सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“तापसों के आश्रम में राजर्षि होत्रवाहन और अकृतव्रण का आगमन तथा उनसे अम्बा की बातचीत”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर वे सब धर्मात्मा तपस्वी उस कन्या के विषय में चिन्ता करते हुए यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये? उस समय वे उसके लिये कुछ करने को उद्यत थे। कुछ तपस्वी यह कहने लगे कि इस राज्यकन्या को इसके पिता के घर पहुँचा दिया जाय। कुछ तापसों ने मुझे उलाहना देने का निश्चय किया। कुछ लोग यह सम्मति प्रकट करने लगे कि चलकर शाल्वराज को बाध्य करना चाहिये कि वह इसे स्वीकार कर ले और कुछ लोगों ने यह निश्चय प्रकट किया था कि ऐसा होना सम्भव नहीं है; क्योंकि उसने इस कन्या को कोरा उत्तर देकर ग्रहण करने से इन्कार कर दिया है। ‘भद्रे! ऐसी स्थिति में मनीषी तापस क्या कर सकते हैं?’ ऐसा कहकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले सभी तापस उस राजकन्या से फिर बोले-
तपस्वी बोले ;- ‘भद्रे! घर त्यागकर संन्यासियों जैसे धर्माचरण में संलग्न होने की आवश्यकता नहीं है। तुम हमारा हितकर वचन सुनो, तुम्हारा कल्याण हो। यहाँ से पिता के घर को ही चली जाओ। इसके बाद जो आवश्यक कार्य होगा, उसे तुम्हारे पिता काशिराज सोचे-समझेंगे। कल्याणि! तुम वहाँ सर्वगुण सम्पन्न होकर सुख से रह सकोगी। ‘भद्रे! तुम्हारे लिये पिता का आश्रय लेना जैसा न्याय संगत है, वैसा दूसरा कोई सहारा नहीं है। वरवर्णिनि! नारी के लिये पति अथवा पिता ही गति है। ‘सुख की परिस्थिति में नारी के लिये पति आश्रय होता है और संकटकाल में उसके लिये पिता का आश्रय लेना उत्तम है। विशेषत: तुम सुकुमारी हो, अत: तुम्हारे लिये यह प्रव्रज्या अत्यन्त दु:खसाध्य है। ‘भामिनी! एक तो तुम राजकुमारी और दूसरे स्वभावत: सुकुमारी हो, अत: सुन्दरी! यहाँ आश्रम में तुम्हारे रहने से अनेक दोष प्रकट हो सकते हैं। पिता के घर में वे दोष नहीं प्राप्त होंगे।'
तदनन्तर दूसरे तापसों ने उस तपस्विनी से कहा ,- ‘इस निर्जन गहन वन में तुम्हें अकेली देख कितने ही राजा तुमसे प्रणय-प्रार्थना करेंगे, अत: तुम इस प्रकार तपस्या करने का विचार न करो।'
अम्बा बोली ;- तापसो! अब मेरे लिये पुन: काशिनगर में पिता के लौट जाना असम्भव हैं; क्योंकि वहाँ मुझे बन्धु-बान्धवों में अपमानित होकर रहना पड़ेगा। तापसो! मैं बाल्यावस्था में पिता के घर रह चुकी हूँ। आपका कल्याण हो। अब मैं वहाँ नहीं जाऊंगी, जहाँ मेरे पिता होंगे। मैं आप तपस्वी जनों द्वारा सुरक्षित होकर यहाँ तपस्या करने की ही इच्छा रखती हूँ। तापसश्रेष्ठ महर्षियो! मैं तपस्या इसलिये करना चाहती हूं, जिससे परलोक में भी मुझे इस प्रकार महान संकट एवं दुर्भाग्य का सामना न करना पड़े। अत: मैं तपस्या ही करूंगी।
भीष्मजी कहते हैं ;- इस प्रकार वे ब्राह्मण जब यथावत चिन्ता में मग्न हो रहे थे, उसी समय तपस्वी राजर्षि होत्रवाहन उस वन में आ पहुँचे। तब उन सब तापसों ने स्वागत, कुशल-प्रश्न, आसन-समर्पण और जल-दान आदि अतिथि-सत्कार के उपचारों-द्वारा राजा होत्रवाहन का समादर किया। जब वे आसन पर बैठकर विश्राम कर चुके, उस समय उनके सुनते हुए ही वे वनवासी तपस्वी पुन: उस कन्या के विषय में बातचीत करने लगे। भारत! अम्बा और काशिराज की वह चर्चा सुनकर महातेजस्वी राजर्षि होत्रवाहन का चित्त उद्विग्न हो उठा।
पुर्वोक्त रूप से दीनतापूर्वक अपना दु:ख निवेदन करने वाली राजकन्या अम्बा की बातें सुनकर महातपस्वी, महात्मा राजर्षि होत्रवाहन दया से द्रवित हो गये। वे अम्बा के नाना थे। राजन! वे कांपते हुए उठे और उस राजकन्या को गोद में बिठाकर उसे सान्त्वना देने लगे। उन्होंने उस पर संकट आने की सारी बातें आरम्भ से ही पूछी और अम्बा ने भी जो कुछ जैसे-जैसे हुआ था, वह सारा वृत्तान्त उनसे विस्तारपूर्वक बताया।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
तब उन महातपस्वी राजर्षि ने दु:ख और शोक से संतप्त हो मन-ही-मन आवश्यक कर्तव्य का निश्चय किया। और अत्यन्त दुखी हो कांपते हुए ही उन्होंने उस दु:खिनी कन्या से इस प्रकार कहा,
होत्रवाहन बोले ;- ‘भद्रे! यदि तू पिता के घर नहीं जाना चाहती हो तो न जा। मैं तेरी मां का पिता हूँ। ‘बेटी! मैं तेरा दु:ख दूर करूंगा, तू मेरे पास रह। वत्से! तेरे मन में बड़ा संताप है, तभी तो इस प्रकार सूखी जा रही है। ‘तू मेरे कहने से तपस्या परायण जमदग्निनन्दन परशुरामजी के पास जा। वे तेरे महान दु:ख और शोक को अवश्य दूर करेंगे। 'यदि भीष्म उनकी बात नहीं मानेंगे तो वे युद्ध में उन्हें मार डालेंगे। भार्गवश्रेष्ठ परशुराम प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी हैं। तू उन्हीं की शरण में जा।
‘वे महातपस्वी राम तुझे न्यायाचित मार्ग पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ यह सुनकर अम्बा बारंबार आंसू बहाती हुई अपने नाना होत्रवाहन को मस्तक झुकाकर प्रणाम करके मधुर स्वर में इस प्रकार बोली,
अम्बा बोली ;- ‘नानाजी! मैं आपकी आज्ञा से वहाँ अवश्य जाऊंगी। ‘परंतु मैं आज उन विश्वविख्यात श्रेष्ठ महात्मा का दर्शन कैसे कर सकूंगी और वे भृगुनन्दन परशुरामजी मेरे इस दु:सह दु:ख का नाश किस प्रकार करेंगे? मैं यह सब जानना चाहती हूं, जिससे वहाँ जा सकूं।'
होत्रवाहन बोले ;- भद्रे! जमदग्निनन्दन परशुराम एक महान वन में उग्र तपस्या कर रहे हैं। वे महान शक्तिशाली और सत्यप्रतिज्ञ हैं। तुझे अवश्य ही उनका दर्शन प्राप्त होगा। परशुरामजी सदा पर्वतश्रेष्ठ महेन्द्र पर रहा करते हैं। वहाँ वेदवेत्ता महर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराओं का भी निवास है। बेटी! तेरा कल्याण हो। तू वहीं जा और उन दृढ़वर्ती तपोवृद्ध महात्मा को अभिवादन करके पहले उनसे मेरी बात कहना।
भद्रे! तत्पश्चात तेरे मन में जो अभीष्ट कार्य है वह सब उनसे निवेदन करना। मेरा नाम लेने पर परशुरामजी तेरा सब कार्य करेंगे। वत्से! सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन वीरवर परशुराम मेरे सखा और प्रेमी सुहृद हैं। राजा होत्रवाहन जब राजकन्या अम्बा से इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय परशुरामजी के प्रिय सेवक अकृतव्रण वहाँ प्रकट हुए। उन्हें देखते ही वे सहस्रों मुनि तथा सृंजयवंशी वयोवृद्ध राजा होत्रवाहन सभी उठकर खडे़ हो गये। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उनका आदर-सत्कार किया गया; फिर वे वनवासी महर्षि एक दूसरे की ओर देखते हुए एक साथ उन्हें घेरकर बैठे।
राजेन्द्र! तत्पश्चात वे सब लोग प्रेम और हर्ष के साथ दिव्य, धन्य एवं मनोरम वार्तालाप करने लगे। बातचीत समाप्त होने पर राजर्षि महात्मा होत्रवाहन ने महर्षियों में श्रेष्ठ परशुरामजी के विषय में अकृतव्रण से पूछा-
होत्रवाहन बोले ;- ‘महाबाहु अकृतव्रण! इस समय वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ और प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुरामजी का दर्शन कहाँ हो सकता है?’
