सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इक्यासीवें अध्याय से एक सो पचासीवें अध्याय तक (From the 181 chapter to the 185 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्‍म और परशुराम का युद्ध”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ! दूसरे दिन परशुरामजी के साथ भेंट होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। फिर तो दिव्यास्त्रों के ज्ञाता, शूरवीर एवं धर्मात्मा भगवान परशुरामजी प्रतिदिन अनेक प्रकार के अलौकिक अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। भारत! उस तुमुल युद्ध में अपने दुस्त्यज प्राणों की परवा न करके मैंने उनके सभी अस्त्रों का विद्या त‍क अस्त्रों द्वारा संहार कर डाला। भरतनन्दन! इस प्रकार बार-बार मेरे अस्त्रों द्वारा अपने अस्त्रों के विनष्‍ट होने पर महातेजस्वी परशुरामजी उस युद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर अत्यन्त कुपित हो उठे। इस प्रकार अपने अस्त्रों का अवरोध होने पर जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम ने काल की छोड़ी हुई प्रज्वलित उल्का-के समान एक भयंकर शक्ति छोड़ी, जिसका अग्रभाग उद्दीप्त हो रहा था। वह शक्ति अपने तेज से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किये हुए थी।

   तब मैंने प्रलयकाल के सूर्य की भाँति प्रज्वलित होने वाली उस देदीप्यमान शक्ति को अपनी ओर आती देख अनेक बाणों द्वारा उसके तीन टुकडे़ करके उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर तो पवित्र सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु चलने लगी। उस शक्ति के कट जाने पर परशुरामजी क्रोध से जल उठे तथा उन्होंने दूसरी-दूसरी भयंकर बारह शक्तियां और छोड़ीं। भारत! वे इतनी तेजस्विनी तथा शीघ्रगामिनी थीं कि उनके स्वरूप का वर्णन करना असम्भव है। प्रलयकाल के बारह सूर्यों के समान भयंकर तेज से प्रज्वलित अनेक रूपवाली तथा अग्नि की प्रचण्‍ड ज्वालाओं के समान धधकती हुई उन शक्तियों को सब ओर से आती देख मैं अत्यन्त विह्वल हो गया। राजन! तत्पश्‍चात वहाँ फैले हुए बाणमय जाल को देखकर मैंने अपने बाणसमूहों से उसे छिन्न-भिन्न कर डाला और उस रणभूमि में बारह सायकों का प्रयोग किया, जिनसे उन भयंकर शक्तियों को भी व्यर्थ कर दिया। राजन! तत्पश्‍चात महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम ने स्वर्णमय दण्‍ड से विभूषित और भी बहुत-सी भयानक शक्तियां चलायीं, जो विचित्र दिखायी देती थीं। उनके ऊपर सोने के पत्र जडे़ हुए थे और वे जलती हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान प्रतीत होती थीं। 

   नरेन्द्र! उन भयंकर शक्तियों को भी मैंने ढाल से रोककर तलवार से रणभूमि में काट गिराया। तत्पश्‍चात परशुरामजी के दिव्य घोड़ों तथा सारथि पर मैंने दिव्य बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। केंचुलि से छूटकर निकले हुए सर्पों के समान आकृति वाली उन सुवर्णजटित विचित्र शक्तियों को कटी हुई देख हैहयराज का विनाश करने वाले महात्मा परशुरामजी ने कुपित होकर पुन: अपना दिव्य अस्त्र प्रकट किया। 

   फिर तो टिड्डियों की पंक्तियों के समान प्रज्वलित एवं भयंकर बाणों के समूह प्रकट होने लगे। इस प्रकार उन्होंने मेरे शरीर, रथ, सारथि और घोड़ों को सर्वथा आच्छादित कर दिया। राजन! मेरा रथ चारों ओर से उनके बाणों द्वारा व्याप्त हो रहा था। घोड़ों और सारथि की भी यही दशा थी। युग तथा ईषादण्‍ड को भी उन्होंने उसी प्रकार बाणविद्ध कर रखा था और रथ का धुरा उनके बाणों से कटकर टूक-टूक हो गया था। जब उनकी बाण-वर्षा समाप्त हुई, तब मैंने भी बदले में गुरुदेव पर बाणसमूहों की बौछार आरम्भ कर दी। वे ब्रह्मराशि महात्मा मेरे बाणों से क्षत-विक्षत होकर अपने शरीर से अधिकाधिक रक्त की धारा बहाने लगे। 

