सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इक्यानबेवें अध्याय से एक सो छियानबेवें अध्याय तक (From the 191 chapter to the 196 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रुपद पत्नी का उत्तर, द्रुपद के द्वारा नगर रक्षा की व्यवस्था और देवाराधान तथा शिखण्डिनी का वन में जाकर स्थूणाकर्ण नामक यक्ष से अपने दु:खनिवारण के लिये प्रार्थना करना”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- महाबाहु नरेश्‍वर! तब शिखण्‍डी की माता ने अपने पति से यथार्थ रहस्य बताते हुए कहा,

   शिखण्डी की माता बोली ;- ‘यह पुत्र शिखण्‍डी नहीं, शिखण्डिनी नाम वाली कन्या है।‘राजन! पुत्र रहित होने के कारण मैंने अपनी सौतों के भय से इस कन्या शिखण्डिनी के जन्म लेने पर भी इसे पुत्र ही बताया। ‘नरश्रेष्‍ठ! आपने भी प्रेमवश मेरे इस कथन का अनुमोदन किया और महाराज! कन्या होने पर भी आपने इसका पुत्रोचित संस्कार किया। 'राजन! मेरे ही कथन पर विश्‍वास करके आप दशार्णराज की पुत्री को इसकी पत्नी बनाने के लिये ब्याह लाये। महादेवजी के वरदान वाक्य पर दृष्टि रखने के कारण मैंने इसके विषय में पुत्र होने की घोषणा की थी। महादेवजी ने कहा था कि पहले कन्या होगी, फिर वहीं पुत्र हो जायगा। इसीलिये इस वर्तमान संकट की उपेक्षा की गयी।'

    यह सुनकर यज्ञसेन द्रुपद ने मन्त्रियों को सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। राजन! तत्पश्‍चात प्रजा की रक्षा के लिये जैसी व्यवस्था उचित है, उसके लिये उन्होंने पुन: मन्त्रियों के साथ गुप्त मन्त्रणा की। नरेन्द्र! यद्यपि राजा द्रुपद ने स्वयं ही वञ्चना की थी, तथापि दशार्णराज के साथ सम्बन्ध और प्रेम बनाये रखने की इच्छा करके एकाग्रचित्त से मन्त्रणा करते हुए वे एक निश्‍चय पर पहुँच गये। भरतनन्दन राजेन्द्र! यद्यपि वह नगर स्वभाव से ही सुरक्षित था, त‍थापि उस विपत्ति के समय उसको सब प्रकार से सजा करके उन्होंने उसकी रक्षा के लिये विशेष व्यवस्था की। भरतश्रेष्‍ठ! दशार्णराज के साथ विरोध की भावना होने पर रानी सहित राजा द्रुपद को बड़ा कष्‍ट हुआ। अपने सम्बन्धी के साथ मेरा महान युद्ध कैसे टल जाय- यह मन-ही-मन विचार करके उन्होंने देवता की अर्चना आरम्भ कर दी। राजन! राजा द्रुपद को देवाराधन में तत्पर देख महारानी ने पूजा चढा़ते हुए नरेश से इस प्रकार कहा-।

   महारानी ने कहा ;- ‘देवताओं की आराधना साधु पुरुषों के लिये सदा ही सत्य, उत्तम है। फिर जो दु:ख के समुद्र में डूबा हुआ हो, उसके लिये तो कहना ही क्या है। अत: आप गुरुजनों और सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करें, ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा दें और दशार्णराज के लौट जाने के लिये अग्नियों में होम करें ‘प्रभो! मन-ही-मन यह चिन्तन कीजिये कि दशार्णराज बिना युद्ध किये ही लौट जायं। देवताओं के कृपा प्रसाद से यह सब कुछ सिद्ध हो जायगा ‘विशाललोचन नरेश! आपने इस नगर की रक्षा के लिये मन्त्रियों के साथ जैसा विचार किया है वैसा ही कीजिये। ‘भूपाल! पुरुषार्थ से संयुक्त होने पर ही दैव विशेषरूप से सिद्धि को प्राप्त होता है।

   दैव और पुरुषार्थ में परस्परविरोध होने पर इन दोनों की ही सिद्धि नहीं होती। ‘राजन! अत: आप मन्त्रियों के साथ नगर की रक्षा के लिये आवश्‍यक व्यवस्था करके इच्छानुसार देवताओं की अर्चना कीजिये।' इन दोनों को इस प्रकार शोकमग्न होकर बातचीत करते देख उनकी तपस्विनी पुत्री शिखण्डिनी लज्जित-सी होकर इस प्रकार चिन्ता करने लगी- ‘ये मेरे माता और पिता दोनों मेरे ही कारण दुखी हो रहे हैं।’ ऐसा सोचकर उसने प्राण त्याग देने का‍ विचार किया। इस प्रकार जीवन का अन्त कर देने का निश्‍चय करके वह अत्यन्त शोकमग्न होकर घर छोड़कर निर्जन एवं गहन वन-में चली गयी।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-30 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन! वह वन समृद्धिशाली यक्ष स्थूणाकर्ण के द्वारा सुरक्षित था। इसी के भय से साधारण लोगों ने उस वन में आना-जाना छोड़ दिया था। उसके भीतर स्थूणाकर्ण का विशाल भवन था, जो चूना और मिट्टी से लीपा गया था। उसके परकोटे और फाटक बहुत ऊंचे थे। उसमें खस की जड़ के धूम की सुगन्ध फैली हुई थी। उस भवन में प्रवेश करके द्रुपद पुत्री शिखण्डिनी बहुत दिनों तक उपवास करके शरीर को सुखाती रही। स्थूणाकर्ण यक्ष ने उसे इस अवस्था में देखा। देखकर उसके हृदय में कोमल भाव का उदय हुआ। फिर उसने पूछा,

   स्थूणाकर्ण बोले ;- ‘भद्रे! तुम्हारा यह उपवास-व्रत किसलिये है? अपना प्रयोजन शीघ्र बताओ। मैं उसे पूर्ण करूंगा’। यह सुनकर उसने यक्ष से बार-बार कहा,

