सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से तैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 33 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  7

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)

“ज्ञान-विज्ञान, भगवान् की व्‍यापकता, अन्‍य देवताओं की उपासना एवं भगवान् को प्रभावसहित न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा का कथन”

  • संबंध- छठे अध्‍याय के अंतिम श्लोक में भगवान् ने कहा कि- ‘अंतरात्‍मा को मुझमें लगाकर जो श्रद्धा और प्रेम के साथ मुझको भजता है, वह सब प्रकार के योगीयों में उत्तम योगी है।’ परंतु भगवान् के स्‍वरूप, गुण और प्रभाव को मनुष्‍य जब तक ही जान पाता, तब तक उसके द्वारा अंतरात्‍मा से निरंतर भजन होना बहुत कठिन है; साथ ही भजन का प्रकार जानना भी आवश्‍यक है। इसलिये अब भगवान् अपने गुण, प्रभाव के सहित समग्र स्‍वरूप का तथा अनेक प्रकारों से युक्‍त भक्तियों का वर्णन करने के लिये सातवें अध्‍याय का आरम्‍भ करते हैं और सबसे पहले दो श्लोकों में अर्जुन को उसे सावधानी के साथ सुनने के लिये प्रेरणा करके ज्ञान-विज्ञान के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं- 

   श्रीभगवान् बोले ;- हे पार्थ! अनन्‍यप्रेम से मुझमें आसक्तिचित्त तथा अनन्‍यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ, तू जिस प्रकार से सम्‍पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्‍त, सबके आत्‍मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुना। मै तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।

   हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है। और उन यत्न करने वाले योगियो में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड प्रकति है और हे महाबाहो इससे दुसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 6-13 का हिन्दी अनुवाद)

   हे अर्जुन! तू ऐसा साझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं। और मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हुं अर्थात सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण हूँ। हे धनंजय! मुझसे मित्र दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र के मुनियों के सहष मुझमें गुंथा हुआ है। हे अर्जुन! मैं जल में रस हूं, चन्द्रमा और सूर्य मे प्रकाश हूं, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुष में पुरुषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ। हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों को सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तपस्वियों का तेज हूँ।

   हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अलुकूल काम हूँ।

  • सम्बन्ध-इस प्रकार प्रधान-प्रधान वस्तुओं में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान् ने प्रकारान्तर से समस्त जगत् में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी, अब अपने-को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपंसहार करते हैं- 
और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं' ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।

  • सम्बन्ध- भगवान् ने यह दिखलाया कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप् है और मुझसे ही व्याप्त है। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यन्त समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नहीं पहचानते; इस पर भगवान कहते हैं- 
गुणों के कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस-इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है।, इसीलिये इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 14-20 का हिन्दी अनुवाद)

   क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो मनुष्य केवल मुझको ही निरन्तर भेजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं। 

  • सम्बन्ध- भगवान् ने माया की दुस्तरता दिखाकर अपने भजन को उससे तरने को उपाय बतलाया। इस पर यह प्रश्न उठता है कि जब ऐसी बात है, तब सब लोग निरन्तर आपका भजन क्यों नहीं करते; इस पर भगवान् कहते हैं। 
    माया के द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते। किन्तु हे भरतवंषियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने-वाले अर्थार्थी, आर्त्त, जिज्ञासु, और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त मुझको भजते हैं। उनमें नित्य मुझमें एकी भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने-वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।

  • सम्बन्ध- भगवान् ने ज्ञानी भक्त को सबसे श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय बतलाया। इस पर यह शंका हो सकती है कि क्या दूसरे भक्त श्रेष्ठ और प्रिय नहीं हैं; इस पर भगवान् कहते हैं- 
   ये सभी उदार हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है; क्योंकि सह मद्गत मन-बुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है। बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अनय देवताओं को भेजते हैं अर्थात पूजते है।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद)

    जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता-के प्रति स्थिर करता हूँ। वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है। परंतु उन अल्प बुद्धि वालों का वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओंं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भेजे, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

