सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
चौतीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 10
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान् की विभूत्ति और योगशक्ति का तथा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन, अर्जुन के पूछने पर भगवान् द्वारा अपनी विभूतियों का और योगशक्ति का पुन:वर्णन”
- संबंध- गीता के सातवें अध्याय से लेकर नवें अध्याय तक विज्ञान-सहित ज्ञान का जो वर्णन किया गया, उसके बहुत गम्भीर हो जाने के कारण अब पुन: उसी विषय को दूसरे प्रकार से भलीभाँति समझाने के लिये दसवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। यहाँ पहले श्लोक में भगवान् पूर्वोक्त विषय का ही पुन: वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं-
श्रीभगवान् बोले ;- हे महाबाहो! फिर भी तेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूंगा।
- संबंध- पहले श्लोक में भगवान् ने जिस विषय पर कहने की प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन आरम्भ करते हुए वे पहले पांच श्लोकों में योगशब्दवाच्य प्रभाव का और अपनी विभूति का संक्षिप्त वर्णन करते हैं।
मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता-लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ। जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान् तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दु:ख, उत्पति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति-ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं। सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए है, जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 7-10 का हिन्दी अनुवाद)
जो पुरुष मेरी इस परमेश्वर रूप विभूति को और योग- शक्ति को तत्त्व से जानता है। वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
- संबंध- कृष्ण द्वारा अर्जुन को भगवान् के प्रभाव और विभूतियों के ज्ञान का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी गयीं, अब दो श्लोकों में उस भक्तियोग की प्राप्ति का क्रम बतलाते हैं-
मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेष्टा करता है- इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं। निरतंर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही[8] निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।
- संबंध- उपर्युक्त प्रकार से भजन करने वाले भक्तों के प्रति भगवान् क्या करते हैं, अगले दो श्लोकों में यह बतलाते हैं-
उस निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं यह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूं, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 11-13 का हिन्दी अनुवाद)
हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये उनके अंत:करण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्व ज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
- संबंध- गीता के सातवें अध्याय के पहले श्लोक में अपने सामग्र रूप का ज्ञान कराने वाले जिस विषय को सुनने के लिये भगवान् को अर्जुन को आज्ञा दी थी तथा दूसरे श्लोक में जिस विज्ञानसहित ज्ञान को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी, उसका वर्णन भगवान् ने सातवें अध्याय में किया। उसके बाद आठवें अध्याय में अर्जुन के सात प्रश्नों-का उत्तर देते हुए भी भगवान् ने उसी विषय का स्पष्टीकरण किया; किंतु वहाँ कहने की शैली दूसरी रही, इसलिये नवम अध्याय के आरम्भ में पुन: विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके उसी विषय को अङ्ग-प्रत्यंगोंसहित भलीभाँति समझाया। तदनंतर दूसरे शब्दों में पुन: उसका स्पष्टीकरण करने के लिये दसवें अध्याय के पहले श्लोक में उसी विषय को पुन: कहने की प्रतिज्ञा की और पांच श्लोकों द्वारा अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करके सातवें श्लोक में उनके जानने का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी। फिर आठवें और नवें श्लोकों में भक्तियों के द्वारा भगवान् के भजन में लगे हुए भक्तों के भाव और आचरण का वर्णन किया और दसवें तथा ग्यारहवें में उसका फल अज्ञानजनित अंधकार का नाश और भगवान् की प्राप्ति करा देने वाले बुद्धियोग की प्राप्ति बतलाकर उस विषय का उपसंहार कर दिया। इस पर भगवान् की विभूति और योग को तत्त्व से जानना भगवत्प्राप्ति में परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात श्लोकों में अर्जुन पहले भगवान् की स्तुति करके भगवान् से उनकी योगशक्ति और विभूतियों का विस्तारसहित वर्णन करने के लिये प्रार्थना करते हैं-
अर्जुन बोले ;- आप ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं; क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं। और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद)
हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान! आपके लीलामय स्वरूप को न तो दानव जानते हैं न देवता ही। हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! हे भूतों के ईश्वर! हे देवों के देव! हे जगत के स्वामी! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। इसलिये आप ही उन अपनी दिव्य विभूत्तियों को सम्पूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूत्तियों के द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं और हे भगवन! आप किन-किन भावों- में मेरे द्वारा चितंन करने योग्य हैं। हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूत्ति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।
- संबंध- अर्जुन के द्वारा योग और विभूतियों का विस्तारपूर्वक पूर्णरूप से वर्णन करने के लिये प्रार्थना की जाने पर भगवान पहले अपने विस्तार अनंतता बतलाकर प्रधानता से अपनी विभूतियों का वर्णन करने का प्रतिज्ञा करते हैं-
श्रीभगवान बोले ;- हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियां हैं, उनको तेरे लिये प्रधानता से कहूंगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है।
- संबंध- अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान बीसवें से उन्चालीसवें श्लोक तक पहले अपनी विभूत्तियों का वर्णन करते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 23-38 का हिन्दी अनुवाद)
मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं, और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूं, और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद और जलाशयों में समुद्र हूँ। मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात ओंकार हूं। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं, मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूं। घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझको जान। मैं शस्त्रों वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पति का हेतु कामदेव हुं, और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ। मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण-देवता हुं, और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ। मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में मैं गरुड़ हूँ। मैं पवित्र करने वालों में वायु और शास्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूं, और नदियों में श्रीभागीरथी गंगा जी हुं।
हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात ब्रह्माविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने वाला वाद हूँ। मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वन्द्वनामक समास हूँ। अक्षय काल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला विराट स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हुं। मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति और क्षमा हुं। तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ॠतुओं में वसन्त में हूँ। मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ। निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ। वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनंजय अर्थात तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हुं। मैं दमन करने वालों का दण्ड अर्थात दमन करने की शक्ति हूं जीतने की इच्छा वालों की नीति हूं, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 39-42 का हिन्दी अनुवाद)
और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण हैं, वह भी मैं ही हूं; क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो। हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एक देश से अर्थात संक्षेप से कहा है।
- सम्बन्ध- अठारहवें श्लोक में अर्जुन ने भगवान से उनकी विभूति और योगशक्ति का वर्णन करने की प्रार्थना की थी, उसके अनुसार भगवान अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णनसमाप्त करके अब संक्षेप में अपनी योगशक्ति का वर्णन करते हैं-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतानिषद्, श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में विभूतियोग नामक दसवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में चौंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
पैतीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 11
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)
“विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये अर्जुन की प्रार्थना, भगवान् और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन, अर्जुन द्वारा भगवान् के विश्वरूप का देखा जाना, भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान् की स्तुति-प्रार्थना, भगवान् द्वारा विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा और केवल अनन्य भक्ति से ही भगवान् की प्राप्ति का कथन”
- सम्बन्ध- गीता के दसवें अध्याय के सातवें श्लोक तक भगवान ने अपनी विभूति तथा योगशक्ति का और उनके जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन करके ग्यारहवें श्लोक तक भक्तियोग और उसके फल का निरूपण किया। इस पर बारहवें से अठारहवें श्लोक तक अर्जुन ने भगवान की स्तुति करके उनसे दिव्य विभूतियों का और योगशक्ति का विस्तृत वर्णन करने के लिये प्रार्थना की। तब भगवान ने चालीसवें श्लोक तक अपनी विभूतियों का वर्णन समाप्त करके अन्त में योगशक्ति का प्रभाव बतलाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने एक अंश में धारण किया हुआ कहकर अध्याय का उपसंहार किया। इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन के मन में उस महान स्वरूप को, जिसके एक अंश में समस्त विश्व स्थित हैं, प्रत्यक्ष देखने की इच्छा उत्पन्न हो गयी। इसीलिये इस ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में पहले चार श्लोकों में भगवान की और उनके उपदेश को प्रशंसा करते हुए अर्जुन उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं-
अर्जुन बोले ;- मुझ पर अनुग्रह करने के लिये आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है। क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है। हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 4-9 का हिन्दी अनुवाद)
हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे योगेश्वर! उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइये।
- संबंध- परम श्रद्धालु और परम प्रेमी अर्जुन के इस प्रकार प्रार्थना करने पर तीन श्लोकों में भगवान अपने विश्वरूप का वर्णन करते हुए उसे देखने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं-
श्रीभगवान बोले ;- हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख। हे भरतवंशी अर्जुन! मुझ में आदित्यों को अर्थात अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को और उन्चास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत-से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख। हे अर्जुन! अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचरसहित सम्पूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख,
- संबंध- इस प्रकार तीन श्लोकों में बार-बार अपना अद्भुत रूप देखने के लिये आज्ञा देने पर भी जब अर्जुन भगवान के रूप को नहीं देख सके, तब उसके न देख सकने के कारण को जानने वाले अन्तर्यामी भगवान अर्जुन को दिव्यदृष्टि देने के इच्छा करके कहने लगे-
- संबंध- अर्जुन को दिव्य दृष्टि भगवान ने जिस प्रकार का अपना दिव्य विराट स्वरूप दिखलाया था, अब पांच श्लोकों द्वारा संजय उसका वर्णन करते हैं-
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद)
अनेक मुख और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, बहुत-से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत-से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाते हुए, दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए और दिव्य गन्ध का सारे शरीर में लेप किये हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित और सब ओर मुख किये हुए विराट स्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित ही हो। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात पृथक-पृथक सम्पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा। उसके अनंतर वह आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्तिसहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला।
अर्जुन बोले ;- हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और सम्पूर्णऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ। हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अंत को देखता हूं, न मध्य को और न आदि को ही। आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुञ्ज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है। आपको आदि, अंत और मध्य से रहित, अनंत सामर्थ्य से युक्त, अनंत भुजा वाले, चन्द्र-सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाले और अपने तेज से इस जगत को संतप्त करने हुए देखता हूँ। हे महात्समन! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएं एक आपसे ही परिपूर्ण हैं एवं आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। वे ही देवताओं के समूह आप में प्रवेश करते हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं। तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण हो’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।
जो ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं। हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहुत उदरों वाले और बहुत-सी दाढ़ों के कारण अत्यंत विकराल महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। क्योंकि हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करने वाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाश मान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्त:करण वाला मैं धीरज और शांति नहीं पाता हूँ। दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिये हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हों।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पच्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 26-30 का हिन्दी अनुवाद)
वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आपमें प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब-के-सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दातों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं। जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। जैसे पतंग मोहवश नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं। आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार-बार चाट रहे हैं। हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है।
- संबंध- अर्जुन ने तीसरे और चौथे श्लोकों में भगवान से अपने ऐश्वर्यमय रूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना की थी, उसी के अनुसार भगवान ने अपना विश्वरूप अर्जुन को दिखलाया; परंतु भगवान के इस भयानक उग्र रूप को देखकर अर्जुन बहुत डर गये और उनके मन में इस बात के जाने की इच्छा उत्पन्न हो गयी कि ये श्रीकृष्ण वस्तुत: कौन हैं तथा इस महान उग्र स्वरूप के द्वारा अब ये क्या करना चाहते हैं। इसीलिये वे भगवान से पूछ रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पञ्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 31-34 का हिन्दी अनुवाद)
मुझे बतलाइये कि आप उग्ररूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिपुरुष आपको मैं विशेषरूप से जानना चाहता हूं, क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता।
- संबंध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान अपने उग्ररूप धारण करने का कारण बतलाते हुए प्रश्नानुसार उत्तर देते हैं-
- संबंध- इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देकर अब भगवान दो श्लोकों द्वारा युद्ध करने में सब प्रकार से लाभ दिखलाकर अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित करते हुए आज्ञा देते हैं।
- संबंध- इस प्रकार भगवान् के मुख से सब बातें सुनने के बाद अर्जुन की कैसी परिस्थिति हुई और उन्होंने क्या किया- इस जिज्ञासा पर संजय कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पञ्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 35-40 का हिन्दी अनुवाद)
संजय बोले ;- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर कांपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी अत्यंत भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद वाणी से बोला,
- संबंध- अब छत्तीसवें से छियालीसवें श्लोक तक अर्जुन भगवान के स्तवन, नमस्कार और क्षमायाचना सहित प्रार्थना करते हैं-
हे महात्मन! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्कार न करें; क्योंकि हे अनंत! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परमधाम हैं। हे अनंतरूप! आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है। आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिये हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! आपके लिए फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार। हे अनन्त सामर्थ्य वाले! आपके लिये आगे से और पीछे से भी नमस्कार! हे सर्वात्मन्! आपके लिये सब ओर से ही नमस्कार हो; क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।
- संबंध- इस प्रकार भगवान की स्तुति और प्रणाम करके अब भगवान के गुण, रहस्य और माहात्म्य को यथार्थ न जानने के कारण वाणी और क्रिया द्वारा किये गये अपराधों को क्षमा करने के लिये भगवान से अर्जुन प्रार्थना करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पञ्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद)
आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने ‘हे कृष्ण!’ ‘हे यादव!’ ‘हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात कहा है। और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूं। आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं, हे अनुपम प्रभाव वाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है। अतएव हे प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं।
- संबंध- इस प्रकार भगवान से अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करके अब अर्जुन दो श्लोक में भगवान से चतुर्भुजरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं-
- संबंध- अर्जुन की प्रार्थना पर अब अगले दो श्लोक में भगवान् अपने विश्वरूप की महिमा और दुर्लभता का वर्णन करते हुए उन्चासवें श्लोक में अर्जुन को आश्वासन देकर चतुर्भुज रूप देखने के लिये कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पञ्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 47-52 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीभगवान बोले ;- हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तुझको दिखलाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था। हे अर्जुन! मनुष्यलोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे के द्वारा देखा जा सकता हूँ। मेरे इस प्रकार के इस विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिये और मूढ़ भाव भी नहीं होना चाहिये। तू भयरहित और प्रीतियुक्त मन वाला होकर उसी मेरे इस शंख-चक्र-गदा- पद्मयुक्त चतुर्भुज रूप को फिर देखा।
संजय बोले ;- वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखलाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया।
- संबंध- इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने विश्वरूप को संवरण करके चतुर्भुज रूप के दर्शन देने के पश्चात् जब स्वाभाविक मानुषरूप से युक्त होकर अर्जुन को आश्वासन दिया, तब अर्जुन सावधान होकर कहने लगे।
- संबंध- इस प्रकार अर्जुन के वचन सुनकर अब भगवान दो श्लोकों द्वारा अपने चतुर्भुज देवरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महिमा का वर्णन करते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पञ्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 53-55 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीभगवान बोले ;- मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है, यह सुदुर्दर्श है अर्थात इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है- इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ।
- संबंध- यदि उपर्युक्त उपायों से आपके दर्शन नहीं हो सकते तो किस उपाय से हो सकते हैं, ऐसी जिज्ञासा होने पर भगवान कहते हैं।
- संबंध- अनन्यभक्ति के द्वारा भगवान को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्य भक्ति का स्वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्य भक्त के लक्षणों का वर्णन किया जाता है-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गतब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में विश्वरूप दर्शन योग नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
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