सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
पच्चीसवाँ अध्याय
“श्रीमद्भगवद्गीता” अध्याय 1
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“दोनों सेनाओं के प्रधान–प्रधान वीरों एवं शंखध्वनि का वर्णन तथा स्वजनवध के पाप से भयभीत हुए अर्जुन का विषाद”
धृतराष्ट्र बोले ;- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
संजय बोले ;- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा,
दुर्योधन बोला ;- 'हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए।
आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ। आप-द्रोणाचार्य और पितामाह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सबके सब युद्ध में चतुर हैं। भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिये सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें’। (तब) कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योंधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। उसके पश्चात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका यह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने अलौकिक शंख बजाये। श्रीकृष्ण महाराज ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्! (सब ओर से) अलग-अलग शंख बजाये। और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के यानि आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये।
हे राजन्! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये। और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है? तब तक उसे खड़ा रखिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 23-47 का हिन्दी अनुवाद)
‘दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा’।
संजय बोले ;- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख’। इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ने ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाईयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा। उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।
अर्जुन बोले ;- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो रहा है। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ। हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरित देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं।
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है? हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये? कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।
हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं। हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं। यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा।
संजय बोले ;- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवदगीता पर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवदगीतोपनिषद्, श्री कृष्णार्जुन संवाद में अर्जुन विषाद योग नामक पहला अध्याय पूरा हुआ (भीष्म पर्व में पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित करते हुए भगवान् के द्वारा नित्यानित्य वस्तु के विवेचनपूर्वक सांख्ययोग, कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन”
“सम्बन्ध,- पहले अध्याय में गीता के उपदेश की प्रस्तावना के रूप में दोनों सेनाओं के महारथियों का और उनकी शंखध्वनि का वर्णन करके अर्जुन का रथ दोनो सेनाओं के बीच में खड़ा करने की बात कही गयी; उसके बाद दोनों सेनाओं में स्थित स्वजन समुदाय को देखकर शोक और मोह के कारण अर्जुन के युद्ध से निवृत्त हो जाने की और शस्त्र-अस्त्रों को छोड़कर विषाद करते हुए बैठ जाने की बात कहकर उस अध्याय की समाप्ति की गयी। ऐसी स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या बात कही और किस प्रकार उसे युद्ध के लिये पुनः तैयार किया; यह सब बतलाने की आवश्यकता होने पर संजय अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए दूसरे अध्याय का आरम्भ करते है”
संजय बोले ;- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा।
श्रीभगवान् बोले ;- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा।
अर्जुन बोले ;– हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं। इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।।
- सम्बन्ध- इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे–
अर्जुन ने कहा ;- हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना– इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये। क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।
संजय बोले ;– हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान् से युद्ध नहीं करूँगा यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अर्न्तयामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले।
- सम्बन्ध– उपर्युक्त प्रकार से चिन्तामग्न अर्जुन ने जब भगवान् के शरण होकर अपने महान् शोक की निवृत्ति का उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोक का राज्यसुख इस शोक की निवृत्ति का उपाय नहीं है, तब अर्जुन को अधिकारी समझकर उसके शोक और मोह को सदा के लिये नष्ट करने के उद्देश्य से भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचनपूर्वक सांख्ययोग की दृष्टि से भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठा का वर्णन करते हैं-
श्रीभगवान् बोले ;– हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