अकृतव्रण ने कहा ;- राजन! परशुरामजी तो सदा आप की ही चर्चा किया करते हैं। उनका कहना है कि सृंजयवंशी राजर्षि होत्रवाहन मेरे प्रिय सखा हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-59 का हिन्दी अनुवाद)
मेरा विश्वास है कि कल सबेरे तक परशुरामजी यहाँ उपस्थित हो जायंगे। वे आपसे ही मिलने के लिये आ रहे हैं। अत: आप यहीं उनका दर्शन कीजियेगा। राजर्षे! मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह कन्या किस लिये वन में आयी है? यह किसकी पुत्री है और आपकी क्या लगती है?
होत्रवाहन बोले ;- प्रभो! यह मेरी दौहित्री है। अनघ! काशिराज की परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्री अपनी दो छोटी बहिनों के साथ स्वयंवर में उपस्थित हुई थी। उनमें से यही अम्बा नाम से विख्यात काशिराज की ज्येष्ठ पुत्री है। तपोधन! इसकी दोनों छोटी बहिनें अम्बिका और अम्बालिका कहलाती हैं। ब्रह्मर्षे! काशीपुरी में इन्हीं कन्याओं के लिये भूमण्डल का समस्त क्षत्रिय समुदाय एकत्र हुआ था। उस अवसर पर वहाँ महान स्वयंरोत्सव का आयोजन किया गया था। कहते हैं उस अवसर पर महातेजस्वी और महापराक्रमी शान्तुनन्दन भीष्म सब राजाओं को जीतकर इन तीनों कन्याओं को हर लाये।
भरतनन्दन भीष्म का हृदय इन कन्याओं के प्रति सर्वथा शुद्ध था। वे समस्त भूपालों को परास्त करके कन्याओं को साथ लिये हस्तिनापुर में आये। वहाँ आकर शक्तिशाली भीष्म ने सत्यवती को ये कन्याएं सौंप दीं और इनके साथ अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य का विवाह करने की आज्ञा दे दी। द्विजश्रेष्ठ! वहाँ वैवाहिक आयोजन आरम्भ हुआ देख यह कन्या मन्त्रियों के बीच में गंगानन्दन भीष्म से बोली-
कन्या बोली ;- ‘धर्मज्ञ! मैंने मन-ही-मन वीरवर शाल्वराज को अपना पति चुन लिया है; अत: मेरा मन अन्यत्र अनुरक्त होने के कारण आपको अपने भाई के साथ मेरा विवाह नहीं करना चाहिये।' अम्बा का यह वचन सुनकर भीष्म ने मन्त्रियों के साथ सलाह करके माता सत्यवती की सम्मति प्राप्त करके एक निश्चय पर पहुँचकर इस कन्या को छोड़ दिया। भीष्म की आज्ञा पाकर यह कन्या मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो सौभ विमान के स्वामी शाल्व के यहाँ गयी और वहाँ उस समय इस प्रकार बोली-
कन्या बोली ;- ‘नृपश्रेष्ठ! भीष्म ने मुझे छोड़ दिया है; क्योंकि पूर्वकाल में मैंने अपने मन से आपको ही पति चुन लिया था, अत: आप मुझे धर्मपालन का अवसर दे।' शाल्वराज को इसके चरित्र पर संदेह हुआ; अत: उसने इसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। इस कारण तपस्या में अत्यन्त अनुरक्त होकर यह इस तपोवन में आयी है। इसके कुल का परिचय प्राप्त होने से मैंने इसे पहचाना है। यह अपने इस दु:ख की प्राप्ति में भीष्म को ही कारण मानती है।
अम्बा बोली ;- भगवन! जैसा कि मेरी माता के पिता सृंजयवंशी महाराज होत्रवाहन ने कहा है, ठीक ऐसी ही मेरी परिस्थिति है। तपोधन! महामुने! लज्जा और अपमान के भय से अपने नगर को जाने के लिये मेरे मन में उत्साह नहीं है। भगवन! द्विजश्रेष्ठ! अब भगवान परशुराम मुझसे जो कुछ कहेंगे, वही मेरे लिये सर्वोत्तम कर्तव्य होगा; यही मैंने निश्चय किया है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में अम्बाहोत्रवाहन संवादविषयक एक सौ छिहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“अकृतव्रण और परशुरामजी की अम्बा से बातचीत”
अकृतव्रण ने कहा ;- भद्रे! तुम्हें दु:ख देने वाले दो कारण भीष्म और शाल्व उपस्थित हैं। वत्से! तुम इन दोनों में से किससे बदला लेने की इच्छा रखती हो? यह मुझे बताओ। भद्रे! यदि तुम्हारा यह विचार हो कि सौभपति शाल्वराज को ही विवाह के लिये विवश करना चाहिये तो महात्मा परशुराम तुम्हारे हित की इच्छा से शाल्वराज को अवश्य इस कार्य में नियुक्त करेंगे। अथवा यदि तुम गंगानन्दन भीष्म को बुद्धिमान परशुरामजी के द्वारा युद्ध में पराजित देखना चाहती हो तो वे महात्मा भार्गव यह भी कर सकते हैं। शुचिस्मिते! सृंजयवंशी राजा होत्रवाहन की बात सुनकर और अपना विचार प्रकट करके जो कार्य तुम्हें अत्यन्त आवश्यक प्रतीत हो उसका आज ही विचार कर लो।
अम्बा बोली ;- भगवन भीष्म बिना जाने-बुझे मुझे हर लाये थे। ब्रह्मन्! उन्हें इस बात का पता नहीं था कि मेरा मन शाल्व में अनुरक्त है। इस बात पर मन-ही-मन विचार करके आप ही कुछ निश्चय करें और जो न्यायासंगत प्रतीत हो, वही कार्य करें। ब्रह्मन्! कुरुश्रेष्ठ भीष्म के साथ अथवा शाल्वराज के साथ अथवा दोनों के ही साथ जो उचित बर्ताव हो, वह करें। मैंने अपने दु:ख के इस मूल कारण को यथार्थ रूप से निवेदन कर दिया। भगवन! अब आप अपनी युक्ति से ही इस विषय में न्यायोचित कार्य करें।
अकृतव्रण बोले ;- भद्रे! तुम जो इस प्रकार धर्मानुकूल बात कहती हो, यही तुम्हारे लिये उचित है। वरवर्णिनि! अब मेरी यह बात सुनो।भीरू! यदि गंगानन्दन भीष्म तुम्हें हस्तिनापुर न ले जाते तो राजा शाल्व परशुरामजी के कहने पर तुम्हें आदरपूर्वक स्वीकार कर लेता। परंतु भद्रे! भीष्म तुम्हें जीतकर अपने साथ ले गये। भाविनि! सुमध्यमे! यही कारण है कि शाल्वराज के मन में तुम्हारे प्रति संशय उत्पन्न हो गया है। भीष्म के अपने पुरुषार्थ का अभिमान है और वे इस समय अपनी विजय से उल्लसित हो रहे हैं। अत: भीष्म से ही बदला लेना तुम्हारे लिये उचित होगा।
अम्बा बोली ;- ब्रह्मन्! मेरे मन में भी सदा यह इच्छा बनी रहती है कि मैं युद्ध में भीष्म का वध करा दूं। महाबाहो! आप भीष्म को या शाल्वराज को जिसे भी दोषी समझते हों, उसी को दण्ड दीजिये, जिसके कारण मैं अत्यन्त दु:ख में पड़ गयी हूँ।
भीष्मजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार बातचीत करते हुए उन सब लोगों का वह दिन बीत गया। सुखदायिनी सरदी, गर्मी और हवा से युक्त रात भी समाप्त हो गयी। राजन! तदनन्तर अपने शिष्यों से घिरे हुए जटावल्कलधारी मुनिवर परशुरामजी वहाँ प्रकट हुए। वे अपने तेज के कारण प्रज्वलित से हो रहे थे। नृपश्रेष्ठ! उनके हृदय में दीनता का नाम नहीं था। उन्होंने अपने हाथों में धनुष, खड्ग और फरसा ले रखे थे। उनके हृदय से रजोगुण दूर हो गया था, वे राजा सृंजय के निकट आये। राजन! उन्हें देखकर वे तपस्वी मुनि, महातपस्वी नरेश तथा वह तपस्विनी राजकन्या- ये सब-के-सब हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। फिर उन्होंने स्वस्थचित्त होकर मधुपर्क द्वारा भार्गव परशुरामजी का पूजन किया। विधिपूर्वक पूजित होने पर वे उन्हीं के साथ वहाँ बैठे। भारत! तत्पश्चात परशुरामजी और सृंजय होत्रवाहन दोनों मित्र पहले की बीती बातें कहते हुए एक जगह बैठ गये।
बातचीत के अन्त में राजर्षि होत्रवाहन ने महाबली भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी से मधुर वाणी में उस समय यह अर्थयुक्त वचन कहा-
होत्रवाहन बोले ;- ‘कार्य साधन कुशल प्रभो! परशुराम! यह मेरी पुत्री की पुत्री काशिराज की कन्या है। इसका कुछ कार्य है, उसे आप इसी के मुंह से ठीक-ठीक सुन लें।'
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)
‘बहुत अच्छा, कहो बेटी’ इस प्रकार उस कन्या को जब परशुरामजी ने प्रेरित किया; तब वह प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी परशुरामजी के पास आयी और उनके कल्याणकारी चरणों को सिर से प्रणाम करके कमलदल के समान सुशोभित होने वाले दोनों हाथों से उनका स्पर्श करती हुई सामने खड़ी हो गयी। उसके नेत्रों में आंसू भर आये। वह शोक से आतुर होकर रोने लगी और सबको शरण देने वाले भृगुनन्दन परशुरामजी की शरण में गयी।
परशुरामजी बोले ;- राजकुमारी! जैसे तू इन सृंजय की दौहित्री है, उसी प्रकार मेरी भी है। तेरे मन में जो दु:ख है, उसे बता। मैं तेरे कथनानुसार सब कार्य करूंगा।
अम्बा बोली ;- भगवन! आप महान व्रतधारी हैं। आज मैं आपकी शरण में आयी हूँ। प्रभो! इस भयंकर शोकसागर में डूबने से मुझे बचाइये।
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! उसके सुन्दर रूप, नूतन (तरुण) शरीर तथा अत्यन्त सुकुमारता को देखकर परशुरामजी चिन्ता में पड़ गये कि न जाने यह क्या कहेगी? उसके प्रति दयाभाव से परिपूर्ण हो भृगुकुलभूषण परशुराम बहुत देर तक उसी के विषय में चिन्ता करते रहे। तदनन्तर परशुरामजी के पु:न यह कहने पर कि तुम अपनी बात कहो, पवित्र मुस्कान वाली अम्बा ने उनसे अपना सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया। राजकुमारी अम्बा का यह कथन सुनकर जमदग्निनन्दन परशुराम ने क्या करना है, इसका निश्चय करके उस सुन्दर अगोंवाली राजकुमारी से कहा।
परशुरामजी बोले ;- भाविनि! मैं तुम्हें कुरुश्रेष्ठ भीष्म के पास भेजूंगा। नरपति भीष्म सुनते ही मेरी आज्ञा का पालन करेगा। भद्रे! यदि गंगानन्दन भीष्म मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों के तेज से मन्त्रियों सहित उसे भस्म कर डालूंगा। अथवा राजकुमारी! यदि वहाँ जाने का तेरा विचार न हो तो मैं वीर शाल्वराज को ही पहले इस कार्य में नियुक्त करूं, उसके साथ तेरा ब्याह करा दूं।
अम्बा बोली ;- भृगुनन्दन! शाल्वराज में मेरा अनुराग है और मैं पहले से ही उन्हें पाना चाहती हूँ। यह सुनते ही भीष्म ने मुझे विदा कर दिया था। तब सौभराज के पास जाकर मैंने उनसे ऐसी बातें कहीं जिन्हें अपने मुंह से कहना स्त्री जाति के लिये अत्यन्त दुष्कर होता है; परंतु मेरे चरित्र पर संदेह हो जाने के कारण उसने मुझे स्वीकार नहीं किया।
भृगुनन्दन! इन सब बातों पर बुद्धिपूर्वक विचार करके जो उचित प्रतीत हो, उसी कार्य की ओर आप ध्यान दें। मेरी इस विपत्ति का मूल कारण महान व्रतधारी भीष्म है, जिसने उस समय बलपूर्वक मुझे उठाकर रथ पर रख लिया और इस प्रकार मुझे वश में करके वह हस्तिनापुर ले आया। महाबाहु भृगुसिंह! आप भीष्म को ही मार डालिये, जिसके कारण मुझे ऐसा दु:ख प्राप्त हुआ है और मैं इस प्रकार विवश होकर अत्यन्त अप्रिय आचरण में प्रवृत्त हुई हूँ। निष्पाप भार्गव! भीष्म लोभी, नीच और विजयोल्लास से परिपूर्ण है; अत: आपका उसी से बदला लेना उचित है।
प्रभो! भरतवंशी भीष्म ने जब से मुझे इस दशा में डाल दिया है, तब से मेरे हृदय में यही संकल्प उठता है कि मैं उस महान व्रतधारी का वध करा दूं। निष्पाप महाबाहु राम! आज आप मेरी इसी कामना को पूर्ण कीजिये। जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार आप भी भीष्म को मार डालिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में अम्बा-परशुराम-संवादविषयक एक सौ सतहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“अम्बा और परशुरामजीका संवाद, अकृतव्रणकी सलाह, परशुराम और भीष्मकी रोषपूर्ण बातचीत तथा उन दोनोंका युद्धके लिये कुरुक्षेत्र में उतरना”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! अम्बा के ऐसा कहने पर कि प्रभो! भीष्म को मार डालिये। परशुरामजी ने रो-रोकर बार-बार प्रेरणा देने वाली उस कन्या से इस प्रकार कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- ‘सुन्दरी! काशिराज कुमारी! मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार किसी वेदवेत्ता ब्राह्मण को आवश्यकता हो तो उसी के लिये शस्त्र उठाता हूँ। वैसा कारण हुए बिना इच्छानुसार हथियार नहीं उठाता। अत: इस प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मैं तेरा दूसरा कौन-सा कार्य करूं। ‘राज्यकन्ये! भीष्म और शाल्व दोनों मेरी आज्ञा के अधीन होंगे। अत: निर्दोष अंगोंवाली सुन्दरी! मैं तेरा कार्य करूंगा। तू शोक न कर।
‘भाविनी! मैं किसी तरह ब्राह्मणों की आज्ञा के बिना हथियार नहीं उठाऊंगा, ऐसी मैंने प्रतिज्ञा कर कर रखी है।'
अम्बा बोली ;- भगवन! आप जैसे हो सके वैसे ही मेरा दु:ख दूर करें। वह दु:ख भीष्म ने पैदा किया है; अत: प्रभो! उसी का शीघ्र वध कीजिये।
परशुरामजी बोले ;- काशिराज की पुत्री! तू पुन: सोचकर बता। यद्यपि भीष्म तेरे लिये वन्दनीय है, तथापि मेरे कहने से वह तेरे चरणों को अपने सिर पर उठा लेगा।
अम्बा बोली ;- राम! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो युद्ध में आमन्त्रित हो, असुर के समान गर्जना करने वाले भीष्म को मार डालिये और आपने जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे भी सत्य कीजिये।
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! परशुराम और अम्बा में जब इस प्रकार बातचीत हो रही थी, उसी समय परम धर्मात्मा ऋषि अकृतव्रण ने यह बात कही-
अकृतव्रण ने कहा ;- महाबाहो! यह कन्या शरण में आयी है; अत: आपको इसका त्याग नहीं करना चाहिये। भृगुनन्दन राम! यदि युद्ध में आपके बुलाने पर भीष्म सामने आकर अपनी पराजय स्वीकार करें अथवा आपकी बात ही मान ले तो इस कन्या का कार्य सिद्ध हो जायगा। ‘महामुने राम! प्रभो! ऐसा होने से आपकी कही हुई बात सत्य सिद्ध होगी। वीरवर भार्गव! आपने समस्त क्षत्रियों को जीतकर ब्राह्मणों के बीच में यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ब्राह्मणों से द्वेष करेगा तो मैं उसे निश्चय ही मार डालूंगा। साथ ही भयभीत होकर शरण में आये हुए शरणार्थियों का परित्याग मैं जीते-जी किसी प्रकार नहीं कर सकूंगा और जो युद्ध में एकत्र हुए सम्पूर्ण क्षत्रियों को जीत लेगा, उस तेजस्वी पुरुष का भी मैं वध कर डालूंगा।
‘भृगुनन्दन राम! इस प्रकार कुरुकुल का भार वहन करने वाला भीष्म समस्त क्षत्रियों पर विजय पा चुका है; अत: आप संग्राम में उसके सामने जाकर युद्ध कीजिये।'
परशुरामजी बोले ;- मुनिश्रेष्ठ! मुझे अपनी पहले की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण है, तथापि मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा कि सामनीति से ही काम बन जाय। ब्रह्मन! काशिराज की कन्या के मन में जो यह कार्य है, वह महान है। मैं उसकी सिद्धि के लिये इस कन्या को साथ लेकर स्वयं ही वहाँ जाऊंगा, जहाँ भीष्म है। यदि युद्ध की स्पृहा रखने वाला भीष्म मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं उस अभिमानी को मार डालूंगा; यह मेरा निश्चित विचार है।
मेरे चलाये हुए बाण देहधारियों के शरीर में अटकते नहीं हैं। उन्हें विदीर्ण करके बाहर निकल जाते हैं। यह बात तुम्हें पूर्वकाल में क्षत्रियों के साथ होने वाले युद्ध के समय ज्ञात हो चुकी है। ऐसा कहकर महातपस्वी परशुरामजी उन ब्रह्मवादी महर्षियों के साथ प्रस्थान करने का निश्चय करके उसके लिये उद्यत हो गये। तत्पश्चात रातभर वहाँ रहकर प्रात:काल संध्योपासन, गायत्री-जप और अग्निहोत्र करके वे तपस्वी मुनि मेरा वध करने की इच्छा से उस आश्रम से चले।
महाराज भरतनन्दन! फिर उन वेदवादी मुनियों को साथ लेकर परशुरामजी राजकन्या अम्बा के साथ कुरुक्षेत्र में आये। वहाँ भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी को आगे करके उन सभी तपस्वी महात्माओं ने सरस्वती नदी के तट का आश्रय लेकर रात्रि में निवास किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-45 का हिन्दी अनुवाद)
भीष्मजी कहते हैं ;- तदनन्तर तीसरे दिन हस्तिनापुर के बाहर एक स्थान पर ठहरकर महान व्रतधारी परशुरामजी ने मुझे संदेश दिया- ‘राजन! मैं यहाँ आया हूँ। तुम मेरा प्रिय कार्य करो।' तेज के भण्डार और महाबली भगवान परशुराम को अपने राज्य की सीमा पर आया हुआ सुनकर मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ वेगपूर्वक उनके पास गया। राजेन्द्र! उस समय एक गाय आगे करके ब्राह्मणों से घिरा हुआ मैं देवताओं के समान तेजस्वी ॠत्विजों तथा पुरोहितों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुआ।
मुझे अपने समीप आया हुआ देख प्रतापी परशुरामजी ने मेरी दी हुई पूजा स्वीकार की और इस प्रकार कहा।
परशुरामजी बोले ;- भीष्म! तुमने किस विचार से उन दिनों स्वयं पत्नी की कामना से रहित होते हुए भी काशिराज की इस कन्या का अपहरण किया, अपने घर ले आये और पुन: इसे निकाल बाहर किया। तुमने इस यशस्विनी राजकुमारी को धर्म से भ्रष्ट कर दिया है। तुम्हारे द्वारा इसका स्पर्श कर लिया गया है, ऐसी दशा में इसे दूसरा कौन ग्रहण कर सकता है? भारत! तुम इसे हरकर लाये थे। इसी कारण से शाल्वराज ने इसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया है; अत: अब तुम मेरी आज्ञा से इसे ग्रहण कर लो। पुरुषसिंह! तुम्हें ऐसा करना चाहिये, जिससे इस राजकुमारी को स्वधर्मपालन अवसर प्राप्त हो। अनघ! तुम्हें राजाओं का इस प्रकार अपमान करना उचित नहीं है।
तब मैंने परशुरामजी को उदास देखकर इस प्रकार कहा,
भीष्म जी ने कहा ;- ‘ब्रह्मन्! अब मैं इसका विवाह अपने भाई के साथ किसी प्रकार नहीं कर सकता। ‘भृगुनन्दन! इसने पहले मुझसे ही आकर कहा कि मैं शाल्व की हूं, तब मैंने इसे जाने की आज्ञा दे दी और यह शाल्वराज के नगर को चली गयी। ‘मैं भय से, दया से, धन के लोभ से तथा और किसी कामना से भी क्षत्रिय धर्म का त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा स्वीकार किया हुआ व्रत है।'
तब यह सुनकर परशुरामजी के नेत्रों में क्रोध का भाव व्याप्त हो गया और वे मुझसे इस प्रकार बोले,
परशुराम जी बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! यदि तुम मेरी यह बात नहीं मानोगे तो आज मैं मन्त्रियों सहित तुम्हें मार डालूंगा।’ इस बात को उन्होंने बार-बार दुहराया। शत्रुदमन दुर्योधन! परशुरामजी ने क्रोध भरे नेत्रों से देखते हुए बड़े रोषावेश में आकर यह बात कही थी, तथापि मैं प्रिय वचनों द्वारा उन भृगुश्रेष्ठ महात्मा से बार-बार शान्त रहने के लिये प्रार्थना करता रहा; पर वे किसी प्रकार शान्त न हो सके।
तब मैंने उन ब्राह्मणशिरोमणि के चरणों में मस्तक झुकाकर पुन: प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा,,
भीष्म जी ने पूछा ;- ‘भगवन! क्या कारण है कि आप मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं? बाल्यावस्था में आपने ही मुझे चार प्रकार के धनुर्वेद की शिक्षा दी है। महाबाहु भार्गव! मैं तो आपका शिष्य हूँ।'
तब परशुरमजी ने क्रोध से लाल आंखें करके मुझसे कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- ‘महामते भीष्म! तुम मुझे अपना गुरु तो समझते हो; परंतु मेरा प्रिय करने के लिये काशिराज की इस कन्या को ग्रहण नहीं करते हो; किंतु कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती।
‘महाबाहो! इसे ग्रहण कर लो और इस प्रकार अपने कुल की रक्षा करो। तुम्हारे द्वारा अपनी मर्यादा से गिर जाने के कारण इसे पति की प्राप्ति नहीं हो रही है।' ऐसी बातें करते हुए शत्रुनगरविजयी परशुरामजी से मैंने स्पष्ट कह दिया,,
भीष्म जी ने कहा ;- ‘ब्रह्मर्षे! अब फिर ऐसी बात नहीं हो सकती। इस विषय में आपके परिश्रम से क्या होगा? ‘जमदग्निनन्दन! भगवन! आप मेरे प्राचीन गुरु हैं, यह सोचकर ही मैं आपको प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहा हूँ। इस अम्बा को तो मैने पहले ही त्याग दिया था। ‘दूसरे के प्रति अनुराग रखने वाली नारी सर्पिणी के समान भयंकर होती है। कौन ऐसा पुरुष होगा, जो जान-बूझकर उसे कभी भी अपने घर में स्थान देगा; क्योंकि स्त्रियों का पर पुरुष में अनुरागरूप दोष महान अनर्थ का कारण होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 46-67 का हिन्दी अनुवाद)
‘महान व्रतधारी राम! मैं इन्द्र के भी भय से धर्म का त्याग नहीं कर सकता। आप प्रसन्न हों या न हों। आपको जो कुछ करना हो, शीघ्र कर डालिये। विशुद्ध हृदय वाले परम बुद्धिमान राम! पुराण में महात्मा मरुत्त के द्वारा कहा हुआ यह श्लोक सुनने में आता है कि यदि गुरु भी गर्व में आकर कर्तव्य और अकर्तव्य को न समझते हुए कुपथ का आश्रय ले तो उसका परित्याग कर दिया जाता है।
‘आप मेरे गुरु हैं, यह समझकर मैंने प्रेमपूर्वक आपका अधिक-से-अधिक सम्मान किया है; परंतु आप गुरु का-सा बर्ताव नहीं जानते; अत: मैं आपके साथ युद्ध करूंगा। ‘एक तो आप गुरु हैं। उसमें भी विशेषत: ब्राह्मण हैं। उस पर भी विशेष बात यह है कि आप तपस्या में बढे़-चढे़ हैं। अत: आप-जैसे पुरुष को मैं कैसे मार सकता हूं? यही सोचकर मैंने अब तक आपके तीक्ष्ण बर्ताव को चुपचाप सह लिया।
‘यदि ब्राह्मण भी क्षत्रिय की भाँति धनुष-बाण उठाकर युद्ध में क्रोधपूर्वक सामने आकर युद्ध करने लगे और पीठ दिखाकर भागे नहीं तो उसे इस दशा में देखकर जो योद्धा मार डालता है, उसे ब्रह्महत्या का दोष नहीं लगता, यह धर्मशास्त्रों का निर्णय है। तपोधन! मैं क्षत्रिय हूँ और क्षत्रियों के ही धर्म में स्थित हूँ। ‘जो जैसा बर्ताव करता है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करने वाला पुरुष न तो अधर्म को प्राप्त होता है और न अमंगल का ही भागी होता है।
‘अर्थ और धर्म के विवेचन में कुशल तथा देश-काल के तत्त्व को जानने वाला पुरुष यदि अर्थ के विषय में संशय उत्पन्न होने पर उसे छोड़कर संशयशून्य हृदय से केवल धर्म का ही अनुष्ठान करे तो वह श्रेष्ठ माना गया है। ‘राम! ‘अम्बा ग्रहण करने योग्य है या नहीं’ यह संशयग्रस्त विषय है तो भी आप इसे ग्रहण करने के लिये मुझसे न्यायोचित बर्ताव नहीं कर रहे हैं; इसलिये महान समरांगण में आप के साथ युद्ध करूंगा।
‘आप उस समय मेरे बाहुबल और अलौकिक पराक्रम को देखियेगा। भृगुनन्दन! ऐसी स्थिति में भी मैं जो कुछ कर सकता हुं, उसे अवश्य करूंगा। विप्रवर! मैं कुरुक्षेत्र में चलकर आपके साथ युद्ध करूंगा। महातेजस्वी राम! आप द्वन्द्वयुद्ध के लिये इच्छानुसार तैयारी कर लीजिये। ‘राम! उस महान युद्ध में मेरे सैकड़ों बाणों से पीड़ित एवं शस्त्रपूत होकर मारे जाने पर आप पुण्य कर्मों द्वारा जीते हुए दिव्य लोकों को प्राप्त करेंगे। ‘युद्धप्रिय महाबाहु तपोधन! अब आप लौटिये और कुरुक्षेत्र में ही चलिये। मैं युद्ध के लिये वहीं आपके पास आऊंगा।
‘भृगुनन्दन परशुराम! जहाँ पूर्वकाल में अपने पिता को अञ्जलि-दान देकर आपने आत्मशुद्धि का अनुभव किया था, वहीं मैं भी आपको मारकर आत्मशुद्धि करूंगा। ‘ब्राह्मण कहलाने वाले रणदुर्मद राम! आप तुरंत कुरुक्षेत्र में पधारिये। मैं वहीं आकर आपके पुरातन दर्प का दलन करूंगा।
‘राम! आप जो बहुत बार भरी सभाओं में अपनी प्रशंसा के लिये यह कहा करते हैं कि मैंने अकेले ही संसार के समस्त क्षत्रियों को जीत लिया था तो उसका उत्तर सुन लीजिये। ‘उन दिनों भीष्म अथवा मेरे-जैसा दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं उत्पन्न हुआ था। तेजस्वी क्षत्रिय तो पीछे उत्पन्न हुए हैं। आप तो घास-फूस में ही प्रज्वलित हुए हैं। तिनकों के समान दुर्बल क्षत्रियों पर ही अपना तेज प्रकट किया है। ‘महाबाहो! जो आपकी युद्ध विषयक कामना तथा अभिमान को नष्ट कर सके, वह शत्रुनगरी पर विजय पाने वाला यह भीष्म तो अब उत्पन्न हुआ हैं। राम! मैं युद्ध में आप का सारा घमंड़ चूर-चूर कर दूंगा, इसमें संशय नहीं है।'
भीष्मजी कहते हैं ;- भरतनन्दन! तब परशुरामजी ने मुझसे हंसते हुए से कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- ‘भीष्म! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम रणक्षेत्र में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हो। ‘कुरुनन्दन! यह देखो, मैं तुम्हारे साथ युद्ध के लिये कुरुक्षेत्र में चलता हूँ। परंतप! वहीं आओ। मैं तुम्हारा कथन पूरा करूंगा। वहाँ तुम्हारी माता गंगा तुम्हें मेरे हाथ से मरकर सैकड़ों बाणों से व्याप्त और कौओं, कंकों तथा गीधों का भोजन बना हुआ देखेगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 68-94 का हिन्दी अनुवाद)
‘राजन! तुम दीन हो। आज तुम्हें मेरे हाथ से मारा गया देख सिद्ध-चारणसेविता गंगा देवी रुदन करें। ‘यद्यपि वे महाभागा भगीरथ पुत्री पापहीना गंगा यह दु:ख देखने के योग्य नहीं है, तथापि जिन्होंने तुम-जैसे युद्धकामी, आतुर एवं मूर्ख पुत्र को जन्म दिया है, उन्हें यह कष्ट भोगना ही पड़ेगा। ‘युद्ध की इच्छा रखने वाले मदोन्मत्त भीष्म! आओ, मेरे साथ चलो। भरतश्रेष्ठ कुरुनन्दन! रथ आदि सारी सामग्री साथ ले लो।' शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले परशुरामजी को इस प्रकार कहते देख मैंने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ‘एवमस्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की।
ऐसा कहकर परशुरामजी युद्ध की इच्छा से कुरुक्षेत्र में गये और मैंने नगर में प्रवेश करके सत्यवती से यह सारा समाचार निवेदन किया। महातेजस्वी नरेश! उस समय स्वस्तिवाचन कराकर माता सत्यवती ने मेरा अभिनन्दन किया और मैं ब्राह्मणों से पुण्याहवाचन करा उनसे कल्याणकारी आशीर्वाद ले सुन्दर रजतमय रथ पर आरूढ़ हुआ। उस रथ में श्वेत रंग के घोडे़ जुते हुए थे। उसमें सब प्रकार की आवश्यक सामग्री सुन्दर ढंग से रखी गयी थी। उसकी बैठक बहुत सुन्दर थी। रथ के ऊपर व्याघ्रचर्म का आवरण लगाया गया था। वह रथ बड़े-बड़े़ शस्त्रों तथा समस्त उपकरणों से सम्पन्न था। युद्ध में जिसका कार्य अनेक बार देख लिया गया था, ऐसे सुशिक्षित, कुलीन, वीर तथा अश्र्वशास्त्र के पण्डित सारथि द्वारा उस रथ का संचालन और नियन्त्रण होता था।
भरतश्रेष्ठ! मैंने अपने शरीर पर श्वेतवर्ण का कवच धारण करके श्वेत धनुष हाथ में लेकर यात्रा की। नरेश्वर! उस समय मेरे मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था और मेरे दोनों ओर सफेद रंग के चंवर डुलाये जाते थे। मेरे वस्त्र, मेरी पगड़ी और मेरे समस्त आभूषण श्वेत वर्ण के ही थे। विजयसूचक आशीर्वादों के साथ मेरी स्तुति की जा रही थी। भरतभूषण! उस अवस्था में मैं हस्तिनापुर से निकलकर कुरुक्षेत्र के समरांगण में गया।
राजन! मेरे घोडे़ मन और वायु के समान वेगशाली थे। सारथि के हांकने पर उन्होंने बात-की-बात में मुझे उस महान युद्ध के स्थान पर पहुँचा दिया। राजन! मैं तथा प्रतापी परशुरामजी दोनों कुरुक्षेत्र में पहुँचकर युद्ध के लिये सहसा एक-दूसरे को पराक्रम दिखाने के लिये उद्यत हो गये। तदनन्तर मैं अत्यन्त तपस्वी परशुरामजी की दृष्टि के सामने खड़ा हुआ और अपने श्रेष्ठ शंख को हाथ में लेकर उसे जोर-जोर से बजाने लगा।
राजन! उस समय वहाँ बहुत-से ब्राह्मण, वनवासी तपस्वी तथा इन्द्र सहित देवगण उस दिव्य युद्ध को देखने लगे। तदनन्तर वहाँ इधर-उधर से दिव्य मालाएं प्रकट होने लगी और दिव्य वाद्य बज उठे। साथ ही सब ओर मेघों की घटाएं छा गयीं। तदनन्तर परशुरामजी के साथ आये हुए वे सब तपस्वी उस संग्राम भूमि को सब ओर से घेरकर दर्शक बन गये। राजन! उस समय समस्त प्राणियों का हित चाहने वाली मेरी माता गंगादेवी स्वरूपत: प्रकट होकर बोली,
गंगा जी बोली ;- ‘बेटा! यह तू क्या करना चाहता है?
‘कुरुक्षेत्र! मैं स्वयं जाकर जमदग्निनन्दन परशुरामजी से बारंबार याचना करूंगी कि आप अपने शिष्य भीष्म के साथ युद्ध न कीजिये।
‘बेटा! तू ऐसा आग्रह न कर। राजन! विप्रवर जमदग्निनन्दन परशुराम के साथ समरभूमि में युद्ध करने का हठ अच्छा नहीं हैं।’ ऐसा कहकर वे डांट बताने लगीं। अन्त में वे फिर बोलीं,
मॉं गंगा बोली ;-- ‘बेटा! क्षत्रियहन्ता परशुराम महादेवजी के समान पराक्रमी हैं। क्या तू उन्हें नहीं जानता, जो उनके साथ युद्ध करना चाहता है?’ तब मैंने हाथ जोड़कर गंगादेवी को प्रणाम किया और स्वयंवर में जैसी घटना घटित हुई थी, वह सब वृत्तान्त उनसे आद्योपान्त कह सुनाया। राजेन्द्र! मैंने परशुरामजी से पहले जो-जो बातें कही थीं तथा काशिराज की कन्या की जो पुरानी करतूतें थीं, उन सबको बता दिया। तत्पश्चात मेरी जन्मदायिनी माता गंगा ने भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर मेरे लिये उनसे क्षमा मांगी।
साथ ही यह भी कहा कि भीष्म आपका शिष्य है; अत: उसके साथ आप युद्ध न कीजिये। तब याचना करने वाली मेरी माता से परशुरामजी ने कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- ‘तुम पहले भीष्म को ही युद्ध से निवृत्त करो। वह मेरे इच्छानुसार कार्य नहीं कर रहा है; इसीलिये मैंने उस पर चढा़ई की है।'
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तब गंगादेवी पुत्रस्नेहवश पुन: भीष्म के पास आयीं। उस समय भीष्म के नेत्रों में क्रोध व्याप्त हो रहा था; अत: उन्होंने भी माता का कहना नहीं माना। इतने में ही भृगुकुलतिलक ब्राह्मणशिरोमणि महातपस्वी धर्मात्मा परशुरामजी दिखायी दिये। उन्होंने सामने आकर युद्ध के लिये भीष्म को ललकारा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में परशुराम और भीष्म का कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिये अवतरणविषयक एक सौ अठहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“संकल्प निर्मित रथ पर आरूढ़ परशुरामजी के साथ भीष्म का युद्ध प्रारम्भ करना”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! तब मैं युद्ध के लिये खडे़ हुए परशुरामजी से मुसकराता हुआ-सा बोला,- ‘ब्रह्मन! मैं रथ पर बैठा हूँ और आप भूमि पर खडे़ हैं। ऐसी दशा में मैं आपके साथ युद्ध नहीं कर सकता।
‘महाबाहो! वीरवर राम! यदि आप समरभूमि में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं तो रथ पर आरूढ़ होइये और कवच भी बांध लीजिये।'
तब परशुरामजी समरांगण में किंचित मुसकराते हुए मुझसे बोले,
परशुरामजी बोले ;-- ‘कुरुनन्दन भीष्म! मेरे लिये तो पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्वों के समान मेरे वाहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएं (गायत्री, सावित्रि और सरस्वती) ही कवच हैं। इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्र में युद्ध करूंगा।'
गान्धारीनन्दन! ऐसा कहते हुए सत्यपराक्रमी परशुरामजी ने मुझे सब ओर से अपने बाणों के महान समुदाय द्वारा आवृत कर लिया।
उस समय मैंने देखा, जमदग्निनन्दन परशुराम सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुधों से सुशोभित, तेजस्वी एवं अदभुत दिखायी देने वाले रथ में बैठे हैं। उसका विस्तार एक नगर के समान था। उस पुण्यरथ का निर्माण उन्होंने अपने मानसिक संकल्प से किया था। उसमें दिव्य अश्व जुते हुए थे। वह स्वर्णभूषित रथ सब प्रकार से सुसज्जित था।
महाबाहो! परशुरामजी ने एक सुन्दर कवच धारण कर रखा था, जिसमें चन्द्रमा और सूर्य के चिह्न बने हुए थे। उन्होंने हाथ में धनुष लेकर पीठ पर तरकस बांध रखा था और अंगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चर्म के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। उस समय युद्ध के इच्छुक परशुरामजी के प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण ने उनके सारथि का कार्य सम्पन्न किया। भृगुनन्दन राम ‘आओ’ कहकर बार-बार मुझे पुकारते और युद्ध के लिये मेरा आह्वान करते हुए मेरे मन को हर्ष और उत्साह-सा प्रदान कर रहे थे।
उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी, अजेय, महाबली और क्षत्रिय विनाशक परशुराम अकेले ही युद्ध के लिये खडे़ थे। अत: मैं भी अकेला ही उनका सामना करने के लिये गया। जब वे तीन बार मेरे ऊपर बाणों का प्रहार कर चुके, तब मैं घोड़ों को रोककर और धनुष रखकर रथ से उतर गया और उन ब्राह्मणशिरोमणि मुनिप्रवर परशुरामजी का समादर करने के लिये पैदल ही उनके पास गया। जाकर विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करने के पश्चात यह उत्तम वचन बोला-
भीष्म जी ने कहा ;- ‘भगवन परशुराम! आप मेरे समान अथवा मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं। मेरे धर्मात्मा गुरु हैं। मैं इस रणक्षेत्र में आपके साथ युद्ध करूंगा; अत: आप मुझे विजय के लिये आशीर्वाद दें।'
परशुरामजी ने कहा ;- कुरुश्रेष्ठ! अपनी उन्नति के चाहने वाले प्रत्येक योद्धा को ऐसा ही करना चाहिये। महाबाहो! अपने से विशिष्ट गुरुजनों के साथ युद्ध करने वाले राजाओं का यही धर्म है। प्रजानाथ! यदि तुम इस प्रकार मेरे समीप नहीं आते तो मैं तुम्हें शाप दे देता। कुरुनन्दन! तुम धैर्य धारण करके इस रणक्षेत्र में प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो।
मैं तो तुम्हें विजयसूचक आशीर्वाद नहीं दे सकता; क्योंकि इस समय मैं तुम्हें पराजित करने के लिये खड़ा हूँ। जाओ, धर्मपूर्वक युद्ध करो। तुम्हारे इस शिष्टाचार से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तब मैं उन्हें नमस्कार करके शीघ्र ही रथ पर जा बैठा और उस युद्ध भूमि में मैंने पुन: अपने सुवर्णजटित शंख को बजाया।
राजन! भरतनन्दन! तदनन्तर एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से मेरा तथा परशुरामजी का युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा। उस रणभूमि में उन्होंने ही पहले मेरे ऊपर गीध की पांखों से सुशोभित तथा मुडे़ हुए पर्ववाले नौ सौ साठ बाणों द्वारा प्रहार किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उन्होंने मेरे चारों घोड़ों तथा सारथि को भी अवरुद्ध कर दिया तो भी मैं पूर्ववत कवच धारण किये उस समरभूमि में डटा रहा। तत्पश्चात देवताओं और विशेषत: ब्राह्मणों को नमस्कार कर मैं रणभूमि में खडे़ हुए परशुरामजी से मुसकराता हुआ-सा बोला,- ‘ब्रह्मन! यद्यपि आप अपनी मर्यादा छोड़ बैठे हैं तो भी मैंने सदा आपके आचार्यत्व का सम्मान किया है। धर्मसंग्रह-के विषय में मेरा जो दृढ़ विचार हैं, उसे आप पुन: सुन लीजिये।
‘विप्रवर! आपके शरीर में जो वेद हैं, जो आपका महान ब्राह्मणत्व है तथा आपने जो बड़ी भारी तपस्या की है, उन सबके ऊपर मैं बाणों का प्रहार नहीं करता हूँ। ‘राम! आपने जिस क्षत्रिय धर्म का आश्रय लिया है, मैं उसी पर प्रहार करूंगा; क्योंकि ब्राह्मण हथियार उठाते ही क्षत्रियभाव को प्राप्त कर लेता है। ‘अब आप मेरे धनुष की शक्ति और मेरी भुजाओं का बल देखिये। वीर! मैं अपने बाण से आपके धनुष को अभी काट देता हूँ।'
भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर मैंने उनके ऊपर तेज धार वाले एक भल्ल नामक बाण का प्रहार किया और उसके द्वारा उनके धनुष की कोटि को काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इसी प्रकार परशुरामजी के रथ की ओर मैंने गीध की पांख और झुकी हुई गांठ वाले सौ बाण चलाये। वे बाण वायु द्वारा उड़ाये हुए सर्पों की भाँति परशुरामजी के शरीर में धंसकर खून बहाते हुए चल दिये।
राजन! उस समय उनके सारे अंग लहू-लुहान हो गये। जैसे मेरु पर्वत वर्षाकाल में गेरू आदि धातुओं से मिश्रित जल की धार बहाता है, उसी प्रकार उस रणभूमि में अपने अंगों से रक्त की धारा बहाते हुए परशुरामजी शोभा पाने लगे। राजन! जैसे वसन्त ॠतु में लाल फूलों के गुच्छों से अलंकृत अशोक और खिला हुआ पलाश सुशोभित होता है, परशुरामजी की भी वैसी ही शोभा हुई। तब क्रोध में भरे हुए परशुरामजी ने दूसरा धनुष लेकर सोने की पांखों से सुशोभित अत्यन्त तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ की।
वे नाना प्रकार के भयंकर बाण मुझ पर चोट करके मेरे मर्म स्थानों का भेदन करने लगे। उनका वेग महान था। वे सर्प, अग्नि और विष के समान जान पड़ते थे। उन्होंने मुझे कम्पित कर दिया। तब मैंने पुन: अपने आप को स्थिर करके कुपित होकर उस युद्ध में परशुरामजी पर सैकड़ों बाण बरसाये। वे बाण अग्नि, सूर्य तथा विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं तीक्ष्ण थे। उनसे पीड़ित होकर परशुरामजी अचेत-से हो गये।
भारत! तब मैं दया से द्रवित होकर स्वयं ही अपने आप में धैर्य लाकर युद्ध और क्षत्रिय धर्म को धिक्कार देने लगा। राजन! उस समय शोक के वेग से व्याकुल हो मैं बार-बार इस प्रकार कहने लगा- ‘अहो! मुझ क्षत्रिय ने यह बड़ा भारी पाप कर डाला, जो कि धर्मात्मा एवं ब्राह्मण गुरु को इस प्रकार बाणों से पीड़ित किया।' भारत! उसके बाद से मैंने परशुरामजी पर फिर प्रहार नहीं किया। इधर सहस्र किरणों वाले भगवान सूर्य इस पृथ्वी को तपाकर दिन का अन्त होने पर अस्त हो गये; इसलिये वह युद्ध बंद हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में परशुराम और भीष्म का युद्धविषयक एक सौ उन्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
एक सौ अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और परशुराम का घोर युद्ध”
भीष्मजी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर अपने कार्य में कुशल एवं सम्मानित सारथि ने अपने, घोड़ों के तथा मेरे भी शरीर में चुभे हुए बाणों को निकाला। घोडे़ टहलाये गये और लोट-पोट कर लेने पर नहलाये गये; फिर उन्हें पानी पिलाया गया, इस प्रकार जब वे स्वस्थ और शान्त हुए, तब प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: युद्ध आरम्भ हुआ। मुझे रथ पर बैठकर कवच धारण किये शीघ्रतापूर्वक आते देख प्रतापी परशुरामजी ने अपने रथ को अत्यन्त सुसज्जित किया।
तदनन्तर युद्ध की इच्छा वाले परशुरामजी को आते देख मैं अपना श्रेष्ठ धनुष छोड़कर सहसा रथ से उतर पड़ा। भारत! पूर्ववत गुरु को प्रणाम करके अपने रथ पर आरूढ़ हो युद्ध की इच्छा से परशुरामजी के सामने मैं निर्भय होकर डट गया। तदनन्तर मैंने उन पर बाणों की भारी वर्षा की। फिर उन्होंने भी बाणों की वर्षा करने वाले मुझ भीष्म पर बहुत-से बाण बरसाये।
तत्पश्चात जमदग्निकुमार ने पुन: अत्यन्त क्रुद्ध होकर मुझ पर प्रज्वलित मुख वाले सर्पों की भाँति तेज किये हुए भयानक बाण चलाये। राजन! तब मैंने सहसा तीखी धार वाले भल्ल नामक बाणों से आकाश में ही उन सबके सैकड़ों और हजारों टुकडे़ कर दिये। यह क्रिया बारंबार चलती रही।
इसके पश्चात प्रतापी परशुरामजी ने मेरे ऊपर दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया; परंतु महाबाहो! मैंने उनसे भी अधिक पराक्रम प्रकट करने की इच्छा रखकर उन सब अस्त्रों का दिव्यास्त्रों द्वारा ही निवारण कर दिया। उस समय आकाश में चारों ओर बड़ा कोलाहल होने लगा। इसी समय मैंने जमदग्निकुमार पर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। भारत! परशुरामजी ने गुह्यकास्त्र द्वारा मेरे उस अस्त्र को शान्त कर दिया। तत्पश्चात मैंने मन्त्र से अभिमन्त्रित करके आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया; किंतु भगवान परशुराम ने वारुणास्त्र चलाकर उसका निवारण कर दिया।
इस प्रकार मैं परशुरामजी के दिव्यास्त्रों का निवारण करता और शत्रुओं का दमन करने वाले दिव्यास्त्रवेत्ता तेजस्वी परशुराम भी मेरे अस्त्रों का निवारण कर देते थे। राजन! तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए प्रतापी विप्रवर परशुराम ने मुझे बायें लेकर मेरे वक्ष:स्थल को बाण द्वारा बींध दिया। भरतश्रेष्ठ! उससे घायल होकर मैं उस श्रेष्ठ रथ पर बैठ गया, उस समय मुझे मुर्च्छित अवस्था में देखकर सारथि शीघ्र ही अन्यत्र हटा ले गया। भरतश्रेष्ठ! परशुरामजी के बाण से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण मुझे बड़ी व्याकुलता हो रही थी। मैं अत्यन्त घायल और अचेत होकर रणभूमि से दूर हट गया था। भारत! इस अवस्था में मुझे देखकर परशुरामजी के अकृतव्रण आदि सेवक तथा काशिराज की कन्या अम्बा ये सब-के-सब अत्यन्त प्रसन्न हो कोलाहल करने लगे।
इतने ही में मुझे चेत हो गया और सब कुछ जानकर मैंने सारथि से कहा,
भीष्मजी ने कहा ;- ‘सूत! जहाँ परशुरामजी हैं, वहीं चलो। मेरी पीड़ा दूर हो गयी है और अब मैं युद्ध के लिये सुसज्जित हूँ।' कुरुनन्दन! तब सारथि ने अत्यन्त शोभाशाली अश्वों द्वारा, जो वायु के समान वेग से चलने के कारण नृत्य करते-से जान पड़ते थे, मुझे युद्धभूमि में पहुँचाया। कौरव! तब मैंने क्रोध में भरे हुए परशुरामजी के पास पहुँचकर उन्हें जीतने की इच्छा से स्वयं भी कुपित होकर उनके ऊपर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी।
किंतु परशुरामजी ने सीधे लक्ष्य की ओर जाने वाले उन बाणों के आते ही एक-एक को तीन-तीन बाणों से तुरंत काट दिया। इस प्रकार मेरे चलाये हुए वे सब सैकड़ों और हजारों तीखे बाण परशुरामजी के सायकों से कटकर दो-दो टूक होकर नष्ट हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-38 का हिन्दी अनुवाद)
तब मैंने पुन: जमदग्निनन्दन परशुराम की ओर उन्हें मार डालने की इच्छा से एक कालाग्नि के समान प्रज्वलित तथा तेजस्वी बाण छोड़ा। उसकी गहरी चोट खाकर परशुरामजी उस बाण के वेग के अधीन हो समरभूमि में मूर्च्छित हो गये और धरती पर गिर पड़े। परशुराम के पृथ्वी पर गिरते ही मानो आकाश से सूर्य टूटकर गिरे हों, ऐसा समझकर सारा जगत भयभीत हो हाहाकार करने लगा।
कुरुनन्दन! उस समय वे तपोधन और काशिराज की कन्या सब-के-सब अत्यन्त उद्विग्न हो सहसा उनके पास दौडे़ गये और उन्हें हृदय से लगा हाथ फेरकर तथा शीतल जल छिड़ककर विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए सान्त्वना देने लगे। तदनन्तर कुछ स्वस्थ होने पर परशुरामजी उठ गये और धनुष पर बाण चढा़कर विह्वल स्वर में बोले- ‘भीष्म! खडे़ रहो, अब तुम मारे गये।'
उस महान युद्ध में उनके धनुष से छूटा हुआ वह बाण तुरंत मेरी बायीं पसली पर पड़ा, जिससे मैं अत्यन्त उद्विग्न होकर वृक्ष की भाँति झूमने लगा। फिर तो परशुरामजी उस महासमर में शीघ्र छोडे़ हुए अस्त्र द्वारा मेरे घोड़ों को मारकर निर्भय हो मेरे ऊपर पांख से उड़ने वाले बाणों से वर्षा करने लगे। महाबाहो! तत्पश्चात मैंने भी शीघ्रतापूर्वक ऐसे अस्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया, जो युद्धभूमि में विपक्षी की गति को रोक देने वाले थे। मेरे तथा परशुरामजी के बाण आकाश में सब ओर फैलकर मध्यभाग में ही ठहर गये।
उस समय बाणों के समूह से आच्छादित होने के कारण सूर्य नहीं तपता था और वायु की गति इस प्रकार कुण्ठित हो गयी थी, मानो मेघों से अवरुद्ध हो गयी हो। उस समय वायु के कम्पन और सूर्य की किरणों से समस्त बाण परस्पर टकराने लगे। उनकी रगड़ से वहाँ आग प्रकट हो गयी। राजन! वे सभी बाण अपने ही संघर्ष से उत्पन्न हुई अग्नि से जलकर भस्म हो गये और भूमिपर गिर पड़े।
कौरवनरेश! उस समय परशुरामजी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मेरे ऊपर तुरंत ही दस हजार, लाख, दस लाख, अर्बुद, खर्ब और निखर्ब बाणों का प्रहार किया। नरेश्वर! तब मैंने रणभूमि में विषधर सर्प के समान भयंकर सायकों द्वारा उन सब बाणों को वृक्षों की भाँति भूमि पर काट गिराया।
भरतभूषण! इस प्रकार वह युद्ध चलता रहा। संध्याकाल बीतने पर मेरे गुरु रणभूमि से हट गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्व में परशुरामभीष्मयुद्धविषयक एक सौ असीवां अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें