सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के छठवें अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the 6 chapter to the 10 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)

छठा अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षष्‍ठ अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“सुदर्शन के वर्ष, पर्वत, मेरुगिरि, गंगा नदी तथा शशाकृति का वर्णन”

   धृतराष्ट्र बोले ;- बुद्धिमान् संजय! तुमने सुदर्शन द्वीप का विधिपूर्वक थोडे़ में ही वर्णन कर दिया, परंतु तुम तो तत्त्वों के ज्ञाता हो; अत: इस सम्पूर्ण द्वीप का विस्तार के साथ वर्णन करो। चन्द्रमा के शश-चिह्न में भूमि का जितना अवकाश दृष्टिगोचर होता है, उसका प्रमाण बताओ। तत्पश्‍चात् पिप्पलस्थान का वर्णन करना।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार पूछने पर संजय ने कहना आरम्भ किया। संजय बोले- महाराज! पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर फैले हुए ये छ: वर्ष पर्वत हैं, जो दोनों ओर पूर्व तथा पश्चिम समुद्र में घुसे हुए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- हिमवान्, हेमकूट, पर्वतश्रेष्ठ निषध, वैदूर्यमणिमय नीलगिरि, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल श्‍वेतगिरि तथा सब धातुओं से सम्पन्न होकर विचित्र शोभा धारण करने वाला श्रृंगवान पर्वत। राजन्! ये छ: पर्वत सिद्धों तथा चरणों के निवासस्थान हैं।

  भरतनन्दन! इनके बीच का विस्तार सहस्रों योजन हैं। वहाँ भिन्न-भिन्न वर्ष (खण्‍ड) हैं और उनमें बहुत-से पवित्र जनपद हैं। उनमें सब ओर नाना जातियों के प्राणी निवास करते हैं, उनमें से यह भारतवर्ष है। इसके बाद हिमालय से उत्तर हैमवतवर्ष है। हेमकूट पर्वत से आगे हरिवर्ष की स्थिति बतायी जाती है। महाभाग! नीलगिरि के दक्षिण और निषधपर्वत के उत्तर पूर्व से पश्चिम की ओर फैला हुआ माल्यवान् नामक पर्वत है। माल्यवान् से आगे गन्धमादन पर्वत है। इन दोनों के बीच में मण्‍डलाकार सुवर्णमय मेरुपर्वत है, जो प्रात:काल के सूर्य के समान प्रकाशमान तथा धूमरहित अग्नि-के समान कान्तिमान है। उसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन हैं।

   राजन्! वह नीचे से चौरासी हजार योजन तक पृथ्‍वी के भीतर घुसा हुआ है। प्रभो! मेरुपर्वत ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल सम्पूर्ण लोकों को आवृत करके खड़ा है। उसके पार्श्‍वभाग में ये चार द्वीप बसे हुए हैं। 

   भारत! उनके नाम ये हैं ,- भद्राश्‍व, केतुमाल, जम्बूद्वीप तथा उत्तर कुरु! उत्तर कुरु द्वीप में पुण्‍यात्मा पुरुषों का निवास हैं। एक समय पक्षिराज गरुड़ के पुत्र सुमुख ने मेरु पर्वत पर सुनहरे शरीर वाले कौवों को देखकर सोचा कि यह सुमेरू पर्वत उत्तम, मध्‍यम तथा अधम पक्षियों में कुछ भी अन्तर नहीं रहने देता है। इसलिये मैं इसका त्याग दूंगा। ऐसा विचार करके वे वहाँ से अन्यत्र चले गये। ज्योतिर्मय ग्रहों में सर्वश्रेष्‍ठ, सूर्यदेव, नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा तथा वायुदेव भी प्रदक्षिण क्रम से सदा मेरूगिरि की परिक्रमा करते रहते हैं। महाराज! वह पर्वत दिव्य पुष्‍पों और फलों से सम्पन्न है। वहाँ से सभी भवन जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित हैं। उनसे घिरे हुए उस पर्वत की बड़ी शोभा होती है। राजन्! उस पर्वत पर देवता, गन्धर्व, असुर, राक्षस तथा अप्सराएं सदा क्रीड़ा करती रहती हैं। वहाँ ब्रह्मा, रुद्र तथा देवराज इन्द्र एकत्र हो पर्याप्त द‍क्षिणा वाले नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्‍ठान करते हैं। उस समय तुम्बुरु, नारद, विश्वावसु, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व उन देवेश्वरों के पास जाकर भाँति-भाँति के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं। राजन्! आपका कल्याण हो। वहाँ महात्मा सप्तर्षिगण तथा प्रजापति कश्‍यप प्रत्येक पर्व पर सदा पधारते हैं। भूपाल! उस मेरु पर्वत के ही शिखर पर दैत्यों के साथ शुक्राचार्य निवास करते हैं। ये सब रत्न तथा ये रत्नमय पर्वत शुक्राचार्य के ही अधिकार में हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षष्‍ठ अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