- सम्बंध- पहले भगवान् आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का प्रतिपादन करके आत्मदृष्टि से उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करतें हैं-
न तो ऐसा है कि मैं किसी काल में किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। जैसा जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता। अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा-अवस्थारूप स्थूल शरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकार भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिये तत्त्व को जानने वाला और पुरुष मोहित नहीं होता। हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखों को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति– विनाशशील और अनित्य है; इसलिये भारत! उनको तू सहन कर। क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।
- सम्बन्ध– बारहवें और तेरहवें श्लोक में भगवान् ने आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का प्रतिपादन किया गया तथा चौदहवें श्लोक में इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोग को अनित्य बतलाया, किन्तु आत्मा क्यों नित्य है और ये संयोग क्यों अनित्य है? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया; अतएव श्लोक में भगवान् नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन की रीति बतलाने के लिये दोनों के लक्षण बतलाते हैं–
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्– दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तु युद्ध कर।
- सम्बन्ध- अर्जुन ने जो यह बात कही थी कि मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमतर होगा उसका समाधान करने के लिये अगले श्लोकों में आत्मा को मरने या मारने वाला मानना अज्ञान है, यह कहते हैं–
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षडविंश अध्याय के श्लोक 21-30 का हिन्दी अनुवाद)
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है।
- सम्बन्ध– यहाँ यह शंका होती है कि आत्मा का जो एक शरीर से सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीर से सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इस पर कहते हैं–
- सम्बन्ध– आत्मा का स्वरूप दुर्विज्ञेय होने के कारण पुनः तीन श्लोकों द्वारा प्रकारान्तर से उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारता– का प्रतिपादन करते हुए उसके विनाश की आशंका से शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं–
- सम्बन्ध– उपर्युक्त श्लोकों में भगवान ने आत्मा को अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; अब दो श्लोकों द्वारा आत्मा को औपचारिक रूप से जन्मने–मरने वाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है–
- सम्बन्ध– अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता–
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
- सम्बन्ध- आत्मतत्त्व अत्यन्त दुर्बोव होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपुर्यक्त श्लोंकों द्वारा भिन्न–भिन्न प्रकार से उसके स्वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्लोक में उस आत्मतत्त्व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं–
हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद)
हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वारा रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। यदि तु इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे। तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दु:ख और क्या होगा? या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तु युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
- सम्बन्ध– उपर्युक्त श्लोक में भगवान् ने युद्ध का फल राज्यसुख या स्वर्ग की प्राप्ति तक बतलाया, किंतु अर्जुन ने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोक के राज्य की तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकी के राज्य के भी अपने कुल का नाश नहीं करना चाहता; अत: जिसे राज्यसुख और स्वर्ग की इच्छा न हो उसको किस भाव से युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोक में बतलायी जाती है–
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।
- सम्बन्ध- यहाँ तक भगवान् ने सांख्ययोग के सिद्धान्त से तथा क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध का औचित्य सिद्ध करके अर्जुन को समता-पूर्वक युद्ध करने के लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोग के सिद्धान्त से युद्ध का औचित्य बतलाने के लिये कर्मयोग के वर्णन की प्रस्तावना करते हैं–
हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तु इसको कर्मयोग के विषय में सुन जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भली-भाँति त्याग देगा यानि सर्वथा नष्ट कर डालेगा।
- सम्बन्ध- इस प्रकार कर्मयोग के वर्णन की प्रस्तावना करके अब उसका रहस्यपूर्ण महत्त्व बतलाते हैं–
इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फलरूप दोष भी नहीं है; बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार कर्मयोग का महत्त्व बतलाकर अब उसके आचरण की विधि बतलाने के लिये पहले उस कर्मयोग में परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगी की निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोग में बाधक जो सकाम मनुष्यों की भिन्न-भिन्न बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं –
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 41-51 का हिन्दी अनुवाद)
हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।
- सम्बन्ध- अब तीनों श्लोकों में सकाम भाव को त्याज्य बतलाने के लिये सकाम मनुष्यों के स्वभाव, सिद्धान्त और आचार व्यवहार का वर्णन करते हैं-
हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादी द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित, योगक्षेमको न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो। सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।
- सम्बन्ध- इस प्रकार समबुद्धि रूप कर्मयोग का और उसके फल का महत्त्व बतलाकर अब दो श्लोकों में भगवान् कर्मयोग का स्वरूप बतलाते हुए अर्जुन को कर्मयोग में स्थित होकर कर्म करने के लिये कहते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार कर्मयोग की प्रक्रिया बतलाकर अब सकाम भाव की निन्दा और समभावरूप बुद्धि योग का महत्व प्रकट करते हुए भगवान् अर्जुन को उसका आश्रय लेने के लिये आज्ञा देते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 52-60 का हिन्दी अनुवाद)
जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को भलीभाँति पार कर जायेगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी मार्गों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा। भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायेगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा।
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में भगवान् ने यह बात कही की जब तुम्हारी बुद्धि परमात्मा में निश्चल ठहर जायेगी, तब तुम परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। इस पर परमात्मा की प्राप्त स्थितप्रज्ञ सिद्धयोगी के लक्षण और आचरण जानने की इच्छा से अर्जुन से पूछते हैं–
- सम्बन्ध– पूर्व श्लोक में अर्जुन ने परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध योग के विषय में चार बातें पूछी हैं; इन चारों बातों का उत्तर भगवान् ने अध्याय की समाप्ति पर्यन्त दिया है, बीच में प्रसंगवश दूसरी बातें भी कही हैं। इस अगले श्लोक में भगवान् अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर संक्षेप में देते हैं–
- सम्बन्ध– अब दो श्लोकों में स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है इस दूसरे प्रश्न का उत्तर दिया जाता है–
- सम्बन्ध– अब भगवान् वह कैसे बैठता है? इस तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं–
- सम्बन्ध– पूर्व श्लोक में तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ के बैठने का प्रकार बतलाकर अब उसमें होने वाली शंकाओं का समाधान करने के लिये अन्य प्रकार से किये जाने वाले इन्द्रिय संयम की अपेक्षा स्थितप्रज्ञ के इन्द्रिय संयम की विलक्षणता दिखलाते हैं–
- सम्बन्ध– आसक्ति का नाश और इन्द्रिय संयम नहीं होने से क्या हानि है? इस पर कहते हैं–
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 61-69 का हिन्दी अनुवाद)
इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।
- सम्बन्ध – उपर्युक्त प्रकार से मनसहित इन्द्रियों को वश में न करने से और भगवत्परायण न होने से क्या हानि है ? यह बात अब दो श्लोकों में बतलायी जाती हैं –
- सम्बन्ध – इस प्रकार मन सहित इन्द्रियों को वश में न करने वाले मनुष्य के पतन का क्रम बतलाकर अब भगवान् स्थितप्रज्ञ योगी कैसे चलता है इस चौथे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हुए पहले दो श्लोकों में जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में होते हैं, ऐसे साधक द्वारा विषयों में विचरण किये जाने का प्रकार और उसका फल बतलाते हैं –
- सम्बन्ध – इस प्रकार मन और इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त भाव से इन्द्रियों द्वारा व्यवहार करने वाले साधक को सुख, शान्ति और स्थ्तिप्रज्ञ अवस्था प्राप्त होने की बात कहकर अब दो श्लोकों द्वारा इससे विपरित जिसके मन इन्द्रिय जीते हुए नहीं हैं, ऐसे विषयासक्त मनुष्य में सुख शान्ति का अभाव दिखलाकर विषयों के संग से उसकी बुद्धि के विचलित हो जाने का प्रकार बतलाते हैं–
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 70-72 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं।
- सम्बन्ध– स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है? अर्जुन का यह चौथा प्रश्न परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के विषय में ही था; किंतु यह प्रश्न आचरण विषयक होने के कारण उसके उत्तर में चौंसठवें श्लोक से यहाँ तक किस प्रकार आचरण करने वाला मनुष्य शीघ्र स्थितप्रज्ञ बन सकता है, कौन नहीं बन सकता और जब मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है उस समय उसकी कैसी स्थिती होती है- ये सब बातें बतलायी गयीं। अब उस चौथे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष के आचरण का प्रकार बतलाते हैं-
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है।
- सम्बन्ध– इस प्रकार अर्जुन के चारों प्रश्नों का उत्तर देने के अनन्तर अब स्थितप्रज्ञ पुरुष की स्थिति का महत्त्व बतलाते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमद्भवद्गीतोपनिषद, श्री कृष्णार्जुन संवाद में सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)
“ज्ञानयोग और कर्मयोग आदि समस्त साधनों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्म पालन की महिमा तथा कामनिरोध के उपाय का वर्णन”
- सम्बन्ध- दूसरे अध्याय में भगवान् ने अशोच्यानन्वशोचस्त्वम् से लेकर देही नितयमवध्योऽयम् तक आत्मत्त्व का निरूपण करते हुए सांख्ययोग का प्रतिपादन किया और बुद्धियोंगे त्विमां श्रृणु से लेकर तदा योगमवाप्स्यसि तक समबुद्धि रूप कर्मयोग का वर्णन किया। इसके पश्चात चौवनवें श्लोक से अध्याय की समाप्ति पर्यन्त अर्जुन के पूछने पर भगवान् ने समबुद्धि रूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को प्राप्त हुए स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्त्व का प्रतिपादन किया। वहाँ कर्मयोग की महिमा कहते हुए भगवान् ने सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों में कर्मयोग का स्वरूप बतलाकर अर्जुन को कर्म करने के लिये कहा, उन्चासवें में समबुद्धि रूप कर्मयोगी की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत ही नीचा बतलाया, पचासवें में समबुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में लगने के लिये कहा, इक्यावनवें में समबुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को अनामय पद की प्राप्ति बतलायी। इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन उसका यथार्थ अभिप्राय निश्चित नहीं कर सके। बुद्धि शब्द का अर्थ ज्ञान मान लेने से उन्हें भ्रम हो गया, भगवान् के वचनों में कर्म की अपेक्षा ज्ञान की प्रशंसा प्रतीत होने लगी एवं वे वचन उनको स्पष्ट न दिखाई देकर मिले हुए से जान पड़ने लगे। अतएव भगवान् ने उनका स्पष्टीकरण करवाने की और अपने लिये निश्चित श्रेयासाधन जानने की इच्छा से अर्जुन पूछते हैं।
अर्जुन बोले ;- हे जर्नादन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये, जिससे में कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।
- सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान् उनका निश्चित कर्तव्य भक्तिप्रधान कर्मयोग बतलाने के उद्देश्य से पहले उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि मेरे वचन व्यामिश्र अर्थात् मिले हुए नहीं है वरं सर्वथा स्पष्ट और अलग अलग हैं।
श्री भगवान् बोले ;- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के कवल त्याग मात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है।
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; इस पर यह शंका होती है कि इन्द्रियों की क्रियाओं को हठ से रोककर भी तो मनुष्य कर्मों का त्याग कर सकता है। इस पर कहते हैं-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 7-15 का हिन्दी अनुवाद)
किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
- सम्बन्ध- अर्जुन ने यह पूछा था कि आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं, उसके उत्तर में ऊपर से कर्मों का त्याग करने वाले मिथ्याचारी की निन्दा और कर्मयोगी की प्रशंसा करके अब उन्हें कर्म करने के लिये आज्ञा देते है-
- सम्बन्ध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म भी तो बन्धन के हेतु माने गये हैं; फिर कर्म न करने की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ कैसे है; इस पर कहते हैं-
यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में भगवान् ने यह बात कही की यज्ञ के निमित्त कर्म करने वाला मनुष्य कर्मों से नहीं बँधता; इसलिये यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि यज्ञ किसको कहते है, उसे क्यों करना चाहिये और उसके लिये कर्म करने वाला मनुष्य कैसे नहीं बँधता। अतएव इन बातों को समझाने के लिये भगवान् ब्रह्मा जी के वचनों का प्रमाण देकर कहते हैं-
यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।
- सम्बन्ध- यहाँ यह जिज्ञास होती है कि यज्ञ न करने से क्या हानि है; इस पर सृष्टि चक्र को सुरक्षित रखने के लिये यज्ञ की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद)
हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों मे रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। क्योंकि उस महापुरुष को इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किचिंत मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।
- सम्बंध– यहाँ तक भगवान् ने बहुत से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्य को परम् श्रेय रूप परमात्मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्वधर्म का पालन करना अर्थात् अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहित कर्मों का अनुष्ठान नि:स्वार्थ भाव से करना अवश्य कर्तव्य है और परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिये किसी प्रकार का कर्तव्य न रहने पर भी उसके मन इन्द्रियों द्वारा लोक संग्रह के लिये प्रारम्भानुसार कर्म होते हैं। अब उपर्युक्त वर्णन का लक्ष्य कराते हुए भगवान् अर्जुन को अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्म करने के लिये आज्ञा देते हैं–
- सम्बन्ध– पूर्व श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को लोकसंग्रह की ओर देखते हुए कर्मों का करना उचित बतलाया; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि कर्म करने से किस प्रकार लोकसंग्रह होता है; अत: यही बात समझाने के लिये कहते हैं–
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाये; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ। इसलिये हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म कर। परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करें; किंतु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावें।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 27-31 का हिन्दी अनुवाद)
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी जिसका अन्त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसा मानता है। परंतु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्म विभाग के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। प्रकृति गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।
- सम्बन्ध– अर्जुन की प्रार्थना के अनुसार भगवान् ने उसे एक निश्चित कल्याण कारक साधन बतलाने के उद्देश्य से; चौथे श्लोक से लेकर यहाँ तक यह बात सिद्ध है कि मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो, उसे अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुरूप विहित कर्म करते रहना चाहिये। इस बात को सिद्ध करने के लिये पूर्व श्लोकों में भगवान् ने क्रमश: निम्नलिखित बातें कहीं हैं–
- कर्म किये बिना नैष्कर्म्य सिद्धि रूप कर्मनिष्ठा नहीं मिलती।
- कर्मों का त्याग कर देने मात्र से ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती।
- एक क्षण के लिये भी मनुष्य स्वर्था कर्म किये बिना नहीं रह सकता।
- बाहर से कर्मों का त्याग करके मन से विषयों का चिन्तन करते रहना मिथ्याचार है।
- मन इन्द्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है।
- कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है।
- बिना कर्म किये शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता।
- यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्म बन्धन करने वाले नहीं, बल्कि मुक्ति के कारण हैं।
- कर्म करने के लिये प्रजापति की आज्ञा है और नि:स्वार्थ भाव से उसका पालन करने से श्रेय की प्राप्ति होती है।
- कर्तव्य का पालन किये बिना भोगों का उपभोग करने वाला चोर है।
- कर्तव्य पालन करके यज्ञशेष से शरीर निर्वाह के लिये भोजनदि करने वाला सब पापों से छूट जाता है।
- जो यज्ञादि न करके केवल शरीर पालन के लिये भोजन पकाता है, वह पापी है।
- कर्तव्य कर्म के त्याग द्वारा सृष्टि चक्र में बाधा पहुँचाने वाले मनुष्य का जीवन व्यर्थ और पापमय है।
- अनासक्ति भाव से कर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
- पूर्वकाल में जनकादि ने भी कर्मों द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी।
- दूसरे मनुष्य श्रेष्ठ महापुरुष का अनुकरण करते हैं, इसलिये श्रेष्ठ महापुरुष को कर्म करना चाहिये।
- भगवान् को कुछ भी कर्तव्य नहीं है, तो भी वे लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हैं।
- ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तो भी उसे लोकसंग्रह के लिये कर्म करना चाहिये।
- ज्ञानी को स्वयं विहित कर्मों का त्याग करके या कर्मत्याग उपदेश देकर किसी प्रकार भी लोगों को कर्तव्य कर्म से विचलित न करना चाहिये वरं स्वयं कर्म करना और दूसरों से करवाना चाहिये।
- ज्ञानी महापुरुष को उचित है कि विहित कर्मों का स्वरूपत: त्याग करने का उपदेश देकर कर्मासक्त मनुष्यों को विचलित न करें।
इस प्रकार कर्मों की आवश्यक कर्तव्यता का प्रतिपादन करके अब भगवान् अर्जुन की दूसरे श्लोक में की हुई प्रार्थना के अनुसार उसे परम कल्याण की प्राप्ति का ऐकान्तिक और सर्वश्रेष्ठ निश्चित साधन बतलाते हुए युद्ध के लिये आज्ञा देते हैं– मुझ अर्न्तयामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद)
परंतु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ।
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि भगवान् के मत अनुसार न चलने वाला नष्ट हो जाता है। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यदि कोई भगवान् के मत के अनुसार कर्म न करके हठपूर्वक कर्मों का सर्वथा त्याग कर दे तो क्या हानि है? इस पर कहते हैं-
- सम्बन्ध- इस प्रकार सबको प्रकृति के अनुसार कर्म करने पड़ते हैं, तो फिर कर्मबन्धन से छूटने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये? इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
- सम्बन्ध- यहाँ अर्जुन के मन में यह बात आ सकती है कि मैं यह युद्ध रूप घोर कर्मन करके यदि भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करता हुआ शान्तिमय कर्मों में लगा रहाँ तो सहज ही रागद्वेष से छूट सकता हूँ; फिर आप मुझे युद्ध करने के लिये आज्ञा क्यों दे रहे हैं; इस पर भगवान् कहते हैं-
- सम्बन्ध- मनुष्य का स्वधर्म पालन करने में ही कल्याण है, परधर्म का सेवन और निषिद्ध कर्मों का आचरण करने में सब प्रकार से हानि है। इस बात को भलीभाँति समझ लेने के बाद भी मनुष्य अपने इच्छा, विचार और धर्म के विरुद्ध पापाचार में किस कारण प्रवृत्त हो जाते हैं? इस बात को जानने की इच्छा से अजुर्न पूछते हैं-
श्री भगवान् बोले ;- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में बैरी जान।
- सम्बन्ध- यहाँ जिज्ञासा होती है कि यह काम मनुष्य को किस प्रकार पापों में प्रवृत्त करता है। अत: तीन श्लोकों द्वारा इसका समाधान करता है-
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 40-43 का हिन्दी अनुवाद)
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा की ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।
- सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में इन्द्रियों को वश में करके कामरूप शत्रु को मारने के लिये कहा गया। इस पर यह शंका होती है कि जब इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर काम का अधिकार है और उनके द्वारा काम ने जीवात्मा को मोहित कर रखा है, तब ऐसी स्थिति में वह इन्द्रियों को वश में करके काम को कैसे मार सकता है। इस पर कहते हैं-
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमद्भवद्गीतोपनिषद, श्री कृष्णार्जुन संवाद में कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ (भीष्मपर्व में सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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