  • सम्बन्ध- जब भगवान् इतने प्रेमी और दयासागर हैं कि जिस-किसी प्रकार से भी भेजने वाले को अपने स्वरूप की प्राप्ति करा ही देते हैं, तो फिर सभी लोग उनको क्यों नहीं भजते, इस जिज्ञासा पर कहते हैं- 
न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सचिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जानकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं। क्योंकि अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है। हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे वाले सब भूतों को मै जानता हूं, परंतु मुझको को कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 27-30 का हिन्दी अनुवाद)

     क्योकि है भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःख आदि द्वन्द्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्कामभाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्रयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।

   जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छुटने के लिये यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्‍यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं। एवं जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ-के सहित (सबके आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं। अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगाशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवां अध्‍याय पूरा हुआ (भीष्‍मपर्व में इकतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  8

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्रह्म, अध्‍यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्‍न और उनका उत्तर, एवं भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्‍ण मार्गों का प्रतिपादन”

  • सम्बन्ध- गीता के सातवें अध्‍याय में पहले से तीसरे श्‍लोक तक भगवान् ने अपने समग्ररूप का तत्त्व सुनने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए, उसके कहने की प्रतिज्ञा और जानने वालों की प्रशंसा की। फिर सत्ताईसवें श्‍लोक तक अनेक प्रकार से उस तत्त्व को समझाकर न जानने के कारण को भी भली-भाँति समझाया और अन्त में ब्र‍ह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् के समग्ररूप को जानने वाले भक्त की महिमा का वर्णन करते हुए उस अध्‍यात्म का उपसंहार किया; किंतु उनतीसवें और तीसवें श्‍लोकों में वर्णित ब्रह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- इन छहों का तथा प्रयाणकाल में भगवान् को जानने की बात का रहस्य भली-भाँति न समझने के कारण इस आठवें अध्‍याय के आरम्भ में पहले दो श्‍लाकों में अर्जुन उपर्युक्त सातों विषयों को समझने के लिये भगवान् से सात प्रश्‍न करते हैं।

   अर्जुन ने कहा ;- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्‍यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं? हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? त‍था युक्तचित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय-में आप किस प्रकार जानने में आते है? 

   श्रीभगवान् ने कहा ;- परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा ‘अध्‍यात्म’ नाम से कहा गया है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है। उत्पत्ति-विनाशधर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्‍यमय पुरुष अधिदैव और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामीरूप से अधियज्ञ हूँ। जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझ को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

  • सम्बन्ध- यहाँ यह बात कही गयी कि भगवान् का स्मरण करते हुए मरने वाला भगवान् को ही प्राप्त होता है। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि केवल भगवान् के स्मरण के सम्बन्ध में ही यह विशेष नियम हैं या सभी के सम्बन्ध हैं; इस पर कहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 6-11 का हिन्दी अनुवाद)

   हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्‍य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।

   इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा। हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्‍वर के ध्‍यान के अभ्‍यास-रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाश स्वरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्‍वर को ही प्राप्त होता है। जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्‍म से भी अति सूक्ष्‍म, सबके धारण-पोषण करने वाले, चिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सुदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिादानन्दघन परमेश्‍वर का स्मरण करता है, वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी-के मध्‍य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।

  • सम्बन्ध- पांचवें श्‍लोक में भगवान् का चिन्तन करते-करते मरने वाले साधारण मनुष्‍य को गति का संक्षेप में वर्णन किया गया, फिर आठवें से दसवें श्‍लोक तक भगवान् का ‘अधियज्ञ’ नामक सगुण निराकार दिव्य अव्यक्त स्वरूप का चिन्तन करने वाले योगियों की अन्तकालीन गति के सम्बन्ध में बतलाया, अब ग्यारहवें श्‍लोक से तेरहवें तक परम अक्षर निर्गुण निराकार परब्रह्म की उपासना करने-वाले योगियों की अन्तकालीन गति का वर्णन करने के लिये पहले उस अक्षर ब्रह्म की प्रशंसा करके उसे बतलाते हैं। वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम-पद को अविनाशी कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील, संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिये संक्षेप कहूंगा।यहाँ भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की है कि उपर्युक्त वाक्यों में जिस परब्रह्म परमात्मा का निर्देश किया गया है, वह ब्रह्म कौन है और अन्तकाल में किस प्रकार साधन करने वाला मनुष्‍य उसको प्राप्त होता है- यह बात में तुम्हें संक्षेप से कहूंगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद)

      सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक-में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ऊं’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम[5] को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हुं, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हुं।

   परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दु:खों के घर एवं क्षणभङ्गुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। 

  • सम्बन्ध- भगवत्प्राप्त महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता- इस कथन से यह प्रकट होता है कि दूसरे जीवों का पुनर्जन्म होता है। अत: यहाँ यह जानने की इच्छा होती है कि किस लोक तक पहुँचे हुए जीवों को वापस लौटना पड़ता है। इस पर भगवान् कहते हैं- 
     हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल के द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं। ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला और रात्रि को भी ए‍क हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाली जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं।

   सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्‍म शरीर से उत्पन्न होते हैं। और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्‍म शरीर में ही लीन हो जाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद)

    उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है। 

  • सम्बन्ध- ब्रह्मा की रात्रि के आरम्भ में जिस अव्यक्त में समस्त भूत लीन होते हैं और दिन का आरम्भ होते ही जिससे उत्पन्न होते हैं; वही अव्यक्त सर्वश्रेष्‍ठ है या उससे बढ़कर कोई दूसरा और है? इस जिज्ञासा पर कहते हैं।

   उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण और सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्‍ट होने पर भी नहीं होता। 

  • सम्बन्ध- आठवें और दसवें श्‍लोकों में अधियज्ञ की उपासना का फल परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति, तेरहवें श्‍लोक में परम अक्षर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का फल परम गति की प्राप्ति ओर चौदहवें श्‍लोक में सगुण-साकार भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है। इससे तीनों में किसी प्रकार के भेद का भ्रम न हो जाय, इस उद्देश्‍य से अब सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए उनकी प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म का अभाव दिखलाते हैं- 
जो अव्यक्त ‘अक्षर’ इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं त‍था जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्‍य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है। हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् परिपूर्ण हैं, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्यभक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है। 

  • सम्बन्ध- अर्जुन के सातवें प्रश्‍न का उत्तर देते हुए भगवान् ने अन्तकाल में किस प्रकार मनुष्‍य परमात्मा को प्राप्त होता है, यह बात भलीभाँति समझायी। प्रसंगवश यह बात भी कही कि भगवत्प्राप्ति न होने पर ब्रह्मलोक तक पहुँचकर भी जीव आवागमन के चक्कर से नहीं छूटता; परंतु वहाँ यह बात नहीं कही गयी कि जो वापस न लौटने वाले स्थान को प्राप्त होते हैं, वे किस रास्ते से और कैसे जाते हैं तथा इसी प्रकार जो वापस लौटने वाले स्थानों का प्राप्त होते हैं, वे किस रास्ते से जाते हैं। अत: उन दोनों मार्गों का वर्णन करने के लिये भगवान् प्रस्तावना करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 23-28 का हिन्दी अनुवाद)

हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्यागकर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गये हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते है, उस काल को अर्थात् दोनों मार्गों को कहूंगा। जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता है, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छ: महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपर्युक्त देवताओं-द्वारा क्रम से ले जाये जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं

   जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि-अभिमानी देवता है तथा कृष्‍णपक्ष का अभिमानी देवता है ओर दक्षिणायन के छ: महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभकर्मों का फल भोगकर वापस आता है।

   क्योंकि जगत् के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्‍ण अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनामन माने गये है। इनमें एक के द्वारा गया हुआ -जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परम गति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इस कारण हे अर्जुन! तू सब काल में समबु‍दि रूपी योग से हो अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिये साधन करने वाला हो। योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ‚ तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है‚ उस सबको निःसंदेह उल्लघन कर जाता है। और सनातन परम पदको प्राप्त होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमदभगवद्रीता पर्व के अन्तर्गत ब्रहम विद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमदभगवद्रीतेपनिषद् श्रीकृष्णार्जुन संवाद में अक्षर ब्रहमयोग नामक 8 अध्याय पूरा हुआ। (भीष्‍म पर्व में बत्‍तीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

“श्रीमद्भगवद्गीता” अ‍ध्याय  9

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-2 का हिन्दी अनुवाद)

“ज्ञान‚विज्ञान और जगत्की उत्पत्तिका‚आसुरी और दैवी सम्पदावालों का‚प्रभावसहित भगवान् के स्वरूप का‚सकाम-निष्काम उपासनाका एवं भगवद्-भक्ति की महिता का वर्णन”

  • सम्बन्ध- गीता के सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार उस विषय का वर्णन करते हुए‚ अन्त में ब्रह्म‚ अध्यात्म‚ कर्म‚ अधिभूत‚ अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानने की एवं अन्त काल के भगवच्चिन्तन की बात कही। इस पर आठवें अध्याय में अर्जुन ने उन तत्त्वों को और अन्तकाल की उपासना के विषय को समझने के लिये सात प्रश्न कर दिये उनमें से छः प्रश्नों का उत्तर तो भगवान् ने संक्षेप में तीसरे और चौथे श्लोकों में दे दिया‚ किन्तु सातवें प्रश्न के उत्तर में उन्होंने जिस उपदेश का आरम्भ किया‚ उसमें सारा का सारा आठवां अध्याय पूरा हो गया। इस प्रकार सातवें अध्याय में आरम्भ किये हुए विज्ञान सहित ज्ञान का सांगोंपांग वर्णन न होने के कारण उसी विषय को भली-भाँति समझाने के उद्देशय से भगवान् इस नवम अध्याय का आरम्भ करते हैं तथा सातवें अध्याय में वर्णित उपदेश के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध दिखलाने के लिये पहले श्लोक में पुनः उसी विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं।
   श्रीभगवान् बोले ;- हे अर्जुन! तुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली-भाँति कहूंगा, जिसको तू दुःख रूप संसार से मुक्त हो जायगा। यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है। 
  • सम्बन्ध- जब विज्ञान सहित ज्ञान की इतनी महिमा है और इसका साधन भी इतना सुगम है तो फिर सभी मनुष्य इसे धारण क्यों नहीं करते? इस जिज्ञासा पर अश्रद्धा को ही इसमें प्रधान कारण दिखलाने के लिये भगवान् अब इस पर श्रद्धा न करने वाले मनुष्यों की निन्दा करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 3-8 का हिन्दी अनुवाद)

     हे परंतप! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं। 
  • सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में भगवान् कृष्ण ने जिस विज्ञान सहित ज्ञान का उपदेश करने की प्रतिज्ञा की थी तथा जिसका माहात्म्य वर्णन किया था, अब उसका आरम्भ करते हुए वे सबसे पहले प्रभाव के साथ अपने निराकार स्वरूप के तत्त्व का वर्णन अर्जुन से करते हैं और कहते हैं- 
   हे अर्जुन! मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बरफ -के सदृश परिपूर्ण है। और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं। किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं है किंतु मेरी ईश्‍वरीय योग शक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरी आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।

     जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही स्थित है। वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं। ऐसा जान
  • सम्बन्ध- विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान् ने यहाँ तक प्रभाव सहित अपने निराकार स्वरूप तत्त्व समझाने के लिये अपने को सब में व्यापक‚ सबका आधार‚ सबका उत्पादक‚ और निर्विकार बतलाया। अब अपने भूतभावन स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए सृष्टि रचना आदि कर्मों का तत्त्‍व समझाते हैं। 
    हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। अर्थात प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ।
  •  सम्बन्ध- इस प्रकार जगत रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान् उन कर्मों के बन्धन में क्यों नहीं पड़ते अब यही तत्त्‍व समझाने के लिये भगवान् कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 9-13 का हिन्दी अनुवाद)

   हे अर्जुन! उन कर्मोंं में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते। हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है। और इस हेतु से ही यह संसार चक्र घूम रहा है।
  • सम्बन्ध- अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान् ने अर्जुन को चौथे से छठे श्लोक तक प्रभाव सहित सगुण- निराकार स्वरूप से तत्त्व समझाया। फिर उसके बाद सातवें से दसवें श्लोक तक सृष्टि रचनादि समस्त कर्मों की दिव्यता के तत्‍वों को बतलाया। अब कृष्ण अपने सगुण साकार रूप का महत्त्व‚ उसकी भक्ति का प्रकार और उसके गुण और प्रभाव का तत्त्व समझाने के लिये पहले दो श्लोकों में उसके प्रभाव को न जानने वाले असुर प्रकृति के मनुष्यों की निन्दा करते हैं।
      कृष्ण कहते हैं ;- हे अर्जुन! मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्य रूप से विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं। वे व्यर्थ आशा‚ व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्त चित्त अज्ञानीजन राक्षसी‚ आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।
  • सम्बन्ध- भगवान् का प्रभाव न जानने वाले आसुरी प्रकृति के मनुष्यों की निन्दा करके अब सगुण रूप की भक्ति का तत्त्व समझाने के लिये भगवान् के प्रभाव को जानने वाले‚ दैवी प्रकृति आश्रित‚ उच्च श्रेणी के अनन्य भक्तों के लक्षण बतलाते हैं- 
   कृष्ण कहते हैं ;- परन्तु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाश रहित अक्षर स्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 14-18 का हिन्दी अनुवाद)

   वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन  करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।
  • सम्बन्ध- भगवान् के गुण, प्रभाव आदि को जानने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के भजन का प्रकार बतलाकर अब भगवान् उनसे भिन्न श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाते हैं।
    दूसरे ज्ञानयोगी पुरुष मुझ निर्गुण निराकार ब्रह्म का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं, और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्‍वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं। 
  • सम्बन्ध- समस्त विश्‍व की उपासना से भगवान् की उपासना कैसे है- यह स्पष्ट समझाने के लिये अब चार श्लोकों द्वारा भगवान् इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप है। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।
    इस सम्पूर्ण जगत् का धाता अर्थात धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामाह, जानने योग्य, पवित्र, ओकांर तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभा-शुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी का कारण भी मैं ही हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)

    मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ।  हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु और सत् असत् भी मैं ही हूँ। 
  • सम्बन्ध- तेरहवें से पंद्रहवें श्लोक तक अपने सगुण-निर्गुण और विराट रूप की उपासनाओं का वर्णन करके भगवान् ने उन्नीसवें श्लोक तक समस्त विश्‍व को अपना स्वरूप बतलाया। ‘समस्त विश्‍व मेरा ही स्वरूप होने के कारण इन्द्र आदि अन्य देवों की उपासना भी प्रकारान्तर से मेरी ही उपासना है‚ परंतु ऐसा न जानकर फला सक्तिपूर्वक पृथक पृथक भाव से उपासना करने वाले को मेरी प्राप्ति न होकर विनाशी फल ही मिलता है।’ इसी बात को दिखलाने के लिये अब दो श्लोकों में उस उपासना का फल सहित वर्णन करते हैं। तीनों वेदों में विधान किये हुए सकर्मों को करने वाले‚ सोमरस पीने वाले‚ पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।
    वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं‚ अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में जाते हैं। किन्‍तु जो अनन्‍य प्रेमी भक्‍तजन मुझ परमेश्‍वर को निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए निष्‍काम भाव से भजते हैं, उन नित्‍य निरन्‍तर मेरा चिन्‍तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्‍वयं प्राप्‍त कर देता हूँ। हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा  से युक्‍त जो सकाम भक्‍त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, किन्‍तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात अज्ञानपूर्वक हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 24-28 का हिन्दी अनुवाद)

क्‍योंकि सम्‍पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्‍वामी भी मैं ही हूँ परन्‍तु वे मुझ परमेश्‍वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।
  • सम्बंध- भगवान के भक्त आवागमन को प्राप्त नहीं होते और अन्य देवताओं के उपासक आवागमन को प्राप्त होते हैं, इसका क्‍या कारण है? इस जिज्ञासा पर उपास्‍य के स्‍वरूप और उपवास के भाव से उपासना के फल में भेद होने का नियम बतलाते हैं- 
    देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्‍त होते है, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्‍त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्‍त होते हैं। और मेरा पूजन करने वाले भक्‍त मुझको ही प्राप्‍त होते हैं। इसीलिये मेरे भक्‍तों का पुनर्जन्‍म नहीं होता।

  • सम्‍बन्‍ध- भगवान् की भक्ति का भगवप्राप्ति रूप महान् फल होने पर उसके साधन में कोई कठिनता नहीं है, बल्कि उसका साधन बहुत ही सुगम है– यही बात दिखलाने के लिये भगवान् कहते हैं– 
जो कोई भक्‍त मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्‍प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्‍काम प्रेमी भक्‍त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र पुष्‍पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति स‍हित खाता हूँ। 
  • सम्‍बन्‍ध– यदि ऐसी ही बात है तो मुझे क्‍या करना चाहिये, इस जिज्ञासा पर भगवान् अर्जुन को उसका कर्त्‍तव्‍य बतलाते हैं- 
  है अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर, 
  • सम्‍बन्‍ध– इस प्रकार समस्‍त कर्मों को आपके अर्पण करने से क्‍या होगा, इस जिज्ञासा पर कहते हैं।
    इस प्रकार, जिसमें समस्‍त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं- ऐसे सन्‍यास संयोग से युक्‍त चित्‍तवाला तू शुभा शुभ फलरूप कर्मबन्‍धन से मुक्‍त हो जायगा और उनसे मुक्‍त होकर मुझको ही प्राप्‍त होगा। 
  • सम्‍बन्‍ध उपर्यक्‍त प्रकार से भगवान् की भक्ति करने वाले को भगवान् की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं होती– इस कथन से भगवान् विषमता के दोष की आशंका हो सकती है। अतएव उसका निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद)

     मैं सब भूतों में समभाव से व्‍यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परंतु जो भक्‍त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्‍य भाव से मेरा भक्‍त होकर मुझको भजता है। तो वह साधु ही मानने योग्‍य है, क्‍योंकि वह यथाथ निश्‍चय वाला है। अर्थात् उसने भली-भाँति निश्‍चय कर लिया है कि परमेश्‍वर के भजन के समान अन्‍य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्‍मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्‍त होता है। हे अर्जुन! तू निश्‍चयपूर्वक सत्‍य जान कि मेरा भक्‍त नष्‍ट नहीं होता।
  • सम्‍बन्‍ध– अब दो श्‍लोकों में भगवान् अच्‍छी बुरी जाति के कारण होने वाली विषमता का अपने में अभाव दिखलाते हुए शरणागतिरूप भक्ति का महत्‍व प्रतिपादन करके अर्जुन को भजन करने की आज्ञा देते हैं। 
हे अर्जुन! स्‍त्री, वैश्‍य, शुद्र तथा पापयोनि चाण्‍डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्‍त होते हैं। फिर इसमें कहना ही क्‍या है, जो पुण्‍यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्‍त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभगुंर इस मनुष्‍य शरीर को प्राप्‍त होकर निरन्‍तर मेरा ही भजन कर
  • सम्‍बन्‍ध– पिछले श्‍लोक में भगवान् ने अपने भजन का महत्‍व दिखलाया और अन्‍त में अर्जुन को भजन करने के लिये कहा। अतएव अब भगवान् अपने भजन का अर्थात शरणागति का प्रकार बतलाते हुए अध्‍याय की समाप्ति करते हैं और कहते हैं-
 हे अर्जुन! -मुझमें मनवाला हो मेरा भक्‍त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍म पर्व के श्रीमदभगवद्गीता पर्व के अन्‍तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्‍त्र श्रीमद्गवद्गीतापनिषद से, श्रीकृष्‍णार्जुन संवाद में राजविद्धराजगुहयोग नामक नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ (भीष्‍म पर्व में तैंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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