सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the 36 chapter to the 40 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

छत्तीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  12

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-2 का हिन्दी अनुवाद)

“साकार और निराकार के उपायकों की उत्‍तमता का निर्णय तथा भगवत्‍प्राप्ति के उपाय का एवं भगवत्‍प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन”

  • संबंध- गीता के दूसरे अध्‍याय से लेकर छठे अध्‍याय तक भगवान ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्‍याय से ग्‍यारहवें अध्‍याय तक तो विशेष रूप से सगुण भगवान की उपासना का महत्त्व दिखलाया है। इसी के साथ पांचवे अध्‍याय में सत्रहवें से छब्‍बीसवें श्लोक तक, छठे अध्‍याय में चौबीसवें से उन्‍तीसवें तक, आठवें अध्‍याय में ग्‍यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण की उपासना का महत्त्व भी दिखलाया है। आखिर ग्‍याहरवें अध्‍याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्‍य भक्ति का फल भगवत्‍प्राप्ति बतलाकर ‘मत्‍कर्मकृत्’ से आरम्‍भ होने वाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार-स्‍वरूप भगवान के भक्त की विशेष-रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकर ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन हैं-

   अर्जुन बोले ;- जो अनन्‍य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्‍यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म को ही अतिश्रेष्‍ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्‍ता कौन हैं? 

  श्रीभगवान बोले ;- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्‍यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्‍ठ श्रद्धा से युक्‍त, होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्‍तम योगी मान्‍य हैं। 

  • संबंध- पूर्वश्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्‍तम योगवेता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्‍या निर्गुण-निराकर ब्रह्म के उपासक उत्‍तम योगवेत्ता नहीं है; इस पर कहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 3-11 का हिन्दी अनुवाद)

   परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्‍यापी, अकथनीय स्‍वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से (अभिन्‍नभाव से) ध्‍यान करते हुए भजते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्‍त होते हैं। 

  • संबंध- इस प्रकार निर्गुण-उपासना और उसके फल का प्रतिपादन करने के पश्चात अब देहाभिमानियों के लिये अव्‍यक्‍त गति-की प्राप्ति को कठिन बतलाते हैं-
 उन सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म में आसक्‍त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है, क्‍योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्‍यक्तविषयक गति दु:खपूर्वक प्रा‍प्‍त की जाती है। परंतु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्‍पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्‍यभक्ति योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं। हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्‍यु रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ। 

  • संबंध- इस प्रकार पूर्वश्लोकों में निर्गुण-उपासना की अपेक्षा सगुण-उपासना की सगुमता का प्रतिपादन किया गया। इसलिये अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन-बुद्धि लगाकर सगुण-उपासना करने की आज्ञा देते हैं।

    मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके अनंतर तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यदि तू मन को मुझमें अचल स्‍थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्‍यासरूप योग के द्वारा मुझको प्रा‍प्‍त होने के लिये इच्‍छा कर। यदि तू उपर्युक्‍त अभ्‍यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्‍त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि का ही प्राप्‍त होगा। यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्‍त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्रा‍प्‍त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्‍याग कर। 

  • संबंध- छठे श्लोक से आठवें तक अनन्‍य ध्‍यान का फल सहित वर्णन करके नवें से ग्‍यारहवें श्लोक तक एक प्रकार के साधन में असमर्थ होने पर दूसरा साधन बतलाते हुए अंत में ‘सर्वकर्मफलत्‍याग’ रूप का साधन का वर्णन किया गया। इससे यह शंका हो सकती है कि ‘कर्मफलत्‍याग’ रूप साधन पूर्वोक्‍त अन्‍य साधनों की अपेक्षा निम्‍न श्रेणी का होगा; अत: ऐसी शंका को हटाने के लिये कर्मफल के त्‍याग का महत्त्व अगले श्लोक में बतलाया जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 12-16 का हिन्दी अनुवाद)

मर्म को न जानकर किये हुए अभ्‍यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्‍वरूप का ध्‍यान श्रेष्ठ है और ध्‍यान से भी सब कर्मों के फल का त्‍याग श्रेष्ठ है; क्‍योंकि त्‍याग से तत्‍काल ही परम शांति होती है।

  • संबंध- उपर्युक्‍त श्लोकों में भगवान की प्राप्ति के लिये अलग-अलग साधन बतलाकर उनका फल परमेश्वर की प्राप्ति बतलाया गया, अतएव भगवान को प्राप्‍त हुए सिद्ध भक्तों के लक्षण जानने की इच्‍छा होने पर अब सात श्लोकों में उन भगवत्‍प्राप्‍त भक्तों के लक्षण बतलाये जाते हैं- 
जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्‍वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है। तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, दु:खों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है। और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

    जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्‍त नहीं होता और जो स्‍वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्‍त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है, वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दु:खों से छूटा हुआ है, वह सब आरम्‍भों का त्‍यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद)

    जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है, तथा जो शुभ और अशुभ सम्‍पूर्ण कर्मों का त्‍यागी है, वह भक्तियुक्‍त पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्‍द्वों में सम है, और आसक्ति से रहित है। जो निंदा-स्‍तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्‍ट है। तथा रहने के स्‍थान में ममता और आसक्ति से रहित है, वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है।

  • संबंध- परमात्मा को प्राप्‍त हुए सिद्ध भक्तों के लक्षण बतलाकर अब उन लक्षणों को आदर्श मानकर बड़े प्रयत्न के साथ उनका भलीभाँति सेवन करने वाले, परम श्रद्धालु, शरणागत भक्तों की प्रशंसा करने के लिये, उनको अपना अत्‍यंत प्रिय बतलाकर भगवान इस अध्‍याय का उपसंहार करते हैं। परंतु जो श्रद्धायुक्‍त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्‍काम प्रेम-भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में भक्तियोग नामक बारहवां अध्‍याय पूरा हुआ (भीष्‍मपर्व में छत्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

सैतीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  13

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ और प्रकृति-पुरुष का वर्णन”

  •  सम्बन्ध- गीता के बारहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था, उसका उत्तर देते हुए भगवान ने दूसरे श्लोक में संक्षेप में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके तीसरे से पांचवे श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिये उनके अनुष्ठान में कठिनता का निरूपण किया। तदनन्तर छठे से बीसवें श्लोक सगुण उपासना महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते करते ही अध्याय की समाप्ति हो गयी; निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया। अतएव निर्गुण निराकार का तत्त्व अर्थात ज्ञान योग्य विषय भलीभाँति समझने के लिये तेरहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले भगवान क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के लक्षण बतलाते हैं- 
    श्री भगवान बोले ;- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्त्वों को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।

   हे अर्जुन! तु सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रफल अर्थात विकारसहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है। 

  • सम्बन्ध- क्षेत्र और क्षेत्रफल पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार का नाश हो जाता है। और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रफल’ के स्वरूप आदि का भलीभाँति विभागपूर्वक समझाने के लिये भगवान कहते हैं। 
   वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन- 

  • सम्बन्ध- तीसरे श्लोक में ‘क्षेत्र’ और क्षेत्रज्ञ में जिस तत्त्व को संक्षेप में सुनने के लिये भगवान ने अर्जुन से कहा- 
   तब उसके विषय में ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र की उक्ति का प्रमाण देकर भगवान ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र को आदर देते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 4-10 का हिन्दी अनुवाद)

    यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्ति युक्त ब्रह्मसूत्र पदों द्वारा भी कहा जा सकता है। पाँच महाभूत अंहकार, बुद्धि और मूल प्रकृति[ भी; तथा दस इंद्रियाँ एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द स्पर्श, रूप, रस और गंध- तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, देह का पिण्ड, चेतना, और धृति इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप कहा गया सम्बन्ध इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारो का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है, उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का ‘ज्ञान’ के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं।

      श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमा भाव, मन वाणी आदि की सरलता, श्रद्धामुक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह। एक लोक और परलोक के सम्पूर्ण भागों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार बार विचार करना। पुत्र, स्त्री, घर, और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना। मुझे परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 11-17 का हिन्दी अनुवाद)

   अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना यह सब ज्ञान है। और जो इससे विपरित हैं, यह अज्ञान है- ऐसा कहा है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार ज्ञान के साधनों का ‘ज्ञान’ के नाम से वर्णन सुनने पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनों द्वारा प्राप्त ‘ज्ञान’ से जानने योग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेने से क्या होता है। उसका उत्तर देने के लिये भगवान अब जाने के योग्य वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके जानने का फल ‘अमरत्व की प्राप्ति’ बतलाकर छः श्लोकों में जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं- 

    जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहुँगा। वह अनादि वाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता, न असत्।

   वह सब ओर हाथ-पैर वाला सब ओर हाथ नेत्र, सिर और मुख वाला और सब ओर कान वाला हैं; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है। तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है। यह चराचर सब भूतों के बाहर- भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है। एवं वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित है।

   वह परमात्मा विभागरहित एक रूपये आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है। वह परब्रहा ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्त्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-20 का हिन्दी अनुवाद)

    इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्त्व से जान- कर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। 

  • सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान् ने क्षेत्र के विषय में चार बातें और क्षेत्रज्ञ के विषय में दो बातें संक्षेप में सुनने के लिये अर्जुन से कहा था, फिर विषय आरम्भ करते ही क्षेत्र के स्वरूप का और उसके विकारों का वर्णन करने के अनन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के तत्त्व को भलीभाँति जानने के उपायभूत साधनों का और जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन प्रसंगवश किया गया। 
   इससे क्षेत्र के विषय में उसके स्वभाव-का और किस कारण से कौन कार्य उत्पन्न होता है, इस विषय का तथा प्रभाव सहित क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का भी वर्णन नहीं हुआ। अतः अब उन सबका वर्णन करने के लिये भगवान् पुनः प्रकृति और पुरुष इन दोनों को ही तु अनादि जान। और राग द्वेषादि विकारों को तभा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकृति से ही उत्पन्न जान।

  • सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में, जिससे जो उत्पन्न हुआ है, यह बात सुनने के लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्व श्लोक के उत्तरार्द्ध में कुछ किया गया। अब उसी की कुछ बात इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में कहते हुए इसके उत्तरार्द्ध में और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति में स्थित पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया जाता है- 

   कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है। और जीवात्मा सुख दुःख के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद)

    प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है। और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों मे प्रवेश लेने का कारण है। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार प्रकृतिस्थ पुरुष के स्वरूप का वर्णन करने के बाद अब जीवात्मा और परमात्मा की एकता करते हुए आत्मा के गुणातीत स्वरूप का वर्णत करते हैं- 
    इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवनरूप से भोक्ता, ब्रह्म आदि का स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है। इस प्रकार पुरुषों और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है, वह सब प्रकार के कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार गुणों के सहित प्रकृति और पुरुष के ज्ञान का महत्त्व सुनकर यह अच्छा हो सकती है कि ऐसा ज्ञान कैसे होता है। इसलिये अब दो श्लोकों द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों के लिये तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करते हैंं- 
उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैंं। अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैंं। परन्तु इसमें दूसरे, अर्थात जो मन्द बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्त्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैंं। और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैंं। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार परमात्मा सम्बन्धी तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करके अब तीसरें श्लोक मे जो ‘यादक्’ पद से क्षेत्र के स्वभाव को सुनने के लिये कहा था, उसके अनुसार भगवान दो श्लोकों द्वारा उस क्षेत्र को उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए आत्मा के यर्थाथ तत्त्वों को जानने वाले की प्रशंसा करते हैंं। 
    हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 27-30 का हिन्दी अनुवाद)

    जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है, वही यर्थाथ देखता है। क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परमगति को प्राप्त होता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार नित्य विज्ञानान्दघन आत्मतत्त्व को सर्वत्र समभाव से देखने का महत्त्व और फल बतलाकर अब अगले श्लोक में उसे अकर्ता देखने वाले की महिमा कहते हैं-
    और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखना है, वही यर्थाथ देखता है। जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार आत्मा को सब प्राणियों में समभाव से स्थित, निर्विकार और अकर्ता बतलाया जाने पर यहाँ शंका होती है कि समस्त शरीरों में रहता हुआ भी आत्मा उनके दोषों से निर्लिप्त और अकर्ता कैसे रह सकता है; इस शंका का निवारण करने के लिये अब भगवान- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में जो ‘यत्प्रभावश्च’ पद से क्षेत्रज्ञ का प्रभाव सुनने का संकेत किया गया था, उसके अनुसार- तीन श्लोकों द्वारा आत्मा के प्रभाव का वर्णन करते हैंं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 31-34 का हिन्दी अनुवाद)

   हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है। 

  • सम्बन्ध- शरीर में स्थित होने पर भी आत्मा क्यों नहीं लिप्त होता है इस पर कहते हैं- 
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता। हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।

  • सम्बन्ध- तीसरे श्लोक में जिन छः बातों को कहने का भगवान ने संकेत किया था, उनका वर्णन करके अब इस अध्याय में वर्णित समस्त उपदेश को भलीभाँति समझने का फल पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाते हुए अध्याय का उपसंहार करते हैं- 
    इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भेद को तथा कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान- नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं, वे महात्माजन परमब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्‍त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में भक्तियोग नामक तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ (भीष्‍मपर्व में सैंतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  14

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति का, सत्त्व, रज, तम-तीनों गुणों का, भगवत्प्राप्ति के उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षणों का वर्णन”

  • सम्बन्ध- गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षणों का निर्देश करके कृष्ण ने अर्जुन को इन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान बतलाया और इसके अनुसार क्षेत्र के स्वरूप, स्वभाव, विकार और इसके तत्त्वों कि उत्पत्ति के क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप और उसके प्रभाव का वर्णन किया। पूर्व के श्लोक उन्नीसवें में कृष्ण ने प्रकृति-पुरुष के नाम से प्रकरण आरम्भ करके गुणों को प्रकृतिजन्य बतलाया और इक्कीसवें श्लोक में कृष्ण द्वारा यह बात भी कही कि पुरुष बार बार अच्छी बुरी योनियों में जन्म होने का कारण उसके गुणों का संग होना ही है। अब इससे गुणों के भिन्न-भिन्न स्वरूप क्या हैं, ये जीवात्मा को कैसे शरीर में बांधते हैं, किस गुण के संग से किस योनि में जन्म होता है, गुणों से छूटने के उपाय क्या हैं, गुणों से छूटे यह पुरुषों के लक्षण तथा आचरण कैसे होते हैं- ये सब बातें बताने के लिये इस चौदहवें अध्याय को आरम्भ किया गया है। कृष्ण तेरहवें अध्याय में वर्णित ज्ञान को ही स्पष्ट करके चौदहवें अध्याय में विस्तारपूर्वक अर्जुन को समझाते हैं।

   श्री भगवान अर्जुन से बोले ;- हे अर्जुन! ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर से कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते। हे अर्जुन! मेरी महत-ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन-समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 4-9 का हिन्दी अनुवाद)

    हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ। 

  • सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में जीवों के नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी, किंतु वहाँ गुणों की कोई बात नहीं आयी। इसलिये अब वे गुण क्या है। उनका संग क्या है किस गुण के संग से अच्छी योनि में और किस गुण के संग से बुरी योनि में जन्म होता है- इन सब बातों को स्पष्ट करने के लिये इस प्रकरण का आरम्भ करते हुए भगवान अब अर्जुन से पहले उन तीनों गुणों की प्रकृति से उत्पत्ति और उनके विभिन्न नाम बतलाकर फिर उनके स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बन्धन-प्रकार का क्रमशः पृथक पृथक वर्णन करते हैं।

    कृष्ण कहते हैं ;- हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। हे निष्पाप! उन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उनके अभिमान से बांधता है। हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।

     हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बांधे जाने का प्रकार बतलाकर अब उन तीनों गुणों का स्वाभावित व्यापार बतलाते हैं।
 हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगता है। और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है।

  • सम्बन्ध- सत्त्व आदि तीनों गुण जिस समय अपने-अपने कार्य में जीवों को नियुक्त करते हैं, उस समय वे ऐसा करने में किस प्रकार समर्थ होते हैं- यह बात अगले श्लोक में बतलाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद)

   हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है। अर्थात बढ़ता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुणों के बढ़ने की बात कही गयी। अब प्रत्येक गुण की वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, वृद्धि के लक्षण बतलाये जाते हैं- 
    जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है। हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं। हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार तीनों गुणों की वृद्धि के भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाकर अब दो श्लोकों में उन गुणों में से किस गुण की वृद्धि के समय मरकर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, यह बतलाया जाता है- 
जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है। तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।

  • सम्बन्ध- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न-भिन्न फल बताये गये हैं कि किस प्रकार कभी किसी गुण की और कभी किसी गुण की वृद्धि क्‍यों होती हैं इस पर कृष्ण कहते हैं- 
श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। 

  • सम्बन्ध- ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में सत्त्व, रज और तमोगुण की वृद्धि के लक्षण का क्रम से वर्णन किया गया इस पर यह जानने की अच्छा होती है कि ‘ज्ञान’ आदि की उत्पत्ति को सत्त्व आदि गुणों की वृद्धि के लक्षण क्यों माना गया। अतएव कार्य की उत्पत्ति से कारण की सत्ता को जान लेने के लिये ज्ञान आदि की उत्पत्ति में सत्त्व आदि गुणों को कारण बतलाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद)

    सत्त्वगुण ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निसंदेह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं, और अज्ञान भी होता है। सत्त्वगुण स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों का तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।

  • सम्बन्ध- गीता के तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में जो यह बात कही थी कि गुणों का संग ही इस मनुष्य के अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्तिरूप पुनर्जन्म का कारण है उसी के अनुसार यह अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक गुणों के स्वरूप तथा गुणों के कार्य द्वारा मनुष्य बधे हुए मनुष्य की गति आदि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया। इस वर्णन से यह बात समझायी गयी। कि मनुष्य को पहले तम और रजोगुण त्याग करके सत्त्वगुण में अपनी स्थिति करनी चाहिये और उसके बाद सत्त्वगुण का भी त्याग करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होने के उपाय और गुणातीत अवस्था का फल अगले दो श्लोकों द्वारा बतलाया जाता है-
      जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार जीवन-अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है- इस रहस्य युक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं- 
    हे वासुदेव! इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है। तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है। 

  • सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान उसके प्रश्नों में से ‘लक्षण’ और ‘आचरण’ विषयक दो प्रश्नों का उत्तर चार श्लोकों द्वारा देते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 22-27 का हिन्दी अनुवाद)

   भगवान बोले ;- हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। जो साक्षी के सदृश्य स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्‍दन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता। जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है। जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। एवं सम्पूर्ण आरम्भ में कर्तापन के अभिमान-से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

  • सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के दो प्रश्नों का उत्तर देकर अब गुणातीत बनने के उपाय विषयक तीसरे प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। यद्यपि इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने गुणातीत बनने का उपाय अपने को अकर्ता समझकर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्‍दघन ब्रह्म में नित्य निरन्तर स्थित रहना बतला दिया था। एवं उपर्युक्त चार श्लोकों में गुणातीत के जिन लक्षण और आचरणों का वर्णन किया गया है, उसको आर्दश मानकर धारण करने का अभ्यास भी गुणातीत बनने का उपाय माना जाता है, किन्तु अर्जुन ने इस उपाय से भिन्न दूसरा कोई सरल उपाय जानने की इच्छा से प्रश्न किया था, इसलिये प्रश्न के अनुकूल भगवान दूसरा सरल उपाय बतलाते हैं- 
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली-भाँति लांघकर सच्चिदानन्‍दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है।

  • सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोक में सगुण परमेश्वरी की उपासना का फल निर्गुण-निराकार ब्रह्म की प्राप्ति बतलाया गया तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘अमृत’ की प्राप्ति बतलाया गया। अतएव फल में विषमता की शंका का निराकरण करने के लिये सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- 
क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनंद का आश्रय मैं हूँ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या और योगशस्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् में, श्रीकृष्णार्जुंनसंवाद में गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  15

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनचत्वांरिश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“संसारवृक्ष का, भगवत्प्राप्ति के उपाय का, जीवात्मा का, प्रभावसहित, परमेश्वर के स्वरूप का एवं क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन”

  • सम्बन्ध- गीता के चौदहवें अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक तीनों गुणों के स्वरूप, उनके कार्य एवं उनकी बन्धन-कारिता का और बँधे हुए मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उन्नीसवें और बीसवें श्लोकों में उन गुणों से अतीत होने का उपाय और फल बताया फिर उसके बाद अर्जुन के पूछने पर बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों और आचरणों का वर्णन करके छब्बीसवें श्लोक में सगुण परमेश्वर के अव्यभिचारी भक्तियोग को गुणा से अतीत होकर ब्रह्मप्राप्ति के लिये योग्य बनने का सरल उपाय बताया गया। अतएव भगवान में अव्यभिचारी भक्तियोग रूप अनन्य प्रेम उत्पन्न कराने के उद्देश्य से अब उस सगुण परमेश्वर पुरुषोत्तम भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीत होने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत-शरणागति का वर्णन करने के लिये पंद्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। यहाँ पहले संसार में वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से तीन श्लोकों द्वारा संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए वैराग्यरूप शास्त्र द्वारा उसका छेदन करने के लिये कहते हैं।

     श्रीभगवान् बोले ;- आदिपुरुष परमेश्वर मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये है उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनि रूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। इस संसारवृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार की स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा काटकर।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 4-8 का हिन्दी अनुवाद)

   उसके पश्चात् उस परमपद रूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। 

  • सम्बन्ध- अब उपर्युक्त प्रकार से आदिपुरुष परमपद स्वरूप परमेश्वरी की शरण होकर उसको प्राप्त हो जाने वाले पुरुषों के लक्षण बतलाये जाते हैं- 
   जिनका मान और मोह नष्ट हो गया हैं जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं, वे सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही वही मेरा परम धाम है।

  • सम्बन्ध- पहले और तीसरे श्लोक तक संसार वृक्ष के नाम से क्षर पुरुष का वर्णन किया, उसमें जीवरूप अक्षर पुरुष के बन्धन हेतु तथा उसके द्वारा मनुष्य योनि में अहंता-ममता और आसक्तिपूर्वक किये हुए कर्मों को बताया तथा उस बंधन से छूटने का उपाय और सृष्टिकर्ता आदि पुरुष पुरुषोत्म की शरण ग्रहण करना बताया। अब इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उपयुक्त प्रकार से बँधे हुए जीव का क्या स्वरूप है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, उसे कौन कैसे जानता है अतः इन सब बातों का स्पष्टीकरण करने के लिये पहले कृष्ण अर्जुन को जीव का स्वरूप बतलाते हैं- 
इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है। और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है। 

  • सम्बन्ध- यह जीवात्मा मनसहित छः इन्द्रियों को किस समय, किस प्रकार और किस लिये आकर्षित करता है तथा वे मनसहित छः इन्द्रियां कौन-कौन हैं- ऐसी जिज्ञासा होने पर अब दो श्लोकों में इसका इसका उत्तर दिया जाता है- 
  वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 9-14 का हिन्दी अनुवाद)

  यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है। शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को- इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्त्व से जानते हैं। यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं। किंतु जिन्‍होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।

  • सम्बन्ध- छठे श्लोक पर दो शंकाएं होती हैं- पहली यह कि सबके प्रकाशक सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि आदि तेजोमय पदार्थ परमात्मा को क्यों नहीं प्रकाशित कर सकते और दूसरी यह कि परमधाम को प्राप्त होने के बाद पुरुष वापस क्‍यों नहीं लौटते। इनमें से दूसरी शंका के उत्तर में सातवें श्लोक में जीवात्मा को परमेश्वर सनातन अंश बतलाकर ग्यारहवें श्लोक तक उसके स्वरूप, स्वभाव और व्यवहार का वर्णन करते हुए उसका यथार्थ स्वरूप जानने वालों की महिमा कही गयी। अब पहली शंका का उत्तर देने के लिये भगवान् बारहवें से पन्द्रवें श्लोक तक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्यसहित अपने स्वरूप का वर्णन करते हैं।

   सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है, उसको तू मेरा ही तेज जान। और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ। और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ। मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 15-20 का हिन्दी अनुवाद)

  मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है। और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ, तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

  • सम्बन्ध- पहले से छठे श्लोक तक वृक्षरूप से संसार का दृढ़ वैराग्य के द्वारा उसके छेदन का, परमेश्वर की शरण में जाने का, परमात्मा को प्राप्त होने वाले पुरुषों कि लक्षणों का और परमधाम स्वरूप परमेश्वर की महिमा का वर्णन करते हुए अश्वत्थ वृक्षरूप क्षर पुरुष का प्रकरण पूरा किया। फिर उसके बाद तदनन्तर सातवें श्लोक से ‘जीव’ शब्द वाच्य उपासक अक्षर पुरुष का प्रकरण आरम्भ करके उसके स्वरूप, शक्ति स्वभाव और व्यवहार का वर्णन करने के बाद उसे जानने वालों की महिमा कहते हुए ग्यारहवें श्लोक तक उस प्रकरण को पूरा किया। फिर बारहवें श्लोक से उपास्यदेव ‘पुरुषोत्तम’ का प्रकरण आरम्भ करके पन्द्रहवें श्लोक तक उसके गुण, प्रभाव और स्वरूप का वर्णन करते हुए उस प्रकरण को भी पूरा किया। अब अध्याय की समाप्ति तक पूर्वोक्त तीनों प्रकरणों का सार संक्षेप में बतलाने के लिये अगले श्लोकों-में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन करते हैं-

    इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। इन दोनों उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों मे प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है। क्‍योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के पुर्व श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् श्रीकृष्णार्जुनसंवाद पुरुषोत्तम योग नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में उन्तालीसवा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

चालीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  16


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“फलसहित दैवी और आसुरी सम्पदा का वर्णन तथा शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्र के अनुकुल आचरण करने के लिये प्रेरणा”

  • सम्बन्ध- गीता के सातवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में तथा नवें अध्याय के ग्यारहवें और बारहवें श्लोकों में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि आसुरी और राक्षसी प्रकृति को धारण करने वाले मूढ़ मेरा भजन नही करते, वरं मेरा तिरस्कार करते हैं। तथा नवें अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोक में कहा कि ‘दैवी-प्रकृति से युक्त महात्माजन मुझे सब भूतों का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम के साथ सब प्रकार के निरन्तर मेरा भजन करते हैं।’ परन्तु दूसरा प्रसंग चलता रहने के कारण वहाँ दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन नहीं किया जा सका। फिर पन्द्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ‘जो ज्ञानी महात्मा मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानते हैं, वे सब प्रकार से मेरा भजन करते हैं।’ इस पर स्वाभाविक ही भगवान् को पुरुषोत्तम जानकर सर्वभाव से उनका भजन करने वाले दैवी-प्रकृति युक्त महात्मा पुरुषों के और उनका भजन न करने वाले आसुरी प्रकृति युक्त अज्ञानी मनुष्यों के क्या-क्या लक्षण है- यह जानने की इच्छा होती है। अतएव अब भगवान दोनों के लक्षण और स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये सोलहवां अध्याय आरम्भ करते हैं। इसमें पहले तीन श्लोकों द्वारा दैवी-सम्पदा से युक्त सात्त्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक अर्जुन से वर्णन करते हैं-
    श्री भगवान बोले ;- हे अर्जुन! भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता। मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथा‍र्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 4-11 का हिन्दी अनुवाद)

    हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड, और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी ये सब आसुरी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। दैवी सम्पदा मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पदा बांधने के लिये मानी गयी है। इसलिये हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्‍योंकि तू दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है। हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी-प्रकृति वाला दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उसमें से दैवी-प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन।
    आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति-इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिये उनमें न तो बाहर भीतर शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है। वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने आप केवल स्त्री पुरुष संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है।
  • सम्बन्ध- ऐसे नास्तिक सिद्धान्त के मानने वालों के स्वभाव और आचरण कैसे होते हैं, इस जिज्ञासा पर भगवान् कृष्ण अर्जुन को अगले चार श्लोकों में उनके लक्षणों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि ,
    हे अर्जुन! इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सबका उपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिये ही समर्थ होते हैं। वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं। तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 12-19 का हिन्दी अनुवाद)

   वे आशा की सैकड़ों फांसियों से बँधे हुए मनुष्य काम क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं। वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायेगा। वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान तथा सुखी हूँ। मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूंगा।

    इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं। वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र विधिरहित यजन करते हैं। वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं।
  • सम्बन्ध- इस प्रकार सातवें से अठारहवें श्लोक तक आसुरी स्वभाव वालों के दुर्गुण-दुराचार में त्याग बुद्धि कराने के लिये अगले दो श्लोकों में भगवान् वैसे लोगों की घोर निन्दा करते हुए उनकी दुर्गति का वर्णन करते हैं- 
   उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-24 का हिन्दी अनुवाद)

हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं। 
  • सम्बन्ध- आसुर-स्वभाव वाले मनुष्यों को लगातार आसुरी योनियों के और घोर नरकों के प्राप्त होने की बात सुनकर यह जिज्ञासा हो सकती है कि उनके लिये इस दुर्गति से बचकर परम गति को प्राप्त करने का क्या उपाय है इस पर कहते हैं।
      काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसकी अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये।
    हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परमगति को जाता है अर्थात मुझको प्राप्त हो जाता है। 
  • सम्बन्ध- जो उपयुक्त दैवी सम्पदा का आचरण न करके अपनी मान्यता के अनुसार कर्म करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है या नहीं इस पर कहते हैं- 
   जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम्-गति को और न सुख को ही। इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है।

इस प्रकार महाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद, श्रीकृष्णार्जुन संवाद में दैवासुरसम्पद्विभाग योग नामक सोलहवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में चालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

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