   जिस प्रकार परशुरामजी मेरे सायक समूहों से संतप्त थे, उसी प्रकार मैं भी उनके बाणों से अत्यन्त घायल हो रहा था। तदनन्तर सायंकाल में जब सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, वह युद्ध बंद हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में एक सौ इक्यासीवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ बयासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्‍म और परशुराम का युद्ध”

  भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर प्रात:काल जब सूर्यदेव उदित होकर प्रकाश में आ गये, उस समय मेरे साथ परशुरामजी का युद्ध पुन: प्रारम्भ हुआ। तत्पश्‍चात योद्धाओं में श्रेष्‍ठ परशुरामजी स्थिर रथ पर खडे़ हो जैसे मेघ पर्वत पर जल की बौछार करता है, उसी प्रकार मेरे ऊपर बाण समूहों की वर्षा करने लगे। उस समय मेरा प्रिय सुहृद सारथि बाण वर्षा से पीड़ित हो मेरे मन को विषाद में डालता हुआ रथ की बैठक से नीचे गिर गया। मेरे सारथि को अत्यन्त मोह छा गया था। वह बाणों के आघात से पृथ्‍वी पर गिरा और अचेत हो गया। 

   राजेन्द्र! परशुरामजी के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण दो ही घड़ी में सूत ने प्राण त्याग दिये। उस समय मेरे मन में बड़ा भय समा गया। उस सारथि के मारे जाने पर मैं असावधान मन से परशुरामजी के बाणों को काट रहा था! इतने ही में परशुरामजी ने मुझ पर मृत्यु के समान भयंकर बाण छोड़ा। उस समय मैं सारथि की मृत्यु के कारण व्याकुल था तो भी भृगुनन्दन परशुराम ने अपने सुदृढ़ धनुष को जोर-जोर से खींचकर मुझ पर बाण से गहरा आघात किया। राजेन्द्र! वह रक्त पीने वाला बाण मेरी दोनों भुजाओं के बीच वक्ष:स्थल में चोट पहुँचाकर मुझे साथ लिये-दिये पृथ्‍वी पर जा गिरा। 

   भरतश्रेष्‍ठ! उस समय मुझे मारा गया जानकर परशुरामजी मेघ के समान गम्भीर स्वर से गर्जना करने लगे। उनके शरीर में बार-बार हर्ष जनित रोमाञ्च होने लगा। राजन! इस प्रकार मेरे धराशायी होने पर परशुरामजी को बड़ी प्रसन्नता हई। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ महान कोलाहल मचाया। वहाँ मेरे पार्श्‍वभाग में जो कुरुवंशी क्षत्रियगण खडे़ थे तथा जो लोग वहाँ युद्ध देखने की इच्छा से आये थे, उन सबको मेरे गिर जाने पर बड़ा दु:ख हुआ। राजसिंह! वहाँ गिरते समय मैंने देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी आठ ब्राह्मण आये और संग्रामभूमि में मुझे सब ओर से घेरकर अपनी भुजाओं पर ही मेरे शरीर को धारण करके खडे़ हो गये। उन ब्राह्मणों से सुरक्षित होने के कारण मुझे धरती का स्पर्श नहीं करना पड़ा। मेरे सगे भाई-बन्धुओं की भाँति उन ब्राह्मणों ने मुझे आकाश में ही रोक लिया था। 

   राजन! आकाश में मैं सांस लेता-सा ठ‍हर गया था। उस समय ब्राह्मणों ने मुझ पर जल की बूंदे छिड़क दीं। फिर वे मुझे पकड़कर बोले। उन सबने एक साथ ही बार-बार कहा- ‘तुम्हाराकल्याण हो। तुम भयभीत न हो।’ उनके वचनामृतों से तृप्त होकर मैं सहसा उठकर खड़ा हो गया और देखा, मेरे रथ पर सारथि के स्थान में सरिताओं में श्रेष्‍ठ माता गंगा बैठी हुई हैं। कौरवराज! उस युद्ध में महानदी माता गंगा ने मेरे घोड़ों की बागडोर पकड़ रखी थी। तब मैं माता के चरणों का स्पर्श करके और पितरों के उद्देश्‍य से भी मस्तक नवाकर उस रथ पर जा बैठा। 

