सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन की सेना का वर्णन”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर रात्रि के अन्त में सबेरा होते ही ‘रथ जोतो, युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।’ इस प्रकार जोर-जोर से बोलने वाले राजाओं का महान कोलाहल सब ओर छा गया। भरतनन्दन! शंख और दुन्दुभियों की ध्वनि, वीरों के सिंहनाद, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथ के पहियों की घरघराहट, हाथियों की गर्जना तथा गर्जते हुए योद्धाओं के सिंहनाद करने, ताल ठोकने और जोर-जोर से बोलने आदि की तुमुल ध्वनि सब ओर व्याप्त हो गयी।
महाराज! सूर्योदय होते होते कौरवों और पाण्डवों की वह सारी विशाल सेना सम्पूर्ण रूप से युद्ध के लिये तैयार हो उठी। राजेन्द्र! आपके पुत्रों तथा पाण्डवों के दुर्दम्य अस्त्र-शस्त्र तथा कवच चमक उठे। भारत! तब सूर्योदय के प्रकाश में आपकी और शत्रुओं की सारी सेनाएँ शस्त्रों से सुसज्जित तथा अत्यन्त विशाल दिखायी देने लगीं। जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित आपके हाथी और रथ बिजलियों सहित मेघों की घटा के समान प्रकाशमान दिखायी देते थे। बहुसंख्यक रथों की सेनाएं नगरों के समान दृष्टिगोचर हो रहीं थीं। उनके बीच आपके ताऊ भीष्म जी पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहे थे। आपकी सेना के सैनिक धनुष, खड्ग, ऋष्टि, गदा, शक्ति और तोमर आदि चमकीले अस्त्र-शस्त्र लेकर उन सेनाओं में खडे़ थे।
प्रजानाथ! हाथी, घोडे़, पैदल और रथी, शत्रुओं को बांधने के लिये जाल से बनकर एक-एक जगह सैकड़ों और हजारों की संख्या में खडे़ थे। अपने और शत्रुओं के अनेक प्रकार के ऊँचे-ऊँचे चमकीले ध्वज हजारों की संख्या में दृष्टिगोचर हो रहे थे। सुवर्णमय आभूषण पहने, मणियों के अलंकारों से विचित्र अंगों वाले, सहस्रों हाथीसवार सैनिक अपनी प्रभा से शिखाओं सहित प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। जैसे इन्द्रभवन में देवराज इन्द्र के चमकीले ध्वज फहराते रहते हैं, उसी प्रकार कौरव-पाण्डव सेना के ध्वज भी फहरा रहे थे। दोनों सेनाओं के प्रमुख वीर युद्ध की अभिलाषा रखकर कवच आदि से सुरक्षित दिखायी दे रहे थे।
उनके हथियार उठे हुए थे। वे हाथ में दस्ताने और पीठ पर तरकस बांधे सेना के मुहाने पर खडे़ हुए भूपालगण अद्भुत शोभा पा रहे थे। उनकी आंखें बैलों की आंखों के समान बड़ी-बड़ी दिखायी दे रही थीं। सुबलपुत्र शकुनि, शल्य, सिन्धुनरेश जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, केकयराजकुमार, काम्बोजराज सुदक्षिण, कलिंगराज श्रुतायुध, राजा जयत्सेन, कौशलनरेश बृहद्वल तथा भोजवंशी कृतवर्मा- ये दस पुरुषसिंह शूरवीर क्षत्रिय एक-एक अक्षौहिणी सेना के अधिनायक थे। इनकी भुजाएं परिधों के समान मोटी दिखायी देती थीं। इन सबने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे और उनमें प्रचुर दक्षिणाएँ दी थीं। ये तथा और भी बहुत से नीतिज्ञ महारथी राजा और राजकुमार दुर्योधन के वश में रहकर कवच आदि से सुसज्जित हो अपनी-अपनी सेनाओं में खडे़ दिखायी देते थे। इन सबने काले मृगचर्म बाँध रखे थे।
सभी बलवान और युद्धभूमि में सुशोभित होने वाले थे और सबने दुर्योधन के हित के लिए बड़े हर्ष और उल्लास के साथ ब्रह्मलोक की दीक्षा ली थी। ये सामर्थ्यशाली दस वीर अपने सेनापतित्व में दस सेनाओं को लेकर युद्ध के लिये तैयार खडे़ थे। ग्यारवीं विशालवाहिनी दुर्योधन की थी, जिनमें अधिकांश कौरव योद्धा थे। यह कौरव सेना अन्य सब सेनाओं के आगे खड़ी थी। इसके अधिनायक थे शान्तनुन्दन भीष्म।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 22-27 का हिन्दी अनुवाद)
उनके सिर पर सफेद पगड़ी शोभा पाती थी। उनके घोडे़ भी सफेद ही थे। उन्होंने अपने अंगों में श्वेत कवच बांध रख था। महाराज! मर्यादा से कभी पीछे न हटने वाले उन भीष्म जी को मैंने अपनी श्वेतकान्ति के कारण नवोदित चन्द्रमा के समान शुभोभित देखा। भीष्म जी चांदी के बने हुए सुन्दर रथ पर विराजमान थे उनकी तालचिह्नित स्वर्णमयी ध्वजा आकाश में फहरा रही थी। उस समय कौरवों, पाण्डवों तथा धृष्टद्युम्न आदि महाधनुर्धर सृंजयवंशियों ने उन्हें सफेद बादलों में छिपे हुए सूर्यदेव के समान देखा। धृष्टद्युम्न आदि सृंजयवंशी उन्हें देखकर बारम्बार उद्विग्न हो उठते थे। ठीक उसी तरह, जैसे मुँह बाये हुए विशाल सिंह को देखकर क्षुद्र मृग भय से व्याकुल हो उठते हैं।
भूपाल! आपकी ये ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं तथा पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेनाएं वीर पुरुषों से सुरक्षित हो उत्तम शोभा से सम्पन्न दिखायी देती थीं। वे दोनों सेनाएं प्रलय काल में एक दूसरे से मिलने वाले उन दो समुद्रों के समान दृष्टिगोचर हो रही थीं, जिनमें मतवाले मगर और भँवरें होती हैं तथा जिनमें बड़े-बड़े ग्राह्य सब ओर फैले रहते हैं। राजन! कौरवों की इतनी बड़ी सेना का वैसा संगठन मैंने पहले कभी न तो देखा था और न सुना ही था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गगीतापर्व में सैन्यवर्णन-विषयक सौलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव महारथियों का युद्ध के लिये आगे बढ़ना तथा उनके व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन”
संजय कहते है ;- राजन! श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास ने जैसा कहा था, उसी के अनुसार सब राजा कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए थे। उस दिन चन्द्रमा मघा नक्षत्र पर था। आकाश में सात महाग्रह अग्नि के समान उद्दीप्त दिखायी दे रहे थे। उदयकाल में सूर्य दो भागों में बँटा हुआ सा दिखायी देने लगा। साथ ही वह अपनी प्रचण्ड ज्वालाओं से अधिकाधिक जाज्वल्यमान होकर उदित हुआ था। सम्पूर्ण दिशाओं में दाह सा हो रहा था और मांस तथा रक्त का आहार करने वाले गीदड़ और कौए मनुष्यों तथा पशुओं की लाशों की लालसा रखकर अमंगलसूचक शब्द कर रहे थे।
कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म तथा भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य- ये दोनों शत्रुदमन महारथी प्रतिदिन सबेरे उठकर मन को संयम में रखते हुए यह आशीर्वाद देते थे कि ‘पाण्डवों की जय हो’; परंतु वे जैसी प्रतिज्ञा कर चुके थे उसके अनुसार आपके लिये ही पाण्डवों के साथ युद्ध करते थे। उस दिन सम्पूर्ण धर्मों के विशेषज्ञ आपके ताऊ देवव्रत भीष्म जी सब राजाओं को बुलाकर उनसे इस प्रकार बोले,
देवव्रत बोले ;- 'क्षत्रियों! यह युद्ध तुम्हारे लिये स्वर्ग का खुला हुआ विशाल द्वार है तुम लोग इसके द्वारा इन्द्र अथवा ब्रह्मा जी का सालोक्य प्राप्त करो। यह तुम्हारे पूर्ववर्ती पूर्वजों द्वारा स्वीकार किया हुआ सनातन मार्ग है तुम सब लोग शान्तचित होकर युद्ध में शौर्य का परिचय देते हुए अपने-आपको सुयश और सम्मान का भागी बनाओ। नाभाग, ययाति, मान्धाता, नहुष और नृग ऐसे ही कर्मों द्वारा सिद्धि को प्राप्त होकर उत्कृष्ट लोकों में गये हैं। घर में रोगी होकर पड़े-पड़े प्राण त्याग करना क्षत्रिय के लिये अधर्म माना गया है।
वह युद्ध में लोहे के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा आहत होकर जो मृत्यु को अंगीकार करता है, वही उसका सनातन धर्म है। भरतश्रेष्ठ! भीष्म के ऐसा कहने पर वे सभी भूपाल श्रेष्ठ रथों द्वारा अपनी सेनाओं की शोभा बढ़ाते हुए युद्ध के लिये प्रस्थित हुए। भरतभूषण! इस युद्ध में भीष्म ने मन्त्रियों और बन्धुओं सहित कर्ण के अस्त्र-शस्त्र रखवा दिये थे। इसलिए आपके पुत्र और अन्य नरेश बिना कर्ण के ही अपने सिंहनाद से दसों दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए युद्ध के लिये निकले। श्वेत छत्रों, पताकाओं, ध्वजों, हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल सैनिकों से उन समस्त सेनाओं की बड़ी शोभा हो रही थी। मेरी, पणव, दुन्दुभि आदि वाद्यों की ध्वनियों तथा रथ के पहियों के घर्घर शब्दों से वहाँ की सारी भूमि व्याप्त हो रही थी। सोने के अंगद और केयूर नामक बाहुभूषण तथा धनुष धारण किये महारथी वीर अग्नियुक्त पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे थे। कौरव सेना के प्रधान सेनापति भीष्म भी ताड़ और पांच तारों के चिह्न से युक्त विशाल ध्वजा-पताका से सुभोशित रथ पर जा बैठे। उस समय वे निर्मल तेजोमय सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे।
भरतश्रेष्ठ! महाराज! आपकी सेना के समस्त महाधनुर्धर भूपाल सेनापति भीष्म की आज्ञा के अनुसार चलते थे। गोवासन देश के स्वामी महाराज शैब्य अपने अधीन राजाओं के साथ पताका से सुभोभित राजोचित गजराज पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये चले। कमल के समान कान्तिमान अश्वत्थामा सिंह को पूँछ के चिह्न से युक्त ध्वजा-पताका वाले रथ पर आरूढ़ हो समस्त सेनाओं के आगे रहकर चलने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)
श्रुतायुध, चित्रसेन, पुरुमित्र, विविंशति, शल्य, भूरिश्रवा तथा महारथी विकर्ण- ये सात महाधनुर्धर वीर रथों पर आरूढ़ हो सुन्दर कवच धारण किये द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को अपने आगे रखकर भीष्म आगे आगे चल रहे थे। इन सबके जाम्बूनद सुवर्ण बने हुए अन्यन्त उँचे ध्वज इनके श्रेष्ठ रथों की शोभा बढ़ाते हुए अन्यन्त प्रकाशित हो रहे थे। आचार्यप्रवर द्रोण की पताका पर कमण्डलुविभूषित सुवर्णमयी वेदी और धनुष के चिह्न बने हुए थे। कई लाख सैनिकों की सेना को अपने साथ लेकर चलने वाले दुर्योधन माणिमय महान ध्वज नाग चिह्न से विभूषित था। पौरव, कालंगराज श्रुतायुध, काम्बोजराज सुदक्षिण, क्षेमधन्वा तथा सुमित्र- ये पांच प्रधान रथी दुर्योधन के आगे-आगे चल रहे थे।
वृषभचिह्नित ध्वजा-पताका से युक्त बहुमूल्य रथ पर बैठे हुए कृपाचार्य मगध की श्रेष्ठ सेना को अपने साथ लिये चल रहे थे। अंगराज तथा मनस्वी कृपाचार्य से सुरक्षित पूर्वदेशीय क्षत्रियों की वह विशालवाहिनी शरद्ऋतु के बादलों के समान शोभा पाती थी। महायशस्वी राजा जयद्रथ वराह के चिह्न से युक्त रजतमय ध्वजा-पताका के साथ रथ पर आरूढ़ हो सेना के अग्रभाग में खडे़ हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। उनके अधीन एक लाख रथ, आठ हजार हाथी और साठ हजार घुड़सवार थे। सिन्धुराज के द्वारा सुरक्षित अनन्त रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई विशाल सेना अद्भुत शोभा पा रही थी। कलिंग देश का राजा श्रुतायुध अपने मित्र केतुमान के साथ साठ हजार रथ और दस हजार हाथियों को साथ लिये युद्ध के लिये चला।
यन्त्र, तोमर, तूणीर तथा पताकाओं से सुशोभित उसके विशाल गजराज पर्वतों के समान प्रतीत होते थे। कलिंगराज के रथ की ध्वजा पर अग्नि का चिह्न बना हुआ था। वह श्वेत छत्र और चँवर रूपी पंखे तथा पदक (कण्ठहार) से विभूषित हो बड़ी शोभा पा रहा था। राजन्! केतुमान भी विचित्र एवं विशाल अंकुश से युक्त गजराज पर आरूढ़ हो समर भूमि में खड़ा हुआ मेघों की घटा के ऊपर प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव के समान जान पड़ता था। इसी प्रकार श्रेष्ठ गजराज पर आरूढ़ हो राजा भगदत्त भी वज्रधारी इन्द्र के समान अपने तेज से उद्दीप्त हो युद्ध के लिये आगे बढ़ गये थे। अवन्तिदेश के राजकुमार विन्द और अनुविन्द भी भगदत्त के समान ही तेजस्वी थे।
वे दोनों भाई हाथी की पीठ पर बैठकर केतुमान के पीछे-पीछे चल रहे थे। राजन! रथों के समूह से युक्त उस सेना का भयंकर व्यूह सर्वतोमुखी था। वह हँसता हुआ आक्रमण सा कर रहा था। हाथी उस व्यूह अंग थे, राजाओं का समुदाय ही उसका मस्तक था और घोड़े उसके पंख जान पड़ते थे। द्रोणाचार्य, राजा शान्तनुन्दन भीष्म, आचार्य पुत्र अश्वत्थामा, बाह्लीक और कृपाचार्य ने उस सैन्य व्यूह का निर्माण किया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत श्री मद्भगवद्गगीता पर्व में सैन्यवर्णन विषयक सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
अट्ठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों को वर्णन”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनंतर दो ही घड़ी में युद्ध की इच्छा रखने वाला योद्धाओं का भयंकर कोलाहल सुनायी देने लगा, जो हृदय कंपा देने वाला था। शंख और दुंदुभियों के घोष; गजराजाओं की गर्जना तथा रथों के पहियों की घरघराहट से सारी पृथ्वी विदीर्ण-सी हो रही थी। घोड़ों के हींसने और योद्धाओं के गर्जने के शब्दों से एक ही क्षण में वहाँ पृथ्वी और आकाश का सारा प्रदेश गूंज उठा। दुर्धर्ष नरेश! आपके पुत्रों और पाण्डवों की सेनाएं एक-दूसरी के निकट आने पर कांप उठी। उस रणक्षेत्र में स्वर्णभूषित रथ और हाथी बिजलियों से युक्त मेघों के समान सुशोभित दिखायी देते थे। नरेश्वर! आपकी सेना के नाना प्रकार के ध्वज और सोने के अंगद (बाजूबंद) पहने हुए सैनिक प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे।
भारत! अपनी और शत्रु की सेना के चमकीले ध्वज इन्द्र-भवन में फहराने वाले देवेन्द्र के ध्वजों के समान दिखायी देते थे। अग्नि और सूर्य के समान कांतिमान् काञ्चनमय कवच धारण किये वीर सैनिक अग्नि और सूर्य के ही तुल्य प्रकाशित दीख रहे थे। राजन्! कौरव पक्ष के श्रेष्ठ योद्धा विचित्र आयुध और धनुष धारण किये बड़ी शोभा पा रहे थे। उनके विचित्र आयुध ऊपर की ओर उठे हुए थे। उन्होंने हाथों में दस्ताने पहन रखे थे और उनकी पताकाएं आकाश में फहरा रही थीं। सेना के मुहाने पर खड़े हुए, वृषभ के समान विशाल नेत्रों-वाले वे महाधनुर्धर वीर बड़ी शोभा पा रहे थे।
नरेश्वर! भीष्म जी के पृष्ठभाग की रक्षा आपके पुत्र दु:शासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दु:सह, विविंशति, चित्रसेन, महारथी विकर्ण, सत्य-व्रत, पुरुमित्र, जय, भूरिश्रवा, शल तथा इनके अनुयायी बीस हजार रथी कर रहे थे। अभीषाह, शूरसेन, शिवि, वसाति, शाल्व, मत्स्य, अम्बष्ठ, त्रिगर्त, केकय, सौवीर, कैतव तथा पूर्व, पश्चिम एवं उत्तर प्रदेश के निवासी-इन बारह जनपदों के समस्त शूरवीर अपना शरीर निछावर करने को उद्यत होकर विशाल रथ समुदाय के द्वारा पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे।
दस हजार वेगवान् हाथियों की सेना साथ लेकर मगधराज उपर्युक्त रथसेना के पीछे-पीछे चल रहे थे। उस विशाल-वाहिनी में रथों के पहियों और हाथियों के पैरों की रक्षा करने वाले सैनिक साठ लाख थे। कुछ पैदल सैनिक, जिनकी संख्या कई लाख थी, हाथ में धनुष, ढाल और तलवार लिये आगे-आगे चल रहे थे। वे नखर (बधनखे) और प्रास द्वारा भी युद्ध करने में कुशल थे। भारत! महाराज! आपके पुत्र की ये ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं यमुना में मिली हुई गंगा के समान दिखायी देती थीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवङ्गीतापर्व में सेन्यवर्णनविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यूहनिर्माण के विषय में युधिष्ठिर और अर्जुन की बातचीत, अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना, भीमसेन की अध्यक्षता में सेना का आगे बढ़ना”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मेरी ग्यारह अक्षौहिणीयों को व्यूहाकार में खड़ी हुई देख पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने उसका सामना करने के लिये अपनी थोड़ी-सी सेना के द्वारा किसी प्रकार व्यूह-रचना की? जो मनुष्य, देवता, गन्धर्व और असुर सभी की व्यूह-निर्माण-विधि को जानते हैं, उन भीष्म जी के सामने कुंतीकुमार ने किस तरह अपनी सेना का व्यूह बनाया?
संजय ने कहा ;- राजन्! आपकी सेनाओं को व्यूहाकार में खड़ी हुई देख धर्मात्मा पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा,,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘तात! महर्षि बृहस्पति के वचन से ऐसा ज्ञात होता है कि यदि शत्रुओं की सेना थोड़ी हो, तो अपनी सेना को छोटे आकार में संगठित करके युद्ध करना चाहिये और यदि अपने से अधिक सैनिकों के साथ युद्ध करना हो, तो अपनी सेना को इच्छानुसार फैलाकर खड़ी करे। थोड़े-से सैनिकों से बहुतों के साथ युद्ध करने के लिये सूचीमुख नामक व्यूह उपयोग हो सकता है और हमारी सेना शत्रुओं से बहुत कम है ही। पाण्डुनंदन! महर्षि के इस कथन पर विचार करके तुम भी अपनी सेना का व्यूह बनाओ।’
धर्मराज की यह बात सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया,
अर्जुन ने कहा ;- ‘नृरश्रेष्ठ! यह लीजिये, मैं आपके लिये अविचल एवं दुर्जय वज्रव्यूह की रचना करता हूं, जिसका आविष्कार वज्र-धारी इन्द्र ने किया है। जो समर भूमि में प्रचण्ड वायु की भाँति उठकर शत्रुओं के लिये दु:सह हो उठते हैं, वे योद्धाओं में श्रेष्ठ आर्य भीमसेन हमारे आगे रहकर युद्ध करेंगे। पुरुषश्रेष्ठ भीमसेन युद्ध के विविध उपायों के ज्ञान में निपुण हैं। वे हमारी सेना के अगुआ होकर शत्रुसेना के तेज को नष्ट करते हुए युद्ध करेंगे। जैसे सिंह को देखते ही क्षुद्र मृग भयभीत होकर भाग उठते हैं, उसी प्रकार इन्हें-देखकर दुर्योधन आदि समस्त कौरव त्रस्त होकर पीछे लौट जायंगे।
जैसे देवता का आश्रय लेकर निर्भय हो जाते हैं, उसी प्रकार हम लोग योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन का आश्रय लेंगे। ये हमारे लिये परकोटे का काम करेंगे। फिर हमें कहीं से कोई भय नहीं रह जायंगा। संसार में ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है, जो भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले क्रोध में भरे हुए नरश्रेष्ठ वृकोदर की ओर देखने का साहस कर सके। जब भीमसेन लोहे से बनी हुई अपनी सुदृढ़ गदा हाथों में ले महान् वेग से विचरते हैं, उस समय वे समुद्र को भी सोख सकते हैं। केकयराजकुमार, धृष्टकेतु और चेकितान भी ऐसे ही पराक्रमी हैं। नरेश्वर! ये धृतराष्ट्र के पुत्र अपने मन्त्रियों सहित आप-की ओर देख रहे हैं।
राजन्! युधिष्ठिर से ऐसा कहकर अर्जुन भीमसेन से बोले,
अर्जुन ने कहा ;- ‘अब आप इन शत्रुओं को अपना महान् बल दिखाइये’। भारत! अर्जुन के ऐसा कहने पर उस युद्धस्थल में समस्त सैनिकों ने अनुकूल वचनों द्वारा उस समय उनका पूजन समादर किया। महाबाहु अर्जुन ने ऐसा कहकर उसी तरह किया; अपनी सब सेनाओं का शीघ्र ही व्यूह बनाया और रण के लिये प्रस्थान किया। कौरवों को अपनी ओर आते देख पाण्डवों की वह विशाल सेना पहले तो भरी गंगा के समान स्थिर दिखायी दी; फिर उसमें धीरे-धीरे कुछ चेष्टा दृष्टिगोचर होने लगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशतितम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)
पाण्डव सेना में भीमसेन सबके आगे चलने वाले थे। उनके साथ पराक्रमी धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव तथा चेदिराज धृष्टकेतु भी थे। तत्पश्चात राजा विराट अपने भाइयों और पुत्रों के साथ इस अक्षौहिणी सेना लेकर भीमसेन के पृष्ठभाग की रक्षा कर रहे थे। भीम के पहियों की रक्षा परमतेजस्वी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव कर रहे थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र तथा अभिमन्यु- ये वेशशाली वीर उनके पृष्ठभाग की रक्षा करते थे। पाञ्चालराजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न अपनी सेना के चुने हुए शरवीर एवं प्रधान रथी प्रभद्रकों के साथ उन सबकी रक्षा करते थे। भरतश्रेष्ठ! इन सबके पीछे अर्जुन द्वारा सुरक्षित शिखण्डी भीष्म का विनाश करने के लिये उद्यत हो आगे बढ़ रहा था। अर्जुन के पीछे महाबली सात्यकि थे। पाञ्चाल वीर युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुन के रथ के पहियों की रक्षा करते थे। चलते-फिरते पर्वतों के समान विशाल और मतवाले गजराजों की सेना के साथ कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर बीच की सेना में उपस्थित थे। महामना पराक्रमी पाञ्चालराज द्रुपद पाण्डवों के लिये एक अक्षौहिणी सेना के सहित राजा विराट के पीछे-पीछे चल रहे थे।
राजन्! उनके रथों पर भाँति-भाँति के बेल-बूटों से विभूषित स्वर्णमण्डित विशाल ध्वज सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहे थे। तदनंतर महारथी धृष्टद्युम्न अन्य लोगों को हटाकर स्वयं भाइयों और पुत्रों के साथ उपस्थित हो राजा युधिष्ठिर की रक्षा करने लगे। राजन्! आपके तथा शत्रुओं के रथों पर जो बहुसंख्यक विशाल ध्वज फहरा रहे थे, उन सबको तिरस्कृत करके केवल अर्जुन के रथ पर एकमात्र महान् कपि से उपलक्षित दिव्य ध्वज शोभा पाता था। भीमसेन की रक्षा के लिये उनके आगे-आगे हाथों में खड्ग, शक्ति तथा ऋषि लिये कई लाख पैदल सैनिक चल रहे थे। राजा युधिष्ठिर के पीछे वर्षाकाल के मेघों की भाँति तथा पर्वतों के समान ऊंचे-ऊंचे दस हजार गजराज जा रहे थे। उनके गण्डस्थल से फूटकर मद की धारा वह रही थी। वे सोने की जालदार झूलों से उद्दीप्त हो रहे थे। उनमें शौर्य भरा था। वे मेघों के समान मद की बूंदे बरसाते थे। उनसे कमल के समान सुगंध निकलती थी और वे सभी बहुमूल्य थे।
दुर्जय वीर महामनस्वी भीमसेन हाथ में परिघ के समान मोटी एवं भयंकर गदा लिये अपने साथ विशाल सेना को खींच लिये जा रहे थे। उस समय सूर्य की भाँति उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था। वे आपकी सेना को संतप्त-सी कर रहे थे। निकट आने पर समस्त योद्धा उनकी ओर आंख उठाकर देखने में भी समर्थ न हो सके। यह वज्रनामक व्यूह सर्वथा भयरहित तथा सब ओर मुख वाला था। उसके ध्वज के निकट सुवर्णभूषित धनुष विद्युत् के समान प्रकाशित होता था। गाण्डीवधारी अर्जुन के द्वारा ही वह भयंकर व्यूह सुरक्षित था। पाण्डव लोग जिस व्यूह की रचना करके आपकी सेना का सामना करने के लिये खड़े थे, वह उनके द्वारा सुरक्षित होने के कारण मनुष्य लोक में अजेय था। सूर्योदय के समय जब सभी सैनिक संध्योपासना कर रहे थे, बिना बादल के ही पानी की बूंदों के साथ हवा चलने लगी। उसके साथ मेघ की-सी गर्जना भी होती थी। वहाँ सब ओर नीचे बालू और कंकड़ बरसाती हुई तीव्र वायु बह रही थी। उस समय इतनी धूल उड़ी कि जगत् में धोर अंधकार छा गया। भरतश्रेष्ठ! पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बड़ी भारी उल्का गिरी और उदय होते हुए, सूर्य से टकरा कर बड़े जोर-की आवाज के साथ बिखर गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) एकोनविंशतितम अध्याय के श्लोक 40-46 का हिन्दी अनुवाद)
भरतभूषण! जब उभय-पक्ष की सेनाएं युद्ध के लिये पूर्णत: तैयार हो गयीं, उस समय सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और भारी आवाज के साथ धरती कांपने लगी। भरतश्रेष्ठ! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो पृथ्वी विकट नाद करती हुई फटी जा रही है। राजन्! सम्पूर्ण दिशाओं में अनेक बार वज्रपात के समान भयानक शब्द प्रकट हुई। तीव्र वेग से धूल की वर्षा होने लगी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सहसा वायु के वेग से ध्वज हिलने लगे। पताका-सहित वे ध्वज सूर्य के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। उन्हें सोने के हार और सुंदर वस्त्रों से सजाया गया था। उनमें छोटी-छोटी घंटियों के साथ झालरें बंधी थीं, जिनके मधुर शब्द सब ओर फैल रहे थे।
इस प्रकार उन महान् ध्वजों के शब्द से ताड़ के जंगलों की भाँति उस रणभूमि में सब ओर झन-झनकी आवाज हो रही थी। इस प्रकार युद्ध से आनन्दित होने वाले पुरुषसिंह पाण्डव आपके पुत्र की वाहिनी के सामने व्यूह बनाकर खड़े थे और हमारे योद्धाओं की रक्त और मज्जा भी सुखाये देते थे। गदाधारी भीमसेन को आगे खड़ा देख हमारी सारी सेना भयभीत हो रही थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पाण्डव सेना का व्यूहनिर्माणविषयक उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व पर्व)
बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“दोनों सेनाओं की स्थिति तथा कौरव सेना का अभियान”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! सूर्योदय के समय किस पक्ष के योद्धा युद्ध की इच्छा से अधिक हर्ष का अनुभव करते हुए जान पड़ते थे? भीष्म के नेतृत्व में निकट आये हुए मेरे सैनिक अथवा भीमसेन की अध्यक्षता में आने वाले पाण्डव सैनिक! उस समय कौन अधिक प्रसन्न थे। चन्द्रमा, सूर्य और वायु किनके प्रतिकूल थे? किनकी सेना की ओर देखकर हिंसक जंतु भयंकर शब्द करते थे? किस पक्ष के नवयुवकों के मुख की कांति प्रसन्न थी? ये सब बातें तुम मुझे ठीक-ठीक बताओ।
संजय बोले ;- नरेन्द्र! दोनों ओर की सेनाएं समान रूप से आगे बढ़ रही थीं। दोनों ओर के व्यूह में खड़े हुए सैनिक हर्ष से उल्लसित थे। दोनों ही सेनाएं वनश्रेणियों के समान आश्चर्यरूप प्रतीत होती थीं और दोनों ही हाथी, रथ एवं घोड़ों से भरी हुई थीं। भारत! दोनों ओर की सेनाएं विशाल, भयंकर और दु:सह थीं, मानो विधाता ने दोनों सेनाओं को स्वर्ग की प्राप्ति के लिये ही रचा था। दोनों में ही सत्पुरुष भरे हुए थे। आपके पुत्र कौरवों का मुख पश्चिम दिशा की ओर था और कुंती के पुत्र उनसे युद्ध करने के लिये पूर्वाभिमुख खड़े थे। कौरव सेना दैत्यराज की सेना के समान जान पड़ती थी और पाण्डव-वाहिनी देवराज इन्द्र की सेना के तुल्य प्रतीत होती थी। पाण्डव सेना के पीछे की ओर से हवा चल रही थी और आपके पुत्रों की ओर देखकर हिसंक जंतु बोल रहे थे।
आपके पुत्र की सेना में जो हाथी थे, वे पाण्डव पक्ष के गजराजों के मदों की तीव्र गन्ध नहीं सहन कर पाते थे। दुर्योधन कमल के समान कांति वाले मदस्रावी गजराज पर बैठकर कौरव सेना के मध्यभाग में खड़ा था। उसके हाथी पर सोने का हौदा कसा हुआ था और पीठ पर सोने की जाली बिछी हुई थी। उस समय बंदी और मागधजन उसकी स्तुति कर रहे थे। उसके मस्तक पर चन्द्रमा के समान कांतिमान् श्वेत छत्र तना हुआ था और कण्ठ में सोने की माला सुशोभित हो रही थी। गान्धारराज शकुनि गान्धारदेश के पर्वतीय योद्धाओं के साथ आकर दुर्योधन को सब ओर से घेरकर चल रहा था। हमारी सम्पूर्ण सेना के आगे बूढ़े पितामह भीष्म थे। उनके सिर पर श्वेत रंग की पगड़ी थी और श्वेत वर्ण का ही छत्र तना हुआ था।
उनके धनुष और खड्ग भी श्वेत ही थे। वे श्वेत शैल के समान प्रकाशित होने वाले श्वेत घोड़ों और श्वेत ध्वज से सुशोभित हो रहे थे। उनकी सेना में आपके सभी पुत्र, बाह्लीक सेना का एक अंश, शल और अम्बष्ठ, सौवीर, सिंधु तथा वञ्चनद देश के शूरवीर क्षत्रिय विद्यमान थे। उनके पीछे प्राय: समस्त राजाओं के गुरु, उदार हृदय वाले महामना द्रोणाचार्य हाथ में धनुष लिये लाल घोड़ों से जुते हुए सुवर्ण-मय रथ में बैठकर भूमिपाल की भाँति युद्ध के लिये जा रहे थे। वृद्धक्षत्र का पुत्र जयद्रथ, भूरिश्रवा, पुरूमित्र, जय, शाल्व और मत्स्यदेशीय क्षत्रिय तथा सब भाई केकय राजकुमार युद्ध की इच्छा से हाथियों के समूहों को साथ ले सम्पूर्ण सेना के मध्य भाग में स्थित थे। महान् धनुर्धर और विचित्र रीति से युद्ध करने वाले गोतमवंशीय महामना कृपाचार्य गुरुतर भार ग्रहण करके शक, किरात, यवन तथा पल्लव सैनिकों के साथ कौरवसेना के बांये भाग में होकर चल रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (भीष्म पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 14-19 का हिन्दी अनुवाद)
हाथ में हथियार लिये सुशिक्षित सुराष्ट्रदेशीयवीरों तथा वृष्णि और भोजवंश के महारथियों द्वारा पालित विशाल सेना कृतवर्मा द्वारा सुरक्षित होकर आपकी सेना के दाहिने भाग से होकर युद्ध के लिये यात्रा कर रही थी। ‘या तो हम अर्जुन पर विजय प्राप्त करेंगे अथवा हमारी मृत्यु हो जायगी’ ऐसी प्रतिज्ञा करके दस हजार संशप्तक रथी तथा बहुत-से अस्त्रवेत्ता त्रिगर्तदेशीय शूरवीर जिस ओर अर्जुन थे, उसी जा रहे थे।
भारत! आपकी सेना में एक लाख से अधिक हाथी थे। एक-एक हाथी के साथ सौ-सौ रथ थे और एक-एक रथ के साथ सौ-सौ घोड़े थे। प्रत्येक अश्व के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर-के साथ सौ-सौ पैदल सैनिक नियुक्त किये गये थे, जो ढाल-तलवार लिये रहते थे।
भरतनंदन! इस प्रकार भीष्म जी ने आपकी सेनाओं का व्यूह रचा था। शांतनुनंदन सेनापति भीष्म प्रत्येक दिन मानुष, दैव, गान्धर्व और आसुर प्रणाली के अनुसार व्यूह-रचना करके सेना के अग्रभाग में स्थित होते थे। भीष्म द्वारा रचित कौरव-सेना का व्यूह महारथियों के समुदाय से सम्पन्न हो समुद्र के समान गर्जना करता था। युद्ध में उसका मुख पश्चिम की ओर था।
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