     भगवान कुबेर उन्हीं से धन का चतुर्य भाग प्राप्त करके उसका उपभोग करते हैं और उस धन का सोलहवां भाग मनुष्‍यों को देते हैं। सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में समस्त ॠतुओं के फूलों से भरा हुआ दिव्य एवं रमणीय कर्णिकार (कनेर वृक्षों का) वन है, जहाँ शिलाओं के समूह संचित हैं। वहाँ दिव्य भूतों से घिरे हुए साक्षात् भूतभावन भगवान् पशुपति पैरों तक लटकने वाली कनेर के फूलों की दिव्य माला धारण किये भगवती उमा के साथ विहार करते हैं। वे अपने तीनों नेत्रों द्वारा ऐसा प्रकाश फैलाते हैं, मानो तीन सूर्य उदित हुए हों। उग्र तपस्वी एवं उत्तम व्रतों का पालन करने वाले सत्यवादी सिद्ध पुरुष ही वहाँ उनका दर्शन करते हैं। दुराचारी लोगों को भगवान् महेश्‍वर का दर्शन नहीं हो सकता।

    नरेश्‍वर! उस मेरु पर्वत के शिखर से दुग्ध के समान श्‍वेतधार वाली, विश्वरूपा, अ‍परिमित शक्तिशालिनी, भयंकर वज्रपात के समान शब्द करने वाली, परम पुण्‍यात्मा पुरुषों द्वारा सेवित, शुभस्वरूपा पुण्‍यमयी भागीरथी गंगा बड़े प्रबलवेग से सुन्दर चन्द्रकुण्‍ड में गिरती हैं। वह पवित्र कुण्‍ड स्वयं गंगा जी ने ही प्रकट किया है, जो अपनी अगाध जलराशि के कारण समुद्र के समान शोभा पाता है। जिन्हें अपने ऊपर धारण करना पर्वतों के लिये भी कठिन था, उन्हीं गंगा को पिनाकधारी भगवान् शिव एक लाख वर्षों तक अपने मस्तक पर ही धारण किये रहे। राजन्! मेरु के पश्चिम भाग में केतुमाल द्वीप है, वहीं अत्यन्त विशाल जम्बूखण्‍ड नामक प्रदेश है, जो नन्दनवन के समान मनोहर जान पड़ता है। भारत! वहाँ के निवासियों की आयु दस हजार वर्षों की होती है। वहाँ के पुरुष सुवर्ण के समान कान्तिमान और स्त्रियां अप्सराओं के समान सुन्दरी होती हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होते। उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है। वहाँ तपाये हुए सुवर्ण के समान गौर कान्ति वाले मनुष्‍य उत्पन्न होते हैं। गन्धमादन पर्वत के शिखरों पर गुह्यकों के स्वामी कुबेर राक्षसों के साथ रहते और अप्सराओं के समुदायों के साथ आमोद-प्रमोद करते हैं। गन्धमादन के अन्यान्य पार्श्‍वर्ती पर्वतों पर दूसरी-दूसरी नदियां हैं, जहाँ निवास करने वाले लोगों की आयु ग्यारह हजार वर्षों की होती हैं।

   राजन्! वहाँ के पुरुष हृष्‍ट-पुष्‍ट, तेजस्वी और महाबली होते हैं तथा सभी स्त्रियां कमल के समान कान्तिमती और देखने में अत्यन्त मनोरम होती हैं। नील पर्वत के उत्तर श्‍वेतवर्ष और श्‍वेतवर्ष से उत्तर हिरण्‍यकवर्ष हैं। तत्पश्‍चात श्रृंगवान पर्वत से आगे ऐरावत नामक वर्ष है। राजन्! वह अनेकानेक जनपदों से भरा हुआ हैं। महाराज! दक्षिण और उत्तर के क्रमश: भारत और ऐरावत नामक दो वर्ष धनुष की दो कोटियों के समान स्थित हैं और बीच में पांच वर्ष (श्‍वेत, हिरण्‍यक, इलावृत, हरिवर्ष तथा हैमवत) हैं। इन सबके बीच में इलावृत वर्ष हैं। भारत से आरम्भ करके ये सभी वर्ष आयु के प्रमाण, आरोग्य, धर्म, अर्थ और काम- इन सभी दृष्टियों से गुणों में उत्तरोत्तर बढ़ते गये हैं। भारत! इन सब वर्षों में निवास करने वाले प्राणी परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। महाराज! इस प्रकार यह सारी पृथ्‍वी पर्वतों द्वारा स्थिर की गयी है। राजन्! विशाल पर्वत हेमकूट ही कैलास नाम से प्रसिद्ध है। जहाँ कुबेर गुह्यकों के साथ सानन्द निवास करते हैं। कैलास से उत्तर मैनाक है और उससे भी उत्तर दिव्य तथा महान् मणिमय पर्वत हिरण्‍यश्रृंग है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षष्‍ठ अध्याय के श्लोक 43-56 का हिन्दी अनुवाद)

    उसी के पास विशाल, दिव्य, उज्ज्वल तथा काञ्चनमयी बालुका से सुशोभित रमणीय बिन्दुसरोवर है, जहाँ राजा भागीरथ ने भागीरथी गंगा का दर्शन करने के लिये बहुत वर्षों तक निवास किया था। वहाँ बहुत-से मणिमय यूप तथा सुवर्णमय चैत्य (महल) शोभा पाते हैं। वहीं यज्ञ करके महायशस्वी इन्द्र ने सिद्धि प्राप्त की थी। उसी स्थान पर सब और सम्पूर्ण जगत् के लोग लोकस्रष्टा प्रचण्‍ड तेजस्वी सनातन भगवान् भूतनाथ की उपासना करते हैं। नर, नारायण, ब्र‍ह्मा, मनु और पांचवे भगवान् शिव वहाँ सदा स्थित रहते हैं। ब्रह्मलोक से उतरकर त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा पहले उस बिन्दुसरोवर में ही प्रतिष्ठित हुई थीं। वहीं से उनकी सात धाराएं विभक्त हुई हैं। उन धाराओं के नाम इस प्रकार हैं- वस्वोकसारा, नलिनी, पावनी सरस्वती, जम्बूनदी, सीता, गंगा और सिंधु।

