सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
प्रथम अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति तथा युद्ध के नियमों का निर्माण”
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उन लीलाओं का संकलन करने वाले महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय महाभारत का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय ने पूछा ;- मुने! कौरव, पाण्डव और सौमकवीरों तथा नाना देशों से आये हुए अन्य महामना नरेशों ने वहाँ किस प्रकार युद्ध किया?
वैशम्पायनजी ने कहा ;- पृथ्वीपते! वीर कौरव, पाण्डव और सोमकों ने तपोभूमि कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार युद्ध किया था, उसे बताता हूं; सुनो। सोमको सहित पाण्डव तथा कौरव दोनों महाबली थे। वे एक दूसरे को जीतने की आशा से कुरुक्षेत्र में उतरकर आमने-सामने डटे हुए थे। वे सबके सब वेदाध्ययन से सम्पन्न और युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे और संग्राम में विजय की आशा रखकर रणभूमि में बलपूर्वक एक दूसरे के सम्मुख खडे़ थे।
पाण्डवों के योद्धा लोग अपने-अपने सैनिकों के सहित धृतराष्ट्र पुत्र की दुर्धर्ष सेना के सम्मुख जाकर पश्चिमभाग में पूर्वाभिमुख होकर ठहर गये थे। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर यथायोग्य सहस्रों शिविर बनवाये थे। समस्त पृथ्वी के सभी प्रदेश नवयुवकों से सूने हो रहे थे। उनमें केवल बालक और वृद्ध ही शेष रह गये थे। सारी वसुधा घोडे़, हाथी, रथ और तरुण पुरुषों से हीन-सी हो रही थी। नृपश्रेष्ठ! सूर्यदेव जम्बूद्वीप के जितने भूमण्डल को अपनी किरणों से तपाते हैं, उतनी दूर की सेनाएं वहाँ युद्ध के लिये आ गयी थीं। वहाँ सभी वर्ण के लोग एक ही स्थान पर एकत्र थे। युद्धभूमि का घेरा कई योजन लम्बा था। उन सब लोगों ने वहाँ के अनेक प्रदेशों, नदियों, पर्वतों और वनों को सब ओर से घेर लिया था।
नरश्रेष्ठ! राजा युधिष्ठिर सेना और सवारियों सहित उन सबके लिये उत्तमोत्तम भोजन प्रस्तुत करने का आदेश दे दिया था। तात! रात के समय युधिष्ठिर ने उन सबके सोने के लिये नाना प्रकार की शय्याओं का भी प्रबन्ध कर दिया था। युद्धकाल उपस्थित होने पर कुरुनन्दन युधिष्ठिर ने सभी सैनिकों के पहचान के लिये उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार के संकेत और आभूषण दे दिये थे, जिससे यह जान पड़े कि यह पाण्डव पक्ष का सैनिक हैं।
कुन्तीपुत्र अर्जुन के ध्वज का अग्रभाग देखकर महामना दुर्योधन ने समस्त भूपालों के साथ पाण्डव सेना के विरुद्ध अपनी सेना की व्यहूरचना की। उसके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था। वह एक हजार हाथियों के बीच में अपने भाइयों से घिरा हुआ शोभा पाता था। दुर्योधन को देखकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले पाञ्चाल सैनिक बहुत प्रसन्न हुए और प्रसन्नतापूर्वक बड़े-बड़े़ शंंखों तथा मधुर ध्वनि करने वाली भेरियों को बजाने लगे। तदनन्तर अपनी सेना को हर्ष और उल्लास में भरी हुई देख समस्त पाण्डवों के मन में बड़ा हर्ष हुआ तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण भी संतुष्ट हुए।
