सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अम्बा की कठोर तपस्या”
परशुराम बोले ;- भाविनी! यह सब लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने तेरे लिये पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया और महान पुरुषार्थ दिखाया है। परंतु इस प्रकार उत्तमोत्तम अस्त्र प्रकट करके भी मैं शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म से अपनी अधिक विशिष्टता नहीं दिखा सका मेरी अधिक-से-अधिक शक्ति, अधिक-से-अधिक बल इतना ही है। भद्रे! अब तेरी जहाँ इच्छा हो, चली जा, अथवा बता, तेरा दूसरा कौन-सा कार्य सिद्ध करूं?
अब तू भीष्म की ही शरण ले। तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं हैं; क्योंकि महान अस्त्रों का प्रयोग करके भीष्म ने मुझे जीत लिया है। ऐसा कहकर महामना परशुराम लंबी सांस खींचते हुए मौन हो गये। तब राजकन्या अम्बा ने उन भृगुनन्दन से कहा-
अम्बा बोली ;- ‘भगवन! आपका कहना ठीक है। वास्तव में ये उदारबुद्धि भीष्म युद्ध में देवताओं के लिये भी अजेय है। ‘आपने अपनी पूरी शक्ति लगाकर पूर्ण उत्साह के साथ मेरा कार्य किया है। युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाया है, जिसे भीष्म के सिवा दूसरा कोई रोक नहीं सकता था। इसी प्रकार आपने नाना प्रकार के दिव्यास्त्र भी प्रकट किये हैं। ‘परंतु अन्ततोगत्वा आप युद्ध में उनकी अपेक्षा अपनी विशेष्यता स्थापित न कर सके। मैं भी अब किसी प्रकार पुन: भीष्म के पास नहीं जाऊंगी। ‘भृगुश्रेष्ठ तपोधन! अब मैं वहीं जाऊंगी, जहाँ ऐसा बन सकूं कि समरभूमि में स्वयं ही भीष्म को मार गिराऊं। ऐसा कहकर रोष भरे नेत्रों वाली वह राजकन्या मेरे वध के उपाय का चिन्तन करती हुई तपस्या के लिये दृढ़ संकल्प लेकर वहाँ से चली गयी। भारत! तदनन्तर भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी उन महर्षियों के साथ मुझ से विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही महेन्द्र पर्वत पर चले गये।
महाराज! तत्पश्चात मैंने भी ब्राह्मण के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते हुए रथ पर आरूढ़ हो हस्तिनापुर में आकर माता सत्यवती से सब समाचार यथार्थ रूप से निवेदन किया। माता ने भी मेरा अभिनन्दन किया। इसके बाद मैंने कुछ बुद्धिमान पुरुषों को उस कन्या के वृत्तान्त का पता लगाने के कार्य में नियुक्त कर दिया। मेरे लगाये हुए गुप्तचर सदा मेरे प्रिय एवं हित में संलग्न रहने वाले थे। वे प्रतिदिन उस कन्या की गतिविधि, बोलचाल और चेष्टा का समाचार मेरे पास पहुँचाया करते थे। जिस दिन वह कन्या तपस्या का निश्चय करके वन में गयी, उसी दिन मैं व्यथित, दीन और अचेत-सा हो गया।
तात! जो तपस्या के द्वारा कठोर व्रत का पालन करने वाले हैं, उन ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण परशुरामजी को छोड़कर कोई भी क्षत्रिय अब तक युद्ध में मुझे पराजित नहीं कर सका है। राजन! मैंने यह वृत्तान्त देवर्षि नारद और महर्षि व्यास से भी निवेदन किया था। उस समय उन दोनों ने मुझसे कहा,