   यह (सात धाराओं का प्रादुर्भाव जगत् के उपकार के लिये) भगवान् का ही अचिन्त्य एवं दिव्य सुन्दर विधान हैं। जहाँ लोग कल्प के अन्त त‍क यज्ञानुष्‍ठान के द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं। इन सात धाराओं में जो सरस्वती नाम वाली धारा है, वह कहीं प्रत्यक्ष दिखायी देती है और कहीं अदृश्‍य हो जाती है। ये सात दिव्य गंगाएं तीनों लोकों में विख्‍यात हैं। हिमालय पर राक्षस, हेमकूट पर गुह्यक तथा निषधपर्वत पर सर्प और नाग निवास करते हैं। गोकर्ण तो तपोधन है। श्‍वेत पर्वत सम्पूर्ण देवताओं और असुरों का निवास स्थान बताया गया है। निषधगिरि पर गन्धर्व तथा नीलगिरि पर ब्रह्मर्षि निवास करते हैं। महाराज! श्रृंगवान पर्वत तो केवल देवताओं की ही विहार स्थली है।

    राजेन्द्र! इस प्रकार स्थावर और जंगम सम्पूर्ण प्राणी इन सात वर्षों में विभागपूर्वक स्थित हैं। उनकी अनेक प्रकार की दैवी और मानुषी समृद्धि देखी जाती हैं। उसकी गणना असम्भव है। कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्‍य को उस समृद्धि पर विश्‍वास करना चा‍हिये। इस प्रकार वह सुदर्शनद्वीप बताया गया है, जो दो भागों में विभक्त होकर चन्द्रमण्‍डल में प्रतिबिम्बित हो खरगोश की-सी आकृति में दृष्टिगोचर होता है। राजन्! आपने जो मुझसे इस शशकृति (खरगोश की-सी आकृति) के विषय में प्रश्‍न किया है उसका वर्णन करता हूं, सुनिये। पहले जो दक्षिण और उत्तर में स्थित (भारत और ऐरावत नामक) दो द्वीप बताये गये हैं, वे ही दोनों उस शश (खरगोश) के दो पार्श्‍वभाग हैं। नाग द्वीप तथा काश्‍यप द्वीप उसके दोनों कान हैं। राजन्! ताम्रवर्ण के वृक्षों और पत्रों से सुशोभित श्रीमान् मलय पर्वत ही इसका सिर है। इस प्रकार यह सुदर्शन द्वीप का दूसरा भाग खरगोश के आकार में दृष्टिगोचर होता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व में भूमि आदि परिमाण का विवरणविषयक छठा अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)

सातवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“उत्तर कुरु, भद्राश्‍ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन”

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- परमबुद्धिमान संजय! तुम मेरु के उत्तर तथा पूर्व भाग में जो कुछ है, उसका पूर्ण रूप से वर्णन करो। साथ ही माल्यवान् पर्वत के विषय में भी जानने योग्य बातें बताओ।

   संजय ने कहा ;- राजन्! नीलगिरि से दक्षिण तथा मेरू पर्वत के उत्तर भाग में पवित्र उत्तर कुरु वर्ष है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहाँ के वृक्ष सदा पुष्‍प और फल से सम्पन्न होते हैं और उनके फल बड़े मधुर एवं स्वा‍दिष्ट होते हैं। उस देश के सभी पुष्‍प सुगन्धित और फल सरस होते हैं। नरेश्‍वर! वहाँ के कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों के दाता हैं। राजन्! दूसरे क्षीरी नाम वाले वृक्ष हैं, जो सदा षड्विध रसों से युक्त एवं अमृत के समान स्वादिष्‍ट दुग्ध बहाते रहते हैं। उनके फलों में इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं।

   जनेश्‍वर! वहाँ की सारी भूमि मणिमयी है। वहाँ जो सूक्ष्‍म बालू के कण हैं, वे सब सुवर्णमय हैं। उस भूमि पर कीचड़ का कहीं नाम भी नहीं है। उसका स्पर्श सभी ॠतु‍ओं में सुखदायक होता है। वहाँ के सुन्दर सरोवर अत्यन्त मनोरम होते हैं। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता है। वहाँ देवलोक से भूतल पर आये हुए समस्त पुण्‍यात्मा मनुष्‍य ही जन्म ग्रहण करते हैं। ये सभी उत्तम कुल से सम्पन्न और देखने में अत्यन्त प्रिय होते हैं। वहाँ स्त्री-पुरुषों के जोडे़ भी उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां अप्सराओं के समान सुन्दरी होती हैं। उत्तर कुरु के निवासी क्षीरी वृक्षों के अमृत-तुल्य दूध पीते हैं। वहाँ स्त्री-पुरुषों के जोडे़ एक ही साथ उत्पन्न होते और साथ-साथ बढ़ते हैं। उनके रूप, गुण और वेष सब एक-से होते हैं।

   प्रभो! वे चकवा-चकवी के समान सदा एक-दूसरे के अनुकूल बने रहते हैं। उत्तर कुरु के लोग सदा नीरोग और प्रसन्नचित्त रहते हैं। महाराज! वे ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। एक दूसरे का कभी त्याग नहीं करते। वहाँ भारुण्ड नाम के महाबली पक्षी हैं, जिनकी चोंचें बड़ी तीखी होती हैं। वे वहाँ के मरे हुए लोगों की लाशें उठाकर ले जाते और कन्दराओं में फेंक देते हैं। राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे थोडे़ में उत्तर कुरु वर्ष का वर्णन‍ किया। अब मैं मेरु के पूर्वभाग में स्थित भद्राश्व वर्ष का यथावत् वर्णन करूंगा। प्रजानाथ! भद्राश्व वर्ष के शिखर पर भद्रशाल नाम का एक वन है एवं वहाँ कालाम्र नामक महान् वृक्ष भी है।

   महाराज! कालाम्र वृक्ष बहुत ही सुन्दर और एक योजन ऊंचा है। उसमें सदा फूल और फल लगे रहते हैं। सिद्ध और चारण पुरुष उसका सदा सेवन करते हैं। वहाँ के पुरुष श्‍वेत वर्ण के होते हैं। वे तेजस्वी और महान् बलवान् हुआ करते हैं। वहाँ की स्त्रियां कुमुद-पुष्‍प के समान गौर वर्ण वाली, सुन्दरी तथा देखने में प्रिय होती हैं। उनकी अंगकान्ति एवं वर्ण चन्द्रमा के समान हैं। उनके मुख पूर्ण चन्द्र के समान मनोहर होते हैं। उनका एक-एक अंग चन्द्ररश्मियों के समान शीतल प्रतीत होता है। वे नृत्य और गीत की कला में कुशल होती हैं। भरतश्रेष्‍ठ! वहाँ के लोगों की आयु दस हजार वर्ष की होती है। वे कालाम्र वृक्ष का रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

    नील‍गिरि के दक्षिण और निषध के उत्तर सुदर्शन नामक एक विशाल जामुन का वृक्ष है, जो सदा स्थिर रहने वाला है। वह समस्त मनोवाञ्छित फलों को देने वाला, पवित्र तथा सिद्धों और चरणों का आश्रय है। उसी के नाम पर यह सनातन प्रदेश जम्बूद्वीप के नाम से विख्‍यात है। भरतश्रेष्‍ठ! मनुजेश्‍वर! उस वृक्षराज की ऊंचाई ग्यारह सो योजन है। वह (ऊंचाई) स्वर्ग लोक को स्पर्श करती हुई-सी प्रतीत होती है। उसके फलों में जब रस आ जाता है अर्थात् जब वे प‍क जाते हैं, तब अपने-आप टूटकर गिर जाते हैं। उन फलों की लंबाई ढाई हजार अरत्नि मानी गयी है। राजन्! वे फल इस पृथ्‍वी पर गिरते समय भारी धमाके-की आवाज करते हैं और उस भूतल पर सुवर्णसदृश रस बहाया करते हैं।

    जनेश्‍वर! उस जम्बू के फलों का रस नदी के रूप में परिणत होकर मेरुगिरि की प्रदक्षिणा करता हुआ उत्तर कुरु वर्ष मे पहुँच जाता हैं। राजन्! फलों के उस रस का पान कर लेने पर वहाँ के निवासियों के मन में पूर्ण शान्ति और प्रसन्नता रहती है। उन्हें पिपासा अथवा वृद्धावस्था कभी नहीं सताती है। उस जम्बू नदी से जाम्बूनद नामक सुवर्ण प्रकट होता है, जो देवताओं का आभूषण है। वह इन्द्रगोप के समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है। वहाँ के लोग प्रात:कालीन सूर्य के समान कान्तिमान् होते हैं। माल्यवान् पर्वत के शिखर पर सदा अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते हैं।

     भरतश्रेष्‍ठ! वे वहाँ संवर्तक एवं कालाग्नि के नाम से प्रसिद्ध हैं। माल्यवान् के शिखर पर पूर्व-पूर्व की ओर नदी प्रवाहित होती हैं। माल्यवान् का विस्तार पांच-छ: हजार योजन है। वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिमान् मानव उत्पन्न होते हैं। वे सब लोग ब्रह्मलोक से नीचे आये हुए पुण्‍यात्मा मनुष्‍य हैं। उन सबका सबके प्रति साधुतापूर्ण बर्ताव होता है। वे ऊर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होते और कठोर तपस्या करते हैं। फिर समस्त प्राणियों की रक्षा के लिये सूर्यलोक में प्रवेश कर जाते हैं। उनमें से छाछठ हजार मनुष्‍य भगवान् सूर्य को चारों ओर-से घेरकर अरुण के आगे-आगे चलते हैं। वे छाछठ हजार वर्षों तक ही सूर्यदेव के ताप में तपकर अन्त में चन्द्रमण्‍डल में प्रवेश कर जाते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व में माल्यवान् का वर्णन विषयक सातवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)

आठवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्‍टम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“रमणक, हिरण्‍यक, श्रृंगवान् पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन”

   धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! तुम सभी वर्षों और पर्वतों के नाम बताओ और जो उन पर्वतों पर निवास करने वाले हैं उनकी स्थिति का भी यथावत् वर्णन करो। 
  संजय बोले ;- राजन्! श्‍वेत के दक्षिण और निषध के उत्तर रमणक नामक वर्ष हैं। वहाँ जो मनुष्‍य जन्म लेते हैं, वे उत्तम कुल से युक्त और देखने में अत्यन्त प्रिय होते हैं। वहाँ के सब मनुष्‍य शत्रुओं से रहित होते हैं। महाराज! रमणकवर्ष के मनुष्‍य सदा प्रसन्नचित्त होकर साढे़ ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। नील के दक्षिण और निषध के उत्तर हिरण्‍यवर्ष है, जहाँ हैरण्‍यवती नदी बहती हैं। महाराज! वहीं विहंगों में उत्तम पक्षिराज गरुड़ निवास करते हैं। वहाँ के सब मनुष्‍य यक्षों की उपासना करने वाले, धनवान, प्रियदर्शन, महाबली तथा प्रसन्नचित्त होते हैं। जनेश्‍वर! वहाँ के लोग साढे़ बारह हजार वर्षों की आयु तक जीवित रहते हैं। मनुजेश्‍वर! वहाँ श्रृंगवान पर्वत के तीन ही विचित्र शिखर हैं। उनमें से एक मणिमय है, दूसरा अद्भुत सुवर्णमय है तथा तीसरा अनेक भवनों से सुशोभित एवं सर्वरत्नमय है। वहाँ स्वयंप्रभा नाम वाली शाण्डिली देवी नित्य निवास करती हैं।
      जनेश्‍वर! श्रृंगवान पर्वत के उत्तर समुद्र के निकट ऐरावत नामक वर्ष है। अत: इन शिखरों से संयुक्त यह वर्ष अन्य वर्षों की अपेक्षा उत्तम हैं। वहाँ सूर्यदेव ताप नहीं देते हैं और न वहाँ के मनुष्‍य बूढे़ ही होते हैं। नक्षत्रों सहित चन्द्रमा वहाँ ज्योतिर्मय होकर सब ओर व्याप्त-सा रहता है। वहाँ के मनुष्‍य कमल की-सी कान्ति तथा वर्ण वाले होते हैं। उनके विशाल नेत्र कमलदल के समान सुशोभित होते हैं। वहाँ के मनुष्‍यों के शरीर से वि‍कसित कमलदलों के समान सुगन्ध प्रकट होती है। उनके शरीर से पसीने नहीं निकलते। उनकी सुगन्ध प्रिय लगती है। वे आहार (भूख-प्यास से) रहित और जितेन्द्रिय होते हैं। वे सबके सब देवलोक से च्युत (होकर वहाँ शेष पुण्‍य-का उपभोग करते) हैं! उनमें रजोगुण का सर्वथा अभाव होता है। भरतभूषण जनेश्‍वर! वे तेरह हजार वर्षों की आयु तक जीवित रहते हैं। क्षीरसागर के उत्तर तट पर भगवान् विष्‍णु निवास करते हैं, वे वहाँ सुवर्णमय रथ पर विराजमान हैं। उस रथ में आठ पहिये लगे हैं। उसका वेग मन के समान है। वह समस्त भूतों से युक्त, अग्नि के समान कान्तिमान, परम तेजस्वी तथा जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित है।
    भरतश्रेष्ठ! वे सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी भगवान् विष्‍णु ही समस्त प्राणियों का संकोच और विस्तार करते हैं। वे ही करने वाले और कराने वाले हैं। राजन्! पृथ्‍वी, जन, तेज, वायु और आकाश सब कुछ वे ही हैं। वे ही समस्त प्राणियों के लिये यज्ञस्वरूप हैं। अग्नि उनका मुख है। वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज जनमेजय! संजय के ऐसा कहने पर महामना धृतराष्‍ट्र अपने पुत्रों के लिये चिन्ता करने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार करने के पश्‍चात महातेजस्वी धृतराष्‍ट्र ने पुन: इस प्रकार कहा- ‘सूतपुत्र संजय! इसमें संदेह नहीं कि काल ही सम्पूर्ण जगत् का संहार करता हैं। फिर वहीं सबकी सृष्टि करता है। यहाँ कुछ भी सदा स्थिर रहने वाला नहीं है। भगवान् नर और नारायण समस्त प्राणियों के सुदृढ़ एवं सर्वज्ञ हैं। देवता उन्हें वैकुण्ठ और मनुष्‍य उन्हें शक्तिशाली विष्‍णु कहते हैं’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍ड-विनिर्माणपर्व में धृतराष्‍ट्रवाक्य-विषयक आठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)

नवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

“भारतवर्ष की नदियों, देशों तथा जनपदों के नाम और भूमि का महत्त्व”

   धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! यह जो भारतवर्ष है, जिसमें यह राजाओं की विशालवाहिनी युद्ध के लिये एकत्र हुई है, जहाँ का साम्राज्य प्राप्त करने के लिये मेरा पुत्र दुर्योधन ललचाया हुआ है, जिसे पाने के लिये पाण्‍डवों के मन में भी बड़ी इच्छा है तथा जिसके प्रति मेरा मन भी बहुत आसक्त हैं, उस भारतवर्ष का तुम यथार्थरूप से वर्णन करो; क्योंकि इस कार्य के लिये मेरी दृष्टि में तुम्हीं सबसे अधिक बुद्धिमान् हो।
    संजय ने कहा ;- राजन्! आप मेरी बात सुनिये। पाण्‍डवों को इस भारतवर्ष के साम्राज्य का लोभ नहीं है। दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ही उसके लिये बहुत लुभाये हुए हैं। विभिन्न जनपदों के स्वामी जो दूसरे-दूसरे क्षत्रिय हैं, वे भी इस भारतवर्ष के प्रति गृध्र-दृष्टि लगाये हुए एक-दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं कर पाते हैं।
   भारत! अब मैं यहाँ आपसे उस भारतवर्ष का वर्णन करूंगा, जो इन्द्रदेव और वैवस्वत मनु का प्रिय देश है। राजन्! दुर्धर्ष महाराज! वेननन्दन पृथु, महात्मा इक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरषि, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, उशीनर-पुत्र शिबि, ॠषभ, इलानन्दन, पुरूरवा, राजा नृग, कुशिक, महात्मा गाधि, सोमक, दिलीप तथा अन्य जो महाबली क्षत्रिय नरेश हुए हैं, उन सभी को भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है। शत्रुदमन नरेश! मैं उसी भारतवर्ष का यथावत् वर्णन कर रहा हूँ। आप मुझसे जो कुछ पूछते या जानना चाहते हैं, वह सब बताता हूं, सुनिये। इस भारतवर्ष में महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान्, ॠक्षवान्, विन्घ्‍य और पारियात्र- ये सात कुल पर्वत कहे गये हैं।
    राजन्! इनके आसपास और भी हजारों अविज्ञात पर्वत हैं, जो रत्न आदि सार वस्तुओं से यु‍क्त, विस्तृ‍त और विचित्र शिखरों से सुशोभित हैं। इनसे भिन्न और भी छोटे-छोटे अ‍परिचित पर्वत हैं, जो छोटे-छोटे प्राणियों के जीवन-निर्वाह का आश्रय बने हुए हैं। प्रभो! कुरुनन्दन! इस भारतवर्ष में आर्य, म्लेच्छ तथा संकर जाति के मनुष्‍य निवास करते हैं। वे लोग यहाँ की जिन बड़ी-बड़ी नदियों के जल पीते हैं, उनके नाम बतात हुं, सुनिये। गंगा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, महानदी, शतद्रु, चन्द्रभागा, महानदी यमुना, दृषद्वती, विपाशा, विपापा, स्थूलबालु का, वेत्रवती, कृष्‍णवेणा, इरावती, वितस्ता, पयोष्णी, देविका, वेदस्मृता, वेदवत्ती, त्रिदिवा, इक्षुला, कृमि, करीषिणी, चित्रवाहा तथा चित्रसेना नदी। गोमती, धूतपापा, महानदी वन्दना, कौशिकी, त्रिदिवा, कृत्या, निचिता, लोहितारणी, रहस्या, शतकुम्भा, सरयू, चर्मण्वती, वेत्रवती, हस्तिसोमा, दिक, शरावती, पयोष्‍णी, वेणा, भीमरथी, कावेरी, चुलुका, वाणी और शतबला। नरेश्‍वर! नीवारा, अहिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कुण्‍डली, सिन्धु, राजनी, पुरमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा (नीरा), भीमा, ओघवती, पाशाशिनी, पापहरा, महेन्द्रा, पाटलावती, करीषिणी, असिक्नी, महानदी कुशचीरा, मकरी, प्रवरा, मेना, हेमा, घृतवती, पुरावती, अनुष्णा, शैब्या, कापी, सदानीरा, अधृष्‍या और महानदी कुशधारा।
     सदाकान्ता, शिवा, वीरमती, वस्त्रा, सुवस्त्रा, गौरी, कम्पना, हिरण्‍वती, वरा, वीरकरा, महानदी पंचमी, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वमित्रा, कपिञ्जला, उपेन्द्रा, बहुला, कुबीरा, अम्बुवाहिनी, विनदी, पिञ्जला, वेणा, महानदी तुंगवेणा, विदिशा, कृष्‍णवेणा, ताम्रा, कपिला, खलु, सुवामा, वेदाश्वा, हरिश्रावा, महापगा, शीघ्रा, पिच्छिला, भारद्वाजी नदी, कौशिकी नदी, शोणा, बाहुदा, चन्‍द्रमा, दुर्गा, चित्रशिला, ब्रह्मवेध्या, वृहद्वती, यवक्षा, रोही तथा जाम्बूनदी। सुनसा, तमसा, दासी, वसा, वराणसी, नीला, धृतवती, महानदी पर्णाशा, मानवी, वृषभा, ब्रह्ममेध्‍या, बृहद्वनि, राजन्! ये तथा और भी बहुत-सी नदियां हैं। भारत! सदा निरामया, कृष्‍णा, मन्दगा, मंदवाहिनी, ब्राह्मणी, महागौरी, दुर्गा, चित्रोत्‍पला, चित्ररथा, मञ्जुला, वाहिनी, मंदाकिनी, वैतरणी, महानदी कोषा, शुक्तिमती, अनंगा, वृषा, लोहित्‍या, करतोया, वृषका, कुमारी, ऋषिकुल्‍या, मारिषा, सरस्‍वती, मंदाकिनी, सुपुण्या, सर्वा तथा गंगा, भारत! इन नदियों के जल भारतवासी पीते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 37-76 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! पूर्वोक्‍त सभी नदियां सम्‍पूर्ण विश्व की माताएं