सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और परशुराम का युद्ध”
भीष्मजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! दूसरे दिन परशुरामजी के साथ भेंट होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। फिर तो दिव्यास्त्रों के ज्ञाता, शूरवीर एवं धर्मात्मा भगवान परशुरामजी प्रतिदिन अनेक प्रकार के अलौकिक अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। भारत! उस तुमुल युद्ध में अपने दुस्त्यज प्राणों की परवा न करके मैंने उनके सभी अस्त्रों का विद्या तक अस्त्रों द्वारा संहार कर डाला। भरतनन्दन! इस प्रकार बार-बार मेरे अस्त्रों द्वारा अपने अस्त्रों के विनष्ट होने पर महातेजस्वी परशुरामजी उस युद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर अत्यन्त कुपित हो उठे। इस प्रकार अपने अस्त्रों का अवरोध होने पर जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम ने काल की छोड़ी हुई प्रज्वलित उल्का-के समान एक भयंकर शक्ति छोड़ी, जिसका अग्रभाग उद्दीप्त हो रहा था। वह शक्ति अपने तेज से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किये हुए थी।
तब मैंने प्रलयकाल के सूर्य की भाँति प्रज्वलित होने वाली उस देदीप्यमान शक्ति को अपनी ओर आती देख अनेक बाणों द्वारा उसके तीन टुकडे़ करके उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर तो पवित्र सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु चलने लगी। उस शक्ति के कट जाने पर परशुरामजी क्रोध से जल उठे तथा उन्होंने दूसरी-दूसरी भयंकर बारह शक्तियां और छोड़ीं। भारत! वे इतनी तेजस्विनी तथा शीघ्रगामिनी थीं कि उनके स्वरूप का वर्णन करना असम्भव है। प्रलयकाल के बारह सूर्यों के समान भयंकर तेज से प्रज्वलित अनेक रूपवाली तथा अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं के समान धधकती हुई उन शक्तियों को सब ओर से आती देख मैं अत्यन्त विह्वल हो गया। राजन! तत्पश्चात वहाँ फैले हुए बाणमय जाल को देखकर मैंने अपने बाणसमूहों से उसे छिन्न-भिन्न कर डाला और उस रणभूमि में बारह सायकों का प्रयोग किया, जिनसे उन भयंकर शक्तियों को भी व्यर्थ कर दिया। राजन! तत्पश्चात महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम ने स्वर्णमय दण्ड से विभूषित और भी बहुत-सी भयानक शक्तियां चलायीं, जो विचित्र दिखायी देती थीं। उनके ऊपर सोने के पत्र जडे़ हुए थे और वे जलती हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान प्रतीत होती थीं।
नरेन्द्र! उन भयंकर शक्तियों को भी मैंने ढाल से रोककर तलवार से रणभूमि में काट गिराया। तत्पश्चात परशुरामजी के दिव्य घोड़ों तथा सारथि पर मैंने दिव्य बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। केंचुलि से छूटकर निकले हुए सर्पों के समान आकृति वाली उन सुवर्णजटित विचित्र शक्तियों को कटी हुई देख हैहयराज का विनाश करने वाले महात्मा परशुरामजी ने कुपित होकर पुन: अपना दिव्य अस्त्र प्रकट किया।
फिर तो टिड्डियों की पंक्तियों के समान प्रज्वलित एवं भयंकर बाणों के समूह प्रकट होने लगे। इस प्रकार उन्होंने मेरे शरीर, रथ, सारथि और घोड़ों को सर्वथा आच्छादित कर दिया। राजन! मेरा रथ चारों ओर से उनके बाणों द्वारा व्याप्त हो रहा था। घोड़ों और सारथि की भी यही दशा थी। युग तथा ईषादण्ड को भी उन्होंने उसी प्रकार बाणविद्ध कर रखा था और रथ का धुरा उनके बाणों से कटकर टूक-टूक हो गया था। जब उनकी बाण-वर्षा समाप्त हुई, तब मैंने भी बदले में गुरुदेव पर बाणसमूहों की बौछार आरम्भ कर दी। वे ब्रह्मराशि महात्मा मेरे बाणों से क्षत-विक्षत होकर अपने शरीर से अधिकाधिक रक्त की धारा बहाने लगे।
जिस प्रकार परशुरामजी मेरे सायक समूहों से संतप्त थे, उसी प्रकार मैं भी उनके बाणों से अत्यन्त घायल हो रहा था। तदनन्तर सायंकाल में जब सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, वह युद्ध बंद हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में एक सौ इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और परशुराम का युद्ध”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर प्रात:काल जब सूर्यदेव उदित होकर प्रकाश में आ गये, उस समय मेरे साथ परशुरामजी का युद्ध पुन: प्रारम्भ हुआ। तत्पश्चात योद्धाओं में श्रेष्ठ परशुरामजी स्थिर रथ पर खडे़ हो जैसे मेघ पर्वत पर जल की बौछार करता है, उसी प्रकार मेरे ऊपर बाण समूहों की वर्षा करने लगे। उस समय मेरा प्रिय सुहृद सारथि बाण वर्षा से पीड़ित हो मेरे मन को विषाद में डालता हुआ रथ की बैठक से नीचे गिर गया। मेरे सारथि को अत्यन्त मोह छा गया था। वह बाणों के आघात से पृथ्वी पर गिरा और अचेत हो गया।
राजेन्द्र! परशुरामजी के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण दो ही घड़ी में सूत ने प्राण त्याग दिये। उस समय मेरे मन में बड़ा भय समा गया। उस सारथि के मारे जाने पर मैं असावधान मन से परशुरामजी के बाणों को काट रहा था! इतने ही में परशुरामजी ने मुझ पर मृत्यु के समान भयंकर बाण छोड़ा। उस समय मैं सारथि की मृत्यु के कारण व्याकुल था तो भी भृगुनन्दन परशुराम ने अपने सुदृढ़ धनुष को जोर-जोर से खींचकर मुझ पर बाण से गहरा आघात किया। राजेन्द्र! वह रक्त पीने वाला बाण मेरी दोनों भुजाओं के बीच वक्ष:स्थल में चोट पहुँचाकर मुझे साथ लिये-दिये पृथ्वी पर जा गिरा।
भरतश्रेष्ठ! उस समय मुझे मारा गया जानकर परशुरामजी मेघ के समान गम्भीर स्वर से गर्जना करने लगे। उनके शरीर में बार-बार हर्ष जनित रोमाञ्च होने लगा। राजन! इस प्रकार मेरे धराशायी होने पर परशुरामजी को बड़ी प्रसन्नता हई। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ महान कोलाहल मचाया। वहाँ मेरे पार्श्वभाग में जो कुरुवंशी क्षत्रियगण खडे़ थे तथा जो लोग वहाँ युद्ध देखने की इच्छा से आये थे, उन सबको मेरे गिर जाने पर बड़ा दु:ख हुआ। राजसिंह! वहाँ गिरते समय मैंने देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी आठ ब्राह्मण आये और संग्रामभूमि में मुझे सब ओर से घेरकर अपनी भुजाओं पर ही मेरे शरीर को धारण करके खडे़ हो गये। उन ब्राह्मणों से सुरक्षित होने के कारण मुझे धरती का स्पर्श नहीं करना पड़ा। मेरे सगे भाई-बन्धुओं की भाँति उन ब्राह्मणों ने मुझे आकाश में ही रोक लिया था।
राजन! आकाश में मैं सांस लेता-सा ठहर गया था। उस समय ब्राह्मणों ने मुझ पर जल की बूंदे छिड़क दीं। फिर वे मुझे पकड़कर बोले। उन सबने एक साथ ही बार-बार कहा- ‘तुम्हाराकल्याण हो। तुम भयभीत न हो।’ उनके वचनामृतों से तृप्त होकर मैं सहसा उठकर खड़ा हो गया और देखा, मेरे रथ पर सारथि के स्थान में सरिताओं में श्रेष्ठ माता गंगा बैठी हुई हैं। कौरवराज! उस युद्ध में महानदी माता गंगा ने मेरे घोड़ों की बागडोर पकड़ रखी थी। तब मैं माता के चरणों का स्पर्श करके और पितरों के उद्देश्य से भी मस्तक नवाकर उस रथ पर जा बैठा।
माता ने मेरे रथ, घोड़ों तथा अन्यान्य उपकरणों की रक्षा की। तब मैंने हाथ जोड़कर पुन: माता को विदा कर दिया। भारत! तदनन्तर स्वयं ही उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को काबू में करके मैं जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध करने लगा। उस समय दिन प्राय: समाप्त हो चला था। भरतश्रेष्ठ! उस समरभूमि में मैंने परशुरामजी की ओर एक प्रबल एवं वेगवान बाण चलाया, जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाला था। मेरे उस बाण से अत्यन्त पीड़ित हो परशुरामजी ने मूर्छा के वशीभूत होकर धनुष छोड़ धरती पर घुटने टेक दिये। अनेक सहस्र ब्राह्मणों को बहुत दान करने वाले परशुरामजी के धराशायी होने पर अधिकाधिक रक्त की वर्षा करते हुए बादलों ने आकाश को ढक लिया। बिजली की गड़गडाहट के समान सैकड़ों उल्कापात होने लगे। भूकम्प आ गया। अपनी किरणों से उद्भासित होने वाले सूर्यदेव को राहु ने सब ओर से सहसा घेर लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद)
वायु तीव्र वेग से बहने लगी, धरती डोलने लगी, गीध, कौवे और कंक प्रसन्नतापूर्वक सब ओर उड़ने लगे। दिशाओं में दाह-सा होने लगा, गीदड़ बार-बार भयंकर बोली बोलने लगे, दुन्दुभियां बिना बजाये ही जोर-जोर से बजने लगीं। इस प्रकार महात्मा परशुराम के मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिरते ही ये समस्त उत्पातसूचक अत्यन्त भयंकर अपशकुन होने लगे। कुरुनन्दन! इसी समय परशुरामजी सहसा उठकर क्रोध से मूर्च्छित एवं विह्वल हो पुन: युद्ध के लिये मेरे समीप आये। परशुराम ताड़ के समान विशाल धनुष लिये हुए थे। जब वे मेरे लिये बाण उठाने लगे, तब दयालु महर्षियों ने उन्हें रोक दिया। वह बाण कालाग्नि के समान भयंकर था। अमेयस्वरूप भार्गव ने कुपित होने पर भी मुनियों के कहने से उस बाण का उपसंहार कर लिया।
तदनन्तर मन्द किरणों के पुञ्ज से प्रकाशित सूर्यदेव युद्धभूमि की उड़ती हुई धुलों से आच्छादित हो अस्ताचल को चले गये। रात्रि आ गयी और सुखद शीतल वायु चलने लगी। उस समय हम दोनों ने युद्ध समाप्त कर दिया। राजन! इस प्रकार प्रतिदिन संध्या के समय युद्ध बंद हो जाता और प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ जाता था। इस प्रकार हम दोनों के युद्ध करते-करते तेईस दिन बीत गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में परशुराम-भीष्मयुद्धविषयक एक सौ बयासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म को अष्टवसुओं से प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर मैं रात के समय एकान्त में शय्यापर जाकर ब्राह्मणों, पितरों, देवताओं, निशाचरों, भूतों तथा राजर्षियों को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के पश्चात मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगा। आज बहुत दिन हो गये, जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ यह मेरा अत्यन्त भयंकर और महान अनिष्टकारक युद्ध चल रहा है। परंतु मैं महाबली, महापराक्रमी विप्रवर परशुरामजी को समरभूमि में युद्ध के मुहाने पर किसी तरह जीत नहीं सकता। यदि प्रतापी जमदग्निकुमार को जीतना मेरे लिये सम्भव हो तो प्रसन्न हुए देवगण रात्रि में मुझे दर्शन दें। राजेन्द्र! ऐसी प्रार्थना करके बाणों से क्षत-विक्षत हुआ मैं रात्रि के अन्त में प्रभात के समय दाहिनी करवट से सो गया। महाराज! कुरुश्रेठ! तत्पश्चात जिन ब्राह्मण शिरोमणियों ने रथ से गिरने पर मुझे थाम लिया और उठाया था तथा ‘डरो मत’ ऐसा कहकर सान्त्वना दी थी, उन्हीं लोगों ने मुझे सपने-में दर्शन देकर मेरे चारों ओर खडे़ होकर जो बातें कही थीं, उसे बताता हुं, सुनो।
‘गंगानन्दन! उठो। भयभीत न होओ। तुम्हें कोई भय नहीं है। कुरुनन्दन! हम तुम्हारी रक्षा करतें हैं, क्योंकि तुम हमारे ही स्वरूप हो। ‘जमदग्निकुमार परशुराम तुम्हें किसी प्रकार युद्ध में जीत नहीं सकेंगे। भरतभूषण! तुम्हीं रणक्षेत्र में परशुराम पर विजय पाओगे। ‘भारत! यह प्रस्ताव नामक अस्त्र है, जिसके देवता प्रजापति हैं। विश्वकर्मा ने इसका अविष्कार किया है। यह तुम्हें भी परम प्रिय है। इसकी प्रयोग विधि तुम्हें स्वत: ज्ञात हो जायगी; क्योंकि पूर्व शरीर में तुम्हें भी इसका पूर्ण ज्ञान था। परशुरामजी भी इस अस्त्र को नहीं जानते हैं। इस पृथ्वी पर कहीं किसी भी पुरुष को इसका ज्ञान नहीं हैं।
‘महाबाहो! इस अस्त्र का स्मरण करो और विशेषरूप से इसी का प्रयोग करो। निष्पाप राजेन्द्र! यह अस्त्र स्वयं ही तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो जायगा। ‘कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से तुम सम्पूर्ण महापराक्रमी नरेशों पर शासन करोगे। राजन! उस अस्त्र से परशुराम का नाश नहीं होगा। ‘इसलिये मानद! तुम्हें कभी इसके द्वारा पाप से संयोग नहीं होगा। तुम्हारे अस्त्र के प्रभाव से पीड़ित होकर जमदग्निकुमार परशुराम चुपचाप सो जायंगे। ‘भीष्म! तदनन्तर अपने उस प्रिय अस्त्र के द्वारा युद्ध में विजयी होकर तुम्हीं उन्हें सम्बोधनास्त्र द्वारा पुन: जगाकर उठाओगे।
‘कुरुनन्दन! प्रात:काल रथ पर बैठकर तुम ऐसा ही करो; क्योंकि हम लोग सोये अथवा मरे हुए को समान ही समझते हैं। ‘राजन! परशुराम की कभी मृत्यु नहीं हो सकती; अत: इस प्राप्त हुए प्रस्ताव नामक अस्त्र का प्रयोग करो।' राजन! ऐसा कहकर वे वसुस्वरूप सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण अदृश्य हो गये। वे आठों समान रूपवाले थे। उन सबके शरीर तेजोमय प्रतीत होते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्तिविषयक एक सौ तिरासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ चौरासीवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ पचासीवाँ अध्याय
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