नारद और महर्षि व्यास बोले ;- ‘भीष्म! तुम्हें काशिराज की कन्या के विषय में तनिक भी विषाद नहीं करना चाहिये। दैव के विधान को पुरुषार्थ के द्वारा कौन टाल सकता है?’ महाराज! फिर उस कन्या ने आश्रममण्डल में पहुँचकर यमुना के तट का आश्रय ले ऐसी कठोर तपस्या की, जो मानवीय शक्ति से परे है। उसने भोजन छोड़ दिया, वह दुबली तथा रुक्ष हो गयी। सिर पर केशों की जटा बन गयी। शरीर में मैल और कीचड़ जम गयी। वह तपोधना कन्या छ: महीनों तक केवल वायु पीकर ठूँठे काठ की भाँति निश्चल भाव से खड़ी रही।
फिर एक वर्ष तक यमुनाजी के जल में घुसकर बिना कुछ खाये-पीये वह भाविनी राजकन्या जल में ही रहकर तपस्या करती रही।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात तीव्र क्रोध से युक्त हुई अम्बा ने पैर के अंगूठे के अग्रभाग पर खड़ी होकर अपने-आप झड़कर गिरा हुआ केवल एक सूखा पत्ता खाकर एक वर्ष व्यतीत किया इस प्रकार बारह वर्षों तक कठोर तपस्या में संलग्न हो उसने पृथ्वी और आकाश को संतप्त कर दिया। उसके जाति वालों ने आकर उसे उस कठोर व्रत से निवृत्त करने की चेष्टा की; परंतु उन्हें सफलता न मिल सकी।
तदनन्तर वह सिद्धों और चरणों द्वारा सेवित वत्स देश की भूमि में गयी और वहाँ पुण्यशील तपस्वी महात्माओं के आश्रमों में विचरने लगी। काशिराज की वह कन्या दिन-रात वहाँ के पुण्य तीर्थों में स्नान करती और अपनी इच्छा के अनुसार सर्वत्र विचरती रहती थी। महाराज! शुभकारक नन्दाश्रम, उलूकाश्रम च्यवनाश्रम, ब्रह्मस्थान, देवताओं के यज्ञस्थान प्रयाग, देवराण्य, भोगवती, कौशिकाश्रम, माण्डव्याश्रम, दिलीपाश्रम, रामहृद और पैलगर्गाश्रम -क्रमश: इन सभी तीर्थों में उन दिनों काशिराज की कन्या ने कठोर व्रत का आश्रय ले स्नान किया।
कुरुनन्दन! उस समय मेरी माता गंगा ने जल में प्रकट होकर अम्बा से कहा,
गंगा जी बोली ;- ‘भद्रे! तू किसलिये शरीर को इतना क्लेश देती हैं। मुझे ठीक-ठीक बता।' राजन! तब साध्वी अम्बा ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा,
अम्बा बोली ;- ‘चारूलोचने! भीष्म ने युद्ध में परशुरामजी को परास्त कर दिया; फिर दूसरा कौन ऐसा राजा है, जो धनुष-बाण लेकर खडे़ हुए भीष्म को युद्ध में परास्त कर सके? अत: मैं भीष्म के विनाश के लिये अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही हूँ। ‘देवि! मैं इस भूतलपर विभिन्न तीर्थों में इसलिये विचर रही हूँ कि योग्य बनकर मैं स्वयं ही भीष्म को मार सकू। भगवति! इस जगत में मेरे व्रत और तपस्या का यही सर्वोत्तम फल है, जैसा मैंने आपको बताया है।'
तू कुटिल आचरण कर रही है। सुन्दर अंगोंवाली अबले! तेरा यह मनोरथ कभी पूर्ण नहीं हो सकता। ‘काशिराजकन्ये! यदि भीष्म के विनाश के लिये तू प्रयत्न कर रही है और व्रत में स्थित रहकर ही यदि तू अपना शरीर छोडे़गी तो शुभे! तुझे टेढ़ी-मेढ़ी नहीं होना पड़ेगा। केवल बरसात में ही तेरे भीतर जल दिखायी देगा। तेरे भीतर तीर्थ या स्नान की सुविधा बड़ी कठिनाई से होगी। तू केवल बरसात की नदी समझी जायगी। शेष आठ महीनों में तेरा पता नहीं लगेगा।
‘बरसात में भी भयंकर ग्राहों से भरी रहने के कारण तू समस्त प्राणियों के लिये अत्यन्त भयंकर और घोरस्वरूपा बनी रहेगी।’ राजन! काशिराज की कन्या से ऐसा कहकर मेरी परम सौभाग्यशालिनी माता गंगा देवी मुसकराती हुई लौट गयीं। तदनन्तर वह सुन्दरी कन्या पुन: कठोर तपस्या में प्रवृत्त हो कभी आठवें और कभी दसवें महीने तक जल भी नहीं पीती थी।
कुरुनन्दन! काशिराज की वह कन्या तीर्थ सेवन के लोभ से वत्सदेश की भूमि पर इधर-उधर दौड़ती फिरती थी। भारत! कुछ काल के पश्चात वह वत्सदेश की भूमि में अम्बा नाम से प्रसिद्ध नदी हुई, जो केवल बरसात में जल से भरी रहती थी। उसमें बहुत-से ग्राह निवास करते थे। उसके भीतर उतरना और स्नान आदि तीर्थकृत्यों का सम्पादन बहुत ही कठिन था। वह नदी टेढ़ी-मेढ़ी होकर बहती थी।
राजन! राजकन्या अम्बा उस तपस्या के प्रभाव से आधे शरीर से तो अम्बा नाम की नदी हो गयी और आधे अंग से वत्सदेश में ही एक कन्या होकर प्रकट हुई।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में अम्बा की तपस्याविषयक एक सौ छियासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ सत्तासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अम्बा का द्वितीय जन्म में पुन: तप करना और महादेवजी से अभीष्ट वर की प्राप्ति तथा उसका चिता की आग में प्रवेश”
भीष्मजी कहते हैं ;- तात! उस जन्म में भी उसे तपस्या करने का ही दृढ़ निश्चय लिये देख सब तपस्वी महात्माओं ने उसे रोका और पूछा,
तपस्वी बोले ;- ‘तुझे क्या करना है?’ तब उस कन्या ने उन तपोवृद्ध महर्षियों से कहा,
कन्या बोली ;- ‘भीष्म ने मुझे ठुकराया है और मुझे पति की प्राप्ति एवं उसकी सेवारूप धर्म से वञ्चित कर दिया है। ‘तपोधनो! मेरी यह तप की दीक्षा पुण्यलोकों की प्राप्ति के लिये नहीं, भीष्म का वध करने के लिये है। मेरा यह निश्चय है कि भीष्म को मार देने पर मेरे हृदय को शान्ति मिल जायगी। ‘जिसके कारण मैं सदा के लिये इस दु:खमयी परिस्थिति में पड़ गयी हूँ और पतिलोक में वञ्चित होकर इस जगत में न तो स्त्री रह गयी हूँ न पुरुष ही। उस गंगा पुत्र भीष्म को युद्ध में मारे बिना तपस्या से निवृत्त नहीं होऊंगी। तपोधनो! यही मेरे हृदय का संकल्प है, जिसे मैंने स्पष्ट बता दिया। ‘मुझे स्त्री के स्वरूप से विरक्ति हो गयी है, अत: पुरुष शरीर की प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय लेकर तपस्या में प्रवृत्त हुई हूँ। भीष्म से अवश्य बदला लेना चाहती हूँ, अत: आप लोग मुझे रोकें नहीं।' तब शूलपाणि उमावल्लभ भगवान शिव ने उन महर्षियों के बीच में अपने साक्षात स्वरूप से प्रकट होकर उस तपस्विनी को दर्शन दिया।
फिर इच्छानुसार वर मांगने का आदेश देने पर उसने मेरी पराजय का वर मांगा। तब महादेवजी ने उस मनस्विनी से कहा,
भगवान शिव बोले ;- ‘तू अवश्य भीष्म का वध करेगी’ यह सुनकर उस कन्या ने भगवान रुद्र से पुन: पूछा,
कन्या बोली ;- ‘देव! मैं तो स्त्री हुं। मुझे युद्ध में विजय कैसे प्राप्त हो सकती है? ‘उमापते! भूतनाथ! स्त्रीरूप होने के कारण मेरा मन बहुत निस्तेज है। इधर आपने मेरे द्वारा भीष्म के पराजित होने का वरदान दिया है। ‘वृषध्वज! आपका वह वरदान जिस प्रकार सत्य हो, वेसा कीजिये; जिससे मैं युद्ध में शान्तनुपुत्र भीष्म का सामना करके उन्हें मार सकूं।' तब वृषभध्वज महादेवजी ने उस कन्या से कहा- ‘भद्रे! मेरी वाणी ने कभी झूठ नही कहा है; अत: मेरी बात सत्य होकर रहेगी। 'तू रणक्षेत्र में भीष्म को अवश्य मारेगी और इसके लिये आवश्यकतानुसार पुरुषत्व भी प्राप्त कर लेगी। दूसरे शरीर में जाने पर तुझे इन सब बातों का स्मरण भी बना रहेगा। ‘तू द्रुपद के कुल में उत्पन्न होकर महारथी वीर होगी। तुझे शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने की कला में निपुणता प्राप्त होगी। साथ ही तू विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाली सम्मानित योद्धा होगी।
‘कल्याणि! मैंने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा होगा। तू पहले तो कन्यारूप में ही उत्पन्न होगी; फिर कुछ काल के पश्चात पुरुष हो जायगी।' ऐसा कहकर जटाजूटधारी वृषभध्वज महादेवजी उन सब ब्राह्मणों के देखते-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर उन महर्षियों के देखते-देखते उस साध्वी एवं सुन्दरी कन्या ने उस वन से बहुत सी लकड़ियों का संग्रह किया और एक विशाल चिता बनाकर उसमें आग लगा दी। महाराज! जब आग प्रज्वलित हो गयी, तब वह क्रोध से जलते हुए हृदय से भीष्म के वध का संकल्प बोलकर उस आग में प्रवेश कर गयी। राजन! इस प्रकार काशिराज की वह ज्येष्ट पुत्री अम्बा दूसरे जन्म में यमुनानदी के किनारे चिता की आग में जलकर भस्म हो गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में अम्बा का अग्नि में प्रवेशविषयक एक सौ सत्तासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ अठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अम्बा का राजा द्रुपद के यहाँ कन्या के रूप में जन्म, राजा तथा रानी का उसे पुत्र रूप में प्रसिद्ध करके उसका नाम शिखण्डी रखना”
दुर्योधन ने पूछा ;- समरश्रेष्ठ गंगानन्दन पितामह! शिखण्डी पहले कन्यारूप में उत्पन्न होकर फिर पुरुष कैसे हो गया, यह मुझे बताइये।
भीष्म ने कहा ;- प्रजापालक राजेन्द्र! राजा द्रुपद की प्यारी पटरानी के कोई पुत्र नहीं था। महाराज! इसी समय भूपाल द्रुपद ने संतान की प्राप्ति के लिये भगवान शंकर को संतुष्ट किया। हम लोगों के वध के लिये पुत्र पाने का निश्चित संकल्प लेकर उन्होंने यह कहते हुए घोर तपस्या की थी कि ‘महादेव! मुझे कन्या नहीं, पुत्र प्राप्त हो। भगवन! मैं भीष्म से बदला लेने के लिये पुत्र चाहता हूँ।' यह सुनकर देवाधिदेव महोदेवजी ने कहा,
भगवान शिव ने कहा ;- ‘भूपाल! तुम्हें पहले कन्या प्राप्त होगी, फिर वही पुरुष हो जायगी। अब तुम लौटो। मैंने जो कहा है वह कभी मिथ्या नहीं हो सकता।' तब राजा द्रुपद नगर को लौट गये और अपनी पत्नी से इस प्रकार बोले,
राजा द्रुपद बोले ;- ‘देवि! मैंने बड़ा प्रयत्न किया। तपस्या के द्वारा महादेवजी की आराधना की। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर कहा- पहले तुम्हें पुत्री होगी; फिर वही पुत्र के रूप में परिणत हो जायगी। मैंने बार-बार केवल पुत्र के लिये याचना की; परंतु भगवान शिव ने इसे दैव का विधान बताया है और कहा,
शिव जी ने कहा ;- ‘यह बदल नहीं सकता। जो कहा गया है, वही होगा।' तदनन्तर द्रुपदराज की मनस्विनी पत्नी ने नियमपूर्वक रहकर द्रुपद के साथ संयोग किया। शास्त्रीय विधि से गर्भाधान संस्कार होने पर यथासमय उसने गर्भ धारण किया। राजन! जैसा कि मुझसे नारदजी ने कहा था। द्रुपद की कमलनयनी रानी ने इसी प्रकार गर्भ धारण किया। कुरुनन्दन! महाबाहु द्रुपद ने भावी पुत्र के प्रति स्नेह होने के कारण अपनी प्यारी पत्नी को बड़े सुख से रखा। उसका आदर-सत्कार किया। कुरुकुलरत्न! रानी को जिन-जिन वस्तुओं की इच्छा हुई, वे सब उनके सामने प्रस्तुत की गयीं।
नरेश्वर! पुत्रहीन राजा द्रुपद की उस महारानी ने समय आने पर एक परम सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। राजेन्द्र! तब पुत्रहीन राजा द्रुपद की मनस्विनी रानी ने यह धोषणा करा दी कि यह मेरा पुत्र है।
नरेन्द्र! इसके बाद राजा द्रुपद ने छिपाकर रखी हुई उस कन्या के सभी संस्कार पुत्र के ही समान कराये। द्रुपद की रानी ने सब प्रकार का प्रयत्न करके इस रहस्य को गुप्त रखने की व्यवस्था की। वह उस कन्या को पुत्र कहकर ही पुकारती थी। सारे नगर में केवल द्रुपद को छोड़कर दूसरा कोई नहीं जानता था कि वह कन्या है। जिनका तेज कभी क्षीण नहीं होता, उन महादेवजी के वचनों पर श्रद्धा रखने के कारण राजा द्रुपद ने उसके कन्या-भाव को छिपाया और पुत्र होने की धोषणा कर दी। राजा ने बालक के सम्पूर्ण जातकर्म पुत्रोचित विधान से ही करवाये, लोग उसे ‘शिखण्डी’ के नाम से जानते थे।
केवल मैं गुप्तचर के दिये हुए समाचार से, नारदजी के कथन से, महादेवजी के वरदान-वाक्य से तथा अम्बा की तपस्या से शिखण्डी के कन्या होने का वृत्तान्त जान गया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में शिखण्डी की उत्पत्तिविषयक एक सौ अट्ठासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोननवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“शिखण्डी का विवाह तथा उसके स्त्री होने का समाचार पाकर उसके श्वशुर दशार्णराज का महान कोप”
भीष्म कहते हैं ;- तदनन्तर द्रुपद ने अपनी पुत्री को लेखन शिक्षा और शिल्प शिक्षा आदि सभी कार्यों की योग्यता प्राप्त कराने के लिये विशेष प्रयत्न किया। राजेन्द! धनुर्विद्या के लिये शिखण्डी द्रोणाचार्य का शिष्य हुआ। महाराज! शिखण्डी की सुन्दरी माता ने राजा द्रुपद को प्रेरित किया कि वे उसके पुत्र के लिये बहू ला दें। वह अपनी कन्या का पुत्र के समान ब्याह करना चाहती थी। द्रुपद ने देखा, मेरी बेटी जवान हो गयी तो भी अब तक स्त्री ही बनी हुई है। इससे पत्नी सहित उनके मन में बड़ी चिन्ता हुई।
द्रुपद बोले ;- देवि! मेरी यह कन्या युवावस्था को प्राप्त होकर मेरा शोक बढा़ रही है। मैंने भगवान शंकर के कथन पर विश्वास करके अब तक इसके कन्याभाव को छिपा रखा था।
रानी ने कहा ;- महाराज! भगवान शिव का दिया हुआ वर किसी तरह मिथ्या नहीं होगा। भला, तीनों लोको की सृष्टि करने वाले भगवान झूठी बात कैसे कह सकते हैं? राजन! यदि आपको अच्छा लगे तो कहूँ। मेरी बात सुनिये। पृषतनन्दन! इसे सुनकर अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण करें। मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि भगवान का वचन सत्य होगा। अत: आप प्रयत्नपूर्वक शास्त्रीय विधि के अनुसार इसका कन्या के साथ विवाह कर दें।
इस प्रकार विवाह का निश्चय करके दोनों पति-पत्नी ने दशार्णराज की पुत्री का अपने पुत्र के लिये वरण किया। तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ द्रुपद ने समस्त राजाओं के कुल आदि का परिचय सुनकर दशार्णराज की ही पुत्री का शिखण्डी के लिये वरण किया। दशार्णदेश के राजा का नाम हिरण्यवर्मा था। भूपाल हिरण्यवर्मा ने शिखण्डी को अपनी कन्या दे दी।
दशार्णदेश का वह राजा हिरण्यवर्मा महान दुर्जय और दुर्धर्ष वीर था। उसके पास विशाल सेना थी। साथ ही उसका हृदय भी विशाल था। नृपश्रेष्ठ! हिरण्यवर्मा की पुत्री भी युवावस्था को प्राप्त थी। इधर द्रुपद की कन्या शिखण्डिनी भी पूर्ण युवती हो गयी थी। विवाह कार्य सम्पन्न हो जाने पर पत्नी सहित शिखण्डी पुन: काम्पिल्य नगर में आया। दशार्णराज की कन्या ने कुछ ही दिनों में यह समझ लिया कि शिखण्डी तो स्त्री है। हिरण्यवर्मा की पुत्री ने शिखण्डी के यथार्थ स्वरूप को जानकर अपनी धाय तथा सखियों से लजाते-लजाते यह गुप्त बात कह दी कि पाञ्चालराज के पुत्र शिखण्डी वास्तव में पुरुष नहीं, स्त्री हैं।
नृपश्रेष्ठ! यह सुनकर दशार्णराज की धायों को बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने यह समाचार सूचित करने के लिये बहुत-सी दासियों को दशार्णराज के यहाँ भेजा। वे सब दासियां दशार्णराज से सब बातें ठीक-ठीक बताती हुई बोली कि ‘राजा द्रुपद ने बहुत बड़ा धोखा दिया है।’ यह सुनकर दशार्णराज अत्यन्त कुपित हो उठे। महाराज! शिखण्डी भी उस राजपरिवार में पुरुष की ही भाँति आनन्दपूर्वक घूमता-फिरता था। उसे अपना स्त्रीत्व अच्छा नहीं लगता था।
भरतश्रेष्ठ! राजेन्द्र! तदनन्तर कुछ दिनों में उसके स्त्री होने का समाचार सुनकर हिरण्यवर्मा क्रोध से पीड़ित हो गया। तदनन्तर दशार्णराज ने दु:सह क्रोध से युक्त हो राजा द्रुपद के दरबार में दूत भेजा। हिरण्यवर्मा का वह दूत द्रुपद के पास पहुँचकर अकेला एकान्त में सबको हटाकर केवल राजा से इस प्रकार बोला-
दूत बोला ;- ‘निष्पाप नरेश! आपने दशार्णराज को धोखा दिया है। आपके द्वारा किये गये अपमान से उनका क्रोध बहुत बढ़ गया है। उन्होंने आपसे कहने के लिये यह संदेश भेजा है। ‘नरेश्वर! तुमने जो मेरा अपमान किया है, वह निश्चय ही तुम्हारे खोटे विचार का परिचय है। तुमने मोहवश अपनी पुत्री के लिये मेरी पुत्री का वरण किया था। दुर्मते! उस ठगी और वंचना का फल अब तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त होगा, धीरज रखो। मैं अभी सेवकों और मन्त्रियों सहित तुम्हें जड़मूल सहित उखाड़ फेकता हूँ।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में हिरण्यवर्मा के दूत का आगमनविषयक एक सौ नवासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ नब्बेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“हिरण्यवर्मा के आक्रमण के भय से घबराते हुए द्रुपद का अपनी महारानी से संकट निवारण का उपाय पूछना”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! दूत के ऐसा कहने पर पकडे़ गये चोर की भाँति राजा द्रुपद के मुख से सहसा कोई बात नहीं निकली। उन्होंने मधुरभाषी दूतों के द्वारा यह संदेश देकर कि ‘ऐसी बात नहीं है, आपको धोखा नहीं दिया गया है’ अपने सम्बन्धी को मनाने का दुष्कर प्रयत्न किया। राजा हिरण्यवर्मा ने जब पुन: पता लगाया तो पाञ्चालराज की पुत्री शिखण्डिनी कन्या ही है, यह बात ठीक जान पड़ी। इससे रुष्ट होकर उन्होंने बड़ी उतावली के साथ द्रुपद पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
तदनन्तर राजा ने धायों के कथनानुसार अपनी कन्या को द्रुपद के द्वारा धोखा दिये जाने का समाचार अमिततेजस्वी मित्र राजाओं के पास भेजा। भारत! इसके बाद नृपश्रेष्ठ हिरण्यवर्मा ने सैन्य-संग्रह करके राजा द्रुपद के ऊपर चढा़ई करने का निश्चय किया। राजेन्द्र! फिर राजा हिरण्यवर्मा ने अपने मन्त्रियों के साथ बैठकर परामर्श किया कि मुझे पाञ्चालनरेश के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिय?
वहाँ महामना मित्र राजाओं का यह निश्चय घोषित हुआ कि राजन! यदि यह सत्य सिद्ध हुआ कि शिखण्डी वास्तव में पुत्र नहीं, कन्या है, तब हम लोग पाञ्चालराज को कैद करके अपने घर ले आयेंगे और पाञ्चालदेश के राज्य पर दूसरे किसी राजा को बिठाकर शिखण्डी सहित द्रुपद को मरवा डालेंगे। फिर दूत के मुख से उस समाचार को यथार्थ जानकर राजा हिरण्यवर्मा ने द्रुपद के पास दूत भेजा। स्थिर रहो, सावधान हो जाओ, मैं कुछ ही दिनों में तुम्हारा संहार कर डालूंगा।
भीष्म कहते हैं ;- राजा द्रुपद उन दिनों स्वभाव से ही भीरू थे। फिर उनके द्वारा अपराध भी बन गया था। अत: उन्होंने बड़े भारी भय का अनुभव किया। राजा द्रुपद ने दशार्णनरेश के पास दूतों को भेजकर शोक से अधीर हो एकान्त स्थान में अपनी पत्नी से मिलकर इस विषय में बातचीत करने की इच्छा की। पाञ्चालराज के हृदय में बड़ा भारी भय समा गया था। वे शोक से पीड़ित थे। अत: उन्होंने अपनी प्यारी पत्नी शिखण्डी की माता से इस प्रकार कहा-
पाञ्चालराज बोले ;- ‘देवि! मेरे महाबली सम्बन्धी हिरण्यवर्मा क्रोध वश अपनी विशाल सेना लाकर मेरे ऊपर आक्रमण करेंगे। ‘इस समय हम दोनों क्या करें? इस कन्या के प्रश्न को लेकर हम लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं। सम्बन्धी के मन में यह शंका दृढ़मूल हो गयी है कि तुम्हारा पुत्र शिखण्डी वास्तव में कन्या है।
‘यह सोचकर वे ऐसा मानने लगे हैं कि मेरे साथ धोखा किया गया है और इसलिये वे अपने मित्रों, सैनिकों तथा सेवकों सहित आकर मुझे यत्नपूर्वक उखाड़ फेंकना चाहते हैं। सुश्रोणि! यहाँ क्या सच है और क्या झूठ? शोभने! इस बात को तुम्हीं बताओ। तुम्हारे मुख से निकले हुए शुभ वचन को सुनकर मैं वैसा ही करूंगा। ‘रानी! मेरा जीवन संशय में पड़ गया है। यह शिखण्डिनी भी बालिका ही है। सुन्दरि! तुम भी महान संकट में फंस गयी हो।
‘सुश्रोणि! मैं पूछ रहा हूँ। सबको संकट से छुड़ाने के लिये कोई यथार्थ उपाय बताओ। शुचिस्मिते! मैं उस उपाय को शीघ्र ही काम में लाऊंगा। सुन्दर अंगो वाली महारानी! तुम शिखण्डी के विषय में भय मत करो। मैं दया करके वही कार्य करूंगा, जो वस्तुत: हितकारक होगा, मैं स्वयं पुत्रधर्म से वञ्चित हो गया हूँ। ‘और मैंने दशार्णनरेश महाराज हिरण्यवर्मा को वञ्चित किया है। अत: महाभागे! इस अवसर पर तुम्हारी दृष्टि में जो हितकारक कार्य हो, उसे बताओ। मैं उसका अनुष्ठान करूंगा।' यद्यपि राजा द्रुपद सब कुछ जानते थे तो भी दूसरे लोगों में अपनी निर्दोषता सिद्ध करने के लिये महारानी से स्पष्ट शब्दों में पूछा। उनके प्रश्न करने पर रानी ने राजा को इस प्रकार उत्तर दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में द्रुपदविषयक एक सौ नब्बेवां अध्याय पूरा हुआ)
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