   माता ने मेरे रथ, घोड़ों तथा अन्यान्य उपकरणों की रक्षा की। तब मैंने हाथ जोड़कर पुन: माता को विदा कर दिया। भारत! तदनन्तर स्वयं ही उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को काबू में करके मैं जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध करने लगा। उस समय दिन प्राय: समाप्त हो चला था। भरतश्रेष्‍ठ! उस समरभूमि में मैंने परशुरामजी की ओर एक प्रबल एवं वेगवान बाण चलाया, जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाला था। मेरे उस बाण से अत्यन्त पीड़ित हो परशुरामजी ने मूर्छा के वशीभूत होकर धनुष छोड़ धरती पर घुटने टेक दिये। अनेक सहस्र ब्राह्मणों को बहुत दान करने वाले परशुरामजी के धराशायी होने पर अधिकाधिक रक्त की वर्षा करते हुए बादलों ने आकाश को ढक लिया। बिजली की गड़गडाहट के समान सैकड़ों उल्कापात होने लगे। भूकम्प आ गया। अपनी किरणों से उद्भासित होने वाले सूर्यदेव को राहु ने सब ओर से सहसा घेर लिया। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद)

   वायु तीव्र वेग से बहने लगी, धरती डोलने लगी, गीध, कौवे और कंक प्रसन्नतापूर्वक सब ओर उड़ने लगे। दिशाओं में दाह-सा होने लगा, गीदड़ बार-बार भयंकर बोली बोलने लगे, दुन्दुभियां बिना बजाये ही जोर-जोर से बजने लगीं। इस प्रकार महात्मा परशुराम के मूर्च्छित होकर पृथ्‍वी पर गिरते ही ये समस्त उत्पातसूचक अत्यन्त भयंकर अपशकुन होने लगे। कुरुनन्दन! इसी समय परशुरामजी सहसा उठकर क्रोध से मूर्च्छित एवं विह्वल हो पुन: युद्ध के लिये मेरे समीप आये। परशुराम ताड़ के समान विशाल धनुष लिये हुए थे। जब वे मेरे लिये बाण उठाने लगे, तब दयालु महर्षियों ने उन्हें रोक दिया। वह बाण कालाग्नि के समान भयंकर था। अमेयस्वरूप भार्गव ने कुपित होने पर भी मुनियों के कहने से उस बाण का उपसंहार कर लिया। 

    तदनन्तर मन्द किरणों के पुञ्ज से प्रकाशित सूर्यदेव युद्धभूमि की उड़ती हुई धुलों से आच्छादित हो अस्ताचल को चले गये। रात्रि आ गयी और सुखद शीतल वायु चलने लगी। उस समय हम दोनों ने युद्ध समाप्त कर दिया। राजन! इस प्रकार प्रतिदिन संध्‍या के समय युद्ध बंद हो जाता और प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ जाता था। इस प्रकार हम दोनों के युद्ध करते-करते तेईस दिन बीत गये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में परशुराम-भीष्‍मयुद्धविषयक एक सौ बयासीवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ तिरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्‍म को अष्‍टवसुओं से प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति”

  भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर मैं रात के समय एकान्त में शय्यापर जाकर ब्राह्मणों, पितरों, देवताओं, निशाचरों, भूतों तथा रा‍जर्षियों को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के पश्‍चात मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगा। आज बहुत दिन हो गये, जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ यह मेरा अत्यन्त भयंकर और महान अनिष्‍टकारक युद्ध चल रहा है। परंतु मैं महाबली, महापराक्रमी विप्रवर परशुरामजी को समरभूमि में युद्ध के मुहाने पर किसी तरह जीत नहीं सकता। यदि प्रतापी जमदग्निकुमार को जीतना मेरे लिये सम्भव हो तो प्रसन्न हुए देवगण रात्रि में मुझे दर्शन दें। राजेन्द्र! ऐसी प्रार्थना करके बाणों से क्षत-विक्षत हुआ मैं रात्रि के अन्त में प्रभात के समय दाहिनी करवट से सो गया। महाराज! कुरुश्रेठ! तत्पश्‍चात जिन ब्राह्मण शिरोमणियों ने रथ से गिरने पर मुझे थाम लिया और उठाया था तथा ‘डरो मत’ ऐसा कहकर सान्त्वना दी थी, उन्हीं लोगों ने मुझे सपने-में दर्शन देकर मेरे चारों ओर खडे़ होकर जो बातें कही थीं, उसे बताता हुं, सुनो। 

