारा युद्ध करने के लिये आमने-सामने खडे़ हुए। फिर तो उन दोनों में अत्यन्त भयंकर एवं दारुण युद्ध होने लगा। राजन्! दूसरी और शत्रुओं को संताप देने वाले द्रुपद ने बड़े हर्ष के साथ सिन्धुराज जयद्रथ पर धावा किया। जयद्रथ भी बहुत प्रसन्न था। तत्पश्चात् सिन्धुराज जयद्रथ ने समरागण में तीन बाणों द्वारा द्रुपद को गहरी चोट पहुँचायी। द्रुपद ने भी बदले में उसे बींध डाला। उन दोनों का यह घोर एवं अत्यन्त भयंकर युद्ध शुक्र और मंगल के संघर्ष की भाँति नेत्रों के लिये हर्ष उत्पन्न करने वाला था। आपके पुत्र विकर्ण ने तेज चलने वाले घोड़ों द्वारा महाबली सुतसोम पर धावा किया। तत्पश्चात् उनमें भारी युद्ध होने लगा। विकर्ण अपने बाणों से सुतसोम को घायल करके भी उन्‍हें कम्पित न कर सका। इसी प्रकार सुतसोम भी विकर्ण को विचलित न कर सके। उन दोनों का यह पराक्रम अद्भुत-सा प्रतीत हुआ। नरश्रेष्ठ पराक्रमी महारथी चेकितान ने पाण्डवों के लिये अत्यन्त कुपित होकर सुशर्मा पर धावा किया।

    महाराज! सुशर्मा ने भारी बाण-वर्षा के द्वारा महारथी चेकितान को युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दिया। तब चेकितान ने भी रोष में भरकर उस महायुद्ध में अपने बाणों की वर्षा से सुशर्मा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे महामेघ जल की वर्षा से पर्वत को आच्छादित कर देता है। राजेन्द्र! पराक्रमी शकुनि पराक्रम सम्पन्न प्रतिविन्ध्य पर चढ़ गया, ठीक उसी तरह जैसे मतवाला सिंह किसी हाथी पर आक्रमण करता है। जिस प्रकार इन्द्र संग्रामभूमि में किसी दानव को विदीर्ण करते हैं उसी प्रकार युधिष्ठिर के पुत्र प्रतिविन्ध्य ने अत्यन्त कुपित होकर सुबलपुत्र शकुनि को अपने तीखे बाणों से बेध डाला। युद्ध में अपने को बेधने वाले प्रतिविन्ध को भी परम बुद्धिमान शकुनि ने झुके हुए गाँठवाले बाणों से घायल कर दिया। राजेन्द्र! काम्बोज देश के राजा पराक्रमी महारथी सुदक्षिण पर रणभूमि में श्रुतकर्मा ने आक्रमण किया। तब सुदक्षिण ने समरांगण में सहदेव-पुत्र महारथी श्रुतकर्मा को क्षत-विक्षत कर दिया तो भी वह उन्‍हें कम्पित न कर सका। वे मैनाक पर्वत की भाँति अविचल भाव से खडे़ रहे। तदनन्तर श्रुतकर्मा ने कुपित होकर महारथी काम्बोजराज को सब ओर से विदीर्ण-सा करते हुए अपने बहुसंख्यक बाणों द्वारा भलीभाँति पीड़ित किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 69-86 का हिन्दी अनुवाद)

    दूसरी और शत्रुओं को संताप देने वाले यत्नशील इरावान ने युद्ध में कुपित होकर शत्रुदमन श्रुतायुध पर धावा किया। श्रुतायुध भी प्रयत्नपूर्वक उनका सामना कर पा रहा था। अर्जुन के उस महारथी पुत्र इरावान ने रणक्षेत्र में श्रुतायुध के घोड़ों को मारकर बड़े जोर से गर्जना की और उसकी सेना को बाणों से आच्छादित कर दिया। यह देख श्रुतायुध ने भी रुष्ट होकर रणभूमि में अर्जुन-पुत्र इरावान के घोड़ों को अपनी गदा की चोट से मार डाला। तत्पश्चात् उन दोनों में खूब जमकर युद्ध होने लगा। अवन्तिदेश के राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने सेना और पुत्र सहित वीर महारथी कुन्तिभोज के साथ युद्ध आरम्भ किया। वहाँ मैंने उन दोनों का अद्भुत और भयंकर पराक्रम देखा। वे दोनों ही अपनी विशालवाहिनी के साथ स्थिरतापूर्वक खडे़ होकर एक दूसरे का सामना कर रहे थे। अनुविन्द ने कुन्तिभोज पर गदा से आघात किया। तब कुन्तिभोज ने भी तुरंत ही अपने बाणसमूहों द्वारा उसे आच्छादित कर दिया। साथ ही कुन्तिभोज के पुत्र ने विन्द को भी अपने सायकों से घायल कर दिया। विन्द ने भी बदले में कुन्तिभोज पुत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। वह अद्भुत-सी घटना हुई।

    राजन्! पांच भाई केकय-राजकुमारों ने सेनासहित आकर युद्ध में अपनी विशालवाहिनी के साथ खडे़ हुए गान्धार देशीय पांच वीरों के साथ युद्ध आरम्भ किया। आपके पुत्र वीरबाहु ने विराट के पुत्र श्रेष्ठ रथी उत्तर के साथ युद्ध किया और उसे तीखे बाणों द्वारा घायल कर दिया। उत्तर ने भी वीरबाहु को अपने तीक्ष्ण सायकों का लक्ष्य बनाकर बेध डाला। राजन्! चेदिराज ने समरांगण में उलूक पर धावा किया और उसे अपने बाणों की वर्षा से बींध डाला। वैसे ही उलूक ने भी पंखयुक्त तीखे बाणों द्वारा चेदिराज को गहरी चोट पहुँचायी। प्रजानाथ! फिर उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। किसी से पराजित न होने वाले वे दोनों वीर अत्यन्त कुपित होकर एक दूसरे विदीर्ण किये देते थे। इस प्रकार उस घमासान युद्ध में आपके और पाण्डव पक्ष के रथ, हाथी, घोडे़ और पैदल सैन्य के सहस्रों योद्धाओं में द्वन्द्व-युद्ध चल रहा था।

    महाराज! दो घड़ी तक तो वह युद्ध देखने में बड़ा मनोरम प्रतीत हुआ फिर उन्मत्त की भाँति विकट युद्ध चलने लगा। उस समय किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। उस समरभूमि में हाथी-हाथी के साथ भिड़ गया, रथी ने रथी पर आक्रमण किया, घुड़सवार घुड़सवार पर चढ़ गया और पैदल ने पैदल के साथ युद्ध किया। कुछ ही देर में उस रणक्षेत्र के भीतर शूरवीर सैनिकों का एक दूसरे से भिड़कर अत्यन्त दुर्धर्ष एवं घमासान युद्ध होने लगा। वहाँ आये हुए देवर्षियों, सिद्धों तथा चारणों ने भूतल पर होने वाले उस युद्ध को देवासुर-संग्राम के समान भयंकर देखा। आर्य! तदनन्तर हजारों हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल सैनिक द्वन्द्व-युद्ध के पूर्वोक्त क्रम का उल्लंघन करके सभी सबके साथ युद्ध करने लगे। नरेश्रष्ठ! जहां-जहाँ दृष्टि जाती, वही रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदल सैनिक बार बार युद्ध करते हुए दिखाई देते।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में द्वन्द्वयुद्धविषयक पैतालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

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