उस समय एक ही रथ पर बैठे हुए पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन आनन्दमग्न होकर अपने दिव्य शंखों को बजाने लगे। पाञ्चजन्य और देवदत्त दोनों शंंखों की ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष के बहुत-से सैनिक भय के मारे मल-मूत्र करने लगे। जैसे गर्जते हुए सिंह की आवाज सुनकर दूसरे वन्य पशु भयभीत हो जाते हैं, उसी प्रकार उन दोनों का शंखनाद सुनकर कौरव सेना का उत्साह शिथिल पड़ गया। वह खिन्न-सी हो गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)
धरती से धूल उड़कर आकाश में छा गयी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सेना की गदा से सहसा आच्छादित हो जाने के कारण सूर्य अस्त हो गये-से जान पड़ते थे। उस समय वहाँ मेघ सब दिशाओं में समस्त सैनिकों पर मांस और रक्त की वर्षा करने लगे। वह एक अद्भुत सी बात हुई। तदनन्तर वहाँ नीचे से बालू तथा कंकड़ खीचंकर सब ओर बिखेरने वाली बवंडर-सी वायु उठी, जिसने सैकड़ों-हजारों सैनिकों को घायल कर दिया। राजेन्द्र! कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिये अत्यन्त हर्षोल्लास में भरी हुई दोनों पक्ष की सेनाएं दो विक्षुब्ध महासागरों के समान एक दूसरे के सम्मुख खड़ी थीं। देानों सेनाओं का वह अद्भुत समागम प्रलयकाल आने पर परस्पर मिलने वाले दो समुद्रों के समान जान पड़ता था। कौरवों द्वारा संग्रह करके वहाँ लाये हुए उस सैन्य समूह द्वारा सारी पृथ्वी नवयुवकों से सूनी-सी हो रही थी। सर्वत्र केवल बालक और बूढे़ ही शेष रह गये थे। सारी वसुधा घोडे़, हाथी, रथ और तरुण पुरुषों से हीन-सी हो गयी थी।
भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात कौरव, पाण्डव तथा सोमकों ने परस्पर मिलकर युद्ध के सम्बन्ध में कुछ नियम बनाये। युद्धधर्म की मर्यादा स्थापित की।
वे नियम इस प्रकार हैं ;- चालू युद्ध के बंद होने पर संध्या काल में हम सब लोगों में परस्पर प्रेम बना रहे। उस समय पुन: किसी का किसी के साथ शत्रुतापूर्ण अयोग्य बर्ताव नहीं होना चाहिये। जो वाग्युद्ध में प्रवृत्त हों उनके साथ वाणी द्वारा ही युद्ध किया जाय। जो सेना से बाहर निकल गये हो उनका वध कदापि न किया जाय। भारत! रथी को रथी से ही युद्ध करना चाहिये, इसी प्रकार हाथीसवार के साथ हाथीसवार, घुड़सवार के साथ घुड़सवार तथा पैदल के साथ पैदल ही युद्ध करे। जिसमें जैसी योग्यता, इच्छा, उत्साह तथा बल हो उसके अनुसार ही विपक्षी को बताकर उसे सावधान करके ही उसके ऊपर प्रहार किया जाय। जो विश्वास करके असावधान हो रहा हो अथवा जो युद्ध से घबराया हुआ हो, उस पर प्रहार करना उचित नहीं है।
जो एक के साथ युद्ध में लगा हो, शरण में आया हो, पीठ दिखाकर भागा हो और जिसके अस्त्र-शस्त्र और कवच कट गये हों; ऐसे मनुष्य को कदापि न मारा जाय। घोड़ों की सेवा के लिये नियुक्त हुए सूतों, बोझ ढोने वालों, शस्त्र पहुँचाने वालों तथा भरी और शंख बजाने वालों पर कोई किसी प्रकार भी प्रहार न करे।
इस प्रकार नियम बनाकर कौरव, पाण्डव तथा सोमक एक दूसरे की ओर देखते हुए बड़े आश्चर्यचकित हुए। तदनन्तर वे महामना पुरुषरत्न अपने-अपने स्थान पर स्थित होकर सैनिकोंं सहित प्रसन्नचित्त होकर हर्ष एवं उत्साह से भर गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व में सैन्यशिक्षणविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
द्वतीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“वेदव्यासजी के द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान तथा भयसूचक उत्पातों का वर्णन”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पूर्व और पश्चिम दिशा में आमने-सामने खड़ी हुई दोनों ओर की सेनाओं को देखकर भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान रखने वाले, सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ, भरतवंशियों के पितामह सत्यवतीनन्दन महर्षि भगवान व्यास, जो होने वाले भयंकर संग्राम के भावी परिणाम को प्रत्यक्ष देख रहे थे, विचित्रवीर्यनन्दन राजा धृतराष्ट्र के पास आये। वे उस समय अपने पुत्रों के अन्याय का चिन्तन करते हुए शोकमग्न एवं आर्त हो रहे थे। व्यासजी ने उनसे एकान्त में कहा-
व्यासजी बोले ;- राजन! तुम्हारे पुत्रों तथा अन्य राजाओं को मृत्युकाल आ पहुँचा है। वे संग्राम में एक दूसरे से भिड़कर मरने-मारने को तैयार खडे़ हैं। भारत! वे काल के अधीन होकर जब नष्ट होने लगें, तब इसे काल का चक्कर समझकर मन में शोक न करना। राजन! यदि संग्रामभूमि में इन सबकी अवस्था तुम देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करूं। वत्स! फिर तुम यहाँ बैठे-बैठे ही वहाँ होने वाले युद्ध का सारा दृश्य अपनी आंखों से देखो।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- ब्रह्मर्षिप्रवर! मुझे अपने कुटुम्बीजनों का वध देखना अच्छा नहीं लगता; परंतु आपके प्रभाव से इस युद्ध का सारा वृत्तान्त सुन सकूं, ऐसी कृपा आप अवश्य कीजिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! व्यासजी ने देखा, धृतराष्ट्र युद्ध का दृश्य देखना तो नहीं चाहता, परंतु उसका पूरा समाचार सुनना चाहता है। तब वर देनें में समर्थ उन महर्षि ने संजय को वर देते हुए कहा-
व्यासजी ने कहा ;- ‘राजन! यह संजय आपको इस युद्ध का सब समाचार बताया करेगा। सम्पूर्ण संग्रामभूमि में कोई ऐसी बात नहीं होगी, जो इसके प्रत्यक्ष न हो। ‘राजन! संजय दिव्य दृष्टि से सम्पन्न होकर सर्वज्ञ हो जायगा और तुम्हें युद्ध की बात बतायेगा। ‘कोई भी बात प्रकट हो या अप्रकट, दिन में हो या रात-में अथवा वह मन में ही क्यों न सोची गयी हो, संजय सब कुछ जान लेगा। ‘इसे कोई हथियार नहीं काट सकता। इसे परिश्रम या थकावट की बाधा भी नहीं होगी। गवल्गण का पुत्र यह संजय इस युद्ध से जीवित बच जायगा।
भरतश्रेष्ठ! मैं इन समस्त कौरवों और पाण्डवों की कीर्ति का तीनों लोकों में विस्तार करूंगा। तुम शोक न करो। ‘नरश्रेष्ठ! यह दैव का विधान है। इसे कोई मेट नही सकता। अत: इसके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जहाँ धर्म है, उसी पक्ष की विजय होगी।'
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर कुरुकुल के पितामह महाभाग भगवान व्यास पुन: धृतराष्ट्र से बोले-
व्यास जी बोले ;- ‘महाराज! इस युद्ध में महान नर-संहार होगा; क्योंकि मुझे इस समय ऐसे ही भयदायक अपशकुन दिखायी देते हैं। ‘बाज,गीध, कौवे, कंक और बगुले वृक्षों के अग्रभाग पर आकर बैठते तथा अपना समूह एकत्र करते हैं। ‘ये पक्षी अत्यन्त आनन्दित होकर युद्धस्थल को बहुत निकट से आकर देखते हैं। इससे सूचित होता है कि मांसभक्षी पशु-पक्षी आदि प्राणी हाथियों और घोड़ों के मांस खायंगे। भय की सूचना देने वाले कंक पक्षी कठोर स्वर में बोलते हुए सेना के बीच से होकर दक्षिण दिशा की ओर जाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)
‘भारत! मैं प्रात: और सायं दोनों संध्याओं के समय उदय और अस्त की बेला में सूर्यदेव को प्रतिदिन कबन्धों से घिरा हुआ देखता हूँ। ‘संध्या के समय सूर्यदेव को तिरंगे घेरों ने सब ओर से घेर रखा था। उनमें श्वेत और लाल रंग के घेरे दोनों किनारों पर थे और मध्य में काले रंग का घेरा दिखायी देता था। इन घेरों के साथ बिजलियां भी चमक रही थीं। ‘मुझे दिन और रात का समय ऐसा दिखायी दिया है जिसमें सूर्य, चन्द्रमा और तारे जलते-से जान पड़ते थे। दिन और रात में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखायी देता था। यह लक्षण भय लाने वाला होगा।
‘कार्तिक की पूर्णिमा को कमल के समान नीलवर्ग के आकाश में चन्द्रमा प्रभाहीन होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं हो पाता था तथा उसकी कान्ति भी अग्नि के समान प्रतीत होती थी। ‘इसका फल यह है कि परिध के समान मोटी बाहुओं वाले बहुत से शूरवीर नरेश तथा राजकुमार मारे जाकर पृथ्वी को आच्छादित करके रणभूमि में शयन करेंगे। ‘सूअर और बिलाव दोनों आकाश में उछल-उछलकर रात में लड़ते और भयानक गर्जना करते हैं। यह बात मुझे प्रतिदिन दिखायी देती है।
‘देवताओं की मूर्तियां कांपती, हंसती, मुंह से खून उगलती, खिन्न होती और गिर पड़ती हैं। ‘राजन! दुन्दुभियां बिना बजाये बज उठती हैं और क्षत्रियों के बड़े-बड़े़ रथ बिना जोते ही चल पड़ते हैं। ‘कोयल, शतपत्र, नीलकण्ठ, भास (चील्ह), शुक, सारस तथा मयूर भयंकर बोली बोलते हैं। ‘घोडे़ की पीठ पर बैठे हुए सवार हाथों में ढाल-तलवार लिये चीत्कार कर रहे हैं। अरुणोदय के समय टिड्डियोंके सैकड़ों दल सब ओर फैले दिखायी देते हैं। ‘दोनों संध्याएं दिग्दाह से युक्त दिखायी देती हैं। भारत! बादल धूल और मांस की वर्षा करता है।
‘राजन! जो अरुन्धती तीनों लोकों में पतिव्रताओं की सुकुटमणि के रूप में प्रसिद्ध हैं, उन्होंने वसिष्ठ को अपने पीछे कर दिया है। ‘महाराज! यह शनैश्वर नामक ग्रह रोहिणी को पीड़ा देता हुआ खड़ा है। चन्द्रमा का चिह्न मिट-सा गया है। इससे सूचित होता है कि भविष्य में महान भय प्राप्त होगा। ‘बिना बादल के ही आकाश में अत्यन्त भयंकर, गर्जना सुनायी देती है। रोते हुए वाहनों की आंखों से आंसुओं की बूंदें गिर रही है।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व में श्रीवेदव्यास- दर्शनविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
तीसरा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजी के द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों तथा विजय सूचक लक्षणों का वर्णन”
व्यासजी ने कहा ;- राजन! गायों के गर्भ से गदहे पैदा होते हैं, पुत्र माताओं के साथ रमण करते हैं। वन के वृक्ष बिना ॠतु के फूल और फल प्रकट करते हैं। गर्भवती स्त्रियां पुत्र को जन्म न देकर अपने गर्भ से भयंकर जीवों को पैदा करती हैं। मासंभक्षी पशु भी पक्षियों के साथ परस्पर मिलकर एक ही जगह आहार ग्रहण करते हैं।
