सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the 11 chapter to the 15 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भूमि पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“शाकद्वीप का वर्णन”

   धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! तुमने यहाँ जम्बूखण्‍ड का यथावत् वर्ण‍न किया है। अब तुम इसके विस्तार और परिमाण को ठीक-ठीक बताओ। संजय! समुद्र के सम्पूर्ण परिमाण को भी अच्छी तरह समझाकर कहो। इसके बाद मुझसे शाकद्वीप और कुशद्वीप का वर्णन करो। गवल्गणकुमार संजय! इसी प्रकार शाल्मलिद्वीप, क्रौंचद्वीप तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं राहु से सम्बन्ध रखने वाली सब बातों का यथार्थ रूप से प्रतिदिन करो।

   संजय बोले ;- राजन्! बहुत-से द्वीप हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है। अब मैं आपकी आज्ञा के अनुसार सात द्वीपों का तथा चन्द्रमा, सूर्य और राहु का भी वर्णन करूंगा। राजन्! जम्बूद्वीप का विस्तार पूरे 18600 योजन हैं। इसके चारों ओर जो खारे पानी का समुद्र है, उसका विस्तार जम्बूद्वीप की अपेक्षा दूना माना गया है। उसके तट पर तथा टापू में ब‍हुत-से देश और जनपद हैं। उसके भीतर नाना प्रकार के मणि और मूंगे हैं, जो उसकी विचित्रता सूचित करते हैं। अनेक प्रकार के धातुओं से अद्भुत प्रतीत होने वाले बहुसंख्‍यक पर्वत उस सागर की शोभा बढा़ते हैं। सिद्धों तथा चारणों से भरा हुआ वह लवणसमुद्र सब ओर से मण्‍डलाकार हैं। राजन्! अब मैं शाकद्वीप का यथावत् वर्णन आरम्भ करता हूँ। कुरुनन्दन! मेरे इस न्यायोचित्त कथन को आप ध्‍यान देकर सुनें।

    महाराज! नरेश्‍वर! वह द्वीप विस्तार की दृष्टि से जम्बूद्वीप के परिमाण से दूना है। भरतश्रेष्‍ठ! उसका समुद्र भी विभागपूर्वक उससे दूना ही हैं। भरतश्रेष्‍ठ! उस समुद्र का नाम क्षीरसागर है, जिसने उक्त द्वीप को सब ओर से घेर रखा है। यहाँ पवित्र जनपद हैं। वहाँ निवास करने वाले लोगों की मृत्यु नहीं होती। फिर वहाँ दुर्भिक्ष तो हो ही कैसे सकता है? उस द्वीप के‍ निवासी क्षमाशील और तेजस्वी होते हैं। भरतश्रेष्ठ महाराज! इस प्रकार शाकद्वीप का संक्षेप से यथावत् वर्णन किया गया है। अब और आप से क्या कहूं?

   धृतराष्ट्र बोले ;- महाबुद्धिमान् संजय! तुमने यहाँ शाकद्वीप का संक्षिप्त रूप से यथावत् वर्णन किया है। अब उसका कुछ विस्तार के साथ यथार्थ परिचय दो। 

   संजय बोले ;- राजन्! शाकद्वीप में भी मणियों से विभूषित सात पर्वत है। वहाँ रत्नों की बहुत-सी खानें तथा नदियां भी हैं। उनके नाम मुझसे सुनिये। जनेश्‍वर! वहाँ का सब कुछ परम पवित्र और अत्यन्त गुणकारी हैं। वहाँ का प्रधान पर्वत है मेरु, जो देवर्षियों तथा गन्धर्वों से सेवित हैं। महाराज! दूसरे पर्वत का नाम मलय है, जो पूर्व से पश्चिम की ओर फैला हुआ है। मेघ वहीं से उत्पन्न होते हैं, फिर वे सब ओर फैलकर जल की वर्षा करने में समर्थ हैं।

    कुरुनन्दन! उसके बाद जलधार नामक महान् पर्वत हैं। जनेश्‍वर! इन्द्र वहीं से सदा उत्तम जल ग्रहण करते हैं। इसीलिये वर्षाकाल में वे यथेष्‍ट जल बरसाने में समर्थ होते हैं। उसी द्वीप में उच्चतम रैवतक पर्वत है, जहाँ आकाश में रैवती नामक नक्षत्र नित्य प्रतिष्ठित है। यह ब्रह्मा जी का रचा हुआ विधान है। राजेन्द्र! उसके उत्तर भाग में श्‍याम नामक महान् पर्वत है, जो नूतन मेघ के समान श्‍याम शोभा से युक्त हैं। उसकी ऊंचाई बहुत है। उसका कान्तिमान् कलेवर परम उज्ज्वल है। जनपदेश्‍वर! वहाँ रहने से ही वहाँ की प्रजा श्‍यामता को प्राप्त हुई है।

    धृतराष्ट्र बोले ;- सूतपुत्र संजय! यह तो तुमने आज मुझसे महान् संशय की बात कही है। भला, वहाँ रहने मात्र से प्रजा श्‍यामता को कैसे प्राप्त हो गयी?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

   संजय ने कहा ;- महाराज कुरुनन्दन! सम्पूर्ण द्वीपों में गौर, कृष्‍ण तथा इन दोनों वर्णों का सम्मिश्रण देखा जाता है। भारत! यह पर्वत जिस कारण से श्‍याम होकर दूसरों में भी श्‍यामता उत्पन्न करने वाला हुआ, वह आपको बताता हूँ। यहाँ भगवान श्रीकृष्‍ण निवास करते हैं, अत: उन्हीं की कान्ति से यह (स्वयं भी) श्‍यामता को प्राप्त हुआ है (और अपने समीप रहने वाली प्रजा में भी श्‍यामता उत्पन्न कर देता है)। कौरवराज! श्‍यामगिरि के बाद बहुत ऊंचा दुर्ग शैल है। उसके बाद केसर पर्वत है, जहाँ से चली हुई वायु केसर की सुगन्ध लिये बहती है। इन सब पर्वतों का विस्तार दूना होता गया है।

    कुरुनन्दन! मनीषी पुरुषों ने उन पर्वतों के समीप सात वर्ष बताये हैं। महामेरू पर्वत के समीप महाकाश वर्ष है, जलद या मलय के निकट कुमुदोत्तर है। महाराज! जलधार गिरि का पार्श्‍ववर्ती वर्ष सुकुमार बताया गया है। रैवतक पर्वत का कुमारवर्ष तथा श्‍यामगिरि का मणिकाञ्चन वर्ष है। इसी प्रकार केसर के समीपवर्ती वर्ष को मोदा की कहते हैं। उसके आगे महापुमान नामक एक पर्वत है। वह उस द्वीप की लंबाई और चौड़ाई सबको घेरकर खड़ा है। महाराज! उसके बीच में शाक नामक एक बड़ा भारी वृक्ष है, जो जम्बूद्वीप के समान ही विशाल है। महाराज! वहाँ की प्रजा सदा उस शाक वृक्ष के ही आश्रित रहती है। वहाँ बड़े पवित्र जनपद है। उस द्वीप में भगवान् शंकर की आराधना की जाती है।

    राजन्! भरतनन्दन! वहाँ सिद्ध, चारण और देवता जाते है। वहाँ के चारों वर्णों की प्रजा अत्यन्त धार्मिक होती है। सभी वर्ण के लोग वहाँ अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्म का पालन करते हैं। वहाँ कोई चोर नहीं दिखायी देता। महाराज! उस द्वीप के निवासी दीर्घायु तथा जरा और मृत्यु से रहित होते हैं। जैसे वर्षाॠतु में समुद्रगामिनी नदियां बढ़ जाती हैं, उसी प्रकार वहाँ की समस्त प्रजा सदा वृद्धि को प्राप्त होती रहती है। उस द्वीप में अनेक पवित्र जल वाली नदियां बहती हैं। वहाँ गंगा भी अनेक धाराओं में विभक्त देखी जाती है। कुरुनन्दन! भरतश्रेष्‍ठ! उस द्वीप में सुकुमारी, कुमारी, शीताशी, बेणिका, महानदी, मणिजला तथा चक्षुर्वर्धनिका आदि पवित्र जल वाली नदियां बहती हैं। वहाँ लाखों ऐसी नदियां हैं, जिनसे जल लेकर इन्द्र वर्षा करते हैं। उनके नाम और परिमाण की संख्‍या बताना कठिन ही नहीं, असम्भव हैं। वे सभी श्रेष्‍ठ नदियां परम पुण्‍यमयी हैं। उस द्वीप में लोकसम्मानित चार पवित्र जनपद हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मंग, मशक, मानस तथा मन्दग।

    नरेश्‍वर! उनमें से मंग जनपद में अधिकतर ब्राह्मण निवास करते हैं। वे सबके सब अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहते हैं। महाराज! मशक जनपद में सम्पूर्ण कामनाओं के देने वाले धर्मात्मा क्षत्रिय निवास करते हैं। मानस जनपद के निवासी वैश्‍यवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते हैं। वे सर्वभोगसम्पन्न, शूरवीर, धर्म और अर्थ को समझने वाले एवं दृढ़निश्रयी होते हैं। मन्दग जनपद में शूद्र रहते हैं। वे भी धर्मात्मा होते हैं। राजेन्द्र! वहाँ न कोई राजा है, न दण्‍ड है और न दण्‍ड देने वाला है। वहाँ के लोग धर्म के ज्ञाता हैं और स्वधर्मपालन के ही प्रभाव से एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। महाराज! उस महान् तेजोमय शाकद्वीप के सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है और इतना ही सुनना चाहिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत भूमिपर्व में शाकद्वीपवर्णन-विषयक ग्यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (भूमि पर्व)

बारहवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“कुश, क्रौञ्च और पुष्‍कर आदि द्वीपों का तथा राहु, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन”

   संजय बोले ;- महाराज! कुरुनन्दन! इसके बाद वाले द्वीपों के विषय में जो बातें सुनी जाती हैं, वे इस प्रकार हैं; उन्हें आप मुझसे सुनिये। क्षीरोद समुद्र के बाद घृतोद समुद्र है। फिर दधिमण्‍डोदक समुद्र है। इनके बाद सुरोद समुद्र है, फिर मीठे पानी का सागर है। महाराज! इन समुद्रों से घिरे हुए सभी द्वीप और पर्वत उत्तरोत्तर दुगुने विस्तार वाले हैं। नरेश्‍वर! इनमें से मध्‍यम द्वीप में मन:शिला (मैनसिल) का एक बहुत बड़ा पर्वत है; जो ‘गौर’ नाम से विख्‍यात है। उसके पश्चिम में ‘कृष्‍ण’ पर्वत है, जो नारायण को विशेष प्रिय है। स्वयं भगवान् केशव ही वहाँ दिव्य रत्नों को रखते और उनकी रक्षा करते हैं। वे वहाँ की प्रजा पर प्रसन्न हुए थे, इसलिये उनको सुख पहुँचाने की व्यवस्था उन्होंने स्वयं की है। नरेश्‍वर! कुशद्वीप में कुशों का एक बहुत बड़ा झाड़ है, जिसकी वहाँ के जनपदों में रहने वाले लोग पूजा करते हैं। उसी प्रकार शाल्मलि द्वीप में शाल्मलि (सेंमर) वृक्ष की पूजा की जाती है। क्रौञ्चद्वीप में महाक्रौञ्च नामक महान् पर्वत है, जो रत्न राशि की खान है।

     महाराज! वहाँ चारों वर्णों के लोग सदा उसी की पूजा करते हैं। राजन्! वहाँ गोमन्त नामक विशाल पर्वत है, जो सम्पूर्ण धातुओं से सम्पन्न है। वहाँ मोक्ष की इच्छा रखने वाले उपासकों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए सबके स्वामी श्रीमान् कमलनयन भगवान् नारायण नित्य निवास करते हैं। राजेन्द्र! कुशद्वीप में सुधामा नाम से प्रसिद्ध दूसरा सुवर्णमय पर्वत हैं, जो मूंगों से भरा हुआ ओर दुर्गम है। कौरव्य! वहीं परम कान्तिमान् कुमुद नामक तीसरा पर्वत है। चौथा पुष्‍पवान्, पांचवां कुशेशय और छठा हरिगिरि है। ये छ: कुशद्वीप के श्रेष्‍ठ पर्वत हैं। इन पर्वतों के बीच का विस्तार सब ओर से उत्तरोत्तर दूना होता गया है। कुशद्वीप के पहले वर्ष का नाम उद्भिद् है। दूसरे का नाम वेणमण्‍डल हैं। तीसरे का नाम सुरथाकार, चौथे का कम्बल, पांचवे का धृतिमान् और छठे वर्ष का नाम प्रभाकर है। सांतवां वर्ष कपिल कहलाता है। ये सात वर्ष समुदाय है।

    पृथ्‍वीपते! इन सबमें देवता, गन्धर्व तथा मनुष्‍य सानन्द बिहार करते हैं। उनमें से किसी की मृत्यु नहीं होती है। नरेश्‍वर! वहाँ लुटेरे अथवा म्लेच्छ जाति के लोग नहीं है। मनुजेश्‍वर! इन वर्षों के सभी लोग प्राय: गोरे और सुकुमार होते हैं। अब मैं शेष सम्पूर्ण द्वीपों के विषय में बताता हूँ। महाराज! मैंने जैसा सुन रखा है, वैसा ही सुनाऊंगा। आप शान्तचित्त होकर सुनिये। क्रौञ्चद्वीप में क्रौञ्च नामक विशाल पर्वत है। राजन्! क्रौञ्च के बाद वामन पर्वत है, वामन के बाद अन्धकार और अन्धकार के बाद मैनाक नामक श्रेष्‍ठ पर्वत है। प्रभो! मैनाक के बाद उत्तम गोविन्द गि‍रि है। गोविन्द के बाद निबिड नामक पर्वत है। कुरुवंश की वृद्धि करने वाले महाराज! इन पर्वतों के बीच का विस्तार उत्तरोत्तर दूना होता गया है। उनमें जो देश बसे हुए हैं, उनका परिचय देता हूं; सुनिये। क्रौञ्चपर्वत के नि‍कट कुशल नामक देश है। वामन पर्वत के पास मनोनुग देश है। कुरुकुलश्रेष्ठ! मनोनुग के बाद उष्‍ण देश आता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)

    उष्‍ण के बाद प्रावरक, प्रावरक के बाद अन्धकारक और अन्धकारक के बाद उत्तम मुनिदेश बताया गया है। मुनिदेश के बाद जो देश है, उसे दुन्दुभिस्वन कहते हैं। वह सिद्धों और चरणों से भरा हुआ है। जनेश्‍वर! वहाँ के लोग प्राय: गोरे होते हैं। महाराज! इन सभी देशों में देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। पुष्करद्वीप में पुष्‍कर नामक पर्वत है, जो मणियों तथा रत्नों से भरा हुआ है। वहाँ स्वयं प्रजापति भगवान् ब्रह्मा नित्य निवास करते हैं। जनेश्‍वर! सम्पूर्ण देवता और महर्षि मनोनुकुल वचनों द्वारा प्रतिदिन उनकी पूजा करते हुए सदा उन्हीं की उपासना में लगे रहते हैं। जम्बूद्वीप से अनेक प्रकार के रत्न अन्यान्य सब द्वीपों में वहाँ की प्रजाओं के उपयोग के लिये भेज जाते हैं। कुरुश्रेष्ठ! ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रियसंयम के प्रभाव से उन सब द्वीपों की प्रजाओं के आरोग्य और आयु का प्रमाण जम्बूद्वीप की अपेक्षा उत्तरोत्तर दूना माना गया हैं। भरतवंशी नरेश! वास्तव में इन देशों में एक ही जनपद है। जिन द्वीपों में अनेक जनपद बताये गये हैं, उनमें भी एक प्रकार का ही धर्म देखा जाता है।

     महाराज! सबके ईश्‍वर प्रजापति ब्रह्मा स्वयं ही दण्‍ड लेकर इन द्वीपों की रक्षा करते हुए इनमें नित्य निवास करते हैं। नरश्रेष्‍ठ! प्रजापति ही वहाँ के राजा हैं। वे कल्याणस्वरूप होकर सबका कल्याण करते हैं। राजन्! वे ही पिता और प्रपितामह हैं। जड़ से लेकर चेतन तक समस्त प्रजा की वे ही रक्षा करते हैं। महाबाहु कुरुनन्दन! यहाँ की प्रजाओं के पास सदा पकापकाया भोजन स्वयं उपस्थित हो जाता है और उसी को खाकर वे लोग रहते हैं। उसके बाद समानाम वाली लोगों की बस्ती देखी जाती है।

    महाराज! वह चौकोर बसी हुई है। उसमें तैंतीस मण्‍डल हैं। कुरुनन्दन! भरतश्रेष्ठ! वहाँ लोकविख्‍यात वामन, ऐरावत, सुप्रतीक और अञ्जन- ये चार दिग्गज रहते हैं। राजन्! इनमें से सुप्रतीक नामक गजराज, गण्‍डस्थल से मद की धारा बहती रहती है, उसका परिमाण कैसा और कितना है, यह मैं नहीं बता सकता। वह नीचे-ऊपर तथा अगल-बगल में सब ओर फैला हुआ है। वह अपरिमित है। वहाँ सब दिशाओं से खुली हुई हवा आती है। उसे वे चारों दिग्गज ग्रहण करके रोक रखते हैं। फिर वे विकसित कमल-सदृश परम कान्तिमान् शुण्‍डदण्‍ड के अग्रभाग से उस हवा के सैकड़ों भागों में करके तुरंत ही सब ओर छोड़ते हैं, यह उनका नित्य का काम है। महाराज! सांस लेते हुए उन दिग्गजों के मुख से मुक्त होकर जो वायु यहाँ आती हैं, उसी से सारी प्रजा जीवन धारण करती है।

    धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! तुमने द्वीपों की स्थिति के विषय में तो बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। अब जो अन्तिम विषय- सूर्य, चन्द्रमा तथा राहु का प्रमाण बताना शेष रह गया है, उसका वर्णन करो। संजय बोले- महाराज! मैंने द्वीपों का वर्णन तो कर दिया। अब ग्रहों का यथार्थ वर्णन सुनिये। कौरवश्रेष्‍ठ! राहु की जितनी बड़ी लंबाई-चौड़ाई सुनने में आती है, वह आपको बताता हूँ। महाराज! सुना है कि राहु ग्रह मण्‍डलाकार है। निष्‍पाप नरेश! राहु ग्रह का व्यासगत विचार बारह हजार योजन है और उसकी परिचित का विस्तार छत्तीस हजार योजन है। पौराणिक विद्वान् उसकी विपुलता (मोटाई) छ: हजार योजन की बताते हैं। राजन्! चन्द्रमा का व्यास ग्यारह हजार योजन है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 43-52 का हिन्दी अनुवाद)

   कुरूश्रेष्ठ! उनकी परिधि या मण्‍डल का विस्तार तैंतीस हजार योजन बताया गया है और महामना शीतरश्मि चन्द्रमा का वैपूल्यगत विस्तार (मोटाई) उनसठ सौ योजन हैं। कुरुनन्दन! सूर्य का व्यासगत विस्तार दस हजार योजन है और उनकी परिधि या मण्‍डल का‍ विस्तार तीस हजार योजन है तथा उनकी विपुलता अठावन सौ योजन की है।

   अनघ! इस प्रकार शीघ्रगामी परम उदार भगवान् सूर्य के त्रिविध विस्तार का वर्णन सुना जाता है। भारत! यहाँ सूर्य का प्रमाण बताया गया, इन दोनों से अधिक विस्तार रखने के कारण राहु यथासमय इन सूर्य और चन्द्रमा को आच्छादित कर लेता है। महाराज! आपके प्रश्‍न के अनुसार शास्त्रदृष्टि से ग्रहों के विषय में संक्षेप से बताया गया। ये सारी बातें मैंने आपके सामने यथार्थ रूप से उपस्थित की हैं। अत: आप शान्ति धारण कीजिये। इस जगत् का स्वरूप कैसा है और इसका निर्माण किस प्रकार हुआ है, ये सब बातें मैंने शास्त्रोक्त रीति से बतायी हैं; अत: कुरुनन्दन! आप अपने पुत्र दुर्योधन की ओर से निश्चिन्त रहिये।

    भरतश्रेष्ठ! जो राजा इस भूमिपर्व को मनोयोगपूर्वक सुनता है, वह श्रीसम्पन्न, सफलमनोरथ तथा श्रेष्‍ठ पुरुषों द्वारा सम्मानित होता है और उसके बल, आयु, कीर्ति तथा तेज की वृद्धि होती है। भूपाल! जो मनुष्‍य दृढ़तापूर्वक संयम एवं व्रत का पालन करते हुए प्रत्येक पर्व के दिन इस प्रसंग को सुनता है, उसके पितर और पितामह पूर्ण तृप्त होते हैं। राजन्! जिसमें हम लोग निवास करते हैं और जहाँ हमारे पूर्वजों ने पुण्‍यकर्मों का अनुष्‍ठान किया है, यह वही भारतवर्ष है। आपने इसका पूरा-पूरा वर्णन सुन‍ लिया है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत भूमिपर्व में उत्तरद्वीपादिसंस्थान-वर्णनविषयक बारहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

तैरहवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युद्धभूमि से लौटकर धृतराष्ट्र को भीष्‍म की मृत्यु का समाचार सुनाना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतनन्दन! तदनन्तर एक दिन की बात है कि भूत, वर्तमान और भविष्‍य के ज्ञाता एवं सब घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने वाले गवल्गणपुत्र विद्वान् संजय ने युद्धभुमि से लौटकर सहसा चिन्तामग्न धृतराष्‍ट्र के पास जा अत्यन्त दुखी होकर भरतवंशियों के पितामह भीष्‍म के युद्धभूमि में मारे जाने का समाचार बताया।
     संजय बोले ;- महाराज! भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। मैं संजय आपकी सेवा में उपस्थित हूँ। भरतवंशियों के पितामह ओर महाराज शान्तनु के पुत्र भीष्‍म जी आज युद्ध में मारे गये। जो समस्त योद्धाओं के ध्‍वजस्वरूप और सम्पूर्ण धनुर्धरों के आश्रय थे, वे ही कुरुकुलपितामह भीष्‍म आज बाणशय्या पर सो रहे हैं।
    राजन्! आपके पुत्र दुर्योधन ने जिनके बाहुबल का भरोसा करके जूए का खेल किया था, वे भीष्‍म शिखण्डी के हाथों मारे जाकर रणभूमि में शयन करते हैं। जिन महारथी वीर भीष्‍म ने काशिराज की नगरी में एकत्र हुए समस्त भूपालों को अकेला ही रथ पर बैठकर महान् युद्ध में पराजित कर दिया था, जिन्होंने रणभूमि में जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ निर्भय होकर युद्ध किया था और जिन्हें परशुराम जी भी मार न सके, वे ही भीष्‍म आज शिखण्‍डी के हाथ से मारे गये। जो शौर्य में देवराज इन्द्र के समान, स्थिरता में हिमालय के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान और सहनशीलता में पृथ्‍वी के समान थे। जो मनुष्‍य में सिंह थे, बाण ही जिनकी दाढे़ थीं, धनुष जिनका फैला हुआ मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी और इसीलिये जिनके पास पहुँचना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे ही आपके पिता भीष्‍म आज पाञ्चालराजकुमार शिखण्‍डी के द्वारा मार गिराये गये।
     जैसे गौओं का झुंड सिंह के देखते ही भय से व्याकुल हो उठता है, उसी प्रकार जिन्हें युद्ध में हथियार उठाये देख पाण्‍डवों की विशालवाहिनी भय से उद्विग्न होकर थरथर कांपने लगती थी, वे ही शत्रुसैन्यसंहारक भीष्‍म दस दिनों तक आपकी सेना का संरक्षण करके अत्यन्त दुष्‍कर पराक्रम प्रकट करते हुए अन्त में सूर्य की भाँति अस्ताचल को चले गये। जिन्होंने इन्द्र की भां‍ति शोभरहित होकर हजारों बाणों की वर्षा करते हुए दस दिनों में शत्रुपक्ष के दस करोड़ योद्धाओं का संहार कर डाला, वे ही आज आंधी के उखाडे़ हुए वृक्ष की भाँति मारे जाकर युद्धभूमि में सो रहे हैं। भरतवंशी नरेश! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का फल हैं; नहीं तो भीष्‍म जी इस दुर्दशा के योग्य नहीं थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व में भीष्‍ममृत्युश्रवण-विषयक तेरहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

चौदहवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्ट्र का विलाप करते हुए भीष्‍म जी के मारे जाने की घटना को विस्तारपूर्वक जानने के लिये संजय से प्रश्‍न करना”

    धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! कुरुकुल के श्रेष्‍ठतम पुरुष मेरे पितृतुल्य भीष्म शिखण्डी के हाथ से कैसे मारे गये? वे इन्द्र के समान पराक्रमी थे, वे रथ से कैसे गिरे? संजय! जिन्होंने अपने पिता के संतोष के लिये आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और जो देवताओं के समान बलवान् थे, उन्हीं भीष्‍म से रहित होकर आज हमारे सैनिकों की कैसी अवस्था हुई है? यह बताओ महाज्ञानी, महाधनुर्धर, महाबली ओर महान् धैर्यशाली नरश्रेष्ठ भीष्‍मजी के मारे जाने पर तुम्हारे मन की कैसी अवस्था हुई?
    संजय! तुम कहते हो, अकम्प्य वीर पुरुषसिंह, कुरुकुलशिरोमणि भीष्‍मजी मारे गये- इसे सुनकर मेरे हृदय में बड़ी पीड़ा हो रही हैं। संजय! जिस समय वे युद्ध के लिये अग्रसर हुए थे, उस समय इनके पीछे कौन गये थे अथवा उनके आगे कौन-कौन वीर थे? कोन उनके साथ यूद्ध में डटे रहे? कौन युद्ध छोड़कर भाग गये? और किन लोगों ने सर्वथा उनका अनुसरण किया था? किन शूरवीर ने शत्रुसेना में प्रवेश करते समय रथियों में सिंह के समान अद्भुत पराक्रमी क्षत्रियशिरोमणि भीष्म जी के पास सहसा पहुँचकर सदा उनके पृष्‍ठभाग का अनुसरण किया? जैसे सूर्य अन्धकार को नष्‍ट कर देता है, उसी प्रकार शत्रुसूदन भीष्‍म शत्रुसेना का नाश करते थे। जिनका तेज सहस्र किरणों वाले सूर्य के समान था, जिन्होंने शत्रुओं को भयभीत कर रखा था। जिन्होंने युद्ध में पाण्‍डवों पर दुष्‍कर पराक्रम किया था तथा जो उनकी सेना का निरन्तर संहार कर रहे थे, उन अस्त्रविद्या के ज्ञाता दुर्जय वीर भीष्‍म जी को जिन्होंने रोका हैं, वे कौन है?
    संजय! तुम तो उनके पास ही थे, पाण्‍डवों ने युद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्‍म को किस प्रकार आगे बढ़ने से रोका? जो शत्रुपक्ष की सेनाओं का निरन्तर उच्छेद करते थे, बाण ही जिनकी दाढे़ थीं, धनुष ही खुला मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी, उन भयकर एवं दुर्धर्ष पुरुषसिंह भीष्‍म को कुन्तीनन्दन अर्जुन ने युद्ध में कैसे मार गिराया? मनस्वी भीष्‍म इस प्रकार पराजय के योग्य नहीं थे। वे लज्जाशील और पराजयशून्य थे। जो उत्तम रथ पर बैठकर भयंकर धनुष और भयानक बाण लिये शत्रुओं के मस्तकों को सायकों द्वारा काट-काटकर उनके ढेर लगा रहे थे। पाण्‍डवों की विशाल सेना दुर्धर्ष कालाग्नि के समान जिन्हें युद्ध के लिये उद्यम देख सदा कांपने लगती थी। वे ही शत्रुसूदन भीष्‍म दस दिनों तक शत्रुओं की सेना का संहार करते हुए अत्यन्त दुष्‍कर पराक्रम दिखाकर सूर्य की भाँति अस्त हो गये।
     जिन्होंने इन्द्र के समान युद्ध में दस दिनों तक अक्षय बाणों की वर्षा करके इस करोड़ विपक्षी सेनाओं का संहार कर डाला, वे ही भरतवंशी वीर भीष्‍म मेरी कुमन्त्रणा के कारण आंधी से उखाडे़ गये वृक्ष की भाँति युद्ध में मारे जाकर पृथ्‍वी पर शयन कर रहे हैं, वे कदापि इसके योग्य नहीं थे। शान्तनुनन्दन भीष्‍म तो बड़े भयंकर पराक्रमी थे, उन्हें सामने देखकर पाण्डव सेना उन पर प्रहार कैसे कर सकी? संजय! पाण्‍डवों ने भीष्‍म के साथ संग्राम कैसे किया? द्रोणाचार्य के जीते-जी भीष्‍म विजयी कैसे नहीं हो सके? उस युद्ध में कृपाचार्य तथा भरद्वाजपुत्र द्रोणाचार्य दोनों ही उनके निकट थे, तो भी योद्धाओं में श्रेष्‍ठ भीष्‍म कैसे मारे गये? भीष्‍म तो युद्ध में देवताओं के लिये भी दुर्जय एवं अतिरथी थे, फिर पाञ्चालराजकुमार शिखण्‍डी के हाथ से वे किस प्रकार मारे गये?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद

    जो रणभूमि में महाबली जमदग्निनन्दन परशुराम से भी टक्कर लेने की सदा इच्छा रखते थे, जिनका पराक्रम इन्द्र के समान था और परशुराम जी भी जिन्हें पराजित न कर सके थे; संजय! महारथियों के कुल में प्रकट हुए वे महावीर भीष्‍म समरभूमि में किस प्रकार मारे गये, यह मुझे बताओ; क्योंकि मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। संजय! कभी युद्ध के पीछे न हटने वाले भीष्‍म जी का मेरे पक्ष के किन महाधनुर्धरों ने साथ नहीं छोड़ा? दुर्योधन की आज्ञा पाकर किन-किन वीरों ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था? संजय! जब शिखण्‍डी आदि समस्त पाण्‍डव वीरों ने भीष्‍म पर आक्रमण किया, उस समय समस्त कौरवों ने कहीं अच्युत भीष्‍म का साथ छोड़ तो नहीं दिया था? अवश्‍य ही मेरा यह हृदय लोहे के समान सुदृढ़ है, तभी तो पुरुषसिंह भीष्‍म को मारा गया सुनकर विदीर्ण नहीं होता है! जिन दुर्जय वीर भरतभूषण भीष्‍म में सत्य, मेघा और नीति- ये तीन अप्रमेय शक्तियां थी, वे युद्ध में कैसे मारे गये? वे युद्ध में महान् मेघ के समान ऊंचे उठे हुए थे। धनुष की टंकार ही उनकी गर्जना थी, बाण ही उनके लिये वर्षा की बुंदें थीं और धनुष का महान् शब्द ही बिजली की गड़गड़ाहट का भयंकर शब्द था।
     वीरवर भीष्‍म ने शत्रुपक्ष के रथियों- कुन्तीकुमारों, पाञ्चालों तथा सृंजयों को मारते हुए उनके ऊपर उसी प्रकार बाणों की बौछार की, जैसे वज्रधारी इन्द्र दानवों पर बाण-वर्षा करते हैं। उनका धनुष-बाण आदि अस्त्रसमुह भयंकर एवं दुर्गम समुद्र के समान था, बाण ही उसमें ग्राह थे, धनुष लहरों के समान जान पड़ता था, वह अक्षय, द्वीपरहित, चञ्चल तथा नौका आदि तैरने के साधनों से शून्य था। गदा और खंग आदि ही उसमें मगर के समान थे। वह अश्‍वरूपी भंवरों से भयावह प्रतीत होता थे, पैदल सेना उसमें भरे हुए मत्स्यों के समान जान पड़ती थी तथा शंख और दुन्दुभियों की ध्‍वनि ही उस समुद्र की गर्जना थी। भीष्‍म जी उस समुद्र में शत्रुपक्ष के हाथियों, घोड़ों, पैदलों तथा बहुसंख्‍यक रथों को वेगपूर्वक डूबो रहे थे। वे समरभूमि में शत्रुवीर के प्राणों का अपहरण करने वाले थे। अपने क्रोध और तेज से दग्ध एवं प्रज्वलित से होते हुए शत्रुसंतापी भीष्‍म को जैसे तट समुद्र को रोक देता हैं उसी प्रकार किन वीरों ने आगे बढ़ने से रोका था।
     शत्रुहन्ता भीष्‍म ने दुर्योधन के हित के लिये समरभू‍मि में जो पराक्रम किया था, वह अनुपम है। उस समय कौन-कौन से योद्धा उनके आगे थे? किन-किन वीरों ने अमित-तेजस्‍वी भीष्‍म के रथ के दाहिने पहिये की रक्षा की थी? किन लोगों ने दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए उनके पीछे की ओर रहकर शत्रुपक्ष के वीरों को आगे बढ़ने से रोका था? कौन-कौन से वीर निकट से भीष्‍म की रक्षा करते हुए उनके आगे खडे़ थे? और किन वीरों ने युद्ध में लगे हुए शूरशिरोमणि भीष्‍म के बायें पहिये की रक्षा की थी? संजय! उनके बायें चक्र की रक्षा में तत्‍पर होकर किन-किन योद्धाओं ने सृंजयवंशियों का विनाश किया था? तथा किन्‍होंने आगे रहकर सेना के अग्रणी दुर्जय वीर भीष्‍म की सब ओर से रक्षा की थी? संजय! किन लोगों ने दुर्गम संग्राम में आगे बढ़ते हुए उनके पार्श्‍वभाग का संरक्षण किया था? और किन्‍होंने उस सैन्‍यसमूह में आगे रहकर वीरतपूर्वक शत्रुयोद्धाओं का डटकर सामना किया था?

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद)

     जब मेरे पक्ष के बहुत-से वीर उनकी रक्षा करते थे और वे भी उन वीरों की रक्षा में दत्तचित्त थे, तब भी उन सब लोगों ने मिलकर शत्रुपक्ष की दुर्जय सेनाओं को कैसे वेगपूर्वक परास्‍त नहीं कर दिया। संजय! भीष्‍म जी सम्‍पूर्ण लोकों के स्‍वामी परमेष्‍ठी प्रजापति ब्रह्माजी के समान अजेय थे; फिर पाण्डव उनके ऊपर कैसे प्रहार कर सके? संजय! जिन द्वीपस्‍वरूप भीष्‍म जी के आश्रय के, निर्भय एवं निश्चिंत होकर समस्‍त कौरव शत्रुओं के साथ युद्ध करते थे, उन्‍हीं नरश्रेष्‍ठ भीष्‍म को तुम मारा गया बता रहे हो, यह कितने दु:ख की बात है? जिनके पराक्रम का आश्रय लेकर विशाल सेनाओं से सम्‍पन्‍न मेरा पुत्र पाण्‍डवों को कुछ नहीं गिनता था, वे शत्रुओं द्वारा किस प्रकार मारे गये? पहले की बात है, दानवों का संहार करने वाले सम्‍पूर्ण देवताओं ने जिन मेरे महान् व्रतधारी पिता रणदुर्मद भीष्‍म जी को अपना सहायक बनाने की अभिलाषा की थी, जिन महापराक्रमी पुत्ररत्‍न के जन्‍म लेने पर लोकविख्‍यात महाराज शांतनु ने शोक, दीनता और दु:ख का सदा के लिये त्‍याग कर दिया था, जो सबके आश्रयदाता, बुद्धिमान्, स्‍वधर्मपरायण, पवित्र और वेदवेदांगों के तत्त्वज्ञ बताये गये हैं, उन्‍हीं भीष्‍म को तुम मारा गया कैसे बता रहे हो? जो सम्‍पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा से सम्‍पन्‍न, शांत,जितेन्द्रिय और मनस्‍वी थे, उन शांतनुनंदन भीष्‍म को मारा गया सुनकर मुझे यह विश्वास हो गया कि अब हमारी सारी सेना मार दी गयी। आज मुझे निश्चित रूप से ज्ञात हुआ कि धर्म से अधर्म ही बलवान् है; क्‍योंकि पाण्‍डव अपने वृद्ध गुरुजन की हत्‍या करके राज्‍य लेना चाहते हैं।
     पूर्वकाल में अम्बा के लिये उद्यत होकर सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-वेत्ताओं में श्रेष्‍ठ जमदग्निनंदन परशुराम युद्ध करने के लिये आये थे, परंतु भीष्‍म ने उन्‍हें परास्‍त कर दिया, उन्‍हीं इन्‍द्र के समान पराक्रमी तथा सम्‍पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्‍ठ भीष्‍म को तुम मारा गया कह रहे हो, इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है? शत्रुवीरों का संहार करने वाले जिन वीरवर परशुराम जी ने अनेक बार समस्‍त क्षत्रियों को युद्ध में परास्‍त किया था, उनसे भी जो मारे न जा सके, ये ही परम बुद्धिमान् भीष्‍म आज शिखण्डी के हाथ से मार दिये गये! इससे जान पड़ता है कि महापराक्रमी युद्धदुर्मद परशुराम जी की अपेक्षा भी तेज, पराक्रम और बल में द्रुपदकुमार शिखण्‍डी निश्चय ही बहुत बढ़ा-चढ़ा है, जिसने सम्‍पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण, परमास्त्रवेत्ता और शूरवीर विद्वान् भरतकुशलभूषण भीष्‍म जी का वध कर डाला है। उस समय युद्ध में शत्रुहंता भीष्‍मजी के साथ कौन-कौन से वीर थे?
     संजय! पाण्‍डवों के साथ भीष्‍म का किस प्रकार युद्ध हुआ? यह मुझे बताओ। उन वीर सेनापति के मारे जाने पर मेरे पुत्र की सेनाविधवा स्‍त्री के समान असहाय हो गयी है। जैसे ग्‍वाले के बिना गौओं का समुदाय इधर-उधर भटकता फिरता है, उसी प्रकार अब मेरी सेना उद्भ्रांत हो रही होगी। महान् युद्ध के समय जिनमें सम्‍पूर्ण जगत् का परम पुरुषार्थ प्रकट दिखायी देता था, वे ही भीष्‍म जब परलोक के पथिक हो गये? उस समय तुम लोगों के मन की अवस्‍था कैसी हुई थी। संजय! आज जीवित रहने पर भी हम लोगों में क्‍या सामर्थ्‍य है? जगत् के विख्‍यात धर्मात्‍मा महापराक्रमी पिता भीष्‍म को युद्ध में मरबाकर हम उसी प्रकार शोक में डूबे गये हैं, जैसे पार जाने की इच्‍छा वाले पथिक नाव को अगाध जल में डूबी हुई देखकर दुखी होते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 57-80 का हिन्दी अनुवाद)

    मैं समझता हूँ कि भीष्‍म जी के मारे जाने पर मेरे बेटे दु:ख के कारण अत्‍यंतशोकमग्‍न हो गये होंगे। संजय! मेरा हृदय निश्चय ही लोहे का बना हुआ है, जो पुरुषसिंह भीष्म को मारा गया सुनकर भी विदीर्ण नहीं हो रहा है। जिन पुरुषरत्‍न तथा दुर्घर्ष वीरशिरोमणि में अस्त्र, बुद्धि और नीति तीन अप्रमेय शक्तियां थीं, वे युद्ध में कैसे मारे गये? जान पड़ता है कि अस्‍त्र से शौर्य से, तपस्‍या से, बुद्धि से, धैर्य से तथा त्‍याग के द्वारा भी कोई मृत्‍यु से छूट नहीं सकता है। संजय! निश्चय ही काल की शक्ति बहुत बड़ी है, सम्‍पूर्ण जगत् के लिये वह दुर्लंघय है, जिसके अधीन होने के कारण तुम शांतनुनंदन भीष्‍म को मारा गया बता रहे हो। मुझे शांतनुनंदन भीष्‍म से अपने पक्ष के परिचाण की बड़ी आशा थी। इस समय अपने पुत्र के शोक से संतप्‍त होकर मैं महान् दु:ख से चिंतित हो उठा हूँ।
     संजय! जब दुर्योधन ने शांतनुनंदन भीष्‍म को अस्‍ताचलगामी सूर्य की भाँति पृथ्‍वी पर पड़ा देखा, तब उसने क्‍या सोचा? संजय! जब मैं अपनी बुद्धि से विचार करके देखता हूँ तो अपने अथवा शत्रुपक्ष के राजाओं में से किसी का भी जीवन इस युद्ध में शेष रहता नहीं दिखायी देता है। ऋषियों ने क्षत्रियों का यह धर्म अत्‍यंत कठोर निश्चित किया है, जिसमें रहते हुए पाण्‍डव शांतनुनंदन भीष्‍म को मारकर राज्‍य लेना चाहते हैं। अथवा हम भी तो उन महारथी भीष्‍म को मरवाकर ही राज्‍य लेना चाहते हैं। क्षत्रिय धर्म में स्थित हुए मेरे बच्‍चे कुंतीकुमारों का कोई अपराध नहीं है।
     संजय! दुस्‍तर आपत्ति के समय श्रेष्‍ठ पुरुष को यही करना चाहिये, जो भीष्‍म जी ने किया है, कि वह शक्त्‍िा के अनुसार अधिक से अधिक पराक्रम करे। यह गुण भीष्‍म जी में पूर्णरूप से प्रतिष्ठित था। भीष्‍म जी किसी से पराजित न होने वाले और लज्‍जाशील थे। विपक्षी सेनाओं का संहार करते हुए उन मेरे ताऊ भीष्‍म जी को पाण्‍डवों ने कैसे रोका? उन महामनस्‍वी वीरों ने किस प्रकार सेनाएं संगठित की और किसी प्रकार युद्ध किया? संजय! शत्रुओं ने मेरे आदरणीय पिता भीष्‍म का किस प्रकार वध किया? दुर्योधन, कर्ण, दु:शासन तथा सुबलपुत्र जुआरी शकुनि ने भीष्‍म जी के मारे जाने पर क्‍या-क्‍या बातें कहीं? संजय! जहाँ मनुष्‍य, हाथी और घोड़ों के शरीर बिछे हुए थे, जहाँ बाण, शक्ति, महान् खंग और तोमररूपी पासे फेंके जाते थे, जो युद्ध के कारण दुर्गम एवं महान् भय देने वाली थी, उस रणक्षेत्ररूपी द्यूतसभा में किन-किन मंदबुद्धि जुआरियों ने प्रवेश किया था? जहाँ प्राणों की बाजी लगायी जाती थी, वह भयंकर जूए का खेल किन-किन नरश्रेष्‍ठ वीरों ने खेला था?
     संजय! शांतनुनंदन भीष्‍म के सिवा, उस युद्ध में कौन-कौन-से हार रहे थे, किन-किन लोगों की पराजय हुई तथा कौन-कौन वीर बाणों के लक्ष्‍य बनकर मार गिराये गये? यह सब मुझे बताओ। युद्धभूमि में शोभा पाने वाले भयंकर पराक्रमी अपने ताऊ देवव्रत भीष्‍म का मारा गया सुनकर मेरे हृदय में शांति नहीं रह गयी है। उनके मारे जाने से मेरे पुत्रों की जो हानि होने वाली है, उसके कारण मेरे मन में भारी व्‍यथा जाग उठी है। संजय! तुम अपने वचनरूपी धृत की आहुति डालकर मेरी उस चिंता एवं व्‍यथारूपी अग्नि को और भी उद्दीप्‍त कर रहे हो। जिन्होंने सम्पूर्ण जगत में विख्यात इस युद्ध के महान भार को अपनी भुजाओं पर उठा रखा था, उन्हीं भीष्म जी को मारा गया देख मेरे पुत्र भारी शोक में पड़ गये होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं दुर्योधन के द्वारा प्रकट किये हुए उन दु:खों को सुनूँगा। इसलिये संजय! मुझसे वहाँ का सारा वृत्तान्त कहो। मूर्ख दुर्योधन के अज्ञान के कारण उस युद्ध में अन्याय और न्याय की जो-जो बातें संघटित हुई हों, उन सबका वर्णन करो। विजय की इच्छा रखने वाले अस्त्रवेत्ता भीष्म जी ने उस युद्ध में अपनी तेजस्विता के अनुरूप जो-जो कार्य किया हो, वह सभी पूर्णरूप से मुझे बताओ। कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का वह युद्ध जिस समय जिस क्रम से और जिस रूप में हुआ था, वह सब कहो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व में भीष्‍म विषयक चौदहवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

पन्द्रहवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युद्ध के वृत्तान्‍त का वर्णन आरम्‍भ करना- दुर्योधन का दुशासन को भीष्‍म की रक्षा के लिये समुचित व्‍यवस्‍था करने का आदेश”

    संजय ने कहा ;- महाराज! आपने जो ये बारंबार अनेक प्रश्न किये है। वे सर्वथा उचित और आपके योग्य ही हैं; परंतु यह सारा दोष आपको दुर्योधन के ही माथे पर नहीं मढ़ना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुष्कर्मों के कारण अशुभ फल भोग रहा हो। उसे उस पाप की आशंका दूसरे पर नहीं करनी चाहिए। महाराज! जो पुरुष मनुष्य-समाज में सर्वथा निन्दनीय आचरण करता है। वह निन्दित कर्म करने के कारण सब लोगों के लिये मार डालने योग्य है। पाण्डव आप लोगों द्वारा अपने प्रति किये गये अपमान एवं कपटपूर्ण बर्ताव को अच्छी तरह जानते थे। तथापि उन्होंने केवल आपकी ओर देखकर- आपके द्वारा न्यायोचित बर्ताव होने की आशा रखकर दीर्घकाल तक अपने मन्त्रियों सहित वन में रहकर क्लेश भोगा और सब कुछ सहन किया।
      भूपाल! मैंने हाथियों, घोड़ों तथा अमिततेजस्वी राजाओं के विषय में जो कुछ अपनी आंखों देखा है और योग बल से जिसका साक्षात्कार किया है, वह सब वृत्तान्त सुना रहा हूं, सुनिये। अपने मन को शोक में न डालिये। नरेश्वर! निश्चत ही दैव का यह सारा विधान मुझे पहले से ही प्रत्यक्ष हो चुका है। राजन! जिनके कृपा प्रसाद से मुझे परम उत्तम दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, इन्द्रियातीत विषय को भी प्रत्यक्ष देखने वाली दृष्टि मिली है, दूर से भी सब कुछ सुनने की शक्ति, दूसरे के मन की बातों को समझ लेने की सामर्थ्‍यभूत और भविष्य का ज्ञान, आकाश में चलने-फिरने की उत्तम शक्ति तथा युद्ध के समय अस्त्रों से अपने शरीर के अछूते रहने का अद्‌भुत चमत्कार आदि बातें जिन महात्मा के वरदान से मेरे लिये सम्भव हुई हैं, उन्हीं आपके पिता पराशरनन्दन बुद्धिमान व्यास जी को नमस्कार करके भारतवंशियों के इस अत्यन्त अद्भुत, विचित्र एवं रोमांचकारी युद्ध का वर्णन आरम्भ करता हूँ।
     आप मुझसे यह सब कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह विस्तारपूर्ण सुनें। महाराज! जब समस्त सेनाएं शास्त्रीय विधि के अनुसार व्यूह-रचनापूर्वक अपने-अपने स्थान पर युद्ध के लिये तैयार हो गयीं, उस समय दुर्योधन ने दुःशासन से कहा। ‘दु:शासन! तुम भीष्म जी की रक्षा करने वाले रथों को शीघ्र तैयार कराओ। सम्पूर्ण सेनाओं को भी शीघ्र उनकी रक्षा के लिये तैयार हो जाने की आज्ञा दो। मैं वर्षों से जिसके लिये चिन्तित था, वह यह सेनासहित कौरव-पाण्डवों का महान संग्राम मेरे सामने उपस्थित हो गया है। इस समय युद्ध में भीष्‍म जी की रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई कार्य मैं आवश्‍यक नहीं समझता हूँ क्योंकि वे सुरक्षित रहें तो कुन्ती के पुत्रों, सोमकवंशियों तथा सृंजयों को भी मार सकते हैं। विशुद्ध हृदय वाले पितामह भीष्‍म मुझसे कह चुके हैं कि ‘मैं शिखण्डी को युद्ध में नहीं मारूँगा क्योंकि सुनने में आया है कि वह पहले स्त्री था: अतः रणभूमि में मेरे लिये वह सर्वथा त्याज्य है। इसलिये मेरा विचार है कि इस समय हमें विशेष रूप से भीष्‍म जी की रक्षा में ही तत्पर रहना चाहिए। मेरे सारे सैनिक शिखण्डी को मार डालने का प्रयत्न करें।
      पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर दिशा के जो-जो वीर अस्त्र-विद्या में सर्वथा कुशल हों, वे ही पितामह (भीष्म) की रक्षा करें। यदि महाबलि सिंह भी अरक्षित-दशा में हो तो उसे एक भेड़िया भी मार सकता है। हमें चाहिए कि सियार के समान शिखण्डी के द्वारा सिंह सहद भीष्म को न मरने दें। अर्जुन के बायें पहिये की रक्षा युधामन्यु और दाहिने की रक्षा उत्तमौजा कर रहे हैं। अर्जुन को ये दो रक्षक प्राप्त हैं और अर्जुन शिखण्डी की रक्षा कर रहे हैं। अतः दुःशासन! भीष्म से उपेक्षित तथा अर्जुन से सुरक्षित होकर शिखण्डी जिस प्रकार गंगानन्दन भीष्म को न मार सके, वैसा प्रयत्न करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्रीमद्भगवद्गगीता पर्व में दुर्योधन-दुशासन संवादविषयक पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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