हैं, वे सबकी स‍ब महान् पुण्‍य फल देने वाली हैं। इनके सिवा सैकड़ों और हजारों ऐसी नदियां हैं,जो लोगों के परिचय में नहीं आयी हैं। राजन्! जहाँ तक मेरी स्‍मरण शक्ति काम दे सकी है, उसके अनुसार मैंने इन नदियों के नाम बताये हैं। इसके बाद अब मैं भारतवर्ष के जनपदों का वर्णन करता हूं, सुनिये। भारत में ये कुरु-पाञ्चाल, शाल्व, माद्रेय-जांगल, शूरसेन, पुलिंद, बो‍ध, माल, मत्‍स्‍य, कुशल, सौशल्य, कुंति, कांति, कोसल, चेदि, मत्‍स्‍य, करूष, भोज, सिंधु-पुलिंद, उत्तमाश्व, दशार्ण, मेकल, उत्‍कल, पंचाल, कोसल, नैकपृष्‍ठ, धुरंधर, गोधा, मद्रकलिंग, काशि, अपरकाशि, जठर, कुक्‍कुर, दशार्ण, कुंति, अवन्त, अपरकुंति, गोमंत, मन्‍दक, सण्‍ड, विदर्भ, रूपवाहिक, अश्‍मक, पाण्डुराष्ट्र, गोपराष्‍ट्र, करीत, अधिराज्‍य, कुशाद्य तथा मल्‍लराष्‍ट्र।
     वारवास्य, अयवाह, चक्र, चक्राति, शक, विदेह, मगध, स्वक्ष, मलज, विजय, अंग, वंग, कलिंग, यकृल्लोभा, मल्ल, सुदेष्‍ण, प्रह्लाद, माहिक, शशिक, बाह्लिक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, पंचाल, चर्ममण्‍डल, अटवीशिखर, मेरुभूत, उपावृत्त, अनुपावृत्त, स्वराष्ट्र, केकय, कुन्दापरान्त, माहेय, कक्ष, सामुद्रनिष्कुट, बहुसंख्‍यक अन्ध्र, अ‍न्तर्गिरि, बहिर्गिरि, अंगमलज, मगध, मानवर्जक समन्तर प्रावृषेय तथा भार्गव। पुण्‍ड्र, भर्ग, किरात, सुदृष्ट, यामुन, शक, निषाद, निषध, आनर्त, नैर्ऋत, दुर्गाल, प्रतिमत्स्य, कुन्तल, कोसल, तीरग्रह, शूरसेन, ईजिक, कन्यकागुण, तिलभार, मसीर, मधुमान् , सुकन्दक, काश्‍मीर, सिन्धुसोवीर, गान्धार, दर्शक, अभीसार, उलूत, शैवाल, बाह्लिक, दार्वी, वानव, दर्व, वातज, आमरथ, उरग, बहूवाद्य, सुदाम, सुमल्लिक, वध्र, करीषक, कुलिन्द, उपत्यक, वनायु, दश, पार्श्वरोम, कुशबिन्दु, कच्छ, गोपालकक्ष, जांगल, कुरुवर्ण, किरात, बर्बर, सिद्ध, वैदेह, ताम्रलिप्तक, ओण्‍ड्र, म्लेच्छ, सैसिरिध्र और पर्वतीय इत्यादि।
     भरतश्रेष्ठ! अब जो दक्षिण दिशा के अन्यान्य जनपद हैं उनका वर्णन सुनिये- द्रविड़, केरल, प्राच्य, भूषिक, वनवासिक, कर्णाटक, महिषक, विकल्प, मूषक, झिल्लिक, कुन्तल, सौहृद, नमकानन, कौकुट्टक, चोल, कोंकण, मालव, नर, समंग, करक, कुकूर, अंगार, मारिष, ध्‍वजिनी, उत्सव-संकेत, त्रिगर्त, शाल्वसेनि, व्यूक, कोकबक, प्रोष्‍ठ, समवेगवश, विन्ध्यचुलिका, पुलिन्द, वल्कल, मालव, बल्लव, अपरबल्लव, कुलिन्द, कालद, कुण्‍डल, करट, मूषक, स्तनवाल, सनीप, घट, सृंजय, अठिद, पाशिवाट, तनय, सुनय, ऋषिक, विदभ, काक, तंगण, परतङगण, उत्तर और क्रूर अपरम्लेच्छ, यवन, चीन तथा जहाँ भयानक म्लेच्छ जाति के लोग निवास करते हैं, वह काम्बोज। सकृद्ग्रह, कुलत्थ, हूण, पारसिक, रमण-चीन, दशमालिक, क्षत्रियों के उपनिवेश, वैश्‍यों और शूद्रों के जनपद, शूद्र, आभीर, दरद, काश्‍मीर, पशु, खाशीर, अन्तचार, पह्लव, गिरिगहवर, आत्रेय, भरद्वाज, स्तनपोषिक, प्रोषक, कलिङग, किरात जातियों के जनपद, तोमर, हन्यमान् और करभञ्जक इ‍त्यादि।
     राजन्! ये तथा और भी पूर्व और उत्तर दिशा के जनपद एवं देश मैंने संक्षेप से बताये हैं। अपने गुण और बल के अनुसार यदि अच्छी तरह इस भूमिका पालन किया जाय तो यह कामनाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनु बनकर धर्म, अर्थ और काम तीनों के महान् फल की प्राप्ति कराती हैं। इसीलिये धर्म और अर्थ के काम में निपुण शूरवीर नरेश इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं और धन के लोभ में आसक्त हो वेगपूर्वक युद्ध में जाकर अपने प्राणों का परित्याग कर देते हैं। देवशरीरधारी प्राणियों के लिये और मानव शरीरधारी जीवों के लिये यथेष्‍ट फल देने वाली यह भूमि उनका परम आश्रय होती हैं। भरतश्रेष्ठ! जैसे कु्त्ते मांस के टुकडे़ के लिये परस्पर लड़ते और एक दूसरे को नोचते हैं, उसी प्रकार राजा लोग इस वसुधा को भोगने की इच्छा रखकर आपस में लड़ते और लूट-पात करते हैं; किंतु आज तक किसी को अपनी कामनाओं से तृप्ति नहीं हुई। भारत! इस अतृप्ति के ही कारण कौरव और पाण्डव साम, दान, भेद और दण्‍ड के द्वारा सम्पूर्ण वसुधा पर अधिकार पाने के लिये यत्न करते हैं। नरश्रेष्ठ! यदि भूमि के यथार्थ स्वरूप का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान हो जाय तो यह परमात्मा से अभिन्न होने के कारण प्राणियों के लिये स्वयं ही पिता, भ्राता, पुत्र, आकाशवर्ती पुण्‍यलोक तथा स्वर्ग भी बन जाती हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍ड-विनिर्माणपर्व में भारत की नदियों और देश आदि के नाम का वर्णनविषयक नवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)

दसवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“भारतवर्ष में युगों के अनुसार मनुष्‍यों की आयु तथा गुणों का निरूपण”

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! तुम भारतवर्ष और हैमवत वर्ष के लोगों के आयु का प्रमाण, बल तथा भूत, भविष्‍य एवं वर्तमान शुभाशुभ फल बताओ। साथ ही हरिवर्ष का भी विस्तारपूर्वक वर्णन करो।
    संजय ने कहा ;- कुरुकुल की वृद्धि करने वाले भरतश्रेष्‍ठ! भारतवर्ष में चार यु्ग होते हैं- सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। प्रभो! पहले सत्ययुग होता है, फिर त्रेतायुग आता है, उसके बाद द्वापरयुग बीतने पर कलियुग की प्र‍वृत्ति होती हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! नृपप्रवर! सत्ययुग के लोगों की आयु का मान चार हजार वर्ष हैं।
    मनुजेश्वर! त्रेता के मनुष्‍यों की आयु तीन हजार वर्षों की बतायी गयी हैं। द्वापर के लोगों की आयु दो हजार वर्षों की है, जो इस समय भूतल पर विद्यमान है। भरतश्रेष्ठ! इस कलियुग में आयु प्रमाण की कोई मर्यादा नहीं हैं। यहाँ गर्भ के बच्चे भी मरते हैं और नवजात शिशु भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सत्ययुग में महाबली, महान् सत्त्वगुणसम्पन्न, बुद्धिमान्, धनवान् और प्रियदर्शन मनुष्‍य उत्पन्न होते हैं ओर सैकड़ों तथा हजारों संतानों को जन्म देते हैं, उस समय प्रात: तपस्या के धनी महर्षिगण जन्म लेते हैं।
     राजन्! इसी प्रकार त्रेतायुग में समस्त भूमण्‍डल के क्षत्रिय अत्यन्त उत्साही, महान् मनस्वी, धर्मात्मा, सत्यवादी, प्रियदर्शन, सुन्दर शरीरधारी, महापराक्रमी, धनुर्धर, वर पाने के योग्य, युद्ध में शूरशिरोमणि तथा मानवों की रक्षा करने वाले होते हैं। द्वापर में सभी वर्णों के लोग उत्पन्न होते हैं एवं वे सदा परम उत्साही, पराक्रमी तथा एक दूसरे को जीतने के इच्छुक होते हैं। भरतनन्दन! कलियुग में जन्म लेने वाले लोग प्राय: अल्पतेजस्वी, क्रोधी, लोभी तथा असत्यवादी होते हैं।
    भारत! कलियुग के प्राणियों में ईर्ष्‍या, मान, क्रोध, माया, दोष-दृष्टि, राग तथा लोभ आदि दोष रहते हैं। नरेश्‍वर! इस द्वापर में भी गुणों की न्यूतना होती हैं। भारतवर्ष की अपेक्षा हैमवत तथा हरिवर्ष में उत्तरोत्तर अधिक गुण हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍ड-विनिर्माणपर्व में भारतवर्ष में सत्ययुग आदि के अनुसार आयु का निरूपणविषयक दसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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