सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो छाछठवें अध्याय से एक सो सत्तरवें अध्याय तक (From the 166 chapter to the 170 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ छाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव पक्ष के रथियों का परिचय”

   भीष्‍म ने कहा‌ ;- राजन! काम्‍बोज देश के राजा सुदक्षिण एक रथी माने जाते हैं। ये तुम्‍हारे कार्य की सिद्धि चाहते हुए समरागंण में शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। नृपश्रेष्‍ठ! रथियों में सिंह के समान पराक्रमी ये काम्बोजराज तुम्‍हारे लिये युद्ध में इन्‍द्र के समान प्रकट करेंगे और समस्‍त कौरव इनके पराक्रम को देखेंगे। महाराज! प्रचण्‍ड वेग से प्रहार करने वाले इन काम्‍बोज नरेश के रथियों के समुदाय में कामबोज देशीय सैनिकों की श्रेणी टिड्डियों के दल-सी द्रष्टिगोचर होती हैं।

    माहिष्‍मतीपुरी के निवासी राजा नील भी तुम्‍हारे दल के एक रथी हैं। इन्‍होंने नीले रंग का कवच पहन रखा है। ये अपने रथ समूह द्वारा शत्रुओं का संहार कर डालेंगे। कुरुनन्‍दन! पूर्वकाल में सहदेव के साथ इनकी शत्रुता हो गयी थी। राजन! ये सदा तुम्‍हारे शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। अवन्‍ती देश के दोनों वीर राजकुमार विंद और अनुविंद श्रेष्‍ठ रथी माने गये हैं। तात! वे युद्धकाल के पण्डित तथा सुदृढ़ बल एवं पराक्रम से सम्‍पन्‍न हैं। ये दोनों पुरुषसिंह अपने हाथ से छूटे हुए गदा, प्रास, खड्ग, नाराच तथा तोमरों द्वारा शत्रुसेना को दग्‍ध कर डालेंगे। 

   महाराज! जैसे दो यूथपति गजराज हाथियों के झुंड में खेल-सा करते हुए विचरते हैं, उसी प्रकार युद्ध की अभिलाषा रखने वाले विंद और अनुविंद समरांगण में यमराज के समान विचरण करते हैं। त्रिगर्त देशीय पाँचों भ्राताओं को मैं उदार रथी मानता हूँ। विराटनगर में दक्षिण गोग्रह के युद्ध के समय चार पाण्‍डवों के साथ इनका वैर बढ़ गया था। राजेन्‍द्र! जैसे ग्राहगण उत्‍ताल तरंगो वाली गंगा को मथ डालते हैं, उसी प्रकार ये त्रिगर्त देशीय पाँचों क्षत्रिय वीर पाण्‍डवों की सेना में हलचल मचा देंगे। महाराज! ये पाँचों भाई रथी हैं और सत्यरथ उनमें प्रधान है। भारत! भीमसेन के छोटे भाई श्‍वेत घोडों वाले पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने दिग्विजय के समय जो त्रिगतों का अप्रिय किया था, उस पहले के वैर को याद रखते हुए ये पाँचों वीर संग्रामभूमि में मन लगाकर युद्ध करें। 

   ये पाण्‍डवों के बड़े महारथियों के पास जाकर उन महाधनुर्धर क्षत्रियशिरोमणि वीरों का संहार कर डालेंगे। तुम्‍हारा पुत्र लक्ष्‍मण और दु:शासन का पुत्र- ये दोनों पुरुषसिंह युद्ध से पलायन करने वाले नहीं हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! ये दोनों तरुण और सुकुमार राजपुत्र बड़े वेगशाली हैं, अनेक युद्धों के विशेषज्ञ हैं और सब प्रकार से सेना नायक होने योग्‍य हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! ये दोनों रथी तो हैं ही, रथियों में श्रेष्‍ठ भी हैं। ये क्षत्रिय धर्म में तत्‍पर होकर युद्ध में महान पराक्रम करेंगे। महाराज! नरश्रेष्‍ठ! अपनी सेना में दण्‍डधार भी एक रथी हैं, जो तम्‍हारे लिये संग्राम में अपनी सेना से सुरक्षित होकर लड़ेंगे। तात! महान वेग और पराक्रम से सम्‍पन्‍न कोसल देश के राजा बृहद्बल भी मेरी द्रष्टि में एक रथी हैं और रथियों में इनका स्‍थान बहुत ऊँचा है। 