   ‘गंगानन्दन! उठो। भयभीत न होओ। तुम्हें कोई भय नहीं है। कुरुनन्दन! हम तुम्हारी रक्षा करतें हैं, क्योंकि तुम हमारे ही स्वरूप हो। ‘जमदग्निकुमार परशुराम तुम्हें किसी प्रकार युद्ध में जीत नहीं सकेंगे। भरतभूषण! तुम्हीं रणक्षेत्र में परशुराम पर विजय पाओगे। ‘भारत! यह प्रस्ताव नामक अस्त्र है, जिसके देवता प्रजापति हैं। विश्वकर्मा ने इसका अविष्‍कार किया है। यह तुम्हें भी परम प्रिय है। इसकी प्रयोग विधि तुम्हें स्वत: ज्ञात हो जायगी; क्योंकि पूर्व शरीर में तुम्हें भी इसका पूर्ण ज्ञान था। परशुरामजी भी इस अस्त्र को नहीं जानते हैं। इस पृथ्‍वी पर कहीं किसी भी पुरुष को इसका ज्ञान नहीं हैं। 

   ‘महाबाहो! इस अस्त्र का स्मरण करो और विशेषरूप से इसी का प्रयोग करो। निष्‍पाप राजेन्द्र! यह अस्त्र स्वयं ही तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो जायगा। ‘कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से तुम सम्पूर्ण महापराक्रमी नरेशों पर शासन करोगे। राजन! उस अस्त्र से परशुराम का नाश नहीं होगा। ‘इसलिये मानद! तुम्हें कभी इसके द्वारा पाप से संयोग नहीं होगा। तुम्हारे अस्त्र के प्रभाव से पीड़ित होकर जमदग्निकुमार परशुराम चुपचाप सो जायंगे। ‘भीष्‍म! तदनन्तर अपने उस प्रिय अस्त्र के द्वारा युद्ध में विजयी होकर तुम्हीं उन्हें सम्बोधनास्त्र द्वारा पुन: जगाकर उठाओगे। 

    ‘कुरुनन्दन! प्रात:काल रथ पर बैठकर तुम ऐसा ही करो; क्योंकि हम लोग सोये अथवा मरे हुए को समान ही समझते हैं। ‘राजन! परशुराम की कभी मृत्यु नहीं हो सकती; अत: इस प्राप्त हुए प्रस्ताव नामक अस्त्र का प्रयोग करो।' राजन! ऐसा कहकर वे वसुस्वरूप सभी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण अदृश्‍य हो गये। वे आठों समान रूपवाले थे। उन सबके शरीर तेजोमय प्रतीत होते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में भीष्‍म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्तिविषयक एक सौ तिरासीवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ चौरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुरशीत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्‍म तथा परशुरामजी का एक दूसरे पर शक्ति और ब्रह्मस्त्र का प्रयोग”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- भारत! तदनन्तर रात बीतने पर जब मेरी नींद खुली, तब उस स्वप्न की बात को सोचकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। भारत! तदनन्तर मेरा और परशुरामजी का भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो समस्त प्राणियों के रोंगटे खडे़ कर देने वाला और अद्भुत था। उस समय भृगुनन्दन परशुरामजी ने मुझ पर बाणों की झड़ी लगा दी। भारत! तब मैंने अपने सायक समूहों से उस बाण वर्षा को रोक दिया।  तब महातपस्वी परशुराम पुन: मुझपर अत्यन्त कुपित हो गये। पहले दिन का भी कोप था ही। उससे प्ररित होकर उन्होंने मेरे ऊपर शक्ति चलायी।
   उसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान भयंकर था। उसकी प्रभा यमदण्‍ड़ के समान थी और उस संग्राम में अग्नि के समान प्रज्वलित हुई वह शक्ति मानो सब ओर से रक्त चाट रही थी। भरतश्रेष्‍ठ! कुरुकुलरत्न! फिर आकाशवर्ती नक्षत्र के समान प्रकाशित होने वाली उस शक्ति ने तुरंत आकर मेरे गले की हंसली पर आघात किया। लाल नेत्रों वाले महाबाहु दुर्योधन! परशुरामजी के द्वारा किये हुए उस गहरे आघात से भयंकर रक्त की धारा वह चली। मानो पर्वत से गैरिक धातुमिश्रित जल का झरना झर रहा हो। तब मैंने भी अत्यन्त कुपित हो सर्प विष के समान भयंकर मृत्युतुल्य बाण लेकर परशुरामजी के ऊपर चलाया। उस बाण ने विप्रवर वीर परशुरामजी के ललाट में चोट पहुँचायी। महाराज! उसके कारण वे शिखरयुक्त पर्वत के समान शोभा पाने लगे।
  तब उन्होंने भी रोष में आकर काल और यम के समान भयंकर शत्रुनाशक बाण को हाथ में ले धनुष को बलपूर्वक खींचकर उसके ऊपर रखा। राजन! उसका चलाया हुआ वह भयंकर बाण फुफकारते हुए सर्प के समान सनसनाता हुआ मेरी छाती पर आकर लगा। उससे लहूलुहान होकर मैं पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। पुन: चेत में आने पर मैंने बुद्धिमान परशुरामजी के ऊपर प्रज्वलित वज्र के समान एक उज्ज्वल शक्ति चलायी। 
    वह शक्ति उन ब्राह्मण शिरोमणि की दोनों भुजाओं के ठीक बीच में जाकर लगी। राजन! इससे वे विह्वल हो गये और उनके शरीर में कंपकंपी आ गयी। तब उनके महातपस्वी मित्र अकृतव्रण ने उन्हें हृदय से लगाकर सुन्दर वचनों द्वारा अनेक प्रकार से आश्‍वासन दिया। तदनन्तर महाव्रती परशुरामजी धैर्ययुक्त हो क्रोध और अमर्ष में भर गये और उन्होंने परम उत्तम ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। तब उस अस्त्र का निवारण करने के लिये मैंने भी उत्तम ब्रह्मास्त्र का ही प्रयोग किया। मेरा वह अस्त्र प्रलयकाल जैसा दृश्य उपस्थित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा। 
   भरतवंश शिरोमणे! वे दोनों ब्रह्मास्त्र मेरे तथा परशुरामजी के पास न पहुँचकर बीच में ही एक दूसरे से भिड़ गये। प्रजानाथ! फिर तो आकाश में केवल आग की ही ज्वाला प्रकट होने लगी। इससे समस्त प्राणियों को बड़ी पीड़ा हुई। भारत! उन ब्रह्मास्त्रों के तेज से पीड़ित होकर ऋषि, गन्धर्व तथा देवता भी अत्यन्त संतप्त हो उठे। फिर तो पर्वत, वन और वृक्षों सहित सारी पृथ्‍वी डोलने लगी। भूतल के समस्त प्राणी संतप्त हो अत्यन्त विषाद करने लगे। 
   राजन! उस समय आकाश जल रहा था। सम्पूर्ण दिशाओं में धूम व्याप्त हो रहा था। आकाशचारी प्राणी भी आकाश में ठहर न सके। तदनन्तर देवता, असुर तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच गया। भारत! ‘यही उपयुक्त अवसर है’ ऐसा मानकर मैंने तुरंत ही प्रस्वापनास्त्र को छोड़ने का विचार किया। फिर तो उन ब्रह्मवादी वसुओं के कथनानुसार उस विचित्र अस्त्र का मेरे मन में स्मरण हो आया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपख्‍यानपर्व में परस्पर ब्रह्मास्त्रप्रयोगविष्‍यक एक सौ चौरासीवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ पचासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“देवताओं के मना करने से भीष्‍म का प्रस्वापनास्त्र को प्रयोग में न लाना तथा पितर, देवता और गंगा के आग्रह से भीष्‍म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजन! कौरवनन्दन! तदनन्तर ‘भीष्‍म! प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो’ इस प्रकार आकाश में महान कोलाहल मच गया। तथापि मैंने भृगुनन्दन परशुरामजी को लक्ष्‍य करके उस अस्त्र को धनुष पर चढा़ ही लिया। मुझे प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग करते देख नारदजी ने इस प्रकार कहा- 
