सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से चौबीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 24 chapter of the entire Mahabharata (Bhishma Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव सेना को देखकर युधिष्ठिर का विषाद करना और "श्रीकृष्ण की कृपा से ही विजय होती है" यह कहकर अर्जुन का उन्हें आश्वासन देना”

   संजय कहते हैं ;- राजन्! युद्ध के लिये उद्यत हुई दुर्योधन की विशाल सेना को देखकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में विषाद छा गया। भीष्म ने जिस व्यूह की रचना की थी। उसका भेदन करना असम्भव था। उसे अक्षोभ्य सा देखकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की अंग-कान्ति फीकी पड़ गयी। वे अर्जुन से इस प्रकार बोले,

   युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहु धनंजय! जिनके प्रधान योद्धा पितामह भीष्म हैं। उन धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ हम समर भूमि में कैसे युद्ध कर सकते हैं। महातेजस्वी शत्रुसूदन भीष्म ने शास्त्रीय विधि के अनुसार यह अक्षोभ्य एवं अमेद्य व्यूह रचना है। शत्रुनाशन अर्जुन! हम लोग अपनी सेनाओं के साथ प्राणसंकट की स्थिति में पहुँच गये हैं।

      इस महान व्यूह से हमारा उद्धार कैसे होगा। राजन! तब शत्रुओं का नाश करने वाले अर्जुन ने आपकी सेना को देखकर विषादग्रस्त से हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को सम्बोधित करके कहा,

   अर्जुन बोले ;-- प्रजानाथ! अधिक बुद्धिमान्, उत्तम गुणों से युक्त तथा बहुसंख्यक शूरवीरों को भी बहुत थोड़े योद्धा जिस प्रकार जीत लेते हैं, उसे बताता हूँ, सुनिये,- 'राजन! आप दोषदृष्टि से रहित हैं, अतः आपको वह युक्ति बताता हूँ। पाण्डुनन्दन उसे केवल देवर्षि नारद, भीष्म तथा द्रोणाचार्य जानते हैं। कहते हैं, पूर्वकाल में जब देवासुरसंग्राम हो रहा था, उस समय इसी विषय को लेकर पितामह ब्रह्मा ने इन्द्र आदि देवताओं से इस प्रकार कहा था। विजय की इच्छा रखने वाले शूरवीर अपने बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पाते, जैसी कि सत्य, सज्जनता, धर्म तथा उत्साह से प्राप्त कर लेते हैं। देवताओं! अधर्म, लोभ और मोह त्याग कर उद्यम का सहारा ले अहंकार शून्य होकर युद्ध करो। जहाँ धर्म है उसी पक्ष की विजय होती है।

    राजन्! इसी नियम के अनुसार आप भी यह निश्चित रूप से जान लें कि युद्ध में हमारी विजय अवश्यम्भावी है। जैसा कि नारद जी ने कहा है, जहाँ कृष्ण हैं, वहीं विजय है। विजय तो श्रीकृष्ण का एक गुण है, अतः वह उनके पीछे-पीछे चलता है। जैसे विजय गुण है, उसी प्रकार


विजय भी उनका द्वितीय गुण है। भगवान गोविन्द का तेज अनन्त है। वे शत्रुओं के समुदाय में भी कभी व्यथित नहीं होते, क्योंकि वे सनातन पुरुष (परमात्मा) हैं। अतः जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। ये श्रीकृष्ण कहीं भी प्रतिहत या अवरुद्ध न होने वाले ईश्वर हैं। इनका बाण अमोघ है। ये ही पूर्वकाल में श्री हरि रूप में प्रकट हो वज्रगर्जन के समान गम्भीर वाणी में देवताओं और असुरों से बोले,,
   श्री कृष्ण बोले ;- तुम लोगों में से किसकी विजय हो। 
उस समय जिन लोगों ने उनका आश्रय लेकर पूछा,,- कृष्ण! हमारी जीत कैसे होगी। उन्हीं की जीत हुई। इस प्रकार श्रीकृष्ण की कृपा से ही इन्द्र आदि देवताओं ने त्रिलोकी का राज्य प्राप्त किया है। अतः भारत! मैं आपके लिये किसी प्रकार की व्यथा या चिन्ता होने का कारण नहीं देखता, क्योंकि देवेश्वर तथा विश्वम्भर भगवान श्रीकृष्ण आपके लिये विजय की आशा करते हैं।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीतापर्व में युधिष्ठिर अर्जुनसंवादविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर की रणयात्रा, अर्जुन और भीमसेन की प्रशंसा तथा श्रीकृष्ण का अर्जुन से कौरव सेना को मारने के लिये कहना”

    संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भीष्म जी की सेना का सामना करने के लिये अपनी सेना की व्यूह रचना करते हुए उसे युद्ध के लिये प्रेरित किया। कुरुकुल के धुरन्धर वीर पाण्डवों ने उत्तम युद्ध के द्वारा उत्कृष्ट स्वर्ग लोक की इच्छा रखकर शास्त्रोक्त विधि से शत्रु के मुकाबिले में अपनी सेना का व्यूह-निर्माण किया। व्यूह के मध्यभाग में सव्यसाची अर्जुन द्वारा सुरक्षित शिखण्डी की सेना थी और अग्रभाग में भीमसेन द्वारा पालित धृष्टद्युम्न विचरण कर रहे थे। राजन! उस व्यूह के दक्षिण भाग की रक्षा इन्द्र के समान धनुर्धर सात्वतशिरोमणि श्रीमान सात्यकि कर रहे थे।

    राजा युधिष्ठिर हाथियों की सेना के बीच में खड़े एक सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए, जो देवराज इन्द्र के रथ की समानता कर रहा था। उस रथ में सब आवश्यक सामग्री रखी गयी थी। भाँति-भाँति के सुवर्ण तथा रत्नों से विभूषित होने के कारण उस रथ की विचित्र शोभा हो रही थी। उसमें सुवर्णमय भाण्ड तथा रस्सियाँ रखी हुईं थी। उस समय किसी सेवक ने युधिष्ठिर के ऊपर हाथी के दाँतों की बनी हुई शलाकाओं से युक्त श्वेत छत्र लगा रखा था, जिसकी बड़ी शोभा हो रही थी। कुछ महर्षिगणों ने नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा महाराज युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। शास्त्रों के विद्वान, पुरोहित, ब्रह्मर्षि और सिद्धगण जप मन्त्र तथा उत्तम औषधियों द्वारा सब ओर से युधिष्ठिर के कल्याण और शत्रुओं के संहार का शुभ आशीर्वाद देने लगे। उस समय देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिर बहुत से वस्त्र, गाय, फल-फूल और स्वर्णमय आभूषण ब्राह्मणों को दान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अर्जुन का रथ ज्वालमालाओं से युक्त अग्नि के समान शोभा पा रहा था।

    उसमें सूर्य की आकृति के सहस्रों चक्र विद्यमान थे। सैकड़ों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थीं। बहुमूल्य जाम्बूनन्द नामक सुवर्ण से भूषित होने के कारण उस रथ की विचित्र शोभा हो रही थी। उसमें श्वेत रंग के घोड़े और सुन्दर पहिये लगे थे। गाण्डीव धनुष और बाण हाथ में लिये हुए कपिध्वज अर्जुन उस रथ पर आरूढ़ थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी बागडोर सँभाल रखी थी। अर्जुन के समान धनुर्धर इस भूतल पर न तो कोई है और न होगा ही। महाराज! जो सुन्दर बाहों वाले भीमसेन बिना आयुध के केवल भुजाओं से ही युद्ध में मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को भस्म कर सकते हैं, उन्होंने ही आपके पुत्रों की सेना का संहार कर डालने के लिये अत्यन्त रौद्र रूप धारण कर रखा है। वृकोदर भीमसेन नकुल और सहदेव के साथ रहकर अपने वीर रथी धृष्टद्युम्न की रक्षा कर रहे थे। जो सिंहों और साँड़ों के समान उन्मत्त से होकर युद्ध का खेल खेलते हैं, जिनका दर्प गजराज के समान बढ़ा हुआ है तथा जो लोक में देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, उन्हीं दुर्धर्ष वीर भीमसेन को सेना के अग्रभाग में उपस्थित देख आपके सैनिक भय से उद्विग्न चित्त हो कीचड़ में फँसे हुए हाथियों की भाँति व्यथित हो उठे।

    उस समय सेना के मध्यभाग में खडे़ हुए दुर्जय वीर निद्राविजयी भरतश्रेष्ठ राजकुमार अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा,-

    भगवान वासुदेव बोले ;- धनंजय। ये जो अपनी सेना के मध्यभाग में स्थित हो रोष से तप रहे हैं और सिंह के समान हमारी सेना की ओर देखते हैं, ये ही कुरुकुलकेतु भीष्म हैं, जिन्होंने अब तक तीन सौ अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान किया है। जैसे बादल अंशुमाली सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार ये सारी सेनाएँ इन महानुभाव भीष्म को आच्छादित किये हुए हैं। नरवीर अर्जुन। तुम पहले इन सेनाओं को मारकर भरतकुलभूषण भीष्म जी के साथ युद्ध की अभिलाषा करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्री मद्भगवदगीता पर्व में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का संवादविषयक बाईसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति, वरप्राप्ति और अर्जुनकृत दुर्गास्तवन के पाठ की महिमा”

    संजय कहते हैं ;- दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित के लिये इस प्रकार कहा।

    श्रीभगवान बोले ;- महाबाहो! तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो। पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गा देवी की स्तुति करो। 

   संजय कहते हैं ;- परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतरकर दुर्गा देवी की स्तुति करने लगे। 

   अर्जुन बोले ;- मन्दराचल पर निवास करने वाली सिद्धों की सेनानेत्री आयें। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। तुम्हीं कुमारी, काली, कापाली, कपिला, कृष्णपिंग्ला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो, तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तों को संकट से तारने के कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।

   महाभागे। तुम्हीं (सौम्य और सुन्दर रूप वाली) पूजनीया कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जया के नाम से विख्यात हो। मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है। नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। तुम भयंकर त्रिशूल, खड्ग और खेटक आदि आयुधों को धारण करती हो। नन्दगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्ण की तुम छोटी बहिन हो, परंतु गुण और प्रभाव में सर्वश्रेष्ठ हो। महिषासुर का रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। तुम कुशिकगोत्र में अवतार लेने के कारण कौशिकी नाम से भी प्रसिद्ध हो। तुम पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओं को देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्रवाक के समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है। मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ। उमा, शाकम्भरी, श्वेता, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी और सुधूभ्राक्षी आदि नाम धारण करने वाली देवी! तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है।

    तुम वेदों की श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है, वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्नि की शक्ति हो, जम्बू, कटक और चैत्यवृक्षों में तुम्हारा नित्य निवास है। तुम समस्त विद्याओं में ब्रह्माविद्या और देहधारियों की महानिद्रा हो। भगवति! तुम कार्तिकेय की माता हो, दुर्गम स्थानों में वास करने वाली दुर्गा हो। सावित्रि! स्वाहा, स्वाध, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता तथा वेदान्त- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं। महादेवी। मैंने विशुद्ध हृदय से तुम्हारा स्तवन किया है। तुम्हारी कृपा से इस रणांगण में मेरी सदा ही जय हो। माँ! तुम घोर जंगल में, भयपूर्ण दुर्गम स्थानों में, भक्तों के घरों में तथा पाताल में भी नित्य निवास करती हो। युद्ध में दानवों को हराती हो। तुम्हीं जम्भनी, मोहिनी, माया, हीं, श्रीं, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो। तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य-चन्द्रमा को बढ़ाने वाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानों की विभूति हो। युद्ध भूमि में सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं। 

   संजय कहते हैं ;- राजन्! अर्जुन के इस भक्तिभाव का अनुभव करके मनुष्यों पर वात्सल्य भाव रखने वाली माता दुर्गा अन्तरिक्ष में भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयीं और इस प्रकार बोलीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

   देवी ने कहा ;- पाण्डुनन्दन! तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। दुर्धर्ष वीर! तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा वहाँ से क्षण भर में अन्तर्धान हो गयीं।

   वह वरदान पाकर कुन्तीकुमार अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए। फिर एक रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाये। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता। शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है।

    वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान भगवान व्यास जी के कृपा-प्रसाद से मैंने प्रत्यक्ष देखा है। राजन् आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं।

   नवे कालपाश से बद्ध होने के कारण इस समयोचित बात को बताने पर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुराम ने तुम्हारे पुत्र को बहुत रोका था, परंतु उसने उनकी बात नहीं माना। जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ही श्री और बुद्धि हो तथा जहाँ धर्म विद्यामान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता पर्व में संवादविषयक तेईसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) चतुर्विश अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

“सैनिकों के हर्ष और उत्साह के विषय में धृतराष्ट्र और संजय का संवाद”

   धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! उस समय किस पक्ष योद्धा अत्यन्त हर्ष में भरकर पहले युद्ध में प्रवृत्त हए। किनके मन में उत्साह भरा था और कौन-कौन मनुष्य दीन एवं अचेत हो रहे थे। संजय हृदय को कम्पित कर देने वाले संग्राम में किन्होंने पहले संग्राम किया, मेरे पुत्रों ने या पाण्डवों ने। यह मुझे बताओ। किसकी सेनाओं में सुगन्धित पुष्पमाला आदि का प्रादुर्भाव हुआ। किस पक्ष के गर्जते हुए योद्धाओं की वाणी उदारतापूर्ण और उत्साहयुक्त थीं।

   संजय ने कहा ;- राजन्। दोनों ही सेनाओं के योद्धा उस समय हर्ष में भरे हुए थे। उभयपक्ष में ही सुगन्ध और पुष्पहारों का प्रादुर्भाव हुआ था। भरतश्रेष्ठ! संगठित, व्यूहबद्ध तथा युद्धविषयक उत्साह से उद्यत हुए दोनों दलों के योद्धाओं की जब मुठभेड़ हुई, उस समय बड़ी भारी मार-काट मची थी। राजन्! शंक और मेरी आदि वाद्यों का सम्मिलित भयंकर शब्द जब एक दूसरे पर गर्जन-तर्जन करने वाले रणवीर शूरों के सिंहनाद से मिला, तब दोनों सेनाओं में महान कोलाहल एवं संघर्ष होने लगा। भरतभूषण! एक-दूसरे की ओर देखने वाले योद्धाओं, गर्जते हुए हाथियों और हर्ष में भरी हुई सेनाओं का तुमुल नाद सर्वत्र व्याप्त हो रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत श्रीमद्भगवद्गीतापर्व में धृतराष्ट्रसंजयसंवाद विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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