शिखण्डिनी बोली ;-- ‘यह तुम्हारे लिये असम्भव है।’ तब यक्ष ने बार-बार उत्तर दिया

स्थूणाकर्ण (यक्ष) बोले ;-- ‘मैं तुम्हारा मनोरथ अवश्‍य पूर्ण कर दूंगा। ‘राजकुमारी! मैं कुबेर का सेवक हूँ। मुझमें वर देने की शक्ति है, तुम्हारी जो भी इच्छा हो बताओ। मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूंगा’। भरतनन्दन! तब शिखण्डिनी ने उस यक्षप्रवर स्थूणाकर्ण से अपना सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया।

 शिखण्डिनी बोली ;- यक्ष! मेरे पुत्रहीन पिता अब शीघ्र ही नष्‍ट हो जायंगे; क्योंकि दशार्णराज कुपित होकर उन पर आक्रमण करेंगे। वे सुवर्णमय कवच से युक्त नरेश महाबली और महान उत्साही हैं- यक्ष! तुम मेरे माता-पिता की और मेरी भी उनसे रक्षा करो। गुह्यक! महायक्ष! तुमने मेरे दु:ख निवारण के लिये प्रतिज्ञा की है। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी कृपा से एक श्रेष्‍ठ पुरुष हो जाऊं। जब तक राजा हिरण्यवर्मा हमारे नगर पर आक्रमण नहीं कर रहे हैं, तभी तक मुझ पर कृपा करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में स्थूणाकर्ण के साथ शिखण्डिनी की भेंटविषयक एक सौ इक्यानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ बानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“शिखण्‍डी को पुरुषत्व की प्राप्ति, द्रुपद और हिरण्यवर्मा की प्रसन्नता, स्थूणाकर्ण को कुबेर शाप तथा भीष्‍म का शिखण्‍डी को न मारने का निश्‍चय”

   भीष्‍म कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ कौरव! शिखण्डिनी की यह बात सुनकर दैव पीड़ित यक्ष ने मन-ही-मन कुछ सोचकर कहा,

   यक्ष बोला ;- ‘भद्रे! तुम जैसा कहती हो वैसा हो तो जायगा; परंतु वह मेरे दु:ख का कारण होगा, तथापि मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा। इस विषय में जो मेरी शर्त है, उसे सुनो। मैं तुम्हें अपना पुरुषत्व दूंगा और तुम्हारा स्त्रीत्व स्वयं धारण करूंगा; किंतु कुछ ही काल के लिये अपना यह पुरुषत्व तुम्हें दूंगा। उस निश्चित समय के भीतर ही तुम्हें मेरा पुरुषत्व लौटाने के लिये यहाँ आ जाना चाहिये। इसके लिये मुझे सच्चा वचन दो। ‘मैं सिद्धसंकल्प, सामर्थ्‍यशाली, इच्छानुसार सर्वत्र विचरने वाला तथा आकाश में भी चलने की शक्ति रखने वाला हूँ। तुम मेरी कृपा से केवल अपने नगर और बन्धु-बान्धवों की रक्षा करो। ‘राजकुमारी! इस प्रकार मैं तुम्हारा स्त्रीत्व धारण करूंगा, कार्य पूर्ण हो जाने पर तुम मेरा पुरुषत्व लौटा देने की मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा करो; तब मैं तुम्हारा प्रिय कार्य करूंगा’। 

  शिखण्डिनी बोली ;- भगवन! तुम्हारा यह पुरुषत्व मैं समय पर लौटा दूंगा। निशाचर! तुम कुछ ही समय के लिये मेरा स्त्रीत्व धारण कर लो। दशार्णदेश के स्वामी राजा हिरण्यवर्मा के लौट जाने पर मैं फिर कन्या ही हो जाऊंगी और तुम पूर्ववत पुरुष हो जाओगे।

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- नरेश्‍वर! इस प्रकार बात करके उन्होंने परस्पर प्रतिज्ञा कर ली तथा उन दोनों ने एक-दूसरे के शरीर में अपने-अपने पुरुषत्व और स्त्रीत्व का संक्रमण करा दिया। भारत! स्थूणाकर्ण यक्ष ने उस शिखण्डिनी के स्त्रीत्व को धारण कर लिया और शिखण्डिनी ने यक्ष का प्रकाशमान पुरुषत्व प्राप्त कर लिया। राजन! इस प्रकार पुरुषत्व पाकर पाञ्चाल राजकुमार शिखण्‍डी बड़े हर्ष के साथ नगर में आया और अपने पिता से मिला। उसने जैसे जो वृत्तान्त हुआ था, वह सब राजा द्रुपद से कह सुनाया।

   उसकी यह बात सुनकर राजा द्रुपद को अपार हर्ष हुआ। पत्नी सहित राजा को भगवान महेश्‍वर के दिये हुए वर का स्मरण हो आया। तदनन्तर राजा द्रुपद ने दशार्णराज के पास दूत भेजा और यह कहलाया कि मेरा पुत्र पुरुष है। आप मेरी इस बात पर विश्‍वास करें। इधर दु:ख और शोक में डूबे हुए दशार्णराज ने सहसा पाञ्चालराज द्रुपद पर आक्रमण किया। काम्पिल्य नगर के निकट पहुँचकर दशार्णराज ने वेद वेत्ताओं में श्रेष्‍ठ एक ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक दूत बनाकर भेजा। और कहा,

    दशार्णराज ने कहा ;- ‘दूत! मेरे कथनानुसार राजाओं में अधम उस पाञ्चालनरेश से कहिये। दुर्मते! तुमने जो अपनी कन्या के लिये मेरी कन्या का वरण किया था, उस घंमड का फल तुम्हें आज देखना पड़ेगा, इसमें संशय नहीं है।'

   नृपश्रेष्‍ठ! दशार्णराज का यह संदेश पाकर और उन्हीं की प्रेरणा से दूत बनाकर वे ब्राह्मणदेवता काम्पिल्य नगर में आये। नगर में आकर वे पुरोहित ब्राह्मण महाराज द्रुपद से मिले। पाञ्चालराज ने सत्कारपूर्वक उन्हें अर्घ्‍य तथा गौ अर्पण की। उनके साथ राजकुमार शिखण्‍डी भी थे। राजेन्द्र! पुरोहित ने वह पूजा ग्रहण नहीं की और इस प्रकार कहा,

   पुरोहित ने कहा ;- ‘राजन! वीरवर राजा हिरण्‍यवर्मा ने जो संदेश दिया है, उसे सुनिये। पापाचारी दुर्बुद्धि नरेश! तुम्हारी पुत्री के द्वारा मैं ठगा गया हूँ। वह पाप तुमने ही किया है; अत: उसका फल भोगो। नरेश्‍वर! युद्ध के मैदान में आकर मुझे युद्ध का अवसर दो। मैं मन्त्री, पुत्र और बान्धवों सहित तुम्हारे समस्त कुल को उखाड़ फेंकूंगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)

   इस प्रकार पुरोहित ने मन्त्रियों के बीच में बैठे हुए राजा द्रुपद से दशार्णराज का कहा हुआ उपालम्भयुक्त संदेश सुनाया।भरतश्रेष्‍ठ! तब राजा द्रुपद प्रेम से विनीत हो गये और इस प्रकार बोले,

   राजा द्रुपद बोले ;- ‘ब्रह्मन! आपने मेरे सम्बन्धी के कथनानुसार जो बात मुझे सुनायी है, इसका उत्तर मेरा दूत स्वयं जाकर राजा को देगा’। तदनन्तर द्रुपद ने भी महामना हिरण्यवर्मा के पास वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण को दूत बनाकर भेजा। राजन! उन्होंने दशार्णनरेश के पास आकर द्रुपद ने जो कुछ कहा था, वह सब दुहरा दिया।‘राजन! आप आकर स्पष्‍टरूप से परीक्षा कर लें। मेरा यह कुमार पुत्र है कन्या नहीं। आपसे किसी ने झुठे ही उसके कन्या होने की बात कह दी है, जो विश्‍वास करने के योग्य नहीं है’। राजा द्रुपद का यह उत्तर सुनकर हिरण्‍यवर्मा ने कुछ विचार किया और अत्यन्त मनोहर रूप वाली कुछ श्रेष्‍ठ युवतियों को यह जानने के लिये भेजा कि शिखण्‍डी स्त्री है या पुरुष।

   कौरवराज! उन भेजी हुई यु‍वतियों ने वास्तविक बात जानकर राजा हिरण्‍यवर्मा को बड़ी प्रसन्नता के साथ सब कुछ बता दिया। उन्होंने दशार्णराज को यह विश्‍वास दिला दिया कि शिखण्‍डी महान प्रभावशाली पुरुष है। इस प्रकार परीक्षा करके राजा हिरण्‍यवर्मा बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने सम्बन्धी से मिलकर बड़े हर्ष और उल्लास के साथ वहाँ निवास किया। राजा ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने जामाता शिखण्‍डी को भी बहुत धन, हाथी, घोडे़, गाय, बैल और दासियां दीं। इतना ही नहीं, उन्होंने झूठी खबर भेजने के कारण अपनी पुत्री को भी झिड़कियां दीं। फिर वे राजा द्रुपद से सम्मानित होकर लौट गये। मनोमालिन्य दूर करके दशार्णराज हिरण्‍यवर्मा के प्रसन्नतापूर्वक लौट जाने पर शिखण्डिनी को भी बड़ा हर्ष हुआ।

   उधर कुछ काल के पश्‍चात नरवाहन कुबेर लोक में भ्रमण करते हुए स्थूणाकर्ण के घर पर आये। उसके घर के ऊपर आकाश में स्थित होकर धनाध्‍यक्ष कुबेर ने उसका अच्छी तरह अवलोकन किया। स्थूणाकर्ण यक्ष का वह भवन विचित्र हारों से सजाया गया था। खश की और अन्य पदार्थों की सुगन्ध से भी अर्चित तथा चंदोवों से सुशोभित था। उसमें सब ओर धूप की सुगन्ध फैली हुई थी। अनेकानेक ध्‍वज और पताकाएं उसकी शोभा बढा़ रही थीं। वहाँ भक्ष्‍य, भोज्य, पेय आदि सभी वस्तुएं, जिनका दन्त और जिह्वा द्वारा उदराग्नि में हवन किया जाता है, प्रस्तुत थीं। तत्पश्‍चात कुबेर ने उस भवन में प्रवेश किया। कुबेर ने उसके निवास स्थान को सब ओर से सुसज्जित, मणि, रत्न तथा सुवर्ण की मालाओं से परिपूर्ण, भाँति-भाँति के पुष्‍पों की सुगन्ध से व्याप्त तथा झाड़-बुहार और धो-पोंछ देने-के कारण शोभासम्पन्न देखकर यक्षराज ने स्थूणाकर्ण के सेवकों से पूछा,

   यक्षराज ने पूछा ;- ‘अमित पराक्रमी यक्षो! स्थूणाकर्ण का यह भवन तो सब प्रकार से सजाया हुआ दिखायी देता है, इससे सिद्ध है कि वह घर में ही है, तथापि वह मूर्ख मेरे पास आता क्यों नहीं है?

   ‘वह मन्दबुद्धि यक्ष मुझे आया हुआ जानकर भी मेरे निकट नहीं आ रहा है; इसलिये उसे महान दण्‍ड देना चाहिये, ऐसा मेरा विचार है।' 

    यक्षों ने कहा ;- राजन! राजा द्रुपद के यहाँ एक शिखण्डिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई है। उसी को किसी विशेष कारणवश इन्होंने अपना पुरुषत्व दे दिया है और उसका स्त्रीत्व स्वयं ग्रहण कर लिया है। तब से वे स्त्रीरूप होकर घर में ही रहते हैं। स्त्रीरूप में होने के कारण ही वे लज्जावश आप के पास नहीं आ रहे हैं। महाराज! इसी कारण से स्थूणाकर्ण आज आपके सामने नहीं उपस्थित हो रहे हैं। यह सुनकर आप जैसा उचित समझें, करें। आज आपका विमान यहीं रहना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)

   तब यक्षराज ने कहा ;- ‘स्थूणाकर्ण को यहाँ बुला ले आओ। मैं उसे दण्‍ड दूंगा।’ यह बात उन्होंने बार-बार दुहरायी। राजन! इस प्रकार बुलाने पर वह यक्ष कुबेर की सेवा में गया। महाराज! वह स्त्रीरूप धारण करने के कारण लज्जा में डूबा हुआ उनके सामने खड़ा हो गया। कुरुनन्दन! उसे इस रूप में देखकर कुबेर अत्यन्त कुपित हो उठे और शाप देते हुए बोले,

   कुबेर बोले ;- ‘गुह्यको! इस पापी स्थूणाकर्ण का यह स्त्रीत्व अब ऐसा ही बना रहे’। तदनन्तर महात्मा यक्षराज ने उस यक्ष से कहा,

   यक्षराज ने कहा ;- ‘पापबुद्धि और पापाचारी यक्ष! तूने यक्षों का तिरस्कार करके यहाँ शिखण्‍डी को अपना पुरुषत्व दे दिया और उसका स्त्रीत्व ग्रहण कर लिया है। दुर्बुद्धे! तूने जो यह अव्याव‍हारिक कार्य कर डाला है, इसके कारण आज से तू स्त्री ही बना रहे और शिखण्‍डी पुरुषरूप में ही रह जाय।'

   तब यक्षों ने अनुनय-विनय करके स्थूणाकर्ण के लिये कुबेर-को प्रसन्न किया और बारंबार आग्रहपूर्वक कहा,

    यक्ष बोले ;- ‘भगवन! इस शाप का अन्त कर दीजिये।' तात! तब महात्मा यक्षराज ने स्थूणाकर्ण का अनुगमन करने वाले उन समस्त यक्षों से उस शाप का अन्त कर देने की इच्छा से इस प्रकार कहा,

   यक्षराज ने कहा ;- ‘यक्षो! शिखण्‍डी के मारे जाने पर यह स्थूणाकर्ण यक्ष अपना पूर्णरूप फिर प्राप्त कर लेगा। अत: अब इसे निर्भय हो जाना चाहिये।’ ऐसा कहकर महामना भगवान यक्षराज कुबेर उन यक्षों द्वारा अत्यन्त पूजित हो निमेष मात्र में ही अभीष्‍ट स्थान पर पहुँच जाने वाले अपने समस्त सेवकों के साथ वहाँ से चले गये। उस समय कुबेर का शाप पाकर स्थूणाकर्ण वहीं रहने लगा। शिखण्‍डी पूर्व निश्चित समय पर उस निशाचन स्थूणाकर्ण के पास तुरंत आ गया। उसके निकट जाकर शिखण्‍डी ने कहा,

   शिखण्डी ने कहा ;- ‘भगवन! मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ।’ तब स्थूणाकर्ण ने उससे बारंबार कहा,

   स्थूणाकर्ण ने कहा ;- ‘मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, बहुत प्रसन्न हूँ’ राजकुमार शिखण्‍डी को सरलतापूर्वक आया हुआ देख उससे यक्ष ने अपना सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक कह सुनाया।

   यक्ष ने कहा ;- राजकुमार! तुम्हारे लिये ही यक्षराज ने मुझे शाप दे दिया है; अत: अब जाओ, इच्छानुसार सारे जगत में सुखपूर्वक विचरो। मैं इसे अपना पुरातन प्रारब्ध ही मानता हूँ, जो कि तुम्हारा यहाँ से जाना और उसी समय यक्षराज कुबेर का यहाँ आकर दर्शन देना हुआ। अब इसे टाला नहीं जा सकता। 

   भीष्‍म कहते हैं ;- भरतनन्दन! स्थूणाकर्ण यक्ष के ऐसा कहने पर शिखण्‍डी बड़े हर्ष के साथ अपने नगर को लौट आया। पूर्ण मनोरथ होकर लौटे हुए अपने पुत्र शिखण्‍डी के साथ पाञ्चालराज द्रुपद गन्ध-माल्य आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य उपचारों द्वारा देवताओं, ब्राह्मणों, चैत्य पीपल आदि धार्मिक वृक्षों तथा चौराहों का पूजन किया तथा बन्धु-बान्धवों सहित उन्हें महान हर्ष प्राप्त हुआ। महाराज! कुरुश्रेष्‍ठ! द्रुपद अपने पुत्र शिखण्‍डी को जो पहले कन्या रूप में उत्पन्न हुआ था, द्रोणाचार्य की सेवा में धनुर्वेद की शिक्षा के लिये सौंप दिया। इस प्रकार द्रुपदपुत्र शिखण्‍डी तथा धृष्टद्युम्न ने तुम सब भाइयों के साथ ही ग्रहण, धारण, प्रयोग और प्रतीकार- इन चार पादों से युक्त वनुर्वेद का अध्‍ययन किया। मैंने द्रुपद के नगर में कुछ गुप्तचर नियुक्त कर दिये थे,जो गूंगे, अंधे और बहरे बनकर वहाँ रहते थे। वे ही यह सब समाचार मुझे ठीक-ठीक बताया करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 63-70 का हिन्दी अनुवाद)

   महाराज! कुरुश्रेष्‍ठ! इस प्रकार यह रथियों में उत्तम द्रुपदकुमार शिखण्‍डी पहले स्त्रीरूप में उत्पन्न होकर पीछे पुरुष हुआ था। भरतश्रेष्‍ठ! काशिराज की ज्येष्‍ठ कन्या, जो अम्बा नाम से विख्‍यात थी, वही द्रुपद के कुल में शिखण्‍डी के रूप में उत्पन्न हुई है। जब यह हाथ में धनुष लेकर युद्ध करने की इच्छा से मेरे सामने उपस्थित होगा, उस समय मुहूर्तभर भी न तो इसकी ओर देखूंगा और न इस पर प्रहार ही करूंगा। कौरवनन्दन! इस भूमण्‍डल में भी मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि जो स्त्री हो, जो पहले स्त्री रहकर पुरुष हुआ हो, जिसका नाम स्त्री के समान हो तथा जिसका रूप एवं वेष-भूषा स्त्रियों के समान हो, इन सब पर मैं बाण नहीं छोड़ सकता। तात! इसी कारण से मैं शिखण्‍डी को नहीं मार सकता। शिखण्‍डी के जन्म का वास्तविक वृत्तान्त मैं जानता हूँ। अत: समरभूमि में वह आततायी होकर आवे तो भी मैं इसे नहीं मारूंगा। यदि भीष्‍म स्त्री का वध करे तो साधु पुरुष इसकी निन्दा करेंगे, अत: शिखण्‍डी को समरभूमि में खड़ा देखकर भी मैं इसे नही मारूंगा। 

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सब सुनकर कुरुवंशी राजा दुर्योधन ने दो घड़ी तक कुछ सोच-विचारकर भीष्‍म के लिये शिखण्‍डी का वध न करना उचित ही मान लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में शिखण्‍डी को पुरुषत्व की प्राप्तिविषयक एक सौ बानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के पूछने पर भीष्‍म आदि के द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन”

   संजय कहते हैं ;- राजन! जब रात बीती और प्रभात हुआ, उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने सारी सेना के बीच में पुन: पितामह भीष्‍म से पूछा,।

   दुर्योधन बोला ;- ‘गंगानन्दन! यह जो पाण्‍डवों की सेना युद्ध के लिये उद्यत है। इसमें बहुत-से पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार भरे हुए हैं। यह सेना बड़े-बड़े़ महारथियों एवं उनके विशाल रथों से व्याप्त है। लोकपालों के समान महापराक्रमी एवं महाधुनर्धर, भीमसेन, अर्जुन और धृष्टद्युम्न आदि वीर इस सेना की रक्षा करते हैं। यह उछलती हुई तरंगों से युक्त समुद्र की भाँति दुर्धर्ष प्रतीत होती है। इसे आगे बढ़ने से रोकना असम्भव है तथा बड़े-बड़े़ देवता भी इस महान युद्ध में इस सैन्य-समुद्र को क्षुब्ध नहीं कर सकते। ‘महातेजस्वी गंगानन्दन! आप कितने समय में इस सारी सेना का विध्‍वंस कर सकते हैं? महाधनुर्धर द्रोणाचार्य, अत्यन्त बलशाली कृपाचार्य, युद्ध की स्पृहा रखने वाले कर्ण अथवा द्विजश्रेष्‍ठ अश्वत्थामा कितने समय में शत्रुसेना का संहार कर सकते हैं; क्योंकि मेरी सेना में आप ही सब लोग दिव्यास्त्रों के ज्ञाता हैं। ‘महाबाहो! मैं यह जानना चाहता हूं, इसके लिये मेरे हृदय में सदा अत्यन्त कौतूहल बना रहता है। आप मुझे यह बताने की कृपा करें।'

   भीष्‍मजी ने कहा ;- कुरुश्रेष्‍ठ! पृथ्‍वीपते! तुम जो यहाँ शुत्रओं के बलाबल के विषय में पूछ रहे हो, यह तुम्हारे योग्य ही है। राजन! महाबाहो! युद्ध में जो मेरी सबसे अधिक शक्ति है, मेरे अस्त्र-शस्त्रों का तथा दोनों भुजाओं का जितना बल है, वह सब बताता हूं, सुनो। साधारण लोगों के साथ सरलभाव से ही युद्ध करना चाहिये। जो लोग मायावी हैं, उनका सामना माया युद्ध से ही करना चाहिये। यही धर्मशास्त्रों का निश्‍चय है। महाभाग! मैं प्रतिदिन पाण्‍डवों की सेना को पहले अपने दैनिक भाग में विभक्त करके उसका वध करूंगा। महाद्युते! दस-दस हजार योद्धाओं का तथा एक हजार रथियों का समूह मेरा एक भाग मानना चाहिये। भारत! इस विधान से मैं सदा उद्यत और संनद्ध होकर उस विशाल सेना को इतने ही समय में नष्‍ट कर सकता हूँ। भारत! यदि मैं युद्ध में स्थित होकर लाखों वीरों का संहार करने वाले अपने महान अस्त्रों का प्रयोग करने लगूं तो एक मास में पाण्‍डवों की सारी सेना को नष्‍ट कर सकता हूँ। 

   संजय बोले ;- राजेन्द्र! भीष्‍म का यह वचन सुनकर राजा दुर्योधन ने आंगिरस ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य से पूछा,

   दुर्योधन ने पूछा ;- ‘आचार्य! आप कितने समय में पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर के सैनिकों का संहार कर सकते हैं?’

यह प्रभु सुनकर द्रोणाचार्य हंसते हुए से बोले,

   द्रोणाचार्य बोले ;- ‘महाबाहो! अब तो मैं बूढा़ हो गया, मेरी प्राणशक्ति और चेष्‍टा कम हो गयी, तो भी अपने अस्त्र-शस्त्रों की अग्नि से पाण्‍डवों की विशाल वाहिनी को भस्म कर दूंगा। ‘जैसे शान्तनुनन्दन भीष्‍म एक मास में पाण्‍डव-सेना का विनाश कर सकते हैं, उसी प्रकार और उतने ही समय में मैं भी कर सकता हुं, ऐसा मेरा विश्‍वास है। यही मेरी सबसे बड़ी शक्ति है और यही मेरा अधिक-से-‍अधिक बल है’। कृपाचार्य ने दो महीनों में पाण्‍डव-सेना के संहार की बात कही; परंतु अश्वत्थामा ने दस ही दिनों में शत्रुसेना के संहार की प्रतिज्ञा कर ली। बड़े-बड़े़ अस्त्रों के ज्ञाता कर्ण ने पांच ही दिनो में पाण्‍डव-सेना को नष्‍ट करने की प्रतिज्ञा की। सूतपुत्र का यह कथन सुनकर गंगानन्दन भीष्‍मजी ठहाका मारकर हंस पड़े और यह वचन बोले,

   भीष्मजी बोले ;- ‘राधापुत्र! जब तक युद्धभूमि में शंख, बाण और धनुष धारण करने वाले श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन को तुम एक ही रथ से आते हुए नहीं देखते और जब तक उनके साथ तुम्हारी मुठभेड़ नहीं होती, तभी तक ऐसा अभिमान प्रकट करते हो, तुम इच्छानुसार और भी ऐसी बहुत-सी बहकी-बहकी बातें कह सकते हो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में भीष्‍म आदि के द्वाराअपनी शक्ति का वर्णनविषयक एक सौ तिरानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ चोरनबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्नवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा अपनी, अपने सहायकों की तथा युधिष्ठिर की भी शक्ति का परिचय देना”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय! कौरव सेना में जो बातचीत हुई थी, उसका समाचार पाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को एकान्त में बुलाकर इस प्रकार कहा-

 युधिष्ठिर बोले ;- धृतराष्‍ट्र की सेना में जो मेरे गुप्तचर नियुक्त हैं, उन्होंने मुझे यह समाचार दिया है कि इसी विगत रात्रि में दुर्योधन ने महान व्रतधारी गंगानन्दन भीष्‍म से यह प्रश्‍न किया था कि प्रभो! आप पाण्‍डवों की सेना का कितने समय में संहार कर सकते हैं। भीष्‍मजी ने धृतराष्‍ट्र के पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधन को यह उत्तर दिया कि मैं एक महीने में पाण्‍डव-सेना का विनाश कर सकता हूँ। द्रोणाचार्य ने भी उतने ही समय में वैसा करने की प्रतिज्ञा की। कृपाचार्य ने दो महीने का समय बताया। यह बात हमारे सुनने में आयी है तथा महान अस्त्रवेत्ता अश्वत्थामा ने दस ही दिनों में पाण्‍डव-सेना के संहार की प्रतिज्ञा की है। दिव्यास्त्रवेत्ता कर्ण से जब कौरव-सभा में पूछा गया, तब उसने पांच ही दिनों में हमारी सेना को नष्‍ट करने की प्रतिज्ञा कर ली। अत: अर्जुन! मैं भी तुम्हारी बात सुनना चा‍हता हूँ। फाल्गुन! तुम कितने समय में शत्रुओं को नष्‍ट कर सकते हो?

   राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर निद्राविजयी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखकर यह बात कही,

   अर्जुन बोले ;- ‘महाराज! नि:संदेह सभी महामना योद्धा अस्त्रविद्या के विद्वान तथा विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले हैं। अत: उतने दिनों में शत्रुसेना को मार सकते हैं, इसमें संशय नहीं है ‘परंतु इससे आपके मन में संताप नहीं होना चाहिये। आपका मनस्ताप तो दूर ही हो जाना चाहिये। मैं जो सत्य बात कहने जा रहा हूं, उस पर ध्‍यान दीजिये। मैं भगवान श्रीकृष्‍ण की सहायता से युक्त हुआ एकमात्र रथ को लेकर ही देवताओं सहित तीनो लोकों, सम्पूर्ण चराचर प्राणियों तथा भूत, वर्तमान और भविष्‍य को भी पलक मारते-मारते नष्‍ट कर सकता हूँ। ऐसा मेरा विश्‍वास है। ‘भगवान पशुपति ने किरातवेष में द्वन्द्वयुद्ध करते समय मुझे जो अपना भयंकर महास्त्र प्रदान किया था, वह मेरे पास मौजूद है।

    ‘पुरुषसिंह! प्रलयकाल में समस्त प्राणियों का संहार करते समय भगवान पशुपति जिस अस्त्र का प्रयोग करते हैं, वही यह मेरे पास विद्यमान है। ‘राजन! इसे न तो गंगानन्दन भीष्‍म जानते हैं, न द्रोणाचार्य जानते हैं, न कृपाचार्य जानते हैं और न द्रोणपुत्र अ‍श्वत्थामा को ही इसका पता है; फिर सूतपुत्र कर्ण तो इसे जान ही कैसे सकता है? ‘परंतु युद्ध में साधारण जनों को दिव्यास्त्रों द्वारा मारना कदापि उचित नहीं है; अत: हम लोग सरलतापूर्ण युद्ध के द्वारा ही शत्रुओं को जीतेंगे। ‘राजन! ये सभी पुरुषसिंह जो हमारे सहायक हैं, दिव्यास्त्रों का ज्ञान रखते हैं और सभी युद्ध की अभिलाषा रखने वाले हैं।

    ‘इन सबने वेदाध्‍ययन समाप्त करके यज्ञान्त स्नान किया है। ये सभी कभी परास्त न होने वाले वीर हैं। पाण्‍डुनन्दन! ये लोग समरभूमि में देवताओं की सेना को भी नष्‍ट कर सकते हैं। ‘शिखण्‍डी, सात्यकि, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, भीमसेन दोनों भाई नकुल-सहदेव, युधामन्यु, उत्तमौजा तथा राजा विराट और द्रुपद भी युद्ध में भीष्‍म और द्रोणाचार्य की समानता करने वाले हैं ‘महाबाहु शंख, महाबली घटोत्कच, महान बल और पराक्रम से सम्पन्न घटोत्कच-पुत्र अंजनपर्वा तथा संग्रामकुशल महाबाहु सात्यकि- ये सभी आपके सहायक हैं। ‘बलवान अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र तो आपके साथ हैं ही। आप स्वयं भी तीनों लोकों का संहार करने में समर्थ हैं। ‘इन्द्र के समान तेजस्वी कुरुनन्दन! आप क्रोधपूर्वक जिस पुरुष को देख लें वह शीघ्र ही नष्‍ट हो जायगा। आपके इस प्रभाव को मैं जानता हूँ।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में अर्जुनवाक्यविषयक एक सौ चोरानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव सेना का रण के लिये प्रस्थान”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल में धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन से प्रेरित होकर सब राजा पाण्‍डवों से युद्ध करने के लिये चले; चलने के पहले उन सबने स्नान करके शुद्ध होकर श्‍वेत वस्त्र धारण किये, पुष्‍पों की मालाएं पहनीं, ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया, अग्नि में आहुतियां दीं, फिर ध्‍वजा फहराते हुए हाथों में अस्त्र-शस्त्र लेकर रणभूमि की ओर प्रस्थित हुए। वे सभी वेदवेत्ता, शूरवीर तथा उत्तम विधि से व्रत का पालन करने वाले थे। सभी कवचधारी तथा युद्ध के चिह्नों से सुशोभित थे। वे महाबली वीर युद्ध में पराक्रम दिखाकर उत्तम लोकों पर विजय पाना चाहते थे। उन सबका चित्त एकाग्र था और वे सभी एक दूसरे पर विश्‍वास करते थे। अवन्ती देश के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, बाह्लीक देशीय सेनिकों के साथ केकयराजकुमार- ये सब द्रोणाचार्य को आगे करके चले। अश्वत्थामा, भीष्‍म, सिन्धुराज जयद्रथ, दाक्षिणात्य नरेश, पाश्वात्त्य भूपाल और पर्वतीय भूपाल, गान्धारराज शकुनि तथा पूर्व और उत्तर दिशा के नरेश, शक, किरात, यवन, शिवि और वसाति भूपालगण- ये सभी महारथी लोग अपनी-अपनी सेनाओं के साथ महारथी भीष्‍म को सब ओर से घेर कर दूसरे सैन्य-दल के रूप में सुसज्जित होकर निकले-। सेना सहित कृतवर्मा, महारथी त्रिगर्त, भाइयों से घिरा हुआ महाराज दुर्योधन, शल, भूरिश्रवा, शल्य तथा कोसलराज बृहद्रथ- ये दुर्योधन को आगे करके उसके पीछे-पीछे  चले- धृतराष्ट्र के वे महाबली पुत्र रणक्षेत्र में जाकर कवच आदि से सुसज्जित हो कुरुक्षेत्र के पश्चिम भाग में यथोचित रूप से खडे़ हुए। भारत! दुर्योधन ने पहले से ही ऐसा निवास स्थान बनवा रखा था, जो दूसरे हस्तिनापुर की भाँति सजा हुआ था।