    नारदजी ने कहा ;- ‘कुरुनन्दन! ये आकाश में स्वर्गलोक के देवता खडे़ हैं। ये सबके सब इस समय तुम्हें मना कर रहे हैं, तुम प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो। ‘परशुरामजी तपस्वी, ब्राह्मणभक्त, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण और तुम्हारे गुरु हैं। कुरुकुलरत्न! तुम किसी तरह भी उनका अपमान न करो।' राजेन्द्र! तत्पश्‍चात मैंने आकाश में खडे़ हुए उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को देखा। वे मुसकराते हुए मुझसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- 
   देवता बोले ;- ‘भरतश्रेष्‍ठ! नारदजी जैसा कहते हैं, वैसा करो। भरतकुलतिलक! यही सम्पूर्ण जगत के लिये परम कल्याणकारी होगा।' तब मैंने उस महान प्रस्वापनास्त्र को धनुष से उतार लिया और उस युद्ध में विधिपूर्वक ब्रह्मास्त्र को ही प्र‍काशित किया। 
राजसिंह! मैंने प्रस्वापनास्त्र को उतार लिया है- यह देखकर परशुरामजी बड़े प्रसन्न हुए। उनके मुख से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा कि ‘मुझ मन्दबुद्धि को भीष्‍म ने जीत लिया।' इसके बाद जमदग्निकुमार परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि को तथा उनके भी माननीय पिता ॠचीक मुनि को देखा। वे सब पितर उन्हें चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले। 
   पितरों ने कहा ;- तात! फिर कभी किसी प्रकार भी ऐसा साहस न करना। भीष्‍म और विशेषत: क्षत्रिय के साथ युद्धभूमि में उतरना अब तुम्हारे लिये उचित नहीं हैं। भृगुनन्दन! क्षत्रिय का तो युद्ध करना धर्म ही है; किंतु ब्राह्मणों के लिये वेदों का स्वाध्‍याय तथा उत्तम व्रतों का पालन ही परम धर्म है। यह बात पहले भी किसी अवसर पर हमने तुमसे कही थी। शस्त्र उठाना अत्यन्त भयंकर कर्म है; अत: तुमने यह न करने योग्य कार्य ही किया है। 
  महाबाहो! वत्स! भीष्‍म के साथ युद्ध में उतरकर जो तुमने इतना विध्‍वंसात्मक कार्य किया है, भृगुनंदन कल्याण हो। दुर्धर्ष वीर! तुमने जो धनुष उठा लिया, यही पर्याप्त है। अब इसे त्याग दो और तपस्या करो। देखो, इन सम्पूर्ण देवताओं ने शान्तनुनन्दन भीष्‍म को भी रोक दिया है। वे उन्हें प्रसन्न करके यह बात कह रहे हैं कि ‘तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। परशुराम तुम्हारे गुरु हैं। तुम उनके साथ बार-बार युद्ध न करो। कुरुश्रेष्‍ठ! परशुराम को युद्ध में जीतना तुम्हारे लिये कदापि न्यायासंगत नहीं हैं। गंगानन्दन! तुम इस समरांगण में अपने ब्राह्मणगुरु का सम्मान करो।' बेटा परशुराम! हम तो तुम्हारे गुरुजन- आदरणीय पितर हैं। इसलिये तुम्हें रोक रहे हैं। पुत्र! भीष्‍म वसुओं में से एक वसु है। तुम अपना सौभाग्य ही समझो कि उनके साथ युद्ध करके अब तक जीवित हो।
   भृगुनन्दन! गंगा और शान्तनु के ये महायशस्वी पुत्र भीष्‍म साक्षात वसु ही हैं। इन्हें तुम कैसे जीत सकते हो? अत: यहाँ युद्ध से निवृत्त हो जाओ। प्राचीन सनातन देवता और प्रजापालक वीरवर भगवान नर इन्द्रपुत्र महाबली पाण्‍डव श्रेष्ठ अर्जुन के रूप में प्रकट होंगे तथा पराक्रमसम्पन्न होकर तोनों लोकों में सव्यसाची के नाम से विख्‍यात होंगे। स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उन्हीं को यथासमय भीष्‍म की मृत्यु में कारण बनाया है। 
  भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजन! पितरों के ऐसा कहने पर परशुरामजी ने उनसे इस प्रकार कहा,
   परशुराम बोले ;- ‘मैं युद्ध में पीठ नहीं दिखाऊंगा। यह मेरा चिरकाल से धारण किया हुआ व्रत है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-37 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘आज से पहले भी मैं कभी किसी युद्ध से पीछे नहीं हटा हूँ। अत: पितामहो! आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार पहले गंगानन्दन भीष्‍म को ही युद्ध से ही निवृत्त कीजिये। मैं किसी प्रकार पहले स्वयं ही इस युद्ध से पीछे नहीं हटूंगा।' राजन! तब वे ऋचीक आदि मुनि नारदजी के साथ मेरे पास आये और इस प्रकार बोले,
   ऋचीक बोले ;- तात! तुम्हीं युद्ध से निवृत्त हो जाओ और द्विजश्रेष्‍ठ परशुरामजी का मान रखो।' 
तब मैंने क्षत्रिय धर्म का लक्ष्‍य करके उनसे कहा,
   भीष्म बोले ;- ‘म‍हर्षियो! संसार में मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि मैं पीठ पर बाणों की चोट खाता हुआ कदापि युद्ध से निवृत्त नहीं हो सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि मैं लोभ से, कायरता या दीनता से, भय से अथवा किसी स्वार्थ के कारण भी क्षत्रियों के सनातन धर्म का त्याग नहीं कर सकता।' इतना कहकर मैं पूर्ववत धनुष-बाण लिये दृढ़ निश्‍चय के साथ समरभूमि में युद्ध करने के लिये डटा रहा। राजन! तब वे नारद आदि सम्पूर्ण ऋषि और मेरी माता गंगा सब लोग उस रणक्षेत्र में एकत्र हुए और पुन: एक साथ मिलकर उस समरांगण में भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर इस प्रकार बोले- 

   सभी बोले ;- ‘भृगुनन्दन! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है; अत: शान्त हो जाओ। विप्रवर परशुराम! इस युद्ध में निवृत्त हो जाओ। भार्गव! तुम्हारे लिये भीष्‍म और भीष्‍म के लिये तुम अवश्‍य हो। इस प्रकार कहते हुए उन सब लोगों ने रणस्थली को घेर लिया और पितरों ने भृगुनन्दन परशुराम से अस्त्र-शस्त्र रखवा दिया।
    इसी समय मैंने पुन: उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को आकाश में उदित हुए आठ ग्रहों की भाँति प्रकाशित होते देखा। उन्होंने समरभूमि में डटे हुए मुझसे प्रेमपूर्वक कहा,
   आठों ब्रह्मवादी वसु बोले ;- ‘महाबाहो! तुम अपने गुरु परशरामजी के पास जाओ और जगत का कल्याण करो।' अपने सुहृदों के कहने से परशुरामजी को युद्ध से निवृत्त हुआ देख मैंने भी लोक की भलाई करने के लिये उन महर्षियों की बात मान ली। तदनन्तर मैंने परशुरामजी के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। उस समय मेरा शरीर बहुत घायल हो गया था। महातेजस्वी परशुराम मुझे देखकर मुसकराये और प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले। 
     ‘भीष्‍म! इस जगत में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं हैं। जाओ, इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत संतुष्‍ट किया है।' फिर मेरे सामने ही उन्होंने उस कन्या को बुलाकर उन सब महात्माओं के बीच दीनतापूर्ण वाणी में उससे कहा- 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में युद्धनिवृत्तिविषयक एक सौ पचासीवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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