सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के इकतालीस व बयालीसवाँ अध्याय (From the 41 chapter and the 42 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  17

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रद्धा का और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक्-पृथक् भेद तथा ओम, तत्, सत् के प्रयोग की व्याख्या”

  • सम्बन्ध- गीता के सोलहवें अध्याय के आरम्भ में श्रीभगवान ने अर्जुन से निष्काम-भाव से सेवन किये जाने वाले शास्त्रविहित गुण और आचरणों का दैवीसम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्रविपरित आसुसी सम्पदा का कथन किया। साथ ही आसुर-स्वभाव वाले पुरुषों को नरकों में गिराने की बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभी ही आसुरी सम्पदा के प्रधान अवगुण हैं ये तीनों ही नरकों के द्वार हैं इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिये साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। इसके अनन्तर यह भी कहा कि जो शास्त्रविधि का त्याग करके मनमाने ढंग से अपनी समझ से जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता। अब अर्जुन सोचते हैं यह तो ठीक ही है परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो शास्त्रविधि का तो न जानने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से त्याग कर बैठते हैं तथा यज्ञ-पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्व करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है इस जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान से पूछते हैं- 
   अर्जुन बोले ;- हे कृष्ण! जो श्रद्धा से युक्त मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है सात्त्विक है अथवा राजसी किंवा तामसी।

   श्री भगवान बोले ;- हे अर्जुन! मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन। हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, स्वयं भी वही है। 

  • सम्बन्ध-श्रद्धा के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा का स्वरूप बतलाया गया इससे यह जानने की इच्छा हो सकती है कि ऐसे मनुष्यों की पहचान कैसे हो कि कौन किस निष्ठा वाला है। इस पर भगवान कहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 4-12 का हिन्दी अनुवाद)

   सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। जो शरीर रूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आसुर-स्वभाव वाले जान।

  • सम्बन्ध- विविध स्वभाविक श्रद्धा वालों के तथा घोर तप करने वाले लोगों के लक्षण बतलाकर अब भगवान सात्त्विक का ग्रहण और राजस-तामस का त्याग कराने के उद्देश्य से सात्त्विक राजस तामस आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं और कहते हैं-
   हे अर्जुन! भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।

   वायु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वें, खट्टे, लक्षणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखें, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, वासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है। जो शास्त्रविधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करने के, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है। परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल-को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)

   शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार की तीन तरह के यज्ञों के लक्षण बतलाकर, अब तप के लक्षणों को प्रकरण आरम्भ करते हुए चार श्लोकों द्वारा सात्त्विक तप के लक्षण बतलाते हैं- 
    देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है, वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवतचिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भली-भाँति पवित्रता इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है। फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्‍त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।

  • सम्बन्ध- अब राजस तप के लक्षण बतलाये जाते हैं। जो तप संस्कार, मान और पूजा के लिये तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिये भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप यहाँ राजस कहा गया है।
  •  सम्बन्ध- अब तामस तप के लक्षण बतलाये है, जो कि सर्वथा त्याज्य है- जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
  • सम्बंध- तीन प्रकार के तपों का लक्षण करके अब दान के तीन प्रकार के लक्षण कहते हैं- 
   दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है। किंतु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 22-28 का हिन्दी अनुवाद)

    जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।

  • सम्बन्ध- अब सात्त्विक यज्ञ, दान और तप उपादेय क्‍यों है भगवान से उनका क्या सम्बन्ध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ तप और दानों में जो अंग-वैगुण्य हो जाय, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है- 
   यह सब बतलाने के लिये कृष्ण ने अगला प्रकरण आरम्भ किया और कहा- ऊँ, तत्, सत् ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्‍दघन ब्रह्म नाम कहा है। उसी ब्रह्म से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।

  • सम्बन्ध- परमेश्वर के उपर्युक्त ऊँ, तत् और सत्- इन तीन नामों का यज्ञ, दान, तप आदि के साथ क्या सम्बन्ध है। ऐसी जिज्ञासा होने पर कृष्ण कहते हैं- 
   इसलिये वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ट पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएं सदा इस परमात्मा के नाम के उच्चारण करके ही आरम्भ होती है। तत् अर्थात् ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब हैं- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएं तथा दानरूप क्रियाएं कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती है। ‘सत्’- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्- ऐसे कहा जाता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्रविहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मों का महत्त्व बतलाया गया उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है। कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है इस पर भगवान इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
    हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त ‘असन्’ इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवदगीता पर्व के अंतगर्त ब्रह्मविद्या और संवाद में श्रद्धात्रयविभाग योग नामक सतरहवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  18

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)

“त्याग का, सांख्यसिद्धान्त का, फलसहित वर्ण-धर्म का, उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का, भक्ति सहित निष्काम कर्मयोग का एवं गीता के महात्मय का वर्णन”

  • सम्बन्ध- गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से गीता के उपदेश का आरम्भ हुआ। वहाँ से आरम्भ करके तीसवें श्लोक तक भगवान् ने अर्जुन को ज्ञान योग का उपदेश दिया। और प्रसंगवश क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की कर्तव्यता का प्रतिपादन करके उन्चालीसवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त कर्मयोग का उपदेश दिया, उसके बाद तीसरे अध्याय से सत्रहवें अध्याय तक कहीं ज्ञानयोग की दृष्टि से और कही कर्मयोग की दृष्टि से परमात्मा की प्राप्ति के बहुत से साधन बतलाये। उन सबको सुनने के अनन्तर अब अर्जुन इस अठारहवें अध्याय में समस्त अध्यायों के उपदेश का सार जानने के उद्देश्य से भगवान् के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट करते हैं-
    अर्जुन बोले ;- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक जानना चाहता हूँ।

     श्रीभगवान् बोले ;- हे अर्जुन! कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागने के योग्य है। और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास और त्याग के विषयों में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अब भगवान् त्याग के विषय में अपना निश्चय बतलाना आरम्भ करते हैं, कृष्ण कहते हैं-
    हे पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन; क्‍योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है। क्‍योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 6-12 का हिन्दी अनुवाद)

   इसलिये हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।

  • सम्बन्ध- अब तीन श्लोकों में क्रम से उपर्युक्त तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं-
(निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परंतु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। इसलिये मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है। जो कुछ कर्म है वह सब दुःखस्वरूप ही है-ऐसा समझ कर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता। हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है।

  • सम्बन्ध- उपयुक्त प्रकार से सात्त्विक त्याग करने वाले पुरुष का निषिद्ध और काम्यकर्मों स्वरूप से छोड़ने में और कर्तव्य कर्मों के करने में कैसा भाव रहता है, इस जिज्ञासा पर सात्त्विक त्यागी पुरुष की अंतिम स्थिति के लक्षण बतलाते हैं’-
   जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है। क्‍योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है; इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है। कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है; किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 13-17 का हिन्दी अनुवाद)

  • सम्बन्ध- पहले श्लोक में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट की थी। उसका उत्तर देते हुए भगवान् ने दूसरे और तीसरे श्लोकों में इस विषय पर विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अपने मत के अनुसार चौथे श्लोक से बारहवें श्लोक तक त्याग का यानी कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति समझाया अब संयास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व समझाने के लिये पहले सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों को सिद्धि में पांच हेतु बतलाते है- 
   हे महाबाहो! सम्‍पूर्ण कर्मों की सिद्धि ये पांच हेतु कर्मों का अन्त करने के लिये उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गये हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान। इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएं और वैसे ही पांचवां हेतु दैव है। मनुष्य, मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है, उसके ये पांचों कारण हैं। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्ययोग के सिद्धान्त से समस्त कर्मों की सिद्धि अधिष्ठानादि पांच कारणों का निरूपण करके अब, वास्तव में आत्मा का कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है, आत्मा सर्वथा शुद्ध निर्विकार और अकर्ता है- 
   यह बात समझाने के लिये आत्मा को कर्ता मानने वाले की निंदा करके अकर्ता मानने वाले की स्तुति करते हैं। परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलिन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता। जिस पुरुष के अन्तःकारण ‘मैं कर्ता हूं’ ऐसा भाव नहीं है। तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अकर्तापन का प्रतिपादन करके अब उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

  • सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अर्कतापन का प्रतिपादन किया था। अब वे उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन अर्जुन से करते हैं। और कहते हैं -
   हे अर्जुन! ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है। गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन। जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान। किंतु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान। परन्‍तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्ति वाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है।

     जो कर्म शास्त्रविधि के नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो - वह सात्त्विक कहा जाता है। परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है। तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्‍य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। जो कर्ता संग रहित, अहंकार के वचन बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्ता आसक्ति युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्ध-चोरी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।

महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद

    जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार तत्त्वज्ञान में सहायक सात्त्विक भाव को ग्रहण कराने के लिये और उसके विरोधी राजस-तामस भावों- का त्याग कराने के लिये कर्म-प्रेरणा तथा कर्म-संग्रह में से ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब कृष्ण बुद्धि और धृति के सात्त्विक, राजस और तामस-इस प्रकार त्रिविध भेद क्रमशः बतलाने की प्रस्तावना करते हुए बतलाते हैं और कहते हैं-
    हे धनंजय! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन। हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग और निवत्ति मार्ग कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है। हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यर्थाथ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है। तथा इसी प्रकार अन्य सम्‍पूर्ण पदार्थों को भी विपरित मान लेती हैं। यह बुद्धि तामसी है।

    हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति मनुष्य ध्यानयोग द्वारा, मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, यह धृति सात्त्विकी है। परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छा वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारणशक्ति राजसी है। हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ना अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति तामसी है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार सात्त्विक की बुद्धि और घृति का ग्रहण तथा राजसी-तामसी का त्याग करने के लिये बुद्धि और घृति के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब, जिसके लिये मनुष्य समस्त कर्म करता है, उस सुख के भी सात्त्विक, राजस और तामस इस प्रकार तीन भेद क्रम से बतलाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद)

   हे भरतश्रेष्‍ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है, और दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है। जो ऐसा सुख है, वह आरम्भ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है। इसलिये वह परमात्मा विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा जाता है। जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है। जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कही भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।

  • सम्बन्ध- इस अध्याय के चौथे से बारहवें श्लोक तक भगवान ने अपने मत के अनुसार त्याग के लक्षण बतलाये। तदनन्तर तेरहवें से सत्रहवें श्लोक तक संन्यास (सांख्य) के स्वरूप का निरूपण करके संन्यास में सहायक सत्त्वगुण का ग्रहण और उसके विरोधी रज एवं तम का त्याग कराने के उद्देश्य से अठारहवें से चालीसवें श्लोक तक गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों के भेद समझाये और अंत में समस्त सृष्टि को गुणों से युक्त बतलाकर उस विषय का उपसंहार किया। वहाँ त्याग का स्वरूप बतलाते समय भगवान ने यह बात कही थी कि नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। अपितु नियत कर्मों की आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करते रहना ही वास्तविक त्याग है, किंतु वहाँ यह बात नहीं बतलायी कि किसके लिये कौन-सा कर्म नियत है। अतएव अब संक्षेप में नियत कर्मों का स्वरूप, त्याग के नाम से वर्णित कर्म-योग में भक्ति का सहयोग और उसका फल परम सिद्धि की प्राप्ति बतलाने के लिये पुनः उसी त्यागरूप कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद)

    हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं। अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

    शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वाभिमान- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। 

  • सम्बन्ध-इस प्रकार चारों वर्णों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके अब भक्तियुक्त कर्मयोग का स्वरूप और फल बतलाने के लिये, उन कर्मों का किस प्रकार आचरण करने से मनुष्य अनायास परम सिद्धि प्राप्त कर लेता है- यह बात दो श्लोकों में बतलाते हैं- 
     अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। जिस परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

  • सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में यह बात कही गयी कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करके परम सिद्धि को पा लेता है; इस पर यह शंका होती है कि यदि कोई क्षत्रिय अपने युद्धादि क्रुर कर्मों को न करके, ब्राह्मणों की भाँति अध्यापनादि शांतिमय कर्मों से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा करे या इसी तरह कोई वैश्य या शूद्र अपने कर्मों को उच्च वर्णों के कर्मों से हीन समझकर उनका त्याग कर दे और अपने से ऊँचे वर्ण की वृति से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो उचित है या नहीं। इस पर दूसरे के धर्म की अपेक्षा स्वधर्म श्रेष्ट बतलाकर उसके त्याग का निषेध करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 47-53 का हिन्दी अनुवाद)

    अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना श्रर्मश्रेष्ठ हैं, क्‍योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये, क्‍योंकि धूएं से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।

  • सम्बन्ध- भगवान ने तेरहवें से चालीसवें श्लोक तक संन्यास यानी सांख्य का निरूपण किया। फिर इकतालीसवें श्लोक से यहाँ तक कर्मयोग रूप त्याग का तत्त्व समझाने के लिये स्वाभाविक कर्मों का स्वरूप और उनकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश करके तथा कर्मयोग में भक्ति का सहयोग दिखलाकर उसका फल भगवत्प्राप्ति बतलाया; किंतु वहाँ संन्यास के प्रकरण यह बात नहीं कही गयी कि संन्यास का क्या फल होता है और कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्याग कर उपासना के सहित सांख्ययोग का किस प्रकार साधन करना चाहिये। अतः यहाँ उपासना के सहित विवेक और वैराग्यपूर्वक एकान्त में रहकर साधन करने की विधि और उसका फल बतलाने के लिये पुनः सांख्ययोग प्रकरण आरम्भ करते हैं। 
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्‍य सिद्धि प्राप्त होता है। जो कि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उस नैष्‍कर्म्‍यसिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्मा को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तु संक्षेप में ही मुझसे समझ।

   विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमण्‍ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्‍दन ब्रह्मा में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 54-60 का हिन्दी अनुवाद)

    फिर वह सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है। और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में सम्भाव वाला योगी मेरी परा भक्ति को प्राप्त हो जाता है। उस परा भक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मै जो हुं और जितना हूँ ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है। तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।

  • सम्बन्ध- अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार त्याग यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग तत्त्व अलग-अलग समझकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किंतु उस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधक कर्तव्य है; अतएव अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्तिप्रधान कर्मयोग महिमा कहते हैं। मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है। सब कर्मों का मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो।
    उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही कर जायगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा। जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’ तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्‍योंकि तेरा स्वभाव मुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा।

    हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता; उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा।
  • सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इस पर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति का स्वभाव जड़ है; वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है; इसलिये भगवान कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 61-66 का हिन्दी अनुवाद)

     हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरुढ़ हुए सम्‍पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्‍वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भम्रण करता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।
  • सम्बन्ध- यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कर्मबन्धन से छूटकर परम शांतिलाभ करने के लिये मनुष्‍यों को क्या करना चाहिये; इस पर भगवान कहते हैं- 
हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्‍वर की ही शरण में जा उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। 
  • सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को अन्तर्यामी परमेश्‍वर की शरण ग्रहण करने के लिये आज्ञा देकर अब भगवान उक्त उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते है- 
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचारक जैसे चाहता है। वैसे ही कर।
  • सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को सारे उपदेश पर विचार करके अपना कर्तव्य निर्धारित करने के लिये कहे जाने पर भी जब अर्जुन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तो वे अपने को अनाधिकारी तथा कर्तव्य निश्चर्य करने में असमर्थ समझकर खिन्नचित्‍त हो गये, तब सबके हृदय की बात जानने वाले अन्‍तर्यामी भगवान स्वयं ही अर्जुन पर दया करके कहने लगे- 
    सम्पूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचनों को तु फिर भी सुन। तु मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मै तुझसें कहुंगा। हे अर्जुन! तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तु मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्‍योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुम्‍हें पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर।
  • सम्बन्ध- इस प्रकार भगवान् गीता के उपदेश का उपसंहार करके अब उस उपदेश के अध्यापन और अध्ययन आदि का माहात्म्य बतलाने के लिये पहले अनाधिकारी के लक्षण बतलाकर उसे गीता का उपदेश सुनाने को निषेध करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 67-72 का हिन्दी अनुवाद)

     तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिये तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिये। जो पुरुष मुझमें परमप्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है। उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।
  • सम्बन्ध- इस प्रकार उपर्युक्त दो श्लोकों में गीताशास्त्र श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवद्भक्‍तों को विस्तार करने का फल और माहात्म्य बतलाया ; किंतु सभी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकते, इसका अधिकारी तो कोई बिरला ही होता है। इसलिये अब गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाते हैं- 
    जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीता-शास्त्रों को पढे़गा, उसके द्वारा भी में ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है।
  • सम्बंध- इस प्रकार गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाकर, अब जो उपर्युक्त प्रकार से अध्ययन करने में असमर्थ हैं- ऐसे मनुष्य के लिये उसके श्रवण का फल बतलाते हैं- 
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वाला श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। 
  • सम्बन्ध- इस प्रकार गीताशास्त्र के कथन, पठन और श्रवण का माहात्म्य बतलाकर अब भगवान स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अर्जुन को सचेत करने के लिये उससे उसकी स्थिति पूछते हैं-
    हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 73-78 का हिन्दी अनुवाद)

   अर्जुन बोले ;- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। 
  • सम्बन्ध- इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हुए संजय धृतराष्ट्र के सामने गीता का महत्त्व प्रकट करते हैं- 
  संजय बोले ;- इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना। श्रीव्यास जी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके में बार-बार हर्षित होता हूँ। हे राजन! श्रीहरि उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
  • सम्बन्ध- इस प्रकार अपनी स्थिति वर्णन करते हुए गीता के उपदेश की और भगवान के अद्भुत रूप की स्मृति का महत्त्व प्रकट करके, अब संजय धृतराष्ट्र से पाण्डवों की विजय की निश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- 
   हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अंतगर्त ब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मोक्ष संन्यास योग नाम अठारहवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  18
[समाप्त]

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