   ये धृतराष्‍ट्र के पुत्रों के हित में तत्‍पर हो भंयकर अस्‍त्र-शस्‍त्र तथा महान धनुष धारण किये अपने बन्‍धुओं का हर्ष बढ़ाते हुए समरांगण में बड़े उत्‍साह से युद्ध करेंगे। राजन! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य तो रथ यूथपतियों के भी यूथपति हैं। ये अपने प्‍यारे प्राणों की परवा न करके तुम्‍हारे शत्रुओं को जला डालेंगे। गौतमवंशी महर्षि आचार्य शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य कार्तिकेय की भाँति सरकण्‍डों से उपन्‍न हुए हैं और उन्‍हीं की भाँति अजेय भी हैं। तात! ये नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्र एवं धनुष धारण करने वाली बहुत सी सेनाओं को अग्नि के समान दग्‍ध करते हुए समरभूमि में विचरण करेंगे। 

(इस प्रकार श्री महाभारत उद्योग पर्व के अन्‍तर्गत रथातिरथसंख्‍यान पर्व में एक सौ छासठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ सडसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तटषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन”

   भीष्‍म ने कहा ;- नरेश्‍वर! यह तुम्‍हारा मामा शकुनि भी एक रथी है। यह पाण्‍डवों से वैर बाँधकर युद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है। युद्ध में डटकर शत्रुओं का सामना करने वाले इस शकुनि की सेना दुर्धर्ष है। इसका वेग वायु के समान है तथा यह विविध आकार वाले अनेक आयुधों से विभूषित है। महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्‍थामा तो सभी धनुर्धरों से बढ़कर है। वह युद्ध में विचित्र ढंग से शत्रुओं का सामना करने वाला, सुदृढ तथा महारथी है। महाराज! गाण्‍डीवधारी अर्जुन की भाँति इसके धनुष से एक साथ छूटे हुए बहुत से बाण भी परस्‍पर सटे हुए ही लक्ष्‍य तक पहुँचते हैं। 

  रथियों में श्रेष्‍ठ इस वीर पुरुष के महत्‍व की गणना नहीं की जा सकती। यह महारथी चाहे तो तीनों लोकों को दग्‍ध कर सकता है। इसमें क्रोध है, तेज है और आश्रमवासी महर्षियों के योग्‍य तपस्‍या भी संचित है। इसकी बुद्धि उदार है। द्रोणाचार्य ने सम्‍पूर्ण दिवयास्‍त्रों का ज्ञान देकर इस पर महान अनुग्रह किया है। किंतु भरतश्रेष्‍ठ! नृपशिरोमणे! इसमें एक ही बहुत बड़ा दोष है, जिससे मैं इसे न तो अतिरथी मानता हूँ और न रथी ही। 

इस ब्राह्रम्‍ण को अपना जीवन बहुत प्रिय है, अत: यह सदा दीर्घायु बना रहना चाहता है यही इसका दोष है अन्‍यथा दोनों सेनाओं में इसके समान शक्तिशाली कोई नहीं है। यह एकमात्र रथ का सहारा लेकर देवताओं की सेना का भी संहार कर सकता है। इसका शरीर हष्‍ट-पुष्‍ट एवं विशाल है। यह अपनी ताली की आवाज से पर्वतों को भी विदीर्ण कर सकता है। इस वीर में असंख्‍य गुण हैं। यह प्रहार करने में कुशल और भयंकर तेज से सम्‍पन्‍न है; अत: दण्‍डधारी काल के समान असह्य होकर युद्धभूमि में विचरण करेगा। 

  क्रोध में यह प्रलयकाल की अग्नि के समान जान पड़ता है। इसकी ग्रीवा सिंह के समान है। यह महातेजस्‍वी अश्वत्‍थामा महाभारत-युद्ध के शेषभाग का शमन करेगा। अश्वत्‍थामा के पिता द्रोणाचार्य महान तेजस्‍वी हैं। ये बूढ़े होने पर भी नवयुवकों से अच्‍छे हैं। इस युद्ध में ये अपना महान पराक्रम प्रकट करेंगे, इसमें मुझे संशय नहीं है। समरभूमि में डटे हुए द्रोणाचार्य अग्नि के समान है। अस्‍त्रवेग रूपी वायु का सहारा पाकर ये उद्दीप्‍त होंगे और सेनारूपी घास-फूस तथा ईंधनों को पाकर प्रज्‍जवलित हो उठेंगे। इस प्रकार ये प्रज्‍वलित होकर पाणडु पुत्र युधिष्ठिर की सेनाओं को जलाकर भस्‍म कर डालेंगे। 

   ये नरश्रेष्‍ठ भरद्वाजनन्‍दन रथ यूथपतियों के समुदाय के भी यूथपति हैं। ये तुम्‍हारे हित के लिये तीव्र पराक्रम प्रकट करेंगे। सम्‍पूर्ण मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं के ये आचार्य एवं वृद्ध गुरु हैं। ये सृंजयवंशी क्षत्रियों का विनाश कर डालेंगे; परंतु अर्जुन इन्‍हें बहुत प्रिय है। महाधनुर्धर द्रोणाचार्य का समुज्‍जवल आचार्य भाव अर्जुन के गुणों द्वारा जीत लिया गया है। उसका स्‍मरण करके ये अनायास ही महान कर्म करने वाले कुन्‍ती के पुत्र अर्जुन को कदापि नहीं मारेंगे। 

   वीर! ये आचार्य द्रोण अर्जुन के गुणों का विस्‍तारपूर्वक उल्‍लेख करते हुए सदा उनकी प्रशंसा करते हैं और उन्‍हें पुत्र से भी अधिक प्रिय मानते हैं। प्रतापी द्रोणाचार्य एकमात्र रथ का ही आश्रय ले रणभूमि में एकत्र एवं एकीभूत हुए सम्‍पूर्ण देवताओं, गन्‍धर्वों और मनुष्‍यों को अपने दिव्‍यास्‍त्रों द्वारा नष्‍ट कर सकते हैं। राजन! तुम्‍हारी सेना में जो नृपश्रेष्‍ठ पौरव हैं, वे मेरे मत में रथियों में उदार महारथी हैं। ये विपक्ष के वीर रथियों को पीड़ा देने में समर्थ हैं। 

   राजा पौरव अपनी विशाल सेना के द्वारा शत्रुवाहिनी को संतप्‍त करते हुए पांचालों को उसी प्रकार भस्‍म कर डालेंगे, जैसे आग घास-फूस को। राजन! राजकुमार बृहद्बल भी एक रथी है। संसार में उनकी लंबी कीर्ति का विस्‍तार हुआ है। वे तुम्‍हारे शत्रुओं की सेना में काल के समान विचरेंगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तटषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद)

   राजेन्‍द्र! उनके सैनिक विचित्र कवच और अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण करके तुम्‍हारे शत्रुओं का संहार करते हुए संग्राम भूमि में विचरण करेंगे। कर्ण का पुत्र वृषसेन तुम्‍हारे वैरियों की विशाल वाहिनी को भस्‍म कर डालेगा। राजन! शत्रुवीरों का संहार करने वाले मधुवंशी महातेजस्‍वी जलसंध तुम्‍हारी सेना में श्रेष्‍ठ रथी हैं। ये तुम्‍हारे लिये युद्ध में प्राण तक दे डालेंगे। महाबाहु जलसंध रथ अथवा पीठ पर बैठकर युद्ध करने में कुशल है। ये संग्राम में शत्रु सेना का संहार करते हुए लड़ेंगे। महाराज! नृपश्रेष्‍ठ! ये मेरे रथी ही हैं और इस महायुद्ध में तुम्‍हारे लिये अपनी सेना सहित प्राण त्‍याग करेंगे। 

   राजन! ये समरांगण में महान पराक्रम प्रकट करते हुए‍ विचित्र ढंग से युद्ध करने वाले हैं। ये तुम्‍हारे शत्रुओं के साथ निर्भय होकर युद्ध करेंगे। वाह्लीक अतिरथी वीर हैं। ये युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं। राजन! मैं समरभूमि में इन्‍हें यमराज के समान शूरवीर मानता हूँ। ये रणक्षेत्र में पहुँचकर किसी तरह पीछे पैर नहीं हटा सकते। राजन! ये वायु के समान वेग से रणभूमि में शत्रुओं को मारेंगे। 

 माहराज! रथारूढ़ हो युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाने और शत्रु पक्ष के रथियों को मार भगाने वाले तुम्‍हारे सेनापति सत्यवान भी महारथी हैं।युद्ध देखकर इनके मन में किसी प्रकार भी भय एवं दुख नहीं होता। ये रथ के मार्ग में खड़े हुए शत्रुओं पर हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं। पुरुषश्रेष्‍ठ सत्‍यवान शत्रुओं पर महान पराक्रम दिखाते हैं। ये युद्ध में तुम्‍हारे लिये श्रेष्‍ठ पुरुषों के योग्‍य महान कर्म करेंगे। 

   क्रूरकर्मा राक्षसराज अलम्बुष भी महारथी है। राजन! यह पहले के वैर को याद करके शत्रुओं का संहार करेगा। मायावी, वैरभाव को द्रढ़तापूर्वक सुरक्षित रखने वाला तथा समस्‍त सैनिकों में श्रेष्‍ठ रथी यह अलम्‍बुष संग्रामभूमि में निर्भय होकर विचरेगा। प्राग्ज्‍योतिषपुर के राजा भगदत्त बड़े वीर और प्रतापी हैं। हाथ मे अंकुश लेकर हाथियों को काबू में रखने वाले वीरों में इनका सबसे ऊँचा स्‍थान है। ये रथ युद्ध में भी कुशल हैं। 

   राजन! पहले इनके साथ गाण्‍डीवधारी अर्जुन का युद्ध हुआ था। उस संग्राम में दोनों अपनी-अपनी विजय चाहते हुए बहुत दिनों तक लड़ते रहे। गान्‍धारीकुमार! कुछ दिनों बाद भगदत्त ने अपने सखा इन्‍द्र का सम्‍मान करते हुए महात्‍मा पाण्‍डून्‍न्‍दन अर्जुन के साथ संधि कर ली थी। राजा भगदत्त हाथी की पीठ पर बैठकर युद्ध करने में अत्‍यन्‍त कुशल हैं। ये ऐरावत पर बैठे हुए देवराज इन्‍द्र के समान संग्राम में तुम्‍हारे शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अन्‍तर्गत रथातिरथसंख्‍यान पर्व में एक सौ सडसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का वर्णन, कर्ण और भीष्‍म का रोषपूर्वक संवाद तथा दुर्योधन द्वारा उसका निवारण”

  भीष्‍म कहते हैं ;- अचल और वृषक- ये साथ रहने वाले दोनों भाई दुर्धर्ष रथी हैं, जो तुम्‍हारे शत्रुओं का विध्‍वंस कर डालेंगे। गान्‍धारदेश के ये प्रधान वीर मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी, बलवान, अत्‍यन्‍त क्रोधी, प्रहार करने में कुशल, तरुण, दर्शनीय एवं महाबली हैं। राजन! यह जो तुम्‍हारा प्रिय सखा कर्ण है, जो तुम्‍हें पाण्‍डवों के साथ युद्ध के लिये सदा उत्‍साहित करता रहता है और रणक्षेत्र में सदा अपनी क्रूरता का परिचय देता है, बड़ा ही कटुभाषी, आत्‍मप्रशंसी और नीच है। यह कर्ण तुम्‍हारा मन्‍त्री, नेता और बन्‍धु बना हुआ है। यह अभिमानी तो है ही, तुम्‍हारा आश्रय पाकर बहुत ऊँचे चढ़ गया है। 

    यह कर्ण युद्धभूमि में न तो अतिरथी है और न रथी ही कहलाने योग्‍य है, क्‍योंकि यह मूर्ख अपने सहज कवच तथा दिव्‍य कुण्‍डलों से हीन हो चुका है। यह दूसरों के प्रति सदा घृणा का भाव रखता है। परशुरामजी के अभिशाप से, ब्राह्रम्‍ण की शापोक्ति से तथा विजयसाधक उपर्युक्‍त उपकरणों को खो देने से मेरी द्रष्टि में यह कर्ण अधिरथी है। अर्जुन से भिड़ने पर यह कदापि जीवित नहीं बच सकता। 

   यह सुनकर समस्‍त शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य भी बोल उठे ‘आप जैसा कहते हैं, बिल्‍कुल ठीक है। आपका यह मत कदापि मिथ्‍या नहीं है।' ‘यह प्रत्‍येक युद्ध में घमंड तो बहुत दिखाता है; परंतु वहाँ से भागता ही देखा जाता है। कर्ण दयालु और प्रमादी है। इसलिये मेरी राय में भी यह अर्धरथी। यह सुनकर राधानंदन कर्ण क्रोध से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगा और अपने वचनरूपी चाबुक से पीड़ा देता हुआ भीष्‍म से बोला‌- 