    राजेन्द्र! नगर में निवास करने वाले चतुर मनुष्‍य भी उस शिविर तथा हस्तिनापुर नामक नगर में क्या अन्तर हैं, यह नहीं समझ पाते थे। अन्य राजाओं के लिये भी कुरुवंशी भूपाल ने वैसे ही सैकड़ों तथा सहस्रों दुर्ग बनवाये थे समरांगण के लिये पांच योजन का घेरा छोड़कर सैनिकों के ठहरने के लिये सौ-सौ की संख्‍या में कितनी ही श्रेणीबद्ध छावनियां डाली गयी थीं। उन्हीं बहुमूल्य आवश्‍यक सा‍मग्रियों से सम्पन्न हजारों छा‍वनियों में वे भूपाल अपने बल और उत्साह के अनुरूप युद्ध-के लिये उद्यत होकर रहते थे। राजा दुर्योधन सवारियों और सैनिकों सहित उन महामना नरेशों को परम उत्तम भक्ष्‍य-भोज्य पदार्थ देता था। हाथियों, अश्वों, पैदल मनुष्‍यों, शिल्प-जीवियों, अन्य अनुगामियों तथा सूत, मागध और बंदीजनों को भी राजा की ओर से भोजन प्राप्त होता था। वहाँ जो वणिक, गणिकाएं, गुप्तचर तथा दर्शक मनुष्‍य आते थे, उन सबकी कुरुराज दुर्योधन विधि‍पूर्वक देखभाल करता था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में कौरव-सेना का युद्ध के लिये प्रस्थानविषयक एक सौ पंचानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ छियानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्‍णवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डव सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी प्रकार कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भी धृष्टद्युम्न आदि वीरों को युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दी। चेदि, काशि और करूषदेशों के अधिनायक दृढ़ पराक्रमी शत्रुनाशक सेनापति धृष्‍टकेतु को भी प्रस्थान करने का आदेश दिया। विराट, द्रुपद, सात्यकि, शिखण्‍डी, महाधनुर्धर पाञ्चालवीर युधामन्यु और उत्तमौजा को भी राजा का आदेश प्राप्त हुआ। वे महाधनुर्धर शूरवीर विचित्र कवच और तपाये हुए सोने के कुण्‍डल धारण किये वेदी पर घी की आहुति से प्रज्वलित हुए अग्निदेव के समान तथा आकाश में प्रकाशित होने वाले ग्रहों की भाँति शोभा पा रहे थे। तदनन्तर योग्यतानुसार सम्पूर्ण सेना का समादर करके नरश्रेष्‍ठ राजा युधिष्ठिर ने उन सैनिकों को प्रस्थान करने की आज्ञा दी और सेना तथा सवारियों सहित उन महामना नरेशों को उत्तमोत्तम खाने-पीने की वस्तुएं देने की आज्ञा दी। उनके साथ जो भी हाथी, घोडे़, मनुष्‍य और शिल्पजीवी पुरुष थे, उन सबके लिये भोजन प्रस्तुत करने का आदेश दिया। पाण्‍डुनन्दन युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न को आगे करके अभिमन्यु, बृहन्त तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र- इन सबको प्रथम सेनादल के साथ भेजा। भीमसेन, सात्यकि तथा पाण्‍डुनन्दन अर्जुन को युधिष्ठिर ने द्वितीय सैन्य समूह का नेता बनाकर भेजा। वहाँ हर्ष में भरे हुए कुछ योद्धा सवारियों पर युद्ध की सामग्री चढा़ते, कुछ इधर-उधर जाते और कुछ लोग कार्यवश दौड़-धूप करते थे। उन सबका कोलाहल मानो स्वर्गलोक को छूने लगा। तत्पश्‍चात राजा विराट और द्रुपद को साथ ले अन्यान्य भूपालों सहित स्वयं राजा युधिष्ठिर चले। भयंकर धनुर्धरों से भरी हुई और धृष्‍टद्युम्न के द्वारा सुरक्षित होकर कहीं ठहरती और कहीं आगे बढ़ती हुई वह पाण्‍डव सेना कहीं निश्‍चल और कहीं प्रवाहशील जल से भरी गंगा के समान दिखायी देती थी। थोड़ी दूर जाकर बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्‍ट्र के पुत्रों के बौद्धिक निश्चय में भ्रम उत्पन्न करने के लिये अपनी सेना का दुबारा संगठन किया। पाण्‍डु पुत्र युधिष्ठिर ने द्रौपदी के महाधनुर्धर पुत्र, अभिमन्यु, नकुल, सहदेव, समस्त प्रभद्रक वीर, दस हजार घुड़सवार, दो हजार हाथीसवार, दस हजार पैदल तथा पांच सौ रथी- इनके प्रथम दुर्धर्ष दल को भीमसेन की अध्‍यक्षता में दे दिया। बीच के दल में राजा ने विराट, जयत्सेन तथा पाञ्चालदेशीय महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा को रखा। हाथों में गदा और धनुष धारण किये से दोनों वीर (युधामन्यु-उत्तमौजा) बड़े पराक्रमी और मनस्वी थे। उस समय इन सबके मध्‍यभाग में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन सेना के पीछे-पीछे जा रहे थे। उस समय जो योद्धा पहले कभी युद्ध कर चुके थे, वे आवेश में भरे हुए थे। उनमें बीस हजार घोडे़ ऐसे थे जिनकी पीठ पर शौर्यसम्पन्न वीर बैठे हुए थे। इन घुड़सवारों के साथ पांच हजार गजारोही तथा बहुत से रथी भी थे।
धनुष, बाण, खड्ग और गदा धारण करने वाले जो पैदल सैनिक थे, वे सहस्रों की संख्‍या में सेना के आगे और पीछे चलते थे। जिस सैन्य-समुद्र में स्वयं राजा युधिष्ठिर थे, उसमें बहुत-से भूमिपाल उन्हें चारों ओर से घेरकर चलते थे। भारत! उसमें एक हजार हाथीसवार, दस हजार घुड़सवार, एक हजार रथी और कई सहस्र पैदल सैनिक थे। नृपश्रेष्‍ठ! अपनी विशाल सेना के साथ चेकितान तथा चेदिराज धृष्‍टकेतु भी उन्हीं के साथ जा रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्‍णवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद)

   वृष्णिवंश के प्रमुख महारथी महान धनुर्धर बलवान सात्यकि एक लाख रथियों से घिरकर गर्जना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। क्षत्रदेव और ब्रह्मदेव ये दोनों पुरुषरत्न रथ पर बैठकर सेना के पिछले भाग की रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जा रहे थे। इनके सिवा और भी बहुत-से छकडे़, दुकानें, वेशभूषा के सामान, सवारियां, सामान ढोने की गाडी, एक सहस्र हाथी, अनेक अयुत घोडे़, अन्य छोटी-मोटी वस्तुएं, स्त्रियां, कृश और दुर्बल मनुष्‍य, कोश-संग्रह और उनके ढोने वाले लोग तथा कोष्ठागार आदि सब कुछ संग्रह करके राजा युधिष्ठिर धीरे-धीरे गजसेना के साथ यात्रा कर रहे थे।
    उनके पीछे सुचित्त के पुत्र रणदुर्मद सत्यधृति, श्रेणिमान, वसुदान तथा काशिराज के सामर्थ्‍यशाली पुत्र जा रहे थे। इन सबका अनुगमन करने वाले बीस हजार रथी, घुंघरुओं से सुशोभित दस करोड़ घोडे़, ईषादण्‍ड के समान दांत वाले, प्रहारकुशल, अच्छी जाति में उत्पन्न, मदस्त्रावी और मेघों की घटा के समान चलने वाले बीस हजार हाथी थे। भारत! इनके सिवा, युद्ध में महात्मा युधिष्ठिर के पास निजी तौर पर सत्तर हजार हाथी और थे, जो जल बरसान वाले बादलों की भाँति अपने गण्‍डस्थल से मद की धारा बहाते थे। वे सबके सब जंगम पर्वतों की भाँति राजा युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहे थे।
    इस प्रकार बुद्धिमान कुन्ती के पुत्र के पास भयंकर एवं विशाल सेना थी, जिसका आश्रय लेकर वे धृतराष्‍ट्र के पुत्र दुर्योधन से लोहा ले रहे थे। इन सबके अतिरिक्त पीछे-पीछे लाखों पैदल मनुष्‍य तथा उनकी सहस्रों सेनाएं गर्जना करती हुई आगे बढ़ रही थीं। उस समय उस रणक्षेत्र में लाखों मनुष्‍य हर्ष और उत्साह में भरकर हजारों भेरियों तथा शंखों की ध्‍वनि कर रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में पाण्‍डवसेनानिर्याणविषयक एक सौ छानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

[उद्योग पर्व समाप्त]

 उद्योग पर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या ७१३३ 

 अब भीष्मपर्व आरंभ होता है 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें