सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
अठ्ठाईसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 4
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)
“सगुण भगवान् के प्रभाव, निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा का वर्णन करते हुए विविध यज्ञों एवं ज्ञान की महिमा का वर्णन”
- सम्बन्ध- गीता के तीसरे अध्याय के चौथे श्लोक से लेकर उन्तीसवें श्लोक तक भगवान् ने बहुत प्रकार से विहित कर्मों के आचरण की आवश्यकता का प्रतिपादन करके तीसवें श्लोक में अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग की विधि से ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके भगवदर्पणबुद्धि से कर्म करने की आज्ञा दी। उसके बाद इकतीसवें पैंतीसवें श्लोक तक उस सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने वालों की प्रशंसा और न करने वालों की निन्दा करके राग-द्वेष के वश में न होने के लिये कहते हुए स्वधर्मपालन पर जोर दिया। फिर छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन के पूछने पर सैंतीसवें अध्याय-समाप्तिपर्यंत काम को सारे अनर्थों का हेतु बतलाकर बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों और मन को वश में करके उसे मारने की आज्ञा दी; परंतु कर्मयोग का तत्त्व बड़ा ही गहन है, इसलिये अब भगवान् पुन: उसके संबंध में बहुत-सी बातें बतलाने के उद्देश्य से उसी का प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले तीन श्लोकों में उस कर्मयोग की परम्परा बतलाकर उसकी अनादिता सिद्ध करते हुए प्रशंसा करते हैं-
हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातनयोग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।
अर्जुन बोले ;- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात् कल्प के आदि में हो चुका था; तब मैं इस बात को कैसे समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?
श्रीभगवान् बोले ;- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ।
- संबंध- भगवान् के मुख से यह बात सुनकर कि अब तक मेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, यह जानने की इच्छा होती है कि आपका जन्म किस प्रकार होता है और आपके जन्म में तथा अन्य लोगों कि जन्म में क्या भेद है। अतएव इस बात को समझाने के लिये भगवान् अपने जन्म का तत्त्व बतलाते हैं-
- संबंध-इस प्रकार भगवान् के मुख से उनके जन्म का तत्त्व सुनने पर यह जिज्ञासा होती है कि आप किस-किस समय और भगवान् दो श्लोकों में अपने अवतार के अवसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 9-18 का हिन्दी अनुवाद)
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है। वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता; किंतु मुझे ही प्राप्त होता है। पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे ओर जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।
हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
- सम्बन्ध- यदि यह बात है, तो फिर लोक भगवान् को न भजकर अन्य देवताओं की उपासना क्यों करते हैं? इस प्रकार कहते हैं-
कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता। पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये है। इसलिये तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर। कर्म क्या है? और अकर्म क्या है?- इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्म तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूंगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा।
कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार श्रोता के अन्त:करण में रुचि और श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये कर्मतत्त्व को गहन एवं उसका जानना आवश्यक बतलाकर अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान् कर्म का तत्त्व समझाते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं। तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप और अकर्म का अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त हैं, वह कर्म में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता। जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हैं, जो हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया हैं- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।
जिसकी आसक्ति नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
- संबंध- पूर्व श्लोक यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हवि का हवन करना ही यज्ञ है और उसका सम्पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; इसी भाव को सुस्पष्ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोक में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा की प्राप्ति के साधनरूप शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का विभिन्न यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं-
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं। कई पुरुष द्रव्यसंबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं। तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं। और कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं। दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाला हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 31-42 का हिन्दी अनुवाद)
- सम्बंध- इस प्रकार यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन यज्ञों को करने से होने वाले लाभ और न करने से हानि वाली हानि दिखलाकर भगवान् उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं-
- सम्बन्ध- सोलहवें श्लोक में भगवान् ने यह बात कही थी कि मैं तुम्हें वह कर्मतत्त्व बतलाऊंगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे। उस प्रतिज्ञा के अनुसार अठारहवें श्लोक से यहाँ तक उस कर्मतत्त्व का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हैं-
- सम्बन्ध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञों में से कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ हैं। इस पर भगवान् कहते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद)
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भलीभाँति तर जायगा। क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनों का भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।
इस संसार में ज्ञान के सामन पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है। जितेन्द्रीय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परमशान्ति को प्राप्त हो जाता हैं। विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
किंतु हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है। और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते। इसलिये हे भरतवंशी! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद, श्रीकृष्णअर्जुन संवाद में ज्ञानकर्मसंन्योग नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में अट्ठाईसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
उन्नतीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 5
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनत्रिश अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)
“सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तिसहित ध्यानयोग का वर्णन”
- संबंध- गीता के तीसरे और चौथे अध्याय में अर्जुन ने भगवान् के श्रीमुख से अनेकों प्रकार से कर्मयोग की प्रशंसासुनी और उसके सम्पादन की प्रेरणा तथा आज्ञा प्राप्त की। साथ ही वह भी सुना कि ‘कर्मयोग के द्वारा भगवत्स्वरूप का तत्त्वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है; गीता के चौथे अध्याय के अंत में भी उन्हें भगवान् के द्वारा कर्मयोग के सम्पादन की ही आज्ञा मिली। परंतु बीच-बीच में उन्होंने भवगान् के श्रीमुख से ही ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:’ ‘ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति, ‘तद् विद्धि प्रणिपातेन’ आदि वचनों द्वारा ज्ञानयोग अर्थात् कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा सुनी। इससे अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है। अतएव अब भगवान् के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते हैं-
श्रीभगवान् बोले ;- कर्मसन्ंयास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है।
इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। परंतु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत्स्वरूप को मन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्त:करण वाला हैं। और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनत्रिश अध्याय के श्लोक 8-15 का हिन्दी अनुवाद)
तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मूंदता हुआ भी, सब इन्द्रियों अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:संदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।
- सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्वरूप बतलाकर अब दसवें ओर ग्यारहवें श्लोकों में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं-
कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता हैं। अन्त:करण जिसके वश में हैं, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता हैं।
- सम्बन्ध- जबकि आत्मा वास्तव में कर्म करने वाला भी नहीं है और इन्द्रियादि से करवाने वाला भी नहीं है, तो फिर सब मनुष्य अपने को कर्मों का कर्ता क्यों मानते हैं और वे कर्मफल के भागी क्यों होते हैं? इस पर कहते हैं-
- सम्बन्ध- जो साधक समस्त कर्मों को और कर्मफलों की भगवान् के अर्पण करके कर्मफल से अपना सम्बन्धविच्छेद कर लेते हैं, उनके शुभाशुभ कर्मों के फल के भागी क्या भगवान् होते हैं। इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनत्रिश अध्याय के श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद)
परंतु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।
- सम्बन्ध- यथार्थ ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती हैं, यह बात संक्षेप में कहकर अब छब्बीसवें श्लोक तक ज्ञानयोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होने के साधन तथा परमात्मा को प्राप्त सिद्ध पुरुषों के लक्षण, आचरण, महत्त्व और स्थिति का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले यहाँ ज्ञानयोग के एकान्त साधन द्वारा परमात्मा की प्राप्ति बतलाते हैं-
जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया अर्थात् वे सदा के लिये जन्म-मरण से छूटकर जीवन् मुक्त हो गये; क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं। जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है। बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अंत:करण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है; तदनंतर वह सच्चिदानंदधन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्नभाव से स्थित पुरुष अक्षय आनंद का अनुभव करता है।
जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं तो भी दु:ख ही हेतु हैं और आदि-अंत वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनत्रिश अध्याय के श्लोक 23-26 का हिन्दी अनुवाद)
जो साधक इस मनुष्य शरीर में शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।
- संबंध- उपर्युक्त प्रकार से ब्रह्म विषयभोगों को क्षणिक और दु:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर चुका है, अब ऐसे सांख्ययोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन किया जाता है-
जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है। तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।
जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।
- सम्बन्ध- कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनों साधनों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों के लक्षण कहे गये। उक्त दोनों ही प्रकार के साधकों के लिये वैराग्यपूर्वक मन-इन्द्रियों को वश में करके ध्यानयोग का साधन करना उपयोगी है, अत: अब संक्षेप में फलसहित ध्यानयोग का वर्णन करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनत्रिश अध्याय के श्लोक 27-29 का हिन्दी अनुवाद)
बाहर के विषयभोगों को न चिन्तन करना हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।
- संबंध- जो मनुष्य इस प्रकार मन, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके कर्मयोग, सांख्ययोग या ध्यानयोग का साध न करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो, ऐसे साधक के लिये सुगमता से परमपद की प्राप्ति कराने वाले भक्तियोग का संक्षेप में वर्णन करते हैं-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवतद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुन संवाद में कर्मसंन्यासयोग नामक पांचवा अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में उन्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
तीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 6
- संबंध- पांचवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने ‘कर्मसंन्यास’ (सांख्ययोग) और ‘कर्मयोग’- इन दोनों में से कौन-सा एक साधन मेरे लिये सुनिश्चित कल्याणप्रद है? यह बतलाने के लिये भगवान् से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने दोनों साधनों-को कल्याणप्रद सुगमता होने के कारण ‘कर्मसंन्यास’ की अपेक्षा ‘कर्मयोग’ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। तदनंतर दोनों साधनों के स्वरूप, उनकी विधि और उनके फल का भलीभाँति निरुपण करके दोनों के लिये ही अत्यंत उपयोगी एवं परमात्मा-की प्राप्ति का प्रधान उपाय समझकर संक्षेप में ध्यानयोग का भी वर्णन किया; परंतु दोनों में से कौन-सा साधन करना चाहिये, इस बात को न तो अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में आज्ञा ही की गयी और न ध्यानयोग का ही अंग-प्रत्यंगोंसहित विस्तार से वर्णन हुआ। इसलिये अब ध्यानयोग का अंगोंसहित विस्तृत वर्णन करने के लिये छठे अध्याय का आरम्भ करते हुए सबसे पहले अर्जुन को भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से कर्मयोग की प्रशसा करते हैं।
- संबंध- पहले श्लोक में भगवान् ने कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्यासी और योगी बतलाया। उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि ‘संन्यासी’ और ‘योग’ दोनों भिन्न-भिन्न स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से सम्पन्न कैसे हो सकता है; अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में ‘संन्यास’ ‘योग’ की एकता का प्रतिपादन करते हैं-
- सम्बन्ध- परमपद की प्राप्ति में हेतु रूप योगारूढ़ अवस्था का वर्णन करके अब उसे प्राप्त करने के लिये उत्साहित करते हूए भगवान् मनुष्य का कर्तव्य बतलाते हैं-
- संबंध- जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र क्यों है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये अब शरीर, इन्द्रिय और मन रूप आत्मा को वश में करने का फल बतलाते हैं-
- संबंध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि जितात्मा पुरुष को परमात्मा की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, वह किस साधन से परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकता है, इसलिये ध्यानयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार ध्यानयोगी की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष के और उसके जीते हुए चित्त के लक्षण बतला देने के बाद अब तीन श्लोकों में ध्यानयोग द्वारा सच्चिदानन्द परमात्मा को प्राप्त पुरुष की स्थिति का वर्णन करते हैं।
- सम्बन्ध- बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें श्लोकों में परमात्मा की प्राप्तिरूप जिस स्थिति के महत्त्व और लक्षणों का वर्णन किया गया, अब उस स्थिति का नाम ‘योग’ बतलाते हुए उसे प्राप्त करने के लिये प्रेरणा करते हैं।
- सम्बन्ध- अब दो श्लोकों में उसी स्थिति की प्राप्ति के लिये अभेदरूप से परमात्मा के ध्यानयोग का साधन करने की रीति बतलाते हैं।
- सम्बन्ध- यदि किसी साधक का चित्त पूर्वाभ्यासवश बलात्कार से विषयों की ओर चला जाय तो उसे क्या करना चाहिये इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
- संबंध- इस प्रकार अभेदभाव से साधन करने वाले सांख्ययोगी के ध्यान का और उसके फल का वर्णन करके अब इस साधक के व्यवहार काल की स्थिति का वर्णन करते हैं।
- संबंध-इस प्रकार सांख्ययोग का साधन करने वाले योगी-का और उसकी सर्वत्र समदर्शनरूप अंतिम स्थिति का वर्णन करने के बाद, अब भक्तियोग का साधन करने वाले योगी की अंतिम स्थिति का और उसके सर्वत्र भगवद्दर्शन का वर्णन करते हैं।
- संबंध-इस प्रकार भक्तियोग द्वारा भगवान् को प्राप्त हुए पुरुष के महत्त्व का प्रतिपादन करके अब सांख्यायोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के समदर्शन का और महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं-
- संबंध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि मन को वश में न किया जाय, तो क्या हानि है; इस पर भगवान् कहते हैं-
- संबंध-साधारण योगभ्रष्ट पुरुषों की गति बतलाकर अब आसक्तिहित उच्च श्रेणी के योगभ्रष्ट पुरुषों की विशेष गति का वर्णन करते हैं-
- संबंध-अब पवित्र श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट पुरुष की परिस्थिति का वर्णन करते हुए योग को जानने की इच्छा का महत्त्व बतलाते हैं।
- संबंध- पूर्वश्लोक में योगी को सर्वश्रेष्ठ बतलाकर भगवान् ने अर्जुन को योगी बनने के लिये कहा; किंतु ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधनों में से अर्जुन को कौन-सा साधन करना चाहिेय? इस बात का स्पष्टीकरण नहीं किया। अत: अब भगवान् अपने में अनन्यप्रेम करने वाले भक्त योगी की प्रशंसा करते हुए अर्जुन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं-
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