  कर्ण बोला ;- ’पितामह! यद्यपि मैंने तुम्‍हारा कोई अपराध नहीं किया है तो भी सदा मुझसे द्वेष रखने के कारण तुम इसी प्रकार पग-पग पर मुझे अपने बाग्बाणों द्वारा इच्‍छानुसार चोट पहुँचाते रहते हो। मैं दुर्योधन के कारण यह सब कुछ चुपचाप सह लेता हूँ, परंतु तुम मुझे मूर्ख और कायर के समान समझते हो। तुम मेरे विषय में जो अर्धरथी होने का मत प्रकट कर रहे हो, इससे सम्‍पूर्ण जगत को नि:संदेह ऐसा ही प्रतीत होने लगेगा; क्‍योंकि सब यही जानते हैं कि गंगानन्‍दन भीष्‍म झूठ नहीं बोलते। तुम कौरवों का सदा अहित करते हो; परंतु राजा दुर्योधन इस बात को नहीं समझते हैं। तुम मेरे गुणों के प्रति द्वेष रखने के कारण जिस प्रकार राजाओं की मुझ पर विरक्ति कराना चाहते हो, वैसा प्रयत्‍न तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है? इस समय युद्ध का अवसर उपस्थित है और समान श्रेणी के उदारचरित राजा एकत्र हुए हैं; ऐसे अवसर पर आपस में भेद (फूट) उत्‍पन्‍न करने की इच्‍छा रखकर कौन पुरुष अपने ही पक्ष के योद्धा का इस प्रकार तेज और उत्‍साह नष्‍ट करेगा? कौरव! केवल बड़ी अवस्‍था हो जाने, बाल पक जाने, अधिक धन का संग्रह कर लेने तथा बहुसंख्‍यक भाई-बन्‍धुओं के होने से ही किसी क्षत्रिय को महारथी नहीं गिना जा सकता। क्षत्रिय जाति में जो बल में अधिक हो, वही श्रेष्‍ठ माना गया है। ब्राह्मण वेदमन्‍त्रों के ज्ञान से, वैश्‍य अधिक धन से और शूद्र अधिक आयु होने से श्रेष्‍ठ समझे जाते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

  तुम राग-द्वेष से भरे हुए हो; अत: मोहवश मनमाने ढंग से रथी-अतिरथियों का विभाग कर रहे हो। महाबाहु दुर्योधन! तुम अच्‍छी तरह विचार कर‍के देख लो। ये भीष्‍म दुर्भाव से दूषित होकर तुम्‍हारी बुराई कर रहे हैं। तुम इन्‍हें अभी त्‍याग दो। नरेश्‍वर! पुरुषसिंह! एक बार सेना में फूट पड़ जाने पर उसमें पुन: मेल करना कठिन हो जाता है। उस दशा में मौलिक सेवक भी हाथ से निकल जाते हैं। फिर जो भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों के लोग किसी एक कार्य के लिये उद्यत होकर एकत्र हुए हों, उनकी तो बात ही क्‍या है?

   भारत! इन योद्धाओं में युद्ध के अवसर पर दुविधा उत्‍पन्‍न हो गयी है। तुम प्रत्‍यक्ष देख रहे हो, हमारे तेज और उत्‍साह की विशेषरूप से हत्‍या की जा रही है। कहाँ रथियों को समझना और कहाँ अल्‍पबुद्धि भीष्‍म? मैं अकेला ही पाण्‍डवों की सेना को आगे बढ़ने से रोक दूंगा। 

  मेरे बाण अमोघ हैं। मेरे सामने आकर पाण्‍डव और पांचाल उसी प्रकार दसों दिशाओं में भाग जायेंगें, जैसे सिंह को देखकर बैल भागते हैं। कहाँ युद्ध, मारकाट और गुप्‍त मंत्रणा में अच्‍छी बातें बताने को कार्य और कहाँ काल प्रेरित मन्‍दबुद्धि भीष्‍म, जिनकी आयु समाप्‍त हो चुकी है। ये अकेले ही सदा सम्‍पूर्ण जगत के साथ स्‍पर्धा रखते हैं और अपनी व्‍यर्थ दृष्टि के कारण दूसरे किसी को पुरुष ही नहीं समझते हैं। 

   वृद्धों की बातें सुननी चाहिये; यह शास्‍त्र का आदेश है। परंतु जो अत्‍यन्‍त बूढे़ हो गये हैं, उनकी बातें श्रवण करने योग्‍य नहीं है; क्‍योंकि वे तो फिर बालकों के ही समान माने गये हैं। नृपश्रेष्‍ठ! मैं इस युद्ध में अकेला ही पाण्‍डवों की सेना का  विनाश करूंगा; परंतु सारा यश भीष्‍म को मिल जायेगा। 

   नरेश्‍वर! तुमने इन भीष्‍म को ही सेनापति बनाया है। विजय का यश सेनापति को ही प्राप्‍त होता है; योद्धाओं को किसी प्रकार नहीं मिलता। अत: राजन! मैं भीष्‍म के जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूंगा; परंतु भीष्‍म के मारे जाने पर सम्‍पूर्ण महारथियों के साथ टक्‍कर लूंगा। 

  भीष्‍म ने कहा ;- सूतपुत्र! इस युद्ध में दुर्योधन का यह समुद्र के समान अत्‍यन्‍त गुरुतर भार मैंने अपने कंधो पर उठाया है। जिसके लिये मैं बहुत वर्षों से चिन्तित हो रहा था, वह संतापदायक रोमांचकारी समय अब आकर उपस्थित हो ही गया, ऐसे अवसर में मुझे यह पारस्‍परिक भेद नहीं उत्‍पन्‍न करना चाहिये, इसीलिये तू अभी तक जी रहा है। सूतकुमार! यदि ऐसी बात न होती तो मैं वृद्ध होने पर भी पराक्रम करके आज तुझ बालक की युद्ध विषयक श्रद्धा और जीवन की आशा का एक ही साथ उच्‍छेद कर डालता। 

   जमदग्निन्‍दन परशुराम ने मेरे ऊपर बड़े-बड़े़ अस्‍त्रों का प्रयोग किया था; परंतु वे भी मुझे कोई पीड़ा न दे सके। फिर तू तो मेरा कर ही क्‍या लेगा? नीचकुलांगार! साधु पुरुष अपने बल की प्रशंसा करना कदापि अच्‍छा नहीं मानते हैं, तथापि तेरे व्‍यवहार से संतप्‍त होकर मैं अपनी प्रशंसा की बात भी कह रहा हूँ। काशिराज के यहाँ स्‍वंयवर में समस्‍त भूमण्‍डल के क्षत्रिय नरेश एकत्र हुए थे, परंतु मैंने केवल एक रथ पर ही आरूढ़ होकर उन स‍बको जीतकर बलपूर्वक काशिराज की कन्‍याओं का अपहरण किया था। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद)

   यहाँ जो लोग एकत्र हुए हैं, ऐसे तथा इनसे भी बढ़-चढ़कर पराक्रमी हजारों नरेश वहाँ एकत्र थे; परंतु मैंने समारांगण में अकेले ही उन सबको सेनाओं सहित परास्‍त कर दिया था। तू वैर का मूर्तिमान स्‍वरूप है। तेरा सहारा पाकर कुरुकुल के विनाश के लिये बहुत बड़ा अन्‍याय उपस्थित हो गया है। अब तू रक्षा का प्रबन्‍ध कर और पुरुषत्‍व का परिचय दे। दुर्मते! तू जिसके साथ सदा स्‍पर्धा रखता है, उस अर्जुन के साथ समरभूमि में युद्ध कर। मैं देखूंगा कि तू इस संग्राम से किस प्रकार, बच पाता है? तदनन्‍तर प्रतापी राजा दुर्योधन ने भीष्‍मजी से कहा-

    दुर्योधन बोला ;- गंगानन्‍दन! आप मेरी ओर देखिये; क्‍योंकि इस समय महान कार्य उपस्थित है। आप एकाग्रचित्त होकर मेरे परम कल्‍याण की बात सोचिये। आप और कर्ण दोनों ही मेरा महान कार्य सिद्ध करेंगे। अब मैं पुन: शत्रुपक्ष के श्रेष्‍ठ रथियों, अतिरथियों तथा रथ यूथपतियों का परिचय सुनना चाहता हूँ। कुरुनन्‍दन! शत्रुओं के बलाबल को सुनने की मेरी इच्‍छा है। आज की रात बीतते ही कल प्रात:काल यह युद्ध प्रारम्‍भ हो जायेगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत भीष्‍म कर्ण संवादविषयक एक सौ अडसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डव पक्ष के रथी आदि का एवं उनकी महिमा का वर्णन”

   भीष्‍मजी कहते हैं ;- नरेश्‍वर! ये तुम्‍हारे पक्ष के रथी, अतिरथी और अर्धरथी बताये गये हैं। राजन! अब तुम पाण्‍डव पक्ष के रथी आदि का वर्णन सुनो। नरेश! अब यदि पाण्‍डवों की सेना के विषय में भी जानकारी करने के लिये तुम्‍हारे मन में कौतूहल हो तो इन भूमिपालों के साथ तुम उनके रथियों की गणना सुनो। तात! कुन्‍ती का आनंद बढ़ाने वाले स्‍वयं पाण्‍डुपुत्र राजा युधिष्ठिर एक श्रेष्‍ठ रथी (महारथी) हैं। वे समरभूमि में अग्नि के समान सब ओर विचरेंगे, इसमें संशय नहीं है। राजेन्‍द्र! भीमसेन तो अकेले आठ रथियों के बराबर हैं। गदा और बाणों द्वारा किये जाने वाले युद्ध में उनके समान दूसरा कोई योद्धा नहीं है। उनमें दस हजार हाथियों का बल है। वे बड़े ही मानी तथा अलौकिक तेज से सम्‍पन्‍न हैं। 

   माद्री के दोनों पुत्र अश्विनीकुमारों के समान रूपवान और तेजस्‍वी हैं। वे दोनों ही पुरुषरत्‍न रथी हैं। ये चारों भाई महान क्‍लेशों का स्‍मरण करके तुम्‍हारी सेना में घुसकर रुद्रदेव के समान संहार करते हुए विचरेंगे; इस विषय में मुझे संशय नहीं है। ये सभी महामना पाण्‍डव शालवृक्ष के स्‍तम्‍भों के समान ऊँचे हैं। उनकी ऊँचाई का मान पुरुषों से एक बित्‍ता अधिक है।

    सभी पाण्‍डव सिंह के समान सुगठित शरीर वाले और महान बलवान हैं। तात! उन सबने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है, पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी पाण्‍डव तपस्‍वी, लज्‍जाशील और व्‍याघ्र के समान उत्‍कृट बलशाली हैं। भरतश्रेष्‍ठ! वे वेग, प्रहार और संघर्ष में अमानुषिक शक्ति से सम्‍पन्‍न हैं। उन सबने दिग्विजय के समय बहुत से राजाओं पर विजय पायी है। कुरुनान्‍दन! इनके आयुधों, गदाओं और बाणों का आघात कोई भी नहीं सह सकते हैं। इनके सिवा न तो कोई इनके धनुष पर प्रत्‍यंचा ही चढ़ा पाते हें, न युद्ध में इनकी भारी गदा को ही उठा सकते हैं ओर न इनके बाणों का ही प्रयोग कर सकते हैं। वेग से चलने, लक्ष्‍य-भेद करने; खाने पीने तथा धूलि-क्रीडा करने आदि में उन सबने बाल्‍यावस्‍था में भी तुम्‍हें पराजित कर दिया था। 

  इस सेना में आकर वे सभी उत्‍कृट बलशाली हो गये हैं। युद्ध में आने पर वे तुम्‍हारी सेना का विध्‍वंस कर डालेंगे। मैं चाहता हूँ उनसे कहीं भी तुम्‍हारा मुठभेड न हो। उनमें से एक-एक में इतनी शक्ति है कि वे समस्‍त राजाओं का युद्ध में संहार कर सकते हैं। राजेन्‍द्र! राजसूय-यज्ञ में जैसा जो कुछ हुआ था, वह सब तुमने अपनी आंखो से देखा था। 

  द्यूतक्रीड़ा के समय द्रौपदी को जो महान क्‍लेश दिया गया और पाण्‍डवों के प्रति कठोर बातें सुनायी गयीं, उन स‍बको याद करके वे संग्रामभूमि में रुद्र के समान विचरेंगे। लाल नेत्रों वाले निद्राविजयी अर्जुन के सखा और सहायक नारायणस्‍वरूप भगवान श्रीकृष्ण हैं। कौरव-पाण्‍डव दोनों सेनाओं में अर्जुन के समान वीर रथी दूसरा कोई नहीं है। समस्‍त देवताओं, असुरों, नागों, राक्षसों तथा यक्षों में भी अर्जुन के समान कोई नहीं है; फिर मनुष्‍यों में तो हो ही कैसे सकता है? भूत या भविष्‍य में भी कोई ऐसा रथी मेरे सुनने में नहीं आया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद)

  महाराज! बुद्धिमान अर्जुन का रथ जुता हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण उसके सा‍रथी और युद्धकुशल धनंजय रथी हैं। दिव्‍य गाण्डीव धनुष है, वायु के समान वेगशाली अश्‍व हैं, अभेद्य दिव्‍य कवच है तथा बाणों से भरे हुए दो महान तरकस हैं। उस रथ में अस्‍त्रों के समुदाय- महेन्‍द्र, रुद्र, कुबेर, यम एवं वरुण सम्‍बन्‍धी अस्‍त्र हैं, भंयकर दिखायी देने वाली गदाएं हैं। 

   वज्र आदि भाँति-भाँति के श्रेष्‍ठ आयुध भी उस रथ में विद्यमान हैं। अर्जुन ने युद्ध में एकमात्र उस रथ की सहायता से हिरण्‍यपुर में निवास करने वाले सहस्‍त्रों दानवों का संहार किया है। उसके समान दूसरा कौन रथ हो सकता है? वह बलवान, सत्‍यपराक्रमी, महाबाहु अर्जुन क्रोध में आकर तुम्‍हारी सेना का संहार करेंगे और अपनी सेना की रक्षा में संलग्‍न रहेंगे। मैं अथवा द्रोणाचार्य ही धनंजय का सामना कर सकते हैं। राजेन्‍द्र! दोनों सेनाओं में तीसरा कोई ऐसा रथी नहीं है, जो बाणों की वर्षा करते हुए अर्जुन के सामने जा सके। 

   ग्रीष्‍मऋतु के अन्‍त में प्रचण्‍ड वायु से प्रेरित महामेघ की भाँति श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हैं। सह अस्‍त्रों का विद्वान और तरुण भी है। इधर हम दोनों वृद्ध हो चले हैं। 

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! भीष्‍म की यह बात सुनकर पाण्‍डवों के पुरातन बल-पराक्रम को प्रत्‍यक्ष देखने की भाँति स्‍मरण करके राजाओं की सुवर्णमय भुजबंदों से विभूषित चन्‍दन चर्चित स्‍थूल भुजाएं एवं मन भी आवेगयुक्‍त होकर शिथिल हो गये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत रथातिरथ संख्‍यानपर्व में पाण्‍डव पक्ष के रथियों और अतिथियों की संख्‍याविषयक एक सौ उनहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डव पक्ष के रथियों और महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा”

  भीष्‍मजी कहते हैं ;- महाराज! द्रौपदी के जो पांच पुत्र हैं, वे सबके सब महारथी हैं। विराट पुत्र उत्तर को मैं उदार रथी मानता हूँ। महाबाहु अभिमन्‍यु रथ-यूथपतियों का भी यूथपति है। वह शत्रुनाशक वीर समरभूमि में अर्जुन और श्रीकृष्‍ण के समान पराक्रमी है। उसने अस्‍त्रविद्या की विधिवत शिक्षा प्राप्‍त की है। वह युद्ध की विचित्र कलाएं जानता है तथा दृरढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाला और मनस्‍वी है। वह अपने पिता के क्‍लेश को याद करके अवश्‍य पराक्रम दिखायेगा। 

   मधुवंशी शूरवीर सात्‍यकि भी रथ-यूथपतियों के भी यूथपति हैं। वृष्णिवंश के प्रमुख वीरों में ये सात्‍यकि बड़े ही अमर्षशील हैं। इन्‍होंने भय को जीत लिया। राजन! उत्तमौजा को भी मैं उदार रथी मानता हूँ। पराक्रमी युधामन्यु भी मेरे मत में एक श्रेष्‍ठ रथी हैं। इनके कई हजार रथ, हाथी और घोडे़ हैं, जो कुन्‍ती के पुत्र युधिष्ठिर का प्रिय करने की इच्‍छा से अपने शरीर को निछावर करके युद्ध करेंगे। भारत! राजेन्‍द्र! वे पाण्‍डवों के साथ तुम्‍हारी सेना में प्रवेश करके एक-दूसरे का आह्वान करते हुए अग्नि और वायु की भाँति विचरेंगे। वृद्ध राजा विराट और द्रुपद भी युद्ध में अजेय हैं। इन दोनों महापराक्रमी नरश्रेष्‍ठ वीरों को मैं महारथी मानता हूँ।

   यद्यपि ये दोनों अवस्‍था की दृष्टि से बहुत बूढे हैं, तथापि क्षत्रिय-धर्म का आश्रय ले वीरों के मार्ग में स्थित हो अपनी शक्तिभर युद्ध करने का प्रयत्‍न करेंगें। राजेन्‍द्र! वे दोनों नरेश वीर्य और बल से संयुक्‍त श्रेष्‍ठ पुरुषों के समान सदाचारी और महान धनुर्धर हैं। पाण्‍डवों के साथ सम्‍बन्‍ध होने के कारण वे दोनों उनके स्‍नेह बन्‍धन में बंधे हुए हैं। 

   कुरुश्रेष्‍ठ! कोई कारण पाकर प्राय: सभी महाबाहु मानव शूर अथवा कायर हो जाते हैं। परंतप! दृढ़तापूर्वक धनुष धारण करने वाले राजा विराट और द्रुपद एकमात्र वीरपथ का आश्रय ले चुके हैं। वे अपने प्राणों का त्‍याग करके भी पूरी शक्ति से तुम्‍हारी सेना के साथ टक्‍कर लेंगे। वे दोनों युद्ध में बड़े भयंकर हैं, अत: अपने सम्‍बन्‍ध की रक्षा करते हुए पृथक-पृथक अक्षौहिणी सेना साथ लिये महान पराक्रम करेंगे। भारत! महान धनुर्धर तथा जगत के सुप्रसिद्ध वीर वे दोनों नरेश अपने विश्‍वास और सम्‍मान की रक्षा करते हुए शरीर की परवा न करके यु‍द्धभूमि में महान पुरुषार्थ प्रकट करेंगे। 

(इस प्रकार श्री महाभारते उद्योगपर्वणि रथातिरथसंख्‍यानपर्व में एक सौ सत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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