तीन सींग, चार नेत्र, पांच पैर, दो मूत्रेन्द्रिय, दो मस्तक, दो पूंछ और अनेक दांढो़ वाले अमंगलमय पशु जन्म लेते तथा मुंह फैलाकर अमंगल सूचक वाणी बोलते हैं। गरुड़ पक्षी के मस्तक पर शिखा और सींग हैं। उनके तीन पैर तथा चार दाढे़ दिखायी देती हैं। इसी प्रकार अन्य जीव भी देखे जाते हैं। वेदवादी ब्राह्मणों की स्त्रियां तुम्हारे नगर में गरुड़ और मोर पैदा करती हैं। भूपाल! घोड़ी गाय के बछेडे़ को जन्म देती हैं, कुतिया के पेट से सियार पैदा होता है, हाथी कुत्तों को जन्म देते हैं और तोते भी अशुभसूचक बोली बोलने लगे हैं।
कुछ स्त्रियां एक ही साथ चार-चार या पांच-पांच कन्याएं पैदा करती हैं। वे कन्याएं पैदा होते ही नाचती, गाती तथा हंसती हैं। समस्त नीच जातियों के घरों में उत्पन्न हुए काने, कुबडे़ आदि बालक भी महान भय की सूचना देते हुए जोर-जोर से हंसते, गाते और नाचते हैं। ये सब काल से प्रेरित हो हाथों में हथियार लिये मूर्तियां लिखते और बनाते हैं। छोटे-छोटे बच्चे हाथ में डंडा लिये एक दूसरे पर धावा करते हैं। और कृत्रिम नगर बनाकर परस्पर युद्ध की इच्छा रखते हुए उन नगरों को रौंदकर मिट्टी में मिला देते हैं। पद्म, उत्पल और कुमुद आदि जलीय पुष्प वृक्षों पर पैदा होते हैं।
चारों ओर भयंकर आंधी चल रही हैं, धूल का उड़ना शान्त नहीं हो रहा है, धरती बार-बार कांप रही है तथा राहु सुर्य के निकट जा रहा है। केतु चित्रा का अतिक्रमण करके स्वाती पर स्थित हो रहा है; उसकी विशेषरूप से कुरुवंश के विनाश पर ही दृष्टि हैं। अत्यन्त भयंकर धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर आक्रमण करके वहीं स्थित हो रहा हैं। यह महान उपग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा।
मंगल वक्र होकर मघा नक्षत्र पर स्थित है, बृहस्पति श्रवण नक्षत्र पर विराजमान है तथा सूर्यपुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र पर पहुँचकर उसे पीड़ा दे रहा है। शुक्र पूर्वा भाद्रपदा पर आरूढ़ हो प्रकाशित हो रहा है और सब ओर घूम-फिरकर परिध नामक उपग्रह के साथ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्रपर दृष्टि लगाये हुए है। केतु नामक उपग्रह धूमयुक्त अग्नि के समान प्रज्वलित हो इन्द्र देवता सम्बन्धी तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्रपर जाकर स्थित है। चित्रा और स्वाती के बीच में स्थित हुआ क्रूर ग्रह राहू सदा वक्र होकर रोहिणी तथा चन्द्रमा और सूर्य को पीड़ा पहुँचाते हैं तथा अत्यन्त प्रज्वलित होकर ध्रुव की बायीं ओर जा रहा है, जो घोर अनिष्ट का सूचक है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)
अग्नि के समान कान्तिमान मङ्गल ग्रह जिसकी स्थिति मघा नक्षत्र में बतायी गयी है बारंबार वक्र होकर ब्रह्मराशि (बृहस्पति से युक्त नक्षत्र) श्रवण को पूर्णरूप से आवृत करके स्थित हैं।
(इसका प्रभाव खेती पर अनुकूल पड़ा है) पृथ्वी सब प्रकार के अनाज के पौधों से आच्छादित है, शस्य की मालाओं से अलंकृत है, जौ में पांच-पांच और जड़हन धान में सौ-सौ बालियां लग रही हैं। जो सम्पूर्ण जगत में माता के समान प्रधान मानी जाती हैं, यह समस्त संसार जिनके अधीन हैं, वे गौएं बछड़ों से पिन्हा जाने के बाद अपने थनों से खून बहाती हैं।
योद्धाओं के धनुष से आग की लपटें निकलने लगी हैं, खङ्ग अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे हैं मानो सम्पूर्ण शस्त्र स्पष्ट रूप से यह देख रहे हैं कि संग्राम उपस्थित हो गया है। शस्त्रों की, जल की, कवचों की और ध्वजाओं की कान्तियां अग्नि के समान लाल हो गयी हैं; अत: निश्चय ही महान् जन-संहार होगा। राजन! भरतनंदन! जब पाण्डवों के साथ कौरवों का हिंसात्मक संग्राम आरम्भ हो जायगा, उस समय धरती पर रक्त की नदियां बह चलेंगी, उनमें शोणितमयी भंवरें उठेंगी तथा रथ-की ध्वजाएं उन नदियों के ऊपर छोटी-छोटी डोंगियों के समान सब ओर व्याप्त दिखायी देंगी। चारों दिशाओं में पशु और पक्षी प्राणांतकारी अनर्थ का दर्शन कराते हुए भयंकर बोली बोल रहे हैं।उनके मुख प्रज्वलित दिखायी देते हैं और वे अपने शब्दों से किसी महान भय की सूचना दे रहे हैं।
रात में एक आंख, एक पांख और एक पैर का पक्षी आकाश में विचरता है और कुपित होकर भयंकर बोली बोलता है। उसकी बोली ऐसी जान पड़ती है, मानो कोई रक्त वमन कर रहा हो। राजैन्द्र! सभी शस्त्र इस समय जलते-से प्रतीत होते हैं। उदार सप्तर्षियों की प्रभा फीकी पड़ती जाती है। वर्षपर्यन्त एक राशिपर रहने वाले दो प्रकाशमान ग्रह बृहस्पति और शनैश्चर तिर्यग्वेध के द्वाराविशाखा नक्ष्त्र के समीप आ गये हैं।
(इस पक्ष में तो तिथियों का क्षय होने के कारण) एक ही दिन त्रयोदशी तिथि को बिना पर्व के ही राहु ने चन्द्रमा और सूर्य दोनों को ग्रस लिया है। अत: ग्रहणावस्था को प्राप्त हुए वे दोनों ग्रह प्रजा का संहार चाहते हैं। चारों और धूल की वर्षा होने से सम्पूर्ण दिशाएं शोभाहीन हो गयी हैं।उत्पातसूचक भयंकर मेघ रात में रक्त की वर्षा करते हैं। राजन्! अपने तीक्ष्ण (क्रुरतापूर्ण) कर्मो के द्वारा उपलक्षित होने वाला राहु (चित्रा और स्वाती के बीच में रहकर सर्वतोभद्रचक्रगतवेध के अनुसार) कृत्ति का नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है। बारंबार धूमकेतु का आश्रय लेकर प्रचण्ड आंधी उठती रहती है। वह महान् युद्ध एवं विषम परिस्थिति पैदा करने वाली है। राजन्! (अश्र्विनी आदि नक्षत्रों को तीन भागों में बांटने पर जो नौ-नौ नक्षत्रों के तीन समुदाय होते हैं, वे क्रमश: अश्र्वपति, गजपति तथा नरपति के छत्र कहलाते हैं; ये ही पापग्रह से आक्रांत होने पर क्षत्रियों का विनाश सूचित करने के कारण ‘नक्षत्र-नक्षत्र’ कहे गये हैं) इन तीनों अथवा सम्पूर्ण नक्षत्र-नक्षत्रों में शीर्षस्थान पर यदि पापग्रह से वेघ हो तो वह ग्रह महान् भय उत्पन्न करने वाला होता है; इस समय ऐसा ही कुयोग आया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद)
एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथिक्षय न होने पर पंद्रहवें दिन और एक तिथि की वृद्धि होने पर सोलहवें दिन अमावास्या का होना तो पहले देखा गया है; परंतु इस पक्ष में जो तेरहवें दिन यह अमावास्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है। इस एक ही महीने में तेरह दिनों के भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्य-ग्रहण दोनों लग गये। इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्व में ग्रहण लगने के कारण सूर्य और चन्द्रमा प्रजा का विनाश करने वाले होंगे। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को बड़े जोर से मांस की वर्षा हुई थी। उस समय राक्षसों का मुंह भरा हुआ था। वे खून पीते अघाते नहीं थे। बड़ी-बड़ी नदियों के जल रक्त के समान लाल हो गये हैं और उन की धारा उल्टे स्त्रोत की ओर बहने लगी है। कुंओं-से फेन ऊपर को उठ रहे हैं, मानो वृषभ उछल रहे हों। बिजली की कड़कड़ के साथ इन्द्र की अशनि के समान प्रकाशित होने वाली उल्काएं गिर रही हैं। आज की रात बीतने पर सबेरे से ही तुम लोगों को अपने अन्याय का फल मिलने लगेगा। सम्पूर्ण दिशाओं में अन्धकार व्याप्त होने के कारण बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर घर से निकले हुए महर्षियों ने एक दूसरे के पास उपस्थित हो इन उत्पातों के सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है। जान पड़ता है, यह भूमि सहस्रों भूमिपालों का रक्तपान करेगी।
प्रभो! कैलास, मन्दराचल तथा हिमालय से सहस्रों प्रकार के अत्यन्त भयानक शब्द प्रकट होते हैं और उनके शिखर भी टूट-टूटकर गिर रहे हैं। भूकम्प होने के कारण पृथक्-पृथक् चारों सागर वृद्धि को प्राप्त होकर वसुधा में क्षोभ उत्पन्न करते हुए अपनी सीमा को लांघते हुए से जान पड़ते हैं। बालू और कंकड़ खींचकर बरसाने वाले भयानक बवंडर उठकर वृक्षों को उखाडे़ डालते हैं। गांवों तथा नगरों में वृक्ष और चैत्यवृक्ष प्रचण्ड आंधियों तथा बिजली के आघातों से टूटकर गिर रहे हैं। ब्राह्मणलोगों के आहुति देने पर प्रज्वलित हुई अग्नि काले, लाल और पीले रंग की दिखायी देती हैं। उसकी लपटें वामावर्त होकर उठ रही हैं। उससे दुर्गन्ध निकलती है और वह भयानक शब्द प्रकट करती रहती हैं।
राजन्! स्पर्श, गन्ध तथा रस- इन सबकी स्थिति विपरीत हो गयी हैं। ध्वज बारंबार कम्पित होकर धूआं छोड़ते है। ढोल, नगाडे़ अंगारों की वर्षा करते हैं। फल-फूल से सम्पन्न वृक्षों की शिखाओं पर बायीं ओर से घूम-घूमकर सब ओर कौए बैठते हैं और भयंकर कांव-कांव का कोलाहल करते हैं। बहुत-से पक्षी ‘पक्वा-पक्वा’ इस शब्द का बारंबार जोर-जोर से उच्चारण करते और ध्वजाओं के अग्रभाग में छिपते हैं। यह लक्षण राजाओं के विनाश का सूचक हैं। दुष्ट हाथी कांपते ओर चिन्ता करते हुए भय के मारे मल-मूत्र त्याग कर रहे हैं, घोडे़ अत्यन्त दीन हो रहे हैं और सम्पूर्ण गजराज पसीने-पसीने हो रहे हैं। भारत! यह सुनकर (और उसके परिणाम पर विचार करके) तुम इस अवसर के अनुरूप ऐसा कोई उपाय करो, जिससे यह संसार विनाश से बच जाय।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 48-63 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपने पिता व्यास जी का यह वचन सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘भगवन्! मैं तो इसे पूर्वनिश्चित दैव का विधान मानता हुं; अत: यह जनसंहार होगा ही। यदि राजा लोग क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध में मारे जायंगे तो वीरलोक को प्राप्त होकर केवल सुख के भागी होंगे। वे पुरुषसिंह नरेश महायुद्ध में प्राणों का परित्याग करके इहलोक में कीर्ति तथा परलोक में दीर्घकाल तक महान् सुख प्राप्त करेंगे’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नृपश्रेष्ठ! अपने पुत्र धृतराष्ट्र के इस प्रकार यथार्थ बात कहने पर ज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि व्यास कुछ देर तक बड़े सोच-विचार में पड़े रहे दो घड़ी तक चिन्तन करने के बाद वे पुन: इस प्रकार बोले,
व्यासजी बोले ;- ‘राजेन्द्र! इसमें संशय नहीं है कि काल ही इस जगत् का संहार करता है और वही पुन: इन सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करता है। यहाँ कोई वस्तु सदा रहने वाली नहीं है। राजन्! तुम अपने जाति-भाई, कौरवों, सगे-सम्बन्धियों तथा हितैषी-सुहृदों को धर्मानुकूल मार्ग का उपदेश करो; क्योंकि तुम उन सबको रोकने में समर्थ हो। जाति-वध को अत्यन्त नीच कर्म बताया गया है। वह मुझे अत्यन्त अप्रिय हैं। तुम यह अप्रिय कार्य न करो।
महाराज! यह काल तुम्हारे पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ है। वेद में हिंसा की प्रशंसा नहीं की गयी है। हिंसा से किसी प्रकार हित नहीं हो सकता। कुल-धर्म अपने शरीर ही समान है। जो इस कुल धर्म का नाश करता हैं, उसे वह धर्म ही नष्ट कर देता हैं। जब तक धर्म का पालन सम्भव है (जब तक तुम पर कोई आपत्ति नहीं आयी है), तब तक तुम काल से प्ररित होकर ही धर्म की अवहेलना करके कुमार्ग पर चल रहे हो, जैसा कि बहुधा लोग किसी आपत्ति में पड़ने पर ही करते हैं। राजन्! तुम्हारे कुल का तथा अन्य बहुत-से राजाओं का विनाश करने के लिये यह तुम्हारे राज्य के रूप में अनर्थ ही प्राप्त हुआ हैं। तुम्हारा धर्म अत्यन्त लुप्त हो गया है। अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओं। दुर्धर्ष वीर! तुम्हें राज्य लेकर क्या करना है, जिसके लिये अपने ऊपर पाप का बोझ लाद रहे हो? तुम मेरी बात मानने पर यश, धर्म और कीर्ति का पालन करते हुए स्वर्ग प्राप्त कर लोगे। पाण्डवों को उनके राज्य प्राप्त हों और समस्त कौरव आपस में संधि करके शान्त हो जायं’। विप्रवर व्यास जी जब इस प्रकार उपदेश दे रहे थे, उसी समय बोलने में चतुर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने बीच में ही उनकी बात काटकर उनसे इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र बोले ;- तात! जैसा आप जानते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन बातों को समझता हूँ। भाव और अभाव का यथार्थ स्वरूप मुझे भी ज्ञात है, तथापि यह संसार अपने स्वार्थ के लिये मोह में पड़ा रहता है। मुझे भी संसार से अभिन्न ही समझें। आपका प्रभाव अनुपम है। आप हमारे आश्रय, मार्गदर्शक तथा धीर पुरुष हैं। मैं आपको प्रसन्न करना चाहत हूँ। महर्षे! मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती; परंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। आप ही हम भरतवंशियों की धर्म-प्रवृत्ति, यश तथा कीर्ति के हेतु हैं। आप कौरवों ओर पाण्डवों-दोनों के माननीय पितामह हैं। व्यास जी बोले- विचित्रवीर्यकुमार! नरेश्वर! तुम्हारे मन में जो संदेह है, उसे अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट करो। मैं तुम्हारे संशय का निवारण करूंगा।
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
चौथा अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
पाँचवाँ अध्याय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें