सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
इकतालीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 17
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रद्धा का और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक्-पृथक् भेद तथा ओम, तत्, सत् के प्रयोग की व्याख्या”
- सम्बन्ध- गीता के सोलहवें अध्याय के आरम्भ में श्रीभगवान ने अर्जुन से निष्काम-भाव से सेवन किये जाने वाले शास्त्रविहित गुण और आचरणों का दैवीसम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्रविपरित आसुसी सम्पदा का कथन किया। साथ ही आसुर-स्वभाव वाले पुरुषों को नरकों में गिराने की बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभी ही आसुरी सम्पदा के प्रधान अवगुण हैं ये तीनों ही नरकों के द्वार हैं इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिये साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। इसके अनन्तर यह भी कहा कि जो शास्त्रविधि का त्याग करके मनमाने ढंग से अपनी समझ से जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता। अब अर्जुन सोचते हैं यह तो ठीक ही है परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो शास्त्रविधि का तो न जानने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से त्याग कर बैठते हैं तथा यज्ञ-पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्व करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है इस जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान से पूछते हैं-
श्री भगवान बोले ;- हे अर्जुन! मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन। हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, स्वयं भी वही है।
- सम्बन्ध-श्रद्धा के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा का स्वरूप बतलाया गया इससे यह जानने की इच्छा हो सकती है कि ऐसे मनुष्यों की पहचान कैसे हो कि कौन किस निष्ठा वाला है। इस पर भगवान कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 4-12 का हिन्दी अनुवाद)
सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। जो शरीर रूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आसुर-स्वभाव वाले जान।
- सम्बन्ध- विविध स्वभाविक श्रद्धा वालों के तथा घोर तप करने वाले लोगों के लक्षण बतलाकर अब भगवान सात्त्विक का ग्रहण और राजस-तामस का त्याग कराने के उद्देश्य से सात्त्विक राजस तामस आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं और कहते हैं-
वायु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वें, खट्टे, लक्षणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखें, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, वासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है। जो शास्त्रविधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करने के, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है। परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल-को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)
शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
- सम्बन्ध- इस प्रकार की तीन तरह के यज्ञों के लक्षण बतलाकर, अब तप के लक्षणों को प्रकरण आरम्भ करते हुए चार श्लोकों द्वारा सात्त्विक तप के लक्षण बतलाते हैं-
- सम्बन्ध- अब राजस तप के लक्षण बतलाये जाते हैं। जो तप संस्कार, मान और पूजा के लिये तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिये भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप यहाँ राजस कहा गया है।
- सम्बन्ध- अब तामस तप के लक्षण बतलाये है, जो कि सर्वथा त्याज्य है- जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
- सम्बंध- तीन प्रकार के तपों का लक्षण करके अब दान के तीन प्रकार के लक्षण कहते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 22-28 का हिन्दी अनुवाद)
जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
- सम्बन्ध- अब सात्त्विक यज्ञ, दान और तप उपादेय क्यों है भगवान से उनका क्या सम्बन्ध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ तप और दानों में जो अंग-वैगुण्य हो जाय, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है-
- सम्बन्ध- परमेश्वर के उपर्युक्त ऊँ, तत् और सत्- इन तीन नामों का यज्ञ, दान, तप आदि के साथ क्या सम्बन्ध है। ऐसी जिज्ञासा होने पर कृष्ण कहते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्रविहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मों का महत्त्व बतलाया गया उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है। कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है इस पर भगवान इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवदगीता पर्व के अंतगर्त ब्रह्मविद्या और संवाद में श्रद्धात्रयविभाग योग नामक सतरहवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
इकतालीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 18
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)
“त्याग का, सांख्यसिद्धान्त का, फलसहित वर्ण-धर्म का, उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का, भक्ति सहित निष्काम कर्मयोग का एवं गीता के महात्मय का वर्णन”
- सम्बन्ध- गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से गीता के उपदेश का आरम्भ हुआ। वहाँ से आरम्भ करके तीसवें श्लोक तक भगवान् ने अर्जुन को ज्ञान योग का उपदेश दिया। और प्रसंगवश क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की कर्तव्यता का प्रतिपादन करके उन्चालीसवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त कर्मयोग का उपदेश दिया, उसके बाद तीसरे अध्याय से सत्रहवें अध्याय तक कहीं ज्ञानयोग की दृष्टि से और कही कर्मयोग की दृष्टि से परमात्मा की प्राप्ति के बहुत से साधन बतलाये। उन सबको सुनने के अनन्तर अब अर्जुन इस अठारहवें अध्याय में समस्त अध्यायों के उपदेश का सार जानने के उद्देश्य से भगवान् के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट करते हैं-
श्रीभगवान् बोले ;- हे अर्जुन! कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागने के योग्य है। और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास और त्याग के विषयों में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अब भगवान् त्याग के विषय में अपना निश्चय बतलाना आरम्भ करते हैं, कृष्ण कहते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 6-12 का हिन्दी अनुवाद)
इसलिये हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
- सम्बन्ध- अब तीन श्लोकों में क्रम से उपर्युक्त तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं-
- सम्बन्ध- उपयुक्त प्रकार से सात्त्विक त्याग करने वाले पुरुष का निषिद्ध और काम्यकर्मों स्वरूप से छोड़ने में और कर्तव्य कर्मों के करने में कैसा भाव रहता है, इस जिज्ञासा पर सात्त्विक त्यागी पुरुष की अंतिम स्थिति के लक्षण बतलाते हैं’-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 13-17 का हिन्दी अनुवाद)
- सम्बन्ध- पहले श्लोक में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट की थी। उसका उत्तर देते हुए भगवान् ने दूसरे और तीसरे श्लोकों में इस विषय पर विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अपने मत के अनुसार चौथे श्लोक से बारहवें श्लोक तक त्याग का यानी कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति समझाया अब संयास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व समझाने के लिये पहले सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों को सिद्धि में पांच हेतु बतलाते है-
- सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्ययोग के सिद्धान्त से समस्त कर्मों की सिद्धि अधिष्ठानादि पांच कारणों का निरूपण करके अब, वास्तव में आत्मा का कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है, आत्मा सर्वथा शुद्ध निर्विकार और अकर्ता है-
- सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अकर्तापन का प्रतिपादन करके अब उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अर्कतापन का प्रतिपादन किया था। अब वे उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन अर्जुन से करते हैं। और कहते हैं -
जो कर्म शास्त्रविधि के नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो - वह सात्त्विक कहा जाता है। परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है। तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। जो कर्ता संग रहित, अहंकार के वचन बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्ता आसक्ति युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्ध-चोरी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।
महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद
जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार तत्त्वज्ञान में सहायक सात्त्विक भाव को ग्रहण कराने के लिये और उसके विरोधी राजस-तामस भावों- का त्याग कराने के लिये कर्म-प्रेरणा तथा कर्म-संग्रह में से ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब कृष्ण बुद्धि और धृति के सात्त्विक, राजस और तामस-इस प्रकार त्रिविध भेद क्रमशः बतलाने की प्रस्तावना करते हुए बतलाते हैं और कहते हैं-
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति मनुष्य ध्यानयोग द्वारा, मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, यह धृति सात्त्विकी है। परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छा वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारणशक्ति राजसी है। हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ना अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति तामसी है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार सात्त्विक की बुद्धि और घृति का ग्रहण तथा राजसी-तामसी का त्याग करने के लिये बुद्धि और घृति के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब, जिसके लिये मनुष्य समस्त कर्म करता है, उस सुख के भी सात्त्विक, राजस और तामस इस प्रकार तीन भेद क्रम से बतलाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद)
हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है, और दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है। जो ऐसा सुख है, वह आरम्भ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है। इसलिये वह परमात्मा विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा जाता है। जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है। जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कही भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।
- सम्बन्ध- इस अध्याय के चौथे से बारहवें श्लोक तक भगवान ने अपने मत के अनुसार त्याग के लक्षण बतलाये। तदनन्तर तेरहवें से सत्रहवें श्लोक तक संन्यास (सांख्य) के स्वरूप का निरूपण करके संन्यास में सहायक सत्त्वगुण का ग्रहण और उसके विरोधी रज एवं तम का त्याग कराने के उद्देश्य से अठारहवें से चालीसवें श्लोक तक गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों के भेद समझाये और अंत में समस्त सृष्टि को गुणों से युक्त बतलाकर उस विषय का उपसंहार किया। वहाँ त्याग का स्वरूप बतलाते समय भगवान ने यह बात कही थी कि नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। अपितु नियत कर्मों की आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करते रहना ही वास्तविक त्याग है, किंतु वहाँ यह बात नहीं बतलायी कि किसके लिये कौन-सा कर्म नियत है। अतएव अब संक्षेप में नियत कर्मों का स्वरूप, त्याग के नाम से वर्णित कर्म-योग में भक्ति का सहयोग और उसका फल परम सिद्धि की प्राप्ति बतलाने के लिये पुनः उसी त्यागरूप कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद)
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं। अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वाभिमान- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।
- सम्बन्ध-इस प्रकार चारों वर्णों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके अब भक्तियुक्त कर्मयोग का स्वरूप और फल बतलाने के लिये, उन कर्मों का किस प्रकार आचरण करने से मनुष्य अनायास परम सिद्धि प्राप्त कर लेता है- यह बात दो श्लोकों में बतलाते हैं-
- सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में यह बात कही गयी कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करके परम सिद्धि को पा लेता है; इस पर यह शंका होती है कि यदि कोई क्षत्रिय अपने युद्धादि क्रुर कर्मों को न करके, ब्राह्मणों की भाँति अध्यापनादि शांतिमय कर्मों से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा करे या इसी तरह कोई वैश्य या शूद्र अपने कर्मों को उच्च वर्णों के कर्मों से हीन समझकर उनका त्याग कर दे और अपने से ऊँचे वर्ण की वृति से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो उचित है या नहीं। इस पर दूसरे के धर्म की अपेक्षा स्वधर्म श्रेष्ट बतलाकर उसके त्याग का निषेध करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 47-53 का हिन्दी अनुवाद)
अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना श्रर्मश्रेष्ठ हैं, क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि धूएं से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।
- सम्बन्ध- भगवान ने तेरहवें से चालीसवें श्लोक तक संन्यास यानी सांख्य का निरूपण किया। फिर इकतालीसवें श्लोक से यहाँ तक कर्मयोग रूप त्याग का तत्त्व समझाने के लिये स्वाभाविक कर्मों का स्वरूप और उनकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश करके तथा कर्मयोग में भक्ति का सहयोग दिखलाकर उसका फल भगवत्प्राप्ति बतलाया; किंतु वहाँ संन्यास के प्रकरण यह बात नहीं कही गयी कि संन्यास का क्या फल होता है और कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्याग कर उपासना के सहित सांख्ययोग का किस प्रकार साधन करना चाहिये। अतः यहाँ उपासना के सहित विवेक और वैराग्यपूर्वक एकान्त में रहकर साधन करने की विधि और उसका फल बतलाने के लिये पुनः सांख्ययोग प्रकरण आरम्भ करते हैं।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दन ब्रह्मा में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।
- सम्बन्ध- अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार त्याग यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग तत्त्व अलग-अलग समझकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किंतु उस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधक कर्तव्य है; अतएव अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्तिप्रधान कर्मयोग महिमा कहते हैं। मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है। सब कर्मों का मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो।
- सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इस पर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति का स्वभाव जड़ है; वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है; इसलिये भगवान कहते हैं।
- सम्बन्ध- यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कर्मबन्धन से छूटकर परम शांतिलाभ करने के लिये मनुष्यों को क्या करना चाहिये; इस पर भगवान कहते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को अन्तर्यामी परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के लिये आज्ञा देकर अब भगवान उक्त उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते है-
- सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को सारे उपदेश पर विचार करके अपना कर्तव्य निर्धारित करने के लिये कहे जाने पर भी जब अर्जुन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तो वे अपने को अनाधिकारी तथा कर्तव्य निश्चर्य करने में असमर्थ समझकर खिन्नचित्त हो गये, तब सबके हृदय की बात जानने वाले अन्तर्यामी भगवान स्वयं ही अर्जुन पर दया करके कहने लगे-
- सम्बन्ध- इस प्रकार भगवान् गीता के उपदेश का उपसंहार करके अब उस उपदेश के अध्यापन और अध्ययन आदि का माहात्म्य बतलाने के लिये पहले अनाधिकारी के लक्षण बतलाकर उसे गीता का उपदेश सुनाने को निषेध करते हैं।
- सम्बन्ध- इस प्रकार उपर्युक्त दो श्लोकों में गीताशास्त्र श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवद्भक्तों को विस्तार करने का फल और माहात्म्य बतलाया ; किंतु सभी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकते, इसका अधिकारी तो कोई बिरला ही होता है। इसलिये अब गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाते हैं-
- सम्बंध- इस प्रकार गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाकर, अब जो उपर्युक्त प्रकार से अध्ययन करने में असमर्थ हैं- ऐसे मनुष्य के लिये उसके श्रवण का फल बतलाते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार गीताशास्त्र के कथन, पठन और श्रवण का माहात्म्य बतलाकर अब भगवान स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अर्जुन को सचेत करने के लिये उससे उसकी स्थिति पूछते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हुए संजय धृतराष्ट्र के सामने गीता का महत्त्व प्रकट करते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार अपनी स्थिति वर्णन करते हुए गीता के उपदेश की और भगवान के अद्भुत रूप की स्मृति का महत्त्व प्रकट करके, अब संजय धृतराष्ट्र से पाण्डवों की विजय की निश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं-
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