सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इकहत्तरवें अध्याय से एक सो पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 171 chapter to the 175 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन”

  भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजन! भरतनन्‍दन! पांचाल राज द्रुपद का पुत्र शिखण्‍डी शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाला है, मैं उसे युधिष्ठिर की सेना का एक प्रमुख रथी मानता हूँ। भारत! वह तुम्‍हारी सेना में प्रवेश करके अपने पूर्व अपयश का नाश तथा उत्तम सुयश का विस्‍तार करता हुआ बड़े उत्‍साह से युद्ध करेगा। उसके साथ पांचालों और प्रभद्रकों की बहुत बड़ी सेना है। वह उन रथियों के समूह द्वारा युद्ध में महान कर्म कर दिखायेगा। 

   भारत! जो पाण्‍डवों की सम्‍पूर्ण सेना का सेनापति है, वह द्रोणाचार्य का महारथी शिष्‍य धृष्टद्युम्न मेरे विचार से अतिरथी है। जैसे प्रलयकाल में पिनाकधारी भगवान रुद्र कुपित होकर प्रजा का संहार करते हैं, उसी प्रकार यह संग्राम में शत्रुओं का संहार करता हुआ युद्ध करेगा। इसके पास रथियों की जो देवसेना के समान विशाल सेना है, उसकी संख्‍या बहुत होने के कारण युद्ध प्रेमी सैनिक रणक्षेत्र में उसे समुद्र के समान बताते हैं। 

   राजेन्‍द्र! धृष्टद्युम्न का पुत्र क्षत्रधर्मा मेरी समझ में अभी अर्धरथी है। बाल्‍यावस्‍था होने के कारण उसने अस्‍त्र-विद्या में अधिक परिश्रम नहीं किया है। शिशुपाल का वीर पुत्र महाधनुर्धर चेदिराज धृष्‍टकेतु पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर का सम्‍बन्‍धी एवं महारथी है। भारत! यह शौर्यसम्‍पन्‍न चेदिराज अपने पुत्र के साथ आकर महारथियों के लिये सहज साध्‍य महान पराक्रम कर दिखायेगा। राजेन्‍द्र! शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाला क्षत्रिय धर्म परायण क्षत्रदेव मेरे मत में पाण्‍डव-सेना का एक श्रेष्‍ठ रथी है। जयन्‍त, अमितौजा और महारथी सत्‍यजित- ये सभी पांचाल शिरोमणि महामनस्‍वी भरे हुए गजराजों की भाँति समरभूमि में युद्ध करेंगे। 

   पाण्‍डवों के लिये महान पराक्रम करने वाले बलवान शूरवीर अज और भोज दोनों महारथी हैं। वे सम्‍पूर्ण शक्ति लगाकर युद्ध करेंगे और अपने पुरुषार्थ का परिचय देंगे। राजेन्‍द्र! शीघ्रतापूर्वक अस्‍त्र चलाने वाले, विचित्र योद्धा, युद्धकाल में निपुण और दृढ़ पराक्रमी जो पांच भाई केकयराजकुमार हैं, वे सभी उदार रथी माने गये हैं। उन सबकी ध्‍वजा लाल रंग की है। सुकुमार, काशिक, नील, सूर्यदत्त‍, शंख और मदिराश्व नामक ये सभी योद्धा उदार रथी हैं। युद्ध ही इन सबका शौर्यसूचक चिन्‍ह है। मैं इन सभी को सम्‍पूर्ण अस्‍त्रों के ज्ञाता और महामनस्‍वी मानता हूँ। महाराज! वार्धक्षेमि को मैं महारथी मानता हूँ तथा राजा चित्रायुध मेरे विचार से श्रेष्‍ठ रथी हैं। 

   चित्रायुध संग्राम में शोभा पाने वाले तथा अर्जुन के भक्‍त हैं। चेकितान और सत्‍यधृति- ये दो पुरुषसिंह पाण्‍डव सेना के महारथी हैं। मैं इन्‍हें रथियों में श्रेष्‍ठ मानता हूँ। भरतनन्‍दन! महाराज! व्याघ्रदत्त और चन्‍द्रसेन- ये दो नरेश भी मेरे मत में पाण्‍डव सेना श्रेष्‍ठ रथी हैं, इसमें संशय नहीं है। राजेन्‍द्र! राजा सेनाबिन्दु का दूसरा नाम क्रोधहन्‍ता भी है। प्रभो! वे भगवान कृष्ण तथा भीमसेन के समान पराक्रमी माने जाते हैं। वे समरांगण में तुम्‍हारे सैनिकों के साथ पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध करेंगे।

   तुम मुझको, आचार्य द्रोण को तथा कृपाचार्य का जैसा समझते हो, युद्ध में दूसरे वीरों से स्‍पर्धा रखने वाले तथा बहुत ही फूर्ती के साथ अस्‍त्र-शस्‍त्रों का प्रयोग करने वाले प्रशंसनीय एवं उत्तम रथी नरश्रेष्‍ठ काशिराज को भी तुम्‍हें वैसा ही मानना चाहिये। मेरी दृष्टि में शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले काशिराज साधारण अवस्‍था में एक रथी समझना चाहिये; परंतु जिस समय ये युद्ध में पराक्रम प्रकट करने लगते हैं उस समय इन्‍हें रथियों के बराबर मानना चाहिये। द्रुपद का तरुण पुत्र सत्‍यजित सदा युद्ध की स्‍पृहा रखने वाला है। वह धृष्‍टद्युम्न के समान ही अतिरथी का पद प्राप्‍त कर चुका है। वह पाण्‍डवों के यशोविस्‍तार की इच्‍छा रखकर युद्ध में महान कर्म करेगा। 

  पाण्‍डव पक्ष के धुरंधर वीर महापराक्रमी पाण्‍डयराज भी एक अन्‍य महारथी हैं। ये पाण्‍डवों के प्रति अनुराग रखने वाले और शूरवीर हैं। इनका धनुष महान और सुदृढ़ है। ये पाण्‍डव सेना के सम्‍माननीय महारथी हैं। कौरवश्रेष्‍ठ! राजा श्रेणिमान और वसुदान– ये दोनों वीर अतिरथी माने गये हैं। ये शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने में समर्थ हैं। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत रथातिरथ संख्‍यानपर्व में एक सौ इकहत्‍त्‍रवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म का पाण्डव पक्ष के अतिरथी वीरों का वर्णन करते हुए शिखण्डी और पाण्डवों वध न करने का कथन”

   भीष्म जी कहते हैं ;- महाराज! भारत! पाण्डव पक्ष में राजा रोचमान महारथी हैं। वे युद्ध में शत्रुसेना के साथ देवताओं के समान पराक्रम दिखाते हुए युद्ध करेंगे। कुन्तिभोजकुमार राजा पुरूजित जो भीमसेन के मामा हैं, वे भी महाधनुर्धर और अत्यन्त बलवान हैं। मैं इन्हें भी अतिरथी मानता हूँ। इनका धनुष महान है। ये अस्त्रविद्या के विद्वान और युद्धकुशल हैं। रथियों में श्रेष्ठ वीर पुरूजित विचित्र युद्ध करने वाले और शक्तिशाली हैं। 

   जैसे इन्द्र दानवों के साथ पराक्रमपूर्वक युद्ध करते हैं, उसी प्रकार ये भी शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। उनके साथ जो सैनिक आये हैं, वे भी युद्ध की कला में निपुण और विख्यात वीर हैं। वीर पुरूजित पाण्डवों के प्रिय एवं हित में तत्पर होकर अपने भानजों के लिये युद्ध में महान कर्म करेंगे। महाराज! भीमसेन और हिडिम्बा का पुत्र राक्षसराज घटोत्कच बड़ा मायावी है। वह मेरे मत में रथयूथपतियों का भी यूथपति है। उसको युद्ध करना बहुत प्रिय है। तात! वह मायावी राक्षस समरभूमि में उत्साहपूर्वक युद्ध करेगा। उसके साथ जो वीर राक्षस एवं सचिव हैं, वे सब उसी के वश में रहने वाले हैं। ये तथा और भी बहुत से वीर क्षत्रिय जो विभिन्न जन पदों के स्वामी हैं और जिनमें श्रीकृष्ण का सबसे प्रधान स्थान है, पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के लिये यहाँ एकत्र हुए हैं। 

   राजन! ये महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के मुख्य-मुख्य रथी, अतिरथी और अर्धरथी यहाँ बताये गये हैं। नरेश्वर! देवराज इंद्र के समान तेजस्वी किरीटधारी वीर वर अर्जुन के द्वारा सुरक्षित हुई युधिष्ठिर की भयंकर सेना का ये उपर्युक्त वीर समरागंण में संचालन करेंगे। वीर! मैं तुम्हारी ओर से रणभूमि में उन मायावेत्ता और विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों के साथ अपनी विजय अथवा मृत्यु की आकांक्षा लेकर युद्ध करूँगा। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और अर्जुन रथियों में श्रेष्ठ हैं। वे क्रमशः सुदर्शन चक्र और गाण्डीव धनुष धारण करते हैं। वे संध्याकालीन सूर्य और चन्द्रमा की भाँति परस्पर मिलकर जब युद्ध में पधारेंगे, उस समय मैं उनका सामना करूँगा। 

   पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के और भी जो-जो श्रेष्ठ रथी सैनिक हैं, उनका और उनकी सेनाओं का मैं युद्ध के मुहाने पर सामना करूँगा। राजन! इस प्रकार मैंने तुम्हारे इन मुख्‍य-मुख्‍य रथियों और अतिरथियों का वर्णन किया है। इनके सिवा, जो कोई अर्धरथी है, उनका भी परिचय दिया है। कौरवेन्द्र! इसी प्रकार पाण्‍डव पक्ष के भी रथी आदि का दिग्दर्शन कराया गया है। भारत! अर्जुन, श्रीकृष्‍ण तथा अन्य जो-जो भूपाल हैं, मैं उनमें से जितनों को देखूंगा, उन सबको आगे बढ़ने से रोक दूंगा। परंतु महाबाहो! पाञ्चाल राजकुमार शिखण्‍डी को धनुष पर बाण चढा़ये युद्ध में अपना सामना करते देखकर भी मैं नहीं मारूंगा। 

   सारा जगत यह जानता है कि मैं मिले हुए राज्य को पिता का प्रिय करने की इच्छा से ठुकराकर ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़तापूर्वक लग गया। माता सत्यवती के ज्येष्‍ठ पुत्र चित्रांगद को कौरवों के राज्य पर और बालक विचित्रवीर्य को युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया था। सम्पूर्ण भूमण्‍डल में समस्त राजाओं के यहाँ अपने देवव्रत स्वरूप की ख्‍याति कराकर मैं कभी भी किसी स्त्री को अथवा जो पहले स्त्री रहा हो, उस पुरुष को भी नहीं मार सकता। 

   राजन! शायद तुम्हारे सुनने में आया होगा, शिखण्‍डी पहले ‘स्त्रीरूप’ में ही उत्पन्न हुआ था; भारत! पहले कन्या होकर वह फिर पुरुष हो गया था; इसीलिये मैं उससे युद्ध नहीं करूंगा। भरतश्रेष्‍ठ! मैं अन्य सब राजाओं को, जिन्हें युद्ध में पाऊंगा, मारूंगा; परंतु कुन्ती के पुत्रों का वध कदापि नहीं करूंगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत रथातिरथ संख्‍यानपर्व में एक सौ बहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“अम्बोपाख्‍यान का आरम्भ-भीष्‍मजी के द्वारा काशिराज की कन्याओं का अपहरण”

   दुर्योधन ने पूछा ;- भरतश्रेष्‍ठ! जब शिखण्‍डी धनुष बाण उठाये समर में आततायी की भाँति आप को मारने आयेगा, उस समय उसे इस रूप में देखकर भी आप क्यों नहीं मारेंगे? महाबाहु गंगानन्दन! पितामह! आप पहले तो यह कह चुके हैं कि ‘मैं सोमको सहित पंचालों का वध करूंगा’ फिर आप शिखण्‍डी को छोड़ क्यों रहे हैं? यह मुझे बताइये।

   भीष्‍मजी ने कहा ;- दुर्योधन! मैं जिस कारण से समरांगण में प्रहार करते देखकर भी शिखण्‍डी को नहीं मारूंगा, उसकी कथा कहता हूँ, इन भूमिपालों के साथ सुनो,

    भरतश्रेष्‍ठ! मेरे धर्मात्मा पिता लोकविख्‍यात महाराज शान्तनु का जब निधन हो गया, उस समय अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए मैंने भाई चित्रांगद को इस महान राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। तदनन्तर जब चित्रांगद की भी मृत्यु हो गयी, तब माता सत्यवती की सम्मति से मैंने विधिपूर्वक विचित्रवीर्य का राजा के पद पर अभिषेक किया। राजेन्द्र! छोटे होने पर भी मेरे द्वारा अभिषिक्त होकर धर्मात्मा विचित्रवीर्य धर्मत: मेरी ही ओर देखा करते थे अर्थात मेरी सम्मति से ही सारा राजकार्य करते थे। तात! तब मैंने अपने योग्य कुल से कन्या लाकर उनका विवाह करने का निश्‍चय किया। 

   महाबाहो! उन्हीं दिनों मैंने सुना कि काशिराज की तीन कन्याएं हैं, जो सब-की-सब अप्रतिम रूप-सौन्दर्य से सुशोभित हैं और वे स्वयंवर-सभा में स्वयं ही पति का चुनाव करने वाली हैं। उनके नाम हैं अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका। भरतश्रेष्‍ठ! राजेन्द्र! उन तीनों के स्वयंवर के लिये भूमण्‍डल के सम्पूर्ण नरेश आमन्त्रित किये गये थे। उनमें अम्बा सबसे बड़ी थी, अम्बिका मझली थी और राजकन्या अम्बालिका सबसे छोटी थी। स्वयंवर का समाचार पाकर मैं एक ही रथ के द्वारा काशिराज के नगर में गया। महाबाहो! वहाँ पहुँचकर मैंने वस्त्राभूषणों से अलंकृत हुई उन तीनों कन्याओं को देखा। पृथ्‍वीपते! वहाँ उसी समय आ‍मन्त्रित होकर आये हुए सम्पूर्ण राजाओं पर भी मेरी दृष्टि पड़ी। भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर मैंने युद्ध के लिये खडे़ हुए उन समस्त राजाओं को ललकारकर उन तीनों कन्याओं को अपने रथ पर बैठा लिया। 

    पराक्रम ही इन कन्याओं का शुल्क है, यह जानकर उन्हें रथ पर चढा़ लेने के पश्‍चात मैंने वहाँ आये हुए समस्त भूपालों से कहा- ‘नरश्रेष्‍ठ राजाओ! शान्तनुपुत्र भीष्‍म इन राज कन्याओं का अपहरण कर रहा है, तुम सब लोग पूरी शक्ति लगाकर इन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करो; क्योंकि मैं तुम्हारे देखते-देखते बलपूर्वक इन्हें लिये जाता हूं’; इस बात को मैंने बारंबार दुहराया। फिर तो वे महीपाल कुपित हो हाथ में हथियार लिये टूट पड़े और अपने सारथियों को ‘रथ तैयार करो, रथ तैयार करो’ इस प्रकार आदेश देने लगे। 

    वे राजा हाथियों के समान विशाल रथों, हाथियों और हृष्‍ट-पुष्‍ट अश्र्वों पर सवार हो अस्त्र-शस्त्र लिये मुझ पर आक्रमण करने लगे। उनमें से कितने ही हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने वाले थे। प्रजानाथ! तदनन्तर उन सब नरेशों ने विशाल रथ समूह द्वारा मुझे सब ओर से घेर लिया। तब मैंने भी बाणों की वर्षा करके चारों ओर से उनकी प्रगति रोक दी और जैसे देवराज इंद्र दानवों पर विजय पाते हैं, उसी प्रकार मैंने भी उन सब नरेशों को जीत लिया। 

   भरतश्रेष्‍ठ! जिस समय उन्होंने आक्रमण किया उसी समय मैंने प्रज्वलित बाणों द्वारा हंसते-हंसते उनके स्वर्णभूषित विचित्र ध्‍वजों को काट गिराया। फिर एक-एक बाण मारकर मैंने समरभूमि में उनके घोड़ों, हाथियों और सारथियों को भी धराशायी कर दिया। मेरे हाथों की वह फुर्ती देखकर वे पीछे हटने और भागने लगे। वे सब भूपाल नतमस्तक हो गये और मेरी प्रशंसा करने लगे। तत्पश्‍चात मैं राजाओं को परास्त करके उन सबको वहीं छोड़ तीनों कन्याओं को साथ लेकर हस्तिनापुर में आया। 

    महाबाहु भरतनन्दन! फिर मैंने उन कन्याओं को अपने भाई से ब्याहने के लिये माता सत्यवती को सौंप दिया और अपना वह पराक्रम भी उन्हें बताया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में कन्या हरण विषयक एक सौं तिहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ चहौत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“अम्बा का शाल्वराज के प्रति अपना अनुराग प्रकट करके उनके पास जाने के लिये भीष्‍म से आज्ञा मांगना”

  भीष्‍मजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर मैंने वीर-जननी दाशराज की पुत्री माता सत्यवती के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम करके इस प्रकार कहा,- 

‘मां! ये काशिराज की कन्याएं हैं। पराक्रम ही इनका शुल्क था। इसलिये मैं समस्त राजाओं को जीतकर भाई विचित्रवीर्य के लिये इन्हें हर लाया हूँ।' नरेश्‍वर! यह सुनकर माता सत्यवती के नेत्रों में हर्ष के आंसू छलक आये। उन्होंने मेरा मस्तक सूंघकर प्रसन्नतापूर्वक कहा,

   सत्यवती बोली ;- ‘बेटा! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम विजयी हुए।' सत्यवती की अनुमति से जब वि‍वाह का कार्य उपस्थित हुआ, तब काशिराज की ज्येष्‍ठ पुत्री अम्बा ने कुछ लज्जित होकर मुझसे कहा- 

   अम्बा ने कहा ;- ‘भीष्‍म! तुम धर्म के ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण हो। मेरी बात सुनकर तुम्हें मेरे साथ धर्मपूर्ण बर्ताव करना चाहिये। ‘मैंने अपने मन से पहले शाल्वराज को अपना पति चुन लिया है और उन्होंने भी एकान्त में मेरा वरण कर लिया है। यह पहले की बात है, जो मेरे पिता को भी ज्ञात नहीं हैं।

   ‘भीष्‍म! मैं दूसरे की कामना करने वाली राजकन्या हूँ। तुम विशेषत: कुरुवंशी होकर राजधर्म का उल्लघंन करके मुझे अपने घर में कैसे रखोगे? महाबाहु भरतश्रेष्‍ठ! अपनी बुद्धि और मन से इस विषय में निश्चित विचार करके तुम्हें जो उचित प्रतीत हो, वही करना चाहिये। 

   ‘प्रजानाथ! शाल्वराज निश्‍चय ही मेरी प्रतीक्षा करते होंगे; अत: कुरुश्रेष्‍ठ! तुम्हें मुझे उनकी सेवा में जाने की आज्ञा देनी चाहिये। ‘धर्मात्माओं में श्रेष्‍ठ! महाबाहु वीर! मुझ पर कृपा करो। मैंने सुना है कि इस पृथ्‍वी पर तुम सत्यव्रती महात्मा हो।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में अम्बावाक्यविषयक एक सौ चौहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)

एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अम्बा का शाल्व के यहाँ जाना और उससे परित्य‍क्त होकर तापसों के आश्रम में आना, वहाँ शैखावत्य और अम्बा का संवाद”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- नरेश्‍वर! तब मैंने माता गन्धवी काली से आज्ञा ले मन्त्रियों, ॠत्विजों तथा पुरोहितों से पूछकर बड़ी राजकुमारी अम्बा को जाने की आज्ञा दे दी। आज्ञा पाकर राजकन्या अम्बा वृद्ध ब्राह्मणों के संरक्षण में रहकर शाल्वराज के नगर की ओर गयी। उसके साथ उसकी धाय भी थी। उस मार्ग को लांघकर वह राजा के यहाँ पहुँच गयी और शाल्वराज से मिलकर इस प्रकार बोली,
    अम्बा बोली ;- ‘महाबाहो! महामते! मैं तुम्हारे पास ही आयी हूँ। 
‘राजन! मैं सदा तुम्हारे प्रिय और हित में तत्पर रहने वाली हूँ। मुझे अपनाकर आनन्दित करो। नरेश्‍वर! मुझे धर्मानुसार ग्रहण करके धर्म के लिये ही अपने चरणों में स्थान दो। मैंने मन-ही-मन सदा तुम्हारा ही चिन्तन किया है और तुमने भी एकान्त में मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव किया था।'
    प्रजानाथ! अम्बा की बात सुनकर शाल्वराज ने मुसकराते हुए कहा,
शाल्वराज बोले ;- ‘सुन्दरी! तुम पहले दूसरे की हो चुकी हो; अत: तुम्हारी जैसी स्त्री के साथ विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं हैं। ‘भद्रे! तुम पुन: वहाँ भीष्‍म के ही पास जाओ। भीष्‍म ने तुम्हें बलपूर्वक पकड़ लिया था, अत: अब तुम्हें मैं अपनी पत्नी बनाना नहीं चाहता। ‘भीष्‍म ने उस महायुद्ध में समस्त भूपालों को हराकर तुम्हें जीता और तुम्हें उठाकर वे अपने साथ ले गये। तुम उस समय उनके साथ प्रसन्न थीं। ‘वरवर्णिनि! जो पहले और की हो चुकी हो, ऐसी स्त्री को मैं अपनी पत्नी बनाऊं, यह मेरी इच्छा नहीं है। जिस नारी पर पहले किसी दूसरे पुरुष का अधिकार हो गया हो, उसे सारी बातों को ठीक-ठीक जानने वाला मेरे-जैसा राजा जो दूसरों को धर्म का उपदेश करता है, कैसे अपने घर में प्रविष्‍ट करायेगा। भद्रे! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। तुम्हारा यह समय यहाँ व्यर्थ न बीते।' 
राजन! यह सुनकर कामदेव के बाणों से पीड़ित हुई अम्बा शाल्वराज से बोली,
   अम्बा बोली ;- ‘भूपाल! तुम किसी तरह भी ऐसी बात मुंह से न निकालो। शत्रुसूदन! मैं भीष्‍म के साथ प्रसन्नतापूर्वक नहीं गयी थी। उन्होंने समस्त राजाओं को खदेड़कर बलपूर्वक मेरा अपहरण किया था और मैं रोती हुई ही उनके साथ गयी थी। ‘शाल्वराज! मैं निरपराध अबला हूँ। तुम्हारे प्रति अनुरक्त हूँ। मुझे स्वीकार करो; क्योंकि भक्तों का परित्याग किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया है। ‘युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले गंगानन्दन भीष्‍म से पूछकर, उनकी आज्ञा लेकर अत्यन्त उत्कण्‍ठा के साथ मैं यहाँ आयी हुं। ‘राजन! महाबाहु भीष्‍म मुझे नहीं चाहते। उनका यह आयोजन अपने भाई के विवाह के लिये था, ऐसा मैंने सुना है। ‘नरेश्‍वर! भीष्‍म जिन मेरी दो बहिनों-अम्बिका और अम्बालिका को हरकर ले गये थे, उन्हें उन्होंने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य को ब्याह दिया है। ‘पुरुषसिंह शाल्वराज! मैं अपना मस्तक छूकर कहती हूं; तुम्हारे सिवा दूसरे किसी वर का मैं किसी प्रकार भी चिन्तन नहीं करती हूँ। 
    ‘राजेन्द्र शाल्व! मुझ पर किसी भी दूसरे पुरुष का पहले कभी अधिकार नहीं रहा है। मैं स्वेच्छापूर्वक पहले-पहल तुम्हारी ही सेवा में उपस्थित हुई हूँ। यह मैं सत्य कहती हूँ और इस सत्य के द्वारा ही इस शरीर की शपथ खाती हुं। ‘विशाल नेत्रों वाले महाराज! मैंने आज से पहले किसी दूसरे पुरुष को अपना पति नहीं समझा है। मैं तुम्हारी कृपा की अभिलाषा रखती हूँ। स्वयं ही अपनी सेवा में उपस्थित हुई मुझ कुमारी कन्या को धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये।' 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-45 का हिन्दी अनुवाद)

    भरतश्रेष्‍ठ! इस प्रकार अनुनय-विनय करती हुई काशिराज की उस कन्या को शाल्व ने उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे सर्प पुरानी केंचुल को छोड़ देता है। भरमभूषण! इस तरह नाना प्रकार के वचनों द्वारा बार-बार याचना करने पर भी शाल्वराज ने उस कन्या की बातों पर विश्‍वास नहीं किया। तब काशिराज की ज्येष्‍ठ पुत्री अम्बा क्रोध एवं दु:ख से व्याप्त हो नेत्रों से आंसू बहाती हुई अश्रुगद्गद वाणी में बोली- 

  अम्बा बोली ;- ‘राजन! यदि मेरी कही बात निश्चित रूप से सत्य हो तो तुम से परित्यक्त होने पर मैं जहां-जहाँ जाऊं, वहां-वहाँ साधु पुरुष मुझे सहारा देने वाले हों।' कुरुनन्दन! राजकन्या अम्बा करुण स्वर से विलाप करती हुई इसी प्रकार कितनी ही बातें कहती रही; परंतु शाल्वराज ने उसे सर्वथा त्याग दिया। 
  शाल्व ने बारंबार उससे कहा ;- ‘सुश्रोणि! तुम जाओ, चली जाओ, मैं भीष्‍म से डरता हूँ। तुम भीष्‍म के द्वारा ग्रहण की हुई हो।' अदूरदर्शी शाल्व के ऐसा कहने पर अम्बा कुररी की भाँति दीनभाव से रुदन करती हुई उस नगर से निकल गयी।
   भीष्‍मजी कहते हैं ;- राजन्! नगर से निकलते समय वह दु:खिनी नारी इस प्रकार चिन्ता करने लगी- ‘इस पृथ्‍वी पर कोई भी ऐसी युवती नहीं होगी, जो मेरे समान भारी सं‍कट में पड़ गयी हो। ‘भाई-बन्धुओं से तो दूर हो ही गयी हूँ। राजा शाल्व ने भी मुझे त्याग दिया हैं। अब मैं हस्तिनापुर में भी नहीं जा सकती। ‘क्योंकि शाल्व के अनुराग को कारण बताकर मैंने भीष्‍म से यहाँ आने की आज्ञा ली थी। अब मैं अपनी ही निन्दा करूं या उस दुर्जय वीर भीष्‍म को कोसूं? 
   ‘अथवा अपने मूढ़ पिता को दोष दूं, जिन्होंने मेरा स्वयंवर किया। मेरे द्वारा सबसे बड़ा दोष यह हुआ है कि पूर्वकाल में जिस समय वह भयंकर युद्ध चल रहा था, उसी समय मैं शाल्व के लिये भीष्‍म के रथ से कूद नहीं पड़ी। ‘उसी का यह फल प्राप्त हुआ है कि मैं एक मूर्ख स्त्री की भाँति भारी आपत्ति में पड़ गयी हूँ। भीष्‍म को धिक्कार है, विवेकशून्य हृदय वाले मेरे मन्दबुद्धि पिता को भी धिक्कार है, जिन्होंने पराक्रम का शुल्क नियत करके मुझे बाजारू स्त्री की भाँति जनसमूह में निकलने की आज्ञा दी। 
   ‘मुझे धिक्कार है, शाल्वराज को धिक्कार है और विधाता को भी धिक्कार है, जिनकी दुनीतियों से में इस भारी विपत्ति में फंस गयी हुं। 
‘मनुष्‍य सर्वथा वही पाता है जो उसके भाग्य में होता है। मुझ पर जो यह अन्याय हुआ है, उसका मुख्‍य कारण शान्तनुनन्दन भीष्‍म हैं। ‘अत: इस समय तपस्या अथवा युद्ध के द्वारा भीष्‍म से ही बदला लेना मुझे उचित दिखायी देता है; क्योंकि मेरे दु:ख के प्रधान कारण वे ही हैं। 
     ‘परं‍तु कौन ऐसा राजा है जो युद्ध के द्वारा भीष्‍म को परास्त कर सके।’ ऐसा निश्‍चय करके वह नगर से बाहर चली गयी। उसने पुण्‍यशील तपस्वी महात्माओं के आश्रम पर जाकर वहीं वह रात बितायी। उस आश्रम में तपस्वी लोगों ने सब ओर से घेरकर उसकी रक्षा की थी। महाबाहु भरतनन्दन! पवित्र मुस्कान वाली अम्बा ने अपने ऊपर बीता हुआ सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक उन महात्माओं से बताया। किस प्रकार उसका अपहरण हुआ? कैसे भीष्‍म से छुटकारा मिला? और फिर किस प्रकार शाल्व ने उसे त्याग दिया, ये सारी बातें उसने कह सुनायीं। 
   उस आश्रम में कठोर व्रत का पालन करने वाले शैखावत्य नाम से प्रसिद्ध एक तपोवृद्ध श्रेष्‍ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शास्त्र और आरण्‍यक आदि की शिक्षा देने वाले सद्गुरु थे। महातपस्वी शैखावत्य मुनि ने वहाँ सिसकती हुई उस दु:ख शोक परायणा समी साध्‍वी आर्त अबला से कहा- 
  शैखावत्य ने कहा ;- ‘भद्रे! महाभागे! ऐसी दशा में इस आश्रम में निवास करने वाले तप:परायण तपोधन महात्मा तुम्हारा क्या सहयोग कर सकते हैं? राजन! 
   तब अम्बा ने उनसे कहा ;- ‘भगवान! मुझ पर अनुग्रह कीजिये। मैं संन्यासियों जैसा धर्म पालन करना चाहती हूँ। यहाँ रहकर दुष्‍कर तपस्या करूंगी। ‘मुझ मूढ़ नारी ने अपने पुर्व जन्म के शरीर से जो पापकर्म किये थे, अवश्‍य ही उन्हीं का यह दु:खदायक फल प्राप्त हुआ है। 
    ‘तपस्वी महात्माओ! अब मैं अपने स्वजनों के यहाँ फिर नहीं लौट सकती; क्योंकि राजा शाल्व ने मुझे कोरा उत्तर देकर त्याग दिया है, उससे मेरा सारा जीवन आनन्दशून्य (दु:खमय) हो गया है। ‘निष्‍पाप तापसगण! मैं चाहती हूँ कि आप देवोपम साधुपुरुष मुझे तपस्या का उपदेश दें, मुझ पर आप लोगों की कृपा हो।' तब शैखावत्य मुनि ने लौकिक दृष्‍टान्तो, शास्त्रीय वचनों तथा युक्तियों द्वारा उस कन्या को आश्र्वासन देकर धैर्य बंधाया और ब्राह्मणों के साथ मिलकर उसके कार्य-साधन के लिये प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा की। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में शैखावत्य तथा अम्बाका संवादविषयक एक सौ पचहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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